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अनगार
न वनस्पतयोप्येते नैव दिव्यैरधिष्ठिताः।
केवलं पृथिवीसारास्तन्मयत्वमुपागताः॥ कल्पवृक्ष न वनस्पतिरूप हैं और न दिव्य-देवोपनीत शक्तिसे ही युक्त हैं। केवल पृथिवीके बने हुए परिणामविशेष हैं जो कि वृक्षस्वरूपको प्राप्त करलेते हैं।
___ जो जिस जातिका कल्पवृक्ष है उससे उसके अनुसार मद्य तूर्य वस्त्र आदि भोगोपभोगके साधनभूत पदार्थ वचनसे याचना करनेपर प्राप्त हुआ करते हैं। इस प्रकारके कल्पवृक्ष जिसके नौकरके समान हैं; और चिंतामाण रत्न जिसके कमकर-गुलामके सदृश है; एवं कामधेनु गौ जिसकी दासी है, वह धर्म, ऐसा कौनसा कार्य है कि जिसको सिद्ध करनेमें पूर्णतया समर्थ न हो । अर्थात् धर्मके प्रसादसे मोक्ष तथा संसारके अभ्युदय सभी कार्य सिद्ध हो सकते हैं।
उदयमें आया हुआ पूर्वकृत पुण्य अपने प्रयोक्ता-पुण्यशालाका किसी न किसी तरहसे उपकार करता ही है यही बात दिखाते हैं:
प्रियान दूरेप्याञ्जनयति पुरो वा जनिजुषः, करोति स्वाधीनान् सखिवदथ तत्रैव दयते । ततस्तान्वानीय स्वयमपि तदुद्देशमथवा,
नरं नीत्वा काम रमयात पुरापुण्यमुदितम् ॥ ३९॥ उदयमें आया हुआ पूर्वकृत पुण्य अपने प्रयोक्ता-पुण्यशालीका किसी न किसी तरहसे उपकार करता ही है। यही बात दिखाते हैं:
१-चिंतित पदाथोंको देनेवाला और रोहणादिमें उत्पन्न होनेवाला रत्नविशेष । .
अध्याय