Book Title: Savruttik Aagam Sootraani 1 Part 06 Sthan Mool evam Vrutti Part 2
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Vardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजामा नमो नमो निम्मलदसणस्स भाग पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि 06 आगम - ०३ 'स्थान' मुलं एवं वृत्ति: [२] आजम आजम आजमा आजमा मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) पूज्य शासनप्रभावक आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से। ''वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता श्री आगम मंदिर पालिताणा OSTEOFEOHICE SoEOSTORIE MarriarchbLSAbotheioidiiadodara SNETS ~ 2 ~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता hine ASE RAMA SELodientics पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी EM.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 198253062751 ~3~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजम HISTA 37TOTHE आजार उराराम लीम SEMEN SIMILA आजम आगम आजम आगम cardiers doINTE आशाराम आजम हम जिस SITSINT आगम GFR 2.37ST MINING आजम राज आजम आजम आजम SHRIRA HETAUD आजम आजा आजम आगम आगम आजम राजम इसपास के Bait & Thane Thane आगम आजम आराम आजम STTSTIT MIGHT STISTR आगम वाचना शताब्दी वर्ष ~4~ Jasper Sons & man's ene आगम आगम आजम meng SHREE STIGTER INADINE आजम SUCHE आजम 20150 आगाम आजम आगम आगम Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाग-०६] श्री स्थानाङ्गसूत्रम् भाग-१ नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: "स्थान" मूलं एवं वृत्ति: [मूलं एवं अभयदेवसूरि रचित वृत्तिः ] स्थान- ५ से १० [आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com. M.Ed., Ph.D.श्रुतमहर्षि) 28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५ 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-६ श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'आगम-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट' ~5~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब . जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक-श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के दवारा कायोत्सर्ग नामक | अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी गुरुभक्ति : बुद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामुली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है। .चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर | । अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ : - बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, प्राचीन लिपिओ का, | व्याकरण-न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए। .एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हए सिर्फ अकेले ही “जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से | : शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और नियुक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया | फिर : पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और “आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ | .सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अव चूरी, संस्कृत-छाया आदि का भी | संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो की : प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की। .ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं को - प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे सत्य-पक्षमें | अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था | • सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ७०० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | __...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"... ......मुनि दीपरत्नसागर... . - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. -. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब ... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक | पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या । शिष्यो कि संख्या बढती चली, बढ़ते हुए पुन्य के साथ- । : साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा । | करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | | - खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले : जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य-परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। !... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेलु दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवन में देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी | नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही रटण बारबार चालु हो । :गया- “अरिहंतनं शरण, सिद्धनं शरण, साधनं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनं शरण " इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे समाधि-मृत्य-रूप सम्यक : | निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान सूरिवर को भावबरी वंदना | ... मुनि दीपरत्नसागर... ... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक-प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुइ। पूज्य आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ । शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन-प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुजय: गिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां ४० समवसरण | की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्णों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस-पत्थर से बना है, देवो दवारा रचित समवसरण के शास्त्र वर्णन- | : अनुसार आगम-मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है | ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है। - मुनि दीपरत्नसागर... .. -.. -.. -.. -.. -.. -.. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ उद्धार कार्य प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादा पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां - करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीनअर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय मिलने पर शास्त्र| वांचनमें भी रुचि रखते है। समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे | छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के पुराने जिनालयों में १८ अभिषेक • की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से | पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन राशि प्रदान करवाई | ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है | मुनि दीपरत्नसागर [कात्रेज]पूना, शंखेश्वर, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर सूरीश्वरजी महाराज साहेब (एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय- रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ मुनि दीपरत्नसागर ~8~ *** Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ मूलाइका: ७८३ स्थानाङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम [भाग १+२] दीपमूलांक: विषय: | पृष्ठांक | | मलांक: । विषय: पृष्ठांक | मूलांक: विषय: पृष्ठांक स्थान-१ २४९ स्थान-४ ५९२ | स्थान-७ १९४ - एक स्थान आश्रित विविध२४९ | -उद्देशक: -सप्त स्थान-आश्रित विविध | विषयस्य प्ररूपणा २९२ - उद्देशक: २ विषयस्य प्ररूपणा ३३३ | --उद्देशक:३५७ स्थान-२ ३६२ | - उद्देशक: ४ स्थान-८ -- उद्देशक: १ -अष्ट स्थान-आश्रित विविध | --उद्देशक: २स्थान-५ विषयस्य प्ररूपणा --उद्देशक: ३ ४२३ - उद्देशक: १९९ --उद्देशक: ४४५० -उद्देशक: २ स्थान-९ ४७९ | | - उद्देशक: ३ -नव स्थान-आश्रित विविध१२७ स्थान-३ विषयस्य प्ररूपणा | -- उद्देशक: १ ५१८ स्थान-६ १६१ | --उद्देशक: २ -षड् स्थान-आश्रित विविध स्थान-१० १८१ । | -- उद्देशक: ३ विषयस्य प्ररूपणा ०१० । -दश स्थान-आश्रित विविध- | --४८८ २०५ | -- उद्देशक: ४ -[उद्देशका: न अस्ति] विषयस्य प्ररूपणा ४२३ १०१ રક | ८८८ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[०३], अंग सूत्र-[०३] “स्थान” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~9~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [स्थान- मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “स्थानाङ्गसूत्र" के नामसे सन १९१८ (विक्रम संवत १९७५) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर अपने नामसे 'जिनशासन आराधना ट्रस्ट' की तरफ से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, ऊपर अपना नाम एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. यह स्पष्ट रूपसे एक प्रकारसे अदत्तादान ही है, ऐसी अनेक प्रतो के अगले दो पेज पलटकर या नए डालकर उन्होंने अपने नामसे छपवाई है, इस तरह वो अपने आपको बड़ा आगम संरक्षक साबित करनेकी अन्चित चेष्टा कर चुके है। इसी स्थानांग सूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से आचार्य श्री नयचंद्रसागरसूरिजीने भी छपवाया है, समुदाय की वफादारी निभाते हुए इस पूज्यश्रीने पूज्य सागरानंदसूरीश्वरजी महाराजश्री का नाम बड़ी इज्जत के साथ अपनी जगह पे ही रखा है, और खुदका नाम पुन: संपादक रूप से पेश किया है | अपनी प्रस्तावनामें नयचंद्रसागरसूरिजी ने भी मेरी तरह उक्त बात का उल्लेख किया है। इसी स्थानांगसूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से पूज्य जम्बूविजयजी महाराजजीने श्री मोतीलाल बनारसीदास की तरफसे प्रकाशित करवाई है, जो की पुस्तक रूपसे बाईंडेड है, और परिशिष्टमें पूज्य श्री पुन्यविजयजी संकलित शुद्धि-वृद्धि पत्रक दिया है। हमारा ये प्रयास क्यों? +आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर अध्ययन-उद्देशक-मूलसूत्र- आदि के नंबर लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-| ऐसी दो लाइन खींची है| हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट लिखी है | शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-६ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है । ........मुनि दीपरत्नसागर. ~10~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान -1, उद्देशक [-1, मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत SANARWARNARARIANANANAWARANANAANAWARNAANAS ॥अहेम् ॥ श्रीमत्सुधर्मस्वामिगणभृत्प्ररूपितं श्रीमञ्चन्द्रगच्छालङ्कारश्रीमदभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं श्रीमत्स्थानाङ्गसूत्रम्। द्वितीयो विभाग: SARMANANNANARTARNAG [भाग-२] स्थान- ५ से १० NAANAANANANAANAND अनुक्रम [-] प्रकाशिका:- श्री आगमोदय समिति वीरसंवत् २४४५. विक्रम संवत् १९७५. DURUMUNURUUNUURU (पण्यं २-१२-०) काईष्ट १९१८. प्रतया 100.. M UNUNUANMU स्थानाङ्गसूत्रस्य मूल "टाइटल पेज" ~11 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [१], मूलं [३८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अथ पञ्चमस्थानकम् प्रत सूत्रांक [३८९] दीप अनुक्रम [४२३]] व्याख्यातं चतुर्थमध्ययन, साम्प्रतं सङ्ख्याक्रमसम्बद्धमेव पञ्चस्थानकाख्यं पञ्चममध्ययनं व्याख्यायते, अस्य चाय | विशेषाभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने जीवाजीवतद्धाख्याः पदार्थाश्चतुःस्थानकावतारणेनाभिहिताः, इह तु त एव | पञ्चस्थानकावतारणेनाभिधीयन्ते इत्यनेनाभिसम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकत्रयवतश्चतुरनुयोगद्वारवतोऽध्ययनस्य प्रथमोदेशको व्याख्यायते, अस्य च पूर्वोद्देशकेन सह सम्बन्धोऽधिकृताध्ययनवत् द्रष्टव्यः, तस्य पदमादिसूत्रम् पंच महन्वया पं० २०-सव्वातो पाणातिवायाओ बेरमणं ।। जाव सव्यावो परिग्गहातो रमणं । पंचाणुष्वता पं० तं० -थूलातो पाणाइवावातो वेरमणं थूलातो मुसावायातो वेरमणं थूलातो अदिझादाणातो वेरमण सदारसंतोसे इच्छापरिमाणे ॥ (सू० ३८९) अस्य च पूर्वसूत्रेण सहाय सम्बन्धः-पूर्वसूत्रे अजीवानां परिणामविशेष उक्तः इह तु स एव जीवानामुच्यत इत्येवं सम्बन्धस्यास्य व्याख्या संहितादिकमेण, स च क्षुण्ण एव, नवरं पञ्चेति सक्यान्तरव्यवच्छेदः, तेन न चत्वारि, प्रथमपश्चिमतीथेयो। पञ्चानामेव भावात् , महान्ति-वृहन्ति तानि च तानि ब्रतानि च-नियमा महानतानि, महत्वं चैषां सर्व DAREautam अथ पंचमं स्थानं आरभ्यते चतुर्थः एवं पंचमं स्थानस्य अभिसंबंध:, महाव्रतस्य व्याख्या ~12~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [३८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८९] सू० ३८९ दीप श्रीस्थाना- जीवादिविषयत्वेन महाविषयत्वात् , उक्तश्च-"पढमंमि सव्वजीवा बीए चरमे अ सब्बदबाई । सेसा महब्वया खलु ५स्थाना० तदेकदेसेण दवाणं ॥१॥" इति, [प्रथमे सर्वे जीवा द्वितीये चरमे च सर्वाणि द्रव्याणि । शेषाणि महाव्रतानि तदेक- उद्देशः १ वृत्तिः देशे द्रव्याणां ॥१॥ तदेकदेसेणति तेषां-द्रव्याणामेकदेशेनेत्यर्थः> तथा यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेनेति प्रत्या- महाव्रता४ाख्यानरूपत्वाच तेषामिति, देशविरतापेक्षया महतो वा गुणिनो ब्रतानि महब्रतानीति, पुंलिङ्गनिर्देशस्तु प्राकृतत्वा- Tणुव्रतानि ॥२९॥ Mदिति, प्रज्ञतानि-तथाविधशिष्यापेक्षया प्ररूपितानि महावीरेणाणाद्यतीर्थकरेण च न शेपैरिति, एतत्किल सुधर्मस्वामी || जम्बूस्वामिन-प्रतिपादयामास, तद्यथा सर्वस्मात्-निरवशेषात्रसस्थावरसूक्ष्मवादरभेदभिन्नात् कृतकारितानुमतिभेदाच्चेप्रत्यर्थः, अथवा द्रव्यतः षड्जीवनिकायविषयात क्षेत्रतखिलोकसम्भवात् कालतोऽतीतादे राज्यादिप्रभवाद्वा भावतो रागद्वेषसमुत्थाच, न तु परिस्थूरादेवेति भावः, प्राणाना-इन्द्रियोच्छासायुरादीनामतिपात:-प्राणिनः सकाशाद्विभ्रंशः४ साप्राणातिपातः प्राणिप्राणवियोजनमित्यर्थः तस्माद्विरमण-सम्यगज्ञानश्रद्धानपूर्वकं निवर्सन मिति, तथा सर्वस्मात्-सद्धा सावप्रतिषेधा १ सद्भावोभावन २ अर्थान्तरोक्ति ३ गाभेदात् ४ कृतादिभेदाच अथवा द्रव्यतः सर्वेधम्मोस्तिकायादिद्र-17 पाव्यविषयात् क्षेत्रतः सर्वलोकालोकगोचरात् कालतोऽतीतादे राज्यादिवर्तिनो या भावतः कपायनोकषायादिप्रभवात् मृषा-अलीकं बदनं वादो मृपावादः तस्माद्विरमण-विरतिरिति, तथा सर्वस्मात्-कृतादिभेदादथवा द्रव्यतः सचेतसनाचेतनद्रव्यविषयात् क्षेत्रतो ग्रामनगरराण्यादिसम्भवात् कालतोऽतीतादे राज्यादिप्रभवाद्वा भावतो रागद्वेषमोहसमु- बा॥२९० स्थात् अदत्त-स्वामिना अवितीर्ण तस्याऽऽदानं-ग्रहणमदत्तादानं तस्माद्विरमणमिति, तथा सर्वस्मात् कृतकारितानुमति अनुक्रम [४२३] महाव्रतस्य विषद-व्याख्या: ~13~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [१], मूलं [३८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: RSXXX प्रत सूत्रांक [३८९] %E5%955 भेदादथवा द्रव्यतो दिव्यमानुषतरश्चभेदात् रूपरूपसहगतभेदाद्वा तत्र रूपाणि-निर्जीवानि प्रतिमारूपाण्युच्यन्ते रूपसहगतानि तु-सजीवानि भूषणविकलानि वा रूपाणि भूषणसहितानि रूपसहगतानीति क्षेत्रतत्रिलोकसम्भवात् काल| तोऽतीतादे राज्यादिसमुत्थाद्वा भावतो रागद्वेषप्रभवात् मिथुनं-स्त्रीपुंसद्वन्द्वं तस्य कर्म मैथुनं तस्माद् विरमणमिति, तथा सर्वस्मात्-कृतादेरथवा द्रव्यतः सर्वद्रव्यविषयात् क्षेत्रतो लोकसम्भवात् कालतोऽतीतादे राज्यादिभवाद्वा भावतो राग-1 द्वेषविषयात् परिगृह्यते-आदीयते परिग्रहणं वा परिग्रहः तस्माद्विरमणमिति ।। व्रतप्रस्तावात् 'पञ्चाणुब्वए'त्याधणुत्र-2 तसूत्र, स्फुटं चेदं, किन्तु अणूनि-लघूनि व्रतानि अणुव्रतानि, लघुत्वं च महाव्रतापेक्षया अल्पविषयत्वादिनेति प्रतीतमेवेति, उक्तं च-"सव्यगय सम्मत्तं सुए चरित्ते ण पज्जवा सब्वे । देसविरई पडुच्चा दोण्हवि पडिसेहणं कुजा ॥१॥" इति [ सर्वद्रव्यपर्यायगतं सम्यक्त्वं श्रुते चारित्रे च सर्वे पर्याया न । देशविरतिं प्रतीत्य द्वयोरपि प्रतिषेधं कुर्यात्-नसर्वद्रव्याणि न सर्वपर्यवाः ॥१॥] अथवा अनु-महाव्रतकथनस्य पश्चात्तदप्रतिपत्ती यानि व्रतानि कथ्यन्ते तान्यनुव्रतानि, उक्तं च "जइधम्मस्सऽसमत्थे जुज्जइ तद्देसणंपि साहूणं । तदहिगदोसनिवित्तीफलंति कायाणुकंपट्टा ॥१॥” इति [यतिधसमस्यासामर्थे तद्देशनमपि साधूनां युज्यते तदधिकदोषनिवृत्तिफलत्वारकायानुकंपार्थं ॥१॥] अथवा सर्वविरतापेक्षया अणोः-लघोगुणिनो व्रतान्यणुव्रतानीति, स्थूला-द्वीन्द्रियादयः सत्त्वाः, स्थूलत्वं चैषां सकललौकिकानां जीवत्वप्र| सिद्धेः, स्थूलविषयत्वात् स्थूलः तस्मात् प्राणातिपातात् । तथा स्थूल:-परिस्थूल-वस्तुविषयोऽतिदुष्टविवक्षासमुद्भवास्तस्मात् मृषावादात् तथा परिस्थूरवस्तुविषयं चौयारोपणहेतुत्वेन प्रसिद्धमतिदुष्टाध्यवसायपूर्वकं स्थूल तस्माददत्तादानात् तथा दीप अनुक्रम [४२३] SAMEaucatinidi महाव्रतस्य विषद-व्याख्या:, अणुव्रतस्य विषद-व्याख्या ~14~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [१], मूलं [३८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानाअसत्र ५स्थाना. उद्देशः १ वर्णाद्याः त्तिः | सुगति ।२९१॥ प्रत सूत्रांक [३८९] | गैतिहेतवा सू०३९० ३९१ दीप NCEBCA-SCANCCCCCC0%A5% स्वदारसन्तोष-आत्मीयकलत्रादन्यत्रेच्छानिवृत्तिरिति, उपलक्षणात् परदारवर्जनमपि ग्राह्य, तथा इच्छाया:-धनादि- विषयाभिलाषस्य परिमाण-नियमनमिच्छापरिमाणं देशतः परिग्रहविरतिरित्यर्थः । इच्छापरिमाणं चेन्द्रियार्थगोचरं श्रेय इतीन्द्रियार्थवक्तव्यतार्थ पंचवन्नेत्यादित्रयोदशसूत्रीमाह पंचवन्ना पं० सं०-किण्हा नीला लोहिता हालिदा सुकिल्ला १, पंच रसा पं० सं०-तित्ता आप मधुरा २, पंच कामगुणा पं० त०-सदा रूवा गंधा रसा फासा ३, पंचहि ठाणेहिं जीवा सज्जति तं०-सदेहिं जाव फासेहिं ४, एवं रजति ५ मुच्छति ६ गिछति अझोववज्जति ८, पंचहिं ठाणेहिं जीवा विणिघायमावअंति, तं०-सद्देहिं जाव फासेहिं ९ पंच ठाणा अपरिष्णाता जीवाणं अहिताते असुभाते अखमाते अणिस्सेताते अणाणुगामितत्ताते भवति, तं०-सहा जाव फासा १० पंच ठाणा सुपरिनाता जीवाणं हिताते सुभाते जाव आणुगामियत्ताए भवंति, सं०सदा जाव फासा ११, पंच ठाणा अपरिष्णाता जीवाणं दुग्गतिगमणाए भवंति २०-सहा जाव फासा १२, पंच ठाणा परिणाया जीवाणं सुग्गतिगमणाए भवंति तं०-सहा जाव फासा १३ (सू० ३९०) पंचहि ठाणेदि जीवा दोन्गतिं गच्छति, तं०-पाणातिवातेणं जाव परिग्गहेणं, पंचर्हि ठाणेहिं जीवा सोगति गच्छंति, सं०-पाणातिवातवे रमणेणं जाव परिग्ाहवेरमणं (सू० ३९१) प्रकटा चेयं, नवरं पञ्च वर्णाः १ पश्चैव रसास्तदन्येषां सांयोगिकत्वेनाविवक्षितत्वादिति २, 'कामगुण'त्ति कामस्यमदनाभिलापस्य अभिलापमात्रस्य वा सम्पादका गुणा-धर्माः पुगलानां, काम्यन्त इति कामाः ते च ते गुणाति || अनुक्रम [४२३] ॥२९ ॥ CAMEducatonini अणुव्रतस्य विषद-व्याख्या ~15~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [१], मूलं [३९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९१] दीप अनुक्रम [४२५] 25%%%C45152515%25450 वा कामगुणा इति । 'पंचहिं ठाणेहि ति पचासु पञ्चभिर्वा (इन्द्रियः) स्थानेषु-रागाद्याश्रयेषु तैर्वा सह सज्यन्ते-सङ्ग। सम्बन्धं कुर्वन्तीति ५, 'एवं'मिति पञ्चस्वेव स्थानेषु रज्यन्ते-सङ्गकारणं राग यान्तीति ५ मूच्छन्ति-तदोषानवलोक-11 नेन मोहमचेतनत्वमिव यान्ति संरक्षणानुबन्धवन्तो वा भवन्तीति ६, गृध्यन्ति-प्राप्तस्यासन्तोषेणाप्राप्तस्यापरापरस्याकाङ्कावन्तो भवन्तीति ७, अध्युपपद्यन्ते-तदेकचित्ता भवन्तीति तदर्जनाय वाऽऽधिक्येनोपपद्यन्ते-उपपन्ना घटमाना भवन्तीति ८, विनिघात-मरणं मृगादिवत् संसारं वाऽऽपद्यन्ते-प्रामुवन्तीति, आह च-"रक्तः शब्दे हरिणः स्पर्श नागो रसे च वारिचरः । कृपणपतको रूपे भुजगो गन्धे ननु विनष्टः॥ १ ॥ पञ्चसु रक्ताः पञ्च विनष्टा यत्रागृहीतपरमार्थाः । एकः पञ्चसु रक्तः प्रयाति भस्मान्ततां मूढः॥२॥ इति । 'अपरिन्नायत्ति अपरिज्ञया स्वरूपतोऽपरिज्ञातानि-अनवगतानि अप्रत्याख्यानपरिज्ञया या प्रत्याख्यातानि अहिताय-अपायाय अशुभाय-अपुण्यवन्धाय असुखाय वा अक्षमाय-अनुचितत्वाय असमर्थत्वाय वा अनिःश्रेयसाय-अकल्याणायामोक्षाय वा यदुपकारि सत्कालान्तरमनुयाति तदनुगामिकं तत्प्रतिषेधोऽननुगामिकं तद्धावस्तत्त्वं तस्मै अननुगामिकत्वाय भवन्ति १० द्वितीय विपर्ययसूत्र ११, उत्त रसूत्रद्वयेन तु एतदेवाहितहितादि व्यजितमस्ति, दुर्गतिगमनाय-नारकादिभवप्राप्तये सुगतिगमनाय-सियादिप्राप्तये 8| इति १२-१३ । दुर्गतिसुगत्योः कारणान्तरप्रतिपादनसूत्रे सुगमे इति । इह संवरतपसी मोक्षहेतू, तत्रानन्तरमाश्रवनिरोधलक्षणः संवर उक्तोऽधुना तपोभेदारिमकाः प्रतिमा आह पंचपडिमातो पं० सं०-भरा सुभदा महाभरा सब्बतोभद्दा भदुत्तरपडिमा (सू०३९२) पंच थावरकाया पं० सं० CAMEucaton ~16 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [३९३] दीप अनुक्रम [४२७] [भाग-6] "स्थान" स्थान [ ५ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः - अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ३९३] उद्देशक [१]. श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ।। २९२ ।। - इंदे धावरकाए गंभे थावरकाए सिप्पे थावरकाए संमती थावरकाए पाजावचे थावरकाए पंच थावरकायापिपती पं० तं० - इंदे यावर काताधिपती जान पातावचे भावरकाताहिपती (सू० ३९३) पंचहि ठाणेहिं ओहिदंसणे समुप्पज्जितकामेवि तप्पडमयाते खंभातेज्जा, तं० अप्पभूतं वा पुढविं पासित्ता तप्पढमयाते संभातेज्जा, कुंथुरासिभूतं वा पुढवि पासित्ता तप्पडमयाते संभावेजा, महतिमहालतं वा महोरगसरीरं पासित्ता तप्पढमताते संभातेजा देवं वा मद्दडियं जाव महेसक्खं पासिता वप्पढभताते संभातेजा पुरेसु वा पोराणाई महत्तिमहालतानि महानिहाणाई पहीणसामिताविं पहीणसे याति पहीणगुत्तागाराई उच्छिन्नसामियाई उच्छिन्नसेउयाई उच्छिन्नगुत्तागाराई जाई इमाई गामागरणगरखेडकब्बडदोणमुहपट्टणासमसंवादसन्निवेसे सिंघाडगतिगच उकचञ्चर च उम्मुहमहापपदेसु णगरणिद्धमणेसु सुसाणसुन्नागारगिरिकंदरसन्तिसेलोवट्ठावणभवणगिहेसु संनिक्खित्ताई चिह्नंति ताई वा पासित्ता तप्पढमताते खंभातेजा इवेहिं पंचि ठाणेहिं ओहिसणे समुपखिकामे तप्पढमताते भापज्जा । पंचहि ठाणेहिं केवलवरनाणदंसणे समुप्पज्जिकामे तप्पटमतातेनो खंभातेजा, सं० अप्पभूतं वा पुढविं पासिता तप्पढमताते णो खंभेजा, सेसं राहेब जाव भवणगिद्देसु संनि कित्ताई चिर्हति ताई वा पासित्ता तप्पढमयाते णो खंभातेखा, सेसं तहेब, इच्चेतेहिं पंचहि ठाणेहिं जाव नो खंभातेजा (सू० ३९४ ) 'पंचे' त्यादि व्यक्तं, नवरं भद्रा १ महाभद्रा २ सर्वतोभद्रा २ द्वि १ चतु २ देशभि ३ दिनैः क्रमेण भवन्तीत्युक्तं प्रागू, सुभद्रा त्वदृष्टत्वान्न लिखिता, सर्वतोभद्रा तु प्रकारान्तरेणाप्युच्यते द्विधेयं क्षुद्रिका महती च तत्राद्या चतु Educationa भद्रा आदि तप प्रतिमायाः तपसः वर्णनं For Personal & Pre Use Only ~17 ~ ५ स्थाना० उद्देशः १ प्रतिमाः स्थावराः अवधिके चलानुत्प स्युत्पत्ती सू० ३९२ ३९४ ॥ २९२ ॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [१], मूलं [३९४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: दिना द्वादशावसानेन पञ्चसप्ततिदिनप्रमाणेन तपसा भवति, अस्याश्च स्थापनोपायगाथा-"एगाई पर्चते ठविउ मज्झं तु आइमणुपंतिं । उचियकमेण य सेसे जाण लहुँ सचओभई ॥१॥” इति [एकादिकान् पंचांतान् स्थापयित्वा मध्य |आदिम अनुपंक्ति । उचितक्रमेण शेषान् जानीहि सर्वतोभद्रम् ॥१॥] पारणकादिनानि तु पञ्चविंशतिरिति, स्थापना, प्रत सूत्रांक [३९४] महती तु चतुर्थादिना पोडशावसानेन पण्णवत्यधिकदिनशतमानेन भवति, अस्या अपि स्थापनोपायगाथा-13 HRMAN“एगाई सत्तंते ठवितं मझं च आदिमणुपंतिं । उचियकमेण य सेसे जाण महं सबओभई ॥१॥" इति, पला[एकादिकान् सप्तान्तान् स्थापयित्वा मध्यं आदिम अनुपंक्ति उचितक्रमेण शेषान् जानीहि महासर्वतोभद्रां ॥१॥]| १४५१२३/ पारणकदिनान्येकोनपश्चाशदिति, स्थापना, भद्रोत्तरप्रतिमा द्विधा-क्षुलिका महतीच, तत्र आद्या द्वादशादिना दीप अनुक्रम [४२८] * 64562564645625 12.२३६५६ विंशान्तेन पासप्तत्यधिकदिनशतप्रमाणेन तपसा भवति, अस्याः स्थापनोपायगाथा-"पंचाई व नवते ७१२३४५६ ठवि मज्झं तु आदिमणुपंति । उचियकमेण य सेसे जाणह भद्दोत्तरं खुड्डे ॥१॥” इति [पंचादिकान् नवा३४५६७१२ ६७१२३४५न्तान् स्थापयित्वा मध्यं आदिमं अनुपंक्ति उचितकमेण शेषान् जानीहि क्षुद्रं भद्रोत्तरां ॥१॥] पारणकदि२३४५६७१ १६७१२३ नानि पञ्चविंशतिरिति, महती तु द्वादशादिना चतुर्विंशतितमान्तेन द्विनवत्यधिकदिनशतत्रयमानेन तपसा भद्रा आदि तप प्रतिमाया: तपस: वर्णनं ~18~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [१], मूलं [३९४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: DOCARSA प्रत सूत्रांक [३९४] दीप श्रीस्थाना- १६७८९ भवति, तत्र च गाधा-"पंचादिगारसंते ठविउ मज्झं तु आइमणुपंतिं । उचियकमेण व सेसे महई भद्दोत्तर स्थाना. १५६७ जाण ॥१॥” इति [पंचादिकानेकादशान्तान् स्थापयित्वा मध्यं आदिम अनुपंक्ति उचितक्रमण शेषान् जानीहि 8 उद्देशः १ वृत्तिः महती भद्रोत्तरां ॥१॥] पारणकदिनान्येकोनपञ्चाशदिति ३। उक्तः कर्मणां निर्जरणहेतुस्तपोविशेषः, अधुना प्रतिमाः | स्थावरा ॥२९३॥ | ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ तेषामेवानुपादानहेतोः संयमस्य विषयभूतानेकेन्द्रियजीवानाह-पंचे'त्यादि, स्थावरनामकर्मो- अवधिक "दयात् स्थावरा:-पृथिव्यादयः तेषां काया-राशयः स्थावरो वा कायः-शरीरं ये ते स्थावर- ११५६७८९१० साल वलानुत्प११ ५ कायाः, इन्द्रसम्बन्धित्वादिन्द्रः स्थावरकायः पृथिवीकायः, एवं ब्रह्मशिल्पसम्मतिप्राजापत्या त्त्युत्पत्ती १.११ ५६७८ अपि अकायादित्वेन वाच्या इति । एतन्नायकानाह-पंचेदियेत्यादि, स्थावरकायानां-पृथि- दिसू०३९२. ११.११ ५ ६ ७ ८ व्यादीनामिति (मपि) सम्भाव्यन्तेऽधिपतयो-नायका दिशामिवेन्द्राम्यादयो नक्षत्राणामिवा-2 |श्वियमदहनादयो दक्षिणेतरलोकार्द्धयोरिव शकेशानाविति स्थावरकायाधिपतय इति । एते चावधिमन्त इत्यवधिस्वरूप माह-पंचहीं'त्यादि व्यकं, नवरं अवधिना दर्शनं-अवलोकनमर्थानामुत्सत्तुकाम-भवितुकाम तमधमतायां-अवधिदर्श-18 हैानोत्पादप्रथमसमये 'खंभाएजति स्कन्नीयात् क्षुभ्येत, चलतीत्यर्थः, अवधिदर्शने वा समुत्पत्तुकामे सति अवधिमानिति | गम्यते क्षुभ्येद् अल्पभूतां-स्तोकसत्त्वां पृथिवीं दृष्ट्वा, वाशब्दा विकल्पार्थाः, अनेकसत्त्वव्याकुला भूरिति सम्भावनावान् ॥२९३ ॥ अकस्मादल्पसत्त्वभूदर्शनात् आः किमेतदेवमित्येवं क्षुभ्येदेव अक्षीणमोहनीयत्वादिति भावः, अथवा भूतशब्दस्य प्रकृ अनुक्रम [४२८] ASSASSARIS भद्रा आदि तप प्रतिमाया: तपस: वर्णनं ~19~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [१], मूलं [३९४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९४] त्यर्थत्वादल्पभूता-अल्पा, पूर्व हि तस्य बह्वी पृथ्वीति सम्भावनाऽऽसीदिति १, तथाऽत्यन्तप्रचुरत्वात्कुन्थूनां कुन्थुरा|शिभूतां-कुन्धुराशित्वप्राप्तां पृथिवीं दृष्ट्वा अत्यन्तविस्मयदयाभ्यामिति २, तथा 'महामहालय'ति महातिमहत् महो-| रगशरीरं-महाऽहितर्नु बाह्यद्वीपवतियोजनसहस्रप्रमाणं दृष्ट्वा विस्मयाद् भयावा ३, तथा देवं महद्धिकं महाद्युतिक महानुभाग महाबलं महासौख्यं दृष्ट्वा विस्मयादिति ४, तथा 'पुरेसु बत्ति नगराधेकदेशमूतानि प्राकारावृतानि पुरा-1 |णीति प्रसिद्ध तेषु पुराणानि-चिरन्तनानि ओरालाई कचिसाठः तत्र मनोहराणीत्यर्थः 'महहमहालयाईति विस्तीर्ण-1 वेन महानिधानानीति-महामूल्यरत्नादिमत्त्वेन, पहीणाः स्वामिनो येषां तानि तथा, तथा प्रहीणाः सेकारः-सेचकास्तेसम्वेवोपयुपरि धनप्रक्षेपकाः पुत्रादयो येषां तानि तथा, अथवा प्रहीणाः सेतवः-तदभिज्ञानभूताः पालयस्तन्मार्गा वाऽति-13 चिरन्तनतया प्रतिजागरकाभावेन च येषां तानि प्रहीणसेतुकानि, किं बहुना ?, निधायकानां यानि गोत्रागाराणि-कुल| गृहाणि तान्यपि प्रहीणानि येषां । अथवा तेषामेव गोत्राणि-नामान्याकाराच-आकृतयस्ते प्रहीणा येषां तानि प्रहीणगोत्रागाराणि प्रहीणगोत्राकाराणि वा, एवमुच्छिन्नस्वामिकादीन्यपि, नवरमिह प्रहीणाः-किंचित्सत्तावन्तः उच्छिन्ना-निर्नष्ट सत्ताकाः, यानीमानि-अनन्तरोक्तविशेषणानि तथा ग्रामादिषु यानि, तत्र करादिगम्यो ग्रामः, आगत्य कुर्वन्ति यत्र स Wआकरो-लोहाद्युत्पत्तिभूमिरिति, नास्मिन् करोऽस्तीति नकरं, धूलीप्राकारीपेतं खेट, कुनगरं कर्बट, सर्वतोऽर्द्धयोज-IN नात् परेण स्थितग्राम मडम्ब यस्य जलस्थलपधावुभावपि तद् द्रोणमुखं यत्र जलपथस्थलपथयोरन्यतरेण पर्योहारप्रवे-15 शस्तपत्तनं तीर्थस्थानमाश्रमः यत्र पर्वतनितम्बादिदुर्गे परचक्रभयेन रक्षार्थ धान्यादीनि संवहन्ति स संवाहः, यत्र प्रभू-टू दीप अनुक्रम [४२८] ~20~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [३९४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९४] दीप श्रीस्थाना- ताना भाण्डानां प्रवेशः स संनिवेशः, तथा शृङ्गाटक-त्रिकोणं रथ्यान्तरं स्थापना >त्रिक-यत्र रथ्यानां त्रयं मिलति | ४५ स्थाना सूत्र- चत्वरं-रथ्याष्टकमध्यं चतुष्क-यत्र रथ्याचतुष्टयं चतुर्मुखं-देवकुलादि महापथो-राजमार्गः पथो-स्थ्यामात्रं, एवंभूतेषु &उद्देश।१ वृत्तिः वा स्थानेषु, नगरनिमनेषु-तत्क्षालेषु, तथा अगारशब्दसम्बन्धात् श्मशानागारं-पितृवनगृहं शून्यागार-प्रतीतं तथा प्रतिमा गृहशब्दसम्बन्धात् गिरिगृह-पर्वतोपरि गृहं कन्दरगृह-गिरिगुहा गिरिकन्दरं वा शान्तिगृह-यत्र राज्ञां शान्तिकर्म-हो-11 ॥२९४॥ मादि क्रियते शैलगृह-पर्वतमुत्कीर्य यत्कृतं, उपस्थानगृह-आस्थानमण्डपोऽथवा शैलोपस्थानगृह-पाषाणमण्डपः भव नगृह-यत्र कुटुम्बिनो वास्तव्या भवन्तीति, अथवा शान्त्यादिविशेषितानि भवनानि गृहाणि च, तत्र भवनं-चतुःशालादि । ४गृहं तु-अपवरकादिमात्रं तेषु सन्निक्षिप्तानियस्तानि दृष्ट्वा क्षुभ्येद् अदृष्टपूर्वतया विस्मयालोभाद्वेति, 'इचेएही'त्यादि सात्युत्पत्ती & निगमनमिति । केवलज्ञानदर्शनं तु न स्कनीयात् केवली वा याथात्म्येन वस्तुदर्शनात् क्षीणमोहनीयत्वेन भयविस्मयलो- सू० ३९२भाद्यभावेन अतिगम्भीरत्वाच्चेति, अत आह-पंचहीं'त्यादि सुगममिति । तथा नारकादिशरीराणि बीभत्सान्युदाराणि च दृष्ट्वाऽपि न केवलदर्शनं स्कन्नातीति शरीरप्ररूपणाय 'नेरइयाण'मित्यादि सूत्रप्रपश्चः णेरइयाणं सरीरंगा पंचवन्ना पंचरसा पं० त०-किण्हा जाब सुकिल्ला, तित्ता जाव मधुरा, एवं निरंतर जाव वेमाणियाणं । पंच सरीरगा पं० त०-ओरालिते बेउम्बिते आहारते तेयते कम्मते, ओरालितसरीरे पंचवन्ने पंचरसे पं० तं० किण्हे जाव सुचिले तित्ते जाव महुरे, एवं जाव कम्मगसरीरे, सव्वेविण बादरबौदिधरा कलेवरा पंचवमा २९४॥ पंचरसा दुगंधा अट्टफासा (सू०३९५) अनुक्रम [४२८] MERucaturintimarnal ~21~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [३९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९५] दीप गतार्थश्चार्य, नवरं पञ्चवर्णत्वं नारकादिवैमानिकान्तानां [ शरीरिणां ] शरीराणां निश्चयनयात् , व्यवहारतस्तु एकवर्णप्राचुर्यात् कृष्णादिप्रतिनियतवर्णतैवेति, 'जाव सुकिल्लत्ति किण्हा नीला लोहिता हालिद्दा सुकिल्ला 'जाव महर' त्ति तित्ता कडुया कसाया अंबिला महुरा 'जाव वेमाणियाणं'ति चतुर्विंशतिदण्डकसूत्रम् । 'सरी'त्ति उत्पत्तिसमया-| दारभ्य प्रतिक्षणमेव शीर्यत इति शरीरं, 'ओरालिय'त्ति उदारं-प्रधानं उदारमेवौदारिक, प्रधानता चास्य तीर्थकरादिशरीरीपेक्षया, न हि ततोऽन्यत् प्रधानतरमस्ति, प्राकृतत्वेन च ओरालियंति १, अथवा उरालं नाम विस्तरालं विशालं सातिरेकयोजनसहनप्रमाणत्वादस्य अन्यस्य चावस्थितस्यैवमसम्भवात् , उक्तश्च-"जोयणसहस्समहियं ओहे एगिदिएर तरुगणेसु । मच्छ जुयले सहस्सं उरगेसु य गन्भजाएसु ॥१॥" इति [योजनसहनमधिकं ओघेनैकेन्द्रिये तरुगणे च । मत्स्ययुगले सहस्रं गर्भजातेपूरगेषु च ॥१॥] वैक्रियस्य लक्षप्रमाणत्वेऽप्यनवस्थितत्वात्, तदेव ओरालिकं २, अथवा उरलमल्पप्रदेशोपचितत्वाद्वृहत्त्वाच्च भिण्डवदिति तदेव ओरालिकं निपातनात् ३, अथवा ओरालं-मांसास्थिस्नायवाद्यवबद्धं तदेव ओरालिकमिति ४, उक्तब-"तत्थोदार १ मुरालं २ उरलं ३ ओरालमहब ४ विन्नेयं । ओदारियति पढम पडुच्च तित्थेसरसरीरं ॥१॥ भन्नइ य तहोरालं वित्थरवंतं वणस्सई पप्प । पगईए नत्थि अन्नं पद्दहमेत्तं विसालंति ॥२॥ [[उरलं थेवपएसोवचियपि महलग जहा भिंडं । मंसटिण्हारुबद्धं ओरालं समयपरिभासा ॥३॥ इति [तत्रोदारमुरालमुरलमोरालमथवा विज्ञेयं प्रथम तीर्थेश्वरशरीरं प्रतीत्यौदारिकमिति ॥ १॥ भण्यते च तथोरालं विस्तारवनस्पति प्राप्य प्रकृत्यायदन्यन्नास्त्येतावन्मानं विस्तृतं ॥ २॥ स्तोकप्रदेशोपचितमपि भिंडवन्महत् उरलं मांसास्थिस्नायुबद्धमोराल अनुक्रम [४२९] 6-0-%*84 k-04-0 aam Educatanimal नारकादिनाम् शरीरस्य वर्णनं ~22~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [३९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९५]] दीप श्रीस्थाना- समयपरिभाषा ॥३॥] 'वेउब्विय'त्ति विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रियं, उक्तं च-"विविहा व वि- ५स्थाना० झसूत्र सिट्ठा वा किरिया विकिरिय तीऍ जं भवं तमिह । वेउव्वियं तयं पुण नारगदेवाण पगईए ॥१॥” इति, विविधा वा उद्देशः१ वृत्तिः विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां यद्भव तदिह वैक्रिय तत्पुनः प्रकृत्या नारकदेवानां ॥१॥] विविधं विशिष्टं वा कु-18 शरीर तिवन्ति तदिति, वैकुकिमिति वा, 'आहारए'त्ति तथाविधकार्योत्पत्तौ चतुर्दशपूर्वविदा योगवलेनाहियत इत्याहारक, वर्णनं ॥२९५M उक्तं च-"कजमि समुप्पन्ने सुयकेवलिणा विसिलद्धीए । जं एत्थ आहरिजइ भणंति आहारगं तं तु ॥१॥" [श्रुतके- सू० ३९५ वलिना विशिष्टलम्ध्या यदव कार्ये समुत्पन्ने आहियते तदेवाहारकं भण्यते ॥१॥] कार्याणि चामूनि-"पाणिदयरिद्धि संदरिसणथमत्थोवगणहेउं वा । संसयवोच्छेयत्थं गमणं जिणपायमूलम्मि ॥१॥" [प्राणिदयसिंदर्शनार्थ अर्थावग्रह*णाय वा संशयब्युच्छेदाय वा जिनपादमूले गमनं ॥१॥] कार्यसमाप्ती पुनर्मुच्यते याचितोपकरणबदिति, 'तेयए'त्ति तेजसो भावस्तैजसं, उष्मादिलिङ्गसिद्धं, उक्तं च "सव्वस्स उम्हसिद्धं रसादिआहारपागजणगं च । तेयगलद्धिनिमित्तं दाच तेयग होइ नायव्वं ॥१॥" इति [सर्वेषामुष्मतासिद्धं रसाद्याहारपाकजनकं च । तेजोलब्धिनिमित्तं च तेजःशरीरं भवति ज्ञातव्यं ॥१॥] 'कम्मए'त्ति कर्मणो विकारः कार्मणं, सकलशरीरकारणमिति, उक्तं च-"कम्मविगारो कम्म णमट्टविहविचित्तकम्मनिष्फन्नं । सम्बसि सरीराणं कारणभूयं मुणेयन्वं ॥१॥" इति [कर्मविकारः कार्मर्ण अष्टविधविलचित्रकर्मनिष्पन्नं । सर्वेषां शरीराणां कारणभूतं च ज्ञातव्यं ॥१॥] औदारिकादिक्रमश्च यथोत्तरं सूक्ष्मत्वात् प्रदेशबा ॥२९५॥ IPाहुल्याच्चेति । तथा सर्वाण्यपि बादरबोन्दिधराणि-पर्याप्तकत्वेन स्थूराकारधारीणि कलेवराणि-शरीराणि मनुष्यादीनां RSSC अनुक्रम [४२९] 62-90-4564 JABERuratanimal नारकादिनाम् शरीरस्य वर्णनं ~23~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [३९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९५] पशादिवर्णादीन्यवयवभेदेनेति, अधिगोलकादिषु तथैवोपलब्धेः, 'दो गंध'त्ति सुरभिदुरभिभेदात् , 'अह फासति कठिनमृदुशीतोष्णगुरुलघुस्निग्धरूक्षभेदादिति, अवादरबोन्दिधराणि तु न नियतवर्णादिव्यपदेश्यानि, अपर्याप्तत्वेनावयवषिभागाभावादिति, अनन्तरं शरीराणि प्ररूपितानीति शरीरिविशेषगतान् धर्म विशेषान् पंचहिं ठाणेहीत्यादिना-1 अर्जघसूत्राम्तेन अन्येन दर्शयति पंचहि ठाणेहिं पुरिमपच्छिमगाणं जिणाणं दुग्गमं भवति, सं०-दुआइक्खं दुविभज दुपस्सं दुतितिक्खं दुरणुचरं। पंचर्हि ठाणेहिं मझिमगाणं जिणाणं सुगम भवति, तं०-मुआतिक्खं सुविभज सुपस्सं सुतितिक्खं सुरणुचरं । पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं जिग्गंयाणं णिचं वनिताई निश्च कित्तिताई णिचं युतिताई गिध पसत्थाई नियमभणुन्नाताई भति, वं0-संती मुत्ती अजवे महवे लाघवे, पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेण जाव अम्भणुनायाई भवति, सं०-सचे संजमे तवे चिताते बंभरखासे, पंच ठाणाई समणाणं जाव अब्भणुनायाई भवंति, त०-क्खित्तघरते निक्खित्तचरते अंतचरते पंतचरते लहचरते, पंच ठाणाई जाव अम्भणुप्रणायाई भवंति, २०-अन्नातचरते अभाइलायचरे मोणचरे संसट्ठकप्पिते तज्जातसंसहकप्पिते, पंच ठाणाई जाव अब्भणुन्नाताई भयंति, सं०-उपनिहिते मुद्धेसणिते संखादत्तिते दिहलाभिते पुट्ठलाभिते, पंच ठाणाई जाव अन्भणुण्णाताई भवंति, तं०-आयविलिते निबियते पुरमड़िते परिमिते पिंडवाविते भिन्नपिंडवाविते, पंच ठाणाई० अभणुन्नायाई भवंति, ६०-अरसाहारे विरसाहारे अंताधारे पंताहारे यहाहारे, पंच ठापाई० अभणुनायाई भवंति, सं०-अरसजीवी विरसजीवी अंतजीवी RANCOMPRACA%%% दीप अनुक्रम [४२९] स्था०५० aam Educatuninst ~24~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [१], मूलं [३९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ब श्रीस्थाना सूत्र प्रत ॥२९६॥ सूत्रांक [३९६] दीप पंतजीवी लहजीवी, पंच ठाणाई. भवंति, तं०-ठाणातिते उक्कडुआसणिए पडिमहाती वीरासणिए णेसजिए, पंच ५स्थाना० ठाणाई० भवंति, तं०-दंडायतिते लगंडसाती आतावते अवाउडते अकंहूयते (सू० ३९६) पंचहि ठाणेहि समणे उद्देशः१ निग्गये महानिजरे महापज्जवसाणे भवति, तं-अमिलाते आयरियवेयावच्चं करेमाणे १ एवं उवझायवेयाव करेमाणे दुर्गमसुग२ थेरवेयावर्ष० ३ तवस्सिवेथावचं. ४ गिलाणवेयावत्र करेमाणे ५ । पंचहिं ठाणेहिं समणे निम्नथे महानिजरे महापज्ज |मक्षान्तिवसाणे भवति, तं0---अगिलाते सेहवेयावचं करेमाणे १ अगिलाते कुलवेया० २ अगिलाए गणवे०३ अगिलाए संघवे. | सत्याधु४ अगिलाते साहम्मियवेयावच्चं करेमाणे ५ (सू० ३९७) क्षिप्ठादिसुगमश्चार्य, नवरं पञ्चसु स्थानकेषु-आख्यानादिक्रियाविशेषलक्षणेषु पुरिमा-भरतैरावतेषु चतुर्विशतेरादिमास्ते च पश्चि-IN स्थानादि मकाश्च-चरमाः पुरिमपश्चिमकास्तेषां जिनाना-अर्हतां 'दुग्गमति दुःखेन गम्यत इति दुर्गम भावसाधनोऽयं कृच्छ्रवृ सू० ३९६ त्तिरित्यर्थः तद्भवति विनेयानामृजुजडत्वेन वक्रजडत्वेन च, तानि चेमानि तद्यथे'त्यादि, इह चाख्यानं विभजनं दर्शन |3|| वैयावृत्त्य तितिक्षणमनुचरणं चेत्येवं वक्तव्येऽपि येषु स्थानेषु कृच्छ्रवृत्तिर्भवति तानि तद्योगात् कृवृत्तीन्येवोच्यन्ते इति कृच्छ्रवृत्तिद्योतकदुःशब्दविशेषितानि कर्मसाधनशब्दाभिधेयान्याख्याना(ख्येया)दीनि विचित्रत्वाच्छन्दप्रवृत्तेराह, 'दुआइक्ख'-| है मित्यादि, तत्र दुराख्येय-कृच्छ्राख्येयं वस्तुतत्त्वं, विनेयानां महावचनाटोपप्रबोध्यत्वेन भगवतामायासोत्पत्तरित्येवमा-14 ॥२९॥ ख्याने कृच्छ्रवृत्तिरुक्ता, एवं विभजनादिष्यपि भावनीया, तथा-व्याख्यातेऽपि तत्र दुर्षिभज-कष्टविभजनीयं, ऋजुजड-14 वादेरेव तद्भवति दुःशङ्क शिष्याणां वस्तुतत्त्वस्य विभागेनावस्थापनमित्यर्थः, दुर्विभवमित्यत्र पाठान्तरे दुर्विभाव्य अनुक्रम [४३०] ~25 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [३९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९७] दुःशका बिभावना कर्तुं तस्येत्यर्थः, तथा 'दुप्पस्सति दुःखेन दयते इति दुर्दर्श, उपपत्तिभिर्दुःशक शिष्याणा प्रतीता-1 नावारोपयितुं तत्त्वमिति भावः, 'दुत्तितिक्खंति दुःखेन तितिक्ष्यते सह्यते इति दुस्तितिक्ष-परीषहादि दुःशकं| |परीपहादिकमुत्पन्नं तितिक्षयितुं, शिष्यं तत्पति क्षमा कारयितुमिति भाव इति, 'दुरणुचरति दुःखेनानुचर्यते-अनुष्ठीयत & इति दुरनुचरमन्तर्भूतकारितार्थत्वेन दुःशकमनुष्ठापयितुमित्यर्थः, [कातन्त्रे हि कारितसंज्ञयैव णिगन्तो ज्ञाप्यते ] अथवा| तेषां तीर्थे दुराख्येयं दुभिजमाचार्यादीनां वस्तुतत्त्वं शिष्यान् प्रति, आत्मनापि दुर्दर्श दुस्तितिक्षं दुरनुचरमित्येवं कारितार्थ विमुच्य व्याख्येयं, तेषामपि ऋजुजडादित्वादिति । मध्यमानां तु सुगम-अकृच्छ्रवृत्तिः, तद्विनेयानामृजुप्रज्ञत्वेनाल्पप्रयत्नेनैव बोधनीयत्वाद् विहितानुष्ठाने सुखप्रवर्तनीयत्वाचेति, शेषं पूर्ववत्, नवरमकृच्छ्रार्थविशिष्टता आख्यानादीनां वाच्या, तथा 'सुरनुचरन्ति रेफः प्राकृतत्वादिति, नित्यं सदा वर्णितानि फलतः कीर्तितानि-संशब्दितानि नामतः, 'वुइयाईति व्यक्तवाचोक्तानि स्वरूपतः 'प्रशस्तानि' प्रशंसितानि श्लाषितानि 'शंसु स्तुताविति वचनात् अभ्यनुज्ञातानि-कर्तव्यतया अनुमतानि भवन्तीति, अयं च सूत्रोरक्षेपः प्रतिसूत्रं वैयावृत्यसूत्र यावद् दृश्य इति, तत्र क्षान्त्यादयः क्रोधलोभमायामाननिग्रहाः तथा लाघवमुपकरणतो गौरवत्रयत्यागतश्चेति, तथाऽन्यानि पञ्च, सभ्यो हितं सत्यम्-अनलीके, तच्चतुर्विधं, यतोऽवाचि-"अविसंवादनयोगः कायमनोवागजिह्मता चैव । सत्यं चतुर्विधं तच्च जिनवरमतेऽस्ति नान्यत्र ॥१॥" इति, तथा संयमनं संयमो-हिंसादिनिवृत्तिः, स च सप्तदश विधः, तदुक्तम्-"पुढविदगअगणिमारुय वणफह वितिचउपणिदि अज्जीवे । पेहोपेहपमज्जणपरिढवणमणोवई काए ॥१॥" [पृथ्वीदकाग्निमारुतवन ESSAGAR दीप अनुक्रम [४३१] CAMEducaton ~26~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [३९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानाइसत्र- वृत्तिः प्रत ॥२९७॥ सूत्रांक [३९७] दीप स्पतिद्वित्रिचत पंचेंद्रियाजीवेषु प्रेक्षोठोक्षप्रमार्जनपरिष्ठापनमनोवाक्कायेषु ॥१॥] अथवा-"पञ्चाश्रवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रि-IM स्थाना यनिग्रहः कषायजयः। दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः॥१॥” इति, तथा तप्यतेऽनेनेति तपः, यतोऽभ्यधायि- उदेशः१ "रसरुधिरमांसमेदोऽस्थिमज्जशुक्राण्यनेन तथ्यन्ते । कर्माणि वाऽशुभानीत्यतस्तपो नाम नैरुक्तम् ॥१॥" [सान्वर्थमि दुर्गमसुगत्यर्थः> तच्च द्वादशधा, यथाऽऽह-"अणसणभूणोयरिया वित्तीसंखेवणं रसचाओ । कायकिलेसो संलीणया य बज्यो |मक्षान्तितवो होइ॥१॥पायच्छित्तं विणओ चेयावच्चं तहेव सज्झाओ । झाणं उस्सग्गोऽविय अम्भितरओ तबो होइ ॥ २॥"18/ | सत्याधुइति [अनशनमवमौदर्य वृसिसंक्षेपो रसत्यागः कायक्केशः संलीनतेति बाह्यं तपो भवति ॥ १॥ प्रायश्चित्तं विनयो वैया ॥ प्रायश्चित्त विनया वैया- क्षिप्तादिवृत्त्यं तथैव स्वाध्यायो ध्यानमुत्सर्गः अपि चाभ्यन्तरं तपो भवति ॥१॥] 'चियाए'त्ति त्यजनं त्याग:-संविौकसा- यामा म्भोगिकानां भक्तादिदानमित्यर्थः, गाथे चात्र-"तो कयपच्चक्खाणो आयरियगिलाणवालवुड्डाणं । देजाऽसणाइ संते॥ सू०३९६ लाभे कयवीरियायारो॥१॥ संविग्गअन्नसंभोइयाण देसिज सङगकुलाणि । अतरंतो वा संभोइयाण देसे जहसमाही |॥२॥” इति [ततः कृतप्रत्याख्यानः आचार्यग्लानबालवृद्धानां । सति लाभेऽशनादि दद्यात् कृतवीर्याचारः॥१॥ सू० ३९७ (कयपश्चक्खाणोऽविय आव०) संविग्नान्यसंभोगिकानां श्राद्धकुलानि दर्शयेत् । सांभोगिकानामप्यशको यथासमाधि देशयेत् ॥१॥] ब्रह्मचर्ये-मैथुनविरमणे तेन वा वासो ब्रह्मचर्यवास इत्येष पूर्वोकैः सह दशविधः श्रमणधर्म इति, अ-ट न्यत्र त्वयमेवमुक्ता-खंती य महवऽजव मुत्ती तवसंजमे य बोद्धब्वे । सच्चं सोपं आकिंचणं च भं च जाधम्मो ॥२९ ॥ ॥१॥" इति [क्षान्तिश्च माईवमार्जवं मुक्तिस्तपः संयमश्च बोद्धव्यः । सत्यं शौचमाकिंचन्यं च ब्रह्म च यतिधर्मः ॥१॥]18 अनुक्रम [४३१] SAMEducational ~27~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ३९७] दीप अनुक्रम [४३१] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [१], मूलं [ ३९७] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Education) | इतश्च साधुधर्मभेदस्य बाह्यतपोविशेषस्य वृत्तिसङ्क्षेपाभिधानस्य भेदाः 'उक्वित्तचरए' इत्यादिना अभिधीयन्ते तत्र उस्क्षिप्तं स्वप्रयोजनाय पाकभाजनादुद्धृतं तदर्थमभिग्रहविशेषाच्चरति तद्भवेषणाय गच्छतीत्युत्क्षिप्तचरकः, एवं सर्वत्र, नवरं निक्षिष्ठं-अनुद्वृतं अन्ते भवमान्तं भुक्तावशेषं बलादि प्रकृष्टमान्तं प्रान्तं तदेव पर्युषितं रूक्षं निःस्नेहमिति, इह च भावप्रत्ययप्रधानत्वेन उत्क्षिप्तचरकत्वमित्यादि द्रष्टव्यमेवमुत्तरत्रापि भावप्रधानता दृश्या, इह चायौ भावाभिग्रहावितरे द्रन्याभिग्रहाः, यतोऽभाणि - "उक्खित्तमाइचरगा भावजुया खलु अभिग्गहा होंति । गायंतो व रुयंतो जं देइ निसण्णमाई वा ॥ १ ॥” [ उत्क्षिप्तादि चरकत्वादिका अभिग्रहा भावयुता भवंति । गायन् वा रुदन् निषण्णादिर्वा यद्ददाति ॥ १ ॥ ] तथा "लेबडमलेवर्ड वा अमुगं दव्वं च अज घेच्छामि । अमुगेण उ दब्वेणं अह दब्बाभिग्गहो नामं ॥ २ ॥" इति [ लेपकृदलेपकृद्वाऽमुकं द्रव्यं चाथ ग्रहीष्यामि । अमुकेन तु द्रव्येणैव द्रव्याभिग्रहो नाम ॥ १ ॥ ] एवमन्यत्रापि विशेष ऊह्य इति, अज्ञातः - अनुपदर्शितस्त्राजन्यर्द्धिमत्यत्र जितादिभावः सन् चरति भिक्षार्थमटतीत्यज्ञातचरकः, तथा 'अन्नइलायचरए'ति अन्नग्ठानको दोषान्नभुगिति भगवतीटीप्पन के उक्तः, एवंविधः सन् अथवा अक्षं विना ग्ला| यकः-समुखन्नवेदनादिकारण एवेत्यर्थः अभ्यस्मै वा ग्लायकाय भोजनार्थं चरतीति अन्नग्ठानकचरकोऽन्नग्लाय कचरकोऽन्यग्लायकचरको वा, कचित् पाठः 'अनवेल'त्ति तत्रान्यस्यां भोजन कालापेक्षयाऽऽद्यावसानरूपायां वेलायां-समये चरतीत्यादि दृश्यं, अयं च कालाभिग्रह इति, तथा मौनं- मौनव्रतं तेन चरति मौनचरकः, तथा संसृष्टेन खरष्टितेनेत्यर्थी हस्तभाजनादिना दीयमानं 'कल्पिकं' कल्पवत् कल्पनीयमुचितमभिग्रहविशेषाद्भकादि यस्य स संसृष्टकल्पिकः, For Personal & Pre Only ~ 28~ Say org Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [३९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- वृत्तिः प्रत २९८॥ सूत्रांक [३९७] दीप तथा 'तज्जातेन' देयद्रव्यप्रकारेण यत्संसृष्टं हस्तादि तेन दीयमानं कल्पिकं यस्येति विग्रह इति, उपनिधीयत इत्युप-४५स्थाना० निधिः-प्रत्यासन्नं यद्यथाकथञ्चिदानीतं तेन चरति तद्ग्रहणायेत्यर्थः इत्योपनिधिका, उपनिहितमेव वा यस्य ग्रहण-14 उद्देशः१ विषयतयाऽस्ति स प्रज्ञादेराकृतिगणत्वेन मत्वर्थीयाणप्रत्यये औपनिहित इति, तथा शुद्धा-अनतिचारा एषणा-दालि दुर्गमसुगतादिदोपवर्जनरूपा 'संसहमसंसट्टे'त्यादिसप्तप्रकारा अन्यतरा वा तया चरतीत्युत्तरपदवृया शुद्धषणिकः, सङ्ख्याप्र मक्षान्तिधानाः-परिमिता एव दत्तयः-सकृद्भक्कादिक्षेपलक्षणा ग्राह्याः यस्य स सङ्ख्यादत्तिका, दत्तिलक्षणश्लोकः-"दत्ती उ सत्याधुजत्तिए वारे, खिबई होति तत्तिया। अवोच्छिन्नणिवायाओ, दत्ती होइ दवेतरा ॥१॥" इति [यावतीवाराः क्षिपति तावत्यो| यो क्षिप्तादिदत्तयो भवन्ति । अव्युच्छिन्ननिपाता वेतरयोर्दत्तिर्भवति ॥१॥] तथा दृष्टस्यैव भक्तादेलाभस्तेन चरतीति तथैव दृष्टला स्थानादि भिकः, पृष्टस्यैव साधो! दीयते ते? इत्येवं यो लाभस्तेन चरतीति प्राग्वत् पृष्टलाभिक, आचाम्लं-समयप्रसिद्धं तेन चर-| तीत्याचाम्लिकः, निर्गतो घृतादिविकृतिभ्यो यः स निम्विकृतिका, पुरिमार्द्ध-पूर्वाहलक्षणं प्रत्याख्यानविशेषोऽस्ति यस्य सका |वैयावृत्त्यं तथा, परिमितो-द्रव्यादिपरिमाणतः पिण्डपातो-भक्तादिलाभो यस्यास्ति स परिमितपिण्डपातिका, भिन्नस्यैव-स्फोटितस्यैव | पिण्डस्य सक्तुकादिसम्बन्धिनः पातो-लाभो यस्यास्ति स भिन्नपिण्डपातिकः । ग्रहणानन्तरमभ्यवहरणं भवतीत्यत एतदु-1 च्यते-'अरसं' हिड्नवादिभिरसंस्कृतमाहारयतीत्यरसो वाऽऽहारो यस्यासावरसाहारः, एवं सर्वत्र, नवरं विरसं-विगतरस पुराणधान्यौदनादि, रूक्षं तैलादिवर्जितमिति, तथा अरसेन जीवितुं शीलमाजन्मापि यस्य स तथा, एवमन्यत्रापि । 