________________
अनगार
जिनके पुण्य कर्मका उदय है उनको कामकेलिये परिश्रम करनेका निषेध करते हैं:- .
विश्राम्यत स्फुरत्पुण्या गुडखण्डासतामृतैः ।
स्पईमानाः फलिष्यन्ते भावाः स्वयमितस्ततः ॥ ३७॥ हे स्फुरायमान पुण्यके धारण करनेवालो! जरा विश्राम लो! तुमको स्वार्थ सिद्धिकालिये क्लेश कर परिश्रम करनेकी आवश्यकता नहीं है । क्योंकि गुड खांड मिश्री और अमृतके साथ स्पर्धा रखनेवाले पदार्थ तुमको स्वयं -विना किसी परिश्रमके ही इधर उधरसे आकर प्राप्त हो जायगे।
भावार्थ-अनुभागबंधके तारतम्यकी अपेक्षासे पुण्यकर्म चार प्रकारका है। एक तो ऐसा कि जीव जिस समय उसको बांधता है उस समय परिणामविशेषके द्वारा उसमें गुडके समान रस पडता है। दूसरा वह कि जिसमें खांडके समान रस पडता है। तीसरा वह कि जिसमें मिश्रीके समान रस पडता है। इसी प्रकार चौथा वह कि जिसमें अमृतके समान रस पडता है । इन कर्मोंका यथासमय उदय होनेपर तत्तत्पदार्थोंके ही समान स्वादु और रमणीय फलरूप पदार्थ स्वयं प्राप्त हुआ करते हैं। अत एव उनकी प्राप्तिकेलिये परिश्रम करनेकी आवश्यकता नहीं है। कल्पवृक्षादिककी भी प्राप्ति धर्म-पुण्यके ही आधीन है। यही बात दिखाते हैं:
धर्म: क नालंकीणो यस्य भृत्याः सुरद्रुमाः।
चिन्तामाणिः कर्मकरः कामधेनुश्च किङ्करी ॥ ३८ ॥ पृथ्वीके बने हुए वृक्षविशेषोंको कल्पवृक्ष कहते हैं। जैसा कि आगममें भी कहा है:
अध्याय