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है। यहांपर सिन्धु-शब्दका अर्थ समुद्रके सिवाय हिमवन कुलाचल भी समझना चाहिये । क्योंकि सिन्धुनदी जिसमेंसे उत्पन्न होती है वह पाहृद हिमवन् पर्वतपर ही है । और चक्रवर्तीके राज्यकी समिामें भी तीन तरफ समुद्र और एक तरफ हिमवन् ही है।
अर्धचक्रवर्तिपदकी भी प्राप्ति निदानके साथ किये गये धर्मके ही माहात्म्यसे होती है । यही बात उदाहरणके साथ दिखाते हैं
छित्त्वा रणे शत्रुशिरस्तदस्तचक्रेण दृप्यन् धरणी त्रिखण्डाम् ।
बलानुगो भोगवशो भुनाक्त कृष्णो वृषस्यैव विजृम्भितेन ॥४२॥ कृष्णन बल-पराक्रम अथवा बलभद्रका अनुगमन और दर्प -गर्वको प्राप्त कर प्रतिवासुदेवके शिरको उसके द्वारा चलाये हुए चक्रके द्वारा रणमें काटकर जो तीनखण्ड पृथिवीको-भरतक्षेत्रके विजयार्ध पर्वत तकके उस आधे भागको कि, जिसके गंगा और सिंधु नदीके द्वारा छह खंड होगये हैं, प्राप्त किया एवं पुष्पमाला वनिता नागशय्या आदिको जो भोगा सो सब किसके प्रतापसे ? एक निदानसहित किये गये तपके द्वारा संचित पूर्व पुण्यके प्रतापसे ही न!
यहांपर नारायणके इस भोगका कारण धर्मके विज़ाम्भितको बताया है । विजृम्भित शब्दका अभिप्राय यहांपर निराशिय पुण्य लेना चाहिये । निरतिशय पुण्य उसको कहते हैं कि जिसके उदयसे ऐसा सुख प्राप्त हो कि जिसका अंत दुःखरूप हो । नारायणका पुण्य भी ऐसा ही होता है। क्योंकि भोगोंके अंतमें उसको नियमसे नरक प्राप्त होता है।
अब यह बताते हैं कि कामदेव पर्याय प्राप्त करना भी धर्मविशेषका ही फल है
अध्याय
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