'ठाणाइए'त्ति स्थान कायोत्सर्गः तमतिददाति-प्रकरोति अतिगच्छति वेति स्थानातिदः स्थानातिगो वेति, उत्कुटुका अनुक्रम [४३१] सू०३९७ मनस्यव-स्फोटितस्यैव ॥२९८ मन्यत्रापि An ElucatonianRH ~29~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [३९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९७] CCCC0- दीप Bासन-पीठादौ पुतालगनेनोपवेशनरूपमभिग्रहतो यस्यास्ति स उत्कुटुकासनिकः, तथा प्रतिमया-एकरात्रिफ्यादिकया कायोत्सर्गविशेषेणैव तिष्ठतीत्येवंशीलो यः स प्रतिमास्थायी 'वीरासनं' भून्यस्तपादस्य सिंहासने उपविष्टस्य तदपनयने या कायावस्था तद्रूपं, दुष्करं च तदिति, जत एव वीरस्य-साहसिकस्यासनमिति वीरासनमुक्तं तदस्थास्तीति वीरास४ानिका, तथा निषद्या-उपवेशनविशेषः, सा च पश्चधा, तत्र यस्यां समं पादी पुती च स्पृशतः सा समपादपुता १ यस्यां | तु गोरिवोपवेशनं सा गोनिषधिका २ यत्र तु पुताभ्यामुपविष्टः सन् एकं पादमुत्पाव्यास्ते सा हस्तिसुण्डिका ३ पर्यद्वार्द्धपर्यङ्का च प्रसिद्धा, निपद्यया चरति नैपधिक इति, दण्डस्येवायतिः-दीर्घत्वं पादप्रसारणेन यस्य स दण्डायतिकः, तथा लगण्डं फिल दुःसंस्थितं काष्ठं तन्मस्तकपार्णिकानां भुवि लगनेन पृष्ठस्य चालगनेनेत्यर्थः यः शेते तथाविधाभिग्रहात् | स लगण्डशायी, तथा आतापयति-आतापनां शीतातपादिसहनरूपां करोतीत्यातापकः, तथा न विद्यते प्रावृतं-बावरणं अस्येत्यप्रावृतका, तथा न कण्डूयत इत्यकण्डूयका, 'स्थानातिग' इत्यादिपदानां कल्पभाष्यव्याख्येयम्-"उद्धवाणं | ठाणाइयं तु पडिमा य होति मासाई। पंचेव णिसेज्जाओ तासि विभासा उ कायब्वा ॥१॥ वीरासणं तु सीहासणेब्व | जहमुक्कजाणुगणिविट्ठो । डंडे लगण्डउवमा आययकुज्जे य दोण्हंपि ॥ २॥ आयावणा य तिविहा उक्कोसा मज्झिमा जहन्ना य । उकोसा उ निवन्ना निसन्न मज्झा ठिय जहन्ना ॥३॥तिविहा होइ निवन्ना ओमंथिय पास तइय उत्ताणा" इति [ स्थानादिकमेवोर्णस्थानं प्रतिमा भवन्ति मासाद्याः । निषद्याः पंचैव तासां विभाषा तु कर्तव्या ॥१॥ ऊर्तजानुको (मुक्तजानुका) यथा सिंहासने निविष्टः वीरासनं दंडेन लगंडेन उपमा द्वयोरपि आयतकुब्जरवयोः॥१॥ आता अनुक्रम [४३१] 0-56-4-55%25%2587 ~30~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [३९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 65 प्रत सूत्रांक [३९७] दीप श्रीस्थाना-अपना च त्रिविधोत्कृष्टा मध्यमा जघन्या च सुप्तस्योत्कृष्टा निषण्णा मध्या स्थिता जपन्या ॥१॥ निर्वर्णा त्रिविधा भ- ५स्थाना० असूब वति अवमंथिता पार्था तथा उत्ताना] निषण्णापि त्रिविधा-"गोदुह उक्कुडपलियंकमेस तिविहा य मज्झिमा होइ। उद्देशः १ वृत्तिः तइया उ हस्थिसोंडगपायसमपाइया चेव ॥४॥” इति [(निषण्णा) गोदोहिकोत्कुटपर्यंका एषा त्रिविधा च मध्यमा दुर्गमसुग भवति तृतीया तु हस्तिसोंडिका पादसमपादिका चैव ॥१॥] इयं च निषण्णादिका त्रिविधाऽप्यातापना स्वस्थाने पुनर-15 मक्षान्ति॥२९९॥ प्युत्कृष्टादिभेदा ओमंथियादिभेदेनावगन्तव्या, इह च यद्यपि स्थानातिगत्वादीनामातापनायामन्तर्भावस्तथापि प्रधाने-दासत्याधु|तरविवक्षया न पुनरुक्तत्वं मन्तव्यमिति । तथा महानिर्जरो-बृहत्कर्मक्षयकारी महानिर्जरत्वाच्च महद्-आत्यन्तिकं पुन- क्षिप्तादिरुद्भवाभावात् पर्यवसानं-अन्तो यस्य स तथा, 'अगिलाए'त्ति अग्लान्या-अखिन्नतया बहुमानेनेत्यर्थः, आचार्यः प-13 स्थानादि थप्रकारः, तद्यथा-प्रजाजनाचार्यों दिगाचार्यः सूत्रस्य उद्देशनाचार्यः सूत्रस्य समुद्देशनाचार्यों वाचनाचार्यश्चेति, तस्व वै- सू०३९५ यावृस्य-व्यावृत्तस्य-शुभन्यापारवतो भावः कर्म वा वैयावृत्त्य-भक्तादिभिर्धर्मोपग्रहकारिवस्तुभिरुपग्रहकरणमाचार्य-वियावृत्त्यं वैयावृत्त्यं तत्कुर्वाणो-विदधदिति, एवमुत्तरपदेष्वपि, नवरमुपाध्यायः-सूत्रदाता स्थविरः स्थिरीकरणात् अथवा जात्या सू०३९७ पष्टिवार्षिक: पर्यायेण विंशतिवर्षपर्यायः श्रुतेन समवायधारी तपस्वी-मासक्षपकादिः ग्लान:-अशको व्याध्यादिभिरिति, तथा 'सेह'त्ति शिक्षकोऽभिनवप्रव्रजितः 'साधर्मिक' समानधर्मा लिङ्गतः प्रवचनतश्चेति, कुलं-चान्द्रादिक साधुसमुदायविशेषरूपं प्रतीत, गण:-कुलसमुदायः सङ्घो-गणसमुदाय इत्येवं सूत्रद्वयन दशविधं वैयावृत्त्यमाभ्यन्तरतपोभेदभूतं प्रतिपादितमिति, उच-"आयरियउवझाए थेरतवस्सीगिलाणसेहाणं । साहमियकुलगणसंघ संगयं त अनुक्रम [४३१] २९९ AMEducational ~31 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [३९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९७] SACSCAR दीप मिह कायव्यं ॥१॥" इति, [आचार्योपाध्यायस्थविरतपस्विशैक्षग्लानानां । साधर्मिककुलगणसंघस्य संगतं तदिह व्यम् ॥ १॥] पंचहि ठाणेहि सगणे णिगंधे साइम्मितं संभोतितं विसंभोतितं करेभाणे णातिकमति, सं०-सकिरितठ्ठाणं पडिसेवित्ता भवति १ पहिसे वित्ता णो आलोएइ २ आलोइत्ता णो पट्टवेति ३ पट्ठवेत्ता णो णिविसति ४ जाई इमाई थेराणं ठितिपकापाई भवति ताई अतिरंथिय २ पदिसेवेति से हंदऽहं पडिसेवामि किं मं थेरा करिस्संति ? ५ । पंचहिं ठाणेहिं समणे निग्गंधे साहमितं पारंचित करेमाणे णातिकमति, तं-सकुले वसति सकुलस्स भेदाते अन्भुट्टित्ता भवति १ गणे वसति गणस्स मेताते अन्भुटेता भवति २हिंसप्पेही ३छिदप्पेही ४ अमिक्खणं पसिणाततणाई पउंजित्ता भवति ५।(सू०३९८) आयरियउवझायरसणं गर्णसि पंच बुग्गवाणा पं० त०-आयरियश्वज्झाए णं गणंसि आणं वा धारण वा नो सम्म पउंजेत्ता भवति १ आयरियउवमाए णं गणंसि आधारातिणियाते कितिकम्मं नो सम्मं पतंजित्ता भवति २ आयरियजवज्झाते गणंसि जे मुत्तपज्जवजाते धारेति ते काले २ णो सम्ममणुप्पवातित्ता भवति ३ आयरियउवज्झाए गर्णसि गिलाणसेहवेयावचं नो सम्ममध्भुद्वित्ता भवति ४ आयरियउवज्झाते गणसि अणापुच्छितचारी यावि हवइ नो आपुग्छियचारी ५ । आवरियतवज्झायरस णं गर्णसि पंचाबुग्गहठ्ठाणा पं० २०-आयरियवशाए गणसि आणं वा धारण वा सम्म परंजिता भवति, एवमधारायणिताते सम्म किइकम्मं पउँजित्ता भवइ आयरियजवझाए णं गणंसि जे सुनपजवजाते धारेति ते काले २ सम्म अणुपवाइत्ता भवइ आयरियउवज्झाए गणंसि गिलाणसेहवेतावचं सम्म अब्भुहिता भवति आय अनुक्रम [४३१] ++CSC ~32~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [३९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९९] ॥३०॥ दीप श्रीस्थाना- रियउपमझाते गणसि भापुरिछयचारी याचि भवति णो अणापुच्छियचारी (सू० ३९९) पंच निसिजाओ पं० सं० 18 स्थाना० सूत्रउन्हुती गोदोहिता समपायपुता पलिका अद्धपलितका । पंच अज्जबढाणा पं० तं-साधुजन साधुमहयं साधुलाघवं | उद्देशः१ वृत्तिः साधुखंती साधुमुत्ती (सू०४००) विसंभोगसाम्भोगिक-एकभोजनमण्डलीकादिक विसाम्भोगिकं-मण्डलीबाह्यं कुर्वन्नातिकामति आज्ञामिति गम्यते, उचित पाराश्चिते प्रवादिति, सक्रिय--प्रस्तावादशुभकर्मवन्धयुक्तं स्थानं-अकृत्यविशेषलक्षणं प्रतिषेविता भवतीत्येकं, प्रतिषेव्य गुरवे ना-18 टब्युद्धहेतलोचयति-न निवेदयतीति द्वितीयं, आलोच्य 'गुरूपदिष्टप्रायश्चित्तं न प्रस्थापयति-कर्तुं नारभत इति तृतीयं, प्रस्थाप्य न निर्विशति-न समस्तं प्रवेशयत्यथवा 'निर्वेशः परिभोग' इति वचनान्न परिमुळे-नासेवत इत्यर्थः इति चतुर्थ, या-12 नीमानि सुप्रसिद्धतया प्रत्यक्षाणि 'स्थविराणां' स्थविरकल्पिकानां 'स्थिती समाचारे' प्रकल्प्यानि-प्रकल्पनीयानि यो-x सू०३९८ग्यानि विशुद्धपिण्डशय्यादीनि स्थितिप्रकल्प्यानि अथवा स्थितिश्च-मासकल्पादिका प्रकल्प्यानि च-पिण्डादीनि स्थि NA ३९९ ४०० | तिप्रकल्प्यानि तानि 'आइयंचिय अइयंचिय'त्ति अतिक्रम्यातिक्रम्येत्यर्थः, प्रतिपेवते तदन्यानीति गम्यते, अथ स-151 छाटकादिः साधुरेवं पालोचयति-यथा नैतत्प्रतिषेवितुमुचितं गुरुनौं बाह्यौ करिष्यति, तत्रेतर आह-'सें' इति तद- कल्प्यजातं 'हंदे'त्ति कोमलामन्त्रणं वचनं हमित्यकारप्रश्लेषादहं प्रतिषेवामि किं मम 'स्थविराः' गुरवः करिष्यन्ति ? न किशित्तै रुष्टैरपि में कर्तुं शक्यते इति बलोपदर्शनं पञ्चममिति । 'पारंचियंति दशमप्रायश्चित्तभेदवन्तमपहृतलि-13॥३०॥ & झादिकमित्यर्थः कुर्वनातिकामति सामायिकमिति गम्यते, कुले-चान्द्रादिके वसति गच्छवासीत्यर्थस्तस्यैव कुलस्य भेदा-1 अनुक्रम [४३३] SAMEucator . ForParamasPramond साम्भोगिक, विसाम्भोगिक, पारंचिय आदि शब्दानाम् व्याख्या ~33~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [१], मूलं [४००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४००]] दीप अनुक्रम [४३४] यान्योऽन्यमधिकरणोसादनेनाभ्युत्थाता भवति यतत इत्यर्थः इत्येकं, एवं गणस्यापीति द्वितीयं, तथा हिंसा-वधं सा-IN सध्यादेः प्रेक्षते-गवेषयतीति हिंसाप्रेक्षीति तृतीयं, हिंसार्थमेवापभाजनार्थ वा 'छिद्राणि प्रमत्ततादीनि प्रेक्षत इति छिद्र-I प्रेक्षीति चतुर्थं, अभीक्ष्णमितीह पुनःशब्दार्थः ततश्चाभीक्ष्णमभीक्ष्णं पुनः पुनरित्यर्थः प्रश्ना-अङ्गुष्ठकुड्यप्रश्नादयः साब द्यानुष्ठानपृच्छा वा त एवायतनान्यसंयमस्य प्रश्नायतनानि प्रयोक्ता भवति, प्रयुक्त इत्यर्थः इति पञ्चमं । तथा आचार्यो18/पाध्यायस्येति समाहारद्वन्दः कर्मधारयो वा, ततश्चाचार्यस्योपाध्यायस्य 'गणसि'त्ति गणे 'विग्रहस्थानानि कलहाश्रया. आचार्योपाध्यायौ द्वयं वा 'गणे' गणविषये 'आज्ञा' हे साधो! भवतेदं विधेयमित्येवंरूपामादिष्टिं 'धारणां' न विधेयमिदमित्येवंरूपां 'नो'नैव सम्यग्-औचित्येन प्रयोक्का भवतीति साधवः परस्परं कलहायन्ते असम्यग्नियोगात् दुनिय-1 त्रितत्वाच्च, अथवा अनौचित्यनियोक्तारमाचार्यादिकमेव कलहायन्ते इत्येवं सर्वत्रेति, अथवा गूढार्थपदैरगीतार्थस्य पुरतो देशान्तरस्थगीतार्थनिवेदनाय गीतार्थों यदतिचारनिवेदनं करोति साऽऽज्ञा, असकृदालोचनादानेन यत्प्रायश्चित्तविशेषावधारणं सा धारणा, तयोर्न सम्यक् प्रयोक्तेति स कलहभागिति प्रथम, तथा स एव 'आहाराइणियाए'त्ति रत्लानि द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतः कर्केतनादीनि भावतो ज्ञानादीनि, तत्र रलैः-ज्ञानादिभिर्व्यवहरतीति रानिका-वृहत्पर्यायो यो यो रालिको यथारालिकं तद्भावस्तत्ता तया यधारालिकतया-यथाज्येष्ठं कृतिकर्म-वन्दनक विनय एव वैनयिकं तच्च न सम्यक् प्रयोक्ता, अन्तर्भूतिकारितार्थत्वाद्वा प्रयोजयिता भवतीति द्वितीय, तथा स एवं | यानि श्रुतस्य पर्यवजातानि-सूत्रार्थप्रकारान् 'धारयति' धारणाविषयीकरोति तानि काले काले-यथावसरं न सम्यग JAMEauratani . ~344 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [४००] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४००]] दीप अनुक्रम [४३४] श्रीस्थाना नुप्रवाचयिता भवति-न पाठयतीत्यर्थः इति तृतीयं, काले अनुप्रवाचयितेत्युक्तं तत्र गाथा:-"कालकमेण पत्तं संव- ५ स्थाना मसूत्र- च्छरमाइणा उ जं जंमि । तं तंमि चेष धीरो वापज्जा सो य कालोऽयं ॥१॥ तिबरिसपरियागस्स उ आयारपकप्प-II | उद्देशः १ वृत्तिः नाममज्झयणं । चउवरिसस्स य सम्मं सूयगडं नाम अंगंति ॥ २॥ दसकप्पचवहारा संवच्छरपणगदिक्खियस्सेव।। | विसंभोग ठाणं समवाओऽविय अंगे ते अट्ठवासस्स ॥ ३॥ दसवासस्स विवाहो एक्कारसवासयस्स य इमे उ । खुड्डियविमाणमाई पाराञ्चिते ॥३०१॥ अज्झयणा पंच नायच्या ॥ ४॥ बारसवासस्स तहा अरुणुववायाइ पंच अज्झयणा । तेरसवासस्स तहा उट्ठाणसुयाइया | ब्युद्हेतचउरो॥ ५ ॥ चोदसवासस्स तहा आसीविसभावणं जिणा बिन्ति । पन्नरसवासगरस य दिहीविसभावर्ण तहय ॥ ६018 निषसोलसवासाईसु य एकोत्तरचुहिपसु जहसंखं । चारणभावणमहासुविणभावणा तेयगनिसग्गा ॥७॥ एगूणवीसवासगस्सद द्यार्जवे उ दिहिवाओ दुवालसममंग । संपुष्णवीसवरिसो अणुवाई सच्चसुत्तस्स ॥८॥"त्ति, [संवत्सराविना कालक्रमेण यस्मिन् जयदेव प्राप्तं तत्तस्मिन्नेव धीरो वाचयेत् सोऽयं कालः ॥१॥ विवर्षपर्यायकस्याचारप्रकल्पनामाध्ययनं चतुर्वेर्षस्य च सूत्र-18/ ३९९. कृनामाङ्गमिति सम्यग्वाचयेत् ॥२॥ दशाकल्पव्यवहाराः संवत्सरपंचकदीक्षितस्यैव स्थानांगं समवायोऽपि ते अष्टव-I स्यांगे ॥ ३॥ दशवर्षस्य विवाहः एकादशवर्षस्येमानि चालकविमानप्रविभक्त्यादीन्यध्ययनानि पंच ज्ञातव्यानि ॥४॥ द्वादशवर्षस्य तथाऽरुणोपपातादीनि पंचाध्ययनानि त्रयोदशवर्षस्य तथोत्थानश्रुतादिकानि चत्वारि ॥५॥ चतुर्दशवर्ष-18| स्याशीविषभावनां जिना ब्रुवन्ति पंचदशवर्षकस्य च दृष्टिविषभावनां तथा च ॥६॥षोडशवर्षादिषु चैकैकोत्तरवर्धितेषु ॥३०१॥ यथासंख्य चारणभावनां महास्वमभावनां तेजीनिसर्ग॥७॥ एकोनविंशतिकस्य तु दृष्टिवादो द्वादशममंग संपूर्णविं सू०३९८ ~35 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [४००] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४००]] दीप अनुक्रम [४३४] शतिवर्षोऽनुपाती सर्वश्रुतस्य ॥१॥] तथा स एव ग्लानशैक्षवैयावृत्त्यं प्रति न सम्यक् स्वयमभ्युत्थाता-अभ्युपगन्ता द भवतीति चतुर्थ, तथा स एव गणं अनापृच्छच चरति-क्षेत्रान्तरसङ्गमादि करोतीत्येवंशीलोऽनापृच्छयचारी, किमुक्त भवति ?-नो आपृच्छचचारीति पश्चम विग्रहस्थानं । एतदेव व्यतिरेकेणाह-अविग्रहसूत्रं गतार्थे । निषद्यासूत्रे निषदनानि | निषद्याः-उपवेशनप्रकारास्तत्रासनालग्नपुतः पादाभ्यामवस्थित उत्कुटुकस्तस्य या सा उस्कुटुका, तथा गोदोहनं गोदोहिका | तद्वद्याऽसी गोदोहिका, तथा समी-समतया भूलग्नौ पादौ च पुतौ च यस्यां सा समपादपुता, तथा पर्यङ्का-जिनप्रतिमानामिव या पद्मासनमिति रूढा, तथा अर्द्धपर्या-ऊरावेकपादनिवेशनलक्षणेति । तथा ऋजो-रागद्वेषवक्रत्ववाजैतस्य सामायिकवतः कर्म भावो वा आर्जवं संबर इत्यर्थः तस्य स्थानानि-भेदा आर्जवस्थानानि, साधु-सम्यग्दर्शनपूर्वक त्वेन शोभनमार्जवं-मायानिग्रहस्ततः कर्मधारयः साधोवा-यतेरार्जवं साध्वार्जवं, एवं शेषाण्यपि । आर्जवयुक्ताश्च | मृत्वा प्रायो देवा भवन्तीति पंचविहा जोइसिएत्यादिना ईसाणस्स णमेतदन्तेन ग्रन्थेन देवाधिकारमाह पंचविहा जोइसिया पं००-पंदा सूरा गहा नक्खत्ता शाराओ, पंचविहा देवा पं० सं०-भवितव्यदेवा गरदेवा धम्मदेवा देवातिदेवा भावदेवा (सू०४०१) पंचविहा परितारणा पं० २०-कातपरिचारणा फासपरितारणा रुवपरितारणा सहपरितारणा मणपरिवारणा (सू०४०२) चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररमो पंच अग्गमहिसीओ पं० तं०-काले राती रतणी विजू मेहा, बलिस्स णं वतिरोतर्णिदस्स वतिरोतणरन्नो पंच अगमहिसीओ पं० सं०सुभा णिमुभा रंभा णिरंभा मतणा (सू०४०३) चमरस्स जमसुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो पंच संगामिता अणिता पंच ५.०५.५-. स्था०५९ ~36~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [४०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना वात्त: प्रत ३०२॥ K सूत्रांक [४०४] दीप अनुक्रम [४३८] NE-HEBE%%*35*356057 संगामिया अणियाधिवती पं० सं०-पायत्ताणिते पीढाणिते कुंजराणिते महिसाणिते रहाणीते, दुमे पायत्ताणिताधिवती सोदामी आसराया पीढाणियाधिवती कुंथू हस्थिराया कुंजराणिताधिवती लोहितक्खे महिसाणिताधिवती किन्नरे रचाणिताधिवती । बलिस णं वतिरोतणिदस्स वतिरोतणरनो पंच संगामिताणिवा पंच संगामिताणीयाधिवती पं० सं०पावत्ताणिते जाब रथाणिते, महहुमे पायत्ताणिताधिवती महासोतामो आसराता पीढाणिताधिवती मालंकारो हस्थिराया कुंजराणिताधिपती महालोहिअक्खो महिसाणिताधिवती किंपुरिसे रधाणिताधिपती । धरणस्स णं णागकुमारिदस्स णागकुमाररमो पंच संगामिता अणिता पंच संगामिताणीयाधिपती पं००-पायत्ताणिते आव रहाणीय, भदसेणे पायसाणिताधिपती जसोधरे आसराया पीठाणिताधिपती सुदंसणे हस्थिराया कुंजराणिवाधिपती नीलकंठे महिसाणियाधिपती आणंदे रहाणिताहिबई । भूयाणंदस्स नागकुमारिंदस्स नागकुमाररन्नो पंच संगामियाणिया पंच संगामियाणीयाहिवई पं० २०-पायताणीए जाब रहाणीए दक्खे पायत्ताणियाहिवई सुग्गीवे आसराया पीढाणियाहियई सुविक्कमे हस्थिराया कुंजराणिताहिवई सेयकंठे महिसाणियाहिवई नंदुत्तरे रहाणियाहिवई। वेणुदेवस्स र्ण सुवनिंदस्स मुवनकुमाररनो पंच संगामियाणिता पंच संगामिताणिताहिपती पं० २०-पायत्ताणीते एवं जया धरणस्स तथा वेणुदेवस्सवि, वेणुदालियस्स जहा भूताणंदुस्स, जधा धरणस्स तहा सम्बेसि दाहिणिल्लाणं आव घोसस्स, जधा भूतार्णदस्स तधा सम्वेसिं पुतरिकाणं जाव महाघोसस्स । सकस्स णं देविंदस्स देवरन्नो पंच संगामिता अणिता पंच संगामिताणिताधिवती पं० सं० -पायत्ताणिते जाव उसमाणिते, हरिणेगमेसी पायत्ताणिताधिवती वाऊ आसराता पीढाणिताधिवई एरावणे हत्यिराया ५स्थाना उद्देशः १ ज्योतिष्कभव्यदेवादिपरिचारणाऽग्रमहिषीचमराधनीकानिद्विकल्पाभ्यन्तरपर्षस्थितिः |सू०४०१. ५०५ ॥ २॥ Saintaiatom : ~37~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [१], मूलं [४०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४०४] दीप अनुक्रम [४३८] कुंजराणिताधिपई दामट्टी उसमाणिताधिपती माढरो रधाणिताधिपती, ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरलो पंच संगामिया अणिता जाव पायत्ताणिते पीढाणिए कुंजराणिए उसमाणिए रधाणिते, लहुपरजमे पायत्ताणिताधिवती महावाऊ आसराया पीढाणियाहिबई पुष्फदते हस्थिराया कुंजराणियाहिवती महादामड़ी उसभाणियाहिबई महामावरे रथाणिवाहियती, जधा समस्स तहा सम्वेसि दाहिणिलाणं जाव आरणस्स जधा ईसाणस्स तहा सम्बोस उत्सरिलाण जाव अभुतस्स (सू०४०४) सपारस णं देविदस्स देवरत्नो अभंतपरिसाए देवाणं पंच पलिओषमाई ठिती पं०, ईसाणरस देविंदस्स देवरो अ. भंतरपरिसाते देवीणं पंच पलिओबमाई ठिती पं०, (स०४०५) सुगमश्चार्य, नवरं ज्योतींषि-बिमानविशेषास्तेषु भवा ज्योतिष्का इति, तथा दीव्यन्ति-क्रीडादिधर्मभाजो भवन्ति दीव्यन्ते वा-स्तूयन्ते ये ते देवाः, भव्या-भाविदेवपर्याययोग्या अत एव द्रव्यभूताः ते च ते देवाश्चेति भव्यद्रव्यदेवाः-वैमानिकादि ४, देवत्वेनानन्तरभवे ये उत्पत्स्यन्त इत्यर्थः, नराणां देवा नरदेवाश्चक्रवर्तिन इत्यर्थः, धर्मप्रधाना देवा धर्म-| देवा:-चारित्रवन्तो देवानां मध्ये अतिशयवन्तो देवाः देवाधिदेवाः-अर्हन्तः भावदेवा-देवायुष्काद्यनुभवन्तो वैमानिकादयः ४ इत्यर्थः । 'परितारण'त्ति वेदोदयप्रतीकारः, तत्र स्त्रीपुंसयोः कायेन परिचारणा-मैथुनप्रवृत्तिः कायपरिचा रणा ईशानकल्पं यावद् , एवमन्यत्रापि समासः, नवरं स्पर्शेन तदुपरि द्वयोः ४ रूपेण द्वयोः ६ शब्देन द्वयो ८ मनसा &चतुर्यु १२ अवेयकादिषु परिचारणैव नास्तीति । 'सावामिकाणि' सङ्घामप्रयोजनानि, एतच्च गान्धर्वनाव्यानीकयोयंव च्छेदार्थ विशेषणमिति, अनीकाधिपतयः-सैन्यमध्ये प्रधानाः पदात्यादयः, एवं पदातीना-पत्तीनां समूहः पादातं तदे ~38~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [४०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना प्रत सूत्रांक [४०५] दीप अनुक्रम [४३९] वानीकं पादातानीकं पीठानीक-अश्वसैन्यं, पादातानीकाधिपतिः पदातिरेवोत्तमः, अश्वराजा-पानावा, एषम- ५ स्थाना 12न्येऽपि, 'दाहिणिलाण'ति सनत्कुमारब्रह्मशुक्रानतारणानां, 'उत्तरिल्लाण'ति माहेन्द्रलान्तकमहन रणताच्युनाना- उद्देशा१ वृत्तिः मिति, इह च दाक्षिणात्याः सौधर्मादयो विषमसङ्ख्या इति विषमसङ्घयत्वं शब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तीकृत्य ब्रह्मलोकशुकी दायिक क्षिणात्यावुक्ती, समसङ्ख्यत्वं तु प्रवृत्तिनिमित्तीकृत्य लान्तकसहस्रारावुत्तराविति, तथा देवेन्द्रस्तचाध्ययनाभिधानप्रकीर्ण-1 ॥३०३॥ कश्रुत इव द्वादशानामिन्द्राणां विवक्षणादारणस्येत्यायुक्तमिति सम्भाव्यते, अन्यथा चतुषु द्वावेवेन्द्रावत आरण त्येत्या-131 द्यनुपपन्नं स्वादिति । इहानन्तरं देवानां वक्तव्यतोक्ता, दुष्टाध्यवसायस्य च प्राणिनस्सद्गातस्थित्यादिप्रतिघातो भवतीति । तनिरूपणायाह सू०४०६. पंचविधा पडिहा पं० २०-गतिपडिहा ठितीपडिहा बंधणपडिहा भोगपडिहा बलवीरितपुरिमवारपरकमपडिहा (सू०४०६) पंचविधे आजीविते पं० २०-जातिआजीवे कुलाजीवे कम्माजीवे सिपाजीवे लिंगाजीवे (सू० ५०७) पंच रातफकुहा पं० ०-खरगं छत्वं उपफेसं उपाणहाओ वालवीअणी (सू०४०८) 'पंचविहा पडिहे त्यादि सुगम, नवरं 'पडिह'त्ति प्राकृतत्वात् उप्पा इत्यादिवत्प्रतिघातः प्रतिहरनामेत्यर्थः, तत्र गतेः-देवगत्यादेः प्रकरणाच्छुभायाः प्रतिधातः-तमाप्तियोग्यत्वे सति विकर्माकरणादप्राप्तिगतिप्रतिघातः, प्रत्रश्यादिपरि. पालनता प्राप्तव्यशुभदेवगतेर्नरकप्राप्ती कण्डरीकस्येवेति, तथा स्थितेः-शुभदेवगतिप्रायोग्यकर्मणां बड़व प्रतिघात स्थितिप्रतिघाता, भवति चाध्यवसायविशेषारिस्थतेः प्रतिघातो, यदाह-“दीहकालठिइयाओ इसकालठियाओ पकरेइ"I 54251545455E ४०८ CAMEducaton ~39 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [४०८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ANGALA प्रत CIR सूत्रांक [४०८] दीप अनुक्रम [४४२] इति, [दीर्घकालस्थितिका इस्वकालस्थितिकाः प्रकरोति प्रकृतीः॥ तथा बन्धनं नामकर्मण उत्तरप्रकृतिरूपमौदारि|कादिभेदतः पञ्चविधं तस्य प्रक्रमात् प्रशस्तस्य प्राग्वत प्रतिघातो बन्धनप्रतिघातो, बन्धनग्रहणस्योपलक्षणत्वात् तत्सह-1 चरप्रशस्तशरीरतदङ्गोपाजसंहननसंस्थानानामपि प्रतिघातो व्याख्येयः, तथा प्रशस्तगतिस्थितिबन्धनादिप्रतिघाताद् भोगाना-प्रशस्तगत्याद्यविनाभूतानां प्रतिघातो भोगप्रतिघातो, भवति हि कारणाभावे कार्याभाव इति, तथा प्रशस्तगत्यादेरभावादेव बलवीर्यपुरुषकारपराक्रमप्रतिघातो भवतीति प्रतीतं, तत्र वलं-शारीरं वीर्य-जीवप्रभवं पुरुषकार:-अभिमानविशेषः पराक्रमः-स एव निष्पादितस्वविषयोऽथवा पुरुषकारः-पुरुषकर्त्तव्यं पराक्रमो-बलवीर्ययोव्यापारणमिति । देवगत्याविप्रतिघातच चारित्रातिचारकारिणो भवतीत्युत्तरगुणानाश्रित्य तद्विशेषमाह-पंचविहे त्यादि, जाति-नाझणादिकामाजीवति-उपजीवति तज्जातीयमात्मानं सूचादिनोपदय ततो भक्कादिकं गृहातीति जात्याजीवका, एवं सर्वत्र, नवर कुलम्-उग्रादिकं गुरुकुलं या कर्म-कृष्याद्यनाचार्य वा शिल्प-तूर्णनादि साचार्यकं वा लिई-माधुलिई तदाजीवति, ज्ञानादिशून्यस्तेन जीविका कल्पयतीत्यर्थः, लिङ्गस्थानेऽन्यत्र गणोऽधीयते, यत उक्तम्-"जाई कुलगणकम्मे सिप्पे आजीवणा उ पंचविहा । सूयाए असूयाए अप्पाण कहेइ एकके ॥१॥"त्ति, [आत्मनो जातिकुलगणकर्माणि शिल्पं वा सूचयाऽसूचया वैकैकं कथयतीति पंचविधा आजीवकाः॥१॥] तत्र गणो-मल्लादिः, सूचया-व्याजेनासूचया-साक्षात् । अनन्तरं साधूनां रजोहरणादिकं लिङ्गमुक्त, अधुना खङ्गादिरूपं राज्ञां तदेवाह-पंच रायककुभा' इत्यादि व्यक्तं, नवरं राज्ञां-नृपतीनां ककुदानि-चिह्नानि राजककुदानि, 'उप्फेसित्ति शिरोवेष्टनं शेखरक इत्यर्थः, SANGADC JAMERucatana ~40~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [४०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- ५स्थाना० उद्देशः१ जन्सूत्र- यानि प्रत वृत्तिः ॥३०४॥ बेलिपरिपहा सू०४०९ सूत्रांक [४०८] दीप अनुक्रम [४४२] ** 555555 पाहणाउति उपानही, वालव्यजनी चामरमित्यर्थः, श्रूयते च-"अवणेइ पंच ककुहाणि जाणि रायाण चिंधभू- याणि । खग्गं छत्तोवाणह मउड तह चामराओय ॥१॥" इति, [ख छवं उपानही मुकुट तथा चामराणि पंचापनयति यानि राज्ञः चिह्वभूतानि ॥१॥] अनन्तरोदितककुदयोग्यश्चैयाकादिपत्राजितः सरागोऽपि सन् सत्त्वाधिकत्वाद्यानि वस्तून्यालम्ब्य परीपहादीनपगणयति तान्याह पंचहिं ठाणेहिं छउमरथे ण दिन्ने परिस्सहोवसग्गे सम्मं सहेजा खमेजा तितिक्खेञा अहियासेज्जा, सं०-उदिनकम्मे खलु अयं पुरिसे उम्मत्तगभूते, तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा अवहसति वा णिच्छोटेति वा णिभंछेति वा बंधति या रंभति वा उपिच्छे फरेति वा पमारं वा नेति उहवेइ वा वस्थ वा पडिग्गई वा कंपलं या पायपुंछणमछिदति वा विच्छिदति वा भिंदति वा अवहरति वा १, जक्खातिढे खलु अयं पुरिसे, तेणं मे एस पुरिसे अकोसति वा तहेव जाव अवहरति वा २, ममं च णं तम्भववेयणिजे कम्मे उतिने भवति, तेण मे एस पुरिसे अकोसति वा जाव अवहरति वा ३, मर्म च णं सम्ममसहमाणस्स अखममाणस्स अतितिक्खमाणस्स अणधितासमाणस्स किं मन्ने कजति', एगंतसो मे पाये कम्मे कजति ४, ममं च णं सम्म सहमाणस्स जाव अहिवासेमाणस्स किं मन्ने कजति !, एरोतसो मे णिजरा कजति ५, इथेतेहिं पंचदि ठाणेहिं छउमत्थे उदिन्ने परीसहोवसग्गे सम्म सहेजा जाव अहियासेजा। पंचहिं ठाणेहिं केवली उदिने परीसहोषसम्मे सम्म सहेजा जाव अहियासेजा, ०-खित्तचित्ते खलु अतं पुरिसे तेण मे एस पुरिसे अकोसति वा तहेब जाव अवहरति वा १ दित्तचित्ते खलु अयं पुरिसे तेण मे एस पुरिसे जाव अवहरति वा०२ जक्खातिढे खलु ॥३०४॥ aam Educatani ~41~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४०९] दीप अनुक्रम [४४३] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [५], उद्देशक [१], मूलं [ ४०९ ] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अयं पुरिसे तेण मे एस पुरिसे जाव अवहरति वा ३ ममं च णं तमववेयणिजे कम्मे उदिने भवति तेण मे एस पुरिसे जाव अवहरति वा ४ ममं चणं सम्मं सहमाणं सममाणं तितिक्खमाणं अहियासेमाणं पासेत्ता बहवे अन्ने छडमत्था समणा णिग्या उदिने २ परीसदोवसग्गे एवं सम्मं सहिस्संति जाव अहियासिरसंति ५, इथेतेहि पंचहि ठाणेहिं केवली उदिन्ने परीसहोवसग्गे सम्मं सहेजा जाव अहियासेज्जा (सू० ४०९) • स्फुटं, किन्तु छाद्यते येन तच्छद्म-ज्ञानावरणादिघातिकर्म्मचतुष्टयं तत्र तिष्ठतीति छद्मस्थः सकपाय इत्यर्थः, उदीर्णान् उदितान् परीषहोपसर्गान् अभिहितस्वरूपान् सम्यक् कषायोदयनिरोधादिना सहेत - भयाभावेनाविचलनाद् भटं भटवत् क्षमेत क्षान्त्या तितिक्षेत अदीनतया अध्यासीत परीपहादावेवाधिक्येनासीत न चलेदिति, उदीर्ण-उदितं प्रबल वा कर्म्म- मिथ्यात्वमोहनीयादि यस्य स उदीर्णकर्मा खलुर्वाक्यालङ्कारे अयं प्रत्यक्षः पुरुषः उन्मत्तको मदिरादिना विप्लुतचित्तः स इव उन्मत्तकभूतो, भूतशब्दस्यो मानार्थत्वात्, उन्मत्तक एव वा उन्मत्तकभूतो, भूतशब्दस्य प्रकृत्यर्थत्वात् उदीर्णकम्म यतोऽयमुन्मत्तकभूतः पुरुषः तेन कारणेन 'मे' इति मां एष:-अयमाक्रोशति शपति अपहसतिउपहासं करोति अपघर्षति वा अपघर्षणं करोति निश्छोदयति-सम्बन्ध्यन्तरसम्बद्धं हस्तादौ गृहीत्वा बलात् क्षिपति निर्भर्त्सयति दुर्वचनैः बध्नाति रज्यादिना रुणद्धि कारागारप्रवेशादिना छवेः- शरीरावयवस्य हस्तादेः छेदं करोति मरण| प्रारम्भः प्रमारो-मूर्च्छाविशेषो मारणस्थानं वा तं नयति-प्रापयतीति अपद्रावयति मारयति अथवा प्रमारं - मरणमेव 'उबद्दवेइति उपद्रवयति उपद्रवं करोतीति, पतद्महं पात्रं कम्बलं - प्रतीतं पादमोडनं रजोहरणं आच्छिनत्ति- बलादु छद्मस्थ, उदीर्णकर्मा, पतद्ग्रह, पादप्रछन आदि शब्दानाम् व्याख्या For Personal & Pre Only ~ 42~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [४०९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [03] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: भीस्थाना- सूत्र वृत्तिः प्रत सूत्रांक [४०९] H२०५॥ दीप दालयति 'विकिछनति' विच्छिन्नं करोति, दूरे व्यवस्थापयतीत्यर्थः, अथवा वखमीपच्छिनत्ति आच्छिनत्ति, विशेषेण ५स्थाना. |छिनत्ति विच्छिनत्ति, भिनत्ति-पात्रं स्फोटयति अपहरति-चोरयति, वाशब्दाः सर्वे बिकल्पार्था इत्येक परीषहादिसह- हेशः १ नालम्बनस्थानं, इदं चाक्रोशादिक, इह प्राय आक्रोशवधाभिधानपरीषहद्वयरूपं मन्तव्यमुपसर्गविवक्षायां तु मानुष्यक- छमस्थकेप्राद्वेषिकाद्युपसर्गरूपमिति १। तथा यक्षाविष्टो-देवाधिष्ठितोऽयं तेनाकोशतीत्यादि द्वितीयं २, तथा अयं हि परीपहो-13 वेलिपरिपसर्गकारी मिथ्यात्वादिकर्मवशवत्ती 'मर्म च णति मम पुनस्तेनैव-मानुष्यकेण भवेन-जन्मना वेद्यते-अनुभूयते यत्तत्तद्भववेदनीयं कर्म उदीर्ण भवति-अस्ति तेनैष मामाकोशतीत्यादि तृतीयं ३, तथा एप बालिशः पापाभीतत्वा-II नातवा- सू०४०९ करोतु नामाकोशनादि मम पुनरसहमानस्य 'किं मन्नेत्ति मन्ये इति निपातो वितकार्थः 'कज्जइति सम्पद्यते, इह वि-5 | निश्चयमाह-एगतसो त्ति एकान्तेन सर्वथा पापं कर्म-असातादि 'क्रियते' संपद्यत इति चतुर्थं, तथा अयं तावत् पापं बनाति मम चेदं सहतो निर्जरा क्रियत इति पञ्चम, 'इचेएही'त्यादि निगमनमिति, शेषं सुगर्म । छद्मस्थविपर्ययः । केवलीति तत्सूत्रं, तत्र च क्षिप्तचित्तः-पुत्रशोकादिना नष्टचित्तः, दृप्तचित्तः-पुत्रजन्मादिना दर्पवञ्चित्त उन्मत्त एवेति, |मां च सहमानं दृष्ट्वा अन्येऽपि सहिष्यन्ति, उत्तमानुसारित्वात् प्राय इतरेषां, यदाह-"जो उत्तमेहिं मग्गो पहओ सो ट्र | दुक्करो न सेसाणं । आयरियमि जयंते तयणुचरा केण सीएज्जा?॥१॥" इति, [यो मार्ग उत्तमैः प्रहतः स शेषाणां न दुष्करः आचार्ये यतमाने तदनुचराः केन सीदेयुः। ॥१॥] 'इच्चेएही त्याद्यत्रापि निगमनं, शेष सुगममिति । छद्मस्थकेवलिनोरनन्तरं स्वरूपमुक्तमिदानीमपि तयोरेव तदाह अनुक्रम [४४३] +ASOK . AMEducation ~43~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [४१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१०] दीप अनुक्रम [४४४] पंच हेऊ पं०२०-हे न जाणति हेर्ड ण पासति हेण बुज्झति हेडं णाभिगच्छति हे अन्नाणमरणं मरसि १ पंच हे पं० सं०-हेजणा ण जाणति जाव हेउणा अन्नाणभरणं मरति ५, २, पंच हेऊ पं० सं०-हे जाणइ जाव हे छउमत्थमरणं मरइ ३, पंच हे पं० २०-उणा जाणइ जाव हेउणा छतमत्थमरणं मरइ, पंच अहेऊ पं० त०-अदेउ ण याणति जाव अहेवं छउमत्थमरणं मरति ५, पंच अहेऊ पं० २०-अहेउणा न जाणति जाव अहेषणा छउमस्थमरणं मरति ६, पंच आहेऊ पं००....अहे जाणति जाव अहे केवलिभरणं मरति ७, पंच अहेऊ पं० २० -अहेउणा ण जाणति जाव अहेउणा केवलिमरणं मरति ८, केवलिस णं पंच अणुत्तरा पं० त०-अणुत्तरे नाणे अणुत्तरे ईसणे अणुत्तरे चरिते अणुत्तरे तवे अणुत्तरे वीरिते ९ (सू० ४१०) 'पंच हेज' इत्यादि सूत्रनवक, तन्त्र भगवतीपञ्चमशतसप्तमोहेशकर्ण्यनुसारेण किमपि लिख्यते, पञ्च हेतवः, इह: यः छद्मस्थतयाऽनुमानव्यवहारी अनुमानाङ्गतया हेतु-लिङ्गं धूमादिकं जानाति स हेतुरेवोच्यते, एवं यः पश्यति २ श्रद्धते ३ प्रामोति चेति ४, तदेव हेतुचतुष्टयं मिथ्यादृष्टिमाश्रित्य कुत्साद्वारेणाह-हेतुं न जानाति-न सम्यग्विशेषतो| | गृह्णाति, नत्रः कुत्सार्थत्वादसम्यगवतीत्यर्थः, एवं न पश्यति सामान्यतः, न बुद्ध्यते-न श्रद्धत्ते, बोधेः श्रद्धानपर्यायस्वात्, तथा न समभिगच्छति-भवनिस्तरणकारणतया न प्राप्नोति, एवं चायं चतुर्विधो हेतुर्भवतीति, तथा हेतुम्-अध्य-1 वसानादिमरणहेतुजन्यत्वेनोपचाराद् अज्ञानमरणं मिथ्यादृष्टित्वेनाज्ञातहेतुतदम्यभावस्य मरणं तन्धियते-करोति यश्चै|वविधः सोऽपि हेतुरेवेति पञ्चमो हेतुर्विधित एवोक्त इति १ । तथा पंच हेतवस्तत्र यो हेतुना-धूमादिनाऽनुमेयमर्थ जा AKAARAKAR aam Educaton ~44~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [४१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक सू०४१० [४१०] दीप अनुक्रम [४४४] श्रीस्थाना-13/नाति स हेतुरेव, एवं यः पश्यतीत्यादि । तदेव कुत्साद्वारेण मिथ्यादृष्टिमानित्य हेतुचतुष्टयमाह-हेतुना न जानात्यनुमेयं, ५ स्थाना० नसूत्र- नञः कुत्सार्थत्वादेवासम्यगवगच्छतीत्यर्थः ,एवं न पश्यतीत्यादि, तथा हेतुना-मरणकारणेन योऽज्ञानमरणं म्रियते स उद्देशः १ वृत्तिः हेतुरेवेति पञ्चमो हेतुरिति २। तथा पछ हेतवो यो हि सम्यग्दृष्टितया हेतुं सम्बग्जानाति स हेतुरेवेत्येवमन्येऽपि, नवरं हेत्वहेतवः हेतु-हेतुमत् छद्मस्थमरणं सम्यग्दृष्टित्वान्नाज्ञानमरणमनुमातृत्वाच्च न केवलिभरणमिति, एवं तृतीयान्तसूत्रमपि ३ अनुत्तराइह सूत्रद्वयेऽपि हेतवः स्वरूपत उक्काः ४, [ मिथ्यादृष्टिसम्यग्दृष्टियुग्मापेक्षया सूत्रयुगलता अन्यथा सूत्रचतुष्टयं माला णि च केतथा पश्चाहेतवः यः सर्वज्ञतया अनुमानानपेक्षः स धूमादिकं हेतुं नायं हेतुर्ममानुमानोत्थापक इत्येवं जानाती- वेलिनः त्यतोऽहेतुभूतं तं जाननहेतुरेवासावुच्यते, एवं दर्शनबोधाभिसमागमापेक्षयाऽपि । तदेवम (व अ) हेतुचतुष्टयं ही छद्मस्थमाश्रित्य देशनिषेधत आह–'अहेतु'मिति, धूमादिकं हेतुमहेतुभावेन न जानाति-न सर्वथाऽवगच्छति, |कथश्चिदेवावगतीत्यर्थः, नजो देशनिषेधार्थत्वात्, ज्ञातुश्चावध्यादिकेवलित्वेनानुमानाव्यवहर्तृत्वादित्येकोऽयमहेतुर्देश प्रतिषेधत उक्ता, एवमहेतुं कृत्वा धूमादिकं न पश्यतीति द्वितीयो, न बुध्यत्ते-न श्रद्धत्ते इति तृतीयो, नाभिसमागच्छ&ातीति चतुर्थः, तथा अहेतु-अध्यवसानादिहेतुनिरपेक्षं निरुपक्रमतया छद्मस्थमरणम्-अनुमानव्यवहतॄत्वेऽप्यकेवलित्वात् तस्य, अयं च स्वरूपत एवं पञ्चमोऽहेतुरुका ५ । तथा पञ्चाहेतवो योऽहेतुना-हेत्वभावेन केवलित्वात् जानासत्यसावहेतुरेवेत्येवं पश्यतीत्यादयोऽपि, एवं च छद्मस्थमाश्रित्य पदचतुष्टयेनाहेतुचतुष्टयं देशप्रतिषेधत आह-तथा अहे तुना-उपक्रमाभावेन छद्मस्थमरणं वियत इति पञ्चमोऽहेतुः स्वरूपत एवोक्ता ६। तथा पञ्चाहेतवः अहेतुं न हेतुभावेन CONCERA ~45~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [१], मूलं [४१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: IC प्रत सूत्रांक [४१०] दीप अनुक्रम [४४४] विकल्पितं धूमादिकं जानाति केवलितया योऽनुमानाव्यवहारित्वात् सोऽहेतुरेव, एवं यः पश्यतीत्यादि, तथा अहेतुनिर्हेतुकमनुपक्रमत्वात् केवलिमरणमनुमानाव्यवहारिवान्धियते-यात्यसावहेतुः पञ्चमः, एते पश्चापीह स्वरूपत उक्ताः, ७। एवं तृतीयान्तसूत्रमप्यनुसनव्यमिति ८ गमनिकामात्रमेतत्, तत्त्वं तु बहुश्रुता विदन्तीति । तथा न सन्त्युत्तरामणि-प्रधानानि येभ्यस्तान्यनुत्तराणि, यथास्वं सर्वथाऽऽवरणक्षयात् , तत्राचे ज्ञानदर्शनावरणक्षयाद्, अनन्तरे मोहक्षयात् , तपसश्चारित्रभेदत्वात् , तपश्च केबलिनामनुत्तरं शैलेश्यवस्थायां शुक्लध्यानभेदस्वरूपं, ध्यानस्याभ्यन्तरतपोभेदत्वात् , ट्रा वीर्य तु वीर्यान्तरायक्षयादिति ९। केवल्यधिकारात् तीर्थकरसूत्राणि चतुर्दश, पउभपहे णमरहा पंचचित्ते हुस्था, तं०-चित्ताहिं चुते चइत्ता गम्भं वकंते चित्ताहिं जाते विताहि मुंटे भवित्ता अगाराओ अणगारितं पवइए चित्ताहि अणते अणुत्तरे णिवाघाए णिरावरणे कसिणे पडिपुग्ने केवलपरनाणसणे समुप्पन्ने चित्ताहि परिणिन्चुते, पुष्फदते णं अरहा पंचमूले हुत्या, मूलेणं चुते चइत्ता गर्भ वकते, एवं चेव एवमेतेणं अभिलावेणं इमातो गाहातो अणुगंतव्बातो, पउमप्पभस्स चित्ता १ मूले पुण होइ पुष्पदंतस्स २ । पुवाई आसाढा ३ सीयलस्सुत्तर विमलस्स भवता ४ ॥ १॥ रेवतिता अणंतजिणो ५ पूसो धम्मस्स ६ संतिणो भरणी ७कुंथुस्स कत्तियामो ८ अरस्स तह रेवतीतो य ९॥२॥ मुणिसुब्बयस्स सवणो १० आसिणि णमिणो ११ य नेमिणो चिचा १२ । पासस्स बिसाहाओ १३ पंच व हरथुत्तरो बीरो १४ ।। ३ ॥ समर्ण भगवं महावीर पंचहत्थुत्तरे होत्या हत्थु'तराहिं चुए चइत्ता गम्भं वक्रते हत्युत्तराहिं गम्भाओ गम्भ साहरिते हत्थुत्तराहिं जाते हत्युत्तराहिं मुंडे भवित्ता आव SAMSRX ~46~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [१], मूलं [४११] + गाथा १-३ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक वृत्तिः ॥३०७॥ [४११] गाथा ||१-३|| दीप अनुक्रम [४४५-४४९] श्रीस्थाना-18 पव्वइए हत्युत्तराहिं अणते अणुत्तरे जाव केवलवरनाणदसणे समुप्पन्ने ॥ (सू० ४११) इति पंचमट्ठाणस्स पढमो १५स्थाना० सूत्रउहेसओ समतो॥ उद्देशः१ IPL कण्ठ्यानि चैतानि नवरं पद्मप्रभः-ऋषभादिषु षष्ठः, पञ्चसु च्यवनादिदिनेषु चित्रा नक्षत्रविशेषो यस्य स पञ्चचित्रः पद्मप्रभा |चित्राभिरिति रूल्या बहुवचनं, च्युतः-अवतीर्णः उपरिमोपरिमोवेयकादेकत्रिंशत्सागरोपमस्थितिकात् च्युत्वा च 'गन्भंति विस्थानगन्में कुक्षी व्युत्क्रान्तः-उत्पन्नः, कौशाम्च्यां धराभिधानमहाराजभार्यायाः सुसीमानामिकायाः माघमासबहुलषष्ठयां, कानि जातो गर्भनिर्गमनेन कार्तिकबहुल द्वादश्यां तथा मुण्डो भूत्वा केशकषायाद्यपेक्षया अगारान्निष्कम्यानगारिता-श्रमणतां सू०४११ प्रवजितो-गतः अनगारितया वा प्रश्नजितः कार्तिकशुद्धत्रयोदश्यां, तथाऽनन्तं पर्यायानन्तत्वात् अनुत्तरं सर्वज्ञानोत्तम-16 स्वात् निर्व्याघातमप्रतिपातित्वात् निरावरणं सर्वथा स्वावरणक्षयात् कटकुझ्याद्यावरणाभावाद्वा कृत्स्नं सकलपदार्थ-IN विषयत्वात् परिपूर्ण स्वावयवापेक्षया अखण्डं पौर्णमासीचन्द्रबिम्बवत्, किमित्याह-केवलं ज्ञानान्तरासहायत्वात् संशुदाद्धत्वाद्वा अत एव वरं-प्रधानं केवलवरं ज्ञानं च-विशेषावभासं दर्शनं च-सामान्यावभासं ज्ञानदर्शनं तच्च तत्तयेति | केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पन्न-जातं चैत्रशुद्धपञ्चदश्यां, तथा परिनिर्वतो-निर्वाणं गतः मार्गशीर्षबहुलैकादश्यामादेशा-| ४ान्तरेण फाल्गुनबहुलचतुयामिति । एवं चेव'त्ति पद्मप्रभसूत्रमिव पुष्पदन्तसूत्रमष्यध्येतन्यं, 'एवं' अनन्तरोक्तस्वरूपेण | एतेन-अनन्तरत्वात् प्रत्यक्षेणाभिलापेन सूत्रपाठेनेमास्तिस्रः सूत्रसङ्गहाणगाथा अनुगन्तव्या:-अनुसत्तेव्याः, शेषसूत्राभिलापनिष्पादनार्थं 'पउमप्पभस्से'त्यादि, तत्र पद्मप्रभस्य चित्रानक्षत्रं च्यवनादिषु पञ्चसु स्थानकेषु भवतीत्यादि गा.। ॥३०७॥ Educatonintan ~47~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [१], मूलं [४११] + गाथा १-३ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४११] गाथा ||१-३|| दीप अनुक्रम [४४५-४४९] थाक्षरार्थों वक्तव्यः, सूत्राभिलापस्त्वायसूत्रद्वयस्य साक्षाद्दर्शित एव, इतरेषां वेब-सीयले गं अरहा पंचपुत्रासादे होत्था, तंजहा-पुन्यासाढाहिं चुए चइता गम्भ वकते, पुब्वासाढाहिं जाए' इत्यादि, एवं सर्वाण्यपि इति, व्याख्या त्वेवं -पुष्पदन्तो-नवमतीर्थकरः आनतकल्पादेकोनविंशतिसागरोपमस्थितिकात् फाल्गुनबहुलनवम्यां मूलनक्षत्रे च्युत-11 युवा काकन्दीनगर्यो सुग्रीवराजभार्यायाः रामाभिधानाया गर्भत्वेन व्युत्क्रान्तः ?, मूलनक्षत्रे मार्गशीर्षबहुलपशम्यां जाता, तथा मूल एव ज्येष्ठ शुद्धप्रतिपदि मतान्तरेण मार्गशीर्षबहुलषष्ठयां निष्कान्तः, तथा मूल एव कार्तिकशुद्धतृतीयायां केवलज्ञानमुलभ, तथा अश्वयुजः शुद्धनवम्यामादेशान्तरेण वैशाखबहुलषष्ठयां निर्वृत इति २, तथा शीतलोदशमजिनः प्राणतकल्पादिशतिसागरोपमस्थितिकाद्वशाखबहुलषष्ठयां पूर्वोपादानक्षत्रे च्युतः रुयुत्वा च भहिलपुरे दृढ रथनृपतिभाया नन्दाया गर्भतया व्युत्कान्तः, तथा पूर्वाषाढावेव माघबहुलद्वादश्यां आतः, तथा पूर्वाषाढास्वेव ४ माघबहुलद्वादश्यां निष्कान्तः, तथा पूर्वाषाढास्वेव पौषस्य शुद्धे मतान्तरेण बहुले पक्षे चतुर्दश्यां ज्ञानमुत्पन्न, तथा त-18 तत्रैव नक्षत्रे श्रावणशुद्धपञ्चम्यां मतान्तरेण श्रावणबहुल द्वितीयायां निर्वृत इति, एवं गाथात्रयोक्तानां शेषाणामपि सूदत्राणां प्रथमानुयोगपदानुसारेणोपयुज्य व्याख्या कार्या, नवरं चतुर्दशसूत्रे अभिलापविशेषोऽस्तीति तदर्शनार्थमाह 'समय'त्यादि, हस्तोपलक्षिता उत्तरा इस्तो वोत्तरो यासां ता हस्तोत्तराः-उत्तराः फाल्गुन्यः, पञ्चसु च्यवनगर्भहरणादिषु हस्तोत्तरा यस्य स तथा 'गर्भात्' गर्भस्थानात् 'गर्भ'न्ति गर्भे गर्भस्थानान्तरे संहृतो-नीता, निवृतस्तु स्वातिनक्षत्रे कार्तिकामावास्थायामिति ॥ इति पञ्चमस्थानकस्य प्रथमोदेशको विवरणतः समाप्तः ॥ स्था०५२ भत्र पंचम स्थानस्य प्रथमो उद्देशक: परिसमाप्त: ~48~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ४१२] दीप अनुक्रम [४५०] [भाग - 6] "स्थान" स्थान [ ५ ], उद्देशक [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [४१२] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ३०८ ॥ Education उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - अनन्तरोदेशके विविधा जीववक्तव्यतोक्ता इहापि सैवोच्यत इत्येवमभिसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् - नो कप्पइ निगंधाण वा निमांधीण वा इमाओ उद्दिट्ठाओ गणियाओ वितंजितातो पंच महण्णवातो महानदीओ अंतो मासस्स दुक्खुतो वा तिक्खुचो वा उत्तरितए वा संतरितए वा गंगा जडणा सरऊ एरावती मही, पंचदि ठाणेहिं कप्पति, सं० भवंसि वा १ दुब्भिक्खंसि वा २ पव्वहेज व णं कोई ३ दोघंसि वा एजमाणंसि महता बा ४ अणारितेसु ५ ( सू० ४१२ ) णो कप्पर णिमथाण वा निमथीण वा पढमपाउसंसि गामाणुगामं दूइजितर, पंचहि ठाणेहिं कप्पर, तं०—भयंसि वा दुब्भिक्संसि वा जाव महता वा अणारितेहिं ५ । वासावासं पज्जोसविताणं णो कप्पइ णिग्गंथाण वा २ गामाशुगामं दूइजित्तए, पंचहि ठाणेहिं कप्पर, तं० गाणयाए दंसणट्टयाए चरितद्वयाए आयरियउवज्झाया वा से बीसुंभेज्जा आयरितउज्झायाण वा बहिता वे आवञ्चं करणताते (सू० ४१३ ) अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः - पूर्वसूत्रे केवलि निर्ग्रन्थगतं वस्तूतमिह तु छद्मस्थनिर्ग्रन्थगतं तदुच्यत इत्येबमस्याराद्गर्भसूत्राद् अन्येषां च सम्बन्धानां नो कप्पईत्यादीनां व्याख्या सुकरैव, नवरं 'नो कप्पड़'त्ति न कल्पन्ते-न युज्यन्ते, एकवचनस्य बहुवचनार्थस्यात् 'वत्थगन्धमलङ्कार' मित्यादाविवेति, निर्गता ग्रन्थादिति निर्ग्रन्थाः साधवस्तेषां, तथा निर्ग्रन्थीनां साध्वीनां, इह प्रायस्तुल्यानुष्ठानत्वमुभयेषामपीतिदर्शनार्थी वाशब्दौ 'इमा' इति वक्ष्यमाणानामतः प्रत्यक्षासन्ना उद्दिष्टा:- सामान्यतोऽभिहिता यथा महानद्य इति गणिताः यथा पश्चेति व्यञ्जिता व्यक्तीकृताः यथा गङ्गे अथ पंचम स्थानस्य द्वितीयो उद्देशक: आरब्धः For Personal & Pre Only ~49~ ५ स्थाना० उद्देशः २ महानधुचारेतरी प्रथमप्रावृ पर्युषणा बिहारेतरौ [सू०४१२ ४१३ ॥ ३०८ ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ४१३] दीप अनुक्रम [४५१] Education [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [४१३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [ ५ ], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] त्यादि विशेषणोपादानाद्वा यथा महार्णवा इति, तत्र महार्णव इव या बहूदकत्वात् महार्णवगामिन्यो वा यास्ता वा महार्णवा महानयो- गुरुनिम्नगाः अन्तः - मध्ये मासस्य द्विकृत्वो वा द्वौ वारौ त्रिकृत्वो वा त्रीन्वारान् उत्तरीतुं लङ्घयितुं बाहुजङ्घादिना सन्तरीतुं साङ्गत्येन नावादिनेत्यर्थः लङ्घयितुमेव, सकृद्वोत्तरी तुमनेकशः सन्तरीतुमिति, अकल्प्यता चात्मसंयमोपघातसम्भवात् शवलचारित्रभावाद्, यत आह- “मासम्भंतर तिन्नि दगलेवा उ करेमाणे "त्ति [ मासान्तस्त्रीणि दकलेपनानि नाभिप्रमाणजलोत्तरणानि कुर्वन् ] [ उदकलेपो - नाभिप्रमाणजलावतरणमिति > इह सूत्रे कल्पभाष्यगाथा - "इमउत्ति सुतउत्ता १ उद्दिट्ठ नईओ २ गणिय पंचैत्र ३ गंगादि वंजियाओ ४ बह्रदय महवाओ य ५ ॥ १ ॥ पंचहं गहणेणं सेसावि उ सूइया महासलिला ॥” इति [ इमां इति सूत्रोक्ता उद्दिष्टा नद्यः गणिताः पंचैव व्यंजिताः गंगादिकाः बहूदका महार्णवाः ॥ १ पंचानां ग्रहणेन शेषा अपि महासलिलाः सूचिताः] प्रत्यपायाश्चेह“ओहारमगराइया घोरा तत्थ उ सावया । सरीरोवाहिमाईया, जावातेणा व कत्थइ ॥ १ ॥” इति [अपहारः (मत्स्यः ) मकरादिका घोरास्तत्र श्वापदाः एवं शरीरोपधिस्तेना वा नौस्तेना वा कुत्रचित् ॥ १ ॥ ] अपवादमाह - 'पंचे'त्यादि, भये - राजप्रत्यनीकादेः सकाशादुपध्याद्यपहारविषये सति १ दुर्भिक्षे वा भिक्षाऽभावे सति २, 'पण्यहेज्ज'त्ति प्रव्यथतेबाघते अन्तर्भूतकारितार्थत्वाद्वा प्रवाहयेत् कश्चित् प्रत्यनीकः, तत्रैव गङ्गादौ प्रक्षिपेदित्यर्थः ३ 'दओघंसि'त्ति उदकौघे वा गङ्गादीनामुन्मार्गगामित्वेनागच्छति सति तेन प्लाव्यमानानामित्यर्थः, महता व आटोपेनेति शेषः ४, 'अणारिएसुति विभक्तिव्यत्ययादनार्यैः- म्लेच्छादिभिर्जीवित चारित्रापहारिभिरभिभूतानामिति शेषः, म्लेच्छेषु वा आगच्छतिस्वति For Personal & Pre Only ~ 50~ nary op Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः ॥३०९॥ उद्देशः२ महानद्यु CA सूत्रांक [४१३]] दीप अनुक्रम [४५१] शेषः, एतानि पुष्टालम्बनानीति तत्तरणेऽपि न दोष इति, उक्तं च-"सालंबणो पडतोवि अप्पयं दुग्गमेऽवि धारेइ । ५ स्थाना० इय सालवणसेची धारेइ जई असढभावं ॥१॥ आलंबणहीणो पुण निवडइ खलिओ अहे दुरुत्तारे । इय निकारणसेवी पडइ भयोहे अगाहम्मि ॥२॥" इति, [पतन्नपि सालम्बन आत्मानं दुर्गमेऽपि धारयति एवं सालंबनसेवी यतिरशउभावं धारयति ॥१॥ आलम्बनहीनः पुनः स्खलितोऽधो दुरुत्तरे निपतति एवं निष्कारणसेवी अगाघे भवौघे पतति , तारेतरी॥१॥] तथा, 'पढमपाउसंसित्ति इह आषाढश्रावणी प्रावृद्, आषाढस्तु प्रथमप्रावृट, ऋतूनां वा प्रथमेति प्रथ प्रथमप्रावृमप्रायद्, अथवा चतुर्मासप्रमाणो वर्षाकालः प्रावृडिति विवक्षितः, अत्र सप्ततिदिनप्रमाणे प्रावृषो द्वितीये भागे तावन्न ट्पर्युषणाकल्पत एवं गन्तुं, प्रथमभागेऽपि पञ्चाशदिनप्रमाणे विंशतिदिनप्रमाणे वा न कल्पते जीवव्याकुलभूतत्वाद्, उक्तंच | विहारेतरौ | "एत्थ य अणभिग्गहियं वीसइराई सवीसयं मासं । तेण परमभिग्गहियं गिहिनायं कसियं जाव ॥१॥" ति, [विंशति । सू०४१२रात्रिंदिवाना सविंशतिरात्रिंदिवं मासं । अत्रानभिगृहीतं ततः परमभिगृहीतं गृहिज्ञातं कार्तिकं यावत् ॥१॥] अन-15 ४१३ भिगृहीत-अनिश्चितमशिवादिभिनिर्गमभावाद्, आह च-"असिवादिकारणेहिं अहया वासं न सुद्द आरद्धं । अभिव-IN ट्ठियंमि बीसा इयरेसु सवीसई मासो ॥१॥" इति, [अशिवादिभिः कारणैरथवा वर्षणं न सुष्टु आरब्धं । अभिवड़िते |विंशतिः इतरेषु सविंशतिर्मासः ॥१॥] यत्र संवत्सरे अधिकमासो भवति तत्र आषाड्या विंशतिदिनानि यावदनभि ग्रहिक आबासोऽन्यत्र सविंशतिराचं मास-पञ्चाशतं दिनानीति, अत्र चैते दोषा:-"छक्कायविराहणया आवडणं विस- ३०० | मखाणुकंटेसु । वुज्क्षण अभिहण रुक्खोल्लसावए तेण उवचरए ॥ १॥ अक्खुन्नेसु पहेसु पुढवी उदगं च होइ दुविहूं तु। AMEducational ~51~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ४१३] दीप अनुक्रम [४५१] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [४१३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [ ५ ], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] उपयावण अगणी इहरा पणओ हरियकुंथू ॥ २ ॥” इति [ षट्रायविराधनाऽऽपतनं विषमस्थाणुकण्टकेषु वहनमभिहननं वृक्षादावाद्वैताश्वापदाः स्तेनो उपचरकर्शका ॥ १ ॥ अक्षुण्णेषु पथिषु पृथव्युदकं ( भौमांतरिक्षभेदं भवति द्विविधं आईप्रतापनेऽग्निः इतरथा पनको हरिते कुंथुस्खसे ॥ १ ॥ ] ततस्तत्र प्रावृषि किमत आह-पकस्माद् ग्रामादवधिभूतावुत्तरग्रामाणामनतिक्रमो ग्रामानुग्रामं तेन ग्रामपरम्परयेत्यर्थः अथवा एकग्रामाल्लघुपश्चाद्भावाभ्यां ग्रामोऽणुग्रामो, गामो य अणुगामो य गामाणुगामं, तत्र 'दूइजित्तए'सि द्रोतुं विहर्तुमित्युत्सर्गः, अपवादमाह - 'पंचे 'त्यादि, तथैव, नवरमिह प्रव्यथेत -ग्रामाच्चालयेन्निष्काशयेत् कश्चित् उदकौघे वा आगच्छति ततो नश्येदिति, उक्तं च-- "आवाहे दुभिक्खे भए दओघंसि वा महांसी । परिभवणताळणं वा जया परो वा करेज्जासि ॥१॥” इति [आवाहे दुर्भिक्षे भये महति दकौघे परिभवनं ताडनं वा यदा परः करिष्यति ॥ १ ॥ ] तथा वर्षासु वर्षाकाले वर्षो दृष्टिवर्षावर्षो वर्षासु वा आवास:अवस्थानं वर्षावासस्तं, स च जघन्यतः आकार्त्तिक्याः दिनसष्ठतिप्रमाणो मध्यवृत्या चतुर्मासप्रमाणः उत्कृष्टतः पण्मासमानः, तदुक्तम्- "इअ सत्तरी जहन्ना असिह नउई वीसुतरसयं ध। जइ वासे मग्गसिरे दस राया तिन्नि उकोसा || १||” [ मासमित्यर्थः > "काऊण मासकप्पं तत्थेव ठियाण तीत मग्गसिरे । सालंबणाण छम्मासिओ उजेडुग्गहो होइ ॥ १ ॥” इति, [ इति सप्ततिर्जघन्योऽशीतिर्नवतिविंशत्युसरं शतं च यदि मार्गशीर्षे वर्षेत् दशरात्राणि त्रीणि यावदुत्कृष्टः ॥ १ ॥ कृत्वा मासकल्पं तत्रैव स्थितानां मार्गशीर्षेऽतीते सालंबनानां पाण्मासिकस्तु ज्येष्ठावग्रहो भवति ॥ १ ॥ ] 'पज्जोसषियासि परीति - सामस्त्येमोषितानां पर्युषणाकल्पेन नियमवद्वस्तुमारब्धानामित्यर्थः पर्युषणाकल्पश्च म्यूनोदरताकरणं For Personal Prof ~ 52~ you Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०३, अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत * * सूत्रांक [४१३] दीप अनुक्रम [४५१] * श्रीस्थाना-ठाविकृतिनवकपरित्यागः पीठफलकादिसंस्तारकादानमुच्चारादिभात्रकसंग्रहणं लोचकरणं शैक्षामनाजनं प्राग्गृहीतानां भ-1|५स्थाना सूत्र- स्मडगलकादीनां परित्यजनमितरेषां ग्रहणं द्विगुणवर्षांपग्रहोपकरणधरणमभिनवोपकरणाग्रहणं सक्रोशयोजनात् परतो | उद्देशः२ वृत्तिः गमनवर्जनमित्यादिकः, उक्तंच-"दब्वट्ठवणाऽऽहारे विगई संथारमत्तए लोए । सच्चित्ते अच्चित्ते वोसिरणं गणधर- महाना॥३१॥ णाइ ॥१॥” इति [ द्रव्यस्थापनाऽऽहारे विकृतिः संस्तारकमात्रकलोचाः सचित्तेऽचित्ते व्युत्सर्जन ग्रहणं धारणं इत्यादि |त्तारेतरी॥१॥] 'दबट्ठवण'त्ति निशीधे द्वारपरामर्श इति ॥ ज्ञानमेवार्थों यस्य स ज्ञानार्थस्तद्भावस्तत्ता तया ज्ञानार्थतया- प्रथमप्रावृज्ञानार्थत्वेन तत्रापूर्वः श्रुतस्कन्धोऽन्यस्याचार्यादेरस्ति स च भक्तं प्रत्याख्यातुकामस्ततो यद्यसौ तत्सकाशान्न गृह्यते पर्युषणाततोऽसौ व्यवच्छिद्यते अतस्तद्ब्रहणार्थ ग्रामानुग्राम द्रोतुं कल्पते, एवं दर्शनार्थतया-दर्शनप्रभावकशास्त्रार्थित्वेन, चा | विहारेतरी रित्रार्थतया तु तस्य क्षेत्रस्यानेषणात्यादिदोषदुष्टतया तद्रक्षणार्थ, तथा 'आयरियउवज्झाए'त्ति समाहारद्वन्द्वत्वा | सू०४१२ दाचार्योपाध्यायं वा 'से' तस्य भिक्षोः 'वीसुंभेजत्ति विष्वक्-शरीरात् पृथग्भवेत् जायेत बियेतेत्य), ततस्तत्र | PI ४१३ गच्छे अन्यस्याचार्यादेरभावाद् गणान्तराश्रयणार्थ अथवा 'वीमुंभेज'त्ति विनम्भेत तस्य साधोराचार्यादिविश्रब्धो भवेत् ततोऽत्यन्तरहस्यकार्यकरणायेति, तथा आचार्योपाध्यायानां वा बहिस्ताद् वर्षाक्षेत्रस्य वर्तमानानां वैयावृत्त्यकरणतायै प्रेषितस्याचार्यादिना द्रोतुं कल्पत इति, उक्तंच-"असिवे ओमोयरिए, रायदुढे भए व गेलन्ने । नाणाइतिगस्सट्ठा ३ वीसुंभण ४ पेसणेणं च ५॥१॥" इति । [अशिवेऽवमौदर्ये राजद्विष्टे भये ग्लानत्वे वा ज्ञानादित्रिकाथै विप्वग्भवनेन प्रेषणेन च ॥१॥] ForParamasPrvammoni ~53~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१४] दीप अनुक्रम [४५२] पंच अणुपातिता पं० त०--हत्याकम्मं करेमाणे मेहुणं पडिसेवेमाणे रातीभोवणं भुंजेमाणे सागारिसपिंड भुंजेमाणे रायपिंर्ड मुंजेमाणे (सू०४१४) 'अणुघाइय'त्ति न विद्यते उद्घातो-लघूकरणलक्षणो यस्य तपोविशेषस्य तदनुद्घातं यथाश्रुतदानमित्यर्थः तद्येषां हैं प्रतिषेवाविशेषतोऽस्ति तेऽनुवघातिकाः, 'हस्तकर्म'समयप्रसिद्ध तत्कुर्वाणः, मैथुनम्--अब्रह्म अतिक्रमादिना सेवमानः, तथा भुज्यत इति भोजनं रात्रौ भोजनं रात्रिभोजनं तच्च द्रव्यतोऽशनादि, क्षेत्रतः समयक्षेत्रे कालतो दिवा गृहीतं दि-18 वा भुक्तं दिवा गृहीतं रात्रौ भुक्तं रात्री गृहीतं दिवा भुक्तं रात्रौ गृहीतं रात्रौ भुक्तमित्येवं चतुर्भङ्गरूपं भावतो रागद्वेपाभ्यां तद्भुञ्जानोऽनन्नित्यर्थः, अत्र दोषा:-“संतिमे सुहुमा पाणा"इत्यादिश्लोकत्रयं, तथा-"जइवि हु फासुग-1 दव्वं कुंथू पणगा तहावि दुप्पस्सा । पञ्चक्खं नाणीविहु राईभत्तं परिहरंति ॥१॥ जइवि य पिवीलिगाइ दीसति पपईवजोइउज्जोए । तहवि खलु अणाइन्नं मूलवयविराहणा जेणं ॥२॥" [यद्यपि द्रव्यं प्रासुकमेव तथापि कुंथुपनका दुर्दाः । प्रत्यक्षज्ञान्यपि रात्रिभक्तं परिहरति ॥१॥ यद्यपि च पिपीलिकादयो दृश्यन्ते प्रदीपज्योतिष उद्योते तथापि अनाचीर्णमेव मूलत्रतविराधना येन ॥१॥] तथा अगारं-गृहं सह तेन वर्तत इति सागारः स एव सागारिका-शय्यातरस्तस्य पिण्डा-आहारोपधिरूपः, अन्यस्त्वसौ न भवति, उक्तं च-"तणछारडगलमल्लगसेज्जासंथारपीढलेवाई।। सेज्जायरपिंडो सो न होइ सेहो य सोबहिओ॥१॥” इति, [तृणक्षारडगलमलकशय्यासंस्तारकपीठलेपादिः शय्यातरपिंडो न स भवति सोपधिकः शैक्षश्च ॥१॥] सागारिकपिण्डस्तं भुञ्जानः, तद्भोजने चामी दोषाः-"तिस्थकरपडिक्कुट्टो 15645%2564562 CAMEucaton ENTRENOTE 'अणुग्घातिक' शब्दस्य व्याख्या एवं तत् कारणा: ~54~ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४१४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- प्रत वृत्तिः सूत्रांक [४१४] दीप अनुक्रम [४५२] ROCARSAGACASSES अन्नाय [अज्ञातोंछो न भवतीत्यर्थः> उग्गमोऽवि य न सुज्झे [परिचयात् > | अविमुत्तियऽलाघवया दुलहसेज्जा य ५स्थाना० वोच्छेदो॥१॥पडिबंधनिराकरणं केई अन्ने उ गिही अगहणस्स । तस्साउद्दण [शय्यातरावर्जनमित्यर्थः > आणं उद्देशः २ इत्यऽवरे बैंति भावत्थं ॥१॥" इति, [तीर्थकरप्रतिकुष्टोऽज्ञातत्वमुद्गमोऽपि च न शुद्येत् लोभिताऽलाधवता दुर्लभ- | पञ्चानुद्शय्या च ब्युच्छेदो वा ॥१॥ केचित् प्रतिबन्धनिराकरणं अन्ये तु अग्रहणस्य गृद्धिः शय्यातरस्यावर्जनं अपरेऽत्राज्ञांघातिमाः भावार्थ अवन्ति ॥१॥] तथा राज्ञः पिण्डो राजपिण्डः तं भुञ्जाना, राजा चेह चक्रवत्यादिर्यत आह-"जो मुद्धा-तअन्तःपुरअभिसित्तो पंचहिं सहिओ य भुंजए रज । तस्स उ पिंडो वजो तब्विवरीयंमि भयणा उ॥१॥" पिंडस्वरूपं च-1 प्रवेशः "असणाईया चउरो वरथे पाए य कंबले चेव । पाउंछणए य तहा अट्ठविहो रायपिंडो तु ॥२॥" [यो मूओऽभि-18सू०४१४पिक्तः पंचभिः सहित राज्य अँक्के । तस्यैव पिंडो पय॑स्तद्विपरीते भजनैव ॥१॥ अशनादिकाश्चत्वारो वखं पात्रंदा ४१५ कंबलश्चैव । पादप्रोग्छनं च सथाऽष्टविध एव राजपिण्डः ॥१॥] दोषा आज्ञादया, ईश्वरादिप्रवेशादी व्याघातः अम-11 गलधिया प्रेरणा लोभ एषणाव्याघातचौराविशाङ्का चेत्यादय इति ॥ पंचहिं ठाणेहिं समणे निमगंथे रायंतेउरमणुपविसमाणे नाइकमति, सं०-नगरं सिवा सबतो समंता गुते गुत्तदुवारे, बहवे समणमाहणा णो संचाएंति भत्ताते का पाणाते वा निक्खमित्तते या पविसित्तते वा तेसि विनवणताते रानवेत ॥३११॥ रमणुपम्निमेजा १ पाडिहारित वा पीढफलगसेजासंथारगं पञ्चप्पिणमाणे रायतेउरमणुपवेसेजा २ हतस्स वा गयस्स का दुस्स भागच्छमाणस्स भीते रायतेउरमणुपवेसिजा ३ परो व णं सहसा वा बलसा वा बादाने गहाय मतेउरमणु ACARACKAGAR DAMEucatam 'अणुग्घातिक' शब्दस्य व्याख्या एवं तत् कारणा: ~55~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ४१५] दीप अनुक्रम [४५३] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४१५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Education) पवेसेना ४ बहिता व णं आरामगयं वा उाणगयं वा रायतेउरजणो सम्वतो समता संपरिक्खिवित्ता णं निवेसिज्जा । इथेतेहिं पंचहि ठाणेहिं समणे निम्गंचे जाव णातिक्रम (सू० ४१५ ) नाइकमति आज्ञामाचारं बेति, नगरं स्यात् भवेत् सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्ताद्-विदिक्षु, अथवा सर्वतः किमुक्तं भवति । समन्तादिति, गुप्तं प्राकारवेष्टितत्वात् गुप्तद्वारं द्वाराणां स्थगितत्वात् श्राम्यन्ति तपस्यन्तीति श्रमणाः मा व धीरिति प्रवृत्तिर्येषा ते माहनाः- उत्तरगुणमूलगुणवन्तः संयता इत्यर्थः अथवा श्रमणाः शाक्यादयः माहना-ब्राह्मणा 'नो संचाएन्ति'सि न शक्नुवन्ति, भक्ताय पानाय वा निष्क्रमितुं वा निर्गन्तुं नगरात् तद्बहिर्भिक्षाकुलेषु भिक्षित्वा तथैव प्रवेष्टुं चेति, ततस्तेषां श्रमणादीनां प्रयोजने विज्ञापनाय राज्ञोऽन्तःपुरस्थस्य प्रमाणभूतराज्ञ्या वा राजान्तःपुरमनुप्रविशेद्, इह च शाक्यादीनां प्रयोजने यद्राज्ञो विज्ञापनं तदपवादापवादरूपं, असंयताविरतत्वात्तेषां एतच्च किञ्चिदात्यन्तिकं सङ्घादिप्रयोजन मवलम्बमानानां भवतीति समवसेयमित्येकं, तथा कृतप्रयोजनैः प्रतिहियते - प्रतिनीयते यत्तत्प्रतिहारम योजनत्वात् प्रातिहारिकं पीठं पट्टादिकं फलकं-अवष्टम्भफलकं शय्या-सर्वाङ्गीणा फलकादिरूपा संस्तारको - लघुतरोऽथवा शय्या शयनं तदर्थः संस्तारकः शय्यासंस्तारको द्वन्द्वैकवद्भावात् पीठफलकशय्यासंस्तारकं 'पचप्पिणमाणे' ति आर्यत्वात् प्रत्यर्पयितुं तत्प्रविशेत् यस्माद् यदानीतं तत्तत्रैव निक्षेतव्यमिति कृत्वेति द्वितीयं, हयादेर्दुष्टादागच्छतो भीत इति तृतीयं पर:- आत्मव्यतिरिक्तः 'सहस'ति अकस्मात् 'बलस'त्ति बलेन हठात् सकारस्त्वागमिको बाहौ गृहीस्वेति चतुर्थ, 'बहिया व'ति नगरादेर्बहिरारामगतं वा उद्यानगतं वा निर्ग्रन्थं तत्र आरामो विविधपुष्पजात्युपशोभित For Personal Prof ~56~ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः ॥३१॥ सूत्रांक [४१५] दीप अनुक्रम [४५३] उद्यानं तु चम्पकवनाद्युपशोभितमिति, 'संपरिक्खिवित्त'त्ति संपरिक्षिप्य परिवार्य सन्निविशेत्-क्रीडाद्यर्थं गत आवासस्थाना० कुर्यादिति पञ्चममिति, 'इचेही'त्यादिना निगमनं, इह च पीठादीनामर्पणस्य ग्रहणव्यतिरेकेणासम्भवात् तद्रहणमध्य-14 उद्देशः२ नेनैव सहीतं द्रष्टव्यमिति, भवन्ति चात्र गाथा:-"थंतेउरं च तिविहं जुन्नं नवयं च कन्नगाणं च । एकेकंपि य दु- अन्तःपुरविहं सहाणे चेव परठाणे ॥१॥ एतेसामन्नयरं रन्नो अंतेउरं तु जो पविसे । सो आणाअणवत्थं मिच्छत्तविराहणं पावे हा प्रवेशः M॥२॥ सद्दाइइंदियत्थोवओगदोसा न एसणं सोहे । सिंगारकहाकहणे एगयरुभए य बहुदोसा ॥३॥ बहियावि[नि- सू०४१५ गतस्येत्यर्थः > होति दोसा केरिसिगा कहणगिण्हणाईआ। गब्बो बाउसिअत्तं सिंगाराणं च संभरणं ॥ ४॥ [स्यन्त:पुरं च त्रिविध जीर्ण तारुणं च कन्यकानां च । एकैकमपि च द्विविधं स्वस्थाने परस्थाने चैव ॥१॥ एतेषामन्यतर-1 दाज़ोन्तःपुरं य एव प्रविशेत् स आज्ञानवस्थामिथ्यात्वविराधनाः प्रामुयात् ॥ २॥ शब्दादिष्विन्द्रियार्थेषूपयोगदोषेनै-16 षणां न शोधयेत् भंगारकथाकथने एकतरोभयदोषाः बहुदोषाश्च ॥३॥ बहिरपि दोषा भवन्ति कीदृशाः कथनग्रहणादिकाः गर्यो बाकुशिकत्वं शृंगाराणां स्मरणं च ॥४॥] "वितियपद [अपवाद इत्यर्थः> मणाभोगा १ बसहि | परिक्खेव २ सेजसंधारे ३ । यमाई दुहाणं आवयमाणाण ४ कज्जेसु ५ ॥५॥" इति। [अनाभोगाद्वसतिपरिक्षेपात् शय्यासंस्तारकार्थाय दुष्टानां हयादीनां आपतता (रक्षार्थ) कार्येषु प्रवेशे द्वितीयं पदं ॥१॥] अनन्तरमन्तःपुरसूत्रत्वात् स्त्रीगतमुक्तमधुनाऽपि तद्गतमेव क्रियाविशेषमाह |॥ ३१२॥ पंचहिं ठाणेनिमित्थी पुरिसेण सचि असंवसमाणीवि गम्भं धरेजा, तं०--इत्थी दुविबडा दुन्निसण्णा सुक्पोग्गले अ कर ~57~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४१६ ] दीप अनुक्रम [४५४] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [ ४१६] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] fe, कपोसट्टे व से वत्ये अंतो जोणीते अणुपवेसेजा, सई वा सा सुकपोमाले अणुपवेसेजा, परो व से सुकपोगले अणुपवेसेक्षा, सीओदगवियडेण वा से आयममाणीते सुकपोग्गला अणुपवेसेना, इथेतेहिं पंचहि ठाणेहिं जाब घरेखा १ पंचहि ठाणेहिं इत्थी पुरिसेण सद्धिं संवसमाणावि गर्भ नो घरेज्जा, सं० - अप्पत्तजोवणा १ अतिकंतजोवणा २ जातिवंशा ३ गेलन्नपुडा ४ दोगणंसिया ५ इवेतेहिं पंचहि ठाणेहिं जाब नो घरेज्जा २ । पंचहि ठाणेहिमित्थी पुरिसेण सद्धिं संवसमाणीवि नो गन्भं घरेखा, सं० निञ्चोडया अगोडया बावन्नसोया वाविद्धसोया अगपडिलेवणी, इजेतेहि पंचहि ठाणेहिमित्थी पुरिसेण सद्धिं संवसमाणीचि गन्धं णो घरेजा ३ पंचहिं ठाणेहिं इत्थी० [सं० उमिणो निगामपढिसेविणी तावि भवति, समागता वा से सुकपोग्गला पडिविद्धसंति उदिने वा से पित्तसोणि पुरावा देवकम्मणा पुत्तफले वा नो निहिडे भवति, इथेतेहिं जाव नो घरेजा ४ | ( सू० ४१६ ) 'पंच' इत्यादि सूत्रचतुष्टयं कण्ठां, नवरं 'दुब्बियड'त्ति विवृता- अनावृता सा चोत्तरीयापेक्षयाऽपि स्यादतो दुःशब्देन विशेष्यते दुष्ठु विवृता दुब्वृिता परिधानवर्जितेत्यर्थः अथवा विवृतोरुका - दुबिवृता, दुबिवृत्ता या सती दुर्भिषण्णा- दुष्टु विरूपतयोपविष्टा गुह्यप्रदेशेन कथञ्चित्पुरुषनिसृष्टशुक्रपुङ्गलवद्भूमिपट्टादिकमासनमाक्रम्य निविष्टा सा दुबिवृत दुर्न्निपण्णेति शुक्रपुङ्गलान् कथञ्चित्पुरुष निसृष्टानासनस्थानधितिष्ठेत् -योन्याकर्षणेन संगृह्णीयात्, तथा शुक्रपुद्गलसंसृष्टं 'से' तस्याः स्त्रिया वस्त्रमन्तः-मध्ये योनावनुप्रविशेत्, इह च वस्त्रमित्युपलक्षणं तथाविधमन्यदपि केशिमातुः केशवत्कण्डूयनार्थं रक्तनिरोधनार्थं वा तथा प्रयुक्तं सदनुप्रविशेद् अनाभोगेन वा तथाविधं वस्त्रं परिहितं सद् योनिमनुप्रविशेत्, तथा 'स्वयं' मिति Education Intimational पुरुषेण सह संवास-रहितेपि गर्भ धारणस्य कारणाः For Personal Private Only "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~58~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१६] दीप अनुक्रम [४५४] श्रीस्थाना- पुत्रार्थिनीत्वाच्छीलरक्षिकत्वाच्च 'सेति सा शुक्रपुद्गलान् योनावनुप्रवेशयेत्, तथा 'परो वत्ति श्वशुप्रभृतिकः पुत्रा-४५ स्थाना० सूत्र भार्थमेव 'से' तस्या योनाविति गम्यते, तथा 'विपर्ड'ति समयभाषया जलं तच्चानेकधेत्यत उच्यते-शीतोदकलक्षणं यद्वि- उद्देशः२ वृत्तिः कट-पल्वलादिगतमित्यर्थः तेन चा 'से' तस्या आचमत्याः पूर्वपतिता-उदकमध्यवर्तिनः शुक्रपुद्गला: अनुप्रविशेयुरिति,131 गर्भधरदिइएहीत्यादि निगमनमिति । अप्राप्यौवना प्राय आवर्षद्वादशकादारीवाभावात् तथाऽतिकान्तयौवना वर्षाणां पञ्च- णाधरणे ॥३१३ ॥ पञ्चाशतः पञ्चाशतो वा आर्त्तवाभावादेव, यतोऽवाचि-"मासि मासि रजः स्त्रीणामजस्रं सवति व्यहम् । वत्सराद् द्वा- सू०४१६ दशादूर्व, याति पश्चाशतः क्षयम् ॥ १॥ पूर्णषोडशवर्षा खी, पूर्णविंशेन संगता । शुद्धे गर्भाशये १ मार्गे २, रते ४ शुक्रे ५ ऽनिले ५ हृदि ६ ॥२॥ वीर्यवन्तं सुतं सूते, ततो न्यूनाब्दयोः पुनः । रोग्यल्पायुरधन्यो चा, गर्भो भवति नैव वा ॥३॥” इति, शुद्धे-निर्दोषे गर्भाशयादिपटू इत्यर्थः, तथा जातेः-जन्मत आरभ्य वन्ध्या-निवर्वीजा जातिवन्ध्या, तथा ग्लान्येन-लानत्वेन स्पृष्टा ग्लान्यस्पृष्टा-रोगादिता, तथा दौर्मनस्य-शोकाद्यस्ति यस्याः सा दौर्मनस्थिका तद्वा सञ्जातमस्या इति दौर्मनस्थितेति, 'इचेएही'त्यादि निगमनं । 'नित्यं सदा न व्यहमेय ऋतू-रक्तप्रवृत्तिलक्षणो यस्याः सा नित्यतुका, तथा न विद्यते ऋतू-रक्तरूपः शास्त्रप्रसिद्धो वा यस्याः सा अनृतुका, तथाहि-"ऋतुस्तु द्वादश निशाः, 18|पूर्वास्तिस्रोऽत्र निन्दिताः। एकादशी च युग्मासु, स्यात्पुत्रोऽन्यासु कन्यका ॥१॥ पद्मं सोचमायाति, दिनेऽतीते 18॥ यथा तथा । ऋतावतीते योनिः सा, शुक्रं नैव प्रतीच्छति ॥२॥ मासेनोपचितं रक्तं, धमनीभ्यामृतौ पुनः । ईपत्कृष्णं ॥३१३॥ Pाविगन्धं च, बायुर्योनिमुखानुदे ॥३॥" इति, तथा व्यापन-विनष्ट रोगतः श्रोतो-गर्भाशयश्छिद्रलक्षणं यस्याः सा ॐ AIMERucatil पुरुषेण सह संवास-रहितेपि गर्भ-धारणस्य कारणा: ~59~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१६] दीप अनुक्रम [४५४] व्यापन्नश्रोताः, तथा व्यादिग्धं व्याविळू वा-वातादिव्याप्तं विद्यमानमप्युपहतशक्तिक श्रोता-उक्तरूपं यस्याः सा व्या-18 दिग्धश्रोता व्याविद्धश्रोता ना, तथा मैथुने प्रधानमनं मेहनं भगश्च तत्प्रतिषेधोऽनङ्गं तेनानङ्गेन-अहार्यलिङ्गादिना अ-1 नङ्गे वा-मुखादौ प्रतिषेवाऽस्ति यस्याः अनङ्गं वा-काममपरापरपुरुषसम्पर्कतोऽतिशयेन प्रतिषेवत इत्येवंशीलाऽनङ्गप्रति विणी, तथाविधवेश्यावदिति, ऋतौ-ऋतुकाले नो-नैव निकामम्-अत्यर्थं बीजपातं यावत् पुरुष प्रतिषेवत इत्येवंशीला| दनिकामप्रतिपेविणी 'वाऽपी'ति उत्तरविकल्पापेक्षया समुच्चये समागता वा 'से' तस्यास्ते प्रतिविध्वंसन्ते-योनिदोषादुप हतशक्तयो भवन्ति, मेहनविश्रोतसा वा योनेवहिः पतन्तो विध्वंसन्ते इति, उदीर्ण च-उत्कट तस्याः पित्तप्रधानं शोणितं स्यात् तचाबीजमिति, पुरा वा-पूर्व वा गर्भावसरात् देवकर्मणा-देवक्रियया देवतानुभावेन शक्त्युपघातः स्यादिति शेपः, अथवा देवश्च कार्मणं च-तथाविधद्रव्यसंयोगो देवकाम्मेणं तस्मादिति, पुत्रलक्षणं फलं पुत्रो वा फलं कायस्य कर्मणस्तत्पुत्रफलं तद्वा नो निर्विष्टं भवति, अलब्धं अनुपातं स्यादित्यर्थः, 'थेवं बहुनिब्बेस' इत्यादी निवेशशब्दस्य लाभार्थस्य दर्शनादथवा पुत्रः फलं यस्य तत्पुत्रफलं-दानं तज्जन्मान्तरेऽनिर्विष्ट्र-अदत्तं भवति, निर्विष्टस्य दत्तार्थत्वात् , यथा 'नानिविट्ठ लग्भाइ'त्ति । ख्यधिकारादेव साध्वीवक्तव्यताप्रतिवद्धं सूत्रद्वयमिदमाह पंचहि ठाणे निगांवा निग्गंधीजो य एगतो ठाणं वा सिजं वा निसी हियं वा चेतेमाणे णातिकमंति, २०-अस्थेगश्या निमांथा निग्गंधीओ य एवं मई अगामितं छिन्नावार्य दीहमद्धमडविमणुपविष्टा तत्थेगयतो ठाणं या सेज वा निसी. हियं वा घेतेमाणे णातिकमति १, अस्थेगश्या गिरगंथा २ गामंसि वाणगरंसि वा जाव रायहाणिसि वा वासं उवा स्था०५३ ~60 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४१७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ।। श्रीस्थानानसूत्रदृत्तिः MC प्रत सूत्रांक ॥ १४॥ भिः सह [४१७] दीप अनुक्रम [४५५]] गता एगतिया यल्प उपस्सयं लभंति एगतिता णो लभंति सत्थेगतितो ठाणं वा जाब नातिकमंति २, अत्यगतिता ५ स्थाना निग्गंथा य २ नागकुमारावासंसि वा (सुवण्णकुमारावासंसि वा). वासं उवागता नत्थेगयओ जाव णातिकमति ३, आमो- उद्देशः२ सगा दीसति ते इच्छंति निग्गंधीओ चीवरपडिताते पडिगाहित्तते तत्थेगवओ ठाणं वा जान णातिकमंति ४, जुवाणा नियन्धाना दीसंति ते इच्छंति निरगंधीमो मेहुणपडिताते पडिगाहित्तते तत्थेनयओ ठाणं वा जाव णातिकमंति ५, इनेतेहि पंचर्हि निर्ग्रन्थीठाणेहिं जाव नातिकमति । पंचहि ठाणेहि समणे निरगंथे अचेलए सचेलियाहिं निग्गंधीहिं सविं संवसमाणे नाइकमति, तं०-खिचित्ते समणे णिगंथे निग्गंथेहिमविजमाणेहिं अचेलए सचेलियाहिं निगगंधीहि सविं संवसमाणे णातिकमति स्थानादि १, एवमेतेणं गमएणं दित्तचित्ते जक्खातिढे उम्झायपत्ते निग्गंथीपब्वावियते समणे णिगंथेहिं अबिजमाणेहिं अचेलए सू०४१७ सचेलियाहिं णिग्गंधीहिं सद्धिं संवसमाणे णातिकमति (सू०४१७) 'पंचहिं'इत्यादि, सुगम, नवरं 'एगयओत्ति एकत्र 'ठाणे ति कायोत्सर्ग उपवेशनं वा 'सेजति शयनं 'निसीहिय'ति | स्वाध्यायस्थानं 'चेतयन्तः' कुर्वन्तो 'नातिकामन्ति' न लग्यन्ति, आज्ञामिति गम्यते, 'अस्थि'त्ति सन्ति भवन्ति 'एगयय-1 त्ति एके केचन 'एकां' अद्वितीयां 'महतीं विपुलामग्रामिकामकामिकां वा-अनभिलपणीयां छिन्ना आपाताः सार्थगोकुला-15 दीनां यस्यां सा तथा तां दीर्घोऽध्वा-मार्गो यस्यां सा तथा तां दीर्घावान, मकारस्त्वागमिका, दीर्घोऽद्धा था-कालो निस्तरणे यस्याः सा दीर्घाद्धा तामटवीं-कान्तारमनुप्रविष्टा दुर्भिक्षादिकारणवशात् 'तत्र' अटव्यां' 'एगयज'त्ति एकतः | &ा॥३१४॥ एकत्रेत्यर्थः स्थानादि कुर्वन्तः आगमोतसामाचार्या नातिकामन्ति १, तथा राजधानी यत्र राजा अभिषिच्यते वासमुप ~61~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१७] दीप अनुक्रम [४५५]] गताः-निवास प्राप्ता इत्यर्थः, 'एगइया यत्यत्ति एकका-एकतरा निर्ग्रन्था निर्यथिका वा चः पुनरर्थः अत्र-ग्रामादौ उपाश्रयं-गृहपतिगृहादिकमिति, तथा 'अत्धेति अथ गृहपतिगृहादिकमुपाश्रयमलब्ध्वा 'एगाया' एके केचन नागकुमारावासादौ वासमुपागताः अथवा 'अत्थेति इह सम्बध्यते अस्ति सन्ति भवन्ति निवासमुपगता इति, तस्य च ना-| |गकुमारावासादेरतिशून्यत्वादथवा बहुजनाश्रयत्वादनायकत्वाच निग्रेन्धिकारक्षार्थमेकत एवं स्थानादि कुर्वाणा नाति-X | कामन्तीति, तथा आमुष्णन्तीत्यामोपका:-चौरा दृश्यन्ते ते च इच्छन्ति निग्रन्थिकाः 'चीवरयडियाए'त्ति चीवरप-1 तिज्ञया-वस्त्राणि गृहीष्याम इत्यभिप्रायेण प्रतिगृहीतुं यत्रेति गम्यते तत्र निर्ग्रन्थास्तद्रक्षणार्थमेकतः स्थानादिकमिति ४ | तथा मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनार्थमिति ५ । इदमपवादसूत्रम् , उत्सर्गश्चापवादसहितो भाष्यगाथाभिरवसेयस्ताश्चेमाः-"भय णपयाण चउण्हं [एकः साधुरेका स्त्रीत्यादिभङ्गकानामित्यर्थः> अन्नतरजुए उ संजए संते । जे भिक्खू विहरेजा अह| वावि करेज सञ्झायं ॥१॥ असणादिं वाऽऽहारे उच्चारादि च आचरेजाहि । निहरमसाधुजुत्तं अन्नतरकहं च जो कहए ॥२॥[चतुर्णी भजनापदानामन्यतरयुतः सन् संयतो यो भिक्षुर्विहरेत् अथवा स्वाध्यायमपि कुर्यात् ॥ १॥ | अशनादि वाऽऽहरेदुच्चारादि वाऽऽचरेत् असाधुयुक्तां निष्ठुरामन्यतरां कथां च कथयेद्यः ॥२॥] [स्त्रीभिः सहेति > "सो आणाअणवत्यै मिच्छत्तविराहणं तहा दुविहं । पावइ जम्हा तेणं एए उ पए विवजेजा ॥३॥” इति [स आज्ञाभं-- गमनवस्था मिथ्यात्वं विराधनां तथा द्विविधां । प्राप्नोति. यस्मात्तत एतानि स्थानानि वर्जयेत् ॥ ३॥] "बीयपयमणप्पजे | [[अपवादोऽनात्मवशे इत्यर्थः > गेलनुवसग्गरोहगडाणे । संभमभयवासामु य खंतियमाईण निक्खमणे ॥ ४ ॥” इति, Ik Eaatondol ~62~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१७] दीप अनुक्रम [४५५]] श्रीस्थाना-II अनात्मीयत्वे ग्लानत्वे उपसर्गे रोधकेऽध्वनि । संभ्रमे भये वर्षासु च शान्तिक (वृद्ध) प्रभृतीनां निष्क्रमणे द्वितीयपदं स्थाना सूत्र- n] अचेलः क्षिप्तचित्तत्वादिना, क्षिप्तचित्तः शोकेन, तनतिजागरकाः साधवो न विद्यन्ते ततो निर्ग्रन्धिकाः पुत्रादिकमिव वृत्तिः 8 सङ्गोपायन्तीति न ततोऽप्यसावाज्ञामतिकामति १, दृप्तचित्तो हर्षातिरेकात् २, यक्षाविष्टो-देवाधिष्ठितः ३, उन्माद-निन्थानां प्राप्तो वातादिक्षोभात् ४, निग्रन्थिकया कारणवशात्पुत्रादिः प्रत्राजितः, स च बालत्वादचेलो महानपि वा तथाविध | निर्ग्रन्थी॥३१५॥ |वृद्धत्वादिनेति । अत्र चोत्सर्गापवादौ भाष्याभिहितावेवम्-'जे भिक्खू य सचेले ठाणनिसीयण तुपट्टणं वावि । घेएज्ज भिः सह सचेलाणं मछमि य आणमाईणि ॥१॥ इय संदसणसंभासणेहि भिन्नकहविरहजोगेहि ॥ [दोषा भवन्तीति > तथा-15ोनादि सिज्जातरादिपासण वोच्छेय दुदिधम्मत्ति ॥२॥ [यो भिक्षुः सचेलोऽपि स्थान निषीदनं त्वरवर्तनं वा चेतयेत् । | सू०४१७ सचेलानां साध्वीनां मध्ये तस्याज्ञादीनि ॥ १॥ इह दर्शनसंभाषणैः भिन्नकथाभिर्विरहयोगैः । शय्यातरादिभिर्दर्शनं ब्यु-1 इच्छेदः दुर्दष्टधर्म इति (अवज्ञा) ॥२॥] तथा-"संवरिएविहु दोसा किं पुण एगतरणिगिण उभओ वा । दिहमदिट्टब्वं मे दिद्विपयारे भवे खोभो ॥३॥" [संवृतेऽपि दोषा एव किं पुनरेकतरस्मिन्नग्ने उभयस्मिन् वा । ममादृष्टव्यं दृष्टमिति दृष्टिप्रचारे भवेत् क्षोभः॥१॥] इत्युत्सर्ग:-"बीयपदमणप्पज्जे गेलनुवसग्गरोहगाणे । समणाणं असईए समणीपब्वाविए चेव ॥१॥" इति। [द्वितीय पदमनात्मवशे ग्लानत्वे उपसर्गे रोधकेऽध्वनि । श्रमणानामसति श्रमणीप्रवाजिते चैव ॥१॥] धर्म नातिकामतीत्युक्तं तदतिक्रमश्चाश्रवरूप इति तद्वाराणि तस्यैव च प्रतिपक्षत्वात् संवरद्वाराणि पुनराश्रयविशेषांश्च दण्डक्रियालक्षणानापरिज्ञासूत्रादाह wwwjangalray ~63~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४१८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: । प्रत सूत्रांक [४१८] दीप अनुक्रम [४५६] पंच आसवदारा पं० सं०-मिच्छत्तं अविरती पमादे कसाया जोगा । पंच संघरदारा ५०० सम्म बिरती अपमादो अकसातित्तमजोगितं । पंच दंडा पं० ०-अट्ठावंडे अणट्ठादंडे हिंसावंडे अकम्हा(स्मात् ) रिही विपरियासितादंछे (सू०४१८) आरंभिया पंच किरिताओ पं० २०-आरमिता १ परिगहिता २ मातापसिता ३ अपचक्साणकिरिया ४ मिच्छादसणवत्तिता ५, मिच्छदिहियाण नेरइयाणं पंच किरियामओ पं००-जाव मिच्छादसणवसिया, एवं सव्वेसिं निरन्तरं जाव मिच्छरिहिताणं वेमाणिताणं, नवरं विगलिंदिता मिच्छरिट्ठीण भन्नंति, सेसं सहेव । पंच किरियातो पं० सं०-कातिता १ अहिगरिणता २ पातोसिया ३ पारितावणिया ४ पाणातिवातकिरिया ५, गैरइयाणं पंच एवं व निरन्तरं जाव बेमाणियाणं १। पंच किरिवाओ पं००-आरंभिसा १ जाव मिच्छासणवत्तिता ४, रहयाण पंच किरिता, निरंतर जाव चेमाणियाणं २ । पंच किरियातो पं००-दिद्विता १ पुहिता २ पाचोचिता ३ सामंतोवणिवाइया ४ साहत्थिता ५, एवं रहयाणं जाव वेमाणियाणं २४,३ । पंच किरियातो पं० सं० -सस्थिता १ आणबणिता २ यारणिया ३ अणाभोगवत्तिता ४ अणवसबत्तिता ५, एवं जाव वेमाणिया णं २४, ४। पंच किरियामओ पं०२०-पेजवत्तिता १ दोसवत्सिया २ पओगकिरिया ३ समुदाणकिरिया ४ ईरियायहिया ५, एवं मणुस्साणवि, सेसाणं नवि ५। (सू०४१९) 'पंचे'त्यादि सुगम, नवरं आश्रवणं-जीवतडागे कर्मजलस्य सङ्गलनमाश्रयः, कर्मनिवन्धनमित्यर्थः, तस्य दाराणीच द्वाराणि-उपाया आश्रवद्वाराणीति । तथा संवरणं-जीवतडागे कर्मजलस्य निरोधनं संवरस्तस्य द्वाराणि-उपाया. सं Educatanitalamil आश्रव, संवर-व्याख्या ~64~ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: लसूत्रवृत्ति ॥३१६॥ प्रत सूत्रांक [४१९] दीप अनुक्रम [४५७] वरद्वाराणि-मिथ्यात्वादीनामाश्रवाणां क्रमेण विपर्ययाः सम्यक्त्वविरत्यप्रमादाकपायित्वायोगित्वलक्षणाः प्रथमाध्यय-४ नवद्वाच्या इति । दण्ड्यते आत्माऽन्यो या प्राणी येन स दण्डः, तत्र सानां स्थावराणां वा आत्मनः परस्य वोपकाराय उद्देशः२ | हिंसाऽर्थदण्डः विपर्ययादनर्थदण्डः हिंसितवान् हिनस्ति हिंसिष्यत्ययमित्यभिसन्धेर्यः सर्पवैरिकादिवधः स हिंसादण्ड आश्रवसं| इति 'अकस्माइंड'त्ति मगधदेशे गोपालवालाबलादिप्रसिद्धोऽकस्मादिति शब्दः स इह प्राकृतेऽपि तथैव प्रयुक्त इति वरदण्डा तत्रान्यवधार्थ प्रहारे मुक्तेऽम्यस्य वधोऽकस्माद्दण्ड इति यो मित्रस्याप्यमित्रोऽयमितिबुद्ध्या वधः स दृष्टिविपर्यासदण्ड क्रिया: इति । एते हि दण्डात्रयोदशानां क्रियास्थानानां मध्येऽधीता इति प्रसङ्गतः शेषाण्यष्टौ क्रियास्थानान्यभिधीयन्ते, तत्र मृषाक्रिया-आत्मज्ञात्याद्यर्थं यदलीकभाषणं १ तथा अदत्तादानक्रिया आत्माद्यर्धमदत्तग्रहणं २ तथा अध्यात्मक्रिया ४१९ यत्केनापि कथश्चनाप्यपरिभूतस्य दौर्मनस्यकरणं ३ तथा मानक्रिया यजात्यादिमदमत्तस्य परेषां हीलनादिकरण ४ तथा अमित्रक्रिया यत् मातापितृस्वजनादीनामल्पेऽप्यपराधे तीव्रदण्डस्य दहनाङ्कलताडनादिकस्य करणं ५ तथा मायाक्रिया| यच्छठतया मनोवाकायप्रवर्तनं ६ तथा लोभक्रिया यल्लोभाभिभूतस्य सावद्यारम्भपरिग्रहेषु महत्सु प्रवर्तनं ७ तथेयोपथिकक्रिया यदुपशाम्तमोहादेरेकविधकर्मबन्धनमिति ८, अत्र गाथा-"अट्ठा १णवा २ हिंसा ३ ऽकम्हा ४ दिही य| ५ मोस ५ दिन्ने य ७॥ अज्झत्थ ८ माण ९ मित्ते १० माया ११ लोभे १२ रियावहिया १३ ॥१॥" इति, [अर्थोंs-1 नों हिंसाऽकस्माद् दृष्टिमषाऽदत्तं च । अध्यात्मस्था मानः मित्रं माया लोभ इपिथिकी (इति क्रियाः) १२ ॥१॥] नवरं ॥३१६ ॥ 'विगलिदिए"त्यादि एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु मिथ्यादृष्टिविशेषणं न वाच्यं, तेषां सदैव सम्यक्त्वाभावेन व्यवच्छेद्याभावात् , wwwwjanmalay संवरस्य व्याख्या, दंडस्य अर्थ एवं भेदा: ~65~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] “स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१९] दीप अनुक्रम [४५७] सासादनस्य चाल्पत्वेनाविवक्षितत्वादिति । कायिकी-कायचेष्टा १ अधिकरणिकी-खगादिनिर्वर्तनी २ प्रादेषिकी-म-18 त्सरजन्या ३ पारितापनिकी-दुःखोसादनरूपा ४ प्राणातिपातः प्रतीतः ५। 'दिट्ठिया' अश्वादिचित्रकर्मादिदर्शनार्थ डू गमनरूपा १ 'पुट्टिया' जीवादीन् रागादिना पृच्छतः स्पृशतो वा २'पाडुचिया' जीवादीन् प्रतीत्य या ३ 'सामंतोवणिवाइया' अश्वादिरथादिकं लोके श्लाघयति हृष्यतो अश्वादिपतेरिति ४ 'साहस्थिया' स्वहस्तगृहीतजीवादिना |जीव मारयतः ५। 'नेसत्थिया' यन्त्रादिना जीवाजीवान् निसृजतः १ 'आणवणिया' जीवाजीवानानाययतः २ 'वियारणिया' तानेव विदारयतः ३ 'अणाभोगवत्तिया' अनाभोगेन पात्राद्याददतो निक्षिपतो वा ४ 'अणवखवत्तिया' इहपरलोकापायानपेक्षस्येति ५। 'पेजवत्तिया' रागप्रत्यया १ 'दोसवत्तिया' द्वेषप्रत्यया २'प्रयोगक्रिया। कायादिव्यापाराः ३ 'समुदानक्रिया' कोपादानं ४ 'ईरियावहिया' योगप्रत्ययो बन्धः ५ । इदं च प्रेमादिक्रियापश्चक सामान्यपदे, चतुर्विशतिदण्डके तु मनुष्यपद एव सम्भवति, ईयर्यापथक्रियाया उपशान्तमोहादित्रयस्यैव भावादित्याह'एव'मित्यादि, इहैकेन्द्रियादीनामविशेषेण क्रियोक्ता, सा च पूर्वभवापेक्षया सर्वापि सम्भवतीति भावनीय, द्विस्थानके द्वित्वेन क्रियाप्रकरणमुक्तमिह तु पथकत्वेन नारकादिचतुर्विंशतिदण्डकाश्रयेण चेति विशेषः, क्रियाणां च विस्तरव्या- ख्यानं द्विस्थानकप्रथमोद्देशकाद् वाच्यमिति । अनन्तरं कर्मणो बन्धनिबन्धनभूताः क्रिया उक्ताः, अधुना तस्यैव निर्जरोपायभूतां परिज्ञामाह पंचविहा परिना ५० सं०-वहिपरिन्ना उबस्सयपरिक्षा कसायपरिन्ना जोगपरिक्षा भत्तपाणपरिना (सू०४२०) पं CALCDS ~66~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४२१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत उद्देश:२ 44 सूत्रांक [४२१] दीप अनुक्रम [४५९]] श्रीस्थानाचविहे यवहारे पं० २०-आगमे मुते आणा धारणा जीते, जहा से तत्व आगमे सिता आगमेणं पबहार पटुपैजा ५स्थाना णो से तत्थ आगमे सिया जहा से तस्य सुते सिता सुतेणं ववहारं पट्टवेजा णो से तत्थ सुते सिता एवं जाव जहा से दृत्तिः तस्थ जीए सिया जीतेणं ववहार पट्टवेजा, इचेतेहिं पंचहिं बवहारं पट्टवेज्जा आगमेणं जाव जीतेणं, जघा २ से तत्थ परिज्ञा आगमे आव जीते तहा २ पबहार पट्टवेजा, से किमाहु भंते ! आगमबलिया समणा निम्गंधा', इथेतं पंचविध ववहार आगमा॥३१७॥ जता जता जहिं जहिं तथा वता तहिं तहिं अणिस्सितोवस्सितं सम्मं बवहरमाणे समणे णिगंथे आणाते राधते दिव्यवभवति (सू०४२१) हारा 'पंचबिहे'त्यादि, सुगम, नवरं परिज्ञानं परिज्ञा-वस्तुस्वरूपस्य ज्ञानं तत्पूर्वकं प्रत्याख्यानं च, इयं च द्रव्यतो भाव-18|सू०४२०. ट्रातच, तत्र द्रव्यतोऽनुपयुक्तस्य भावतस्तूपयुक्तस्येति, आह च-"भावपरिना जाणण पश्चक्खाणं च भावेणं" इति, [ज्ञानंदा भावेन प्रत्याख्यानं च भावपरिज्ञा ॥] तत्रोपधी-रजोहरणादिस्तस्यातिरिक्तस्याशुद्धस्य सर्वस्य वा परिज्ञा उपधिपरिज्ञा, एवं शेषपदान्यपि, नवरमुपाश्रीयते-सेव्यते संयमात्मपालनायेत्युपाश्रयः॥ परिज्ञा च व्यवहारवतां भवतीति व्यवहार प्ररूपयन्नाह-पंचेत्यादि, व्यवहरणं व्यवहारः, व्यवहारो-मुमुक्षुप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः, इह तु तन्निवन्धनत्वात् ज्ञानवि| शेषोऽपि व्यवहारः, तत्र आगम्यन्ते-परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेनेत्यागमा केवलमनःपर्यायावधिपूर्वेचतुर्दशकदशकनवक रूपः १ तथा शेष श्रुतं-आचारप्रकल्पादिश्रुतं, नवादिपूर्वाणां श्रुतत्वेऽप्यतीन्द्रियार्थज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वादागमव्य-४॥३१७॥ |पदेशः केवलवदिति २ यदगीतार्थस्य पुरतो गूढार्थपदैर्देशान्तरस्थगीतार्थनिवेदनायाविचारालोचनमितरस्यापि तथैव ४२१ JAMEaicatani ForParamasPrvammoni 'परिज्ञा, उपाधि, व्यवहार, आगम, श्रुतादि शब्दानाम व्याख्या: ~67~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४२१] दीप अनुक्रम [४५९] शुद्धिदानं साऽऽज्ञा ३ गीतार्थसंविग्नेन द्रव्याद्यपेक्षया यत्रापराधे यथा या विशुद्धिः कृता तामवधार्य यदन्यस्तत्रैव तथैव 51 दि तामेव प्रयुके सा धारणा वैयावृत्त्यकरादेर्वा गच्छोपग्रहकारिणो अशेषानुचितस्योचितप्रायश्चित्तपदानां प्रदर्शितानां धरणं धारणेति ४ तथा द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषप्रतिषेवानुवृत्त्या संहननधृत्यादिपरिहाणिमपेक्ष्य यत्प्रायश्चित्तदान यो वा यत्र गच्छे सूत्रातिरिक्तः कारणतः प्रायश्चित्तव्यवहारः प्रवर्तितो बहुभिरन्यैश्वानुवर्तितस्तज्जीतमिति, अत्र गाथा:-"आ-181 गमसुयववहारो मुणह जहा धीरपुरिसपन्नत्तो । पञ्चक्खो य परोक्खो सोऽवित्र दुविहो मुणेबब्बो ॥१॥पञ्चक्खोवि जय दुविहो इंदियजो चेव नो य इंदियओ। इंदियपञ्चक्खोविय पंचसु विसएसु नेयम्वो ॥२॥ नोइंदियपसक्खो वव-IN हारो सो समासओ तिविहो। ओहिमणपज्जवे या केवलनाणे य पञ्चक्खो ॥३॥ पञ्चक्खागमसरिसो होइ परोक्खोवि आगमो जस्स । चंदमुहीव उ सोविहु आगमववहारवं होइ ॥४॥ पारोक्खं ववहारं आगमओ सुयहरा ववहरति । चोद्दसदसपुग्वधरा नवपुचिग गंधहत्थी य॥५॥[शृणुत यथा धीरपुरुषप्रज्ञप्तं आगम श्रुतव्यवहारं सोऽपि च द्विविधः। प्रत्यक्षः परोक्षश्च ज्ञातव्यः॥१॥ प्रत्यक्षोऽपि च द्विविधा इंद्रियजश्चैव नोइंद्रियजश्चैव इंद्रियप्रत्यक्षोऽपि च पंचसु विषयेषु ज्ञातव्यः ॥२॥ स नोइंद्रियप्रत्यक्षो व्यवहारः संक्षेपतस्विविधः अवधिमनःपर्यवौ च केवलज्ञानं च प्रत्यक्षः ॥३॥ प्रत्यक्षागमसदृशो भवति परोक्षेऽप्यागमो यस्य चंद्रमुखीव सोऽपि आगमव्यवहारवानेव भवति ॥४॥ श्रुतधरा आगमतः परोक्षं व्यवहारं व्यवहरन्ति चतुर्दशदशपूर्वधरा नवपूर्वी गंधहस्ती च ॥५॥](पते गन्धहस्तिसमाः) "जं जह-13 |मोल्लं रयणं तं जाणइ रवणवाणिओ निउणं । श्व जाणइ पञ्चक्खी जो सुज्झइ जेण दिनेणं ॥६॥ कप्पस्स य निजुचित "आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा, जीत" शब्दानाम व्याख्या ~68~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४२१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४२१] दीप अनुक्रम [४५९]] श्रीस्थाना 1ववहारस्सेव परमनिउणस्स । जो अस्थओ बियाणइ सो ववहारी अणुनाओ ॥७॥ तं चेवऽणुसज्जते [अनुसरन् >10५ स्थाना सूत्र- दववहारविहिं पउंजइ जहुत्तं । एसो सुयववहारो पन्नत्तो वीअरागेहिं ॥ ८॥ अपरकमो तवस्सी गंतुं जो सोहिकारगसवृत्तिः मीवे । न चएई आगंतुं सो सोहिकरोऽवि देसाओ ॥९॥ अह पट्टवेइ सीसं देसंतरगमणनचेट्टाभो । इच्छामऽजो आगमादि कार्ड सोहिं तुभं सगासंमि ॥१०॥ सो ववहारविहिन्नू अणुसजित्ता सुओबएसेणं । सीसस्स देइ आणं तस्स इमं व्यवहाराः ॥३१८॥ देह पच्छित्तं ॥१॥ [गूढपदैरुपदिशतीति >३ जेणऽनयाइ दिढे सोहीकरणं परस्स कीरत । तारिसयं चेव पुणो उप्पन्न || | सु०४२१ कारणं तस्स ।। १२ ।। सो तंमि चेव दवे खेत्ते काले य कारणे पुरिसे । तारिसयं चेव पुणो करिंतु आराहओ होइ | ॥१३॥ यावच्चकरो वा सीसो वा देसहिंडओ वावि । देसं अवधारेन्तो चउत्थओ होइ ववहारो ॥ १४ ॥ इति ४, बहुसो बहुस्सुएहिं जो वत्तो नो निवारिओ होइ । वत्तणुवत्तपमाणं (वत्तो) जीएण कर्य हवइ एयं ॥१५॥ [यथा यावन्मूल्यं यद्रलं तन्निपुणो रत्नवणिग्जानाति एवं प्रत्यक्षवान् यो येन दत्तेन शुद्ध्यति तज्जानाति ॥ ६॥ कल्पस्य नियुकिं व्यवहारस्यैव च परमनिपुणस्य योऽर्थतो विजानाति स व्यवहारी अनुज्ञातः॥७॥ तमेवानुसरन् यथोक्तं व्यवहारविधि प्रयुक्त एष श्रुतव्यवहारो वीतरागैः प्रज्ञप्तः ॥८॥ अपराक्रमस्तपस्वी गंतु यः शोधिकारकसमीपे न शक्नोति आगंतुं यः शोधिकरोऽपि देशात् ॥ ९॥ अथ प्रस्थापयति शिष्यं देशान्तरगमननष्टचेष्टाः इच्छाम आर्य! तव सकाशे शोधि कर्तुं ॥१०॥स व्यवहारविधिज्ञः श्रुतोपदेशमनुसृत्य शिष्यस्याज्ञां ददाति (गूढपदैः) तस्यैतत् प्रायश्चित्तं दद्याः ॥३१८॥ ॥११॥ येन परस्य क्रियमाणं शोधिकरणमन्यदा दृष्टं पुनरपि तस्य कारणमुत्पन्नं तादृशं चैव ॥ १२ ॥ स तस्मिंश्चैव "आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा, जीत" शब्दानाम व्याख्या ~69~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४२१] दीप अनुक्रम [४५९]] 5925E KI द्रव्ये क्षेत्रे काले कारणे पुरुषे च तादृशीचैव पुनः कारयन्नाराधको भवति ॥ १३ ॥ वैयावृत्त्यकरो वा देशहिंडको वापि शिष्यः देशमवधारयन् चतुर्थको भवति व्यवहारः॥ १४ ॥ बहुश्रुतैहुशो वृत्तो न निवारितश्च भवति वृत्तानुवृत्तप्रवृत्तः एतज्जीतेन कृतं भवति ॥ १५॥] तथा- जस्स उ पच्छित्तं आयरिअपरंपराएँ अविरुद्धं । जोगा य बहुविहीया एसो खलु जीयकप्पो उ ॥१६॥” इति [यद् यस्याचार्यपरम्परयाऽविरुद्धं प्रायश्चित्तं योगाश्च बहुविधिकाः एष खलु जीतकल्प एव ॥ १६॥] जीत-आचरितं इदं चास्य लक्षणं-"असडेण समाइन्नं जं कत्थइ केणई असावजन निवारियमन्नेहिं | बहुमणुमयमेयमायरियं ॥ १७॥" इति, [अशठेन समाचीणे यत्कुत्रचित्केनचिदसावा । अन्यैर्न निवारितं अनुमतं बहुगुणमेतदाचरितं ॥१॥] आगमादीनां व्यापारणे उत्सगोपवादावाह--'यति यत्रकारः केवलादीनामन्यतमः 'से' तस्य व्यवहर्नुः स च उक्तलक्षणः 'तत्र' तेषु पञ्चसु व्यवहारेषु मध्ये तस्मिन् वा प्रायश्चित्तदानादिव्यवहारकाले व्यवहर्त्तव्ये वा वस्तुनि विषये आगमा केवलादिः स्याद्-भवेत् तादृशेनेति शेषः आगमेन 'व्यवहार' प्रायश्चित्तदाना-18 |दिकं 'प्रस्थापयेत्' प्रवर्तयेत् , न शेषैः, आगमेऽपि पडिधे केवलेनावन्ध्यबोधत्वात् तस्य तदभावे च मनःपर्यायेणैवं प्रधानतराभावे इतरेणेति, अथ 'नो' नैव 'से' तस्य स वा 'तत्र' व्यवहर्त्तव्यादावागमः स्यात् 'यधा' यत्प्रकारे तत्र | | श्रुतं स्यात् तादृशेन श्रुतेन व्यवहारं प्रस्थापयेदिति, 'इच्चेएहिं' इत्यादि निगमनं सामान्येनेति, यथा यथाऽसौ तत्राग|मादि स्यात्तथा तथा व्यवहारं प्रस्थापयेदिति तु विशेषनिगमनं इति । एतैर्व्यवहतः प्रश्नद्वारेण फलमाह-'से कित्यादि, अथ किं हे भदन्त!-भट्टारका आहुः प्रतिपादयन्ति, के?-आगमवलिका-उक्तज्ञानविशेषवलवन्तः श्रमणा नि DAREucatalia “आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा, जीत" शब्दानाम व्याख्या ~70~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- नसूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक सुप्तजाग [४२१] दीप अनुक्रम [४५९]] न्थाः केवलिप्रभृतयः 'इचेय'ति, इत्येतद्वक्ष्यमाणं, अथवा किं तदित्याह-इत्येवं' इति उक्तरूपं एत-प्रत्यक्ष के ?-पश्च-17/५ स्थाना विधं व्यवहारं-प्रायश्चित्सदानादिरूपं 'संमं ववहरमाणे'त्ति सम्बध्यते व्यवहरन्-प्रवर्तयन्नित्यर्थः कथं?-संमति उदेशः२ सम्यक् तदेव कथमित्याह-'यदा यदा' यस्मिन् यस्मिन्नवसरे 'यत्र यत्र' प्रयोजने क्षेत्रे वा यो यः उचितस्तमिति शेषः18/ व्यवहाराः तदा तदा काले तस्मिंस्तस्मिन् प्रयोजनादौ, कथंभूतमित्याह-अनिश्रितैः' सर्वाशंसारहितैरुपाश्रितः-अङ्गीकृतोऽनिश्रितोपाश्रित अथवा निश्रितश्च-शिष्यत्वादिप्रतिपन्नः उपाश्रितश्च स एव वैयावृत्त्यकरस्वादिना प्रत्यासन्नतरस्ती अ-IVारा रजधवा निभितं च रागः उपाश्चितं च रोषस्ते अथवा निश्रितं च-आहारादिलिप्सा उपाश्रितं च-शिष्यप्रतीच्छककुलाच-18 आदानेपेक्षा ते न तो यत्र सत्तथेति क्रियाविशेषणं, सर्वथा पक्षपातवर्जितत्वेन यथावदित्यर्थः, इह पूज्यव्याख्या-"रागो | तरौ होइ निस्सा स्वस्सिमो दोससंजुत्तो ॥१॥ अहव ण आहाराई दाही मज्झं तु पस निस्सा उ । सीसो पडिच्छओ वास०४२१होइ उबस्सा फुलाईया ॥१॥” इति, [रागस्तु भवति निभा द्वेषसंयुक्त उपाश्रितः । अथवा आहारादि मह्यं न दास्यति |8|| ४२२एष मिश्या तु १ शिष्यः प्रतीच्छको वा भविष्यत्युपश्चा कुलादिका] आज्ञाया-जिनोपदेशस्याराधको भवतीति हन्ता ४२३ आहुरेवेति गुरुवचनं गम्यमिति । श्रमणप्रस्तावात् तम्यतिकरमेव सूत्रद्वयेनाह संजतमणुस्साणं भुत्ताणं पंच आगरा पं०२०-सहा आग कासा, संजनमगुस्साणं जागराणं पंच भुत्ता पं० सं०-सहा जाव पासा। असंजयमणुस्साण मुत्ताणं का जागरामं वा पंच जामरा पं00---सा जाब फासा (सू०१२२) पंचर्हि ॥३१९॥ ठाणेहिं जीया रतं आविखंति, संक-पाणातिवातेणं जाव परिग्रहेणं । पंचदि ठाणेहिं जीवा रतं बमंति, तं० NEducati "आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा, जीत" शब्दानाम व्याख्या ~71~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४२३] % दीप पाणातिवातवरमणेणं जाव परिग्गहबेरमणेणं (सू०४२३) पंचमासियं भिक्खुपडिमं पडिवनस्स अणगारस्स कप्पति पंच दत्तीयो भोयणरस पढिगाहेत्तते पंच पाणगस्स (सू०४२४) पंचविधे उपधाते पं० सं०-तम्गमोवघाते पप्पायणोवपाते एसणोवधाते परिकम्मोवधाते परिहरणोवघाते । पंचविहा चिसोही पं० २०-गमविसोही उपायणविसो धी एसणाविसोही परिकम्मविसोही परिहरणविसोधी (सू० ४२५). व्यक्तं, नवरं 'संजयेत्यादि 'संयतमनुष्याणां' साधूनां 'सुप्तानां निद्रावतां जाग्रतीति जागरा:-असुप्ता जागरा इव जागरा, इयमत्र भावना-शब्दादयो हि सुप्तानां संयतानां जाग्रदह्निवदप्रतिहतशक्तयो भवन्ति, कर्मवन्धाभावकारणस्था-1 प्रमादस्य तदानीं तेषामभावात् , कर्मबन्धकारणं भवन्तीत्यर्थः । द्वितीयसूत्रभावना तु जागराणां शब्दादयः सुप्ता इव सुप्ताः भस्मच्छन्नाग्निवत् प्रतिहतशक्तयो भवन्ति, कर्मवन्धकारणस्य प्रमादस्य तदानीं तेषामभावात्, कर्मवन्धकारणं न भवन्तीत्यर्थः । संयतविपरीता ह्यसंयता इति तानधिकृत्याह-'असंजए'त्यादि व्यक्तं, नवरमसंयतानां प्रमादितया अवस्थादयेऽपि कर्मबन्धकारणतया अप्रतिहत शक्तित्वाच्छब्दादयो जागरा इव जागरा भवन्तीति भावना । संयतासंयताधिकारात् तद्व्यतिकराभिधायि सूत्रद्वयं सुगम, नवरं 'जीव'त्ति असंयतजीवाः 'रय'ति जीवस्वरूपोपरञ्जनाद्रज |इव रजः-कर्म 'आइयंति'त्ति आददति गृह्णन्ति बनन्तीत्यर्थः, 'जीव'त्ति संयतजीवाः 'वमंति'त्ति त्यजन्ति क्षपयन्तीत्यर्थः । संयताधिकारादेवापरं सूत्रद्वयं 'पंचमासिए'त्यादि व्यक्तं, नवरं उपधातः-अशुद्धता, उद्गमोपघातः उद्गम १खाभाविकाः शब्दादयः सुप्तदशायां खतन्त्रतया प्रवर्तन्ते जामतां तु यतनयेवि शब्दादीनां मुप्ते जाणवितरवे अथवा समजायते अवयोधानयोधी. अनुक्रम [४६१] 4%250-15 स्था०५४ aam Educatani ~72 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.......आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक 132.॥ [४२५] दीप अनुक्रम [४६३] श्रीस्थाना- दोपैराधाकर्मादिभिः षोडशप्रकारभक्तपानोपकरणालयानामशुद्धता, एवं सर्वत्र, नवरं उत्पादनया-उत्पादनादोपैः पो- ५ स्थाना. गसूत्र- मदशभिः धात्र्यादिभिः एषणया-तदोषैर्दशभिः शङ्कितादिभिरिति, परिकर्म-वखपात्रादेः छेदनसीवनादि तेन तस्योप-13उद्देशः२ वृत्तिः घातः-अकल्प्यता, तत्र वस्त्रस्य परिकर्मोपघातो यथा-"तिण्हुवरि फालियाणं वत्थं जो फालियं तु संसीवे। पंचण्ह ए- पञ्चमासि गतरं [कर्णिकाद्यन्यतरत् > सो पावइ आणमाईणि ॥१॥[यस्तिसृणां धिग्गलिकानां उपरि थिग्गलिका वस्ने संसी-लकी प्रतिमा व्येत् पंचविधानामेकतरस्मिन् स प्रामोत्याज्ञादीनि ॥१॥] तथा पात्रस्य "अवलक्खणेगबंधे दुगतिगअइरेगबंधणं उपघातवावि । जो पायं परियट्टइ [परिभुङ्गे > परं दिवट्ठाओ मासाओ ॥१॥"[अपलक्षणमेकबंधं द्वित्रिविशेषवन्धनं वापि। विशुद्धो य एतत् पात्रं परिभुङ्गे सार्धात् मासात्सरतः॥१॥] स आज्ञादीनामोतीति, तथा बसतेः “दूमिय धूमिय वासिय सू०४२४उज्जोइय बलिकडा अवत्ता य । सित्ता संमहाविय विसोहिकोडिं गया वसही ॥१॥" इति [दूमिता धवलिता वासितो-|| ४२५ घोतिता बलिकृताऽव्यका च सिक्ता संमृष्टापि च वसतिर्विशोधिकोटिं गता ॥१॥] [दूमिता धवलिता बलिकृता| कूरादिना अव्यक्ता छगणादिना लिप्ता संमृष्टा सम्मार्जितेत्यर्थः>, तथा परिहरणा-आसेवा तयोपध्यादेरकल्प्यता, तत्रोपधेर्यथा एकाकिना हिंडकसाधुना यदासेवितमुपकरणं तदुपहतं भवतीति समयव्यवस्था, "जग्गण अप्पडिवज्झण|| जइवि चिरेणं न उवहमे" [जागरणमप्रतिबन्धः (स्तस्तदा) यद्यपि चिरेणागच्छति गच्छे न तथाप्युपहन्यात् ॥] इति | वचनाद्, अस्य चायमर्थः-एकाकी गच्छभ्रष्टो यदि जागर्ति दुग्धादिषु च न प्रतिबद्यते तदा यद्यप्यसौ गच्छे चिरेणा- ॥ २०॥ गच्छति तथाप्युपधिर्नोपहन्यते अन्यथा तूपहन्यत इति, वसतेरपि मासचतुर्मासयोरुपरि कालातिकान्तेति तथा मासस्यं 4 ~73~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ४२५ ] दीप अनुक्रम [४६३] Educat [भाग - 6] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ४२५] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्थान [ ५ ], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] 7 चतुर्मासद्वयं चावर्जयित्वा पुनस्तत्रैव वसतामुपस्थानेति च तद्दोषाभिधानात् उक्तं च- "उउवासा समता कालातीता उ सा भवे सेज्जा। सा चैव उवद्वाणा दुगुणा दुगुणं अवजित्ता ॥ १ ॥” इति [ ऋतुवर्षयोर्मासचतुर्मास्योरग्रतः कालातीता भवेच्छया । सा चैवोपस्थाना द्विगुणं २ अवर्जयित्वा ॥ १ ॥ ] तथा भक्तस्यापि पारिष्ठापनिकाकारं प्रत्यकल्प्यता, तदुक्तम् - " विहिगहियं विहिभुत्तं अइरेगं भत्तपाण भोत्तन्वं । विहिगहिए विहिभुत्ते एत्थ य चउरो भवे भंगा ॥ १ ॥ अहवाविय विहिगहियं विहिभुतं तं गुरुहऽणुन्नायं सेसा नाणुन्नाया गहणे दिने च निज्जुहणं ॥२॥ [ विधिगृहीतं विधिभुक्तमतिरेकं भक्तपानं भोक्तव्यं विधिगृहीते विधिमुक्ते अत्र च भवेयुः चत्वारो भंगाः ॥ १॥ अथवा विधिगृहीतं विधिभुक्तं तद्गुरुभिरनुज्ञातं शेषा नानुज्ञाता गृहीते दत्ते वा निर्यूहणा (त्यागः ) ||२||] उद्गमादिभिरेव भक्तानां कल्प्यताः- विशुद्धय इति । उपघातविशुद्धिवृत्तयश्च जीवा निर्द्धर्म्मधार्मिकत्वाभ्यां बोधेरलाभलाभस्थानेषु प्रवर्त्तन्त इति तत्प्रतिपादनाय सूत्रद्वयम् - पंचहि ठाणेहिं जीवा दुल्लभवोधियत्ताए कम्मं पकरेंति, तं० - अरहंताणं अवनं वदमाणे १ अरहंतपन्नत्तरस धम्मस्स अवनं वमाणे २ आयरियउवज्झायाण अवनं वदमाणे ३ चाउवन्नस्स संघस्स अवनं वयमाणे ४ विवक्कतवरंभचेराणं देवानं वनं वमाणे ५ । पंचहि ठाणेहिं जीवा सुलभवोधियत्ताए कम्मं पगति, तंत्र - अरहंताणं वनं वदमाणे जाव विवकतभचेराणं देवानं वनं वदमाणे (सू० ४२६ ) 'पंचही 'त्यादि सुगमं, नवरं दुर्लभा बोधिः- जिनधर्मो यस्य स तथा तद्भावस्तत्ता तया दुर्लभवोधिकतया तस्यै वा कर्म्म- मोहनीयादि प्रकुर्वन्ति-बनन्ति, अर्हतामवर्ण-अश्लाघां वदन्, यथा- " नत्थी अरहंतती जाणं वा कीस भुंजए बोधि एवं कर्म शब्दस्य व्याख्या For Personal & Private Use Only ~74~ you Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत SMS दिना दुर्लभसुल सूत्रांक [४२६] दीप अनुक्रम [४६४] श्रीस्थाना- दाभोए । पाहडियं तुवजीवह [समवसरणादिरूपां> एमाइ जिणाण उ अवन्नो ॥१॥"[नास्त्यर्हन् जानानो वा कथं स्थाना. भोगान् भुनक्ति? प्राभृतिका वोपजीवति इत्यादितु जिनानामवर्णः ॥१॥] न च ते नाभूवन् ताणीतप्रवचनोपलन्धेः, उद्देशः२ नापि भोगानुभवनादिर्दोषः, अवश्यवेद्यसातस्य तीर्थकरनामादिकर्मणश्च निर्जरणोपायत्वात् तस्य, तथा वीतरागत्वेन अहेदव॥३२१॥ समवसरणादिषु प्रतिबन्धाभावादिति, तथा अहंत्यज्ञप्तस्य धर्मस्य-श्रुतचारित्ररूपस्य प्राकृतभाषानिबद्धमेतत् तथा किं चारित्रेण दानमेव श्रेय इत्यादिकमवर्ण वदन, उत्तरं चात्र प्राकृतभाषात्वं श्रुतस्य न दुष्टं बालादीनां सुखाध्येयत्वे-10 नोपकारित्वात् , तथा चारित्रमेव श्रेयो, निर्वाणस्यानन्तरहेतुत्वादिति, आचार्योपाध्यायानामवर्ण वदन् यथा बालोऽय-18 भबोधिता मित्यादि, न च बालत्वादिर्दोषो बुद्ध्यादिभिवृद्धत्वादिति, तथा चत्वारो वर्णाः-प्रकारा श्रमणादयो यस्मिन् स तथा स सू०४२६ एव स्वार्थिकाविधानाचातुवर्णस्तस्य सहस्थावण वदन्, यथा-कोऽयं सङ्घो? यः समवायवलेन पशुसङ्घ इवामार्गमपि मागीकरोतीति, न चैतत्साधु, ज्ञानादिगुणसमुदायात्मकत्वात् तस्य, तेन च मार्गस्यैव मार्गीकरणादिति, तथा विपक्वं -सुपरिनिष्ठितं प्रकर्षपर्यन्तमुपगतमित्यर्थः तपश्च ब्रह्मचर्य च भवान्तरे येषां विपकं वा-उदयागतं तपोब्रह्मचर्य तद्धेतुकं देवायुष्कादि कर्म येषां ते तथा तेषामवर्ण वदन्, न सन्त्येव देवाः, कदाचनाप्यनुपलभ्यमानत्वात् , किं वा तैर्विटैरिव कामासकमनोभिरविरतैस्तथा निनिमेषेरचेष्टश्च नियमाणैरिव प्रवचनकार्यानुपयोगिभिश्चेत्यादिकं, इहोत्तर-सन्ति देवाः, तस्कृतानुग्रहोपघातादिदर्शनात् , कामासक्तता च मोहसातकर्मोदयादित्यादि, अभिहितं च-"एस्थ पसिद्धी ॥२१॥ १शानादिहतोरेवाचरणायां समुपादानात. १ पूर्वपुरुषाणां तथाविधकारणाभावात् तथाविधाधरणाभावात् ममार्गलं तथा चावपि व्युत्पती विरोधोन. ~75~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४२६] दीप अनुक्रम [४६४] 448 मोहणीयसायवेयणियकम्मउदयाओ । कामपसत्ता विरई कम्मोदयओ चिय न तेसि ॥१॥ अणिमिस देवसहावा निच्चेट्ठाऽणुत्तरा उ कयकिच्चा । कालणुभावा तित्थुन्नइंपि अन्नत्थ कुब्वंति ॥२॥" [अत्र समाधानं मोहनीयसातवेदनीयकर्मणोरुदयात् कामप्रसका इति तेषां कर्मोदयतो विरतिरपि न ॥१॥ देवस्वभावादनिमेषाः निश्चेष्टा अनुत्तरास्तु कृतकृत्याः । कालानुभावात्तीर्थोन्नतिमप्यन्यत्र कुर्वन्ति ॥२॥] तथा अर्हतां वर्णवादो यथा-"जियरागदोसमोहा सम्पन्न । तियसनाहकयपूया । अचंतसञ्चवयणा सिवमइगमणा जयंति जिणा ॥१॥" इति [जितरागद्वेषमोहाः सर्वज्ञाः त्रिदशनाथकृतपूजाः । अत्यंतसत्यवचनाः शिवगतिगामिनो जयंति जिनाः ॥१॥] अर्हाणीतधर्मवणों यथा-"वत्थुपयासणसूरो आइसयरयणाण सायरो जयइ । सवजयजीवबंधुरबंधू दुविहोऽवि जिणधम्मो ॥१॥" [वस्तुप्रकाशन-18 सूर्यः अतिशयरलानां सागरो जयति । सर्वजगज्जीवस्नेहलबंधुर्द्विविधोऽपि जिनधर्मः॥