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अनगार
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अध्याय
पूर्वकृत पुण्य उदय में आकर इन्द्रियों के योग्य और मनोज्ञ तथा भोग्य विषयोंको भोक्ता के निकट या दूर कहीं भी उत्पन्न करदिया करता है । अथवा यदि भोक्ता के उत्पन्न होनेसे पहले ही वे पदार्थ उत्पन्न हो चुके हों तो उनको उसके अधीन करदेता है - प्राप्त करता है । यद्वा जहां पर वे पदार्थ हैं वहींपर उनकी मित्रकी तरहसे रक्षा किया करता है, एवं जहांपर वे स्थित हैं वहांसे उनको लाकर अथवा स्वयं उस भोक्ता मनुष्यको ही उनके स्थानपर ले जाकर यथेष्ट रूपसे उन पदार्थोंका भोग कराता है ।
इस प्रकार नाना प्रकारके शुभ परिणामोंसे संचित किये हुए पुण्यविशेषका अतिशयित तथा विचित्र फलका सामान्यसे निरूपण कर अब विशेष रूपसे उसका पारलौकिक विचित्र फल बताते हैं। जिसमें यहांपर सबसे पहले स्वर्गलोकसम्बन्धी सुखका निरूपण करते हैं: -
यदिव्यं वपुराप्य मङ्क्षु हृषितः पश्यन् पुरा सत्कृतं, द्राग्बुद्ध्वावधिना यथास्वममरानादृत्य सेवाद्यतान् । सुप्रीतो जिनयज्वना धुरि परिस्फूर्जन्नुदारश्रियां, स्वाराज्यं भजते चिराय विलसन् धर्मस्य सोनुग्रहः ॥ ४० ॥
जो उपपादशिलापर उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्तमें ही पूर्ण होजाता है ऐसे वैक्रियिक शरीरको प्राप्त कर जो देव अपने चारो तरफ खड़े हुए देवियों देवों तथा अप्सराओंको देखकर विस्मयको प्राप्त होजाता किंतु उसी समय उत्पन्न हुए अतीन्द्रिय अवधिज्ञान के द्वारा शुभ परिणामोंसे संचित तथा स्वर्गफलको देनेवाले पूर्वकृत पुयको जानकर, सेवा करनेकेलिये तयार खड़े हुए प्रतीन्द्र सामानिक आदि देवोंमेंसे जो जिस योग्य है उसको उसी कामपर नियुक्त कर और अत्यंत प्रसन्न होकर अर्हत भगवान्की पूजा करनेवालोंमें जो उदार - महान ऋद्धिके धारण करनेवाले देवोंके मनमें भी चमत्कार पैदा करदे ऐसी श्री-अणिमा आदिक अष्टगुण