१॥] आचार्यवर्णवादो यथा"तेसिं नमो तेसिं नमो भावेण पुणोवि तेसि चेव नमो। अणुवकयपरहियरया जे नाणं देंति भब्वाणं ॥१॥" [तेभ्यो नमस्तेभ्यो नमो भावेन पुनरपि तेभ्य एव नमः अनुपकृतपरहितरता ये ज्ञानं ददति भव्येभ्यः ॥१॥] चतुर्वर्णश्रमण-15 सङ्घवर्णों यथा-"एयमि पूइयंमि नत्थि तयं जं न पूइयं होइ । भुवणेवि पूअणिजो न गुणी संधाओ जं अन्नो ॥१॥" [एतस्मिन् पूजिते नास्ति तद्यत्पूजितं न भवति यद्भुवनेऽपि संघादन्यो गुणी न पूजनीयः ॥ १॥"] देववर्णवादो | यथा-"देवाण अहो सीलं विसयविसमोहियावि जिणभवणे । अच्छरसाहिपि समं हासाई जेण न करिति ॥१॥" 4456364% ~76~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४२६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- वृत्तिः ॥३२२॥ प्रत सूत्रांक [४२६] दीप अनुक्रम [४६४] इति । [ देवानामहो शीलं विषयविषमोहिता अपि जिनभवने । अप्सरोभिरपि समं येन हास्यादि न कुर्वति ॥१॥] संय- तासंयतव्यतिकरमेव पंचपडिसलीणेत्यादिना आरोपणसूत्रपर्यन्तेन ग्रन्थेनाह पंच पडिसलीणा पं० त०-सोइंदियपडिसलीणे जाव फासिदियपडिसंलीणे । पंच अप्पडिसलीणा पं० सं०-सोर्तिविचअप्पडिसलीणे जाव फासिरियप्पडिसलीणे। पंचविधे संवरे पं० २०-सोति दिवसंवरे जाव फासिंदियसंवरे, पंचविहे असंवरे पं० सं०-सोइंदियअसंवरे जाव फासिं दियअसंवरे । (सू०४२७) पंचविषे संजमे ५००-सामातितसंजमे छेदोवडावणियसंजमे परिहारचिसुद्वितसंजमे सुहुमसंपरागसंजमे अहक्खायचरित्तसंजमे (सू० ४२८) एगिदिया णं जीवा असमारभमाणस्स पंचविधे संजमे कजति, तं०-पुढविकातियसंजमे जाव वणस्सतिकातितसंजमे । एगिदिया णं जीवा समारभमाणस्स पंचविहे असंजमे कन्नति, ०-पुढविकातितअसंजमे जाव वणस्सतिकातितअसंजमे । (सू०४२९) पंचिंदिया णं जीवा असमारभमाणस्स पंचविधे संजमे कजति, तं०-सोर्तिवितसंजमे जाव फासिंदिवसंजमे, पंचिंदिया ण जीवा समारंभमाणस्स पंचविधे असंजमे कजति, तं-सोतिदियजसंजमे जाव फासिदियअसंजमे, सव्वपाणभूयजीवसत्ता णं असमारभमाणस्स पंचविधे संजमे कजति, तं०-एगिदितसंजमे जाव पंचिंदियसंजमे । सन्वपाणभूतजीवसत्ता गं समारंभमाणस्स पंचविधे असंजमे कजति, तं०-एगिदितअसंजमे जाव पंचिंदियअसंजमे (सू० ४३०) पंचविधा तणवणस्सतिकातिता पं००-अग्गबीया मूलबीया पोरवीया खंघबीया बीयरहा (सू०४३१) स्थाना० उद्देशः २ प्रतिसंली. नसंवरेत रा:सामा|यिकाद्याः एकेन्द्रिय| संयमेतरौ | पश्चेन्द्रियसंयमेतरौ तृणवनस्पतिः सू०४२७ ४३१ ॥३२२ CAMEducation intimations ~77~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४३१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३१] दीप अनुक्रम [४६९] 1555555 गतार्थश्चार्य, नवरं श्रोत्रेन्द्रियादिक्रमो यथाप्राधान्यात्, प्राधान्यं च क्षयोपशमबहुत्वकृतं । तथा प्रतिसंलीनेतरसूत्रयोः पुरुषो धर्मी उक्तः, संवरेतरसूत्रयोस्तु धर्म एवेति । तथा संयमनं संयमः पापोपरम इत्यर्थः, तत्र समो-रागादिरहितस्तस्य अयो-गमनं प्रवृत्तिरित्यर्थः समायः समाय एव समाये भवं समायेन निर्वृत्तं समायस्य वि-II कारोडशो वा समायो वा प्रयोजनमस्येति सामायिकं, उक्तं च-"रागहोसविरहिओ समोत्ति अयणं अउत्ति गमणति । समगमणंति समाओ स एव सामाइयं नाम ॥ १॥ अह्वा भवं समाए निव्वत्तं तेण तंमयं वावि । जं तप्पओयणं वा| तेण व सामाइयं नेयं ॥ २॥" इति, [रागद्वेषविरहितः सम इति अयनमय इति गमनमिति समगमनमिति समायः स एवं सामायिक नाम ॥११॥ अथवा समाये भवं तेन निवृत्तं तन्मयं वापि यत्तप्रयोजनं वा तेन वा सामायिक ज्ञेयं ॥२॥] अथवा समानि-ज्ञानादीनि तेषु तैर्वा अयनमयः समायः स एव सामायिकमिति, अवादि च-"अहवा समाइ सम्मत्तनाणचरणाइ तेसु तेहिं वा । अयणं अओ समाओ स एव सामाइयं नामा ॥१॥" इति, [अथवा समानि सम्यक्त्वज्ञानचरणानि तेषु तैर्वाऽयनं अयः समायः स एव सामायिक नाम ॥१॥] अथवा समस्य-रागादिरहितस्याऽऽयो-गुणानां लाभः समानां वा-ज्ञानादीनामायः समायः स एव सामायिक, अभाणि च-अहवा समस्स आओ गुणाण लाभो त्ति जो समाओ सो। अहवा समाणमाओ ओ सामाइयं नाम ॥१॥” इति, [अथवा समस्यायस्तु गुणानां लाभ ४॥ इति यः स समायः अथवा समानामायो ज्ञेयः सामायिकं नाम ॥१॥] अथवा साम्नि-मैच्यां साम्ना वा अयस्तस्य ५ श्रोत्रस्य शब्दवर्गणापुरलाना चतुःपानी प्रहणसामोपेतत्वात् शेषाणि सर्वाणि खटपर्शमाहीणि तेषु तु चक्षुरादिकमेण प्राधान्य aam Educatanitaliahal सामायिक शब्दस्य विविध एवं विशद-व्याख्या:.:, ~78~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: वृत्तिः प्रत सूत्रांक [४३१] दीप अनुक्रम [४६९] श्रास्थाना- वा आयः सामायः स एव सामायिक, अभ्यधायि च-“अहवा सामं मेत्ती तत्थ अओ तेण वत्ति सामाओ । अहवा५स्थाना० सूत्र- ४. सामस्साओ लाभो सामाइयं नाम ॥१॥” इति [अथवा साम मैत्री तत्रायस्तेन वाऽय इति सामायः अथवा साम्न उद्देशः २ द आयो लाभः सामायिकं नाम ॥१॥] सावद्ययोगविरतिरूपं सर्वमपि चारित्रमविशेषतः सामायिकमेव, छेदादिविशे- सामायि पैस्तु विशिष्यमाणमर्थतः शब्दतश्च नानात्वं भजते, तत्र प्रथम विशेषणाभावात् सामान्यशब्द एवावतिष्ठते सामा- काद्याः ॥३२३॥ यिकमिति, तच्च द्विधा-इत्वरकालिकं यावज्जीविकं च, तत्रेवरकालिकं सर्वेषु प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थेष्वनारोपि-5 | सू०४३१ तव्रतस्य यावज्जीविकं तु मध्यमविदेहत्तीर्थकरतीर्थेषु भवति इति, तेपूपस्थापनाऽभावादिति, सामायिकं च तत्सं-* यमश्चेत्येवं सर्वत्र वाक्यं कार्यमिति, भवन्ति चात्र गाथा:-"सब्बमिणं सामाइय छेदादिविसेसओ पुण विभिन्नं । अविसेसियमादिमयं ठियमिह सामन्नसन्नाए ॥१॥ सावज जोगविरइत्ति तत्थ सामाइयं दुहा तं च । इत्तरमावकहहै|तिय पढम पढमंतिमजिणाणं ॥२॥ तित्थेसु अणारोवियवयरस सेहस्स थोवकालीयं । सेसाणमावकहियं तित्थेसु विदेहयाणं च ॥" इति, [सर्वमिदं सामायिक छेदादिविशेषतः पुनर्विभिन्न अविशेषितमादिम स्थितं चैतदिह सामान्य४संज्ञया ॥१॥ सावद्ययोगविरतिरिति तत्र सामायिक द्विधा तच्च इत्वरं यावत्कथिकमिति च प्रथम प्रथमान्तिमजिनयोः। ॥२॥ तीर्थयोरनारोपितत्रतस्य शैक्षस्य स्तोककालीनं । शेषाणां यावत्कथिर्क तीर्थेषु विदेहगानां च ॥३॥] तथा छेदच पूर्वपर्यायस्योपस्थापनं च तेषु यत्र तच्छेदोपस्थापनं तदेव छेदोपस्थापनिकं ते वा विद्यते यत्र तच्छेदोपस्थापनिकमथवा पूर्वपर्यायच्छेदेनोपस्थाप्यते-आरोप्यते यस्महाव्रतलक्षणं चारित्रं तच्छेदोपस्थापनीयं, तदपि द्विधा-अनतिचारं साति JAMEucatani सामायिक शब्दस्य विविध एवं विशद-व्याख्या:, ~79~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४३१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३१] दीप अनुक्रम [४६९] चार च, तत्रानतिचारं यदित्वरसामायिकस्य शिक्षकस्यारोप्यते पार्श्वनाथसाधोर्वा पञ्चयामधर्मप्रतिपत्ती, सातिचार तु यन्मूलप्रायश्चित्तप्राप्तस्येति, इहापि गाथे-"परियायस्स उ छेओ जत्थोवट्ठावणं वएसुं च । छेओवट्ठावणमिह तमणइयारेतरं दुविहं ॥१॥ सेहस्स निरइयारं तित्वंतरसंकमे व तं होज्जा । मूलगुणघाइणो साइयारमुभयं च ठियकप्पे ॥२॥" पर्यायस्य छेदः यत्रोपस्थापनं च तेषु छेदोपस्थापनमिह तदनतिचारतरत्वाभ्यां द्विविधं ॥१॥ शिष्यस्य निरतिचारं ती र्थान्तरसंक्रमे वा तद्भवेत् । मूलगुणघातिनः सातिचारमुभयं च स्थितकल्पे ॥१॥] (प्रथमपश्चिमतीर्थयोरित्यर्थः> * तथा परिहरणं परिहारः-तपोविशेषः तेन विशुद्धं परिहारो वा विशेषेण शुद्धो यस्मिंस्तत्परिहारविशुद्धं तदेव परिहारविशु द्धिक, परिहारेण वा विशुद्धिर्यस्मिंस्तत्सरिहारविशुद्धिक, तच्च द्विधा-निर्विशमानक निर्विष्टकायिक च, तत्र निर्विशमान-13 कानां च तदासेवकानां यत्तन्निविंशमानक, यत्तु निविष्टकायिकानामासेवितविवक्षितचारित्रकायानां तन्निविष्टकायिकमिति, है इहापि गाथे-"परिहारेण विसुद्धं सुद्धो य तबो जहिं विसेसेणं । तं परिहारविसुद्धं परिहारविसुद्धियं नाम ॥१॥ दुविकल्प निविस्समाणनिबिहकाइयवसेणं । परिहारियाणुपरिहारियाण कप्पट्ठियस्सऽविय ॥२॥” इति, [परिहारेण विशुद्धं यत्र विशेषेण शुद्धं च तपः। तत्परिहारविशुद्धं परिहारविशुद्धिकं नाम॥शा तद् द्विविकल्पं निर्विशमाननिविष्टकायिकवशात् परिहारिकानुपरिहारिकाणां कल्पस्थितस्यापि च ॥२॥] इह च नवको गणो भवति, तत्र चत्वारः परिहारिका अपरे तु तद्वयावृत्त्यकराश्चत्वार एवानुपरिहारकाः, एकस्तु कल्पस्थितो वाचनाचार्यों गुरुभूत इत्यर्थः, एतेषां च निर्विशमान-151 कानामयं परिहारः-प्रीष्मे जपन्यादीनि चतुर्थषष्ठाष्टमादीनि शिशिरे तु पठाष्टमदशमानि वर्षास्वष्टमदशमद्वादशानि पा-14 SANGACASSS ForParamasPrvammoni सामायिक शब्दस्य विविध एवं विशद-व्याख्या:, ~80 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- सूत्र प्रत सूत्रांक ॥३२४॥ [४३१] दीप अनुक्रम [४६९] 252515645% रणके चायाम, इतरेषा सर्वेषामायाममेव, एवमेते चत्वारः षण्मासान् पुनरन्ये चत्वारः षडेव पुनर्वाचनाचार्यः षडिति५ स्थाना० सर्व एवायमष्टादशमासिकः कल्प इति । तथा सूक्ष्मा:-लोभकिट्टिकारूपाः सम्पराया:-कषाया यत्र तत्सूक्ष्मसम्पराय, मा. उद्देशः २ तदपि द्विधा-विशुद्यमानकं सक्तिश्यमानकं च, तत्राद्यं क्षपकोपशमश्रेणिद्वयं समारोहता, सङ्क्तिश्यमानकं तूपशमश्रेणितः प्रच्यवमानस्येति, तत्रोक्तम्-"कोधाइ संपराओ तेण जओ संपरीई संसारं । तं मुहुमसंपरायं सुहुमो जत्थाव- | काद्याः सेसो से ॥१॥ सेटिं बिलग्गओ तं विसुज्झमाणं तओ चयंतस्स । तह संकिलिस्समार्ण परिणामवसेण विन्नेयं ॥२॥" सू०४३१ इति [क्रोधादिः संपरायो यतस्तेन संसारं संपरैति यत्र स सूक्ष्मोऽवशिष्टः तत्सूक्ष्मसंपरायं ॥१॥श्रेणि विलगतस्तद्वि-IN ४ शुद्यमानं ततश्चयवमानस्य तथा संक्लिश्यमानं परिणामवशेन विज्ञेयं ॥२॥] अथशब्दो यथार्थः, यथैवाकषायतयेत्यर्थः,४ आख्यातं-अभिहितं अधाख्यातं तदेव संयमोऽथाख्यातसंयमः, अयं च छद्मस्थस्योपशान्तमोहस्य क्षीणमोहस्य च स्थात् केवलिनः सयोगस्यायोगस्य च स्यादिति, इहाभ्यधायि-"अहसदो जाहस्थो आडोऽभिविहीऍ कहियमक्खायं ।।* चरणमकसायमुदियं तमहक्खायं अहक्खायं ॥१॥ तं दुविगप्पं छउमत्धकेवलिविहाणओ पुणेकेकं । खयसमजसजोगाजोगि केवलिविहाणओ दुविहं ॥२॥" इति [अथशब्दो याथार्थे आङभिविधौ कथितं आख्यातं चरणमकषाय-1 मुदितं तद्यथाख्यातं अथाख्यातं ॥१॥ तद् द्विविकल्प छद्मस्थकेवलि विधानतः पुनरेकै क्षयशमजसयोग्ययोगिकेवलिविधानाद् द्विविधम् ॥ २॥] 'एगिदिया णं जीव'त्ति एकेन्द्रियान् णमित्यलङ्कारे जीवान् असमारभमाणस्य-संघट्टा-131 ॥३२४॥ दीनामविषयीकुर्वतः सप्तदशप्रकारस्य संयमस्य मध्ये पञ्चविधः संयमो-व्युपरमोऽनाश्रवः क्रियते भवति, तद्यथा सामायिक शब्दस्य विविध एवं विशद-व्याख्या:, ~81 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४३१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३१] दीप अनुक्रम [४६९] पृथिवीकायिकेषु संयमः-सचट्टाधुपरमः पृथिवीकायिकसंयमः, एवमन्यान्यपि पदानि, असंयमसूत्रं संयमसूत्रवद् विप-है कार्ययेण व्याख्येयमिति । 'पंचेंदियाण'मित्यादि, इह सप्तदशप्रकारसंयमभेदस्य पश्शेन्द्रियर्सयमलक्षणस्येन्द्रियभेदेन भेदवि वक्षणात् पञ्चविधत्व, तत्र पश्चेन्द्रियानारम्भे श्रोत्रेन्द्रियस्य व्याघातपरिवर्जन श्रोत्रेन्द्रियसंयमः एवं चक्षुरिन्द्रियसंयमादयोऽपि वाच्याः, असंयमसूत्रमेतविपर्यासेन बोद्धव्यमिति । 'सव्वपाणे'त्यादि, पूर्वमेकेन्द्रियपश्चेन्द्रियजीवाश्रयेण संयमासंयमायुक्ताविह तु सर्वजीवाश्रयेणात एव सर्वग्रहणं कृतमिति, प्राणादीनां चार्य विशेष:-"प्राणा द्वित्रिचतः प्रोक्ता, भूतास्तु तरवः स्मृताः। जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा इतीरिताः॥१॥” इति, इह सप्तदशप्रकारसंयमस्याद्या नव भेदाः सङ्ग्रहीताः, एकेन्द्रियसंयमग्रहणेन पृथिव्यादिसंयमपञ्चकस्य गृहीतत्वादिति एतद्व्यत्ययेनासंयमसूत्रं । 'तण वणस्सईत्ति तृणवनस्पतयो-बादरा वनस्पतयोऽग्रवीजादयः क्रमेण कोरण्टका उत्सलकन्दा वंशाः शलक्यो वटा एवमा&ादयो, व्याख्यातं चैतप्रागिति। पंचविधे आवारे पं० ०-णाणायारे दसणायारे चरिचायारे तवायारे वीरियावारे (सू०४३२) पंचविधे आयारपकप्पे पं० सं०-मासिते उग्धातिते मासिए अणुग्घाइए चउमासिए उग्धाइए चालम्मासिए अणुग्धातीते आरोवणा । आरोवणा पंचविहा पं० त०-पट्टविया ठविया कसिणा अकसिणा हाडहवा (सू०४३३) १ पुढविदगअगनिमास्य वणस्सइवितिचतपणिदिमजीवा । पेहुप्पेहलमजण परिद्रवणमणोवईकाए 100 खोकमेदवात् पधेन्द्रियसंयमस्व. ३ विकलेन्द्रियनिकपोन्द्रियैः सह नत्र भेदा पृथ्व्यायेकेन्द्रियादिसंयमानां. AnEaicational ~82 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३३] दीप अनुक्रम [४७१] श्रीस्थाना- आचरणमाचारो-ज्ञानादि विषयाऽऽसेवेत्यर्थः ज्ञानाचार:-कालादिरष्टधा दर्शन-सम्यक्त्वं तदाचारो-निःशङ्कितादि-16 ५ स्थाना रष्टधैव चारित्राचारः-समितिगुप्तिभेदोऽष्टधा तपआचारोऽनशनादिभेदो द्वादशधा वीर्याचारो वीर्यागोपनमेतेवे- उद्देशः २ वृत्तिः वेति । आचारस्य-प्रथमाङ्गस्य पदविभागसामाचारीलक्षणप्रकृष्टकल्पाभिधायकत्वात् प्रकल्प आचारप्रकल्प:-निशीथा-18 आचाराः ध्ययनं, स च पञ्चविधः-पञ्चविधप्रायश्चित्ताभिधायकत्वात् , तथाहि-तत्र केषुचिदुद्देशकेषु लघुमासप्रायश्चित्तापत्तिरु- उद्घातिका॥ ३२५॥ च्यते १ केषुचिच्च गुरुमासापत्तिः २ एवं लघुचतुर्मास ३ गुरुचतुर्मासा ४ऽऽरोपणाश्चेति ५, तत्र मासेन निष्पन्न मासिकंद्यारोपणाः तपः, तच्च उद्घातो-भागपातो यत्रास्ति तदुद्घातिकं लध्वित्यर्थः, यत उक्तम्-"अद्धेण छिन्नसेसं पुब्बद्धेण तु संजुयं सू०४३२Clकाउं । देजाहि लहुयदाणं गुरुदाणं तत्तियं चेव ॥१॥" इति, एतद्भावना मासिकतपोऽधिकृत्योपदश्यते-मासस्यार्द्ध-दा ४३३ छिन्नस्य शेषं दिनानां पञ्चदशकं तत् मासापेक्षया च पूर्वस्य-पञ्चविंशतिकस्या.न-सार्धद्वादशकेन संयुतं कृतं सा -1 सप्तविंशतिर्भवतीति । आरोपणा तु चडायणत्ति भणिय होइ, यो हि यथाप्रतिषेवितमालोचयति तस्य प्रतिषेवानिष्पन्नमेव मासलघुमासगुरुप्रभृतिकं दीयते, यस्तुन तथा तस्य तत्तावद्दीयते एव मायानिष्पन्नं चान्यदारोप्यते इत्यारोपणेति । 'आरोवणे ति आरोपणोक्तस्वरूपा, तत्र 'पट्टविय'त्ति बहुप्यारोपितेषु यन्मासगुर्वादिप्रायश्चित्तं प्रस्थापयति-बोदुमार-| भते तदपेक्षयाऽसौ प्रस्थापितेत्युक्ता १, 'ठविय'त्ति यत्प्रायश्चित्तमापन्नस्तत्तस्य स्थापितं कृतं, न वाहयितुमारब्ध इत्यर्थः, आचार्यादिवयावृत्त्यकरणार्थ, तद्धि बहन शक्नोति वैयावृत्त्यं का, यावृत्त्यसमाप्ती तु तत्करिष्यतीति स्थापितोच्यत|| इति २, कृत्स्ना पुनर्यत्र झोषो न क्रियते, झोषस्त्वयं-इह तीर्थे षण्मासान्तमेव तपस्ततः पण्णां मासानामुपरि यान् मा आचार शब्दस्य व्याख्या एवं भेदाः, पञ्चविध-प्रायश्चित्तम् ~83~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३३] दीप अनुक्रम [४७१] सानापन्नोऽपराधी तेषां क्षपर्ण-अनारोपणं प्रस्थे चतुःसेतिकाऽतिरिक्तधान्यस्येव झाटनमित्यर्थः, झोपाभावेन सा परिपूऐति कृत्स्नेत्युच्यत इति भावः ३, अकृत्स्ना तु यस्यां पण्मासाधिकं झोष्यते, तस्या हि तदतिरिक्तझाटनेनापरिपूर्ण-16 स्वादिति ५, 'हाडहडे'ति यत् लघुगुरुमासादिकमापनस्तत् सद्य एव यस्यां दीयते सा हाडहडोक्तति ५। एतत्स्वरूपं च विशेषतो निशीविंशतितमोदेशकादवगन्तव्यमिति । अयं च संयतासंयतगतवस्तुविशेषाणां व्यतिकरो मनुष्यक्षेत्र एव भवतीति मनुष्यक्षेत्रवर्तिनो वस्तुविशेषान् 'जंबुद्दीवेत्यादिना 'उसुयारा नस्थिति पर्यवसानेन ग्रन्थेनाह जंबुदी २ मंदरस्स पब्बयस्स पुरथिमे णं सीयाए महानईए उत्तरेणं पंच वक्वारपञ्चता पं० २०ालवते चित्तको पम्हफूठे णलिणकुडे एगसेले १ जंबूमंदरस्स पुरओ सीताए महानदीए दाहिणेणं पंच वक्यारपवता पं० सं०तिकूडे वेसमणकूडे अंजणे मार्यजणे सोमणसे २ जंबूमंदरस्स पञ्चस्थिमेणं सीओताते महाणदीए दाहिणणं पंच वक्खारपस्यता पं० सं०-विजुप्पभे अंकावती पम्हावती आसीविसे सुहावहे ३ जंबूमंदरपञ्चधिमेणं सीतोताते महानदीते उत्तरेणं पंच वक्खारपण्यता पं० सं०-चंदपव्वते सूरपब्बते णागपन्वते देवपम्बते गंधमादणे ४ जंबूमंदरदाहिणणं देवकुराए कुराए पंच महदहा पं० २०-निसहदहे देवकुरुदहे सूरदहे सुलसदहे विजुप्पभदहे ५ जंवूमंदरउत्तरकुराते कुराए पंच महदहा पं० सं०-नीलबंतदहे उत्तरकुरुदहे चंदहे एरावणदहे मालवंतदहे ६ सब्वेऽबि णं वक्खरपब्बया (तेणं) सीया सीओयाओ महाणईओ मंदरं वा पन्वतेणं पंच जोयणसवाई उडु उच्चत्तेणं पंचगाउयसताई उन्हेणं ७ । धायइसंडे दीवे पुरच्छिमद्वेणं मंदरस्स पब्वयस्स पुरच्छिमेणं सीताते महाणतीते उत्तरेणं पंच बक्सारपञ्चता पं० २०-मालवंते SASANG स्था०५९ DAREucatonion पञ्चविध-प्रायश्चित्तम् ~84~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीखाना सूत्रवृत्तिः ॥३२६॥ प्रत सूत्रांक [४३४] दीप अनुक्रम [४७२] ROCRACT एवं जधा अंधुहीवे तथा जाब पुक्सरवरवीवडपञ्चत्थिमद्धे वक्खारा दहा य उचतं भागियन । समयक्खे ते ण पंच ५स्थाना० भरहाई पंच एरवताई, एवं जघा चउहाणे बितीयउसे तहा एथवि भाणियब्वं जाव पंच मंदरा पंच मंदरचूलिताओ, | उद्देशः२ णवरं उसुवारा णस्थि (सू०४३४) उसमे गं अरहा कोसलिए पंचधणुसताई उ उपत्तेणं होत्था १ । भरहे णं मालवस्राया चाउरतचकावट्टी पंच धणुसयाई उई उच्चत्तेणं हुस्था २ । बाहुबली मणगारे एवं व ३ मीणामज्जा एवं घेथ ४ क्षस्काराएवं मुंदरीवि ५, (सू०४३५) द्याः ऋषकण्ठयश्चार्य, नवरं मालव(4)तो गजदन्तकात् प्रदक्षिणया सूत्रचतुष्टयोक्ता विंशतिर्वक्षस्कारगिरयोऽवगन्तव्या इति, इही भादीनाच देवकुरुषु निषधवर्षधरपर्वतादुत्तरेणाष्टौ योजनानां शतानि चतुस्त्रिंशदधिकानि योजनस्य चतुरश्च सप्तभागानतिक्रम्य मुच्चत्वं शीतोदाया महानद्याः पूर्वापरकूलयोविचित्रकूटचित्रकूटाभिधानी योजनसहस्रोरिकती मूले सहस्रायामविष्कम्भावुपरिसू०५३४. पश्च योजनशतायामविष्कम्भी प्रासादमण्डिती स्वसमाननामदेव निवासभूतौ पर्वती स्तः, तसस्ताभ्यामुत्तरतोऽनन्तरोदि- ४३५ तान्तरः शीतोदामहानदीमध्यभागवती दक्षिणोत्तरतो योजनसहनमायतः पूर्वापरतः पश्च योजनशतानि विस्तीर्णः -1 दिकावनखण्डद्वयपरिक्षिप्तो दश योजनावगाहो नानामणिमयेन दशयोजननालेना योजनवाहल्येन योजनविष्कम्भेना -18 योजनविस्तीर्णया कोशोरिङ्गतया कर्णिकया युक्तेन निषधाभिधानदेवनिवासभूतभवनभासितमध्येन तदडेप्रमाणाष्टोत्तर-1|| शतसमयपीस्तदन्येषां च सामानिकादिदेवनिवासभूतानां पद्मानामनेकलक्षैः समन्तात् परिवृतेन महापोन विराजमान-12॥२२६॥ मध्यभागो निषधो महादः, एवमन्येऽपि निषधसमानवक्तव्यताः स्वसमानाभिधानदेवनिवासा उक्तान्तराः समवसेया,18 वक्षस्कार-पर्वतानाम् वर्णनं ~85 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४३५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत 4-0-58 सूत्रांक [४३५] दीप अनुक्रम [४७३] नवरं नीलवन्महाहदो विचित्रकूटचित्रकूटपर्वतसमवक्तव्यताभ्या यमकाभिधानाभ्यां स्वसमाननामदेवावासाभ्यां पर्वता-है। भ्यामनन्तरं द्रष्टव्यस्ततो दक्षिणतः शेषाश्चत्वार इति, एते च सर्वेऽपि प्रत्येक दशभिर्दशभिः काञ्चनकाभिधानैः योजनशतोच्छ्तैिोजनशतमूलविष्कम्भैः पश्चाशद्योजनमानमस्तकविस्तारैः स्वसमाननामदेवाधिवासैः प्रत्येक दशयोजनान्तरैः पूर्वापर व्यवस्थितैः गिरिभिरुपेताः, एतेषां च विचित्रकूटादिपर्वतहदनिवासिदेवानामसङ्ख्येयतमजम्बूद्वीपे द्वादशयोजनसहसप्रमाणास्तन्नामिका नगर्यो भवन्तीति, 'सब्वेवि ण'मित्यादि, सर्वेऽपि जम्बूद्वीपादिसम्बन्धिनः, 'तेणं ति शीताशीतोदे महानद्यौ प्रतीते लक्षणीकृत्य नदीदिशीत्यर्थः, मन्दरं वा-मेरुं वा पर्वतं प्रति तद्दिशीत्यर्थः, तत्र मालवत्सौमनसविद्युत्लभगन्धमादनागजदन्ताकारपर्वता मेरु प्रति यथोकस्वरूपाः, शेषास्तु वक्षारपर्वता महानद्यी प्रतीति, इयं चानन्तरोदिता सप्तसूत्री धातकीखण्डस्य पुष्करार्द्धस्य च पूर्वापरार्द्धयोदृश्येत्यत एवोक्तम्-'एवं जहा जंबू' इत्यादि । समयः-कालस्तद्वि|शिष्टं क्षेत्रं समयक्षेत्र-मनुष्यक्षेत्रं तस्यैवादित्यगतिसमभिव्यवऋत्वयनादिकालयुक्तत्वात् , 'जाव पंच मंदर'त्ति इह छायावत्करणात् पश्न हैमवतानि पञ्च हैरण्यवतानीत्यादि पञ्च शब्दापातिन इत्यादि चोपयुज्य सर्व चतुःस्थानकद्वितीयोदे-15 |शकानुसारेण वाच्यं, नवरं 'उसुयार'त्ति चतुःस्थानके चत्वार इषुकारपर्वता उक्ताः इह तु ते न वाच्या, पञ्चस्थान-11 कत्वादस्येति । अनन्तरं मनुष्यक्षेत्रे वस्तून्युक्तानीति तदधिकाराद्भरतक्षेत्रवर्त्तमानावसर्पिणीभूषणभूतमृषभजिनवस्तु तत्सम्बन्धादन्यानि च पश्चस्थानकेऽवतारयन् सूत्रपञ्चकमाह-'उसमे 'मित्यादिः कण्ठ्यं, नवरं 'कोसलिए'त्ति, NElication वक्षस्कार-पर्वतानाम् वर्णनं ~86~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- मसूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक ॥३२७॥ [४३५] दीप अनुक्रम [४७३] 45945% 82% कोशलदेशोत्पन्नत्वात् कौशलिको, भरतादयश्च ऋषभापत्यानि । बुद्धाश्चैते, बुद्धश्च भावतो मोहक्षयाद् द्रव्यतो निद्राक्ष- ५ स्थाना. यादिति द्रव्यबोधं कारणत उपदर्शयन्नाह उद्देशः२ पंचहि ठाणेहि सुते विबुज्झेजा, तं०-सरेणं फासेणं भोयणपरिणामेणं णिहक्खएणं सुविणदसणेणं (सू०४३६) पं. द्रव्यबोधचाहिं ठाणेहिं समणे जिग्गंधे गिरगंधि गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णातिकामति, सं०-निग्गंथिं च णं अन्नयरे पसु- हेतवःनिजातिए वा पक्खिजातिए वा ओहातेजा तत्थ णिग्गंथे णिग्गंथि गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नासिकमति १णिग्गंथे ग्रंन्थ्यवलजिग्गंथिं दुग्गसि वा विसमंसि वा पक्खलमाणि वा पवडमाणि वा गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा जातिकमति २ म्वादावाजिग्गये गिम्माधि सेतंसि वा पंकसि वा पणगंसि वा उदगंसि वा उकसमाणी वा उधुज्झमाणी चा गिण्हमाणे वा अवलं ज्ञानति बमाणे वा णातिकमति ३ निम्गथे निग्गथिं नावं आरुभमाणे वा ओरोहमाणे वा णातिकमति १, खेतइत्तं दित्तइत्तं अक्खाइह जम्मायपत्तं उनसम्गपत्तं साहिगरणं सपायरिछत्तं जाव भचपाणपडियातिक्खियं अट्ठजाय वा निमाथे निगर्थि सू०४३६. गेण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णातिकमति ५॥ (सू० ४३७) ४३७ 'पंचहीं'त्यादि कण्ठवं, नवरमिह निद्राक्षयोऽनन्तरकारणं शब्दादयस्तु तरकारणत्वेन तत्कारणतयोक्ताः, भोजनपरिणामो बुभुक्षा । अनन्तरं द्रव्यप्रबुद्धः कारणत उक्तो, अथ भावप्रबुद्धमनुष्ठानत आज्ञानतिक्रमिणं दर्शयितुमाह-पंचही त्यादि। |सुगम, नवरं 'गिण्हमाणे'त्ति बाहादावङ्गे गृह्णन् अवलम्बमानः पतन्तीं बाहादौ गृहीत्वा धारयन् अथवा 'सब्बंगियं तु ॥ ३२७॥ गहणं करेण अवलंबणं तु देसमित्ति [साङ्गिकं तु ग्रहणं करेण अवलम्बनं तु देशे] नातिकामति स्वाचारमाज्ञा वा गीता-18 ~87~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३७] दीप अनुक्रम [४७५] र्थस्थविरो निर्गन्धिकाऽभावे न यथाकथञ्चित् , पशुजातीयो हप्तगवादिः पक्षिजातीयो गृध्रादिः, 'ओहाएजत्ति उपहन्यात तत्रेति-उपहनने गृहनातिकामति कारणिकत्वात् निष्कारणवे तु दोषाः, यदाह-"मिच्छत्तं उड्डाहो विराहणा फास भावसंबंधो । पडिगमणाई दोसा भुत्ताभुत्ते य नायब्वा ।। १॥ [मिथ्यात्वमुड्डाहो विराधना स्पर्श भावप्रतिबंध प्रतिगमनादयो दोपा भुक्ताभुक्तयोश्च ज्ञातव्याः ॥९॥] इत्येकं, तथा दुःखेन गम्यत इति दुर्गः, स च त्रिधा-वृक्षदुर्गः श्वापददुग्गों म्लेच्छादिमनुष्यदुग्गः, तत्र वा मागें, उक्तं च-"तिविहं च होइ दुग्गं रुक्खे सावयमणुस्सदुग्गं च" ६ इति [दुर्ग त्रिविधं च भवति वृक्षश्वापदमनुष्यदुर्गभेदात् ॥] तथा विषमे वा-गर्तपाषाणाद्याकुले पर्वते वा प्रस्खलंती वाटू गत्या प्रपतन्ती वा भुवि, अथवा "भूमीए असंपत्तं पत्तं वा हत्थजाणुगादीहिं । पक्खलर्ण नायच्वं पवडण भूमीऍ गत्तेहिं | ॥१॥" इति [भूमावसंप्राप्तिः प्राप्तिर्वा हस्तजान्वादिभिः । प्रस्खलनं ज्ञातव्यं प्रपतनं भूमौ गात्रैः ॥१॥"] गृहन्नातिकाम-12 तीति द्वितीय, तथा पङ्कः पनको वा सजलो यत्र निमज्यते स सेकस्तत्र वा, पङ्कः-कर्दमस्तत्र वा, पनके वा आगन्तुकप्रतनुद्रवरूपे कर्दम एव ओल्यां वा, 'अपकसंती पङ्कपनकयोः परिहसन्ती अपोद्यमानां वा-सेके उदके वा नीयमानां गृह्णन्नातिक्रामतीति, गाथे चेह-“पंको खलु चिक्खिल्लो आगंतुं पतणुओ दवो पणओ । सोच्चिय सजलो सेओ सीइजइ जत्थ दुविहेवि ॥ १॥” इति, पंकपणएसु नियमा ओसगणं वुझणं सिया सेए । निमियंमि निमजणया सजले सेए सिया दोवि ॥२॥[पंकः खलु चिक्खिल आगंतुकः प्रतनुको द्रवः पनकः । सोऽपि च सजल: सेकः यत्र द्विविधेऽपि सीद्यते ॥ १॥ पंकपनकयोनियमादधोगमनं सेके स्याद्वहनं (निर्मुदि स्तिमिते ) निमज्जनता सजले सेके स्यातां % % 19-% AnEautatunIOnान ~88~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४३७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत वृत्ति सूत्रांक [४३७] दीप अनुक्रम [४७५] श्रीस्थाना- द्वावपि ॥२॥] इति तृतीयं, तथा नावं 'आरुहमाणेत्ति आरोहयन् 'ओरुहमाणे ति अवरोहयन्नुत्तारयन्नित्यर्थों ५ स्थाना० नातिक्रामतीति चतुर्थ, तथा क्षिप्तं-नष्टं रागभयापमानैश्चित्तं यस्याः सा क्षिप्तचित्ता सां वा, उक्तं च-"रागेण वा भ- उद्देशः२ एण वा अहवा अवमाणिया महंतेणं । एतेहिं खित्तचित्त"त्ति [रागेण वा भयेन वाऽथवा महताऽपमानिता एतैःनिन्थ्य॥३२८॥ | क्षिप्तचित्ता ॥] तथा हप्तं सन्मानात् दर्पयश्चित्तं यस्याः सा हप्तचित्ता तां चा, उक्तं च-"इति एस असंमाणा खित्तो लावलम्बहे. सम्माणओ भवे दित्तो । अग्गीव इंधणेणं दिप्पड चित्तं इमेहिं तु ॥१॥ लाभमएण व मत्तो अहवा जेऊण दुजयं स-1 तवः "ति ।[इत्येषोऽसन्मानाक्षिप्तः सन्मानाद्भवेदप्तः। अग्निरिवेन्धनदृष्यति चित्तमेभिरेव ॥१॥ लाभमदेन वा मसः अथवा सू०४३६. |जित्वा दुर्जेयं शत्रु ॥] यक्षेण-देवेन आविष्टा-अधिष्ठिता यक्षाविष्टा तां वा, अत्रोक्तम्-"पुष्वभषवेरिएणं अहवा रागेणी ४३७ रागिया संती । एएहि जक्खाह"त्ति [पूर्वभववैरिणाऽथवा रागेण रागवती सती । एतैर्यक्षाविष्टा ॥] उन्माद-उन्म-17 |त्तता प्राप्ता उन्मादप्राप्ता तां वा, अत्राप्युक्तम्-"उम्माओ खलु दुविहो जक्खाएसो य मोहणिजो य । जक्खाएसो वुत्तो मोहेण इमं तु वोच्छामि ॥१॥ सवंर्ग दहणं उम्माओ अहव पित्तमुच्छाए"त्ति, [वन्मादः खलु द्विविधा यक्षा-13 वेशश्च मोहनीयश्च । यक्षावेश उक्को मोहेनेनं तु वक्ष्यामि ॥शा रूपमंगं च दृष्ट्वा उन्मादोऽधवा पिसमूच्या ॥] उपसर्ग-1 ४ उपद्रवं प्राप्ता उपसर्गप्राप्ता तां वा, इहाप्युक्तम्-"तिविहे य उवस्सग्गे दिब्वे माणुस्सए तिरिक्खे य । दिब्वे य पुच्चआभणिए माणुस्से आभिओगे य ॥१॥ विजाए मंतेण य चुन्नेण व जोइया अणप्पवसा" इति [विविधाश्योपसगोंः दिव्या|| मानुष्यासरखश्च। दिव्याश्च पूर्व भणिता मानुष्या आभियोगाश्च ॥१॥ विद्यया मंत्रेण चूर्णेन वा योजिता अनात्मवशा॥] तथा RSS 5- 45 anERucatunintimate ~89~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४३७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत SSC CG सूत्रांक [४३७] 55-55165 दीप अनुक्रम [४७५] सहाधिकरणेन साधिकरणा-युद्धार्थमुपस्थिता तां वा सह प्रायश्चित्तेन सप्रायश्चित्ता तां घा, भावना चेह-"अहिंगरणमि कयंमि उ खामेउमुवट्ठियाए पच्छितं । तप्पढमयाभएणं होइ किलंता व वहमाणी ॥१॥"[अधिकरणे कृते क्षामयितुमुपस्थिताया अथवा तत्प्रथमतया प्रायश्चित्तं वहती किल भयेन वा क्लान्ता भवति ॥१॥] तथा भक्तपाने आभवं प्रत्याख्याते यया सा भक्तपानप्रत्याख्याता तां वा, इह गाथा-"अटुं वा हे वा समणीर्ण विरहिए कहितस्स । मुच्छाएँ विवडियाए कप्पड़ गहणं परिन्नाए ॥१॥" इति [अर्थ वा हेतुं वा विरहे श्रमणीभ्यः कथयतः। मूर्च्छया विपतितायाः परिज्ञायां (अनशने) ग्रहणं कल्पते ॥१॥] तथा अर्थः-कार्यमुलानाजनतः स्वकीयपरिणेत्रादेर्जातं यया साऽर्थजाता पतिचौरादिना संयमाचास्यमानेत्यर्थस्तां वा, इह गाथा-"अहोत्ति जी' कजं संजाय एस अट्ठजायाउ । तं पुण संजमभावा चालिजतं समवलंबं ॥१॥" ति [यस्या अर्थः कार्य संजातं एषा एवाऽर्थजाता। तां पुनः संयमभावाच्चाल्य-14 |मानां समवलंबयन्ति ॥१॥] पञ्चममिति ५॥ अनन्तरं येषु स्थानेषु वर्तमानो निर्ग्रन्थो धम्मै नातिकामति ताम्युतानि, अधुना तद्विशेष आचार्यों येष्वतिशयेषु वर्तमानस्तं नातिकामति तानाह आयरियउवज्झायस्स णं गर्णसि पंच अतिसेसा पं० २०-आयरियउवज्झाए अंतो उबस्सगस्स पाए निगिज्झिय २ पफोडेमाणे वा पमओमाणे वा णातिकमति १ आयरियउवज्झाए अंतो उबस्सगस्स उतारपासवर्ण विगिंघमाणे वा विसोधेमाणे वा णातिकमति २ आयरिय उवज्झाए पभू इच्छा वेयावडियं करेजा इच्छा गो करेजा ३, आयरियउवाझाए ~90~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 1 प्रत सूत्रांक [४३८] दीप अनुक्रम [४७६] श्रीस्थाना- अंतो उबस्सगस्स एगराय वा दुरातं वा एगागी वसमाणे णा. ४ आयरियउवज्झाए वाहि उवस्सगस्स एगरात वा दु- ५स्थाना० सूत्ररात वा बसमाणे णातिकमति ५ (सू०४३८) है| उद्देशः२ वृत्तिः 'आयरिए'त्यादि, आचार्यश्चासाबुपाध्यायश्चेत्याचार्योपाध्यायः, स हि केषाश्चिदर्थदायकत्वादाचार्योऽन्येषां सूत्रदाय आचार्याकत्वादुपाध्याय इति तस्य, आचार्योपाध्याययोर्वा, न शेषसाधूनां, 'गणे' साधुसमुदाये वर्तमानस्य वर्तमानयोर्वा गण तिशेषाः | विषये वा शेषसाधुसमुदायापेक्षयेत्यर्थः पश्चातिशेषा:-अतिशयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-आचार्योपाध्यायोऽन्तः-मध्ये 'उपा-14 सू०४३८ है श्रयस्य वसतेः पादौ निगृह्य २' पादधूलेरुद्धयमानाया निग्रहं वचनेन कारयित्वा यथाऽन्ये धूल्या न भ्रियन्ते तवेकात्यर्थः, प्रस्फोटयित्वा आभिग्रहिकेनान्येन वा साधुना स्वकीयरजोहरणेन ऊर्णिकपादप्रोग्छनेन वा प्रस्फोटनं कारयन् | झाटयन्नित्यर्थः, प्रमार्जयन्वा शनैलृपयन् नातिक्रामतीति, इह च भावार्थ इत्थमास्थितः-आचार्यः कुलादिकार्येण नि|र्गतः प्रत्यागत उत्सर्गेण तावदसतेर्बहिरेव पादौ प्रस्फोटयति, अथ तत्र सागारिको भवेत्तदा वसतेरन्तः प्रस्फोटयेत्। प्रस्फोटनं च प्रमार्जनविशेषस्तच्च चक्षुयापारलक्षणप्रत्युपेक्षणपूर्वकमितीह सप्त भक्ताः, तत्र न प्रत्युपेक्षते न प्रमार्टि चेकित्येकः, न प्रत्युपेक्षते प्रमाष्टींति द्वितीयः, प्रत्युपेक्षते न प्रमाष्टींति तृतीयः, प्रत्युपेक्षते प्रमार्टि चेति चतुर्थेः, यत्ततारयु-द पेक्ष्यते प्रमाद्यते च तदुष्प्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमार्जितं ४ दुष्प्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितं वा ४ सुप्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमार्जितं वा । सुप्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितं या ७ करोति, इह च सप्तमः शुद्धः शेषेवसमाचारीति, यदि तु सागारिकश्चलस्ततः सप्तता-181 लमात्र सप्तपदावक्रमणमात्र वा कालं बहिरेव स्थित्वा तस्मिन् गते पादौ प्रस्फोटयेत् , उक्तं च-"अइवाइगंमि चाहिं ANSAREENASAN आचार्य-उपाध्यायस्य अतिशया: ~91~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४३८ ] दीप अनुक्रम [४७६ ] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२] मूलं [४३८] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Education अच्छंति मुहत्सगं थेरति । [ अतिपातिकेऽस्थिरे बहिर्मुहर्त्तकं तिष्ठन्ति स्थविराः ॥] अल्पार्थके सप्ततालमानं (अतिपातितोsस्थिरः, ततो वसतौ प्रविशेत् कः केन चास्य पादौ प्रमार्जयतीत्युच्यते--"अभिग्गहियस्स असई तस्सेव रओहरेण अन्नयरो” । ( तस्यैवेत्याचार्यस्यैव > पाउंछणुन्निएण व पुंछइ उ अणन्नभुत्तेणं ॥ १ ॥” ति । [ अभिग्रहिकस्यासति तस्यैव रजोहरणेनान्यतरः । पादपोंछनेनौर्णिकेन वा पुंछति वनन्यभुक्तेन ॥ १ ॥ ] वसतेरन्तः प्रविष्टस्य चायं विधिःविपुलायां वसतावपरिभोगस्थाने सङ्कटायां चात्मसंस्तारकावकाशे उपविष्टस्य पादौ प्रमार्जनीयौ, अभ्यस्यापि गणावच्छेदकादेरयमेव विधिः केवलमन्यो बहिश्चिरतरं तिष्ठतीति, उक्तं च--"विपुलाए अपरिभोगे अत्तणओवासए व बेहस्स एमेव य भिक्खुस्सवि नवरं बाहिं चिरयरं तु ॥ १ ॥ " [ विपुलायामपरिभोगे आत्मनोऽवकाशे बोपविष्टस्य । एवमेव भिक्षोरपि नवरं वहिश्चिरतरमेव ॥ १ ॥ ] एतावानेव चायमतिशयो यदसौ न चिरं बहिरास्ते, अथ चिरं तिष्ठतः के दोषा इति ?, उच्यते " तण्डुण्डभावियस्सा ( सुकुमाराचार्यस्य > पडिच्छमाणस्स [ बहिस्तात् > मुच्छमाईया । खाइयणगि ठाणे [ प्रचुरद्रवपाने ग्लानत्वे सुत्तत्थविराहणा चेव ॥ १ ॥" इत्यादि, [तृषोष्णभावितस्य प्रतीच्छतः मूर्छादिकाः । प्रचुरचपाने ग्लानत्वं सूत्रार्थविराधना चैव ॥ १ ॥ ] शेषसाधवस्तु चिरमपि वहिस्तिष्ठन्ति न च दोषाः स्युः, जितश्रमस्वाद्, आह च - "दसविहवेयावचे सग्गाम बहिं च निञ्चवायामो। सीउण्हसहा भिक्खू ण य हाणी वायणाईया || १ ||” [ दशविधवैयावृत्ये स्वग्रामे बहिर्वा नित्यं व्यायामः । शीतोष्णसहा भिक्षवो न च हानिर्वाचनादिकाः ॥ १ ॥ ] इत्येकोइतिशयः, तथाऽन्तः-मध्ये उपाश्रयस्य उच्चारं पुरीषं प्रश्नवणं-मूत्रं विवेचयन्- सबै परिष्ठापयन् विशोधयन् पादादिल आचार्य उपाध्यायस्य अतिशया: For Personal Private Only ~92~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत बीखाना- सूत्रचित 354 सूत्रांक ॥३०॥ [४३८] दीप अनुक्रम [४७६] नस्य निरवयवत्वं कुर्वन् शौचभावेन वेति, अथवा सकृद्विवेचनं बहुशो विशोधन, उक्तंच-"सब्यस्स छडण विगिंधणा उd ५ स्थाना पुयपादहत्थलग्गस्स । फुसणधुवणा विसोहण सई च बहुसो य नाणतं ॥१॥" इति, [पुतपादहस्तलग्नस्थ सर्वस्य त्य-1 उद्देशः२ जनं विवेचनं स्पर्शने धावनं विशोधनं सकृद्धहुशश्चेति नानात्वं ॥१॥] नातिक्रामति, इह च भावार्थ एवं-आचार्यों आचार्या नोत्सर्गतो विचारभूमि गच्छति दोषसम्भवात् , तथाहि-श्रुतवानयमित्यादिगुणसः पूर्व वीथिषु वणिजो बहुमानादभ्यु-18 तिशेषाः स्थानादि कृतवन्तस्ततो विचारभूमी सकृद्विर्याचार्यस्य गमने आलस्यात्तन्न कुर्वन्ति पराशुखाश्च भवन्ति, एतचेतरे दृष्यासू०४३८ |शतन्ते यदुतायमिदानी पतितो वणिजानामभ्युत्थानाधकरणादित्ये मिच्यात्वगममादयो दोषाः, उक्तं च-"स्य तवस्सि परिवारवं च वणियंतरावणुहाणे। (अंतरापणो वीथी>, दुट्टाणनिष्णममि य (द्विनिर्गमे>हाणी य (विनयख> परंमुहाऽवतो ॥१॥" [श्रुतवांस्तपस्वी परिवारवांश्चेति वणिजोऽन्तरापणे उत्थाने (प्रायतिषत) द्विनिर्गमे च हानिर्विनयस्य 3 |पराधुखेऽवर्णः॥१॥][अवों नूनं द्वि(फ इति> "गुणवंत जतो पणिया पूइंतऽन्ने विसनया संमि । पडिओत्ति | अणुट्ठाणे (अनुत्थाने > दुषिहनियत्ती अभिमुहाणं ॥१॥" [यतो वणिजो गुणवतः पूजयन्ति अन्यानऽपि च संज्ञार्थं | यातः पतित इत्यनुत्थानेऽभिमुखानां निवृत्तिद्धिविधा ॥१॥](श्रावकत्वमनजितत्वाभ्यां निवृत्तिरिति > तथा मत्स| रिभ्यः सकाशान्मरणबन्धनापभ्राजनादयोऽन्येऽपि व्यवहारभाष्यादवगन्तव्या इति द्वितीयोऽतिशयः, तथा प्रभुःसमर्थः इच्छा-अभिलाषो वैयावृत्त्यकरणे यदि भवेत्तदा वैयावृत्य-भक्तपानगवेषणग्रहणतः साधुभ्यो दानलक्षणं कुर्यात्,8॥३३०॥ अधेच्छा-अभिलाषस्तदकरणे तन्न कुर्यादिति, भावार्थस्त्वयं-आचार्यस्य भिक्षाभ्रमणं न कल्पते, यतोऽवाचि-"उप्प-3 For Pro आचार्य-उपाध्यायस्य अतिशया: ~93~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३८] दीप अनुक्रम [४७६] मनाणा जह नो अडति, चोसीसबुद्धाइसया जिणिंदा । एवं गणी अट्टगुणोववेओ, सत्था व नो हिंडइ इडिमं तु [चतुस्त्रिंशदुद्धातिशया जिनेन्द्रा यथा न भिक्षामटन्ति एवमष्टगुणोपपेतो गण्यपि शास्ता इव ऋद्धिमानो हिंडते ॥१॥] दोषास्त्वमी-"भारेण वेदणा वा हिंडते उच्चनीयसासो वा । आइयणछडणाई (प्रचुरपानकादेरापानादौ छोदयो>IX गेलने पोरिसीभंगोशा" इति, भारेण वेदना हिंडमाने उच्चनीचश्वासोवा। आदानेपानकच्छादनाचा ग्लानखे पौरुषीभगश्च ॥१॥] एवमादयोऽनेके दोषा व्यवहारभाष्योक्ताः समवसेयाः, एते च सामान्यसाधोरपि प्रायः समानास्तथापि गच्छस्य तीर्थस्य वा महोपकारित्वेन रक्षणीयत्वेनाचार्यस्थायमतिशय उक्तः, उक्तं च "जेण कुलं आयत्तं तं पुरिसर आयरेण रक्खिज्जा । नहु तुंबंमि विणढे अरया साहारवा होति ॥१॥" ति [यस्यायत्तं कुलं तं पुरुषं आदरेण रक्षयेत् नेमो विनष्टायां साधारका अरका नैव भवन्ति ॥१॥] तृतीयः, तथा अन्तरुपाश्रय एका चासो रात्रिश्चेत्येकरात्रं तद्वा द्वयो राज्योः समाहारो द्विरानं तद्वा, विद्यादिसाधनार्थमेकाकी एकान्ते वसन्नातिकामति, तत्र तस्य वक्ष्यमाणदो-IN Rषासम्भवाद्, अन्यस्य तु तद्भावादिति चतुर्थः, एवं पञ्चमोऽपि, भावार्थश्चायमनयोः-अन्तरुपाश्रयस्य वक्षारके विष्वबाम्बसति बहिर्वोपाश्रयस्य शून्यगृहादिषु वसति यदि तदा असामाचारी, दोषाश्चैते-पुवेदोषयोगेन जनरहिते हस्तकर्मादि करणेन संयमे भेदो भवति, मर्यादा मया लडिन्तेति निर्वेदेन वैहायसादिमरणं च प्रतिपद्यत इति, इह गाथा-"तम्भावुवओगेणं रहिए कंमादि संजमे भेदो। मेरा व लंघिया मे वेहाणसमादि निव्वेया ॥१॥ जइविय निग्गयभावो तहावि रक्खिजइ स अन्नेहिं । वंसकडिल्लेवि छिन्नोऽवि वेणुओ पावए न महिं ॥२॥ वीसु बसओ दप्पा गणियायरिए आचार्य-उपाध्यायस्य अतिशया: ~94~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [२], मूलं [४३८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३८] दीप अनुक्रम [४७६] श्रीस्थाना-दय होइ एमेव । सुत्तं पुण कारणियं भिक्खुस्सवि कारणेऽणुन्ना ॥ ३ ॥ विजाणं परिवाडि पब्वे पव्वे करति आयरिया। ट्रस्थाना सूत्र- दिहतो महपाणे अन्तो बाहिं च वसहीए ॥४॥" इति, [जनरहिते तद्भावोपयोगेन कर्मादिना संयमभेदः । मया मर्यादा देशः२ वृत्तिः लंधितेति निर्वेदाद्वैहायसादि ॥१॥ यद्यपि च निर्गतभावस्तथापि सोऽन्यैः। रक्ष्यते वंशसमुदाये छिन्नोऽपि वेणुने प्रा- आचार्यस्य मोति महीं ॥ २॥ विष्वक् वसतो दात् गण्याचार्ययोर्भवत्येवमेव । सूत्रं पुनः कारणिक भिक्षोरपि कारणेऽनुज्ञा ॥३॥ गणनिर्गमः ॥३३१॥ |आचार्याः पर्वणि पर्वणि विद्यानां परिपाटी कुर्वन्ति । दृष्टान्तो महाप्राणेन अन्तर्बहिश्च वसत्याः॥४॥] आचार्यस्य । ऋद्धिमगणे अतिशया उक्ताः, अधुना तस्यैवातिशयविपर्ययभूतानि गणान्निर्गमनकारणान्याह न्तः पंचहिं ठाणेहिं आयरियतवज्झायस्स गणावकमणे पं० ०-आयरियउवज्झाए गणसि आणं वा धारणं वा नो सम्म सू०४३९पउँजित्ता भवति ५ आयरियडवज्झाए गणंसि अधारायणियाते कितिकम्मं वेणइयं णो सम्म पढजित्ता भवति २ आ ४४० यरियउवज्माते गणंसि जे सुयपज्जवजाते धारिति ते काले नो सम्ममणुपवादेत्ता भवति ३ आयरियउवमाए, गणंसि सगणिताते वा परगणियाते वा निम्गंधीते पहिलेसे भवति ४ मित्ते णातीगणे वा से गणातो अवकमेजा तेसिं संगहोवग्गहट्टयाते गणावकमणे पन्नते ५ (सू०४३९) पंचविहा इडीमंता मणुस्सा पं० २०-अरहता चकवट्टी बलदेवा वासुदेवा भावियप्पाणो अणगारा (सू०४४०) पंचमट्ठाणस्स विडओ उहेसो॥ 'पंचहीं'त्यादि सुगम, नवरं आचार्योपाध्यायस्य आचार्योपाध्याययोर्वा गणाद्-गच्छात् अपक्रमण-निर्गमो गणाप- ॥३३१॥ क्रमण आचार्योपाध्यायो 'गणे' गच्छविषये 'आज्ञावा' योगेषु प्रवर्तनलक्षणां धारणांवा-विधेयेषु निवर्तनलक्षणां, 'नों MERucaturintiational ~95 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४४०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४० दीप नैव सभ्यगू-यौचित्यं प्रयोक्ता-तयोः प्रवर्तनशीलो भवति, इदमुक्तं भवति-दुविनीतत्वाद् गणस्य ते प्रयोक्तुमशक्नुवन् गणादपकामति कालिकाचार्यवदित्येकं, तथा गणविषये यथारलाधिकतया-यथाज्येष्ठ कृतिकर्म तथा वैनयिक-विनयं 'नो' नैव सम्यक् प्रयोक्ता भवति, आचार्यसम्पदा साभिमानत्वात् , यतः आचार्येणापि प्रतिक्रमणक्षामणादिषूचितानामुचितविनयः कर्तव्य एवेति द्वितीयं, तथा असौ यानि श्रुतपर्यवजातानि-यान् श्रुतपर्यायप्रकारानुदेशकाध्ययनादीन् धारयति हृद्यविस्मरणतस्तानि काले २-यथावसरे नो सम्यगनुप्रवाचयिता-तेषां पाठयिता भवति, 'गणे'त्ति इह सम्बध्यते, तेन गणे-गणविषये गणमित्यर्थः, तस्याविनीतत्वात् तस्य वा सुखलम्पटत्वान्मन्दप्रज्ञत्वाद्वेति गणादपक्रामतीति तृतीयं, तथा असौ गणे वर्तमानः 'सगणियाए'त्ति स्वगणसम्बन्धियां 'परगणियाए'त्ति परगणसत्कायां निर्ग्रन्थ्यां तथाविधाशुभकर्मवशवर्तितया सकलकल्याणाश्रयसंयमसौधमध्यादू बहिर्लेश्या-अन्तःकरणं यस्यासी बहिलेश्यः, आसक्तो भवतीत्यर्थः, एवं गणादपक्रामतीति, न चेदमधिकगुणत्वेन अस्यासम्भाव्यं, यतः पठ्यते-'कम्माई नूणं घणचिकणाई गरुयाई बज्जसाराई । नाणहयपि पुरिसं पंथाओ उप्पहं निति ॥१॥"[गुरुकाणि वज्रसाराणि चिक्कणानि कर्माणि घनानि ज्ञानाढ्यमपि पुरुष नूनं पथ उत्पथं नयंति ॥१॥] इति चतुर्थं, तथा मित्रज्ञातिगणो वा -सुहृत्स्वजनवर्गों वा 'से' तस्याचार्यादेः कुतोऽपि कारणाद् गणादपकामेदतस्तेषां सुहत्स्वजनानां सहायर्थ गणादपकमणं प्रज्ञप्तं, तत्र सङ्घहस्तेषां स्वीकारः, उपग्रहो वस्त्रादिभिरुषष्टम्भ इति पञ्चमं । अनन्तरमाचार्यस्य गणापक्रमण-15 मुक्त, स च ऋद्धिमन्मनुष्यविशेष इत्यधिकारादू ऋद्धिमन्मनुष्यविशेषानाह-पंचविहे'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं ऋद्धिः अनुक्रम [४७८] CAMER स्था० ५६ आचार्यस्य गण-अपक्रमणस्य कारणा: ~96~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [२], मूलं [४४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४० दीप भीखाना- आमपाँषध्यादिका सम्पत्, तद्यथा-आमपौषधिविएडोषधिः खेलौषधि(जल्लौषधि)जलो-मलः सवौषधिः आसीविषत्वं स्थाना. ||-शापानुग्रहसामर्थ्यमित्यर्थः आकाशगामित्वमक्षीणमहानसिकत्वं वैक्रियकरणमाहारकत्वं तेजोनिसर्जनं पुलाकत्वं क्षी- उद्देशः२ वृत्तिः राश्रवत्वं मध्वाश्नवत्वं सर्पिराश्रवत्वं कोष्ठबुद्धिता बीजबुद्धिता पदानुसारिता सम्भिन्नश्रोतृत्वं-युगपत्सर्वशब्दश्राविते॥३३२॥ त्यर्थः पूर्वधरता अवधिज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं केवलज्ञानं अर्हत्ता गणधरता चक्रवर्तिता बलदेवता वासुदेवता चेत्येव-13 मणहेतवः मादिका, उक्तं च-"उदयखयखओवसमोवसमसमुत्था बहुप्पगाराओ। एवं परिणामवसा लद्धीओ होति जीवाणं ऋद्धिमन्तः ॥१॥" इति, [उदयक्षयक्षयोपशमोपशमसमुत्था बहुप्रकाराः परिणामवशाजीवानां लन्धय एवं भवन्ति ॥१॥] सू०४३९तदेवंरुपा प्रचुरा-प्रशस्ता अतिशायिनी वा ऋद्धिविद्यते येषां ते ऋद्धिमन्तः भाविता-सद्धासनया वासितः आत्मा ४४० यस्ते भावितात्मानोऽनगारा इति, एतेषां च ऋद्धिमत्त्वमामपौषध्यादिभिरहंदादीनां तु चतुर्णी यथासम्भवमामर्पोपध्या| दिनाऽहंवादिना चेति ॥ पञ्चमस्थानकस्य विवरणतो द्वितीयोद्देशकः समाप्त इति । उको द्वितीयोद्देशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तरोद्देशके जीवधर्माःप्रायः प्ररू-ल |पिताः, इह स्पजीवजीवधमों उच्यन्ते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् पंच अस्विकाया पं० २०-धम्मत्थिकाते अधम्मस्थिकाते आगासस्थिकाते जीवस्थिकाते पोपालस्थिकाए, धम्मस्टिकाए ॥३३२॥ अवन्ने अगंधे अरसे अफासे अरूवी अजीवे सासए अवट्ठिए लोगदम्वे,से समासओ पंचविधे पं० त०-दबओ खित्तो अनुक्रम [४७८] CHAR wwwwjanmalay अत्र पंचम स्थानस्य द्वितीयो उद्देशकः परिसमाप्त: अथ पंचम स्थानस्य तृतीयो उद्देशक: आरब्ध: ~97 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ४४१] दीप अनुक्रम [४७९] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४४१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] Education कालओ भावओ गुणओ, दव्बओ णं धम्मत्थिकाए एगं दव्वं खेत्ततो लोगपमाणमेचे कालओ ण कवाति णासी न कमाइ न भवति ण कयाइ ण भविस्सइत्ति भुविं भवति व भविस्सति व धुवे णितिते सासते अक्खए अब्बते अबट्टिते जिथे भावतो अपने अगंधे अरसे अफासे गुणतो गमणगुणे य १, अधम्मस्थिकाए अपने एवं चेव, णवरं गुणतो ठाणगुणो २, आगासत्यिका अवने एवं चैव वरं खेत्तओ लोगा लोगपमाणमित्ते गुणतो अवगाह्णागुणे, सेसं तं चैव ३, जीवत्थिकाए णं अवन्ने एवं चेव, णवरं दव्वओ णं जीवस्थिगते अनंताई दुब्वाई, जरूवि जीवे सासते, गुणतो उबओगगुणे सेसं तं चैव ४, पोग्गलत्थिगाते पंचबने पंचरसे दुग्गगंधे अगुफासे रुबी अजीवे सासते अवद्विते जाव दव्वओ णं पोगafत्यकार अनंता दुबाई खेतओ लोगपमाणमेत्ते कालतो ण कयाइ णासि जाव मिथे भावतो बन्नमंते गंधमंते रसमंते फासमंते, गुणतो गहणगुणे ( सू० ४४१) पंच गतीतो पं० [सं० निरयगती तिरियगती मणुवगती देवगती सि. द्विगती ( सू० ४४२ ) "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः 'पंच'त्यादि, अस्य चायमभिसम्बन्धः - अनन्तरसूत्रे जीवास्तिकायविशेषा ऋद्धिमन्त उक्ताः इह वसवेयानन्तप्रदेशलक्षणऋद्धिमन्तः समस्तास्तिकाया उच्यन्त इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या प्रथमाध्ययनवदनुसर्त्तव्या, नवरं धर्मास्तिकायादयः किमर्थमित्थमेवोपम्यस्यंत इति, उच्यते, धर्मास्तिकायादिपदस्य माङ्गलिकत्वात् प्रथमं धर्मास्तिकायोपन्यासः पुनर्द्धर्मास्तिकायप्रतिपक्षत्वादधर्मास्तिकायस्य पुनस्तदाधारत्वादाकाशास्तिकायस्य पुनस्तदाधेयत्वाज्जीवास्तिकायस्य पुनस्तदुपग्राहकत्वात् पुङ्गलास्तिकायस्येति, धर्मास्तिकायादीनां क्रमेण स्वरूपमाह - 'धम्मत्थिकाएं त्यादि वर्णगन्धरसस्पर्शप्रतिषेधाद् For Personal & Private Use Only ~98~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक ACCAS [४४२] दीप अनुक्रम [४८०] श्रीस्थाना- अरूवित्ति रूपं-मूर्तिवर्णादिमत्त्वं तदस्यास्तीति रूपी न रूपी अरूपी अमूर्त इत्यर्थः, तथा अजीवः-अचेतना, शाश्वतः५ स्थाना. सूत्र- प्रतिक्षणं सत्ताऽऽलिङ्गितत्वादवस्थितः अनेन रूपेण नित्यत्वादिति, लोकस्यांशभूतं द्रव्यं लोकद्रव्यं, यत उक्तम्-"पंदृत्तिः चस्थिकायमइयं लोगमणाइनिहणं । " इति, [पञ्चास्तिकायमयं लोकमनादिनिधनं ] अर्थतत्स्वरूपस्योक्तस्य प्रपञ्चनाया-16 धर्मास्तिनुक्तस्य चाभिधानायाह-समासतः सोपतः पञ्चविधो, विस्तरस्त्वन्यधापि स्यात्, कथमित्याह-'द्रव्यतो' द्रव्यता- कायाद्याः ॥३३३॥ मधिकृत्य क्षेत्रत क्षेत्रमाश्रित्य एवं कालतो भावतश्च 'गुणत:' कार्यतः कार्यमाश्रित्येत्यर्थः, तत्र द्रव्यतोऽसावेक द्रव्यं PI गतयः तथाविधैकपरिणामादेकसङ्ख्याया एवेह भावात् , क्षेत्रतो लोकस्य प्रमाणं लोकप्रमाणं-असङ्ख्येयाः प्रदेशास्तपरिमाणम-13|सू०४४१स्येति लोकप्रमाणमात्रः, कालतो न कदाचिन्नासीदित्यादि कालत्रयनिर्देशः, एतदेव सुखार्थ व्यतिरेकेणाह-अभूच्च भ- ४४२ वति च भविष्यति चेति, एवं त्रिकालभावित्वाद्रवो, मा भूदेकसर्गापेक्षयैव ध्रुवस्वमिति सर्वदैवंभावानियतो, मा भूदनेकसर्गापेक्षयव नियतत्वमिति प्रलयाभावात् शाश्वतः, एवं सदाभावेनाक्षयः, पर्यायापगमेऽप्यनन्तपोयतयाऽव्ययः, एवमुभयरूपतया अवस्थितः, अनेन प्रकारेणीघतो नित्य इति पूज्यव्याख्या, अथवा यत एवं कालिकोऽसावत एवं ध्रुवोऽवश्यंभावित्वादादित्योदयवत्, नियत एकरूपत्वात्, शाश्वतः प्रतिक्षणं सत्त्वादत एवाक्षयोऽवयविद्रव्यापेक्षया अवृक्षतो वा परिपूर्णत्वात् , अव्ययोऽवयवापेक्षया अवस्थितो निश्चलत्वात् , तात्पर्यमाह-नित्य इति, अथवा इन्द्रशकादिश ब्दवत्पर्यायशब्दा धुवादयो नानादेशजविनेयप्रतिपत्त्यर्थमुपन्यस्ता इति, तथा गुणतः गमनं-गतिस्तद् गुणो-गतिपरिणा- ॥३३३ ।। मपरिणतानां जीवपुद्गलानां सहकारिकारणभावतः कार्य मत्स्यानां जलस्येव यस्यासौ गमनगुणो गमने वा गुणः-उप SCAR RELIEREDTRintamashal ~99~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [३], मूलं [४४२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४२] दीप अनुक्रम [४८०] कारो जीवादीनां यस्मादसौ गमनगुण इति, 'एवं चेव'त्ति यथा धर्मास्तिकायोऽधीत एवमधर्मास्तिकायोऽपीति, नवरं केवलमेतावान् विशेषो यदुत-ठाणगुणे'त्ति स्थानं-स्थितिगुण:-कार्य यस्य स स्थानगुणः, स हि स्थितिपरिणताना जीवादीनामपेक्षाकारणतया स्थानं कार्य करोति स्थाने वा-स्थितौ गुणः-उपकारो यस्मात् स तथा, 'लोगालोगे'त्यादि लोकालोकयोस्तव्यक्त्योर्यत्रमाण-अनन्ताः प्रदेशास्तदेव परिमाणमस्येति लोकालोकप्रमाणमात्रः, अवगाहना-जीवादीनामाश्रयो गुणा-कार्य यस्य तस्यां वा गुणः-उपकारो यस्मात्सोऽवगाहनागुणः, 'अणंताई ब्वाई'ति' अनन्ता जीवास्तेषां च प्रत्येक द्रव्यत्वादिति, "अरूवी जीवेत्ति जीवास्तिकायोऽमूत्तेस्तथा चेतनावानिति, उपयोगः-साकारानाकारभेदं चैतन्यं गुणो-धर्मो यस्य स तथा, शेषं तदेव यदधम्मास्तिकायादीनामिति, लोकप्रमाणो जीवास्तिकायः पुद्गलास्तिकायश्च, तयोस्तत्रैव भावादिति, 'गहणगुणेत्ति ग्रह-औदारिकशरीरादितया ग्राह्यता इन्द्रियग्राह्यता वा वर्णादिमत्त्वात् परस्सरसम्बन्धलक्षणं वा तद्गुणो-धर्मो यस्य स तथा । अनन्तरमस्तिकाया उक्का इति तद्विशेषस्य जीवास्तिकायस्य सम्बन्धिवस्तून्याह अध्ययनपरिसमाप्तिं यावदिति महासम्बन्धः, तत्र 'पंचे'त्यादि गतिसूत्रं कण्ठ्यं, नवरं गमनं गति १ र्गम्यत इति वा गति:-क्षेत्रविशेषः २ गम्यते वा अनया कर्मापुद्गलसंहत्येति गतिः-नामकर्मोत्तरप्रकृतिरूपा ३ तत्कृता वा जीवावस्थेति ४, तत्र निरये-नरके गति ४ निरयश्चासौ गतिश्चेति वा २ निरयप्रापिका वा गतिः ३ निरयगतिः, एवं तिर्यक्षु ४ तिरश्चां २ तिर्यक्त्वप्रसाधिका वा गति ३ स्तिर्यग्गतिः, एवं मनुष्यदेवगती, सिद्धौ गतिः १ व्युत्पत्तिचतुष्कग्रहणसूत्रणाय चतुष्कः, आये रसप्रभावामाश्रित्य गमनं द्वितीये तत्क्षेत्रविषये तृतीये नरकावस्थाया हेतुः कर्म तुर्दे नरकभवः. DAREucature ~100~ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ४४२ ] दीप अनुक्रम [४८०] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४४२] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] श्रीस्थाना नसूत्र वृतिः ॥ ३३४ ॥ Educati ५ स्थाना० | सिद्धिश्वासौ गतिश्चेति वा सिद्धिगतिः, गतिरिह नामप्रकृतिर्नास्तीति । अनन्तरं सिद्धिगतिरुक्ता सा चेन्द्रियार्थान् क| पायादींश्चाश्रित्य मुण्डितत्वे सति भवतीतीन्द्रियार्थानिन्द्रियकपायादिमुण्डांश्चाभिधित्सुः सूत्रत्रयमाह उद्देशः ३ ४ मुण्डाः पञ्चवाद रवादर तेजोवाद राचित्त वायवः पंच इंदियाथा पं० तं० सोविंदियत्ये जाव फासिंदियत्ये १। पंच मुंडा पं० नं० - सोतिंदिवमुंडे जाव फासिंदियमुंडे २, अह्वा पंच मुंडा पं० तं०—कोहमुंडे माणमुंडे मायामुंडे लोभमुंडे सिरमुंडे ३ ( सू० ४४३) अहेलोगे णं पंच बायरा पं० तं० पुढविकाइया आउ० वाड० वणस्सइ ओराला तसा पाणा १, उडलोगे णं पंच बायरा पं० तं० एवं तं चैत्र २, तिरियलोगे णं पंच बायरा पं० तं०- एगिदिया जाय पंचिदिता ३ । पंचविधा वायरलेउकाइया पं० तं० - इंगाले जाला मुम्मुरे अनी अलाते १, पंचविधा बादरवाडकाइया पं० तं० – पाईणवाते पडीणवाते दाहिणवावे उदीणवाते चिदिवा २, पंचविधा अचित्ता वाडकाइया पं० सं० – अकते धंते पीलिए सरीराणुगते संमुच्छिमे ३ ( सू० ४४४ ) 'पंच'त्यादि सुगमं, नवरं इन्दनादिन्द्रो जीवः सर्वविपयोपलब्धिभोगलक्षणपरमैश्वर्ययोगात् तस्य लिङ्गं तेन दृष्टं ४ सू० ४४३सृष्टं जुष्टं दत्तमिति वा इन्द्रियं श्रोत्रादि, तच्चतुर्विधं नामादिभेदात्, तत्र नामस्थापने सुज्ञाने, निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियं लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियं तत्र निर्वृत्तिराकारः, सा च बाह्याऽभ्यन्तरा च तत्र बाह्या अनेकप्रकारा, अभ्यन्तरा पुनः क्रमेण श्रोत्रादीनां कदम्बपुष्प १ धान्यमसूरा २ तिमुक्तकपुष्पचन्द्रिका ३ र ४ नानाप्रकार ५ संस्थाना, ४ उपकरणेन्द्रियं विषयग्रहणे सामर्थ्य, छेद्यच्छेदने खङ्गस्येव धारा, यस्मिन्नुपहते निर्वृतिसद्भावेऽपि विषयं न गृह्णातीति, लधीन्द्रियं यस्तदावरणक्षयोपशमः, उपयोगेन्द्रियं यः स्वविषये व्यापार इति, इह च गाथाः-- "इंदो जीवो सब्बोवल ४४४ ॥ ३३४ ॥ इन्द्रिय शब्दस्य व्याख्या एवं तत् प्रकारा: For Personal & Private Use Only "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~101~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ४४४ ] दीप अनुक्रम [४८२ ] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४४४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Education द्विभोगपरमे सरक्षणओ । सोत्तादिभेदमिंदियमिह तलिंगादिभात्राओ ॥ १ ॥ तन्नामादि चउद्धा दत्रं निव्यत्तिओवकरणं च। आकारो निव्वती चित्ता बज्झा इमा अंतो ॥ २ ॥ पुप्फं कलबुयाए धन्नमसूराऽतिमुत्तचंदो य । होइ खुरुप्पो नाणागिई य सोइंदियाईणं ॥ ३ ॥ विसयग्गहणसमत्थं उवगरणं इंदियंतरं तंपि । जं नेह तदुवधाए गिort निव्वित्तिभावेवि ॥ ४ ॥ लडुवओगा भाविंदियं तु द्धित्ति जो खओवसमो । होइ तयावरणाणं तलाभे चैव सेसंपि ॥ ५ ॥ जो सविसयवावारो सो उवओगो स चेगकालम्मि । एगेण चैव तम्हा उवओगेगिंदिओ सच्चो ॥ ६ ॥ एगिंदियादिभेदा पडुच्च सेसिंदियाई जीवाणं । अहवा पहुच लद्धिंदियंपि पंचिंदिया सच्चे ॥ ७ ॥ जं किर बउलाई दीसइ सेसिंदिओवलंभोवि । तेणऽत्थि तदावरणक्खओवसमसंभवो तेसिं ॥ ८ ॥ इति [ सर्वोपलब्धिभोगपरमैश्वर्यत्वादिन्द्रो जीवः तहिंगादिभावादिंद्रियमिह श्रोत्रादिभेदम् ॥ १ ॥ तन्नामादिभेदेन चतुर्द्धा निर्वृत्तिरूपकरणं च द्रव्यं आकारो निर्वृत्तिः वाह्या चित्रा अंतरिमा ॥ २ ॥ कलंबुकायाः पुष्पं मसूरीधान्यं अतिमुक्तकपुष्पचन्द्रः भवति क्षुरप्रो नानाकृतिश्च श्रोत्रेन्द्रियादीनाम् ॥ ३ ॥ विषयग्रहणसमर्थमुपकरणमिन्द्रियान्तरं तदपि यन्नेह तदुपघाते निर्वृत्तिभावेऽपि गृह्णाति ॥ ४ ॥ लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियमेव यः तदावरणानां क्षयोपशमो भवति स लब्धिः तहाने एव शेषाण्यपि ॥ ५ ॥ यः सविषयव्यापारः स उपयोगः स चैककाले एकेनैव तस्मादुपयोगेन केंद्रियः सर्वः ॥ ६ ॥ एकेन्द्रियादयो भेदाः शेषाणीन्द्रि याणि प्रतीत्य जीवानां अथवा लब्धीन्द्रियं प्रतीत्य सर्वेऽपि पंचेन्द्रियाः ॥ ७ ॥ यस्किल बकुलादीनां शेषेन्द्रियोपलम्भोऽपि दृश्यते तेन तेषां तदावरणक्षयोपशमसम्भवोऽप्यस्ति ॥ ८ ॥ ] अर्थ्यन्ते-अभिलष्यन्ते क्रियार्थिभिरर्यन्ते वा-अ इन्द्रिय शब्दस्य व्याख्या एवं तत् प्रकारा: For Personal & Private Use Only ~102~ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक रवादर [४४४] दीप अनुक्रम [४८२] श्रीस्थाना-धिगम्यन्त इत्यर्था इन्द्रियाणामा इन्द्रियार्था:-तद्विपयाः शब्दादयः, श्रूयतेऽनेनेति श्रोत्रं, तच्च तदिन्द्रियं च श्रोत्रे- ५स्थाना० सूत्र- पून्द्रियं तस्यार्थी-ग्राह्यः श्रोत्रेन्द्रिया:-शब्दः, एवं क्रमेण रूपगन्धरसस्पर्शाश्चक्षुराद्यर्था इति । मुण्डनं मुण्ड:-अपनयनं, उद्देशः ३ वृत्तिः है स च द्वेधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतः शिरसः केशापनयनं, भावतस्तु चेतस इन्द्रियार्थगतप्रेमाप्रेम्णोः कषायाणांटा मुण्डाः वाऽपनयनमिति मुण्डलक्षणधर्मयोगात् पुरुषो मुण्ड उच्यते, तत्र श्रोत्रेन्द्रिये श्रोत्रेन्द्रियेण वा मुण्डा, पादेन खज इ-121 पञ्चबाद॥३३५॥ त्यादिवत् श्रोत्रेन्द्रियमुण्डः शब्दे रागादिखण्डनाच्छोडेन्द्रियार्थमुण्ड इति भाव इत्येवं सर्वत्र, तथा क्रोधे मुण्डः क्रोध-8 मुण्डस्तच्छेदनादेवमन्यत्रापि, तथा शिरसि शिरसा वा मुण्डः शिरोमुण्ड इति । इदं च मुण्डितत्वं बादरजीवविशेषाणां तेजोवादभवतीति लोकत्रयापेक्षया बादरजीवकायान् प्ररूपयन् सूत्रत्रयमाह-'अहे त्यादि सुगम, नवरमधऊर्द्धलोकयोस्तैजसा राचित्तबादरा न सन्तीति पंच ते उक्ताः, अन्यथा पट् स्युरिति, अधोलोकग्रामेषु ये बादरास्तैजसास्ते अल्पतया न विवक्षिता, वायवः ये चोकपाटद्वये ते उत्सत्तुकामत्वेनोत्पत्तिस्थानास्थितत्वादिति, 'ओरालतसत्ति घसरवं तेजोवायुष्वपि प्रसिद्धं अत- सू०४४३स्तद्व्यवच्छेदेन द्वीन्द्रियादिप्रतिपत्त्यर्थमोरालग्रहणं, ओराला:-स्थूला एकेन्द्रियापेक्षयेति, एकमिन्द्रियं-करणं स्पर्शन- ४४४ हलक्षणमेकेन्द्रियजातिनामकर्मोदयात्तदावरणक्षयोपशमाच्च येषां ते एकेन्द्रियाः-पृथिव्यादयः, एवंद्वीन्द्रियादयोऽपि, नवरमिन्द्रियविशेषो जातिविशेषश्च वाच्य इति । एकेन्द्रिया इत्युक्तमिति तान पश्चस्थानकानुपातिनो विशेषतः सूत्रत्र १ यद्यपि गिद्धेदैलदाण्ये 'ति २-२-४६ श्रीसिद्धहेमचन्दानुगतयान न बिरोधस्तथापि पाणिनीयानुसारिणां स्याविरोधाभासः पर तत्रापि मप्रवृत्त्या अरमनाहा विकृतता यम्या. CAMERACHCECE0%ACE wwwjangala इन्द्रिय शब्दस्य व्याख्या एवं तत् प्रकारा: ~103~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [३], मूलं [४४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४४] दीप अनुक्रम [४८२] कलक येणाह-पंचविहे'त्यादि, अङ्गारः प्रतीतः घाला-अग्निशिखा छिन्नमूला सैवाच्छिन्नमूलाश्चिः मुर्मुरो-भस्ममिश्रा&ानिकणरूपः अलात-उस्मुकमिति । प्राचीनवातः पूर्ववातः प्रतीचीना-पश्चिमः दक्षिणः प्रतीतः उदीचीन:--उत्तरः तद-15 न्यस्तु विदिग्वात इति । आक्रान्ते पादादिना भूतलादौ यो भवति स आकान्तो यस्तु ध्माते इत्यादौ स ध्मातः जला४ा वस्त्रे निष्पीब्धमाने पीडितः उद्गारोच्छासादिः शरीरानुगतः व्यजनादिजन्यः सम्मूर्णिमा, एते च पूर्वमचेतनास्ततः। सचेतना अपि भवन्तीति । पूर्व पञ्चेन्द्रिया उक्ता इति पञ्चेन्द्रियविशेषानाह, अथवा अनन्तरं सचेतनाचेतना वायव उक्ताः, तांश्च रक्षन्ति निर्गन्धा एवेति तानाह पंच निर्माथा पं०२०-पुलाते बउसे कुसीले णिग्गंथे सिणाते १, पुलाए पंचविहे पं० २०-णाणपुलाते सणपुलाते चरित्तपुलाते लिंगपुलाते अहामुहुमपुलाते नामं पंचमे २, बउसे पंचविधे पं० सं०-भाभोगवारले अणाभोगवसे संधुढबउसे असंवुडबउसे अदाबहुमबउसे नामं पंचमे ३, कुसीले पंचविधे पं० २०-णाणकुसीले सणकुसीले चरित्तकुसीले लिंगकुसीले अहासुहुमकुसीले नामं पंचमे ४, नियंठे पंचविहे पं० २०-पढमसमयनियंठे अपढमसमयनियंठे चरिमसमयनियंठे अपरिमसमयनियंठे अहासुहुमनियंठे ५, सिणाते पंचविधे पं० २०-अच्छवी १ असरले २ अकम्मसे ३ संसुद्ध णाणदसणधरे अरहा जिणे केवली ४ अपरिस्सावी ५,६ (सू०४४५). 'पंच नियंठे'त्यादि, सूत्रषटुं सुगम, नवरं ग्रन्थादाभ्यन्तरान्मिथ्यात्वादेर्बाह्याच धर्मोपकरणवर्जाद्धनादेनिर्गता निम्रन्थाः, टूपुलाका-तंदुलकणशून्या पलंजि तद्वद् यः तपःश्रुतहेतुकायाः सङ्घादिप्रयोजने चक्रवर्त्यादेरपि चूर्णनसमर्थायाः लब्धे- निर्ग्रन्थ शब्दस्य व्याख्या एवं भेद-प्रभेदा: ~104~ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [३], मूलं [४४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: वृत्तिः प्रत सूत्रांक [४४५] दीप अनुक्रम [४८३] श्रीस्थाना- रुपजीवनेन ज्ञानाद्यतिचारासेवनेन वा संयमसाररहितः स पुलाका, अत्रोक्तम्-"जिनप्रणीतादागमात् सदैवाप्रतिपा- ५स्थाना० असूत्र- तिनो ज्ञानानुसारेण क्रियानुष्ठायिनो लब्धिमुपजीवन्तो निर्ग्रन्धपुलाका भवन्ती"ति, बकुशः शवलः कर्बुर इत्यर्थः, श- उद्देशः ३ रीरोपकरणविभूषानुवर्तितया शुद्ध्यशुद्धिव्यतिकीर्णचरण इति, अयमपि द्विविधः, यदाह-"मोहनीयक्षयं प्रति प्रस्थिताः पञ्च नि. शरीरोपकरणविभूषानुवर्तिन:-तत्र शरीरे अनागुप्तव्यतिकरण करचरणवदनप्रक्षालनमक्षिकर्णनासिकाद्यवयवेभ्यो विदू- ग्रेन्थाः &ापिकामलाथपनयनं दन्तपावनलक्षणं केशसंस्कारं च देहविभूषार्थमाचरन्तः शरीरबकुशार, उपकरणबकुशास्तु अकाल एव प्रक्षालितचोलपट्टकान्तरकल्पादिचोक्षवासःप्रियाः पात्रदण्डकाद्यपि तैलमात्रयोज़वलीकृत्य विभूषार्थमनुवर्तमाना विधति, उभयेऽपि च ऋद्धियशस्कामाः-तत्र ऋद्धिं प्रभूतवस्त्रपात्रादिकां ख्यातिं च गुणवन्तो विशिष्टाः साधव इत्या-13 दिप्रवादरूपां कामयन्ते, सातगौरवमाश्रिताः नातीवाहोरात्राभ्यन्तरानुष्ठेयासु क्रियास्वभ्युद्यताः, अविविक्तपरिवारा:नासंयमात् पृथग्भूतः पृष्टजङ्घः तैलादिकृतशरीरमृजः कर्तरिकाकल्पितकेशश्च परिवारो येषामिति भावः, बहुच्छेदशबलयुक्ताः सर्वदेशच्छेदाहोतिचारजनितशबलत्वेन युक्ता निर्ग्रन्थबकुशा इति" तथा कुत्सितं उत्तरगुणप्रतिषेवया सावलनकषायोदयेन वा दूषितत्वात् शीलं-अष्टादशशीलाङ्गसहस्रभेदं यस्य स कुशील इति, एषोऽपि द्विविध एव, अत्राप्युक्तम्"द्विविधाः कुशीला:-प्रतिसेवनकुशीलाः कषायकुशीलाच, तब ये नैर्ग्रन्थ्य प्रति प्रस्थिताः अनियतेन्द्रियाः कथभित्किशिदेवोत्तरगुणेषु-पिण्डविशुद्धिसमितिभावनातपःप्रतिमाभिग्रहादिषु विराधयन्तः सर्वज्ञाज्ञोलहानमाचरन्ति ते प्रतिसेवना-1 ॥३३६॥ कुशीलाः, येषां तु संयतानामपि सतां कथञ्चित्सअवलनकषाया उदीयन्ते ते कषायकुशीला," निर्गतो अन्धान्मोहनीया wwwwjangalran निर्ग्रन्थ शब्दस्य व्याख्या एवं भेद-प्रभेदा: ~105~ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४५] दीप अनुक्रम [४८३] ख्यात निर्ग्रन्धः क्षीणकषाय उपशान्तमोहो वा, क्षालितसकलपातिकर्ममलपटलत्वात् स्नात इव स्नातः स एव स्नातका, सयोगोऽयोगो वा केवलीति । अधुनैत एव भेदत उच्यन्ते, तत्र पुलाक इत्यासेवापुलाकः पञ्चविधो, लब्धिपुलाकस्यैकविधत्वात् , तत्र स्खलितमिलितादिभिरतिचारैज्ञानमाश्रित्यात्मानं असारं कुर्वन् ज्ञानपुलाका, एवं कुदृष्टिसंस्तवादिभिर्दर्शनपुलाका, मूलोत्तरगुणप्रतिसेवनातश्चरणपुलाकः, यथोक्तलिङ्गाधिकग्रहणात् निष्कारणेऽन्यलिङ्गकरणाद्वा लिङ्गपुलाका, किश्चित्रमादान्मनसाऽकल्प्यग्रहणाद्वा यथासूक्ष्मपुलाको नाम पत्रम इति । बकुशो द्विविधोऽपि पञ्चविधा, तत्र शरीरोपकरणभूषयोः सञ्चिन्त्यकारी आभोगबकुशः, सहसाकारी अनाभोगवकुशः, प्रच्छन्नकारी संवृतबकुशः, प्रकटकारी असंवृतबकुशः, मूलोत्तरगुणाश्रितं वा संवृतासंवृतत्वं, किश्चित्तमादी अक्षिमलाद्यपनयन् वा यथासूक्ष्मयकुशी नाम पञ्चम इति, कुशीलो द्विविधोऽपि पञ्चविधः, तत्र ज्ञानदर्शनचारित्रलिङ्गान्युपजीवन् प्रतिषेवणतो ज्ञानादिकुशीलो, लिङ्गस्थाने क्वचित्तपो दृश्यते, तथा अयं तपश्चरतीत्येवमनुमोद्यमानो हर्ष गच्छन् यथासूक्ष्मकुशीलः प्रतिषेवणयैवेति, कषायकुशीलोऽप्येवं नवरं क्रोधादिना विद्यादिज्ञानं प्रयुञ्जानो ज्ञानकुशीला, दर्शनग्रन्थं प्रयुञ्जानो दर्शनतः शापं ददत चारित्रतः कषायैलिशान्तरं कुर्वन् लिङ्गतः मनसा कपायान् कुर्वन् यथासूक्ष्मः । चूर्णिकाकारव्याख्या खेवम्-'सम्यगाराधनविपरीता प्रतिगता वा सेवना प्रतिसेवना, सा पञ्चसु ज्ञानादिषु येषां ते प्रतिसेवनाकुशीला, कषायकुशीलास्तु | पञ्चसु ज्ञानादिषु येषां कषायैर्विराधना क्रियत इति । अन्तर्मुहूर्तप्रमाणाया निर्ग्रन्थाद्धायाः प्रथमे समये वर्तमान एकः ४ शेषेषु द्वितीयः अन्तिमे तृतीयः शेषेषु चतुर्थः सर्वेषु पञ्चम इति विवक्षया भेद एषामिति । छवि:-शरीरं तदभावात्का-15 k AMEducatuRSH निर्ग्रन्थ शब्दस्य व्याख्या एवं भेद-प्रभेदा: ~106~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [३], मूलं [४४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत वृत्तिः सूत्रांक - CA [४४५] दीप अनुक्रम [४८३] श्रीस्थाना-टाययोगनिरोधे सति अच्छविर्भवति अव्यथको वा १ निरतिचारत्वादशवल: २क्षपितकर्मत्यादकांश इति तृतीयः ३. ५ स्थाना इसूत्र ज्ञानान्तरेणासम्पृक्तत्वात् संशुद्धज्ञानदर्शनधरः पूजाईत्वादईन् नास्य रहो-रहस्यमस्तीत्यरहा वा जितकषायत्वाजिनः, उदेशः३ केवलं-परिपूर्ण ज्ञानादित्रयमस्यास्तीति केवलीति चतुर्थः ४, निष्क्रियत्वात्सकलयोगनिरोधे अपरिधावीति पञ्चमः, ५, क- पञ्च नि चित्पुनरहन जिन इति पञ्चमः । अत्र भाष्यगाथा:-"होइ पुलाओ दुविहो लद्धिपुलाओ तहेव इयरो य । लद्धिपुलाओग्रंन्धाः ॥३३७॥ संघाइकज्जे इयरो य पंचविहो ॥१॥ नाणे दंसण चरणे लिंगे अहसुहमए य नायब्बो। नाणे दंसणचरणे तेर्सि तु विराहणसू०४४५ असारो ॥२॥ लिंगपुलाओ अन्नं निकारणओ करेइ सो लिंगं । मणसा अकप्पियाणं निसेवओ होइहासुहुमो ॥३॥ सारे उपकरणे बाउसियत्तं दुहा समक्खायं । सुफिलवस्थाणि धरे देसे सम्बे सरीरंमि ॥४॥ आभोगमणाभोगे संवुडमस्संवुडे अहासुहुमे । सो दुविहो वा बउसो पंचविहो होइ नायब्यो ॥५॥ आभोगे जाणतो करेइ दोस तहा अपाभोगे । मूलत्तरेहि संवुड विवरीय असंवुडो होइ॥६॥अच्छिमुहं मन्जमाणो होइ अहासुहमओ तहा बउसो । पडिसेवणा कसाए होइ कुसीलो दुहा एसो॥७॥ नाणे दंसणचरणे तवे य अहमुहमए य बोद्धब्बे । पडिसेवणाकुसीलो पंचविहो ऊ मुणेजब्बो ॥८॥नाणादी उवजीवइ अहसुहमो अह इमो मुणेयब्यो । साइजतो राग वनइ एसो तवञ्चरणी ॥९॥[एष तपश्चरणीत्येवमनुमोद्यमानो हर्ष व्रजतीत्यर्थः> “एमेव कसायंमिवि पंचविहो चेव होइ कुसीलो उ।। कोहेणं बिजाई पउंजएमेव माणाई ॥१०॥" [एवमेव मानादिभिरित्यर्थः> "एमेव देसणतवे सावं पुण देइ उ चरितमि । ।३३७॥ |मणसा कोहाईणं करेइ अह सो अहासुहमो ॥११॥ पढमा १ पढमे २ चरम ३ अचरिमे ४ अहसुहुमे ५ होइ नि ॐॐ4% JERBERIESEarninaimalcial निर्ग्रन्थ शब्दस्य व्याख्या एवं भेद-प्रभेदा: ~107~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [३], मूलं [४४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४५] दीप अनुक्रम [४८३] ४ गथे। अच्छवि १ अस्सपले या २ अकम्म ३ संसुद्ध ४ अरहजिणा ५॥१२॥" इति, [भवति पुलाको द्विविधो लब्धिपुलाकस्तथैवेतरश्च । लन्धिपुलाकः संघादिकार्ये इतरश्च पंचविधः ॥ १॥ ज्ञाने दर्शने चारित्रे लिंगे यथासूक्ष्मश्च ज्ञा व्यः । ज्ञाने दर्शने चरणे तेषां विराधनयवासारः ॥२॥ निष्कारणतो लिंगपुलाकोऽन्यद लिंग स करोति । मनसा अ-1 कल्पितानां निसेवको भवति यथासूक्ष्मः ॥३॥ शरीरे उपकरणे च बाकुशिकत्वं द्विधा समाख्यातं शुक्लवस्त्राणि धा-3 रयन् देशे सर्वस्मिन् शरीरे ॥४॥ आभोगोऽनाभोगः संवृतोऽसंवृतो यथासूक्ष्मः । स द्विविधो वा बकुशः पंचविधो भवति ज्ञातव्यः ॥ ५॥ आभोगो जानन् दोषं करोति तथाऽनाभोगः । मूलोत्तरगुणेषु संवृतः विपरीतोऽसंवृतो भवति ||SME अक्षिमुर्ख मार्जयन् भवति यथासूक्ष्मस्तथा बकुशः । प्रतिसेवनाकपाययोर्भवति द्विधैषः कुशीलः ॥७॥ ज्ञाने दर्शने चरणे तपसि च यथासूक्ष्मश्च बोद्धव्यः। प्रतिसेवनाकुशील: पंचविधस्तु ज्ञातव्यः॥८॥ज्ञानाद्युपजीवति अथैष यथासूक्ष्मो ज्ञातव्यो यो यं तपश्चारीति स्वादयन् रागं व्रजति ॥९॥ एवमेव कषायेऽपि पञ्चविधो भवति कुशीलस्तु । क्रोधेन विद्यादि प्रयुक्त एवमेव मानादिभिः॥१०॥ एवमेव दर्शनतपसोः चारित्रे पुनः शापं ददाति । अथ मनसा क्रोधादीन् करोति स यथासूक्ष्मः॥११॥ प्रथमोऽप्रथमः चरमोऽचरमो यथासूक्ष्मो भवति निर्गन्धः अच्छविः अशबल: अकर्मा संशुद्धः अर्हञ्जिनः ॥ १२॥] निम्रन्थानामेवोपधिविशेषप्रतिपादनाय सूत्रद्वयमाह कप्पइ णिगंधाण वा जिग्गंथीण चा पंच वत्थाई धारित्तए वा परिहरेत्तते वा, जहा–अंगिते भंगिते साणते पोचिते 4 5-45-45-4545% 26-0-39-46 ASSESSOASCORXAN स्वा०५७X SAMEducational निर्ग्रन्थ शब्दस्य व्याख्या एवं भेद-प्रभेदा: ~108~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४४६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानाअन्सूत्र प्रत *-4 मउद्देशः३ सूत्रांक ॥३३८॥ %-4-95 % [४४६] दीप अनुक्रम [४८४] तिरीडपट्टते णाम पंचमए । कप्पद निगंथाण वा निगंथीग या पंच रयहरणाई पारित्तए ना परिहरित्तते वा जहा उण्णिए उहिते साणते पचापिच्चियते मुंजापिचिते नाम पंचमए (सू०४४६) 'कप्पंती'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं कल्पन्ते-युज्यन्ते धारयितुं परिग्रहे परिहत्तुं-आसेवितुमिति, अथवा 'धारणया उव- वस्त्ररजोभोगो परिहरणा होइ परिभोगोत्ति, 'जंगिए'त्ति जङ्गमाः-त्रसास्तदवयवनिष्पन्न जाङ्गमिक-कम्बलादि, "भंगिए' त्तिहरणपभंगा-अतसी तन्मयं भाङ्गिक, 'साणए'त्ति सनसूत्रमय सानकं, 'पोतिएत्ति पोतमेव पोतक-कार्पासिकं, 'तिरीड-| वहे'त्ति वृक्षवडायमिति, इह गाथा: “जंगमजाय जंगिय तं पुण विगलिंदियं च पंचिंदि। एकेकंपि य इत्तो होइ वि- सू०४४६ भागेण णेगविहं ॥ १॥ पट्टसुवन्ने मलए अंसुयचीणंसुए य विगलिंदी । उन्नोट्टियमियलोमे कुतवे किट्टी य पंचिंदी ॥२॥ [जंगमाज्जातं जाङ्गमिक तत्पुनर्विकलेन्द्रियर्ज पंचेन्द्रियजं च । इत एकैकमपि विभागेनानेकविधं भवति ॥१॥ पट्टः सुवर्ण मलयं अंशुकं चीनांशुकं च विकलेन्द्रियजः औणिकौष्टिके मृगलोमर्ज कुतुपर्ज पंचेंद्रियं च ॥१॥] (पट्टः प्रमातीतः सुवर्ण-सुवर्णवर्णसूत्रं कृमिकाणां मलयं-मलयविषय एवं अंशुक-लक्ष्णपट्टः चीनांशुक कोशीरः चीनविषये बा| यद्भवति श्लक्ष्णासट्टादिति मृगरोम-शशलोमजं मूषकरोमजं वा कुतपः-छागलं किट्टिजमेतेषामेवावयवनिष्पन्न-18 मिति >, “अयसी वसीमाइय भंगियं साणयं तु सणवको । पोतं कप्पासमय तिरीडरुक्खा तिरिडपट्टो ॥१॥[अतसीवंश्यादिजं भांगिक सणवल्कलं तु साणक कर्पासमयं पोतं तिरीडवृक्षात्तिरीडपट्टः ॥१॥] इह पश्चविधे वस्त्रे प्ररू- २३८ पितेऽप्युत्सर्गतः काप्पोसिकौणिके एवं ग्राह्ये, यतोऽवाचि-"कपासिया उ दोन्नी उनिय एको य परिभोगो।" इति, % % % ForPPO ~109~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४४६] दीप अनुक्रम [४८४] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [ ४४६ ] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Education "कप्पासियरस असई वागयपट्टो य कोसियारो य । असई य उन्नियस्सा वागय कोसेज्जपट्टो य ॥ १ ॥” इति [ कार्पासिकस्थासति बल्बजपदृश्च कोशिकारश्च । असति चौर्णिकस्य बल्यजः कौशेयपट्टश्च ॥ १ ॥ ] तदध्यमहामूल्यमेव ग्राह्यं, महामूल्यता च पाटलीपुत्रीय रूपकाष्टादशकादारभ्य रूपकलक्षं यावदिति । रजो हियते अपनीयते येन तद्रजोहरणं, उक्तं च - "हरद्द रथं जीवाणं वज्झं अभ्यंतरं च जं तेणं । रयहरणंति पबुचर कारणकज्जोवयाराओ ॥ १ ॥” इति, [ हियते रजो जीवानां बाह्यमभ्यन्तरं च यत्तेन रजोहरणमित्युच्यते कारणे कार्योपचारात् ॥ १ ॥ ] तत्र 'उन्नियंति अविलोममयं 'उद्दियं'ति उष्ट्रलोममयं 'सानकं' सनसूत्रमयं 'पञ्चापिचियए' त्ति बल्वजः - तृणविशेषः तस्य 'पिच्चि - यंति कुट्टितत्व तम्मयं 'मुखः' शरपर्णीति, इह गाथा: " पाउंछणयं दुविहं ओसग्गियमाघवाइयं चैव । एक्केकंपिय दुविहं निव्वाघायं च वाघायें ॥ १ ॥” ( व्याघातवत्त्वितरदिति, औत्सर्गिकं रजोहरणं पट्टनिषद्याद्वययुक्तमापवादिकमनावृतदंडं, निर्व्याघातिकमौर्णिकदर्शिकं व्याघातिकं त्वितरदिति-"जं तं निव्वाघायं तं एवं उन्नियंति नायव्यं । ( औत्सर्गिकच > उस्सग्गिय वाघायें उट्टियसणपञ्चमुंजं च ॥ २ ॥ निव्याधायववाइ दारुगदंडुण्णियाहिं दसियाहिं । अववा इय वाघायें उट्टीसणवच मुंजमयं ॥ ३ ॥ " ति [ पादप्रोञ्छनकं द्विविधमौत्सर्गिकमापवादिकं चैव एकैकमपि च द्विविधं निर्व्याघातं च व्याघातं ॥ १ ॥ यत्तन्निर्व्याघातं तदेकं और्णिकमिति ज्ञातव्यं । औत्सर्गिकव्याघातिकमौष्ट्रिकं शणं बल्वजं मुंजं च ॥ २ ॥ निर्व्याघातमपवादिकं दारुदण्डान्विताभिर्दशाभिः आपवादिकव्याघातं औष्ट्रिकल्यमुंजमयं ॥ ३ ॥ ] श्रमणानां यथा वस्त्ररजोहरणे धर्मोपग्राहके तथा पराण्यपि कायादीनि तान्येवाह For Personal & Private Use Only ~ 110~ tary or Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [३], मूलं [४४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थानानसूत्रवृत्तिः प्रत ॥३३९॥ . सूत्रांक [४४७] दीप अनुक्रम [४८५] धम्म परमाणस्स पंच णिस्साठाणा पं० तं०-काए गणे राया गिहवती सरीरं (सू०४४७) पंच णिही पं० सं० ला५स्थाना० -पुत्तनिही मित्तनिही सिप्पनिही धणणिही धमणिही (सू०४४८) सोए पंचविहे पं०२०-पुढविसोते आउसोते उद्देशः३ तेउसोते मंतसोते बंभसोते (सू० ४४९) | निश्रास्था'धम्म'मित्यादि, धर्म-श्रुतचारित्ररूपं, णमित्यलङ्कारे चरतः-सेवमानस्य पंच निश्रास्थानानि-आलम्बनस्थानानि है। नानि पुउपग्रहहेतव इत्यर्थः, पटाया:-पृथिव्यादयः, तेषां च संयमोपकारिताऽऽगमप्रसिद्धा, तथाहि-पृथिवीकायमाश्रित्योक्तम् त्रादिनि -"ठाणनिसीयतुयट्टण उच्चाराईण गहण निक्खेवे । घट्टगडगलगलेवो एमाइ पओयणं बहुहा ॥१॥" अकायमा- धयः शौच दाश्रित्य-परिसेयपियणहत्याइधोयणे चीरधोयणे व । आयमणभाणधुवणे एमाइ पओयणं बहहा ॥२॥[स्थानं निषी- सू०४४७. दनं त्वग्वर्तनं उच्चारादीनां ग्रहणे निक्षेपे पट्टके उगले लेपो बहुधैवमादिप्रयोजनं पृथ्व्याः ॥१॥ परिषेकः पानं हस्ता-II ४४८. दिधावनं चीरधावनं चैव आचमनं भांडधावनं बहुधैवमादिप्रयोजनमद्भिः॥२॥] तेजाकार्य प्रति-ओयण वंजणपा-18 ४४९ णग आयामुसिणोदगं च कुम्मासो । डगलगसरक्खसूइय पिप्पलमाई य उवओगो ॥३॥ वायुकायमधिकृत्य-दइएण बत्थिणा वा पओयणं होज वाउणा मुणिणो । गेलन्नम्मिवि होजा सचित्तमीसे परिहरेजा ॥४॥[ओदनं व्यंजनं पानकं आचाम उष्णोदकं च कुल्माषादिः डगलकाः भस्म सूचिश्च पिपलकमादि उपयोगः ॥३॥रतिकेन भस्त्रया प्रयोजनं भवेद्वायुना मुनेः ग्लानत्वेऽपि भवेत् सचित्तमिश्री परिहरेत् ॥४॥] वनस्पति प्रति-संथारपायदंडगखोमियकप्पा य| ॥३९॥ पीठफलगाइ । ओसहभेसज्जाणि य एमाइ पओयणं तरुसु ॥५॥ त्रसकाये पश्चेन्द्रियतिरश्च आश्रित्योक्तं-चम्महि दंत MERucatunital ~111~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४९] दीप अनुक्रम [४८७] नहरोमसिंगअमिलाइछगणगोमुत्ते । खीरदहिमाइयाणं पंचेंदियतिरियपरिभोगे ॥ ६ ॥ [संस्तारकपात्रदण्डकक्षी-IN मिककार्पासपीठफलकादिऔषधभैषज्यानि चैवमादि तरुषु प्रयोजनं ॥ ५॥ चास्थिदन्तनखरोमशृंगाम्लान(अव्यादि) गोमयगोमूत्रैः क्षीरदध्यादिकः पंचेन्द्रियतिर्यक्परिभोगः ॥६॥] एवं विकलेन्द्रियमनुष्यदेवानामप्युपग्रहकारिता वाच्या, तथा गणो-गच्छ: तस्य चोपग्राहिता-'एकरस कओ धम्मों' इत्यादिगाथापूगादवसेया, तथा "गुरुपरिवारो गच्छो ताण निजरा विउला । विणयाउ तहा सारणमाईहिं न दोसपडिवत्ती ॥१॥ अशोशावेक्खाए जोगमि तहिं । तहिं पयतो । नियमेण गच्छवासी असंगपयसाहगो नेओ ॥२॥" इति, [गुरुपरिवारो गच्छस्तत्र वसतां विपुला निजरा विनयात्तथा सारणादिभिने दोषप्रतिपत्तिः॥१॥ अन्योऽन्यापेक्षया योगे तत्र तत्र प्रवर्त्तमानः गच्छवासी नियमे-* नासंगपदसाधको ज्ञेयः॥२॥] तथा राजा-नरपतिस्तस्य धर्मसहायकत्वं दुष्टेभ्यः साधुरक्षणाद्, उक्तं च लोकिकैः "क्षुद्रलोकाकुले लोके, धर्म कुर्युः कथं हि ते । क्षान्ता दान्ता अहंतारश्चेद्राजा तान्न रक्षति ॥१॥ तथा 'अराजके सहि लोकेऽस्मिन, सर्वतो विद्रुते भयात् । रक्षार्थमस्य सर्वस्य, राजानमसृजत् प्रभुः॥२॥” इति, तथा गृहपतिः-श व्यादाता, सोऽपि निश्रास्थानं, स्थानदानेन संयमोपकारित्वात्, तदुक्तम्-"धृतिस्तेन दत्ता मतिस्तेन दत्ता, गतिस्तेन | ६ दत्ता सुखं तेन दत्तम् । गुणवीसमालिङ्गितेभ्यो वरेभ्यो, मुनिभ्यो मुदा येन दत्तो निवासः॥१॥" तथा "जो देइ टू है उवस्सयं जइवराण तवनियमजोगजुत्ताणं । तेणं दिना वत्वन्नपाणसयणासणविगप्पा ॥२॥" इति [यो ददात्युपाश्रय हायतिवरेभ्यस्तपोमियमयोगयुक्तेभ्यः । तेन दत्ता वस्खानपानशयनासनविकल्पाः॥१॥] तथा शरीरं-काया, अस्य च ध-13 SACCASEASOKRICA ~112~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ४४९ ] दीप अनुक्रम [४८७] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४४९ ] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः श्रीस्थाना & म्मोपग्राहिता स्फुटैव, यतोऽवाचि - "शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीयं प्रयज्ञतः । शरीराच्छ्रवते धर्मः, पर्वतात् सलिलं यथा ॥ १ ॥” इति भवति चात्रार्या - "धर्म चरतः साधोलोंके निश्रापदानि पञ्चैव । राजा गृहपतिरपरः षट्राया गणशरीरे च ॥ २ ॥” इति शेषं सुगमं । श्रमणस्य निश्रास्थानान्युक्तामि, अथ लौकिकं निधिलक्षणं निश्रास्थानं पञ्चधा प्रतिपादयन्नाह 'पंच निही' त्यादि सुगमं, नवरं नितरां धीयते - स्थाप्यते यस्मिन् स निधिः - विशिष्टरत्नसुवर्णादिद्रव्यभाजनं तत्र निधिरिव निधिः पुत्रश्चासौ निधिश्च पुत्रनिधिः, द्रव्योपार्जकत्वेन पित्रोर्निर्वाहहेतुत्वादत एव स्वभावेन च तयोरानन्दसुखकरत्वाच्च, अत्रोक्तं परैः- “जन्मान्तरफलं पुण्यं तपोदानसमुद्भवम् । सन्ततिः शुद्धवंश्या हि, परत्रेह च शम्र्म्मणे ॥ १ ॥ इति, तथा मित्रं - सुहृत्तच्च तन्निधिश्चेति मित्रनिधिरर्थकामसाधकत्वेनानन्दहेतुत्वात्, तदुक्तम् — “कुतस्तस्यास्तु राज्यश्रीः, कुतस्तस्य मृगेक्षणाः । यस्य शूरं विनीतं च नास्ति मित्रं विचक्षणम् १ ॥ १ ॥” शिल्पं चित्रादिविज्ञानं तदेव निधिः शिल्पनिधिः, एतच्च विद्योपलक्षणं, तेन विद्या निधिरिव पुरुषार्थसाधनत्वाद्, अत्रोक्तम्- “विद्यया राजपूज्यः स्याद्विद्यया कामिनीप्रियः । विद्या हि सर्वलोकस्य, वशीकरणकार्म्मणम् ॥ १ ॥” इति, तथा धननिधिः- कोशो धान्य| निधिः- कोष्ठागारमिति । अनन्तरं निधिरुक्तः, स च द्रव्यतः पुत्रादिर्भावतस्तु कुशलानुष्ठानरूपं ब्रह्म, तत्पुनः शौचतया विभणिषुः प्रसङ्गेन शेषाण्यपि शौचान्याह -- 'पंचविहे' त्यादि व्यक्तं, नवरं शुचेर्भावः शौचं शुद्धिरित्यर्थः तच्च द्विधा - द्रव्यतो भावतश्च तत्राद्यं चतुष्टयं द्रव्यशौचं पञ्चमं तु भावशौचं तत्र पृथिव्या मृत्तिकया शौचं - जुगुप्सितमलगन्धयोरपनयनं शरीरादिभ्यो घर्षणोपलेपनादिनेति पृथिवीशौच, इह च पृथिवीशौचाभिधानेऽपि यत्परैस्तलक्षणमभिधीयते, यदुत - 'एका ङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ३४० ॥ Education Intimational For Personal & Pre Only ~113~ ५ स्थाना० उद्देशः ३ निश्रास्थानानि पुत्रादिनिधयः शौचं सू० ४४७४४८४४ ॥ ३४० ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४९] दीप अनुक्रम [४८७] 414145-4551- लिंगे गुदे तिस्रस्तथैकत्र करे दश । उभयोः सप्त विज्ञेया, मृदः शुद्धौ मनीषिभिः॥१॥ एतच्छौचं गृहस्थानां, द्विगुणं ब्रह्मचारिणाम् । त्रिगुणं वानप्रस्थानां, यतीनां च चतुर्गुणम् ॥२॥" इति, तदिह नाभिमत, गन्धाद्युपघातमात्रस्य : शौचत्वेन विवक्षितत्वात् , तस्यैव च युक्तियुक्तस्वात् इति १, तथा अभिः शौचमपशौचं प्रक्षालनमित्यर्थः २, तेजसा-18 ऽग्निना तद्विकारेण वा भस्मना शौचं तेजःशौचं ३, एवं मंत्रशौचं शुचिविद्यया ४ ब्रह्म ब्रह्मचर्यादिकुशलानुष्ठानं तदेव शौचं ब्रह्मशौचं ५, अनेन च सत्यादिशौचं चतुर्विधमपि सङ्ग्रहीतं, तच्चेदम्-"सत्यं शौचं तपः शौचं, शौचमिन्द्रियनिग्रहः। सर्वभूतदया शौचं, जलशौचञ्च पञ्चमम् ॥१॥” इति, लौकिकैः पुनरिद सप्तधोक्तम्-यदाह-"सप्त स्नानानि प्रोक्तानि, ४ स्वयमेव स्वयंभुवा । द्रव्यभावविशुद्ध्यर्थमृषीणां ब्रह्मचारिणाम् ॥१॥ आग्नेयं वारुणं ब्राहय, वायव्यं दिव्यमेव च । पार्थिवं मानसं चैव, स्नानं सप्तविध स्मृतम् ॥ २॥ आग्नेयं भस्मना स्नानमवगायं तु वारुणं । आपोहिष्ठामयं ब्रायं, वायव्यं तु गवां रजः॥३॥ सूर्यदृष्टं तु यदृष्ट, तद्दिव्यमृषयो विदुः। पार्थिवं तु मृदा स्नानं, मनाशुद्धिस्तु मानसम्| ४॥४॥” इति । अनन्तरं ब्रह्मशौचमुक्तं, तच्च जीवशुद्धिरूपं, जीवं च छद्मस्थो न जानाति केवली तु जानातीति सम्बन्धाच्छास्थकेवलिनोरज्ञेयज्ञेयवस्तुप्रतिपादनाय सूत्रद्वयमाह पंच ठाणाई छतमत्थे सध्यभावेणं ण जाणति ण पासति, तं०-धम्मस्थिकातं अधम्मस्थिकातं आगासस्थिकार्य जीवं असरीरपडियलं परमाणुपोग्गलं, एयाणि चेव उत्पन्न नाणदसणधरे अरहा जिणे केवली सव्वभावणं जाणति पासति धम्मस्थिकातं जाव परमाणुपोग्गलं (सू०४५०) अधोलोगे णं पंच अणुत्तरा महतिमहालता महानिरया ५००-काले 25 aam Educataniml ~114~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [३], मूलं [४५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५१] दीप अनुक्रम [४८९] श्रीस्थाना- महाकाले रोरते महारोकते अप्पतिवाणे १ । उद्दलोगे थे पंच अणुत्तरा महतिमहालता महाविमाणा पं० २०-विजये ५स्थाना गसूत्र विजयंते जयंते अपराजिते सबढसिद्धे २ (सू०४५१) पंच पुरिसजाता पं० २०-हिरिसत्ते हिरिमणसत्ते चलसत्ते दाउदेश वृत्तिः थिरसत्ते उदतणसरो (सू०४५२) पंच माछा पं० २०-अणुसोतचारी पचिसोतचारि अंतचारी मन्झचारी सम्ब- सर्वभावेन चारी, एवमेव पंच भिक्खागा पं० २०-अणुसोयचारी जाव सव्वसोयचारी (सू०४५३) पंच वणीमगा पं० २० ४ धर्मादिज्ञा॥३४॥ -अति हिवणीमते किविणवणीमते माहणवणीमते साणवणीमते समणवणीमते (सू०४५४). नाज्ञाने कालविज'छउमत्धे'त्यादि सुगम, नवरं छद्मस्थ इहावध्याद्यतिशयविकलो गृह्यते, अन्यथा अमूर्तत्वेन धर्मास्तिकायादीन अ-INयाम जानन्नपि परमाणुं जानात्येवासौ मूर्त्तत्वात्तस्य, अथ सर्वभावेनेत्युक्तं ततश्च तं कथञ्चिजानन्नप्यनन्तपर्यायतया न जा- हालयाः |नातीति, एवं तर्हि सङ्ख्या नियमो व्यर्थः स्यात् , घटादीनां सुबहूनामानामकेवलिना सर्वपर्यायतया ज्ञातुमशक्यत्वा-दहीसत्त्वाहै|दिति, 'सब्वभावेणं'ति च साक्षात्कारेण, श्रुतज्ञानेन खसाक्षात्कारेण जानात्येव, जीवमशरीरप्रतिबद्ध-देहमुक्त, पर- द्याः अनु माणुश्वासी पुद्गलश्चेति विग्रहः, धणुकादीनामुपलक्षणमिदं ॥ यथैतान्यतीन्द्रियाणि जिनः पञ्च जानाति तथाऽन्यदप्य-13/श्रोतश्चारिदूतीन्द्रियं जानातीत्यधोलोकोपोलोकवयंतीन्द्रियं पञ्चस्थानकावतारि दर्शयन् सूत्रद्वयमाह-'अहो' इत्यादि व्यक्त, नवरं 'अहोलोए'त्ति सप्तमपृथिव्यां अनुत्तराः-सर्वोत्कृष्टा उत्कृष्टवेदनादित्वात्ततः परं नरकाभावाद्वा, महत्वं च चतुर्णी क्षे- ना तोऽप्यसङ्ख्यातयोजनवादप्रतिष्ठानस्य तु योजनलक्षप्रमाणत्वेऽप्यायुषोऽतिमहत्त्वान्महत्त्वमिति, एवमूर्वलोकेऽपि । का-51 ४५४ Kलादिषु विजयादिषु च सत्त्वाधिकपुरुषा एव गच्छन्तीति तत्प्रतिपादनायाह-पंच पुरिसे'त्यादि, 'हिरिसत्तित्तिद। ४ ॥३४१॥ GAR SAKESEACOCK ABERucatunharma ~115~ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [३], मूलं [४५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५४] दीप अनुक्रम [४९२] हिया-लज्जया सत्त्वं-परीपहेषु साधोः सञ्जामादावितरस्य वा अवष्टम्भो-अविचलत्वं यस्यासौ हीसत्त्वः, तथा हियाऽपि मनस्येव सत्त्वं यस्य न देहे शीतादिषु कम्पादिविकारभावात् स हीमनःसत्त्वर, चलं-भङ्गुरं सत्त्वं यस्य स तथा, एतद्विपर्ययात् स्थिरसत्त्वा, उदयन-उदयगामि प्रवर्द्धमानं सत्त्वं यस्य स तथा । अनन्तरं सत्त्वपुरुष उक्तः, स च भिक्षुरेवेति तत्स्वरूपप्रतिपादनाय दृष्टान्तदान्तिकसूत्रे पंच मच्छेत्यादिके आह-तत्र मत्स्यः प्राग्वत् भिक्षाकस्तु अनुश्नो-31 तश्चारिवदनुश्रोतश्चारि-प्रतिश्रयादारभ्य भिक्षाचारी स च प्रथमः, प्रतिश्रोतवारीव प्रतिश्रोतश्चारी दूरादारभ्य प्रतिश्रयाभिमुखचारीत्यर्थः, स च द्वितीयः, अन्तचारी-पार्थचारीति तृतीयः, शेषी प्रतीतौ । भिक्षाकाधिकारात्तद्विशेष पञ्चधाऽऽह-पंचे'त्यादि व्यक्तं, किन्तु परेषामात्मदुःस्थत्वदर्शनेनानुकूलमाषणतो यल्लभ्यते द्रव्यं सा बनी प्रतीता |तां पिबति-आस्वादयति पातीति वेति बनीपः स एव वनीपको-याचकः, इह तु यो यस्यातिध्यादेर्भक्तो भवति । तत्पशंसनेन यो दानाभिमुखं करोति स वनीपक इति, तत्र भोजनकालोपस्थायी प्राघूर्णकोऽतिथिस्तदानप्रशंसनेन तद्भ-IN कात् यो लिप्सति सोऽतिथिमाश्रित्य बनीपकोऽतिथिवनीपकः, यथा-"पाएण देइ लोगो उवगारिसु परिजिए व जुसिए वा । जो पुण अद्धाखिन्नं अतिहिं पूएइ तं दाणं ॥१॥" इति, [प्रायेण ददाति लोक उपकारिभ्यः परिचि-| | तेभ्यो वा प्रीतेभ्यः। यः पुनरध्वखिन्नमतिथिं पूजयति तद्दानम् ॥१॥] ('जुसिए'त्ति प्रीते तमिति तस्य दानं महाफलमिति शेषः>, एवमन्येऽपि नवरं कृपणा:-रङ्कादयो दु:स्थाः, उदाहरणम्-"किमिणेसु दुम्मणेसु य अबन्धवाय-15 किजुगियंगेसु । पूयाहिजे लोए दाणपडागं हरइ देंतो॥१॥[कृपणेभ्यो दुर्मनोभ्योऽबन्धुभ्य आतंकिभ्यो व्यङ्गिता DIREDucatana ~116~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- असूख प्रत वृत्तिः सूत्रांक ॥४२॥ [४५४] दीप अनुक्रम [४९२] गेभ्यः । पूजाहावें लोके ददत् दानपताकां हरति ॥१॥] ('आयकि'त्ति रोगी 'जुगियंगों' व्यङ्गितः 'पूजाहार्येति पूजि- ५ स्थाना० तपूजके> माहना-ब्राह्मणाः, तत्रोदाहरणं-लोयाणुग्गहकारिसु भूमीदेवेसु बहुफलं दाणं । अवि नाम बभबंधुसु किं | उर्दूशः ३ पुण छक्कम्मनिरयाणं ॥१॥[लोकानुग्रहकारिषु ब्राह्मणेषु दानं बहुफलं ब्रह्मबंधुमात्रेष्वपि नाम किं पुनः पटुर्मनिर सर्वभावेन तेभ्यः ॥१॥] (बंभयंधुसुत्ति-जम्ममात्रेण ब्रह्मवान्धवेषु निर्गुणेष्वपीत्यर्थः, यजनादीनि षट् कर्माणौति > श्ववनीपको धर्मादिज्ञा नाज्ञाने यथा-"अपि नाम होज सुलभो गोणाईणं तणाइ आहारो। छिच्छिकारहयाणं नहु सुलभो होज सुणताणं ॥१॥ कालविजकेलासभवणा एए, गुज्झगा आगया महिं । चरंति जक्खरूवेणं, पूयाऽपूया हिताऽहिता ॥२॥[अपि नाम गवादीनां याद्या:मतृणाद्याहारः सुलभो भवेत् । शीत्कारकरणहतानां शुनां नैव सुलभो भवेत् ॥१॥ एते कैलासभवना गुह्यका महीं आगता हालया: यक्षरूपेण चरन्ति ते पूजिता अपूजिता हिता अहिताः॥२॥] (पूजया हिता अपूजया त्वहिता इत्यर्थः>, अमणाः- हीसत्त्वापश्चधा-निम्रन्थाः शाक्यास्तापसा गैरिका आजीविकाश्चेति, तत्र शाक्यवनीपको यथा-"भुति चित्तकम्मडिया व का-15 द्याः अनु. | रुणियदाणरुइणो य । अवि कामगदभेसुविन नस्सए कि पुण जतीसु॥१॥" इति,[चित्रकर्मस्थिताः इव कारुणिका श्रोतश्चारि त्वाद्या ब४|दानरुचयश्च भुञ्जन्ति नाम । कामगर्दभेष्वपि न नश्यति किं पुनर्यतिपु॥१॥] एवमन्येऽपि तापसवनीपकादयो नीपकाः द्रष्टच्या इति । योऽयं वनीपक उक्तः स साधुविशेषः, साधुश्चाचेलो भवतीत्यचेलत्वस्य प्रशंसास्थानान्याह सू०४५०पंचाहिँ ठाणेहिं अचेलए पसत्थे भवति, तं०-अप्पा. पडिलेहा १ लाघचिए पसत्थे २ रूवे वेसासिते ३ तवे अणुनाते ॥३४२॥ THI ४५४ ABERucatunintimall -~117~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४५७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५७ दीप अनुक्रम [४९५] ४ विउले इंदियनिग्गहे ५ (सू०४५५) पंच उकला पन्नत्ता तं०-दंडुकले रजुकले तेणुकले देसुकले सब्बुकले (सू०४५६) पंच समितीतो पं० त०-ईरियासमिती भासा जान पारिठावणियासमिती (सू०४५७), 'पंचहीं'त्यादि प्रतीतं, नवरं न विद्यन्ते चेलानि-वासांसि यस्यासावचेलकः, सच जिनकल्पिकविशेषस्तदभावादेव तथा जिनकल्पिकविशेषः स्थविरकल्पिकचाल्पाल्पमूल्यसप्रमाणजीर्णमलिनवसनत्वादिति, 'प्रशस्तः प्रशंसितस्तीर्थकरगणधरा- दिभिरिति गम्यते, अल्पा प्रत्युपेक्षाऽचेलकस्य स्यादिति गम्यम्, प्रत्युपेक्षणीयतथाविधोपधेरभावाद्, एवं च न स्वाध्यादियादिपरिमन्थ इति, तथा लयोर्भावो लाघवं तदेव लापविक द्रव्यतो भावतोऽपि रागविषयाभावात् प्रशस्तं-अनिन्द्यं|| स्यात् , तथा रूपं-नेपथ्यं वैश्वासिक-विश्वासप्रयोजनमलिप्सुतासूचकत्वात् स्वादिति, तथा तपा-उपकरणसंल्लीनतारूपमनुज्ञात-जिनानुमतं स्वात् , तथा विपुलो-महानिन्द्रियनिग्रहः स्याद् , उपकरणं विना स्पर्शनप्रतिकूलशीतवातात-12 पादिसहनादिति । इन्द्रियनिग्रहश्च सत्त्वेनोत्कटैरेष कर्तुं शक्य इत्युत्कटभेदानाह-पंचेत्यादि सुगम, नवरं 'उकल'त्ति उत्कटा उत्कला बा, तत्र दण्ड:-आज्ञा अपराधे दण्डनं वा सैन्यं वा उत्कट:-प्रकृष्टो यस्य तेन वोत्कटो यः स दण्डोस्कटः, दण्डेन बोत्कलति-वृद्धिं याति यः स दण्डोकला, इत्येवं सर्वत्र, नवरं राज्य-प्रभुता स्तेनाः-चौरा: देशोमण्डलं सर्व-एतत्समुदय इति । असंयतो दण्डादिभिरुत्कटो भवति, संयतस्तु समितिभिरिति समितीः प्राह-पंचे |त्यादि सुगम, नवरं सम्-एकीभावेनेति:-प्रवृत्तिः समितिः शोभनेकाग्रपरिणामस्थ चेष्टेत्यर्थः, ईरणमीयों गमनमित्यर्थः। ..१ रजोहरणमुखवत्रिकारूपद्विविधोपकरणधारकः । २ शेषाः सर्वेऽपि त्रिविधाधुपकरणधारिणः । DAREucati समिति शब्दस्य व्याख्या एवं तस्य पञ्चविध भेदा: ~118~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [३], मूलं [४५७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत श्रीस्थानागसूत्रवृत्तिः सूत्रांक [४५७] दीप अनुक्रम [४९५] तत्र समितिरीर्यासमितिः, उक्तं च-"ईर्यासमिति म रथशकटयानवाहनाकान्तेषु मार्गेषु सूर्यरश्मिप्रतापितेषु प्रासुक- ५ स्थाना. विविक्तेषु युगमात्रदृष्टिना भूत्वा गमनागमनं कर्त्तव्य"मिति, तथा भाषणं भाषा तस्यां समिति षासमितिः, उक्तं च उद्देशः ३ - भाषासमिति म हितमितासन्दिग्धार्थभाषण" तथा एषणमेषणा गवेषणग्रहणग्रासैपणाभेदा शङ्कादिलक्षणा. वा 31 अचेलकतस्यां समितिरेषणासमितिः, उक्तं च-"एषणासमितिर्नाम गोचरगतेन मुनिना सम्यगुपयुक्तेन नवकोटीपरिशुद्धं ग्रा- प्राशस्त्यह्यम्" इति, तथा 'आदानभाण्डमावनिक्षेपणासमितिः' भाण्डमात्रे आदाननिक्षेपविषया सुंदरचेष्टेत्यर्थः, इह चाप्रत्युपे- मुत्कला क्षिताप्रमार्जिताद्याः सप्त भङ्गाः पूर्वोक्ता भवन्तीति, तथा उच्चारप्रश्रवणखेलसिंघाणजल्लानां परिष्ठापनिका-त्यागस्तत्र समितयः समितियों सा तथेति, तत्रोच्चार:-पुरीषं प्रश्रवणं-मूत्रं खेल:-श्लेष्मा जल्लो-मलः सिंघानो-नासिकोद्भवः श्लेष्मा, अ- जीवभेदत्रापि त एव सप्त भङ्गा इति । समितिप्ररूपणं च जीवरक्षार्थमिति जीवस्वरूपप्रतिपादनाय सूत्राष्टकमाह गत्यागतपंचविधा संसारसमावन्नगा जीवा पं०२०-एगिदिता जाव पंचिंदिता १ । एगिदिया पंचगतिइया पंचागतिता पं० | यः कल40-एगिदिए एगिदिवेसु उववजमाणे एगिवितेहितो जाव पंचिदिएहितो चा उपयजेजा, से चेव णं से एगिबिए एगि- |माद्यचिदिवतं विप्पजहमाणे एगिदित्ताते वा जाव पंथिदित्ताते वा गच्छेजा २ । विया पंचगतिता पंचागइया एवं व ३ । तता एवं जाव पंचिंदिया पंचगतिता पंचागइया पं० सं०-पंचिंदिया जाव गच्छेजा ४-५-६ । पंचविधा सम्बजीवा पं० सू०४५५ ४५९ वं०-कोहकसाई जाव लोभकसाई अकसाती । अहवा पंचविधा सम्बजीवा पं0 तं०-नेरइया जाव देवा सिद्धा ७ (सू०४५८) अह भंते! कलमसूरतिलमुग्गमासणिप्फावकुलथालिसंवगसतीणपलिमंथगाणं एतेसि णं ध ॥३४३॥ CASS ~119~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [३], मूलं [४५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५९] दीप अनुक्रम [४९७]] नाणं कुहाउत्ताणं अधा सालीणं जाव केवतितं कालं जोणी संचिति ?, गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुन् उकोसेणे पंच संवच्छराई, तेण पर जोणी पमिलायति जाव तेण पर जोणीवोच्छेदे पण्णत्ते (सू० ४५९) पंच संबच्छरा पं० २० -सतसंवच्छरे जुगसंवफछरे पमाणसंवच्छरे लक्षणसंवच्छरे सणिंचरसंघच्छरे १, जुगसंबच्छरे पंचविहे पं००चंदे चंदे अभिवड़िते चंदे अभिवड़िते चेव २, पमाणसंवच्छरे पंचविहे पं० ०-नक्खत्ते चंदे ऊऊ आदि अभिवड़िते ३, लक्खणसंवच्छरे पंचविहे पं० २०-समग नक्खत्ता जोगं जोयंति समग उदू परिणमंति । णशुहं णातिसीतो बहूदतो होति नक्खते ॥ १॥ ससिसगलपुण्णमासी जोतेती विसमचारणक्खत्ते । कदुतो बहूदतो (या) तमाहु संवच्छर चंद ॥२॥ विसम पवालिणो परिणमन्ति अणुसु देति पुप्फफलं । वासं ण सम्म वासति तमाहु संबच्छर कम्मं ॥३॥ पुढविदगाणं तु रसं पुष्फफलाणं तु देह आदिजो । अप्पेणवि बासेणं सम्म निष्फजए सस्सं ४ ॥ ४ ॥ आदिचसेयतविता खणलवविवसा उस परिणमंति । पूरिति रेणुथलताई तमाङ अभिवद्धितं जाण ॥ ५॥ (सू०४६०) 'पंचविहे'त्यादि स्फुटार्थ, नवरं संसारसमापन्ना-भववर्तिनः, विप्रजहत्-परित्यजन्, सर्वजीवाः-संसारिसिद्धाः,IKI अकपायिणः-उपशान्तमोहादयः। जीवाधिकाराद्वनस्पतिजीवानाश्रित्य पञ्चस्थानकमाह-'अहे'त्यादि, त्रिस्थानकवद् व्याख्येयं, नवरं कला-बट्टचणगा मसूरा-चणईयाओ तिलमुग्गमासा प्रतीतीः निष्फावा-बल्लाः कुलस्था-पवलगसरिसा चिप्पिडया भवन्ति आलिसिंदया-चवलया सईणा-तुवरी पलिमन्थाः-कालचणगा इति । अनन्तरं संवत्सरप्रमाणेन योनिव्यतिक्रम उक्तः, अधुना स एव संवत्सरश्चिन्त्यते इति, 'पंच संवच्छरेत्यादिसूत्रचतुष्टयं, तत्र 'नक्खत्त स्था०५८ x ~120~ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४६०] + गाथा १-५ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत श्रीस्थाना- असूत्र सूत्रांक ॥३४४॥ [४६० गाथा ||१-५|| दीप अनुक्रम [४९७-५०३] ₹85%2584- 24%25% संवच्छरे'त्ति, इह चन्द्रस्य नक्षत्रमण्डलभोगकालो नक्षत्रमासा, स च सप्तविंशतिः दिनानि एकविंशतिः सप्तषष्टि- ५स्थाना० भागा दिवसस्येति २७.०, एवंविधद्वादशमासो नक्षत्रसंवत्सरः, स चाय-त्रीणि शतान्यहां सप्तविंशत्युत्तराणि एकपंचा-| उद्देशः३ शच्च सप्तपष्टिभागा इति ३२७५:१, एवं पञ्चसंवत्सरात्मकं युगं तदेकभूदेशमूतो वक्ष्यमाणलक्षणश्चन्द्रादियुगसंवत्सर: सर्वजीवाः २, प्रमाण-परिमाणं दिवसादीनां तेनोपलक्षितो वक्ष्यमाण एव नक्षत्रसंवत्सरादिः प्रमाणसंवत्सरः ३, स एव लक्ष- कलादीणानां वक्ष्यमाणस्वरूपाणां प्रधानतया लक्षणसंवत्सरः४, यावता कालेन शनैश्चरो नक्षत्रमेकमधवा द्वादशापि राशीननामचिभुले स शनैश्चरसंवत्सर इति, यतश्चन्द्रप्रज्ञसिसूत्रम्-"सनिच्छरसंवच्छरे अट्ठावीसविहे पन्नते-अभीई सवणे जाव उ-1 तता संतरासाढा, जं वा सनिच्छरे महग्गहे तीसाए संवच्छरेहिं सव्वं नक्खत्तमंडलं समाणे "त्ति । [ शनैश्चरसंवत्सरोऽष्टाविंश-1 वत्सराः तिविधः प्रज्ञप्तोऽभिजित् श्रवणः यावदुत्तराषाढा यद्वा शनैश्चरमहाग्रहः त्रिंशता वर्षेः सर्व नक्षत्रमण्डलं पूरयति ५] सू०४५८. युगसंवत्सरः पश्चविधा, तद्यथा-चंदे'त्ति एकोनविंशदिनानि द्वात्रिंशच द्विषष्टिभागा दिवसस्येत्येवंप्रमाणः २९ कृष्णप्रतिपदारब्धः पूर्णमासीनिष्ठितश्चन्द्रमासस्तेन मासेन द्वादशमासपरिमाणश्चन्द्रसंवत्सरः, तस्य च प्रमाणमिद-त्रीणि शतान्यहां चतुःपञ्चाशदुत्तराणि द्वादश च द्विषष्टिभागाः ३५४१७, एवं द्वितीयचतुर्थावपि चन्द्रसंवत्सरी, 'अभिवहिए'त्ति एकत्रिंशद्दिनानि एकविंशत्युत्तरशतं चतुर्विंशत्युत्तरशतभागानामभिवतिमासः ३१, एवंविधेन मासेन द्वादशमासप्रमाणोऽभिवतिसंवत्सरः, सच प्रमाणेन-त्रीणि शतान्यहां ज्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच द्विपष्टिभागार २८३ ॥३४४॥ इत्येवं पञ्चमोऽपि, एभिश्चन्द्रादिभिः पञ्चभिः संवत्सरैरेक युगं भवति, तेषां च पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये अभिवद्धि ४६० X संवत्सरस्य पञ्च भेदा: एवं तस्य दिनमानं ~121~ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४६०] + गाथा १-५ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६०] गाथा ||१-५|| दीप अनुक्रम [४९७-५०३] ताख्ये संवत्सरे अधिकमासका पततीति, प्रमाणसंवत्सरः पञ्चविधा, तत्र 'नक्षत्र' इति नक्षत्रसंवत्सरः, स च उक्तलक्षणः, केवलं तत्र नक्षत्रमण्डलस्य चन्द्रभोगमात्रं विवक्षितमिह तु दिनदिनभागादिप्रमाणमिति, तथा चन्द्राभिवर्द्धितावप्युकलक्षणावेव किन्तु तत्र युगावयवतामात्रमिह तु प्रमाणमिति विशेषः, 'उ' इति ऋतुसंवत्सरः, त्रिंशदहोरात्रप्रमाणे दशभिः ऋतुमासैः सावनमासकर्ममासपर्यायैर्निष्पन्नः, षष्टयधिकाहोरात्रशतत्रयमान इति ३६०, 'आइ.त्ति आदित्यसंवत्सरः, स च त्रिंशद्दिनान्यद्धै चेति, एवंविधमासद्वादशकनिष्पन्नः पषष्ट्यधिकाहोरात्रशतनयमान इति ३६६, अयमेवानन्तरोक्को नक्षत्रादिसंवत्सरो लक्षणप्रधानतया लक्षणसंवत्सर इति । तत्र नक्षत्रमाह-'समगं' गाहा, समर्क-13 समतया नक्षत्राणि-कृत्तिकादीनि योग-कार्तिकीपौर्णमास्यादितिथ्या सह सम्बन्धं योजयन्ति-कुर्वन्ति, इदमुक्तं भवतियानि नक्षत्राणि यासु तिथिपूत्सर्गतो भवन्ति, यथा कार्तिक्यां कृत्तिकाः, तानि तास्वेव यत्र भवन्ति यथोक्तम्-"जेट्टो बच्चइ मूलेण सावणो धणिवाहिं । अद्दासु य मग्गसिरो सेसा नक्खत्तनामिया मासा ॥१॥" इति [ज्येष्ठो ब्रजति मूलेन श्रावणो ब्रजति धनिष्ठाभिः। आर्द्रया च मार्गशीर्षः शेषा नक्षत्रनामानः मासाः॥१॥] तथा यत्र समतयैव ऋतवः परिणमन्ति, न विषमतया, कार्तिक्या अनन्तरं हेमन्तर्तुः पौष्या अनन्तरं शिशिर रित्येवमवतरन्तीति भावः, यश्च ननैव अतीव उष्णं-धर्मों यत्र सोऽत्युष्णः, न-नैवातिशीत:-अतिहिमः, बहूदकं यत्र स बहूदकः, स च भवति लक्षणतो नक्षत्र इति, नक्षत्रचारलक्षणलक्षितत्वान्नक्षत्रसंवत्सर इति, अस्यां च गाथायां पञ्चमाष्टमावंशको पञ्चकलावितीयं वि|चित्रेति छंदोविनिरुपदिश्यते, 'बहुला विचित्त'त्ति गाथालक्षणात् पत्ति-पंचकलो गण इति । 'ससि'गाहा 'ससित्ति JaMEDuratUDAI संवत्सरस्य पञ्च भेदा: एवं तस्य दिनमानं ~122~ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४६०] + गाथा १-५ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीस्थानाअसूनदृत्तिः ॥३४५॥ ४६० [४६०] गाथा ||१-५|| दीप अनुक्रम [४९७-५०३] विभक्तिलोपात् शशिना-चन्द्रेण सकलपौर्णमासी-समस्तराका यः संवत्सर इति गम्यते अथवा यत्र शशी सकला पौर्ण-IN यः संवत्सर इति गम्यते अथवा यत्र शशी सकला पाण-८५ स्थाना. मासी योजयति-आत्मना सम्बन्धयति । तथा विषमचारीणि-यथास्वतिथिष्ववतीनि नक्षत्राणि यत्र स विषमचारि- उदेशः३ नक्षत्रः, तथा कटुकोऽतिशीतोष्णसद्भावात् बहुदकश्च, दीपत्वं प्राकृतत्वात् , तमेवंविधमाहुर्लक्षणतो ब्रुवते तद्विदः सं-15 संवत्सराः वत्सरं चन्द्र चन्द्रचारलक्षणलक्षितत्वादिति । 'विसम' गाहा, विषम-वैषम्येण प्रवालं-पल्लवाङ्करस्तद्विद्यते येषां ते प्रवा सू०४५८लिनो वृक्षा इति गम्यते, परिणमन्ति-प्रवालवत्तालक्षणया अवस्थया जायन्ते, अथवा प्रयालिनो-वृक्षाः परिणमन्तिअङ्कुरो दाद्यवस्थां यान्ति, तथा अन्तुषु-अस्वकालं ददति-प्रयच्छन्ति पुष्पफलं, यथा चैत्रादिषु कुसुमादिदायिनोऽपि स्वरूपेण धूताः माघादिषु पुष्पादि यच्छन्तीति, तथा वर्ष-वृष्टिं मेघो न सम्यग्वषति यत्रेति गम्यते, तमाहुर्लक्षणतः संवत्सरं कार्मणं, यस्य ऋतुसंवत्सरः सावनसंवत्सरश्चेति पर्यायौ ॥ 'पुढविगाहा, यत्र त्विति गम्यते, तथा च यत्र तु संवत्सरे पृथिव्युदकयो रस-माधुर्यस्निग्धतालक्षणं पुष्पफलाना च ददात्यादित्यः तथास्वभावत्वात् , तथाविधोदकाभावेऽपीति भावः, अत एवारूपेनापि वर्षेण सम्यक्-यथाभिमतं निष्पद्यते सस्य-शास्यादिधान्यं स लक्षणत आदित्यसैवत्सर उच्यत इति शेष इति । 'आइ गाहा, आदित्यतेजसा तप्ताः पृथिव्यादितापेऽप्युपचारात् क्षणादयस्तप्ता इति मन्तव्यं, तत्र क्षणो-मुहर्तः लया-एकोनपञ्चाशदुच्छासप्रमाणो दिवस:-अहोरात्रः ऋतु:-मासस्यप्रमाणः 'परिणमन्ति' अतिकामन्ति यत्रेति गम्यते, यश्च पूरयति वायूत्खातरेणुभिः स्थलानि-भूमिप्रदेशविशेषान् तमाहुराचार्या लक्षणतः ॥३४५॥ संवत्सरमभिवर्द्धितं 'जाण'त्ति त्वमपि शिष्य! तं तथैव जानीहीति । संवत्सरव्याख्यानमिदं तत्वार्थटीकाद्यनुसारेण aam Educati on संवत्सरस्य पञ्च भेदा: एवं तस्य दिनमानं ~1234 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४६०] + गाथा १-५ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६०] गाथा ||१-५|| दीप अनुक्रम [४९७-५०३] |मायो लिखितमिति । अनन्तरं संवत्सर उक्का, स च काला, कालात्यये च शरीरिणां शरीरानिर्गमो भवतीत्यतस्तम्मा निरूपयन्नाह पंचविधे जीवरस.णिज्जाणमग्गे पं० ०-पातेहिं ऊरूहिं उरेणं सिरेणं सव्वंगेहि, पाएहिं णिशाणमाणे निरयंगामी भवति, ऊरूहि णिमाणमाणे तिरियगामी भवति, उरेणं निजायमाणे मणुयगामी भवति, सिरेणं णिकायमाणे देवगामी भवति, सम्वेहिं निजायमाणे सिद्धिगतिपज्जवसाणे पण्णत्ते (सू०४६१) पंचविहे रोयणे पं० सं०-उप्पाछेयणे वियच्छेयणे बंधच्छेवणे पएसच्छेवणे दोधारच्छेयणे । पंचविधे आणतरिए पं० २०-उप्पातयणंतरिते वितणंतरिते पतेसापंतरिते समताणतरिए सामण्णाणतरिते । पंचविधे अणते पं० त०–णामणंतते ठवणाणतते दबाणतते गणणाणतते पदेसाणंतते, आहवा पंचविहे भणंतते ५० त०-एगंतोऽणंतते दुहतोणतए देसविस्थारणतए सम्वविस्थाराणंतते सासयाणंतते (सू०४६२) 'पंचविहे'त्यादि व्यक्तं, किन्तु निर्याण-मरणकाले शरीरिणः शरीरान्निर्गमस्तस्य मार्गों निर्याणमार्गः-पादादिकः, तत्र 'पाएहिंति पादाभ्यां मार्गभूताभ्यां करणताऽऽपन्नाभ्यां जीवः शरीरान्निर्यातीति शेषः, एवं उरुभ्यामित्यादावपि, अथ ४ क्रमेणास्य निर्याणमार्गस्य फलमाह-पादाभ्यां शरीरान्निर्यान् जीवो 'निरयगामि'त्ति प्राकृतत्वादनुस्वार इति, निरय गामी भवति, एवमन्यत्रापि, नवरं सर्वाणि च तान्यङ्गानि च सर्वाङ्गानि तैनियर्यान् सिद्धिगतिः पर्यवसानं-संसरणपपर्यन्तो यस्य स सिद्धिगतिपर्यवसानः प्रज्ञप्त इति । निर्याणं चायुष्कच्छेदने भवतीति छेदनं प्ररूपयन्नाह-पंचविहे' AACAKC.SC ~124~ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६२] दीप अनुक्रम [५०५] श्रीस्थाना *त्यादि कण्यं, केवलं 'उप्पत्ति उत्पादो देवत्वादिपर्यायान्तरस्य तेन छेदो-जीवादिद्रव्यस्य विभाग उत्पादच्छेदन, तथा||५स्थाना० सूत्र- वियत्ति व्ययो विगमो मानुषत्वादिपर्यायस्य तेन छेदनं जीवादेरेवेति व्यवच्छेदनं, तथा वन्धनस्य-जीवापेक्षया कर्मणः उद्देशा-३ वृत्तिः स्कन्धापेक्षया तु सम्बन्धस्य छेदन-विनशन बन्धच्छेदनमिति, तथा तस्यैव प्रदेशतो निर्विभागावयवतो बुधा छेदनं- जीवनि विभजनं प्रदेशच्छेदनं, तथा जीवादेरेव द्रव्यस्य द्विधाकरणं द्विधाकारः स एव छेदन द्विधाकारच्छेदनं, उपलक्षणं चैत-15ोणमागोंः ॥३४६॥ विधाकारादीनां, अनेन च देशतः छेदनमुक्त, अथवोसादस्य-उत्पत्तेः छेदनं-विरहो यथा नरकगती द्वादश मुहाः , व्य- छेदानन्तप्रयच्छेदन-उद्वर्तनाविरहा, सोऽप्येवं, बन्धनविरहो यथोपशान्तमोहस्य सप्तविधकर्मवन्धनापेक्षया, प्रदेशच्छेदन-प्रदेश-13 योनतानि बिरहो यथा विसंयोजितानामनन्तानुबन्ध्यादिकर्मप्रदेशानां, तथा द्वे धारे यस्य तद् द्विधारं तच्च तच्छेदनं च द्विधार-लासू०४६१. च्छेदनमुपलक्षणत्वादस्यैकधाराद्यपि दृश्यम् , तच्च क्षुरखड्गचक्राचं, तच्च छेदनशब्दसाम्यादिहोपात्तमिति, प्रदेशच्छेदन ४६२ स्थाने कचित् 'पंथच्छेयणे'त्ति पठाते, तत्र पथिच्छेदन-मार्गच्छेदनं मार्गातिक्रमणमित्यर्थः॥ छेदनस्य च विपयेय आनन्तयमिति तदाह-पंचविहे त्यादि, आनन्तर्य-सातत्यमच्छेदनमविरह इत्यर्थः, तत्रोसादस्य यथा निरयगतौ जीवा-14 नामुत्कर्षतः असङ्ख्येयाः समयाः, एवं व्ययस्यापि, प्रदेशानां च समयानां च तत्प्रतीतमेव, अविवक्षितोत्सादव्ययादिविशे पापणमानन्तयमात्र सामान्यानन्तर्य, श्रामण्यस्य वा आकर्षविरहेणानन्तर्य श्रामण्यानन्तर्यमिति बहुजीवापेक्षया वा श्रा-1 #मण्यप्रतिपत्त्यानन्तर्य, तच्चाष्टौ समया इति ॥ अनन्तरसूत्रे समयप्रदेशानामानन्तर्यमुक्तं, ते चानन्ता इत्यनन्तकमेव प्र-M॥३४६ ॥ रूपयन्नाह-'पंचविहे'त्यादि सूत्रद्वयं प्रतीतार्थ, नवरं नाम्ना अनन्तकं नामानन्तकं अनन्तकमिति यस्य नाम, यथा| स wwwjagalan ~125~ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६२] दीप अनुक्रम [५०५] BHASHA समयभाषया वस्खमिति, स्थापनैव स्थापनया वा अनन्तक स्थापनानन्तक-अनन्तकमिति कल्पनयाऽक्षादिन्यासः, ज्ञभव्यशरीरादिव्यतिरिक्तं द्रव्याणामण्यादीनां गणनीयानामनन्तकं द्रव्यानन्तकं, गणना-सायानं तलक्षणमनन्तकमविवक्षिताण्वादिसझयेयविषयः सङ्ग्याविशेषो गणनानन्तकं, प्रदेशानां सङ्ख्येयानामनन्तकं प्रदेशानन्तकमिति, एकतः-एकेनांशेनायामलक्षणेनानन्तकमेकतोऽनन्तकम्-एकश्रेणीकं क्षेत्र, द्विधा-आयामविस्ताराभ्यामनन्तक द्विधानन्तकं-प्रतरक्षेत्रं, क्षेत्रस्य यो रुचकापेक्षया पूर्वाद्यन्यतरदिग्लक्षणो देशस्तस्य विस्तारो-विष्कम्भस्तस्य प्रदेशापेक्षया अनन्तकं देशविस्तारानन्तकं, सर्वाकाशस्य तु चतुर्थ, शाश्वतं च तदनन्तकं च शाश्वतानन्तकम्-अनाद्यपर्यवसितं यजीवादिद्रव्यमनन्तसमय|स्थितिकत्वादिति । एवंभूतार्थपरिच्छेदो ज्ञानाद्भवतीति ज्ञानस्वरूपनिरूपणायाह पंचविहे णाणे पं० त०-आभिणियोहियणाणे सुयनाणे ओहिणाणे मणपज्जवणाणे केवलणाणे (सू०४६३) पंचविहे णाणावरणिज्जे कम्मे पं० सं०-आमिणिबोहियणाणावरणिजे जाच केवलनाणावरणिज्जे (सू०४६४) 'पंचविहे'त्यादि, पञ्चेति-पञ्चसङ्ख्या विधाः-भेदा यस्य तसञ्चविधं, ज्ञातिर्ज्ञानमिति भावसाधनः संविदित्यर्थः, ज्ञायते वाऽनेनास्माद्वेति ज्ञान-तदावरणस्य क्षयः क्षयोपशमो वा, ज्ञायते वाऽस्मिन्निति ज्ञान-आत्मा तदावरणक्षयक्षयोपशमपरिणामयुक्तो, जानातीति वा ज्ञानं तदेव स्वविषयग्रहणरूपत्वादिति, 'प्रज्ञप्त' प्ररूपितमर्थतस्तीर्थकरैः सूत्रतो गणधरैः। | उक्तं च-"अत्थं भास अरिहा सुतं गंथंति गणहरा निउणं । सासणस्स हियहाए, तो सुत्तं पवत्तइ ॥१॥" इति [अहेन् भाषतेऽर्थ सूत्र प्रश्नन्ति गणधराः निपुणं । शासनस्य हितार्थाय ततः सूत्र प्रवर्तते ॥१॥] अथवा प्राज्ञात्-तीर्थकरात् ज्ञानस्य पंचविधत्वं एवं तस्य व्याख्या: ~1264 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [३], मूलं [४६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६४] दीप श्रीस्थाना- प्राज्ञैर्वा प्रज्ञया या आप्त-प्राप्तमात्तं वा प्राज्ञाप्तं प्रज्ञाप्तं प्राज्ञात्तं प्रज्ञात्तं वा, तद्यथा-अर्थाभिमुखोऽविपर्ययरूपत्वान्निय- ५ स्थाना. गसूत्र- हो तोऽसंशयरूपत्वाद्बोधः-संवेदनमभिनिवोधः स एव स्वार्थिकप्रत्ययोपादानादाभिनिबोधिक, अभिनिबोधे वा भवं तेन वा उद्देशः३ वृत्तिः है निर्वृत्तं तन्मयं तत्प्रयोजनं वेत्याभिनिवोधिक, अभिनिबुध्यते वा तत् कर्मभूतमित्याभिनिवोधिक-अवग्रहादिरूपं मतिज्ञा- ज्ञानानि नमेव, तस्य स्वसंविदितरूपत्वात्, भेदोपचारादित्यर्थः, अभिनिवुध्यते वा अनेनास्मादस्मिन् वेत्याभिनिबोधिक-तदाव-18/ज्ञानावर॥३४७॥ रणकर्मक्षयोपशम इति भावार्थः, आत्मैव वा अभिनिबोधोपयोगपरिणामानन्यत्वादभिनिबुध्यत इत्याभिनिबोधिक, तचाणीयानि तज्ज्ञानं चेत्याभिनियोधिकज्ञानमिति, आह च-"अस्थाभिमुहो नियओ बोहो जो सो मओ अभिनिबोहो । सो चेवा- सू०४६३भिणिबोहियमहव जहाजोग्गमाजोजं ॥१॥ तं तेण तओ तम्मि य सो वाऽभिणिबुज्झए तओ वा तं ॥" इति [अर्था-181 ४६४ भिमुखो नियतो बोधा यः सोऽभिनिवोधो मतः । स एवाभिनिबोधिकमथवा यथायोग्य आयोज्यं ॥१॥ तत्तेन तत-16 स्तस्मिंश्च स वाऽभिनिबुध्यते ततो वा तत् ॥] तथा श्रूयत इति श्रुतं-शब्द एव, भावश्रुतकारणत्वात् कारणे कार्योपचारादिति भावार्थः, श्रूयते वा अनेनास्मादस्मिन्वेति श्रुतं, तदावरणकर्मक्षयोपशम इत्यर्थः, आत्मैव वा श्रुतोपयोगपरिणामानन्यत्वाच्छ्रणोतीति श्रुतं, श्रुतं च तज्ज्ञानं च श्रुतज्ञानम् , आह च-"तं तेण तओ तम्मि य सुणेइ सो वा सयं च तेणंति ॥" इति [तत्तेन ततस्तसिंश्च शृणोति स वा श्रुतं तेन] तथा अवधीयतेऽनेनास्मादस्मिन्वेत्यवधिः, अ-IN वधीयत इत्यधोऽधो विस्तृत परिच्छिद्यते मर्यादया वेत्यर्थः स चावधिज्ञानावरणक्षयोपशम एव, तदुपयोगहेतुत्वादिति, द्र अवधानं वा अवधिविषयपरिच्छेदनमित्यर्थः, अवधिश्चासौ ज्ञानं चेत्यवधिज्ञानं, उच-"तेणावधीयते तंमि वाऽव अनुक्रम [५०७] For ज्ञानस्य पंचविधत्वं एवं तस्य व्याख्या:, ज्ञानावरणीय-कमोदि पंचक: ~127~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४६४] दीप अनुक्रम [५०७ ] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [ ४६४ ] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Educato हाणं च तोऽवही सो य। मज्जाया जं तीए दब्वाइपरोप्परं मुणइ ॥ १ ॥” इति [ तेनावधीयते तस्मिन् वाडवधानं ततोऽवधिः स च मर्यादा तस्मिन् द्रव्यादिपरः क्षेत्रादि परं जानाति ॥ १॥] तथा परि:- सर्वतोभावे अवनं अवः अयनं वा अयः आयो वा गमनं वेदनमिति पर्यायाः परि अवः अयः आयो वा पर्यवः पर्ययः पर्यायो वा मनसि मनसो वा पर्यवः पर्ययः पर्यायो या मनःपर्यवो मन:पर्ययो मनःपर्यायो वा, सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः, स एव ज्ञानं मनःपर्यवज्ञानं मन:पर्ययज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं वा, अथवा मनसः पर्यायाः पर्यया पर्यवा वा भेदा धर्मा बाह्यवस्त्वालोचनादिप्रकारा इत्यर्थस्तेषु तेषां वा ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं मन:पर्ययज्ञानं मनः पर्यवज्ञानमिति, आह च - " पज्जवणं पज्जयणं पज्जाओ वा मणमि मणसो वा । तस्स व प्रजायादिन्नाणं मणपज्जवन्नार्ण ॥ १ ॥” इति [ पर्यवनं पर्ययनं पर्यायो वा मनसि मनसो वा तस्य वा पर्यायादिज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं ॥ १ ॥ ] केवलं - असहायं मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वात् शुद्धं वा आवरणमलकलङ्करहितत्वात् सकलं वा तत्प्रथमतयैवाशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोत्पत्तेः असाधारणं वा अनन्यसदृशत्वात् अनन्तं वा ज्ञेयानन्तत्वात् यथावस्थिताशेषभूतभवद्भाविभावस्वभावावभासीति भावना तच्च तत् ज्ञानं चेति केवलज्ञानं, उक्तं च - "केवलमेगं सुद्धं सगलमसाहारणं अनंतं च । पायं च नाणसदो नाणसमाणाहिगरणोऽयं ॥ १ ॥” इति [ केवलं एकं शुद्धं सकलं असाधारणं अनंतं च । प्रायेणायं ज्ञानशब्दः ज्ञानसमानाधिकरणः ॥ १ ॥ ] प्राय इति मनःप र्यायज्ञाने तत्पुरुषस्यापि दर्शितत्वात् । इह च स्वामिकालकारणविषयपरोक्षत्वसाधर्म्यात्तद्भावे च शेषज्ञानसद्भावादादावेव मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोरुपन्यास इति, तथाहि-य एव मतिज्ञानस्य स्वामी स एव श्रुतज्ञानस्य, “जत्थ मतिनाणं तत्थ ज्ञानस्य पंचविधत्वं एवं तस्य व्याख्या:, ज्ञानावरणीय कर्मादि पंचक: For Personal & PratOnf ~128~ 5 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [३], मूलं [४६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: श्रीस्थाना- प्रत वृत्तिः सूत्रांक ॥३४८॥ [४६४] दीप सुयनाण" इति [यत्र मतिज्ञानं तत्र श्रुतज्ञानं ] वचनात् , तथा यावान् मतिज्ञानस्य स्थितिकालस्तावानेवेतरस्य, प्रवा- ५ स्थाना० हापेक्षया अतीतादिः सर्व एव, अप्रतिपतितकजीवापेक्षया तु षट्षष्टिसागरोपमाण्यधिकानीति, तथा यथा मतिज्ञानं क्षयो- उद्देशः३ पशमहेतुकं तथा श्रुतज्ञानमपि यथा च मतिज्ञानमोघतः सर्वद्रव्यादिविषयमेवं श्रुतज्ञानमपि यथा च मतिज्ञानं परोक्ष ज्ञानानि एवं श्रुतज्ञानमपि तथा मतिज्ञानश्रुतज्ञानभावे चावध्यादिभावादिति, आह च-"जं सामिकालकारणविसयपरोक्खत्त- ज्ञानावरहिं तुहाई। तम्भावे सेसाई तेणाईए मइसुयाई ॥१॥" इति [स्वामिकालकारणविषयपरोक्षत्वैर्यत्तुल्यानि तमावेणीयानि शेषाणि च तेनादौ मतिश्रुते ॥१॥] मतिपूर्वकत्वात् श्रुतस्य विशिष्टमत्यंशरूपत्वाद्वा श्रुतस्यादौ मतेरुपन्यास इति, उक्तं सू०४६३. च-"मइपुव्वं जेण सुयं तेणाईए मई विसिट्ठो वा । मइभेओ चेव सुयं तो मइसमणंतरं भणियं ॥१॥” इति [म-21 ४६४ तिपूर्व येन श्रुतं तेनादौ मतिर्विशिष्टो वा मतिभेद एव श्रुतं ततः मतिसमनन्तरं भणितं श्रुतं ॥१॥] तथा कालविपर्ययस्वामिलाभसाधम्यान्मतिज्ञानश्रुतज्ञानानन्तरमवधिज्ञानस्योपन्यासः, तथाहि-यावानेव मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोः स्थितिकाला प्रवाहापेक्षया अप्रतिपतितकसत्त्वाधारापेक्षया च तावानेवावधिज्ञानस्यापि, तथा यथैव मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोविपर्ययज्ञाने भवतः एवमिदमपि मिथ्यादृष्टेविभङ्गज्ञानं भवतीति, तथा य एव तयोः स्वामी स एवास्यापि भवतीति, तथा विभङ्गज्ञानिनखिदशादेः सम्यग्दर्शनावाप्ती युगपदेव ज्ञानत्रयलाभसम्भव इति, उकंच-"कालविवज्जयसामित्तलाभसाहम्मओऽवही सत्तो।" [कालविपर्ययस्वामित्वलाभसाधर्म्यतोऽवधिस्ततः॥] तथा छमस्थविषयभावाध्यक्षत्व-| ॥३४८॥ साधम्योदवधिज्ञानानन्तरं मनःपर्यवज्ञानस्योपण्यासः, तथाहि-यथाऽवधिज्ञानं छद्मस्थस्य भवति एवं मनःपर्यायज्ञान अनुक्रम [५०७] 155156 Hawwjaralaya ज्ञानस्य पंचविधत्वं एवं तस्य व्याख्या:, ज्ञानावरणीय-कमोदि पंचक: ~129~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [५], उद्देशक [३], मूलं [४६४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक * 35*5555 [४६४] दीप अनुक्रम [५०७] मपि, तथा यथाऽवधिज्ञानं रूपिद्रव्यविषयमेवमेतदपि, तथा यथाऽवधिज्ञानं बायोपशमिके भावे तथेदमपि, तथा यथाऽवधिज्ञान प्रत्यक्षं तथेदमपीति, उक्तं च-"माणसमेत्तो छउमत्थविसयभावादिसामना" इति [मनोज्ञानमतश्छाम स्थ्यविषयभावादिसामान्यात् ] तथा मनःपर्यायज्ञानानन्तरं केवलज्ञानोपन्यासः तस्य सकलज्ञानोत्तमत्वात् तथा अप्र★ मत्तयतिस्वामिसाधर्म्यात्, तथाहि-यथा मनःपर्यायज्ञानमुत्तमयतेरेव भवति एवमिदमपि, तथा अवसानलाभात्, यो| हि सर्वज्ञानानि समासादयति स खल्वन्त एवेदमामोतीति, तथा विपर्ययाभावसाधात्, तथाहि-यथा मनःपर्यायज्ञानं सविपर्ययं न भवत्येवं केबलमपीति, उक्तं च-अंते केवलमुत्तमजइसामित्तावसाणलाभाओ। एत्थं च मतिसुयाई परोक्खमियरं च पञ्चक्खं ॥१॥" इति, [केवलमन्ते उत्तमयतिस्वामित्वादवसानलाभात् अत्र च मतिश्रुते परोक्ष इतराणि प्रत्यक्षं ॥१॥] उक्तस्वरूपस्य ज्ञानस्य यदावारकं कम्मै तत्स्वरूपाभिधानाय सूत्रं-पंचे'त्यादि सुगम, उक्तं ज्ञानावरणमिति तत्क्षपणोपायविशेषस्य स्वाध्यायस्य भेदानाह पंचविहे सज्झाए पं० सं०-थायणा पुच्छणा परियट्टणा अणुप्पेहा धम्मकहा (सू०४६५) पंचविहे पचक्याणे पं० तं०-सदहणसुद्धे विणयसुद्धे अणुभासणासुद्धे अणुपालणासुद्धे भावसुद्धे (सू० ४६६) पंचविहे पडियामणे पं० सं० -आसबदारपतिकमणे मिच्छत्तपडिकमणे कसायपडिकमणे जोगपडिकमणे भावपडिकमणे (सू०४६७) 'पंचविहे' इत्यादि सुगम, नवरं शोभनं आ-मर्यादया अध्ययन-श्रुतस्याधिकमनुसरणं स्वाध्यायः, तत्र वक्ति शिमध्यस्तै प्रति गुरोः प्रयोजकभावो याचना पाठनमित्यर्थः, गृहीतवाचनेनापि संशयाद्युपत्ती पुनः प्रष्टव्यमिति पूर्वाधीतस्य RSS DAREucaton ज्ञानस्य पंचविधत्वं एवं तस्य व्याख्या:, ज्ञानावरणीय-कमोदि पंचक: ~130~ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [३], मूलं [४६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक जानि [४६७] दीप अनुक्रम [५१०] श्रीस्थाना- सूत्रादेः शङ्कितादौ प्रश्नः प्रच्छनेति, प्रच्छनाविशोधितस्य सूत्रस्य मा भूद्विस्मरणमिति परिवर्तना, सूत्रस्य गुणनमित्यर्थः, ५स्थाना० सूत्र- * सूत्रयदर्थेऽपि सम्भवति विस्मरणमतः सोऽपि परिभावनीय इत्यनुप्रेक्षणमनुप्रेक्षा, चिन्तनिकेत्यर्थः, एवमभम्यस्तश्रुतेन ध- उद्देशः३ वृत्तिः मकथा विधेयेति धर्मस्य-श्रुतरूपस्य कथा-व्याख्या धर्मकथेति । धर्मकथामन्धनिर्मथितमिथ्याभावाश्च भव्याः शुद्ध स्वाध्यायाः दप्रत्याख्यानं प्रपद्यन्त इति तदाह-पंचविहे' इत्यादि, प्रति-प्रतिषेधत आख्यान-मर्यादया कथन-प्रतिज्ञानं प्रत्याख्यानं, प्रत्याख्या॥३४९॥ तत्र श्रद्धानेन-तथेतिप्रत्ययलक्षणेन शुद्धं-निरवयं श्रद्धानशुद्धं, श्रद्धानाभावे हि तदशुद्धं भवति, एवं सर्वत्र, इह नियु- नानि प्रकिगाथा-"पचक्खाणं सव्वदेसियं जं जहिं जया काले । तं जो सद्दहद नरो तं जाणसु सद्दहणसुद्धं ॥१॥"[य-18|| तिक्रम द्यदा यत्र काले (स्थविरकल्पादौ भरतादौ) सर्वज्ञेन प्रत्याख्यान देशितं तद्यः श्रद्दधाति नरः तत् श्रद्धानशुद्धं जानीहि MIn ] विनयशुद्धं यथा-"किइकम्मस्स विसोहिं पजए जो अहीणमारित्तं । मणवयणकायगुत्तो तं जाणम् विण- सू०४६५. हायओ सुद्धं ॥२॥"[कृतिकर्मणो विशुद्धिं योऽहीनातिरिक्तं प्रयुंजीत मनोवचनकायगुप्तस्तत् विनयशुद्ध जानीहि | ४६७ दि॥१॥] अनुभाषणाशुद्धं यथा-"अणुभासइ गुरुवयणं अक्खरपयवंजणेहिं परिसुद्धं । पंजलिउडो अभिमुहो तं जाण*णुभासणासुद्धं ॥३॥"[अनुभाषते गुरुवचनमक्षरपदव्यञ्जनैः परिशुद्धम् । कृतप्राञ्जलिरभिमुखस्तत् जानीहि अनुभाBाषणाशुद्धं ॥१॥] नवरं गुरुर्भणति-वोसिरिति, शिष्यस्तु वोसिरामित्ति, अनुपालनाशुद्धं यथा-"कंतारे दुभिक्खे आ-1 दायके वा महया () (महतीत्यर्थः> समुष्पन्ने । पालियं न भग्गं तं जाणऽणुपालणासुद्धं ॥१॥" [कान्तारे दुभिः ॥ ३४९ आतंके वा महति समुत्पन्ने । यन्न भग्नं पालितं तदनुपालनाशुद्ध जानीहि ॥१॥] भावशुद्ध, यथा-"रागेण व दोसेण ~1314 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [३], मूलं [४६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६७] व परिणामेण व (इहलोकाद्याशंसालक्षणेन > न दूसियं जं तु । तं खलु पञ्चक्खाणं भावविसुद्धं मुणेयव्वं ॥१॥” इति CI रागेण वा द्वेषेण वा परिणामेन वा (इच्छादिना)न दूषितं यत्तु तत्खलु प्रत्याख्यानं भावविशुद्ध ज्ञातव्यं ॥१॥]५IN अन्यदपि षष्ठं ज्ञानशुद्धमिति नियुक्तावुक्तं, यदाह-"पञ्चक्खाणं जाणइ कप्पे जं जंमि होइ कायव्यं । मूलगुणउत्तरगुणे तं जाणसु जाणणासुद्धं ॥१॥" ति [यस्मिन् काले यत्प्रत्याख्यानं मूलगुणेषत्तरगुणेषु वा कर्तव्यं भवति तत् जानाति तज्ज्ञानशुद्धं जानीहि ॥१॥] इह तु पश्चस्थानकानुरोधान्नेदमुक्तं, श्रद्धानशुद्धेन वा सन्गृहीतत्वात् , ज्ञानविशेषत्वात् श्रद्धानस्येति । प्रत्याख्याने च कृते कदाचिदतिचारः सम्भवति, तत्र च प्रतिक्रमणं कर्तव्यमिति प्रतिक्रमण निरूपयनाह-पंचविहे' इत्यादि, प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रमणं, एतदुक्तं भवति-शुभयोगेभ्योऽशुभयोगानुपक्रान्तस्य शुभेष्वेव |गमनमिति, उक्त च-"स्वस्थानाद्यत्सरस्थानं, प्रमादस्य वशागतः । तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ॥१॥क्षायोपशमिकादावादौदयिकस्य वशं गतः । तत्रापि च स एवार्थः, प्रतिकूलगमात् स्मृतः ॥२॥” इति, इदं च विषयभेदात् पञ्चधेति, तत्र आश्रवद्वाराणि-प्राणातिपातादीनि तेभ्यः प्रतिक्रमणं-निवर्त्तनं पुनरकरणमित्यर्थः आश्रवद्वारप्रतिक्रमण, असंयमप्रतिक्रमणमिति हृदयं, मिथ्यात्वप्रतिक्रमणं यदाभोगानाभोगसहसाकारैमिथ्यात्वगमनं तन्निवृत्तिः, एवं कषायप्रतिक्रमणं, योगप्रतिक्रमणं तु यत् मनोवचनकायव्यापाराणाम शोभनानां व्यावर्त्तनमिति, आश्रवद्वारादिप्रतिकमणमेवाविवक्षितविशेष भावप्रतिक्रमणमिति, आह च-"मिच्छत्ताइ न गच्छइ न य गच्छावेइ नाणुजाणाइ । जं मणवइकाएहिं तं भणियं भावपडिकमणं ॥१॥" इति, [मिथ्यात्वादि न गच्छति न च गमयति नानुजानाति । य | दीप अनुक्रम [५१०] स्था०५९ ~132~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [३], मूलं [४६७] श्रीस्थानाअसूत्र कसक प्रत वृत्तिः 5625*5* सूत्रांक ॥ ३५॥ [४६७] दीप अनुक्रम [५१०] न्मनोवाकायैः तद्भणितं भावप्रतिक्रमणं ॥१॥] विशेषविवक्षायां तूता एवं चत्वारो भेदाः, यदाह-"मिच्छत्तपडि- ५ स्थाना. कमण तहेव अस्संजमे पडिकमणं । कसायाण पडिकमणं जोगाण य अप्पसत्थाणं ॥१॥" इति । मिथ्यात्वात्प्रति-18 उद्देशः३ क्रमणं तथैव चासंयमाप्रतिक्रमणं कषायेभ्यः प्रतिक्रमणं योगेभ्योऽप्रशस्तेभ्यश्च ॥१॥] भावप्रतिक्रमणं च श्रुतभावित- श्रुतवाचमतेरेव भवतीति श्रुतं वाचनीयं शिक्षणीयं चेत्येतद्वयोपदर्शनार्थ सूत्रे नाशिक्षपंचहि ठाणेहिं सुतं वाएजा, तं०-संगहद्वयाते उबग्गहणट्ठयाते णिजारणयाते सुत्ते वा मे पञवयाते भविस्सति णहेतवः | सू०४६८ सुत्तस्स वा अवोपिछत्तिणयट्ठयाते । पंचहि ठाणेहि सुत्तं सिक्खिया, तं०-णाणवयाते दंसणवयाते परित्तयाते धुग्गहविमोतणट्ठयाते अहत्थे वा भावे जाणिस्सामीतिकटु (सू०४६८) 'पंचहीं'त्यादि सुगम, नवरं सुत्-श्रुतं सूत्रमात्र वा 'वाचयेत्' पाठयेत्, तत्र सतहः-शिष्याणां श्रुतोपादानं स एवार्थ:-प्रयोजनं तस्मै सङ्ग्रहार्थाय सङ्ग्रह एव वाऽर्थों यस्य स सङ्ग्रहार्थस्तद्भावस्तत्ता तया सङ्ग्रहार्धतया श्रुतसङ्ग्रहो भवस्वेषामिति प्रयोजनेनेति भावः अथवैत एवं मया सङ्गहीता भवन्ति-शिष्यीकृता भवन्तीति साहार्थेतया, तत्सनहायेति भावः, एवमुपग्रहार्थयोपग्रहार्थातया वा, एवं ह्येते भक्तपानवखाद्युत्पादनसमर्थतयोपष्टम्भिता भवन्विति भावः, I निर्जराथाय-निर्जरणमेवं मे कर्मणां भवत्विति, श्रुतं वा-अन्धो 'मे' मम वाचयत इति गम्यते 'पर्यवजातं' जातविशेष ॥३५॥ स्फुटतया भविष्यतीति, अव्यवच्छित्त्या नयन-श्रुतस्य कालान्तरप्रापणं अव्यवच्छित्तिनयः स एवार्थस्तस्मै इति । ज्ञान-13|| 15 CamEauratomunimational File For पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~133~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ४६८ ] दीप अनुक्रम [५११] Education [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [ ५ ], उद्देशक [3], मूलं [ ४६८ ] तत्त्वानां परिच्छेदो दर्शनं-- तेषामेव श्रद्धानं चारित्रं - सदनुष्ठानं व्युद्धहो - मिथ्याभिनिवेशस्तस्य तस्माद्वा परेषां विमोचनं व्युद्रहविमोचनं तदर्थाय तदर्थतया वा, 'अहत्थे'त्ति यथास्थान - यथावस्थितान् यथार्थान् वा यथाप्रयोजनान् भावान्-जीवादीन् यथार्थान् वा यथाद्रव्यान् भावान् पर्यायान् ज्ञास्यामीतिकृत्वा - इतिहेतोः शिक्षत इति । यथावस्थिताश्च भावा ऊर्द्ध्वलोके सौधर्म्मादय इति तद्विषयं सूत्रत्रयं तथाऽधोलोके नारकादयश्चतुर्विंशतिरिति तद्गतां चतुर्विंशतिसूत्रीं तथा तिर्यग्लोके जम्बूद्वीपादय इति तद्गतवस्तुविषयं च सूत्रचतुष्टयमाह- सोहम्मीसाणेसु णं कप्पेसु विमाणा पंचयण्णा पं० तं किन्हा जात्र सुकिडा १, सोहम्मीसाणेसु णं कप्पेसु विमाणा पंचजोयणसयाई उडूं उबत्तेणं पत्ता २, बंभलोगलंततेसु णं कप्पेसु देवाणं भवधारणिज्जसरीरंगा कोसेणं पंचरयणी उ उच्चत्तेणं पं० ३ । नेरइया णं पंचबने पंचरसे पोग्गले बंधेसु वा बंधति वा बंधिस्संति वा वं० किण्हा जाव सुकिल्ले ति जाब मधुरे, एवं जाव बेमाणिता २४ । ४ ( सू० ४६९) जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पब्वयस्स दाहिनेणं गंगा महानदी पंच महानदीओ समप्पेंति, तं जडणा सरऊ आदी कोसी मही १ । जंबूमंदरस्स दाहिणेणं सिंधुमहानदी पंच महान पुतलोपचियादि तु तेषामेव निर्विमानानामपि इति नाइतोऽपोलोकादी १ अधोलोकेऽपि ज्योतिष्कवैमानिकयोः स्वयं गमनं भवत्येव, विमानानि मा भूवन लोके इति कचिद्विद्यमानोऽपि पाठः. Far Far & Pria Use Only anthray org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~134~ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [३], मूलं [४७०] श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः प्रत ॥३५१॥ सूत्रांक [४७०] दीओ समप्यति सं०-सतडू विभासा वितत्था एरावती चंदभागा २ जंवूमदरस्स उत्तरेणं रत्तामहानई पंच महान ५ स्थाना ईओ समप्पेंति, सं0-किण्हा महाकिण्हा नीला महानीला महातीरा ३, जंबूमंदरस्स उत्तरेणं रत्तावतीमहानई पंच उद्देश ३ महानईमो समप्पेंति, सं०-इंदा इंदसेणा सुसेणा वारिसेणा महाभोया ४ (सू०४७०) पंच तित्थगरा कुमारवासमझे विमानोपसित्ता (उझावसित्ता) मुंडा जाव पन्वतिता, तं०-यासुपुजे मल्ली अरिटुनेमी पासे धीरे (सू०४७१) चमरचंचाए चताबन्धरायहाणीए पंच सभा पं० सं०-सभा सुधम्मा उववातसभा अभिसेयसभा अलंकारितसभा ववसातसभा, एगमेगे णं पुद्गलान दीसंगमः इंदहाणे गं पंच सभाओ पं०.०-सभा सुहम्मा जाव ववसातसभा (सू०४७२) पंच णक्खत्ता पंचतारा पं० २० कुमारजि--वणिवा रोहिणी पुणबसू इत्यो विसाहा (सू०४५३) जीवाणं पंचट्ठाणणिबित्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताते चि नाः सभा: जिंस वा चिणंति वा चिणिस्संति चा, तं०-एगिदितनिव्वत्तिते जाव पंचिंदितनिव्वत्तिते, एवं चिण उबविण बंध पंचतारकउदीर घेद तह णिज्जरा चेव'। पंचपतेसिता खंधा अर्णता पण्णत्ता पंचपतेसोगाढा पोग्गला अर्णता पण्णता जाव पंचगु লম্বলি णलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता (सू०४७४) पंचमट्ठाणस्स सईओ उद्देसो । पंचमजायणं समर्स ॥ पुद्गलाः सू०४६९सर्वाण्येतानि सुगमानि, नवरं 'बंधिंसुत्ति शरीरादितयेति, 'दक्षिणेने ति भरते 'समप्पेंति'त्ति समाप्नुवन्ति, 'उत्त ४७४ रेणे'ति ऐरवत इति । पूर्वतरसूत्रे भरतवक्तव्यतोक्तेति तत्प्रस्तावात्तदुत्पन्नतीर्थकरसूत्र सुगम, नवरं कुमाराणामराजभा-IM३५१॥ वेन वासः कुमारवासः तं 'अज्झावसित्त'त्ति अध्युष्येति । तथा भरतादिक्षेत्रप्रस्तावात् क्षेत्रभूतचमरचञ्चादिवक्तव्य दीप GANGA अनुक्रम [५१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~135~ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [9], उद्देशक [३], मूलं [४७४] SSSSC ताभिधायि सूत्रद्वयं । चमरचचा रत्नप्रभापृथिव्यां चमरस्यासुरकुमारराजस्येति, सुधा सभा यस्यां शय्या, उपपातसभा यस्यामुत्पद्यते, अभिषेकसभा यस्यां राज्याभिषेकेणाभिषिच्यते, अलङ्कारिका यस्यामलवियते, व्यवसायसभा यत्र पुस्तकवाचनतो व्यवसायं-तत्त्वनिश्चयं करोति, एताश्च यथाक्रममुत्तरपूर्वस्यां द्रष्टव्या इति । देवनिवासाधिकारान्नक्षत्रसूत्रं । नक्षत्रादिदेवरूपता च सत्त्वानां कर्मपुद्गलचयादेरिति चयादिसूत्रपटू । पुद्गलाश्च विविधपरिणामा इति पुद्गलसूत्राणीति, *व्याख्या च प्राग्वदध्ययनसमाप्तिं यावत्सुकरैवेति, पञ्चमस्थानकस्य तृतीयः॥ प्रत सूत्रांक [४७४] दीप अनुक्रम [५१७] ___ इति श्रीमदभयदेवाचार्यविरचिते स्थानाङ्गविवरणे पञ्चमस्थानाख्यं पञ्चममध्ययनं समाप्तमिति ॥ ग्रन्थाग्रं १६२५ ॥ CamEauratonitumational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र पंचम-स्थानस्य तृतीयो उद्देश: समाप्त:, "पंचम-स्थानं अपि समाप्तं" ~136~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) _ स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [४७५] (०३) श्रीस्थाना प्रत ॥३५२॥ सूत्रांक [४७५] ६ स्थाना० उद्देशः ३ अथ षष्ठस्थानकमध्ययनम् । गणधरणव्याख्यातं पञ्चममध्ययनमधुना सङ्ख्याक्रमसम्बद्धमेव षट्स्थानकाख्यं पष्ठमारभ्यते, अस्य चायं विशेषसम्बन्धः-इहा- गुणां निनन्तराध्ययने जीवादिपर्यायप्ररूपणा कृता इहापि सैव क्रियते इत्येवंसम्बन्धस्यास्य चतुरनुयोगद्वारस्वेदमादिसूत्रम्- माथीग्रहणं छहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति गणं धारित्तते, तं०-सड़ी पुरिसजाते १ सये पुरिसजाते २ मेहावी पुरिसजाते | बहिर्नय३ बहुस्सुते पुरिसजाते ४ सत्तिमं ५ अप्पाधिकरणे ६ (सू०४७५) छहि ठाणेदि निगगंथे निग्गथि गिण्हमाणे वा नावि अवलंबमाणे वा नाइकमइ, तं०-खित्तचित्तं दित्तचित्तं जक्खातिटुं उम्मातपत्र उवसम्मपत्तं साहिकरणं (सू० ४७६) सू०४७५छहिं ठाणेहिं निम्गंधा निग्गंधीओ य साहम्मित कालगतं समायरमाणा गाइकमंति, 0-अंतोहिंतो वा बाहिं णीणेमाणा ४७७ १ बाहीहिंतो वा निचाहिं णीणेमाणा २ उवेहमाणा वा ३ उवासमाणा वा ४ अणुन्नवेमाणा वा ५ तुसिणीते या संपवयमाणा ६ (सू०४७७) अस्य चायमभिसम्बन्धः, पूर्वसूत्रे पश्चगुणरूक्षाः पुद्गला अनन्ताः प्रज्ञप्ता' इत्युक्तं, प्रज्ञापकाचैषामर्थतोऽहंन्तः सू-13 तो गणधराः, गणधराश्च यैर्गुणैर्युकस्यानगारस्य गणधरणाहत्वं भवति तथुक्का एवेति तेषां गुणानामुपदर्शनायेदमुक्त|मित्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या, संहितादिचर्चस्तु प्रतीत एवेति, नवरं पनि स्थानैः-गुणविशेषैः 'सम्पन्नो' युक्तोऽनगारो दीप अनुक्रम [५१८] AmEautatuminumatoind पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अथ षष्ठं स्थानं आरभ्यते, अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित उद्देशकः वर्तते ~137~ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४७७] दीप अनुक्रम [५२०] Education [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [४७७] स्थान [६], उद्देशक [-], | - भिक्षुः 'अर्हति' योग्यो भवति 'गणं' गच्छं धारयितुं मर्यादायामिति गम्यते, पालयितुं वेत्यर्थः, 'सद्धि'त्ति श्रद्धावान्, अश्रद्धावतो हि स्वयममर्यादावर्त्तितया परेषां मर्यादास्थापनायामसमर्थत्वाद् गणधारणानर्हत्वं, एवं सर्वत्र भावना कार्या, 'पुरुषजातं ' पुरुषप्रकार:, इह च पह्निः स्थानैरित्युक्त्वापि यदुक्तं श्राद्धं पुरुषजातमिति तद्धर्म्मधर्मवतोरभेदाद् अन्यथा श्राद्धत्वं सत्यत्वमित्यादि वक्तव्यं स्यादिति १, तथा 'सत्यं' सन्यो- जीवेभ्यो हिततया प्रतिज्ञातशूरतया वा, एवंभूतो हि पुरुषो गणपालक आदेयश्च स्यादिति २ तथा 'मेघावि' मर्यादया धावतीत्येवंशीलमिति निरुक्तिवशात् एवंभूतो हि ग णस्य मर्यादाप्रवर्त्तको भवति, अथवा मेधा श्रुतग्रहणशकिस्तद्वत्, एवंभूतो हि श्रुतमन्यतो झगिति गृहीत्वा शिष्याध्यापने समर्थो भवतीति ३ तथा बहु-प्रभूतं श्रुतं सूत्रार्थरूपं यस्य तत्तथा, अन्यथा हि गणानुपकारी स्यात् उक्तं च -- "सीसाण कुणइ कह सो तहाविहो हंदि नाणमाईणं । अहियाहिय संपत्तिं संसारुच्छेयणं परमं ? ॥१॥" [कथं शिष्याणां परमां संसारोच्छेदिनीं ज्ञानादीनामधिकाधिकां संपत्तिं तथाविधः स करिष्यति १ ॥ २ ॥ ] तथा “कह सो जयउ अगीओ कह वा कुणड अगीय निस्साए कह वा करेउ गच्छं सबालबुट्टाउलं सो उ ॥ २ ॥” इति ४, [कथं सोऽगीतार्थो यततां कथं वाऽगीतार्थनिश्रया करोतु स बालवृद्धाकुलं गच्छं च स कथं करोतु (प्रवर्त्तयतु) १ ॥ १ ॥ ] तथा 'शक्तिमत्' शरीरमन्त्रतन्त्रपरिवारादिसामर्थ्ययुक्तं, तद्धि विविधास्वापत्सु गणस्यात्मनश्च निस्तारकं भवतीति ५, तथा 'अप्पाहिगरण "न्ति अल्पंअविद्यमानमधिकरणं स्वपक्षपरपक्षविषयो विग्रहो यस्य तत्तथा तज्यनुवर्त्तकतया गणस्याहानिकारकं भवतीति ६, ग्रन्थान्तरे स्वेवं गणिनः स्वरूपमुक्तम्- "मुत्तस्थे निम्माओ पियदढधम्मोऽणुवत्तणाकुसलो । जाईकुलसंपनो गंभीरो Far Far & Pria Use Only anthray.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~138~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [४७७] श्रीस्थाना- झसूत्रवृत्तिः प्रत ॥३५३॥ सूत्रांक [४७७] दीप अनुक्रम [५२०] लद्धिमंतो य ॥१॥ संगहुबग्गहनिरओ कयकरणो पबयणाणुरागी य । एवंविहो उ भणिओ गणसामी जिणवरिंदेहि स्थाना. ॥२॥" [सूत्रार्थे निष्णातः प्रियदृढधर्मः अनुवर्त्तनाकुशलः । जातिकुलसंपन्नो गंभीरो लब्धिमांश्च ॥१॥ संग्रहोपग्रहनिरतः कृतकरणः प्रवचनानुरागी च । एवंविध एव भणितो गणस्वामी जिनवरेन्द्रैः॥२॥] इति । अनन्तरं गण-1|गणधरणघरगुणा उक्काः, गणधरकृतमर्यादया च वर्तमानो निम्रन्थो नाज्ञामतिकामतीत्येतत् सूत्रद्वयेनाह-तत्र प्रथमं पञ्चस्था-15 गुणा नि: नके व्याख्यातमेव तथापि किश्चिदुच्यते-गृह्णन्-ग्रीवादाववलम्बयन् हस्तवस्वाञ्चलादौ गृहीत्वा नातिकामत्याज्ञामितिथीग्रहण गम्यते, क्षिप्तचित्तां शोकेन दृप्तचित्तां हर्षेण यक्षाविष्टां-देवताधिष्ठितां उन्मादप्राप्तां वातादिना उपसर्गप्राप्तां-तिर्यामनु- बहिर्नेयप्यादिना नीयमाना साधिकरणां-कलहयन्तीं ॥ पद्भिः स्थानः वक्ष्यमाणैर्निर्ग्रन्थाः-साधवो निम्रन्थ्यश्च-साध्व्यस्तथाविध-18 नादि निर्ग्रन्धाभावे मिश्राः सन्तः साधर्मिक-समानधर्मयुक्तं साधुमित्यर्थः 'समायरमाणे ति समाद्रियमाणाः साधर्मिकसू०४७५ ४७७ प्रत्यादरं कुर्वाणा: समाचरन्तो वा-उत्साटनादिव्यवहारविषयीकुर्वन्तो नातिकामन्त्याज्ञां-खीभिः सह विहारस्वाध्याया-1 वस्थानादि न कार्यमित्यादिरूपां, पुष्टालम्बनस्वादिति, अंतोहिंतो वत्ति गृहादेमध्यादहिनयन्तो वाशब्दा विकल्पार्थाः, 'बाहिहिंतो 'त्ति गृहादेवहिस्सात् निर्वहिः-अत्यन्तबहिर्बहिस्तात्तरां नयन्तः, 'उपेक्षमाणा' इति, उपेक्षा द्विविधाव्यापारोपेक्षा अव्यापारोपेक्षा च, तत्र व्यापारोपेक्षया तमुपेक्षमाणाः, तद्विषयायां छेदनबन्धनादिकायां समयप्रसिद्धक्रियायां व्याप्रियमाणा इत्यर्थः, अव्यापारोपेक्षया च मृतकस्वजनादिभिस्तं सक्रियमाणमुपेक्षमाणाः तत्रोदासीना इ-131॥३५३॥ त्यर्थः, तथा 'उवासमाण'त्ति पाठान्तरेण 'भयमाण'त्ति वा रात्रिजागरणात्तदुपासनां विदधानाः, 'उवसामेमाण'त्ति ACANCE E aton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~139~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [४७७] प्रत सूत्रांक [४७७] दीप अनुक्रम [५२०] पाठान्तरे तं क्षुद्रव्यन्तराधिष्ठितं समयप्रसिद्धविधिनोपशमयन्त इति, तथा 'अणुनवेमाण'ति तत्स्वजनादीस्तपरिष्ठापनायानुज्ञापयन्तः, 'तुसिणीए'त्ति तूष्णींभावेन संप्रवजन्तस्तसरिष्ठापनार्थमागमानुज्ञातत्वात् सर्वमिदमाज्ञातिकमाय न भवतीति । छानस्थिकश्चार्य व्यवहारःप्राय उक्त इति छद्मस्थप्रस्तावादिदमाह छ ठाणाई छउमरथे सबभावणं ण जाणति ण पासति, तंजहा-धम्मस्थिकायमधम्मत्थिकावं आवासं जीवमसरीरपतिबद्धं . परमाणुपोग्गलं सई, एताणि चेव उप्पन्ननाणदसणधरे अरहा जिणे जाव सब्वभावणं जाणति पासति ०-धम्मस्थिकासं जाव सई (सू०४७८) छहिं ठाणेहिं सव्वजीवाणं णधि इडीति वा जुतीति वा, [जसेइ वा बलेति वा वीरिएइ या पुरिसकार ] (जाब) परकमेति वा, तं0-जीवं वा अजीचं करणताते १ अजीवं वा जीवं करणताते २ एगसमएण वा दो भासातो भासित्तते ३ सयं कडं वा कम्मं वेदेमि वा मा वा वेएमि ४ परमाणुपोग्पालं वा छिदित्तए वा भिदित्तए वा अगणिकातेण वा समोदहित्तते ५ बहिता वा लोगंता गमणताते ६ (सू० १७९) छज्जीवनिकाया पं० सं०-पुढविकाइया जाब तसकाइया (सू०४८०) छ तारगहा, पं० २०-सुके बुहे बहस्सति अंगारते सनिश्चरे केतू (सू०४८१)' छब्विहा संसारसमावनगा जीवा पं० सं०-पुढविकाइया जाव तसकाइया, पुढविकाइया छगइया छआगतिता पं० वं०-पुढविकातिते पुढविकाइएसु उवबजमाणे पुढविकाइएहिंतो वा जाव तसकाइएहिंतो वा उववजेना, सो चेव णं से पुढविकातिते, पुढविकातितत्तं विपजमाणे पुढविकातितत्ताते वा जाव तसकातितसाते वा गच्छेज्जा, आउकातियावि छगतिता छागतिता, एवं चेच जाव तसकातिता (सू०४८२) छबिहा सव्वजीवा पं० त०-आमिणिबोहियणाणी Et पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~140~ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [४८३] श्रीस्थाना सूत्रवृत्ति ॥३५४॥ प्रत सूत्रांक [४८३] दीप अनुक्रम [५२६] जाब केवलणाणी अन्नाणी, अहवा छविधा सम्बजीवा पं० सं०-एगिदिया जान पंचिंदिया अणिदिया, भहवा छ- |६ स्थाना० विहा सव्वजीवा पं० सं०-ओरालियसरीरी वेउब्वियसरीरी आहारगसरीरी तेअगसरीरी कम्मगसरीरी असरीरी लाउद्देशः३ (सू०४८३) छव्यिहा तणवणस्सतिकातिता पं० त०-अम्गमीया मूलबीया पोरबीया संधवीया बीयरहा समु छद्मस्थेच्छिमा (सू०४८४) तरज्ञेयाज्ञे'छही'त्यादि, इह छद्मस्थो-विशिष्टावध्यादिविकलो न त्वकेवली, यतो यद्यपि धर्माधर्माकाशान्यशरीरं जीवं च परमावधिर्न जानाति तथापि परमाणुशब्दौ जानात्येव, रूपित्वात् तयोर, रूपिविषयत्वाचावधेरिति, एतच्च सूत्रं सविपर्ययं शक्तयः प्राग्व्याख्यातप्रायमेवेति । छद्मस्थस्य धर्मास्तिकायादिषु ज्ञानशक्तिर्नास्तीत्युक्तमधुना सर्वजीवानां येषु यथा शक्तिर्नास्ति | | निकायाः तानि तथाऽऽह-छही'त्यादि, पटसु स्थानेषु सर्वजीवानां संसारिमुक्तरूपाणां नास्ति ऋद्धिः-विभूतिः, इतीति-एवं-15 | तारग्रहाः कारा यया जीवादिरजीवादिः क्रियते, वा विकल्पे, एवं द्युतिः-प्रभा माहात्म्यमित्यर्थः, यावत्करणात् 'जसेइ वा | संसारिणः काबलेइ वा वीरिएइ वा पुरिसकारपरकमे इ वे'ति, इदं च व्याख्यातमनेकश इति न व्याख्यायते, तद्यथा-'जीव वे-18 सर्वजीवाः अग्रबी० त्यादि, जीवस्थाजीवस्य करणतायां, जीवमजीवं कर्तुमित्यर्थः१, अजीवस्य वा जीवस्य करणतायां २ 'एगसमयेण वत्ति मासू०४७८युगपद्वा द्वे भाषे सत्यासत्यादिके भाषितुमिति ३ स्वयंकृतं वा कर्म वेदयामि वा मा वा बेदयामीत्यत्रेच्छावशे वेदनेऽवे-10 ४८४ सादने वा नास्ति बलमिति प्रक्रमा, अयमभिप्रायो-न हीच्छावशतः प्राणिनां कर्मणः क्षपणाक्षपणे स्तो बाहुबलिन इव,81 अपि त्वनाभोगनिर्वत्तिते ते भवतः अन्यत्र केवलिसमुद्घातादिति अन्यथा वा भावनीयं ४ परमाणुपुदलं वा छेत्तुं वार ३५४॥ CamEauratominimational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~141~ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [४८४] प्रत सूत्रांक [४८४] दीप अनुक्रम [५२७] खड्गादिना द्विधाकृत्य भेत्तुं वा शूच्यादिना वा विधवा, छेदादी परमाणुत्वहानेः, अग्निकायेन वा समवदग्धुमिति, सूक्ष्मत्वेनादाद्यत्वात्तस्येति ५, बहिस्ताद्वा लोकान्ताद्गमनतायां ६, अलोकस्यापि लोकताऽऽपत्तेरिति ॥ जीवमजीवं ४ कर्तुमित्युक्तमतो जीवपदार्थस्यैव बहुधा प्ररूपणाय 'छजीवनिकाय'त्यादि सूत्रप्रपञ्चमाह-सुगमश्चार्य, नवरं जीवानां निकाया-राशयो जीवनिकायाः, इह च जीवनिकायानभिधाय यत् पृथिवीकायिकादिशब्दैनिकायवन्त उक्ताः तत्तेपामभेदोपदर्शनार्थ, न ह्येकान्तेन समुदायात् समुदायिनो व्यतिरिच्यन्ते, व्यतिरेकेणाप्रतीयमानत्वादिति ॥ तारकाकारा ग्रहास्तारकग्रहाः, लोके हि नव ग्रहाः प्रसिद्धाः, तत्र च चन्द्रादित्यराहणामतारकाकारत्वादन्ये पटू तथोक्ता इति, WI'सुके'त्ति शुक्रः 'बहस्सईत्ति बृहस्पतिः 'अंगारको मङ्गलः 'सनिच्छरे'त्ति शनैश्चर इति । संसारसमापनकजीवसूत्रे पृथ्वीकायिकादयो जीवतयोक्ताः पूर्वसूत्रे तु निकायत्वेनेति विशेषान्न पुनरुक्ततेति । ज्ञानिसूत्रे अज्ञानिनखिविधा मिथ्यात्वोपहतज्ञानाः । इन्द्रियसूत्रेऽनिन्द्रियाः-अपर्याप्ताः केवलिनः सिद्धाश्चेति । शरीरसूत्रे यद्यप्यन्तरगतौ काम*णशरीरिसम्भवस्तद्व्यतिरिक्तस्य तैजसशरीरिणोऽसम्भवस्तथाप्येकतराविवक्षया भेदो व्याख्यातव्यः तथा अशरीरी सिद्ध इति । तृणवनस्पतिकायिका वादरा इत्यर्थों, मूलबीजा-उपलकन्दादयः इत्यादि व्याख्यातमेव, नवरं सम्मूछिमाःदग्धभूमी बीजासत्त्वेऽपि ये तृणादय उत्पद्यन्ते । यथाधिकृताध्ययनावतारं प्ररूपिता जीवाः, अथ तेषामेव च ये पर्यायविशेषा दुर्लभास्तांस्तथैवाह छहाणाई सल्बजीवाणं णो सुलभाई भवंति, -माणुस्सए भवे १ आवरिए खित्ते जम्म २ सुकुले पचायाती ३ के Et पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~142~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [४८५] प्रत सूत्रांक [४८५] दीप अनुक्रम [५२८] श्रीस्थाना- वलिपमत्तस्स धम्मस्स सवणता ४ मुयस्स वा सदहणता ५ सदहितस्स वा पतितस्स वा रोइतरस वा सम्मं कारणं स्थाना नसूत्र फासणया ६ (सू०४८५)छ इंदियत्था पं० सं०-सोइंवियत्थे जाच फासिवियत्ये नोइंदियत्ये (सू०४८६) छ- उद्देशः३ वृत्तिः बिहे संवरे पं० सं०-सोतिदियसंवरे जाव फासिंदिवसंवरे णोइंदितसंवरे, छविहे असंवरे ५००-सोइंदिअअ दुर्लभानि संवरे जाव फासिंवितअसंवरे णोइंदितअसंवरे (सू०४८७) छविहे साते पं० त०-सोइंदियसाते जाव मोइदिय- | इन्द्रिया॥३५५॥ साते, छबिहे असाते पं० सं०-सोतिदितअसाते जाव नोइंवित्तअसाते (सू०४८८) छबिहे पायरिहत्ते पं० तं० ः संव-आलोषणारिहे पडिकमणारिहे तदुभवारि विवेगारिहे विउस्सग्गारिहे तवारिहे (सू०४८९) | रासंवरौ 'छट्ठाणाईत्यादि, षट् स्थानानि-पट् वस्तूनि सर्वजीवानां 'नो' नैव 'सुलभानि'.सुप्रापाणि भवन्ति, कृच्छलभ्यानी- | सातासाते *त्यों, न पुनरलभ्यानि, केषाश्चिज्जीवानां तल्लाभोपलम्भादिति, तद्यथा-मानुष्यको-मनुष्यसम्बन्धी भवो-जन्म स नो प्रायश्चित्तं सुलभ इति प्रक्रमः, आह च-"ननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविधष्टम् । मानुष्यं खद्योतकतडिलतावि- सू०४८५दालसितप्रतिमम् ॥१॥" इति, एवमार्य क्षेत्रे-अर्द्धपडिंशतिजनपदरूपे जन्म-उत्पत्तिः, इहाप्युक्तम्-'सत्यपि च मानु-1|| ४८९ भापत्वे दुर्लभतरमार्यभूमिसम्भवनम् । यस्मिन् धर्माचरणप्रवणत्वं प्राप्नुयात् प्राणी ॥१॥" इति, तथा सुकुले-इक्ष्वाका-II दिके प्रत्यायाति:-जन्म नो सुलभमिति, अत्राभिहितम्-"आर्यक्षेत्रोत्पत्ती सत्यामपि सत्कुलं न सुलभं स्यात् । सार-131 दाणगुणमणीनां पात्रं प्राणी भवति यत्र ॥१॥” इति, तथा केवलिप्रज्ञप्तस्य धर्मस्य श्रवणता दुर्लभा, यतोऽवाचि-6॥३५५॥ "सुलभा सुरलोयसिरी रयणायरमेहला मही सुलहा । निव्वुइसुहजणियरुई जिणवयणसुई जए दुलहा ॥१॥" इति, SAPNA Janummary: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~143~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [४८९] X प्रत सूत्रांक [४८९] दीप अनुक्रम [५३२] SIT सुरलोकश्री सुलभा रनाकरमेखला मही सुलभा । निर्वृतिसुखजनितरुचिः जिनवचन श्रुतिर्जगति दुर्लभा ॥१॥] श्रुतस्य वा श्रद्धानता दुर्लभा, उक्तं च-"आहच्च सवर्ण लढे, सद्धा परमवुलहा । सोचा नेआउयं मग्ग, बहवे परि|भस्सह ॥१॥"कदाचिच्छ्रवणं लब्ध्वा श्रद्धा परमदुलेभा । यतः बहवो भ्यायोपपन्नं मार्ग श्रुत्वाऽपि परिभ्रश्यन्ति || 6॥१॥] तथा श्रद्धितस्य वा सामान्येन प्रतीतस्य वोपपत्तिभिरथवा प्रीतिकस्य-स्वविषये उत्पादितप्रीतेः रोचितस्य वा-| चिकीर्पितस्य सम्यग् यथावत् कायेन-शरीरेण न मनोरथमात्रेणाविरतवत् स्पर्शनता-स्पर्शनमिति, यदाह-"धर्मIIपिहु सद्दईतया, दुहहया कारण फासया । इह कामगुणेसु मुच्छिया, समय गोयम! मा पमायए ॥१॥" इति,[धर्म || तु श्रद्दधतां दुर्लभा ततः कायेन सर्शनता । संसारे कामगुणेषु मूच्छितानां तन्मा समयमपि प्रमायेः गौतम || ॥१॥] मनुष्यभवादीनां च दुर्लभत्वं प्रमादादिप्रसक्तप्राणिनामेव न सर्वेषामिति, यतो मनुष्यभवमाश्रित्याभिहितम् | -"एयं पुण एवं खलु अन्नाणपमायदोसओ नेयं । जं दीहा कायठिई भणिया एगिदियाईणं ॥१॥ एसा य असइहै दोसासेषणओ धम्मवजचित्ताणं । ता धम्मे जइयवं सम्म सइ धीरपुरिसेहिं ॥२॥" ति, [एतत् पुनरेवं खलु अस कृत्प्रमाददोषतो ज्ञेयं । यद्दीर्घा कायस्थितिभणितैकेन्द्रियादीनां ॥१॥ एषा चासकृदोषासेवनतो धर्मवर्जितचितानां । तत् धर्मे यतितव्यं सम्यक् सदा धीरपुरुषैः॥२॥] मानुषत्वादीनि च सुलभानि दुर्लभानि च भवन्तीन्द्रि यार्थानां संवरे असंवरे च सति, तयोश्च सतो सातासाते स्तस्तत्क्षयश्च प्रायश्चित्ताद् भवतीतीन्द्रियानिन्द्रियसंवरा-|| स्था०६० संवरौ सातासाते प्रायश्चित्तं च प्ररूपयन् सूत्रपट्टमाह-सुगमञ्चेदं, नवरं 'छ इंदियत्यत्ति मनस आन्तरकरणत्वेन के *** CAAAAAA NCANAACtk CHEX Eco पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~144~ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [४८९] श्रीस्थानागसूत्रवृत्तिः प्रत ॥३५६॥ सूत्रांक [४८९] दीप अनुक्रम [५३२] रणत्वात् करणस्य चेन्द्रियत्वात् तन्त्रान्तररूच्या वा मनस इन्द्रियत्वात् तद्विषयस्येन्द्रियार्थत्वेन षडिन्द्रियार्था इत्युक्त, ६ स्थाना० तत्र श्रोत्रेन्द्रियादीनामा-विषयाः शब्दादयः, 'नोइंदियत्यत्ति औदारिकादित्वार्थपरिच्छेदकत्वलक्षणधर्मद्वयोपेतमिन्द्रियं तस्यौदारिकादित्वधर्मलक्षणदेशनिषेधात् नोइन्द्रिय-मनः सादृश्यार्थत्वाद्वा नोशब्दस्यार्थपरिच्छेदकत्वेनेन्द्रि- मनुष्या याणां सदृशमिति तत्सहचरमिति वा नोइन्द्रिय-मनस्तस्या?-विषयो जीवादिः नोइन्द्रियार्थ इति । श्रोत्रेन्द्रियद्वारेणी |ऋयन मनोज्ञशब्दश्रवणतो यत्सात-सुखं तच्छोडेन्द्रियसातमेवं शेषाण्यपि, तथा यदिष्टचिन्तनतस्तन्नोइन्द्रियसातमिति । आ-लद्धिमन्त मालोचनाई यद् गुरुनिवेदनया शुद्ध्यति, प्रतिक्रमणाई यत् मिथ्यादुष्कृतेन, तदुभयाह यदालोचनामिथ्यादुष्कृताभ्यो, विवे-काउत्सापणी काह यसरिष्ठापिते आधाकर्मादी शुद्ध्यति, व्युत्साह यत्कायचेष्टानिरोधतः, तपोऽई यन्निर्विकृतिकादिना तपसेति । प्राय- सुषमसुषश्चित्तस्य च मनुष्या एवं बोढार इति मनुष्याधिकारवत् 'छविहा मणुस्सा' इत्यादिसूत्रादारभ्य आ लोकस्थितिसूत्रात्दा मानरोप्रकरणमाह चत्वायुषी छव्यिहा मणुस्सगा पं० तं०-अंदीवगा धायइसंडदीवपुरच्छिमद्धगा धाततिसंडदीवपश्चत्थिमद्धगा पुक्खरवरदीवड़पुर संहननं त्थिगद्धगा पुक्खरवरदीवड़पञ्चस्थिमजगा अंतरदीवगा, अहबा छबिहा मणुस्सा पं० सं०-समुच्छिममणुस्सा ३--- संस्थान म्मभूमगा १ अकम्मभूमगा २ अंतरपीवगा ३ गम्भवतिअमणुस्सा ३-कम्मभूमिगा १ अकम्मभूमिगा २ अंतदीवगा सू०४९०. ४९५ ३ (सू० ४९०) छविहा इडीमंता मणुस्सा पं० सं०-अरहता चक्कवडी बलदेवा वासुदेवा चारणा विजाहरा । छ. विहा अणिडीमंता मणुस्सा पं० सं०-हेमवंतगा हेरन्नवंतगा हरिवंसगा रम्मगवंसगा कुरुवासिणो अंतरदीवगा (सू० ॥३५६॥ CamEauratonintimational File For पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~145~ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ४९१] दीप अनुक्रम [५३४] Educati [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [४९१] ) ४९१) छब्बा ओसप्पिणी पं० तं० सुसमसुसमा जाब दूसमदूसमा, छव्विहा ओसप्पिणी पं० तं० - दुस्समदुसमा जब सुसमसुसमा ( सू० ४९२ जंबुद्दीवे २ भरहेश्वरसु वासेसु सीताए उस्सप्पिणीते सुसममुसमाते समाए मणुया छच धणुसहस्सा उड़मुबत्तेणं हुत्या, छच अपलिओ माई परमाउं पालयित्था १, जंबुद्दीचे २ भरदेवतेसु वासे इमी ओसपिणी सुसमसुसमाते समाए एवं चैव २, जंयू० भरहेखते आगमेस्साते उस्सप्पिणीते सुसम सुसमा समाए एवं चेत्र जाव छन्द अद्धपलिओवमाई परमाउं पालतिस्संति ३, जंबुद्दीवे २ देवकुरुउत्तरकुरासु मणुया छ्धणुस्सहस्साइं उट्टं उञ्चत्तेणं पं० छच्च अद्धपलिओ माई परमाउं पार्लेति ४, एवं घायइसंडदीवपुरच्छिमद्धे चत्तारि आलावगा जाव पुक्खरवरदीवडपथच्छिमद्धे चत्तारि आलायगा (सू० ४९३ ) छविहे संघयणे पं० [सं० तिरोभणारातसंघयणे उसमणारायसंघयणे नारायसंघयणे अद्धनारायसंघयणे खीलितासंघयणे छेवट्टसंघयणे ( सू० ४९४ ) छविहे संठाणे पं० [सं० समचरंसे णग्गोहपरिमंडले साती खुजे बामणे हुंडे ( सू० ४९५ ) गतार्थं चैतत्, नवरं 'अहवा छब्बिहे'त्यत्र सम्मूर्च्छनजमनुष्यास्त्रिविधाः कर्म्मभूमिजादिभेदेन, तथा गर्भव्युत्क्रातिकास्त्रिधा तथैवेति षोढा । 'चारण'ति जङ्घाचारणा विद्याचारणाश्च, विद्याधरा-वैताढ्यादिवासिनः । 'छच्चघणुसहस्साई ति त्रीन् क्रोशानित्यर्थः, 'छच अद्धपलिओ माई'ति त्रीणि पल्योपभानीत्यर्थः । संहननं-अस्थिसञ्चयः, वक्ष्यमाणोपमानोप मेयः शक्तिविशेष इत्यन्ये, तत्र वज्रं कीलिका ऋषभः परिवेष्टनपट्टः नाराचः - उभयतो मर्कटबन्धः, यत्र द्वयोरस्नोरुभयतोमर्कटबन्धेन बद्धयोः पट्टाकृतिना तृत्तीयेनास्थ्ना परिवेष्टितयोरुपरि तदस्थित्रितयभेदि कीलिकाकारं वज्रनामक Far Far & Fran पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~146~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [४९५] प्रत सूत्रांक [४९५]] दीप अनुक्रम [५३८] श्रीस्थाना-6 मस्थि भवति तदनऋषभनाराचं प्रथम, यत्र तु कीलिका नास्ति तद् ऋषभनाराचं द्वितीयं, यत्र तूभयोमर्कटबन्ध एवं स्थाना० तनाराचं तृतीय, यत्र त्वेकतो मर्कटबन्धो द्वितीयपाधं कीलिका तदर्द्धनाराचं चतुर्थ, कीलिकाविद्धास्थिद्वयसश्चितंउद्देशः ३ वृत्तिः कीलिकाख्यं पञ्चम, अस्थिद्वयपर्यन्तस्पर्शनलक्षणां सेवामा सेवामागतमिति सेवाः षष्ठ, शक्तिविशेषपक्षे खेवंविधदा-18 मनष्या देरिव दृढत्वं संहननमिति, इह गाधे-"वजरिसभनारायं पढम बीयं च रिसभनारायं । नाराय अद्धनाराय कीलिया । ॥ ३५७॥ तहय छेवढे ॥ १॥ रिसहो य होइ पट्टो वजं पुण खीलियं वियाणाहि । उभओ मकडबंध नारायं तं बियाणाहि ॥२॥"IIद्धिमन्त वज्रषभनाराचं प्रथम द्वितीयं च ऋषभनाराचं नाराचमर्द्धनाराचं कीलिका तथा सेवाः च ॥१॥ ऋषभो भवति उत्सर्पिणी. लाच पट्टा वर्ग पुनः कीलिकां विजानीहि उभयतो मर्कटबन्धं नाराचं विजानीहि तत् ॥२॥] संस्थानं-शरीराकृतिरवय- | सुषमसुष वरचनामिका, तत्र समा:-शरीरलक्षणोक्तप्रमाणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽस्रयो यस्य तत् समचतुरस्र, अनिस्त्विह चतुर्दि- मानरोविभागोपलक्षिताः शरीरावयवास्ततश्च सर्वेऽप्यषयवाः शरीरलक्षणोकप्रमाणाव्यभिचारिणो यस्य न तु न्यूनाधिकप्रमा-3 | चत्वायुषी णास्तत्तुल्यं समचतुरनं, तथा न्यग्रोधवपरिमण्डलं न्यग्रोधपरिमण्डलं, यथा न्यग्रोध उपरि सम्पूर्णावयवः अधस्तनभागे | संहननं पुनर्न तथा तथेदमपि नाभेरुपरि विस्तरबहुलं शरीरलक्षणोक्तप्रमाणभाग अधस्तु हीनाधिकप्रमाणमिति, तथा 'सादी'ति | संस्थान आदिरिहोत्सेधाख्यो नाभेरधस्तनो देहभागो गृह्यते तेनादिना शरीरलक्षणोक्तप्रमाणभाजा सह वत्तेते यत्तत् सादि, स-नहसू०४९०वमेव हि शरीरमविशिष्टेनादिना सह वर्सत इति विशेषणान्यथानुपपत्तेरिह विशिष्टता लभ्यते, अतः सादि-उत्सेधबहुलं | परिपूर्णोत्सेधमित्यर्थः, 'खुजेत्ति अधस्तनकायमड, इहाधस्तनकायशब्देन पादपाणिशिरोग्रीवमुच्यते तदू यत्र शरीरलक्ष ॥३५७ SAMACAREASAX ४९५ सघबहुला पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~147~ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४९५ ] दीप अनुक्रम [ ५३८ ] Education) [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-], मूलं [ ४९५] स्थान [६], णोकप्रमाणव्यभिचारि यत्पुनः शेषं तद्यथोक्तप्रमाणे तत्कुब्जमिति, 'वामण'सि मडहकोष्ठं यत्र हि पाणिपादशिरोमीचं यथोक्तप्रमाणोपेतं यत्पुनः शेषं कोष्ठं तन्मदर्भ-न्यूनाधिकप्रमाणं तद्वामनं, 'हुंडे'ति सर्वत्रासंस्थितं यस्य हि प्रायेणैको|ऽप्यवयवः शरीरलक्षणोक्तप्रमाणेन न संवदति तत्सर्वत्रासंस्थितं हुंडमिति, उक्तं च- "तुलं १ वित्थरबहुलं २ उस्सेहवहुलं च ३ मडहको च ४ । हेट्ठिलकायमडहं ५ सम्वत्थासंठियं हुंडं ॥ १ ॥” इति, [तुल्यं १ विस्तारबहुले २ उत्सेधनहुलं ३ मडभकोष्ठं च ४ अधस्तनकायमडभं ५ सर्वत्रासंस्थितं हुंडं ६ ॥ १॥ ] इह गाथायां सूत्रो कक्रमापेक्षया चतुर्थपञ्चमयोर्व्यत्ययो दृश्यत इति । छठाणा अणत्तवओ अहिताते असुभाते अखमाते अनीसेसाए अणाणुगामियत्ताते भवति, तं० परिवाते परिताले सुते तवे लाभे पूतासकारे, छट्टाणा अन्तवतो दिवाते जाव आणुगामियत्ताते भवंति तं परिता परिताले जाव पूतासारे (सू ४९६) छबिदा जाइआरिया मणुस्सा पं० [सं० अंबट्टा य करूंदा य, वेदेहा वेदिगाविता । हरिता चुंचुणा वेव, छप्पेता इन्भजातिओ ॥ १ ॥ छविधा कुलारिता मणुस्सा पं० सं० डग्गा भोगा राइना इक्खाया जाता कोरख्वा (सूत्रं ४९७ ) छबिधा लोगट्टिती पं० सं० आगासपतिठिते वाए वायपतिट्ठिए उदही उदधिपतिद्विता पुढवी पुढविपट्टिया तसा थावरा पाणा अजीवा जीवपट्टिया जीवा कम्मपतिडिया (सू० ४९८ ) 'अणत्तवओ'त्ति अकषायो ह्यात्मा आत्मा भवति स्वस्वरूपावस्थितत्वात्तद्वान्न भवति यः सोऽनात्मवान् सकपाय इत्यर्थः, तस्य 'अहिताय' अपथ्याय 'अशुभाय पापाय असुखाय वा दुःखाय 'अक्षमाय' असङ्गतत्वाय अ Far Portal & Privas Use Only anthray org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~148~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [४९८ ] गाथा |||| दीप अनुक्रम [५४९ ५४३] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [ ४९८ ] + गाथा - १ श्रीस्थाना ङ्गसूत्र ॥ ३५८ ॥ क्षान्त्यै वा 'अनिःश्रेयसाय' अकल्याणाय 'अननुगामिकत्वाय' अशुभानुबन्धाय भवन्ति, मानकारणतयैहिकामुष्मिका- ४ ६ स्थाना० पायजनकत्वादिति, 'पर्यायो' जन्मकालः प्रव्रज्याकालो वा, स च महानेव मानकारणं भवतीति महानिति विशेषणं उद्देशः ३ वृति: ४ द्रष्टव्यं, अथवा गृहस्थापेक्षया अल्पोऽपि प्रव्रज्यापर्यायी मानहेतुरेवेति, तत्र जन्मपर्यायो महानहिताय, यथा बाहुब- ४ आत्मानालिनः, एवमन्येऽपि यथासम्भवं वाच्याः, नवरं 'परियाले त्ति परिवारः शिष्यादिः 'श्रुतं' पूर्वगतादि, उक्तं च- “जह से त्मवन्तौ जह बहुस्सुओ संमओ य सीसगणसंपरिवुडो य । अविणिच्छिओ य समए तह तह सिद्धंतपडिणीओ ॥ १ ॥” इति जातिकु[यथा यथा बहुश्रुतः संमतश्च शिष्यगणसंपरिवृतश्च । अविनिश्चितश्च समये तथा तथा सिद्धान्तप्रत्यनीकः ॥ १ ॥] ४ लायः लो| तपः-अनशनादि लाभोऽनादीनां पूजा-स्तवादिरूपा तत्पूर्वकः सरकारो - वस्त्राभ्यर्चनं पूजायां वा आदरः पूजासत्कार इति । जातिः - मातृकः पक्षः तथा आर्या:-अपापा निर्दोषा जात्यार्याः विशुद्धमातृका इत्यर्थः, अंबट्ठेत्याद्यनुष्टुप्प्रतिकृतिः, षडप्येता इभ्यजातय इति, इभमर्हन्तीतीभ्याः, यद्रव्यस्तूपान्तरित उच्छ्रितकदलिकादण्डो हस्ती न दृश्यते ते इभ्या इति श्रुतिः, तेषां जातय इभ्यजातयस्ता एता इति, कुलं पैतृकः पक्षः, उम्रा आदिराजेनारक्षकत्वेन ये व्यवस्थापितास्तद्वंश्याश्च ये तु गुरुत्वेन ते भोगास्तद्वंश्याश्च ये तु वयस्यतयाऽऽचरितास्ते राजन्यास्तद्वंश्याश्च इक्ष्वाकवः प्रथमप्रजापतिवं| राजाः ज्ञाताः कुरवश्च महावीरशान्ति जिनपूर्वजाः, अथवैते लोकरूढितो ज्ञेयाः । इयं च जातिकुलार्यादिका लोकस्थितिरिति लोकस्थितिप्रत्यासत्त्या तामेवाह - 'छन्विहेत्यादि, इदं पूर्वमेव व्याख्यातं, नवरमजीवा - औदारिका दिपुद्गलास्ते | जीवेषु प्रतिष्ठिताः- आश्रिताः, इदं चानवधारणं बोद्धव्यं, जीवविरहेणापि बहुतराणामजीवानामवस्थानात् पृथिवीविरह कस्थितिः सू० ४९६४९८ For Prasa ॥ ३५८ ॥ ~149~ anithay.org पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ६ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [४९८] प्रत सूत्रांक [४९८] तोऽपि त्रसस्थावरवदिति, तथा जीवा:-कर्मसु ज्ञानावरणादिषु प्रतिष्ठिताः, प्रायस्तद्विरहितानां तेषामभाषादिति । अनन्तरं कर्मप्रतिष्ठिता जीवा उक्ताः, तेषां च दिक्ष्वेव गत्यादयो भवन्तीति दिशस्तासु गत्यादींश्च प्ररूपयन्नाह छदिसाओ पं० सं०-पातीणा पडीणा वाहिणा उतीणा उड्डा अधा, कहिं दिसाहिं जीवाणं गती पवत्तति, सं०-पाणाते जाव अधाते १ एवमागई २ वर्कती ३ आहारे ४ वुड़ी ५ निबुड़ी ६ विगुष्यणा ७ गतिपरिताते ८ समुपाते ९ कालसंजोगे १० दसणाभिगमे ११ णाणामिगमे १२ जीवाभिगमे १३ अजीवाभिगमे १४, एवं पंचिदियतिरिक्खजोणिवाणवि मणुस्साणवि (सू०४९९) छहिं ठाणेहि समणे निगंथे आहारमाहारमाणे णातिकमति, तंयणवेवायचे ईरिवटाए य संजभट्टाए । तह पाणवत्तियाए लट्ठ पुण धम्मचिंताए ॥१|| छहिं ठाणेहि समणे निगथे आहारं योछिदमाणे णातिक्रमति, त०-आतंके उवसग्गे तितिक्षणे बंभचेरगुत्तीते। पाणियातवहे सरीरखुल्छेयणढाए ॥१॥' (सू०५००) 'छदिसाओ' इत्यादि सूत्रकदम्बक, इदं च त्रिस्थानक एवं व्याख्यातं, तथापि किश्चिदुच्यते-प्राचीना-पूर्वा प्रतीचीना-पश्चिमा दक्षिणा-प्रतीता उदीचीना-उत्तरा ऊर्द्धमधश्चेति प्रतीते, विदिशो न दिशो विदित्वादेवेति पडेवोक्ता, अथवा एभिरेव जीवानां वक्ष्यमाणा गतिप्रभृतयः पदार्थाः प्रायः प्रवर्तन्ते, पदस्थानकानुरोधेन वा विदिशो न विव|क्षिता इति षडेव दिश उक्ता इति । पद्भिर्दिग्भिर्जीवानां गतिः-उत्पत्तिस्थानगमनं प्रवर्तते, अनुश्रेणिगमनात्तेषामित्येवमेतानि चतुर्दश सूत्राणि नेयानि, नवरं गतिरागतिश्च प्रज्ञापकस्थानापेक्षिण्यौ प्रसिद्धे एव, व्युत्क्रान्ति:-उसत्तिस्थानप्रा १ रुचकतिदिगपेक्षयाऽप्रवृत्तावपि प्रधापकादिविदिगपेक्षया गयादीनां प्रातः षट्स्थानकेल्यादि. दीप अनुक्रम [५४३] Et पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: -~150 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५००] + गाथा प्रत सूत्रांक [५००] णानि गाथा श्रीस्थाना स्योसादः, साऽपि ऋजुगतौ पट्स्वेव दिक्षु, तथा आहारः प्रतीतः, सोऽपि षट्स्वेव दिक्षु, एतद्व्यवस्थितप्रदेशावगाढपु-| स्थाना० सालानामेव जीवन स्पर्शनात् स्पृष्टानामेव चाहरणादिति, एवं पदिक्ता यथासम्भवं वृद्ध्यादिष्वष्योति, तथा वृद्धिः शरी-18 देश:३ वृत्तिः रस्य निवृद्धिः-हानिस्तस्यैव विकुर्वणा-वैक्रियकरणं गतिपर्यायो-मनमात्रं न परलोकगमनरूपः तस्य गत्यामतिग्रहणेन दिशातद्ग गृहीतत्वादिति, समुद्घातो-वेदनादिकः सप्तविधः कालसंयोगः-समयक्षेत्रमध्ये आदित्यादिप्रकाशसम्बन्धलक्षणः, 'द-12 त्यादि आ॥३५९॥ ॥र्शन' सामान्यग्राही बोधः, तच्चेह गुणप्रत्ययावध्यादि प्रत्यक्षरूपं तेनाभिगमो-वस्तुनः परिच्छेदस्ताप्तिर्चा दर्शनाभि-18|| हारानापर गमः, एवं ज्ञानाभिगमोऽपि, जीवाभिगमः-सत्त्वाधिगमो गुणप्रत्ययावध्यादिप्रत्यक्षता, अजीवाभिगमः-पुद्गलास्तिकाया- हारकार यधिगमः, सोऽपि तथैवेति, 'एवं मिति यथा 'छहिं दिसाहिं जीवाणं गई पवत्तईत्यादिसूत्राण्युक्तानि एवं चतुर्विंशति-12 दण्डकचिन्तायां 'पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं छहिं दिसाहिं गई'त्यादीन्यपि वाच्यानि, तथा मनुष्यसूत्राण्यपि, शेषेषु सू०४९९नारकादिपदेषु षट्सु दिक्षु गत्यादीनां सामस्त्येनासम्भवः, तथाहि-नारकादीनां द्वाविंशतेजींचविशेषाणां नारकदेवेषूसा- ५०० दाभावादधिोदिशोर्विवक्षया गत्यागत्योरभावः, तथा दर्शनज्ञानजीवाजीवाभिगमा गुणप्रत्ययावधिलक्षणप्रत्यक्षरूपा ना सभवन्त्येव तेषां, भवप्रत्ययावधिपक्षे तु नारकज्योतिष्कास्तिर्यगवधयो भवनपतिव्यन्तरा ऊर्ध्वावधयो वैमानिकास्त्वघो-टू ऽषधयः शेषा निरवधय एवेति भावना, "विवक्षाप्रधानानि च प्रायोऽन्यत्रापि सूत्राणी'ति । अनन्तरसूत्रे मनुष्याणामजीवाधिगम उक्त इति मनुष्यप्रत्यासत्या संयतमनुष्याणामाहारग्रहणाग्रहणकारणानि सूत्रद्वयेनाह-छहीं'स्यादि कण्ठ्यं ॥३५९ ॥ १ गुणप्रत्यय एव ग्राह्यो बाच्याच पञ्चेन्द्रियतिबदनराः न च प्रायो भवप्रत्ययो न बाच्याच देवनारका इस्यत्र को नियम इत्याइ विवक्षेत्यादि. दीप अनुक्रम [५४४-५४८] aili Fit For पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~151~ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५०० ] + गाथा दीप अनुक्रम [५४४ -५४८] Education [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-], मूलं [५०० ] स्थान [६], नवरमाहारं-अशनादि कमाहारयन्- अभ्यवहरन्नातिक्रामत्याज्ञा, पुष्टकारणत्वाद्, अन्यथा त्वतिक्रामत्येव, राणादिभाषात्, तद्यथा- 'बेषण' माहा, वेदना च क्षुद्वेदना वैयावृत्त्वं च- आचार्यादिकृत्यकरणं वेदनावैयावृत्त्यं तत्र विषये भुञ्जीत, वेदनोपशमनार्थ वैयावृत्यकरणार्थ चेति भावः, ईर्ष्या - गमनं तस्या विशुद्धिर्युगमात्र निहितदृष्टित्वमीर्याविशुद्धिस्तस्यै इदमीर्याविशुद्ध्यर्थ, इह च विशुद्धिशन्दलोपादीर्यार्थमित्युक्तं, बुभुक्षितो हीर्याशुद्धावशकः स्यादिति तदर्थमिति, चः समुचये, संयमः- मेक्षोत्प्रेक्षाप्रमार्जनादिलक्षणः तदर्थ, 'तथे 'ति कारणान्तरसमुच्चये, प्राणाः-उच्छ्रासादयो वलं वा प्राणस्तेषां तस्य | वा वृत्तिः पालनं तदर्थं प्राणसंधारणार्थमित्यर्थः, पठं पुनः कारणं धर्मचिन्ताये गुणनानुप्रेक्षार्थमित्यर्थः इत्येतानि षट्टा| रणानीति, अत्र भाष्यगाथे- "नत्थि तुहाए सरिसा विवणा भुंजिजा तयसमणद्वा । छाजो ( बुभुक्षितः वेयावचं न तरह कार्ड अओ भुंजे ॥ १ ॥ इरियं न व सोहेर जहोव च संजमं काउं । थामो वा परिहायइ गुणणुप्पेहासु य असत्तो ॥ २॥ त्ति, [ नास्ति क्षुधा सदृशी वेदना भुञ्जीत तत्प्रशमनार्थम् । बुभुक्षितः वैयावृत्त्यं न शक्नोति कर्त्तुं अतो भुञ्जीत ॥१॥ ईर्ष्या न च शोधयति यथोपदिष्टं च संयमं कर्त्तुं (न शक्तः) । बलं परिहीयते गुणनानुप्रेक्षयोरशक्तश्च ||२|| 'वोदिमाणे 'ति परित्यजन् आतङ्के-ज्वरादावुपसर्गे - राजस्वजनादिजनिते प्रतिकूलानुकूलस्वभावे तितिक्षणे- अधिसहने कस्याः श्रह्मचर्यगुतेः-मैथुनत्रत संरक्षणस्य, आहारत्यागिनो हि ब्रह्मचर्ये सुरक्षितं स्यादिति, प्राणिदया च-संपातिमत्रसादिसंरक्षणं तपः- चतुर्थादि पण्मासान्तं प्राणिदयातपस्तच तद्धेतुश्च प्राणिदयातपोहेतुस्तस्मात् प्राणिदयातपोहेतोर्दयादिनिमित्तमित्यर्थः तथा शरीरव्यवच्छेदार्थ-देहत्यागाय आहारं व्यवच्छिन्दन्नातिक्रामत्याज्ञामिति प्रक्रमः इह गाथे Far Far & Private पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~152~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५०० ] + गाथा दीप अनुक्रम [५४४ -५४८] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [ ६ ], उद्देशक [-], मूलं [५०० ] सूत्र श्रीस्थाना-४ “आर्यको जरमाई राया सन्नायगा य उवसग्गे । बंभवयपालणा पाणिदया वासमहियाई ॥ १ ॥ तबहेउ चतुत्थाई ४ ६ स्थाना० जाव य छम्मासिओ तवो होइ। छहं सरीरवोच्छेयणट्टया होअणाहारो ॥ २ ॥” इति [ आतको ज्वरादिः राजा सज्ञा- उद्देशः ३ वृत्तिः * तीयाश्चोपसर्गे । ब्रह्मव्रतपालनार्थ प्राणिदया वर्षामहिकादेः ॥ १ ॥ तपोहेतुः चतुर्थादि यावच्च षाण्मासिकं तपो भवति । ॐ षष्ठं शरीरब्युच्छेदनार्थं भवत्यनाहारः ॥ २ ॥ ] अनन्तरं श्रमणस्याहाराग्रहणकारणान्यभिहितानीति श्रमणादेर्जीवस्यानु- ४ प्रमादाः ॥ ३६० ॥ चितकारिण उन्मादस्थानान्याह - उन्मादाः [सू०५०१ ५०२ हिं ठाणेहिं आया उम्मायं पाडणेजा, तं० अरहंताणमवण्णं वमाणे १ भरतपन्नचस्त धम्मस्स अवनं वदमाणे २ आयरियडवण्झायाणमवन्नं वदमाणे ३ चाम्यन्नस्स संघee अवनं बदमाणे ४ अक्खावेसेण चैव ५ मोहणिज्जरस चैव कम्मस्स उद ६ ( सू० ५०१) छबिहे पमाते पं० [सं० मजपमाए णिपमाते विसयपमाते कसायपमाते जूतपमाते पडिलेहणापमाए (सू० ५०२ ) 'छही' त्यादि इदं च सूत्रं पश्ञ्चस्थानक एव व्याख्यातप्रायं, नवरं पतिः स्थानैरात्मा - जीवः उन्मादं उन्मत्ततां प्राप्नुयात्, उन्मादश्च महामिथ्यात्वलक्षणस्तीर्थकरादीनामवर्ण वदतो भवत्येव तीर्थकराद्यवर्णवदनकुपितप्रवचनदेवतातो वा असौ ग्रहणरूपो भवेदिति पाठान्तरेण 'उम्मायपमायन्ति उन्मादः सग्रहत्वं स एव प्रमादः प्रमत्तत्वं आभोगशून्यतोन्मादप्रमादः, अथवोन्मादश्च प्रमादश्च अहितप्रवृत्तिहिताप्रवृत्ती उन्मादप्रमादं प्राप्नुयादिति, 'अबन्नं'ति अवर्ण- २ ॥ ३६० ॥ अश्लाघामवज्ञां वा वदन् व्रजन् वा-कुर्वन्नित्यर्थः, 'धम्मस्स' त्ति श्रुतस्य चारित्रस्य वा, आचार्योपाध्यायानां च चतुर्थ Educato For Prasa पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ६ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~153~ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५०२] दीप अनुक्रम [५५० ] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [ ६ ], उद्देशक [-], मूलं [५०२ ] र्णस्य - श्रमणादिभेदेन चतुष्प्रकारस्य, यक्षावेशेन चैव निमित्तान्तर कुपित देवाधिष्ठतत्वेन, मोहनीयस्य - मिथ्यात्ववेदशीकादेरुदयेनेति । उन्मादसहचरः प्रमाद इति तमाह — 'छव्विहे 'त्यादि, पद्विधः षट्कारः प्रमदनं प्रमादः प्रमत्तता | सदुपयोगाभाव इत्यर्थः, प्रज्ञप्तः, तद्यथा-मद्यं सुरादि तदेव प्रमादकारणत्वात् प्रमादो मद्यप्रमादो, यत आह-- “चि | तभ्रान्तिर्जायते मद्यपानाश्चित्ते भ्रान्ते पापचर्यामुपैति । पापं कृत्वा दुर्गतिं यान्ति मूढास्तस्मान्मद्यं नैव देयं न पेयम् ॥ १ ॥” इति, एवं सर्वत्र, नवरं निद्रा प्रतीता तद्दोषश्चायं - "निद्राशीलो न श्रुतं नापि वित्तं लब्धुं शक्तो हीयते चैष ताभ्याम् । ज्ञानद्रव्याभावतो दुःखभागी, लोकद्वैते स्यादतो निद्रयाऽलम् ॥ १ ॥” इति, विषयाः शब्दादयस्तेषां चैवं प्रमादता--" विषयव्याकुलचित्तो हितमहितं वा न वेत्ति जन्तुरयम् । तस्मादनुचितचारी चरति चिरं दुःखकान्तारे ॥ १ ॥” कषायाः - को धादयस्तेषामप्येवं प्रमादता - "चित्तरत्नम सक्ङ्किष्टमान्तरं धनमुच्यते । यस्य तन्मुषितं दोषैस्तस्य शिष्टा विपत्तयः ॥ १ ॥” इति द्यूतं प्रतीतं तदपि प्रमाद एव, यतः-- "यूतासक्तस्य सच्चित्तं धनं कामाः सुचेष्टितम् । नश्यन्त्येव परं शीर्ष, नामापि च विनश्यति ॥ १ ॥" तथा प्रत्युपेक्षणं प्रत्युपेक्षणा, सा च द्रव्यक्षेत्र कालभावभेदाच्चतुर्धा, तत्र द्रव्यप्रत्युपेक्षणा वस्त्रपात्राद्युपकरणानामशनपानाद्याहाराणां च चक्षुर्निरीक्षणरूपा, क्षेत्रप्रत्युपेक्षणा कायोत्सर्गनिषदनशयनस्थानस्य स्थण्डिलानां मार्गस्य विहारक्षेत्रस्य च निरूपणा, कालप्रत्युपेक्षणा उचितानुष्ठान करणार्थं कालविशेवस्य पर्यालोचना, भावप्रत्युपेक्षणा धर्म्मजागरिकादिरूपा, यथा- “किं कय किं वा सेसं किं करणिजं तवं च न करेमि । पुव्वावरत्तकाले जागरओ भावपडिलेहणा ॥ १ ॥” इति, तत्र प्रत्युपेक्षणायां प्रमादः - शैथिल्यमाज्ञाऽतिक्रमो वा प्रत्यु Far Fara & Pras Use Only पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] ~154~ anthray.org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५०२] स्थाना. प्रत सूत्रांक [५०२] दीप अनुक्रम [५५० श्रीस्थाना-पक्षणाप्रमादः, अनेन च प्रमार्जनाभिक्षाचर्यादिषु इच्छाकारमिथ्याकारादिषु च दशविधसामाचारीरूपव्यापारेषु या प्र ङ्गसूत्र- मादोऽसाबुपलक्षितः, तस्यापि सामाचारीगतत्वेन षष्ठप्रमादलक्षणाच्यभिचारित्वादिति । अनन्तरं प्रत्युपेक्षाप्रमाद उक्त, वृत्तिः अथ तामेव तद्विशिष्टामाह॥३६१॥ छविधा पमाषपडिलेहणा पं०२०-आरभडा संमदा बजेयन्वा य मोसली ततिता। पाफोडणा चडली पक्खिसा बेतिया छट्ठी ॥१॥ छव्विहा अपमायपडिलेहणा पं० त०-अणञ्चावितं अवलितं अणाणुबंधि अमोसलिं व । छरपुरिमा नव खोडा पाणी पाणविसोहणी ॥२॥ (सू०५०३) छ लेसाओ पं० सं०-कण्हलेसा जाव मुकलेसा, पंधिदियतिरिक्खजोणिया छ लेसाओ पं० २०-कण्हलेसा जाव सुकलेसा, एवं मणुस्सदेवाणवि (सू० ५०४) सकस्स णं देविंदस्स देवरम्रो सोमस्स महारत्नो छ अम्मामहिसीतो पं०, सकस्स णं देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महारो छ अमामहिसीओ पं० (सू० ५०५) ईसाणस्स णं देविंदस्स मजिामपरिसाए देवाणं छ पलिओवमाई ठिती पं० (सू०५०६) छपिसिकुमारिमहतरितातो पं० सं०-रूता रुतंसा सुरूका रूपवती रूपकता रूतपमा, छ विनुकुमारिमहत्तरितातो पं० सं०-आळा सका सतेरा सोतामणी इंदा पणविजया (सू०५०७) धरणस्स णं नागकुमारिवस्स नागकुमाररनो छ अगमहिसीभो पं० सं०-आला सका सतेरा सोतामणी इंदा घणविजुया । भूताणवस्स णं नागकुमारिदस्स नागमाररमो छ अम्गमहिसीओ, पं० सं०-रुवा रूसा सुरूषा रूपवती रूवकता रूपमा, जघा धरणस्स तथा सम्वेसिं ACANCE धरणाद्यग्रमहिष्य: सू०५०३ ५०८ ॥३६१॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~155~ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५०८] प्रत 5-455 25645-45 सूत्रांक [५०८] दीप अनुक्रम [५५९] दाहिणिलाणं जाव घोसस्स, जघा भूताणदस्स तथा सब्वेसिं उत्तरिहाणं जाव महाघोसस्स (सू०५०८) धरणस्स णं नागकुमारिदस्स नागकुमाररनो छस्सामाणियसाहस्सीओ पणत्तातो, एवं भूताणदस्सवि जाव महापोसस्स (सू०५०९) 'छन्वि'त्यादि, पड्डिधा-पडूभेदा प्रमादेन-उक्तलक्षणेन प्रत्युपेक्षा प्रमादप्रत्युपेक्षा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-'आरभड'गाहा, आरभटा-वितथकरणरूपा, अथवा त्वरितं सर्वमारभमाणस्य, अथवा अर्द्धप्रत्युपेक्षित एवैकत्र यदन्यान्यवस्खग्रहणं सा आरभटा, सा च वर्जनीया सदोषत्वादिति सर्वत्र सम्बन्धनीयमिति, सम्मी -यत्र वस्त्रस्य मध्यप्रदेशे संवलिता कोणा भवन्ति, यत्र वा प्रत्युपेक्षणीयोपधिवेण्टिकायामेवोपविश्य प्रत्युपेक्षते सा सम्मति, मोसली प्रत्युपेक्ष्यमाणवखभागेन तिर्यगूलमधो वा घट्टनरूपा 'तइय'त्ति तृतीया प्रमादप्रत्युपेक्षणेति, क्वचिद् 'अट्ठाणढवणा यत्ति दृश्यते, तत्र गुर्ववग्रहादिके अस्थाने प्रत्युपेक्षितोपधेः स्थापनं-निक्षेपोऽस्थानस्थापना, प्रस्फोटना-प्रकर्षेण धूननं रेणुगुण्डितस्येव वस्त्रस्येति, इयं च चतुर्थी, 'विक्खित्त'त्ति वस्त्रं प्रत्युपेक्ष्य ततोऽन्यत्र यमनिकादौ प्रक्षिपति यद् अथवा वस्त्राञ्चलादीनां यदूर्वक्षेपण सा विक्षिप्तोच्यते ५, 'वेड्य'त्ति वेदिका पञ्चप्रकारा, तत्र ऊपवेदिका यत्र जानुनोरुपरि हस्ती कृत्वा प्रत्युपेक्षते १ अधोवेदिका जानुनोरधो हस्तौ निवेश्य २, एवं तिर्यग्वेदिका जानुनोः पावतो हस्तौ नीत्वा ३, द्विधावेदिका बाह्वोरन्तरे द्वे अपि जानुनी कृत्वा ४, एकतोवेदिका एक जानु बाहोरन्तरे कृत्वेति ५ षष्ठी प्रमादप्रत्युपेक्षति प्रक्रमा, इह गाथे-"वितहकरणमि तुरियं अन्नं अन्नं च गिण्ह आरभडा । अंतो व होज कोणा निसियण तत्थेव सं-18 महा ॥१॥ गुरुउग्गहादठाणं पष्फोडण रेणुगुंडिए चेव । विक्खेवं तु क्खेवो घेइथपणगं च छद्दोसा ॥२॥" इति । -40% 0 3 Eco File For पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~156~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५०९ ] दीप अनुक्रम [५६०] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्ति: ॥ ३६२ ॥ वितथकरणे त्वरितं अन्योऽन्यग्रहणे आरभटा कोणा वस्त्रान्तः भवेयुस्तत्र निषीदनं वा संमर्दा ॥ १ ॥ गुर्वग्रहादौ अस्थानं रेणुगुंडितस्येच प्रस्फोटना विक्षेपस्तूत्क्षेपो यवनिकादौ वेदिकापंचकं च पर दोषाः ॥ २ ॥ ] उक्तविपरीतां प्रत्युपेक्षणामेवाह - 'छन्विहे 'त्यादि, षड़िधा अप्रमादेन - प्रमादविपर्ययेण प्रत्युपेक्षणा अप्रमादप्रत्युपेक्षणा प्रशप्ता, तद्यथा- 'अ४ णबाविगाहा, वस्त्रमात्मा वा न नर्त्तितं-न नृत्यदिव कृतं यत्र तदनर्त्तितं प्रत्युपेक्षणं, वस्त्रं नर्त्तयत्यात्मानं वेत्येषमिह * चत्वारो भङ्गाः १ तथा वस्त्रं शरीरं वा न वलितं कृतं यत्र तदवलितमिहापि तथैव चतुर्भङ्गी २ तथा न विद्यतेऽनुबन्धः - सातत्यप्रस्फोटकादीनां यत्र तदननुबन्धि, इत्समासान्तो दृश्यः, नानुबन्धि अननुबन्धीति वा ३ तथा न विद्यते मो|सली उकलक्षणा यत्र तदमोसलि ४ 'छप्पुरमा नव खोड' त्ति तत्र वस्त्रे प्रसारिते क्षति चक्षुषा निरूप्य तदवग्भागं तत्परावर्त्य निरूप्य च त्रयः पुरिमाः कर्त्तव्याः, प्रस्फोटका इत्यर्थः, तथा तत्परावर्त्य चक्षुषा निरूप्य च पुनरपरे त्रयः पुरिमा एवमेते पद्, तथा नव खोटका ते च त्रयस्त्रयः प्रमार्जनानां त्रयेण त्रयेणान्तरिताः कार्या इति, पदद्वयेनापि पञ्चमी अप्रमादप्रत्युपेक्षणोक्का, पुरिमखोटकानां सदृशत्वादिति, तथा पाणे:-हस्तस्योपरि प्राणानां प्राणिनां कुन्थ्वादीनामित्यर्थः 'विसोहणि'त्ति विशोधना प्रभार्जना प्रत्युपेक्ष्यमाणवस्त्रेणैव कार्या नवैव वाराः, उक्तन्यायेन खोटकान्तरितेति षष्ठी अप्रमादप्रत्युपेक्षणेति, इह गाधे - "बत्थे अप्पाणमि य चउहा अणञ्चावियं अवलियं च । अणुबंधि निरंतरया तिरिउगृहघट्टणा मुसली ॥ १ ॥ छप्पुरिमा तिरियकए नव खोडा तिन्नि तिन्नि अंतरिया । ते पुण वियाणि- १ यव्वा हृत्थंमि पमज्जणतिएणं ॥ २ ॥ " [ वस्त्रे आत्मनि चानर्चितं अवलितं च चतुर्धा अनुबंधिता निरंतरता तिर्य [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ५०९ ] स्थान [ ६ ], उद्देशक [-], an Educato Far Forras Un पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ६ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 157 ~ ६ स्थाना० उद्देशः ३ प्रमादाम मादप्रतिलेखनाः लेस्याः श *सोमय माग्रमहिव्यः ईशानमध्यपर्ष रिस्थतिः धरणाद्य ग्रमहिष्यः सू० ५०९ ॥ ३६२ ॥ [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५०९] प्रत गूर्वाधोघटना मोसलिः॥१॥ तिर्यकृताः षट् पुरिमा त्रिज्यंतरिता नव स्फोटकाः ते पुनर्विज्ञातव्या हस्ते प्रमार्जनात्रिकेण ॥१॥] इयं च प्रमादाप्रमादप्रत्युपेक्षा लेश्याविशेषतो भवतीति लेश्यासू, लेश्याधिकारादेष पोन्द्रियतिर्यग-10 मनुष्यदेवलेश्यासूत्राणि, देवप्रत्यासत्त्या सकेत्यादिकान्यग्रमहिप्यादिसूत्राणि चावग्रहमतिसूत्रादग्विीनि, कण्ठ्यानि च नवरं देवानां जात्यपेक्षया अवस्थितरूपाः षट् लेश्या अवगम्तव्या इति । अनन्तरं देवरकन्यतोक्का, रेवाश्च भषप्रत्ययादेव विशिष्टमतिमन्तो भवन्तीति मतिभेदान् सूत्रचतुष्टयेनाह बिहा पग्गहमती पं००-खिप्पमोगिण्हति बहुमोगिण्हति बहुषिधोगिण्हति धुषमोगिण्डति अणिस्सिवमोगिण्या असंदिवमोगिहा । छव्विहा ईहामती पं० सं०-खिप्पमीइति बहुमीहति जाव असंविद्यमीहति । छविधा अवागमती पं० त०-खिपमवेति जाब असंविखं अवेति, छविधा धारणा पं० ०-बहुं धारेर बहुविहं पारेर पोराणं धारेति दुद्धरं धारेति अणिस्सितं धारेति असंदिद्धं धारेति (सू०५१०) 'छव्विहा उग्गहे'त्यादि मतिः-आभिनिबोधिक, सा चतुर्विधा, अषप्रहेदापायधारणाभेदात्, तनावग्रहः प्रधर्म सामान्यार्थग्रहणं तद्रूपा मतिरवग्रहमतिः, श्यं च द्विविधा-व्यञ्जनावग्रहमतिरावग्रहमतिश्च, तनावग्रहमतिर्दियानिश्चयतो व्यवहारतश्च, तत्र व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालमेकसामयिकी प्रथमा, द्वितीया त्वम्समुहर्सप्रमाणा अवाधरूपा अपिडू सा ईहापाययोरुत्तरयोः कारणत्वादवग्रहमतिरित्युपचारितेति, यत आह-"सामन्नमेत्तगहणं नेच्छामो समयमोग्गहो पढमो । ततोऽणतरमीहियवस्थुविसेसस्स जोऽवाओ॥१॥ सो पुण बहाषायावेक्लाउ अघग्गहोत्ति उपपरिमो। SAKSSSS सूत्रांक [५०९] दीप अनुक्रम [५६०] Eaton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~158~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५१०] श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः ॥३६॥ प्रत सूत्रांक [५१०] एस विसेसावेक्खं सामन्नं गेहए जेण ॥२॥ तत्तोऽणंतरमीहा तत्तोऽवाओ य तब्बिसेसस्स । इय सामनविसेसा द६ स्थाना० वेक्खा जातिमो भेओ ॥ ३॥ सम्वत्थेहावाया निच्छयओ मोत्तुमाइ सामन्नं । संववहारत्थं पुण सम्वत्थावग्गहोवाओ | उद्देशः३ ॥४॥ तरतमजोगाभावेऽवाउब्धिय धारणा तदंतमि । सब्वत्थ वासणा पुण भणिया कालंतरसइत्ति ॥५॥" [सामा-18 क्षिप्राद्या न्यमात्रग्रहणमवग्रहः प्रथमो नैश्चयिकः समयं ततोऽनन्तरमीहितवस्तुविशेषस्य योऽपायः॥१॥ स पुनरीहापायापेक्ष ताहापाचापअवग्रहायाऽवग्रह इत्युपचरितः येनैप विशेषापेक्षया सामान्यं गृह्णाति ॥२॥ ततोऽनन्तरमीहा ततोऽपायस्तद्विशेषस्य एवं सामा-1 दिभेदाः न्यविशेषापेक्षया (ज्ञेयं) यावदन्तिमो भेदः ॥२॥ आदिसामान्य मुक्त्वा निश्चयतः सर्वत्रेहापायौ संव्यवहारार्थं पुनः अपायः[8 . सर्वत्रावग्रहः॥४॥ तरतमयोगाभावेऽपाय एव तदन्ते च धारणा सर्वत्र पुनः कालान्तरस्मृतिर्वासनेति भणिता ॥५॥ तत्र व्यवहारावग्रहमतिमाश्रित्य प्रायः पदिधत्वं व्याख्येयमिति, तद्यथा-क्षिप्रमवगृह्णाति-तूल्यादिस्पी क्षयोपशमपटु-12 त्वादचिरेणैव वेत्ति मतिस्तद्विशिष्टः पुरुषो वेति, 'बहुति शय्यायां छुपविशन्पुमांस्तत्रस्थयोपित्पुष्पचन्दनवखादिस्पर्श बहु-भिन्नजातीयं सन्तमेकैक भेदेनावबुध्यते अयं योषित्स्पर्श इत्यादि, 'बहुविहंति बहधो विधा-भेदा यस्य स बहुविधस्तं, योपिदादिस्पर्शमेकैकं शीतस्निग्धमृदुकठिनादिरूपमवगृह्णातीति, 'धुवंति धुवमत्यन्तं सर्वदेत्यर्थः, यदा यदा अस्य तेन स्पर्शन योषिदादिना योगो भवति तदा तदा तमवच्छिनत्तीत्यर्थः, एतदुक्तं भवति-सतीन्द्रिये सति चोपयोगे यदाऽसौ विषयः स्पृष्टो भवति तदा तमवगृहात्येवेति, 'अणिस्सिय'ति निश्रितो-लिङ्गप्रमितोऽभिधीयते, यथा ।। यूथिकाकुसुमानामत्यन्तं शीतमृदुस्निग्धादिरूपः प्राक् स्पर्शोऽनुभूतः तेनानुमानेन-लिङ्गेन तं विषयमपरिच्छिन्दत् यदा दीप अनुक्रम [५६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~159~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५१०] प्रत सूत्रांक [५१०] +CEROSSASR950:50RRESS है ज्ञान प्रवर्तते तदा अनिश्रितमलिङ्गमवगृह्णातीत्यभिधीयते, 'असंदिद्धति असंदिग्ध-निश्चितं सकलसंशयादिदोषरहित मिति, यथा तमेव योषिदादिस्पर्शमवगृहत् योषित एवायं चन्दनस्यैवायमित्येवमवगृह्णातीति । एवमीहापायधारणाम-12 तीनां पड़िधत्वं, नवरं धारणायां क्षिप्रधुवपदे परित्यज्य पुराणदुर्द्धरपदाभ्यां सह पडिधत्वमुक्त, तत्र च पुराण-बहु-18 कालीनं दुर्द्धरं-ाहनं चित्रादीनि, क्षिप्रबहुबहुविधादिपदषविपर्ययेणापि पद्विधा अवग्रहादिमतिर्भवतीति मतिभेदानामष्टाविंशतेद्वादशभिर्गुणनात् त्रीणि शतानि पत्रिंशदधिकानि भवन्ति, अभाणि च भाष्यकारेण-"जंबहु १ बहुविह ४/२ खिप्पा २ अणिस्सिय ४ निच्छिय ५ धुवे ६ यर १२ विभिन्ना । पुणरोग्गहादओ तो तं छत्तीसत्तिसयभेदं ॥१॥" इति, "नानासइसमूह बहुं पिहं मुणइ भिन्नजाइयं १ । बहुविहमणेगभेदं एकेकं निद्धमहुरादि २॥२॥ खिप्पमचिरेण ३ तं चिय.सरूवओज अनिस्सियमलिंग ४ । निच्छयमसंसयं जं ५ धुवमच्चंतं न उ कयाइ ६॥३॥ एतो चिय पडि-IN ४ वक्खं साहेजा निस्सिए विसेसो वा । परधम्मेहि विमिस्स निस्सियमविनिस्सियं इयरं ॥४॥" इति । “बहुबहुविध| क्षिप्रानिनितनिश्चितध्रुवेतरविभिन्ना यत्पुनरवग्रहादयोऽतस्तत्पत्रिंशदधिकत्रिशतभेदं ॥१॥ नानाशब्दसमूहं बहु पृथर जानाति भिन्नजातीयं । बहुविधमनेकभेदं स्निग्धमधुराधेकैकं ॥२॥ क्षिप्रमचिरेण तदेव अनिश्रितमलिंग निश्चितं यदसंशयं ध्रुवमत्यन्तं न तु कदाचित् ॥ ३॥ एतावत एव प्रतिपक्षान साधयेत् निश्रिते च विशेषः परधमैर्विमिदं निश्रितमविनिश्रितमितरत् ॥४॥" इह भावना-अक्षिप्रं चिरेण निश्रितं लिङ्गात् अनिश्रितं सन्दिग्धं अनुवं कदाचित् अथवा निश्रितानिश्रितयोरयमपरो विशेषः-निश्रितं गृह्णाति गवादिकमर्थं सारङ्गादिधर्मविशिष्टमवगृह्णाति दीप अनुक्रम [५६१] Eco पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~160 ~ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५१०] प्रत सूत्रांक [५१०] श्रीस्थाना- अनिश्रितं गोधमैरेव विशिष्टं गृह्णाति, यदिह न स्पृष्ट तत्स्सष्टमेवेति । अनन्तरं मतिरुका सद्विशेषवन्तश्च पसन्दीति स्थाना० सूत्र- तपोऽभिधानाय सूत्रद्वयम् उद्देशः३ वृत्तिः छबिहे बाहिरते तवे पं० सं०-अणसणं ओमोदरिया मिक्खातरिता रसपरिचाते कायकिलेसो परिसलीनता । छवि बाह्यान्तअभंतरिते तवे पं० तं०-पायच्छित्तं विणओ वेयावर्ष सहेव समाओ झाणं विउस्सग्गो (सू०५११) छबिहे वि. रतपसी ॥३६४॥ वादे पं० सं०-ओसकातित्ता उस्सकइत्ता अणुलोमइसा पडिलोमतिचा भइत्ता भेलतित्ता (सू०५१२) विवादाः 'एन्विहे'त्यादि गतार्थमेतत् तथापि किञ्चिदच्यते, 'बाहिरए तवेत्ति बाह्यमित्यासेव्यमानस्य लौकिकैरपि तपक्षपासू०५११ज्ञायमानत्वात् प्रायो बहिः शरीरस्य तापकत्वाद्वा तपति-दुनोति शरीरकर्माणि यत्तसप इति, तत्रानशन-अभोजनमा-II ५१२ हारत्याग इत्यर्थः, तद् द्विधा-इत्वरं यावत्कथिकं च, तत्रेवरं चतुर्थादि षण्मासान्तमिदं तीर्थमाश्रित्येति, यावत्काधिक छात्वाजन्मभावि त्रिधा-पादपोपगमनेजितमरणभक्तपरिज्ञाभेदादिति, एतच्च प्राग्व्याख्यातमिति १, 'मोमोयरियाति - [वम-ऊनमुदरं-जठरं अवमोदरं तस्य करणमवमोदरिकेति, सा च द्रव्यत उपकरणभकपानविषया प्रतीता, मावतस्तु कोधादित्याग इति ३, तथा भिक्षार्थं पर्या-चरणमटन भिक्षाचर्या सैव तपो निर्जराकरवादनशनवत् अथवा सामान्यीपादानेऽपि विशिष्टा विचित्राभिग्रहयुक्तत्वेन वृत्तिसङ्ग्रेपरूपा सा ग्राह्या, यत इहैव वक्ष्यति-'छब्बिहा गोयरचरिवाति, M ॥३६४॥ मान चेयं ततोऽत्यन्तभिनेति, भिक्षाचर्यायां चाभिग्रहा द्रव्यादिविषयतया चतुर्विधाः, तत्र द्रव्यतोऽलेपकाचांचव द्रव्य ग्रहीष्ये, क्षेत्रतः परग्रामगृहपञ्चकादिलब्धं, कालतः पूर्वाहादी, भावतो गानादिप्रवृत्तालग्यमिति ३, रसा-बीरादयस्त दीप अनुक्रम [५६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~161~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५१२] प्रत सूत्रांक [५१२] दीप अनुक्रम [५६३] सरित्यागो रस परित्यागः४,कायलेना-दारीरक्वेशनं स च वीरासनादिरनेकधा ५, प्रतिसंलीनता-गुप्तता, सा चेन्द्रि&यकषाययोगविषया विविक्तशयनासनता वेति । 'अभितरए सि लौकिकैरमभिलक्ष्यत्वात् तन्त्रास्तरीयैश्च परमार्थ तोऽनासेव्यमानत्वाम्मोक्षप्रात्पन्तरकत्वाचाभ्यन्तरमिति, प्रायश्चि-उक्तनियंचनमालोचनादि वाविषमिति १, विनी-1 यते कर्म बेन स विनयः, उप-"जम्हा विणयइ कर्म अविहं चाउरतमोक्खाए । सम्हा र वयंति विऊ विणयंति विलीणसंसारा॥१॥" इति, [यस्मात् विनयति कर्म अष्टविधं चातुरन्तमोक्षाय । तस्मातु वदन्ति विद्वांसो विनय Pइति विठीनसंसारा-केवलिनः॥१॥] सच ज्ञानादिभेदात् सप्तधा वक्ष्यते २ तथा व्यावृत्तभावो पैयावृत्त्यं धर्मसा-1 धनार्थेमन्नादिदानमित्यर्थः, आह च-'वेयावच्चं वावडभावो इह थम्मसाहणणिमित्तं । अण्णाझ्याण विहिणा संपायणमे-1x &ास भावत्यो ॥१॥" इति, [वैयावृत्यं व्यापृतभाव इह धर्मसाधननिमितं । अन्नादिकानां संपादनमेष भावार्थः॥mlt तथ दसधा-"आयरिय उवज्झाए थेरतवस्सीगिलाणसेहाणं । साहमियकुलगणसंघसंगर्य तमिह कायवं ॥१॥" इति ४३[आचार्योपाध्यायस्थविरतपस्विग्लानशैक्षाणां । साधर्मिककुलगणसंघानां संगतं तदिह कर्तव्यं ॥१॥] सुष्टु आ-18 & मर्यादया अध्यायः-अध्ययनं स्वाध्यायः, स च पञ्चधा-वाचना प्रच्छना परावर्तना अनुप्रेक्षा धर्मकथा ति ४,ध्या तिर्थानं एकाग्रचिन्तानिरोधस्तचतुर्दा प्राग् व्याख्यात, तत्र धर्मशक्के एव तपसी निर्जरार्थत्वात् नेतरे बन्धहेतुवादिति 12 ५५, व्युत्सगे:-परित्यागः, स च द्विधा-द्रव्यतो भावतच, तत्र द्रव्यतो गणशरीरोपध्याहारविषयः, भावतस्तु क्रोधादि-18 सै विषय इतिहाएते च तपासूत्रे दशकालिकाद्विशेषतोऽवसेवे इति । अनन्तरोदितार्थेषु विवदते कश्चिदिति विवादस्व-परे। SSSSSS-325% ER पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~162~ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५१२] श्रीस्थाना- सूत्र 16 वृत्तिः ॥३६५॥ प्रत सूत्रांक [५१२] दीप अनुक्रम [५६३] रूपमाह-'छविहे'त्यादि, षड्विधः-पझेदो विप्रतिपन्नयोः कचिदर्थे वादो-जल्पो विवादः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'ओस- 11 स्थाना. कइत्त'त्ति अवष्यष्क्य-अपस्त्यावसरलाभाय कालहरणं कृत्वा यो विधीयते स तथोच्यते, एवं सर्वत्र, कचिच्च 'ओस- | उद्देशः३ कावइत्तत्ति पाठस्तत्र प्रतिपन्धिनं केनापि व्याजेनापसl-अपसृतं कृत्वा पुनरवसरमवाप्य विवदते, 'ओसकइत्त'त्ति क्षुद्राः गोउत्ष्यष्क्य उत्सृत्य लम्धावसरतयोत्सुकीभूय 'उस्सकावइत्त'त्ति पाठान्तरे परमुत्सुकीकृत्य लब्धावसरो जयार्थी विवदते, चरचर्या तथा 'अणुलोमहत्त'त्ति विवादाध्यक्षान् सामनीत्याऽनुलोमान् कृत्वा प्रतिपन्धिनमेव वा पूर्व तत्पक्षाभ्युपगमेनानुलोमं अपकान्तकृत्वा 'पडिलोमइत्ता' प्रतिलोमान् कृत्वा अध्यक्षान् प्रतिपन्धिनं वा, सर्वथा सामर्थे सतीति, तथा भइस'त्ति अध्य- निरयाः क्षान् भक्त्वा-संसेव्य, तथा 'भेलहत्त'त्ति स्वपक्षपातिभिर्मिश्रान् कारणिकान् कृत्वेति भावः कचित्तु 'भेषइत्त'त्ति परतावासू०५१३पाठः तत्र भेदयित्वा केनाप्युपायेन प्रतिपन्धिनं प्रति कारणिकान् द्वेषिणो विधाय स्वपक्षग्राहिणो वेति भावः। विवाद ५१५ च कृत्वा ततोऽप्रतिक्रान्ताः केचित् क्षुद्रसत्त्वेपूसद्यन्त इति तान्निरूपयन्नाह छविहा खुड्डा पाणा पं० त०-वेदिता तेइंदिता चउरिदिता संमुच्छिमपंचिंदिततिरिक्खजोणिता तेउकातिता बाउकातिता (सू० ५१३) छविधा गोयरचरिता ५००-पेडा अद्धपेडा गोमुत्तिता पतंगविहिता संबुफावडा गपचागता (सू० ५१४) जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पब्वयस्स य दाहिणेणमिमीसे रतणप्पभाते पुढवीए छ अवकतमहानिरता पं० तं०-लोले लोलुए उड़े निदड़े जरते पजरते, चउत्थीए णं पंकप्पभाए पुढवीते छ अवकता महानिरता पं० तं ॥३६५॥ आरे वारे मारे रोरे रोरुते खाडखडे (सू०५१५) * -* -* BANEautatus Fit For m पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~163~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५१५] प्रत सूत्रांक [५१५] दीप अनुक्रम [५६६] 'छब्बिहे त्यादि सुगम, परमिह क्षुद्राः-अधमाः, यदाह-"अल्पमधमं पणखीं क्रूरं सरघां नटी च षट् क्षुद्रान् । युवते" दति , अधमत्वं च विकलेन्द्रियतेजोवायूनामनन्तरभवे सिद्धिगमनाभावाद्, यत उक्तम्-'भूदगपंकप्पभवा चउरोह रिया उ छच्च सिज्ञज्जा । विगला लभेज विरई नउ किंचि लभेज सुहुमतसा ॥१॥"[भूदकपङ्कप्रभवाश्चत्वारः वनअसतेः षट् सिद्ध्यन्ति । विकला लभन्ते विरतिं नतु किमपि सूक्ष्मत्रसाः॥१॥] (सूक्ष्मत्रसाः तेजोवायू इति तथा एतेषु द्र देवानुत्पत्तेश्च, यत उक्तम्-"पुढवीआउवणस्सइगन्भे पजत्तसंखजीवीसु । सग्गचुयाण बासो सेसा पडिसेहिया ठाणार Nu१॥" इति [पृथ्व्यबनस्पतिगर्भजपर्याप्तसङ्खबजीविषु स्वर्गच्युतानां वासः शेषाणि स्थानानि प्रतिषेधितानि ॥१॥ 18 सम्मूच्छिमपश्चेन्द्रियतिरश्चां चाधमत्वं तेषु देवानुसत्तेः, तथा पञ्चेन्द्रियत्वेऽप्यमनस्कतया विवेकाभावेन निर्गुणत्वा दिति, वाचनान्तरे तु सिंहाः व्याघ्रा वृका दीपिका ऋक्षास्तरक्षा इति क्षुद्रा उक्ता क्रूरा इत्यर्थः । अनन्तरं सत्त्वविशेषा उक्ताः, सत्त्वानां चानपायतः साधुना भिक्षाचर्या कार्येति, सा च पोढेति दर्शयन्नाह-छविहे'त्यादि, 'गोयरचरि यत्ति गो:-बलीवईस्य चरण-चरः गोचरस्तद्वद्या चर्या-चरणं सा गोचरचर्या, इदमुक्तं भवति-यथा गोरुच्चनीचतराणेष्वविशेषतश्चरणं प्रवत्तते तथा यत्साधोररक्तद्विष्टस्योच्चनीचमध्यमकुलेषु धर्मसाधनदेहपरिपालनाय भिक्षार्थं चरणं सा गोचरचर्येति, इयं चैकस्वरूपाऽप्यभिग्रहविशेषात् पोढा, तत्र प्रथमा पेटा-वंशदलमयं वस्त्रादिस्थानं जनप्रतीतं, सा लाच चतुरस्त्रा भवति, स्थापना ततश्च साधुरभिग्रहविशेषाद्यस्यां चर्यायां प्रामादिक्षेत्रं पेटावचतुरस्रं विभजन्विहरति सा151 र पेटेत्युच्यते, एवमर्द्धपेटाऽपि एतदनुसारेण वाच्या, गोमूत्रणं गोमूत्रिका तद्वद्या सा तथा, इयं हि परस्पराभिमुखगृह FACAKACACASSACANCCASEX Eco File For पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~164~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५१५] प्रत सूत्रांक भीखाना- पाचोरेकस्यां मत्या पुनरितरस्यां पुनस्तस्यामेवेत्येवं क्रमेण भावनीया, पतङ्गः-शलभस्तस्य वीथिका-मार्गः तद्वधा सा स्थाना. असूत्र- स्था, पतङ्गगतिहिं अनियतकमा भवति एवं याऽनाश्रितकमा सा तथा, 'संबुकवहति सबुक वास्तद्वच्छ- उद्देश:३ मानमिवदित्यों या वृत्ता सा संबुलवृत्तेति, इयं च द्वेधा, तत्र यस्यां क्षेत्रबहिर्भागाच्छववृत्तत्वगत्वाऽटन क्षेत्र- क्षुद्राः गो. ॥१६॥ समध्यमागमायाति साऽभ्यन्तरसंबुक्का, यस्यां तु मध्यभागाद् बहियोति सा बहिःसम्युकेति, 'गंतुं पश्चागयति उपा- चरचयों याशिर्गतः सन्नेकस्यां गृहपकौ भिक्षमाणः क्षेत्रपर्यन्तं गत्वा प्रत्यागच्छन् पुनर्द्वितीयायां गृहपको यस्यां मिक्षते | अपकान्तसा गत्वाप्रत्यागता, गत्वा प्रत्यागतं यस्यामिति च विग्रह इति । अनन्तरं साधुचयोंकेति योप्रस्तावादसाधु- निरया: चर्याफलभोक्तस्थानविशेषाभिधानाय सूत्रद्वयं-'जंबूद्दी'त्यादि सुगर्म, नवरं 'अवत'त्ति अपक्रान्ता सर्वतुभ- सू०५१३मावेभ्योऽपगता-भ्रष्टास्तदन्येभ्योऽतिनिकृष्टा इत्यर्थः, अपकान्ता वा-अकमनीया, सर्वेऽप्येवमेव नरकार, विशे-ट पतश्चैते इति दर्शनार्थं विशेषणमिति सम्भाव्यते, ते च ते महानरकाश्चेति विग्रहः, एतेषां चैवं प्ररूपणा-"तेरि-1 ४ कारस भव सत्त पंच तिन्नेव होंति एको य । पत्थडसक्ला एसा सत्तसुवि कमेण पुढवीसु॥१॥"[प्रयोदशैकादश नव सप्त पंच यो भवति एक एव सप्तस्वपि पृथ्वीषु क्रमेणैषा प्रस्तटसध्या ॥१॥] एवमेकोनपश्चाशवासटा, एतेषु क्रमेणैतावन्त एव सीमन्तकादयो वृत्ताकारा नरकेन्द्रकाः, तत्र सीमन्तकस्य पूर्वोदिदिक्षु एकोनपश्चाशयमाणा नरका-10 वली विदिक्षु चाष्टचत्वारिंशत्रमाणेति प्रतिप्रस्तटमुभयैकैकहान्या सप्तम्यां दिश्वकैक एव विदिक्षु न सन्त्येवेति, उर्फ४॥३६६॥ च-"एगणुवन्ननिरया सेढी सीमंतगस्स पुग्वेणं । उत्तरओ अवरेण य दाहिणओ चेव बोजव्या ॥१॥ अडयोली [५१५] दीप अनुक्रम [५६६] 95%सक ५१५ File Form a t wtanmay पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~165~ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५१५] दीप अनुक्रम [५६६ ] [ भाग - 6] "स्थान" स्थान [६], Can Education intimational - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-], मूलं [५१५] सं निरया सेढी सीमंतगस्स बोद्धव्वा । पुम्वुत्तरेण नियमा एवं सेसासु विदिसासु ॥ २ ॥ एकेको य दिसासुं मन्झे निरओ भवेऽपइट्टाणो । विदिसानिश्यविरहियं तं पयरं पंचगं जाण ॥ ३ ॥” [ एकोनपंचाशभिरयाणां श्रेणिः सीमन्तकस्य पूर्वस्यां उत्तरस्यामपरस्यां दक्षिणतश्च बोद्धव्या ॥ १ ॥ सीमन्तकस्य पूर्वोत्तरस्यां अष्टचत्वारिंशतो नरकाणां श्रेणिनियमाद् बोद्धव्या एवं शेषास्वपि विदिशासु ॥ २ ॥ दिश्वेकैको मध्ये व अप्रतिष्ठानो निरयवासो भवेत् विर्दिनरकविरहितं तत्प्रस्तरं पंचमयं जानीहि ॥ ३ ॥ ] सीमन्तकस्य च पूर्वादिषु दिक्षु सीमन्तकप्रभादयों नरका भवन्ति, तदुक्तम्"सीमंतकप्पभो खलु निरओ सीमंतगस्स पुच्वेण । सीमंतगमज्झिमओ उत्तरपासें मुणेयब्वो ॥ १ ॥ सीमंतावतो पुण निरओ सीमंतगस्स अवरेणं । सीमंतगावसिद्धो दाहिणपासे मुणेयच्वो ॥ २ ॥” इति [ सीमन्तकप्रभः खलु निरयः सीमन्तकस्य पूर्वस्यां सीमन्तकमध्यमः उसरपार्श्वे ज्ञातव्यः ॥ १ ॥ सीमन्तावर्त्तः पुमेनिरयः सौमन्तकस्थापरस्यां सीमन्तकावशिष्टो दक्षिणपार्श्वे ज्ञातव्यः ॥ २ ॥ ] ततः पूर्वादिषु चतसृषु दिक्षु सीमन्तकापेक्षया तृतीयादयः प्रत्येकमावलिकासु क्लियादयो नरका भवन्तीति, एवं चैते लोलादयः पडप्यावलिकागतानां मध्ये अंधता विमाननरकेन्द्रकास्ये ग्रन्थे, यतसत्रोक्तम्- "लोले तह लोलुए चेच" इति [ ठोलसथा लोलुपश्चैव ] एती चावलिकायाः पर्यन्तमी तथा 'उद्वे चैव निद्दद्दे'ति [ उद्दग्धश्चैव निर्दग्धः ] एतौ सीमन्तकप्रभाद्विंशतितमेकविंशाविति, तथा 'जर तह पजरए'ति [जरकस्तथैव प्रजरकः ] पञ्चत्रिंशत्तमपटूत्रिंशत्तमी, केवढं लोलो लोप इत्येवं शुद्धपदैः सर्वनरकाणां पूर्वावलिकायामेवाभिलापः, उत्तरदिगाद्यावलिकासु पुनरेभिरेव सविशेषैर्नामभिर्नरका अभिलप्यन्ते, तद्यथा-उत्तरायां Far Far & Private पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~166~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५१५] श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः ॥३६७॥ प्रत सूत्रांक लोलमध्यो लोलुपमध्य इत्यादि, एवं पश्चिमायां लोलावतों दक्षिणाया लोलावशिष्ट इत्यादि, उक्तं च-“मज्झा उत्तर- स्थाना पासे आवत्ता अवरओ मुणेयवा । सिट्ठा दाहिणपासे पुचिल्लाओ विभइयचा ॥१॥" इति, [उत्तरपार्थे लोलमध्या | उद्देशः३ अपरस्यां लोलावतः ज्ञातव्याः दक्षिणपाचे लोलशिष्टाः पूर्वदिका विभक्तव्याः॥१॥] इह तु दक्षिणानामेषां विवक्षि- विमानप्रतत्वेन लोलावशिष्ट इत्यादिवक्तव्येऽपि सामान्याभिधानमेव निबिशेष विवक्षितमिति सम्भाव्यते । 'चउत्थीए'त्ति पङ्क- स्तटाः पूप्रभायां अपकान्ता अपकान्ता वेत्यादि तथैव, इह च सप्त प्रस्तटाः सप्तव नरकेन्द्रकाः, यथोक्तम्-"आरे मारे नारे I |वभागातत्थे तमए य होइ बोद्धव्ये । खाडखडे य खडखडे इंदयनिरया चउत्थीए ॥२॥ इति, [आरो मारो नारस्तानः || दीनि नतमस्कश्च भवति बोद्धव्यः । खाडखडश्च खंडखडः इंद्रकनिरयाश्चतुर्थ्यां ॥१॥] तदेवं आरा मारा खाडखडा नरके पद न्द्रकाः, अन्ये तु वाररोररोरुकाख्यात्यः प्रकीर्णकाः, अथवा इन्द्रका एव नामान्तरैरुक्ता इति सम्भाव्यत इति । अ-IN सू०५१६नन्तरमसाधुचयोफलभोत्कृस्थानान्युक्कानीतश्च साधुचर्याफलभोक्तस्थानविशेषानाह ५१७ चंभलोगे णं कप्पे छ विमाणपत्थडा पं० २०-अरते विरते णीरते निम्मले वितिमिरे विसुद्धे (सू० ५१६) चंदस्स ण जोतिसिंदस्स जोतिसरनो छ णक्खता पुन्बभागा समखेत्ता तीसतिमुहुत्ता पं० सं०-पुव्वाभवया कत्तिता महा पुच्चाफग्गुणी मूलो पुब्बासाढा । चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिसरण्णो छ णक्खत्ता णतंभागा अवडक्वेत्ता पन्नरसमुहुत्ता पं० सं०-सयभिसता भरणी अद्दा अस्सेसा साती जेवा । चंदस्स णं जोइसिंदस्स जोतिसरनो छ नक्वत्ता उभयभागा ॥३६७॥ विवड्खेत्ता पणयालीसमुहुत्ता पं० त०-रोहिणी पुणब्यसू उत्तराफग्गुणी विसाहा उत्तरासाढा उत्तराभवया (सू० ५१७) | क्षत्राणि [५१५] दीप अनुक्रम [५६६] wjanuman पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~167~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५१७] प्रत सूत्रांक [५१७] दीप अनुक्रम [५६८] 'बभेत्यादि, 'बभलोएत्ति पञ्चमदेवलोके पडेव विमानप्रस्तटाः प्रज्ञप्ता, आह च-"तेरसई बारसछ ५ पंच चेव ६ चत्तारि ७८ च उसु कप्पेसु । गेवेजेसु तिय तिय ३-३-३ एगोय अणुत्तरेसु १ भवे ॥१॥" ति, [त्रयोदश द्वादश षट् ५ पंच ६ चैव चत्वारः ७-८- चतुर्ष कल्पेषु ग्रैवेयकेषु त्रयस्त्रयः एकश्चानुत्तरेषु भवेत् ॥१॥] १३-१२-६-५-१६-९-१-सर्वेऽपि ६२, तद्यथा-अरजा इत्यादि सुगममेवेति । अनन्तरं विमानवक्तव्यतोक्तेति तत्प्रस्तावानक्षत्रविमानवक्तव्यता सूत्रत्रयेणाह-'चंदस्से त्यादि व्यक्तं, नवरं 'पुवंभाग'त्ति पूर्वमिति-पूर्वभागेनाग्रेणेत्यर्थों भज्यन्ते अप्राप्तेनैव चन्द्रेण सेव्यन्ते-युज्यन्ते इतियावदिति पूर्वभागानि, अनुस्वारश्च प्राकृतत्वादिति, चन्द्रस्यानयोगीनि, चन्द्र एतान्यप्राप्तो भुङ्क्ते इति लोकनीमोक्का भावनेति, उक्तं च तत्रैव-"पुव्वा तिन्नि य मूलो मह कित्तिय अग्गिमा जोगा" द इति, [त्रीणि च पूर्वाणि मूलं मघा कृत्तिका एतान्यग्रिमयोगानि] 'सम' स्थूलन्यायमाश्रित्य त्रिंशन्मुहर्तभोग्य क्षेत्र-आका शदेशलक्षणं येषां तानि समक्षेत्राणि, अत एवाह-त्रिंशन्मुहर्तानि' त्रिंशतं मुहर्तीश्चन्द्रभोगो येषां तानि तथा, 'णतंभाग'त्ति नक्तंभागानि चन्द्रस्य समयोगीनीत्यर्थः, उक्त च-"अद्दाऽसेसा साई सयभिसमभिई य जेट्ट समजो गा" [आोऽश्लेषा खातिः शतभिषक् अभिजित् ज्येष्ठा समयोगानि ॥] केवलं भरणीस्थाने लोकश्रीसूत्रे अभिजितुक्ते. |ति मतविशेषो दृश्यत इति, अपार्द्ध-समक्षेत्रापेक्षया अर्द्धमेव क्षेत्रं येषां तानि तथा, अर्द्धक्षेत्रत्वमेवाह-'पंचदशमुहता. नीति, 'उभयभाग'त्ति चन्द्रेणोभयतः-उभयभागाभ्यां पूर्वतः पश्चाच्चैत्यों भज्यन्ते-भुज्यन्ते यानि तान्युभयभागानि, चन्द्रस्य पूर्वतः पृष्ठतश्च भोगमुपगच्छन्तीत्यर्थः इति भावना लोकश्रीभणितेति, उक्कं च-"उत्तरतिन्नि विसाहा पुणव्वसू स्था०६२ E aton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~168~ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५१७] श्रीस्थानाइसूत्र RABHA ॥३६८॥ पूज्यच प्रत सूत्रांक [५१७] दीप अनुक्रम [५६८] रोहिणी उभयजोगा॥” इति, [त्रीण्युत्तराणि विशाखा पुनर्वसू रोहिणी उभययोगानि ॥] द्वितीयमपार्द्ध यत्र तत् व्यपार्द्ध स्थाना. सार्द्धमित्यर्थः, क्षेत्रं येषा तानि तथा, यतः पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तानीति, अन्यानि दश पश्चिमयोगानि, पूर्वभागादिनक्षत्राणां || उद्देशः ३ गुणोऽयं,-'उक्तक्रमण नक्षत्रैयुज्यमानस्तु चन्द्रमाः । सुभिक्षकृद्विपरीतं युज्यमानोऽन्यथा भवेत् ॥१॥ इति । अनन्तरं अभिचचन्द्रव्यतिकर उक्त इति किश्चिच्छब्दसाम्यात्तद्वर्णसाम्याद्वा अभिचन्द्रकुलकरसूत्रं, तद्वंशजन्मसम्बन्धादरतसूत्रं पार्श्व-न्द्रःभरतः नाथसूत्रं च, जिनसाधाद्वासुपूज्यसूत्रं चन्द्रप्रभसूत्रं चाह पार्थवासुअभिधंदे णं कुलकरे छ घणुसयाई उई उच्चत्तेणं हुत्था (सू० ५१८) भरहे थे राया पारंतवकवट्ठी छ पुग्यसत. सहस्साई महाराया हुस्था (सू. ५१९) पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणियस्स छ सता वादीणं सदेवमणुयासुराते परि- भन्द्रप्रभाः साते अपराजियाणं संपया होत्था । वासुपुजे णं अरहा छहि पुरिससतेहिं सद्धिं मुंढे जाव पब्वाइते । चंदप्प णं अरहा त्रीन्द्रिय छम्मासे छउमस्थे हुत्था (सू० ५२०) तेतिदियाणं जीवाणं असमारभमाणस्स छबिहे संजमे कजति, सं०-पाणा संयमामातो सोक्खातो अवबरोवेत्ता भवति घाणामएणं दुक्खेणं असंजोरत्ता भवति, जिब्भामातो सोक्खातो अबरोवेत्ता भवइ० संयमी एवं व फासामानोवि । तेइंदियाणं जीवाणं समारभमाणस्स छबिहे असंजमे कजति, सं०-धाणामातो सोक्यातो ववरोवेत्ता भवति, घाणामएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवति, जाव फासमतेणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवति (सू० ५२१) ५२१ 'अभिचंदे' त्यादि, सुगमानि चैतानि, नवरं अभिचन्द्रोऽमुष्यामवसपिण्यां चतुर्थः कुलकरः । 'चाउरंत'त्ति चत्वा-ID३६८॥ रोऽन्ताः-समुद्रत्रयहिमवल्लक्षणा यस्यां सा चतुरन्ता-पृथ्वी तस्या अयं स्वामीति चातुरन्तः स चासौ चक्रवती चेति सू०५१८ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~169~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५२१] दीप अनुक्रम [५७२] Education १ [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ५२१] स्थान [६], उद्देशक [-], चातुरन्त चक्रवर्ती, पटू पूर्वशतसहस्राणि - तलक्षाणि, पूर्वं तु चतुरशीतिर्वर्ष लक्षाणां तद्गुणेति । 'आदाणीयस्स'त्ति आदीयते - उपादीयते इत्यादानीयः उपादेय इत्यर्थः, पुरुषाणां मध्ये आदानीयः पुरुषश्चासावादानीयश्चेति वा पुरुषादानीयस्तस्य । चन्द्रप्रभस्य षण्मासानिह छद्मस्थपर्यायो दृश्यते आवश्यके तु पद्मप्रभस्यासौ पठ्यते, चन्द्रप्रभस्य तु त्रीनिति मतान्तरमिदमिति । छद्मस्थश्चेन्द्रियोपयोगवान् भवतीतीन्द्रियप्रत्यासत्त्या त्रीन्द्रियाश्रितं संयममसंयमं च प्रतिपादयन् | सूत्रद्वयमाह - 'तेइंदिए'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं 'असमारभमाणस्सत्ति अव्यापादयतः, 'घाणामा उत्ति प्राणमयात्सौख्यात् गन्धोपादानरूपात् अव्यपरोपयिता - अभ्रंशकः, प्राणमयेन-गन्धोपलम्भाभावरूपेण दुःखेना संयोजयिता भवति, इह चाव्यपरोपणमसंयोजनं च संयमोऽनाश्रवरूपत्वादितरदसंयम इति । इयं च संयमासंयमप्ररूपणा मनुष्यक्षेत्र | एवेति मनुष्यक्षेत्रगतपट्र्स्थानकावतारि वस्तुप्ररूपणाप्रकरणं 'जंबुद्दीवेत्यादिकं पञ्चपञ्चाशत्सूत्रप्रमाणमाह जंबुद्दीवे २ छ अकम्मभूमीओ पं० नं० - हेमवते हेरण्णवते हरिवस्से रम्मगवासे देवकुरा उत्तरकुरा १ । जंबुद्दी २ छवासा पं० [सं० भरहे एरवते हेमवते हेरन्नवर हरिवासे रम्मगवासे २ । जंबुदीये २ छ वासहरपव्वता पं० तं०हिमवंते महाहिमवंते निसढे नीलवंते रुप्पि सिहरी ३ । जंबूमंदरदाहिणे णं छ कूडा पं० [सं० चुहिमवंतकूडे वेसमणकूडे महाहिमवंतकडे वेरुलित कूडे निसढकूडे रुयगकूडे ४ । जंबूमंदरउत्तरे णं छ कूडा पं० तं० नेलवंतकूडे वदंसणकूडे रुप्पिकडे मणिकंचणकूडे सिहरिकूडे तिगिच्छकूडे ५ जंबूदीवे २ छ महदद्दा पं० [सं० पडमद महापउमद्दहे तिगिच्छद्दहे केसरिरहे महापोंडरीयद्दहे पुंडरीयदहे ६ । तत्थ णं छ देवयाओ महट्टियाओ जब पलिओवम Far Far & Pria Use Only पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 170~ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५२२] उद्देशः३ प्रत सूत्रांक [५२२] श्रीस्थाना-18 द्वितीतातो परिवसंति, सं०-सिरि हिरि घिति कित्ति बुद्धि लच्छी ७ । जमवरदाहिणे णे छ महानईओ पं० स्थाना० असूत्र तं०-गंगा सिंधू रोहिया रोहितसा हरी हरिकता ८ । जंबूमंदरउत्तरे पंछ महानतीतो पं० सं०-नरकंता नारिकता वृत्तिः सुवन्नकूला रुप्पकूला रत्ता रत्तवती ९ । जंयूमंदरपुरच्छिमे णं सीताते महानदीते उभयकूले छ अंतरनईओ पंतं. अकर्मभू-गाहावती दहावती पंकवती तत्तजला मत्तजला उम्मत्तजला १० । अंबूमंदरपश्चस्थिमे णं सीतोदाते महानतीते उभय- है| भ्याद्याः ॥३६९॥ कूले छ अंतरनदीभी पं० ०-खीरोदा सीहसोता अंतोवाहिणी उम्मिमालिणी फेणमालिणी गंभीरमालिणी ११ । ऋतवोऽजधायइसंडदीवपुरच्छिमद्धेणं छ अकम्मभूमीओ पं० त०-हेमवए, एवं जहा जंबुद्दीवे २ तहा नदी जाव अंतरण- मरात्रा अदीतो २२ जाव पुक्खरवरदीवद्धपञ्चत्थिमद्धे भाणितब्ब ५५ (सू०५२२) छ उदू पं० त०-पाउसे बरिसारते स- |तिरात्राः रए हेमंते वसंते गिम्हे १ (सू० ५२३) छ ओमरत्ता पं० त०-ततिते पव्वे सत्तमे पन्चे एकारसमे पन्चे पन्नरसमे पल्वे सू०५२२एगूणवीसइमे पव्वे तेवीसइमे पब्वे २ । छ अइरचा पं० २०-चउत्थे पन्ने अहमे पन्ने दुवालसमे पो सोलसमे पव्ये ५२४ वीसइमे पव्वे चउवीसइमे पव्वे ३ (सू० ५२४) सुबोध चैतत् , नवरं कूटसूचे हिमवदादिषु वर्षधरपर्वतेषु द्विस्थानकोतक्रमेण द्वे द्वे कूटे समवसेये इति । अनन्तरो-1 पवर्णितरूपे च क्षेत्रे कालो भवतीति कालविशेषनिरूपणाय 'छ उऊ' इत्यादि सूत्रत्रयं, सुगमं चेदं, नवरं 'उडु'त्ति द्विमासप्रमाणकालविशेष ऋतु, तत्राषाढश्रावणलक्षणा प्रावृट् एवं शेषाः क्रमेण, लौकिकव्यवहारस्तु श्रावणाचा वर्षाशरद्धेमन्तशिशिरवसन्तग्रीष्माख्या ऋतव इति, 'ओमरत्त'त्ति अवमा-हीना रात्रिरवमरात्रो-दिनक्षयः, 'पब्बत्ति अ-5 दीप अनुक्रम [५७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~171~ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५२४] प्रत सूत्रांक [५२४] AAKASACRICS मावास्था पौर्णमासी वा तदुपलक्षितः पक्षोऽपि पर्व, तत्र लौकिकग्रीष्मत्तौं यत्तृतीय पर्व-आषाढकृष्णपक्षस्तत्र, सप्ठमं पर्व-भाद्रपदकृष्णपक्षस्तत्र, एवमेकान्तरितमासानां कृष्णपक्षाः सर्वत्र पाणीति, उक्तं च-"आसाढबहुलपक्खे भद्दवए कत्तिए अ पोसे य । फग्गुणवइसाहेसु य बोद्धब्बा ओमरत्ताउ ॥१॥" [आषाढासितपक्षे भाद्रपदे कार्तिके च पौषे च फाल्गुनवैशाखयोश्च बोद्धव्या अवमरावयः॥१॥] 'अइरत्त'त्ति अतिरात्रः अधिकदिन दिनवृद्धिरितियावत् चतुर्थं पर्य-आषाढ शुक्लपक्षा, एवमिहकान्तरितमासानां शुक्लपक्षाः सर्वत्र पर्वाणीति । अयं चातिरानादिकोऽर्थो ज्ञानेनावसीयन्त इत्यधिकृताध्ययनावतारिणो ज्ञानस्याभिधानाय सूत्रद्वयमाह आमिणियोहियणाणस्स णं छबिहे अत्थोग्गहे पं० सं०-सोइंदियस्थोग्गहे जाव नोइंदियस्थोगहे (सू० ५२५) छबिहे ओहिणाणे पं० सं०- आणुगामिए अणाणुगामिते वढमाणते हीयमाणते पडिवाती अपडिवाती (सू० ५२६) नो कप्पद निगंथाण वा २ इमाई छ अवतणाई बदित्तते तं०-अलियवयणे हीलिअवयणे खिसितवयणे फरुसवयणे गारत्थियवयणे विउसवितं वा पुणो उदीरित्तते (सू० ५२७) 'आभी'त्यादि, सुगम, नवरं अर्थस्य सामान्यस्य श्रोत्रेन्द्रियादिभिः प्रथममविकल्प्यं शब्दोऽयमित्यादिविकल्परूपं चोत्तरविशेषापेक्षया सामान्यस्यावग्रहणमर्थावग्रहः, स च नैश्चयिक एकसामयिको व्यावहारिकस्त्वान्तमौंहूर्तिका, अर्थविशेदापितत्वाद् व्यञ्जनावग्रहब्युदासः, स हि चतुर्थो । 'आणुगामिए'त्ति अननुगमनशीलमनुगामि तदेवानुगामिक-देशान्त रगतमपि ज्ञानिनं यदनुगच्छति लोचनवदिति, यत्तु तद्देशस्थस्यैव भवति तद्दे शनिबन्धनक्षयोपशमजत्वात् स्थानस्थदीप AAACAKACKAGACAS दीप अनुक्रम [१७५] ECO पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~172~ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५२७] नसूत्र श्रीस्थाना- IM व देशान्तरगतस्य त्वपैति तदनानुगामिकमिति, उक्तं च-"अणुगामिओडणुगच्छद गच्छन्तं लोअणं जहा परिसं स्थाना० I इयरो य नाणुगच्छइ ठिअप्पईवोच्च गच्छंतं ॥१॥" इति [आनुगामिकोऽवधिगच्छन्तमनुगच्छति यथा पुरुष लोचनं | उद्देशः ३ वृत्तिः इतरश्च स्थितप्रदीप इव गच्छन्तं नानुगच्छति ॥१॥] यत्नु क्षेत्रतोऽजलासङ्ख्ययभागविषयं कालत आवलिकासल्येयभा-15 | अर्थावग्रगविषयं द्रव्यतस्तेजोभाषाद्रब्यान्तरालवर्तिद्रव्यविषयं भावतस्तगतसमयेयपयोयविषयं च जघन्यतः समुत्सद्य पुनर्वृद्धिं- हा अवध॥३७०॥ | विषयविस्तरणात्मिकां गच्छदुत्कर्षणालोके लोकप्रमाणान्यसङ्घयेयानि खण्डान्यसझयेया उत्सपिण्यवसर्पिणीः सर्वरूपिद्व्याणियोऽवच प्रतिद्रव्यमसमवेयपर्यायांश्च विषयीकरोति तद्बर्द्धमानमिति, उक्तं च--"पइसमयमसंखेजइभागहियं कोइ संखभागहियं ।। नानि | अन्नो संखेजगुणं खेत्तमसंखेजगुणमन्नो ॥१॥ पेच्छइ विवह्यमाणं हार्यतं वा तहेव कालंपि" इत्यादि,[प्रतिसमयमसं- सू०५२५ख्यभागाधिक कोऽपि संख्यभागाधिकं अन्यः संख्यातगुणं क्षेत्रमन्योऽसंख्यातगुणं ॥१॥ प्रेक्षते विवर्द्धमानेन हीयमानेन वा तथैव कालमपि] तथा बजघन्येनालासङ्खयेयभागविषयमुत्कर्षेण सर्वलोकविषयमुत्सद्य पुनः सङ्क्लेशवशात् ४ क्रमेण हानि-विषयसङ्कोचात्मिकां याति यावदलासङ्ख्येयभागं तदीयमानमिति, तथा प्रतिपतनशीलं प्रतिपाति-उत्कर्षण लोकविषयं भूत्वा प्रतिपतति, तथा तद्विपरीतमप्रतिपाति, येनालोकस्य प्रदेशोऽपि दृष्टस्तदप्रतिपात्येवेति, आह च"उक्कोस लोगमित्तो पडिवाइ परं अपडिवाइ" इति ।[उत्कृष्टो लोकमात्रा प्रतिपाती परतोऽप्रतिपाती।] एवंविधज्ञानवता यानि वचनानि वक्तुं न कल्पन्ते तान्याह-'नो कप्पतीत्यादि कण्ठ्यं, नवरं 'अवयणाईति ननः कुरसार्थत्वात् कु-हा कात्सितानि वचनानि अवचनानि, तत्रालीक-प्रचलायसे किं दिवेत्यादिप्रश्न प्रचलाये इत्यादि, हीलितं-सासूर्य गणिन् । प्रत सूत्रांक [५२७] दीप अनुक्रम [५७८ ५२७ 34564562525-4900-4500 C पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~173~ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५२७] 456455 प्रत सूत्रांक [५२७] दीप अनुक्रम [५७८ वाचक! ज्येष्ठार्येत्यादि, खिंसितं-जम्मकर्माधुघट्टनतः परुषं-दुष्ट शैक्षेत्यादि 'गारंति अगारं-गेहं तद्वत्तयो अगार-18 है स्थिता-गृहिणः तेषां यत्तदगारस्थितवचनं पुत्र मामक भागिनेयेत्यादि, उक्तं च-"अरिरे माहणपुत्ता अब्चो ब-18 प्पोत्ति भाय मामोत्ति । भट्टिय सामिय गोमिय (भोगि) (लहुओ लहुआ य गुरुआ य ॥१॥)ति [अरे रे ब्राह्मण पुत्र बप्प! भ्रातः माम इति भतः स्वामिन् भोगिन् लघुलेघवो गुरवश्च ॥१॥] व्यवशमितं वा-उपशमितं वा पुनरुदीरहै यितुं न कल्पत इति प्रक्रमोऽधचनत्वादस्येति, अनेन च व्यवशमितस्य पुनरुदीरणवचनं नाम षष्ठमवचनमुक्तम्, गाथा-"खामिय वोसमियाई अहिगरणाई तु जे उदीरेंति । ते पावा नायब्वा तेर्सि चारोवणा इणमो ॥१॥" इति, [क्षामयित्वा व्युपशमितान्यधिकरणानि य एवोदीरयन्ति । ते पापा ज्ञातव्यास्तेषां चैषाऽऽरोपणा ॥१॥] अवचनेषु प्रायश्चित्तप्रस्तारो भवतीति तानाह छ कप्पस्स पत्यारा पं० सं०-पाणातिवायरस वायं वयमाणे १ मुसावायस्स यादं वयमाणे २ अदिनादाणस्स वाई वयमाणे ३ अविर तिवायं वयमाणे ४ अपुरिसवातं वयमाणे ५ दासवायं वयमाणे ६ इन्चेते छ कप्पस्स परथारे पत्थरेत्ता सम्ममपरिपूरेमाणो तहाणपत्ते (सू० ५२८)छ कप्पस्स पलिमंथू पं० त०-कोकुतिते संजमस्स पलिमंधू १ मोहरिते सथवयणस्स पलिमंधू २ चक्खुलोलुते रितावहिताते पलिम) ३ तितिणिते एसणागोतरस्स पलिमंथू ४ इच्छालोमिते मोत्तिमग्गरस पलिमंथू ५ भिजाणिताणकरणे मोक्षमग्गरस पलिमंथू ६ सम्वत्थ भगवता अणिताणता पसस्था (सू०५२९) छम्विहा कप्पठिती पं० त०-सामातितकापठिती छेतोवहावणितकप्पठिती निविसमाणकप्पठिती णिविट्ठकप्पद्विती जिणकप्पठिती SamEaucatunima पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~174~ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ५३० ] दीप अनुक्रम [५८१] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ३७१ ॥ [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [५३०] स्थान [६], उद्देशक [-], थिविरकप्पठिती ( सू० ५३०) समणे भगवं महाबीरे खड्डेणं मत्तेनं अपाणएणं मुंडे जाब पब्बइए । समणस्स णं भगवओ महावीरस्स छणं भत्तेणं अपाणएणं अनंते अणुत्तरे जाव समुप्पन्ने। समणे भगवं महावीरे उद्वेणं भत्तेणं अपाणएणं सिद्धे जाव सव्र्वदुक्खप्पहीणे ( सू० ५३१) सणकुमारमाहिंदेसु णं कल्पेसु विमाणा छ जोयणसयाई उर्दू उच्चचेणं पअत्ता, सणकुमारमाहिंदेसु णं कप्पेसु देवाणं भवधारणिज्जगा सरीरंगा उक्कोसेणं छ रतणीओ उडूं उपत्तेणं पं० (सू०५३२) 'छ कप्पेत्यादि, कल्पः - साध्वाचारस्तस्य सम्बन्धिनस्तद्विशुद्ध्यर्थत्वात् प्रस्ताराः - प्रायश्चित्तस्य रचनाविशेषाः, तत्र प्राणातिपातस्य वादं- वार्त्ती वाचं वा वदति साधौ प्रायश्चित्तप्रस्तारो भवतीत्येकः, यथा अन्यजनविनाशितदर्दुरे न्यस्तपादं भिक्षुमुपलभ्य क्षुल्लक आह-साधो दर्दरो भवता मारितः, भिक्षुराह-नैवं, क्षुल्लक आह-द्वितीयमपि व्रतं ते नास्ति, ततः क्षुद्धको भिक्षाचर्यातो निवृत्त्याचार्यसमीपमागच्छतीत्येकं प्रायश्चित्तस्थानं, ततः साधयति यथा तेन दर्दुरो मारित इति प्रायश्चित्चान्तरं ततोऽभ्याख्यातसाधुराचार्येणोक्तः यथा दर्दुरो भवता मारितः ?, असावाह नैवमिह लकस्य प्रायश्चित्तान्तरं पुनः क्षुल्लक आह-पुनरप्यपठपसीति, भिक्षुराह गृहस्थाः पृच्छयन्तां वृषभा गत्वा पृच्छन्तीति प्राय|श्चित्तान्तरमित्येवं योऽभ्याख्याति तस्य मृपावाददोष एव, यस्तु सत्यमारितं निहते तस्य दोषद्वयमिति १, अत्रोक्तम्“ओमो चोइज्जतो दुपहियाएस संपसारेइ । (पर्यालोचयति > अहमवि णं चोइस्सं न य उभए तारिसं छिदं ॥ १ ॥ अण घाइए दहुरंमि दहुं चलण कय ओमो । वहिओ हा पसु तुमे नवति बीपि ते णत्थि ॥ २ ॥" इत्यादि, [ अवमश्चोद्यमानो दुष्प्रेक्षितादिषु पर्यालोचयति अहमपि चोदयिष्ये न च लभते तादृशं छिद्रं ॥ १ ॥ अन्येन घातितं दर्दरं Education Intiational Far Far & Pra Use On ६ स्थाना० उद्देशः ३ ~175~ प्रस्ताराःप रिमन्थवः बीरः सनकुमारमा - हेन्द्रवि मानशरीरे सू० ५२८ ५३२ * ॥ ३७१ ॥ [०३], अंग सूत्र [०३ ] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ६ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५३२] CAR DS प्रत दृष्ट्या चरणं कृतमवमः हा एष त्वया हतः नैवेति तव द्वितीयमपि नास्ति ॥२॥] तथा मृषावादस्य सरकं वाद-विकल्पनं वार्ती वा वदति साधी प्रायश्चित्तप्रस्तारो भवतीति, तथाहि-कचित् संखड्यामकालत्वात् प्रतिषिद्धी साधू अन्यत्र है गती, ततो मुहर्तान्तरे रत्नाधिकेनोक्तम्-ब्रजामः संखड्यामिदानी भोजनकालो यतस्तत्रेति, लघुर्भणति-प्रतिषिद्धोऽहं । न पुनर्बजामि, ततोऽसौ निवृत्त्याचार्यायेदमालोचयति यथा-अयं दीनकरुणवचनैर्याचते, प्रतिषिद्धोऽपि च प्रविशति एषणां प्रेरयतीत्यादि, ततो रखाधिकमाचार्यों भणति-साधो! भवानेवं करोति?, स आह-जैवमित्यादि, पूर्ववत्नस्तारः २, इहाप्युक्तम्-"मोसंमि संखडीए मोयगगहणं अदत्तदाणमि । आरोवणपत्धारो तं चेव इमं तु नाणतं ॥१॥ दीणकजालुणेहिं जायइ पडिसिद्धो विसइ एसणं हणइ । जंपइ मुहप्पियाणि य जोगतिगिच्छानिमित्ताई ॥२॥" [मृषावादे संद्र खव्यां अदत्तादाने मोदकग्रहणं आरोपणप्रस्तारः स एव इदं तु नानात्वं ॥१॥ दीनकरुणैर्याचते प्रतिषिद्धो विशत्येषणांडू च हन्ति जल्पति मुखप्रियाणि च योगचिकित्सानिमित्तानि युनक्ति ॥२॥] इत्यादि, एवमदत्तादानस्य वादं वदति, अत्र भावना-एकत्र गेहे भिक्षा लब्धा सा अवमेन गृहीता यावदसौ भाजनं संमार्टि तावद्रत्नाधिकेन संखड्यां मोदका लब्धास्तानवमो दृष्ट्वा निवृत्याचार्यस्यालोचयति-यथाऽनेनादत्ता मोदका गृहीता इत्यादि, प्रस्तारः प्राग्वदिति ३, एव-1 मविरति:-अब्रह्म तद्वाद पानी वा अथवा न विद्यते विरतिर्यस्याः सा अविरतिका-स्त्री तद्वादं तद्वार्ती वा, तदासेवा भणनरूपां चदति, तथाहि-अवमो भावयति एष रत्नाधिकतया मां स्खलितादिषु प्रेरयति, ततो रोषादभ्याख्याति-"जे-16 हिजेण अकज सज्ज अजाघरे कर्य अज । उवजीविओ य भंते! मएवि संसहकप्पोऽथ ॥१॥" [ज्येष्ठार्येणाकार्य। सूत्रांक [५३२] दीप अनुक्रम [५८३] Jamaicatorials पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~176~ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५३२] श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः ॥३७२॥ प्रत सूत्रांक [५३२] दीप अनुक्रम [५८३] अद्यार्यागृहे सद्यः कृतं भदन्त मयापि अत्र संस्पृष्टकल्प उपजीवितः॥१॥] (अहमपि तद्भुक्ता भुक्तवानित्यर्थः >IBI स्थाना प्रस्तारभावना प्राग्वत् ४, तथा अपुरुषो-नपुंसकोऽयमित्येवं वादं वाचं वाती वा वदतीति, इह समासः प्रतीत एवाहा उद्देशः भावनाऽत्र-आचार्य प्रत्याह-अयं साधुर्नपुंसक, आचार्य आह-कथं जानासि', स आह-एतन्निजकरहमुक्ताकिस्ताराःपभवतां कल्पते प्रवाजयितुं नपुंसकमिति, ममापि किश्चित्तल्लिङ्गदर्शनाच्छ का अस्तीति, प्रस्तारः प्राग्वत् , अत्राप्युक्तम्- रिमन्धवः "तइओत्ति कह जाणसि? दिवा णीया सि तेहि मे वृत्त । बट्टइ तइओ तुम्भं पब्वावे ममवि संका ।। १॥ दीसहावीरः सनय पाडिरूवं ठियचंकमियसरीरभासादी । बहुसो अपुरिसवयणे पत्थारारोवणं कुज्जा ॥२॥” इति, [तृतीय इति, कुमारमा. कथं जानासि ?, रष्टा निजकास्सैरहं उक्तः वर्तते तृतीयः युष्माकं प्रवाजयितुं ?, ममापि शंका ॥१॥ दृश्यते च प्रतिरूपं एव|8| हेन्द्रवि|स्थितं च क्रमितशरीरभाषादि बहुशोऽपुरुषवचने प्रस्तारारोपणं कुर्यात् ॥१॥]५, तथा दासवादं वदति, भावना-कश्चि- मानशदाह-दासोऽयं, आचार्य आह-कथं?, देहाकाराः कथयन्ति दासत्वमस्येति, प्रस्तारः प्राग्वदिति, अत्राप्युक्तम्-"खर-II उत्ति कह जाणसि? देहागारा कहिंति से हंदि । छिकोवण (शीघ्रकोपः > उभंडो णीयासी दारुणसहावो ॥१॥ दे-18 हेण वा विरूवो खुजो बढभो य बाहिरप्पाओ। फुडमेवं आगारा कहति जह एस खरओ ति ॥ २॥" [दास इति, कथं जानासि ?, तस्य देहाकाराः कथयन्ति शीघ्रकोपः उद्भांडः नीचाशी दारुणस्वभावः ॥ १॥ देहेन वा विरूपः कुब्जः मडभश्च वाह्यात्मा स्फुटमेवमाकाराः कथयन्ति यथैष दास इति ॥२॥] आचार्य आह-"कोइ सुरूवविरुवा खुजा म-131॥ २७२।। डहा य बाहिरणा य । न हु ते परिभवियग्या वयणं च अणारियं बोतुं ॥१॥” इत्यादि, [केऽपि सुरूपा विरूपाः || सू०५२८ Econ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~177~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५३२] प्रत 55453 सूत्रांक [५३२] दीप अनुक्रम [५८३] कुब्जा मडभा वाह्यात्मानश्च नैव ते परिभवनीयाः वचनं चानायकं वक्तुं (योग्याः) ॥१॥] इति ६, एवंप्रकारान् एताननन्तरोदितान् पट् कल्पस्य-साध्वाचारस्य प्रस्तारान्-प्रायश्चित्तरचनाविशेषान् मासगु,दिपाराधिकाबसानान् | प्रस्तार्य-अभ्युपगमतः आरमनि प्रस्तुतान् विधाय प्रस्तारयिता वा-अभ्याख्यानदायकसाधुः सम्यगप्रतिपूरयन्-अभ्याख्येयार्थस्यासद्भूततया अभ्याख्यानसमर्थनं कर्तुमशकुवन् प्रत्यगिरं कुर्वन् सन् तस्यैव-प्राणातिपातादिकतुरेव स्थानं प्राप्तो-गतः तत्स्थानप्राप्तः स्यात्-प्राणातिपातादिकारीव दण्डनीयः स्यादिति भावः अथवा प्रस्तारान् प्रस्तीर्य-विरचव्याचार्येण अभ्याख्यानदाता अप्रतिपूरयन-अपरापरप्रत्ययवचनस्तमर्थमसत्यमकुर्वन् तत्स्थानप्राप्तः कार्य इति शेषः, यत्र प्रायश्चित्तपदे विवदमानोऽवतिष्ठते न पदान्तरमारभते तत्पदं प्रापणीय इति भावः, शेष सुगममिति । कल्पाधिकारे सूत्रद्वयम्-'छ कप्पे' त्यादि, षटू कल्पस्य-कल्पोक्तसाध्वाचारस्य परिमनन्तीति परिमन्धवः, उणादित्वात् , पा-2 ठान्तरेण परिमन्था वाच्याः, घातका इत्यर्थः, इह च मन्धो द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, यत आह-"दब्बंमि मंथओx खलु तेणामंथिज्जए जहा दहियं । दहितुल्लो खलु कप्पो मंथिजइ कुक्कुयाईहिं ॥१॥" ति, [द्रव्ये मन्थाः तेन यथा दध्यादि| मथ्यते खलु दधितुल्यः कल्प एव स कौकुच्यादिना मथ्यते ॥१॥] तत्र 'कुकुइए'त्ति 'कुच अवस्यन्दन' इति वचनात् कुत्सितं-अप्रत्युपेक्षितत्वादिना कुचित-अवस्यन्दितं यस्य स कुकुचितः स एव कौकुचितः, कुकुचा वा-अवस्यन्दनं प्रयोजनमस्येति कौकुचिका, स च त्रिधा-स्थानशरीरभाषाभिः, उक्तं च-"ठाणे सरीर भासा तिविहो पुण कुछई स-1 Bामासेणं ॥" इति, [स्थाने शरीरे भाषायां च त्रिविधः कौकुची समासेन ॥] तत्र स्थानतो यो यन्त्रकवत् नर्तिकायदा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~178~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-, मूलं [५३२] श्रीस्थाना-I सूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [५३२] दीप अनुक्रम [५८३] GORCANCERSTA भ्राम्यतीति, शरीरतो यः करादिभिः पाषाणादीन् क्षिपति, उक्तं च-"करगोफणधणुपायाइएहि उच्छुहइ पत्थराईए।| स्थाना. भमुहादाढियथणपुयविकंपणं णट्टवाइत्तं ॥१॥” इति, [करगोफणधनुःपादादिभिः क्षिपति प्रस्तरादीन् धूदंष्ट्रास्त-INउद्देशः नपुतविकंपनं नर्तिका ॥१॥] भाषातो यः सेण्टितमुखबादित्रादि करोति, तथा च जल्पति यथा परे हसन्तीति, मस्तारा:पउक्तं च-"छेलिअ मुहाइत्ते जपइ य तहा जहा परो हसइ । कुणइ य रुए बहुविहे बघाडियदेसभासाओ॥१॥" रिमन्यवः इति, [सेंटितमुखवादित्रे जल्पति च तथा यथा परो हसति करोति च बहुविधानि रुतानि अनार्यदेशभाषाः॥१॥] वीरः सनअयं च विविधोऽपि 'संयमस्य' पृथिव्यादिसंरक्षणादेः कायगुप्तिपर्यन्तस्य यथासम्भवं परिमन्थुर्भवत्येवेति १, 'मोह-शाकुमारमारिएत्ति मुखं-अतिभाषणातिशयनवदस्तीति मुखरः स एव मौखरिको बहुभाषी, अथवा मुखेनारिमावहतीति निपातनात् दहेन्द्रविमौखरिका, उक्तं च-"मुखरिस्स गोन्ननाम आवहइ मुहेण भासंतो॥” इति, [मौखर्यस्य गौणं नामावहति (अरिं) मुखेन । मानशभाषमाणः (यत्तत्).] स च 'सत्यवचनस्य' मृषावादविरतेः परिमंथुः, मौखये सति मृपावादसम्भवादिति २, 'च-16 क्खुलोल'त्ति चक्षुषा लोल:-चश्चलः चक्षुर्या लोलं यस्य स तथा, स्तूपादीनालोकयन बजति य इत्यर्थः, इदं च धर्म- सू०५२८कथनादीनामुपलक्षणं, आह च-"आलोयंतो वञ्चइ थूभाईणि कहेइ वा धम्म । परियट्टणाणुपेहण ण पेह पंथं अणुवउत्तो ॥१॥” इति, [स्तूपादीनालोकयन् ब्रजति धर्म वा कथयति परिवर्तनानुप्रेक्षे वाऽनुपयुक्तः पंथानं न प्रेक्षते || ॥१॥]'इरियापहिए'त्ति ई-गमनं तस्याः पन्था-मार्ग ईर्यापथस्तत्र भवा या समितिरीयोसमितिलक्षणा साईयो-||॥ ३७३ ॥ पथिकी तस्याः परिमन्थुरिति, आह च-"छकायाण विराहण संजम आयाएँ कंटगाई या । आवडणभाणभेओ खद्धे ५२२ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~179~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५३२] * % XXARA % प्रत उडाह परिहाणी ॥१॥" इति, ३, [संयमे पढ़ायानां विराधनाऽऽत्मनि च कंटकादयः। आपतनं भाजनभेदः प्राचार्य उडाहः परिहाणिश्च ॥१] 'तितिणिए'त्ति तितिणिकोऽलाभे सति खेदाद् यत्किश्चनाभिधायी, स च खेदप्रधानत्वादेपणा-उद्गमादिदोषविमुक्तभक्तपानादिगवेषणग्रहणलक्षणा तत्प्रधानो यो गोचरो-गोरिव मध्यस्थतया भिक्षार्थं चरणं स| एपणागोचरस्तस्य परिमन्थुः, सखेदो हि अनेषणीयमपि गृह्णातीति भावः ४, 'इच्छालोभिए'त्ति इच्छा-अभिलापः स चासी लोभश्च इच्छालोभो, महालोभ इत्यर्थः, शुक्लशुक्लोऽतिशुक्लो यथा, स यस्यास्ति स इच्छालोभिको-महेच्छोऽधिकोपधिरित्यर्थः, उक्तं च-'इच्छालोभो उ उवहिमइरेग'त्ति [अतिरेकोपधिरिच्छालोभिका] स 'मुक्तिमार्गस्येति मुक्ति:-निष्प-I रिग्रहत्वमलोभत्वमित्यर्थः सैव मार्ग इव मार्गो निवृतिपुरस्येति ५, 'भिज्जत्ति लोभस्तेन यन्निदानकरणं-चक्रवर्तीन्द्रादिऋद्धिप्रार्थनं तन्मोक्षमार्गस्य-सम्यग्दर्शनादिरूपस्य परिमन्थुः, आर्तध्यानरूपत्वात्, भिध्याग्रहणाद्यत्पुनरलोभस्य भवनिवेदमार्गानुसारितादिप्रार्थनं तन मोक्षमार्गस्य परिमन्थुरिति दर्शितमिति, ननु तीर्थकरत्वादिप्रार्थनं न राज्यादि-12 प्रार्थनवदुष्टमतस्तद्विषयं निदानं मोक्षस्यापरिमन्थुरिति, नैवं, यत आह-'सब्वत्थे त्यादि, 'सर्वत्र' तीर्थकरत्वचरमदे-13 हत्वादिविषयेऽपि आस्तां राज्यादौ 'भगवता'जिनेन 'अनिदानता' अप्रार्थनमेव 'पसत्थ'त्ति प्रशंसिता-लाधितेति, तथा च-"इहपरलोगनिमित्तं अवि तित्धगरत्तचरमदेहत्तं । सब्बत्थेसु भगवया अणियाणत्तं पसत्थं तु ॥१॥" [इहपरलोकार्थ तीर्थकरत्वचरमदेहत्वे अपि (प्रार्थनं निदानं) सर्वार्थेषु भगवताऽनिदानत्वं एव प्रशस्तं ॥१॥] एवमेव हि सामायिकशुद्धिः स्यादिति, उक्तं च-"पडिसिद्धेसु अ दोसे विहिएसु य ईसि रागभावेवि । सामाइयं असुद्धं सुद्धं सम सूत्रांक [५३२] दीप अनुक्रम [५८३] * * स्था०६३ JANEauratanR पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~180 ~ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५३२] प्रत सूत्रांक [५३२] दीप अनुक्रम [५८३] श्रीस्थाना- याए दोण्हपि ॥१॥"ति [प्रतिषिद्धेषु च द्वेषे ईषद्रागभावेऽपि च विहितेषु सामायिकमविशुद्ध द्वयोरपि समतायामभावे स्थाना० सूत्र- IP शुद्धं ॥१॥] अयं चान्तिमपरिमन्थयोर्विशेषः-"आहारोवहिदेहेसु, इच्छालोभो उ सजई । नियाणकारी संगं तु, कुरुते उद्देशः ३ वृत्तिः उद्धदेहिकं ॥१॥ [आहारोपधिदेहेषु इच्छालोभस्तु सजति । निदानकारी त्वौर्ध्वदेहिकं संगं कुरुते ॥१॥] (पारलौकिक- प्रस्ताराःप॥३७४। |मित्यर्थः>॥'कप्पठिई'त्यादि, कल्पस्य-कल्पायुक्तसाध्वाचारस्य सामायिकच्छेदोपस्थापनीयादेः स्थिति:-मर्यादा कल्प-रिमन्धवः स्थितिः, तत्र सामायिककल्पस्थिति:-"सिज्जायरपिंडे या १चाउजामे य २ पुरिसजिढे य ३ । किइकम्मस्स य करणे ४ वीरः सनचत्तारि अवट्ठिया कप्पा ॥१॥" [सामायिकसाधूनामवश्यं भाविन इत्यर्थः> "आचेलक १ देसिय २ सपडिकमणे ३ य कुमारमारायपिंडे ४ य । मासं ५"] पज्जोसवणा ६ छप्पेतेऽणवट्ठिया कप्पा ॥२॥" नावश्यंभाविन इत्यर्थः, छेदोपस्थापनीहेन्द्रवियकल्पस्थिति:-"आचेल १कदेसिय २ सेजायर ३ रायपिंड ४ कियकम्मे ५ । वय ६ जेट्ट७ पडिकमणे ८ मासं मानरा|पज्जोसवणकप्पे १०॥१॥ एतानि च तृतीयाध्ययनवज्ञेयानि, 'निविसमाणकप्पदिई, निविट्टकप्पट्टिइ'त्ति परिहार- रार |विशुद्धिकल्पं वहमाना निर्विशमानका यैरसौ व्यूढस्ते निर्विष्टास्तेषां या स्थिति:-मर्यादा सा तथा तत्र, "परिहारिय छम्मासे |असू०५२८ तह अणुपरिहारियावि छम्मासे । कप्पढिमो छमासे एते अट्ठारसवि मास ॥१॥" ति [परिहारकाः षण्मासाननुपरि-II ५११ हारिका अपि षण्मासान् । कल्पस्थितः षण्मासान् एतेऽष्टादश भासाः॥१॥] तथा जिनकल्पस्थिति:-"गच्छम्मि ॥३७४ ॥ |निम्माया धीरा जाहे य गहियपरमत्था । अग्गहजोग्गअभिग्गह उविति जिणकप्पियचरितं ॥१॥" इति [गच्छे निष्णात धीरो यदा च गृहीतपरमार्थः । अग्रहयोग्याभिग्रहे उपैति जिनकल्पिकचारित्रं ॥१॥] एवमादिका (अग्गहजोग्ग-18 6-4-940-562-9645 CamEauratominimational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~181~ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५३२] दीप अनुक्रम [५८३] Education) [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-], मूलं [५३२ ] स्थान [ ६ ], | अभिग्गहे त्ति कासाश्चित्पिण्डेषणानामग्रहे योग्यानां चाभिग्रहे अनयैव ग्राह्यमित्येवंरूपे गृहीतपरमार्था इत्यर्थः >> स्थ| विरकल्पस्थिति:- " संजमकरणुज्जोया ( उद्योगाः > निष्फायग नाणदंसणचरिते । दीहाउ बुवासे वसही दोसेहि य विमुक्का ॥ १ ॥” [संयमकरणोद्योगा निष्पादका ज्ञानदर्शनचारित्रेषु । दीर्घायुषो वृद्धवासे दोषैश्च विमुक्ता वसतिः ॥ १ ॥] इत्यादिका । इयं च कल्पस्थितिर्महावीरेण देशितेतिसम्बन्धान्महावीरवक्तव्यतासूत्रत्रयं, तथा अनेनेयमपरापि कल्पस्थितिदर्शितेति कल्पसूत्रद्वयमुपन्यस्तं सुगमं चैतत्पंचकमपि, नवरं षष्ठेन भक्तेन - उपवासद्वयलक्षणेनापानकेन - पानीयपान परिहारवता यावत्करणात् 'निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे' त्ति दृश्यं सिद्धे जावत्तिकरणात् 'बुद्धे मुते अंतकडे परिनिब्बुडे त्ति दृश्यं । उक्तरूपेषु च देवशरीरेष्वाहारपरिणामोऽस्तीत्याहारपरिणामनिरूपणायाह छबिहे भोयणपरिणाने पं० तं० मणुभे रसिते पीणणिजे विहणिजे [मयणणिजे दीवणिजे] दप्पणि । छन्त्रि विसपरिणामे पं० [सं० डके भुत्ते निवतिते मंसाणुसारी सोणिताणुसारी अट्ठिमिंजाणुसारी (सू० ५३३) छन्बिड़े पट्टे पं० ० संसयपट्टे म्हपट्टे अणुजोगी अणुलोमे तहणाने अतहणाणे ( सू० ५३४ ) चमरचंचा णं रायहाणी उक्कोसेणं छम्मासा विरहिते उपवाणं । एगमेगे णं इंदट्टाणे उक्कोसेणं छम्मासा विरहिते उनवातेणं । अधेसन्तमा णं घुडवी उकोसेणं छम्मासा विरहिता उनवाणं । सिद्धिगती णं उक्कोसेणं छम्मासा विरहिता उदवातेणं ( सू० ५३५) 'oad भो' त्यादि, भोजनस्येति- आहारविशेषस्य परिणामः पर्यायः स्वभावो धर्म इतियावत्, तत्र 'मणु Far Partial & Private On पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] ~182~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५३५] श्रीस्थाना सूत्र वृत्तिः ॥३७५॥ नेत्ति मनोज्ञमभिलपणीयं भोजनमित्येकस्तत्परिणामः, परिणामवता सहाभेदोपचारात् , तथा 'रसिक' माधुर्याधुपेतं स्थाना तथा 'प्रीणनीयं रसादिधातुसमताकारि, 'बृहणीयं' धातूपचयकारि, 'दीपनीयं' अग्निबलजनकं, पाठान्तरे तु 'मद- उद्देशः ३ नीयं मदनोदयकारि 'दर्पणीय बलकरमुत्साहवृद्धिकरमित्यन्य इति, अथवा भोजनस्य परिणामो-विपाकः, सच आहारविमनोज्ञः शुभत्वान्मनोज्ञभोजनसम्बन्धित्वाद्वेत्येवमन्येऽपि । परिणामाधिकारादायातं विषपरिणामसूत्रमप्येवं, नवरं 'ड- परिणाकेत्ति दष्टस्य प्राणिनो दंष्ट्राविषादिना यत्पीडाकारि तद् दष्ट-जङ्गमविषं, यच भुक्तं सत्पीडयति तद् भुक्तमित्युच्यते, मा प्रश्ना तच्च स्थावर, यत्पुनर्निपतितं-उपरि पतितं सत् पीडयति तन्निपतितं-त्वग्विषं दृष्टिविषं चेति त्रिविधं स्वरूपतः, तथा चमरचकिश्चिन्मासानुसारि-मांसान्तधातुव्यापकं किञ्चिच्छोणितानुसारि-तथैव किचिच्चास्थिमिञ्जानुसारि तथैवेति त्रिविधं । शादिषु कार्यतः, एवं च सति पडिधं तत् , ततस्तपरिणामोऽपि पोरैवेति ॥ एवंभूतार्थानां च निर्णयो निरतिशयस्याप्तप्रश्नतो भवतीति प्रश्नविभागमाह-एम्बिहे'त्यादि, प्रच्छनं प्रश्नः, तत्र संशयप्रक्षः कचिदर्थे संशये सति यो विधीयते 8०५३३. यथा-"जइ तवसा बोदाणं संजमओऽणासवोत्ति ते कह णु । देवत्तं जंति जई? गुरुराह सरागसंजमओ ॥१॥ इतिः यदि तपसा व्यवदानं संयमतोऽनानव इति तव मते कधं यतयो देवत्वं यांति, गुरुराह सरागसंयमतः ॥१॥] न्युग्रहेण-10 मिथ्याभिनिवेशेन विप्रतिपत्त्येत्यर्थः, परपक्षदूषणार्थं यः क्रियते प्रश्नः स व्युग्रहप्रश्नो, यथा-"सामनाउ विसेसो अ-16 नोऽणनो व होज जइ अन्नो । सो नत्थि खपुष्फपिव णो सामन्नमेव तयं ॥१॥"ति [सामान्याद्विशेषोऽन्योऽनन्यो वा ॥३७५ ॥ भवेत्। यद्यन्यः स नास्ति खपुष्पमिव अनन्य सामान्यमेव सः॥१॥] 'अनुयोगी'ति अनुयोगो-व्याख्यानं प्ररूप-10 प्रत सूत्रांक [५३५] दीप अनुक्रम [५८६] विरहा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~183~ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५३५] प्रत सूत्रांक [५३५] दीप अनुक्रम [५८६] CACCESCRROADCASGANGA गतियावत् स यत्रास्ति तदर्थं यः क्रियत इति भावो, यथा-'चउहि समएहिं लोगों' इत्यादिप्ररूपणाय 'कइहिं सम-16 एही त्यादि अन्धकार एव प्रश्नयति, 'अनुलोमे' अनुलोमनार्थ-अनुकूलकरणाय परस्य यो विधीयते, यथा क्षेमं भवतामित्यादि, 'तहनाणेत्ति यथा प्रच्छनीयार्थे प्रष्टव्यस्य ज्ञानं तथैव प्रच्छकस्यापि ज्ञानं यत्र प्रश्ने स तथाज्ञानो, जानत्-18 |प्रश्न इत्यर्थः, स च गौतमादेः, यथा 'केवइकालेणं भंते! चमरचञ्चा रायहाणी विरहिया उववाएण'मित्यादिरिति, एत-1 |द्विपरीतस्त्वतथाज्ञानोऽजानतप्रश्न इत्यर्थः, क्वचित् 'छबिहे अडे' इति पाठस्तत्र संशयादिमिरों विशेषणीय इति ।। इहानन्तरसूत्रेऽतथाज्ञानप्रश्नो दर्शितस्तत्र चोत्तरवस्तुना भाव्यमिति तद् दर्शयति-'चमरचंचे'त्यादि, 'चमरस्य दा-18 दाक्षिणात्यस्यासुरनिकायनायकस्य चञ्चा-चचाख्या नगरी चमरचश्चा, या हि जम्बूद्वीपमन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन तिर्य गसङ्घयेयान् द्वीपसमुद्रान व्यतिव्रज्यारुणवरद्वीपस्य बाह्याद् वेदिकान्तादरुणोदं समुद्रं द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्राण्यवगाह्य चमरस्यासुरराजस्य तिगिच्छिकूटो नामा य उत्पातपर्वतोऽस्ति सप्तदशैकविंशत्युत्तराणि योजनशताम्युच्चस्तस्य दक्षिणेन षडू योजनकोटीशतानि साधिकान्यरुणोदे समुद्रे तिर्यग्व्यतिव्रज्याधो रत्नप्रभायाः पृथिव्याः चत्वारिंशतं योजनसहस्राण्यवगाह्य व्यवस्थिता जम्बूद्वीपप्रमाणा च, सा चमरचचा राजधानी उत्कृष्टेन षण्मासान् विरहिता-वियुक्ता उपपातेन, इहोपद्यमानदेवानां षण्मासान्यावद्विरहो भवतीति भावः । विरहाधिकारादिदं सूत्रत्रयं-'एगे'त्यादि, एकैकमिन्द्रस्थानं-चमरादिसम्बन्ध्याश्रयो भवननगरविमानरूपस्तदुत्कर्षेण षण्मासान् यावद्विरहितमुपपातेनेन्द्रापेक्षयेति । अधःसप्तमीत्यत्र सप्तमी हि रत्नप्रभापि कथञ्चिद्भवतीति तद्व्यवच्छेदार्थमधोग्रहणं अतस्तमस्तमेत्यर्थः, सा पण्मासान **AXSAAAAAA SAGAR Eco पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~184~ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५३५] प्रत सूत्रांक ५३७ [५३५] दीप अनुक्रम [५८६] श्रीस्थाना- IIविरहितोपपातेन, यदाह-"चउवीसई मुहुत्ता १ सत्त अहोरस २ तह य पन्नरस ३। मासो व ४ दो य५ परोस्थाना ६ छम्मासा विरहकालो उ७॥१॥ इति, [चतुर्विशतिर्मुहुर्ता सप्ताहोरात्राणि तथैव पंचदेश मासश्च द्वीभत्वारःउद्देशः३ वृत्तिः | षण्मासाँ विरहकालः॥१॥] सिद्धिगतावुपपातो-गमनमात्रमुच्यते न जन्म, तद्धेतूनां सिद्धस्वाभावाचिति, इहोक्तम् आयुर्वन्धा -"एगसमओ जहन्नं उक्कोसेणं हवंति छम्मासा । विरहो सिद्धिगईए उब्वट्टणवजिया नियमा ॥१॥" इति [जघन्ये- भावाश्च ॥३७६॥ नैका समय उस्कृष्टतो भवंति षण्मासाः विरहः सिद्धिगतौ सा उद्वर्जनवर्जिता नियमात् ॥१॥] शेष सुगममिति । अन- सू०५३६न्तरमुपपातस्य विरह वक्ता, उपपातश्चायुर्वन्धे सति भवतीत्यायुर्वन्धसूत्रप्रपावं छविहेत्यादिकमाह छबिधे आउयबंधे पं०तंजातिणामनिधत्ताउते गतिणामणिधत्तावए ठितिनामनिधत्ताउते ओगाहणाणामनिधत्ताउते पएसणामनिधत्ताउए अणुभावणामनिश्चाउते । नेरतियाणं छविहे आउयबंधे पं० सं०-जातिणामनिहत्ताउते जाव अणुभावनामणिहत्ताउए एवं जाव वेमाणियाणं । नेरइया णियमा छम्मासाबसेसाउता परभवियाउयं पगरेति, एवामेव असुरकुमारावि जाव धणियकुमारा, असंखेजवासाउता सग्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिया णियमं छम्मासावसेसाजया परभवियाउर्य पगरेंति, असंखेजवासाउया सन्निमणुस्सा नियम जाव पगरिति, वाणमंतरा जोतिसवासिता केमाणिता जा रतिता (सू०५३६) छबिधे भावे पं० सं०-ओदतिते उपसमिते खतिते खतोवसमिते पारिणामिते सन्निवाइए (सू०५३७) AT सुगमश्चार्य, नवरं आयुषो बन्धः आयुर्बग्धः, तत्र जातिः-एकेन्द्रियजात्यादिः पञ्चधा सैव नाम-नाम्नः कर्मण उउत्तरप्रकृतिविशेषो जीवपरिणामो वा तेन सह निघत-निषितं यदायुस्तजातिनामनिधत्तायुः, निषेकश्च कर्मापुद्गलानां 3585 E aton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 185 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ५३७] दीप अनुक्रम [५८८] Education [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [५३७] स्थान [६], उद्देशक [-], प्रतिसमयानुभवनरचनेति, उक्त सब्वासिं ॥ १ ॥” इति [ मुक्तत्वा सर्वासां ॥ १ ॥ ] स्थापना चैवम्, स्थितिरिति यत् स्थातव्यं केनचिद्वि "मोत्तूण सगमबाहें पढमाए ठिईऍ बहुतरं दव्त्रं । सेसे विसेसहीणं जावुकस्संति स्वकीयामबाधां प्रथमायां स्थितौ बहुतरं द्रव्यं । शेषासु विशेषहीनं यावदुत्कृष्टा इति तथा गतिः- नरकादिका चतुर्द्धा, शेषं तथैवेति गतिनामनिधत्तायुरिति, तथा aftar भावेन जीवेनायुःकर्मणा वा सैव नामः परिणामो धर्मः स्थितिनामस्तेन विशिष्टं निषत्तं यदायुः- दलिकरूपं तत्स्थितिनामनिधत्तायुः, अथवेह सूत्रे जातिनामगतिनामावगाहनानामग्रहणाज्जातिगत्यवगाहनानां प्रकृतिमात्रमुक्तं, स्थितिप्रदेशानुभागनामग्रहणात्तु तासामेव स्थित्यादय उक्ताः, ते च जात्यादिनामसम्बन्धित्वान्नामकर्म्मरूपा एवेति नामशब्दः सर्वत्र कर्मार्थो घटत इति स्थितिरूपं नामकर्म स्थितिनाम तेन सह निघतं यदायुस्तत् स्थितिनामनिधत्तायुरिति, तथा अवगाहते यस्यां जीवः सा अवगाहनाशरीरमोदारिकादि तस्या नाम-औदारिकादिशरीरनामकर्मेत्यवगाहनानाम तेन सह यन्निधत्तमायुस्तदवगाहनानामनिधत्तायुरिति, तथा प्रदेशानां - आयुः कर्म्मद्रव्याणां नाम: - तथाविधा परिणतिः प्रदेशनाम प्रदेशरूपं वा नाम-कर्मविशेष इत्यर्थः प्रदेशनाम तेन सह यन्निधत्तमायुस्तत्प्रदेशनामनिधत्तायुरिति, तथा अनुभाग:- आयुर्द्रव्याणामेव विपाकस्तलक्षण एव नाम:- परिणामोऽनुभागनामोऽनुभागरूपं वा नामकर्मानुभागनाम तेन सह निघत्तं यदायुस्तदनुभागनामनिधत्तायुरिति, अथ किमर्थं जात्यादिनामकर्म्मणाऽऽयुर्विशिष्यते ?, उच्यते, आयुष्कस्य प्राधान्योपदर्शनार्थं, यस्मान्नारकाद्यायुरुदये सति जात्यादिनामकर्म्मणामुदयो भवति, नारकादिभवोपग्राहकं चायुरेव यस्मादुक्तं प्रज्ञभ्याम् - "नेरइए णं Far Far & Fran पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~186~ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५३७] श्रीस्थाना- इसूत्रवृत्तिः ॥३७७॥ ५३७ प्रत सूत्रांक [५३७] दीप अनुक्रम [५८८] भंते ! नेरइएसु उववज्जइ ? अनेरइए नेरइएसु उववज्जइ?, गोयमा! नेरइए नेरइएसु उववज्जइ", एतदुक्तं भवति-नारकायुःसंवेदनप्रथमसमय एवं नारक इत्युच्यते, तत्सहचारिणां च पञ्चेन्द्रियजात्यादिनामकर्मणामप्युदय इति, इह चा-18 उद्देशः३ युर्वन्धस्य पनियत्वे उपक्षिप्ते यदायुषः षड्डिधत्वमुक्तं तद् आयुषो बन्धाव्यतिरेकाद्धस्यैव चायुर्व्यपदेशविषयत्वादिति । आयुबेन्धा 'नियम'ति अवश्यंभावादित्यर्थः, 'छम्मासावसेसाउयत्ति षण्मासा अवशेषा-अवशिष्टा यस्य तत्तथा तदायुर्वेषां ते पण्मासावशेषायुष्काः, परभवो विद्यते यस्मिंस्तत्परभविक तच्च तदायुश्चेति परभविकायुः 'प्रकुर्वन्ति' बन्नन्ति, असाधे-18स०५३६| यानि वर्षाण्यायुर्वेषां ते तथा ते च ते संज्ञिनश्च-समनस्काः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चेत्यसङ्ख्येयवर्षायुष्कसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, इह च संज़िग्रहणमसङ्ख्येयवर्षायुष्काः संज्ञिन एव भवन्तीति नियमदर्शनार्थ, न त्वसमवेयवर्षायुषामसंज्ञिनां व्यवच्छेदार्थ, तेषामसंभवादिति, इह च गाथे-"निरइसुरअसंखाऊ तिरिमणुआ सेसए उ छम्मासे । इगविगला निरुवक्कमतिरिमणुया आउयतिभागे ॥१॥ अवसेसा सोवक्कम तिभागनवभागसत्तबीसइमे । बंधति परभवाउं निययभवे सव्यजीवा उ ॥२॥" इति, [नैरयिकसुरा असङ्ख्यायुषस्तिर्यग्मनुष्याः शेषेषु षट्सु मासेसु एकेंद्रियविकलेंद्रियनिरुपक्रमायुषस्तियेग्मनुष्या आयुष्कतृतीयभागे ॥१॥ अवशेषाः सोपक्रमास्तृतीयनवमसप्तविंशतितमे भागे परभवायुनन्ति निजभवे ||3|| सर्वे जीवाः ॥ २॥] इदमेवान्यरित्थमुक्तम्-इह तिर्यडमनुष्या आत्मीयायुषस्तृतीयत्रिभागे परभवायुषो बन्धयोग्या भवन्ति, देवनारकाः पुनः पण्मासे शेषे, तत्र तिर्यानुष्यैर्यदि तृतीयत्रिभागे आयुर्न बद्धं ततः पुनस्तृतीयत्रिभागस्य तृ-121 ॥ ३७७॥ तीयत्रिभागे शेषे वनन्ति, एवं तावत् सनिसन्वायुर्यावत् सर्वजघन्य आयुर्वन्धकाल उत्तरकालश्च शेषस्तिष्ठति इह तिर्य-18 %AR पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~187~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५३७] CASSETTE प्रत सूत्रांक [५३७] दीप अनुक्रम [५८८] मनुष्या आयुर्बध्नन्ति, अयं चासङ्ग्रेपकाल उच्यते, तथा देवनैरयिकैरपि यदि षण्मासे शेषे आयुर्न बद्धं तत आत्मीयस्यायुषः षण्मासशेष तावत्सजिपन्ति यावरसवेजघन्य आयुर्वन्धकाल उत्तरकालश्चावशेषोऽवतिष्ठते इह परभवायुर्देवनै। रयिका बनन्तीत्ययमसद्धेपकालः । अनन्तरमायुःकर्मबन्ध उक्तः, आयुः पुनरोदयिकभावहेतुरित्यीदयिकभावं भावसाधाच्छेषभावांश्च प्रतिपादयन्नाह 'छबिहे भावे इत्यादि, भवनं भावः पर्याय इत्यर्थः, तत्रौदयिको द्विविधःउदय उदयनिष्पन्नश्च, तत्रोदयोऽष्टानां कर्मप्रकृतीनामुदयः-शान्तावस्थापरित्यागेनोदीरणावलिकामतिकम्योदयावलि-५ कायामात्मीयात्मीयरूपेण विपाक इत्यर्थः, अत्र चैवं व्युत्पत्तिः-उदय एवौदयिका, उदयनिष्पन्नस्तु कर्मोदयजनितो जीवस्य मानुषत्वादिः पर्यायः, तत्र च उदयेन निवृत्तस्तत्र वा भव इत्यौदयिकः इत्येवं व्युत्पत्तिरिति, तथा औपश| मिकोऽपि द्विविधः-उपशम उपशमनिष्पन्नश्च, तत्रोपशमो [ दर्शन] मोहनीयकर्मणोऽनन्तानुबन्ध्यादिभेदभिन्नस्योपश* मणिप्रतिपक्षस्य [वा] मोहनीयभेदान् अनन्तानुबन्ध्यादीनुपशमवतः, उदयाभाव इत्यर्थः, उपशम एवीपशमिकः, उपशमनिष्पन्नस्तु उपशान्तक्रोध इत्यादि, उदयाभावफलरूप आत्मपरिणाम इति भावना, तत्र च व्युत्पत्तिः-उपशमेन निवृत्त औपशमिक इति, तथा क्षायिको द्विविधा-क्षयः क्षयनिष्पन्नश्च, तत्र क्षयोऽष्टानां कर्मप्रकृतीनां ज्ञानावरणादिभेदानां, क्षयः कम्माभाव एवेत्यर्थः, तत्र क्षय एव क्षायिका, क्षयनिष्पन्नस्तु तत्फलरूपो विचित्र आत्मपरिणामः केवलज्ञानदर्शनचारित्रादिः, तत्र क्षयेण निवृत्तः क्षायिक इति व्युत्पत्तिः, तथा क्षायोपशमिको द्विविधा-क्षयोपशमः क्षयोपशमनिष्पन्नश्च, तत्र क्षयोपशमश्चतुर्णा पातिकर्मणां केवल ज्ञानप्रतिबन्धकानां ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनी-1 COCONOCOCCORRESOLARS50 Eaton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~188~ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५३७] श्रीस्थाना- वृत्ति ॥३७८॥ प्रत सूत्रांक [५३७] दीप अनुक्रम [५८८] 564+ON+SACC यान्तरायाणां, क्षयोपशम इह उदीर्णस्य क्षयोऽनुदीर्णस्य च विपाकमधिकृत्योपशम इति गृह्यते, आह-औपश-13 स्थाना. मिकोऽप्येवंभूत एव, नैव, तत्रोपशान्तस्य प्रदेशानुभवतोऽप्यवेदनाद् असिंश्च वेदनादिति, अयं पक्षयोपशमः। क्रियारूप एवेति, क्षयोपशम एवं क्षायोपशमिकः, क्षयोपशमनिष्पन्नस्त्वाभिनिबोधिकज्ञानादिलन्धिपरिणाम आत्मन आयुर्वेन्धा एव, क्षयोपशमेन निवृत्तः क्षायोपशमिक इति च व्युत्पत्तिरिति, तथा परिणमनं परिणाम:-अपरित्यक्तपूर्वावस्थस्यैव | भावाश्च तद्भावगमनमित्यर्थः, उक्तं च-“परिणामो ह्यान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः सू०५३६. परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥१॥" स एव पारिणामिक इत्युच्यते, स च सायनादिभेदेन द्विविधः, तत्र सादिः जीर्णघृतादीनां, तद्भावस्य सादित्वादिति, अनादिपारिणामिकस्तु धर्मास्तिकायादीनां, तनावस्य तेषामनादित्वादिति, Dir३७८॥ तथा सन्निपातो-मेलकस्तेन निवृत्तः सान्निपातिका, अयं चैप पश्चानामौदयिकादिभावानां व्यादिसंयोगतः सम्भवासम्भवानपेक्षया पडिंशतिभङ्गरूपः, तत्र द्विकसंयोगे दश त्रिकसंयोगेऽपि दशैव चतुष्कसंयोगे पश्च पञ्चकसंयोगे त्वेक एवेति, सर्वेऽपि पडूविंशतिरिति, इह चाविरुद्धाः पञ्चदश सन्निपातिकभेदा इष्यन्ते, ते चैवं भवन्ति-"उदइयखओवसमिए परिणामिकेक गइचउक्केवि । खयजोगेणवि चउरो तयभावे उवसमेणंपि ॥१॥ उवसमसेढी एको केवलि णोवि य तहेव सिद्धस्स । अविरुद्धसन्निवाइय भेया एमेव पनरस ॥२॥” इति, [औदयिका क्षायोपशमिकः परिणाशामिका एकको गतिचतुष्केऽपि क्षायिकयोगेनापि चत्वारस्तदभावे औपशमिकेनापि ॥१॥ उपशमश्रेण्यामेकः केवलि-17 नोऽपि च तथैव सिद्धस्य अविरुद्धसांनिपातिकभेदा एवमेते पंचदश ॥२॥] औदयिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नः CASE SamEaucatunina Fit For पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~189~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५३७] प्रत सूत्रांक [५३७] दीप अनुक्रम [५८८] 594 सान्निपातिक एकैको गतिचतुष्केऽपि, तधधा-औदयिको नारकत्वं क्षायोपशमिक इन्द्रियाणि पारिणामिको जीवत्वमिति, इत्थं तिर्यग्नरामरेष्वपि योजनीयमिति चत्वारो भेदाः, तथा क्षययोगेनापि चत्वार एवं तावेव गतिषु, अमिलापस्तुका औदयिको नारकत्वं क्षायोपशमिक इन्द्रियाणि क्षायिकः सम्यक्त्वं पारिणामिको जीवत्वमिति, एवं तिर्यगादिष्वपि वाच्य, सन्ति चैतेष्वपि क्षायिकसम्यग्दृष्टयोऽधिकृतभङ्गान्यथानुपपत्तेरिति भावनीयमिति, 'तयभावे'त्ति क्षायिकाभावे चशब्दाच्छेषत्रयभावे चौपशमिकेनापि चत्वार एष, उपशममात्रस्य गतिचतुष्टयेऽपि भावादिति, अभिलापस्तथैव, नवरं सम्यक्त्वस्थाने उपशान्तकपायत्वमिति वक्तव्यमेते चाष्टौ भनार, प्राकनाश्चत्वार इति द्वादश, उपशमश्रेण्यामेको भङ्गः तस्या मनुष्येवेष भावात् , अभिलापः पूर्ववत्, नवरं मनुष्यविषय एव, केचलिनश्चैक एव औदयिको मानुषत्वं क्षायिका सम्यक्त्वं पारिणामिको जीवत्वं, तथैव सिद्धस्खैक एव, क्षायिकः सम्यक्त्वं पारिणामिको जीवत्वमिति, एवमेतैत्रिभिर्भङ्ग सहिताः प्रागुक्ताः द्वादश अविरुद्धसान्निपातिकभेदाः पञ्चदश भवन्तीति, अपि च-"उवसमिए २ खइएऽविय ९ खयउवसम १८ उदय २१ पारिणामे य३। दो नव अट्ठारसगं इगवीसा तिन्नि भेएणं ॥१॥ सम्म १] चरित्ते २ पढमे दंसण १नाणे य २दाण इलाभे य ४ । उवभोग ५ भोग ६ बीरिय ७ सम्म ८ चरित्ते य ९ तह बीए २॥२॥ चउनाण ४ ऽनाणतियं ३ दंसणतिय ३ पंच दाणलद्धीओ ५। सम्मत्तं १ चारित्तं च १ संजमासंजमे १ पूर्वमुपशान्तकोध इखादिनिर्देशादेवमाहुः पूज्याः, सूत्रानुकरणार्थ वैषमुभयत्रापि निर्देशः, शान्ते च क्रोधादौ अनन्तानुबन्धिनि स्यादेव सम्यक्त्वं. केवलज्ञानादेपलक्षणं. C5%945455 D ET पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~190 ~ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५३७] दीप अनुक्रम [५८८] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः २३७९ ॥ Education to [भाग - 6] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [६], उद्देशक [-1. मूलं [ ५३७] - १ तइए ॥ ३ ॥ चउगइ ४ चउकसाया ४ लिंगतियं ३ लेस छक ६ अन्नाणं १ मिच्छत्त १ मसिद्धतं १ असंजमे १ तह चउत्थे उ ४ ॥ ४ ॥ पंचमगम्मि य भावे जीव १ अभव्यन्त २ भव्यता ३ चैत्र । पंचण्हवि भावाणं भैया एमेव तेवन्ना ॥ १ ॥” इति [ औपशमिकः क्षायिकोऽपि च क्षायोपशमिक औदयिकः पारिणामिकः द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभे देन ॥ १ ॥ सम्यक्त्वचारित्रे प्रथमे दर्शनज्ञानदानला भोपभोगभोगवीर्यसम्यक्त्वचारित्राणि द्वितीये ॥ २ ॥ ज्ञानच तुष्कमज्ञानत्रिकं दर्शनत्रिकं पंच दानाद्या उब्धयः सम्यक्त्वं चारित्रं च संयमासंयमस्तथा ॥ ३ ॥ गतिचतुष्कं कषायचतुष्कं लिंगत्रिकं लेश्यापटुं अज्ञानं मिथ्यात्वमसिद्धत्वं असंयमश्चतुर्थे ॥ ४ ॥ पंचमे भावे जीवत्वं अभव्यत्वं भव्यत्वं पञ्चानामपि भावानां भेदा एवमेव त्रिपञ्चाशत् ॥ ५ ॥ ] अनन्तरं भावा उक्तास्तेषु चाप्रशस्तेषु यद्वृत्तं यच्च प्रशस्तेषु न वृत्तं विपरीतश्रद्धानप्ररूपणे वा ये कृते तत्र प्रतिक्रमितव्यं भवतीति प्रतिक्रमणमाह छव्विद्दे पडिकमणे पं० [सं० उचारपडिकमणे पासवणपडिकमणे इत्तरिते आवकहिते जंकिंचिमिच्छा सोमणंविते ( सू० ५३८ ) कत्तिताणक्खते छत्तारे पण्णत्ते, असिलेसाणक्खसे छत्तारे पं० (सू० ५३९) जीवाणं छाणनिव्वत्तिते पोमाले पावकम्मत्ताते चिर्णिसु वा ३, वं० पुढ विकाश्यनिवतिते जाव तसकायणिवत्तिते, 'एवं चिण उदचिण बंधउदीरय वह निजरा चैव ४ । छप्पतेसिया णं खंधा अनंता पण्णत्ता, छप्पतेसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता, छसमयद्वितीता मोग्गला अनंता, छगुणकालगा पोग्गला जाव छगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता ( सू० ५४०) छट्टाणं छमवर्ण समत्तं ॥ Far Far & Pria Use Only ६ स्थाना० उद्देशः २ प्रतिक्रमणानि न क्षत्रतार ~ 191 ~ काः पटू स्थाननिवर्त्तितादि सू० ५३८५४० ॥ ३७९ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ६ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५४०] दीप अनुक्रम [५९१] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [५४०] स्थान [६], उद्देशक [-], 'छवि पडिकमणे' इत्यादि, प्रतिक्रमणं - द्वितीयप्रायश्चित्तभेदलक्षणं मिथ्यादुष्कृतकरणमिति भावः तत्रोच्चारोरसर्गे विधाय यदीर्यापथिकीप्रतिक्रमणं तदुच्चारप्रतिक्रमणं, एवं प्रश्रवणविषयमपीति, उक्तं च-“उच्चारं पासवर्ण भूमीप वोसिरिंतु जवउत्तो । ओसरिकणं तत्तो इरियावहियं पडिक्कमइ ||१|| बोसिरइ मत्तगे जइ तो न पडिक्कमइ य मत्तगं जो उ। साहू परिद्ववेई नियमेण पडिक्कमइ सो उ ॥ २ ॥” इति [ उपयुक्तो भूमौ उच्चारं प्रश्रवणं व्युत्सृज्यापसृत्येर्यापथिकां प्रतिक्रामयेत्ततः ॥ १ ॥ मात्रके यदि व्युत्सृजति तदा न प्रतिक्राम्यति यस्तु साधुर्मात्रकं परिष्ठापयति स तु नियमात् प्रतिक्राम्यति ॥ २ ॥ ] 'इत्तरियं ति इत्वरं स्वल्पकालिकं दैवसिकरात्रिकादि, 'आवकहियन्ति यावत्कथिकं याव जीविकं महाश्रतभक्तपरिज्ञादिरूपं, प्रतिक्रमणत्वं चास्य विनिवृत्तिलक्षणान्वर्थयोगादिति, 'जंकिंचिमिच्छत्ति खेलसिंधानाविधिनिसर्गाभोगानाभोगसहसाकाराद्य संयमस्वरूपं यत्किञ्चिन्मिथ्या असम्यक् तद्विषयं मिथ्येदमित्येवंप्रतिपतिपूर्वकं मिथ्यादुष्कृतकरणं यत्किञ्चिन्मिथ्याप्रतिक्रमणमिति, उकं च " संजमजोगे अम्भुट्टियस्स जं किंचि वितहमायरियं । मिच्छा एयंति वियाणिऊण मिच्छत्ति कायव्वं ॥ १ ॥” इति [ संयमयोगेष्वभ्युत्थितेनापि यत् किंचिद्वितथमाचरितं एतन्मिथ्येति ज्ञात्वा मिथ्येति कर्त्तव्यं ॥ १ ॥ ] तथा - 'खेलं सिंघाणं वा अप्पडिलेहापमजिउं तहय वोसरिय पडिकमई तंपिय मिच्छुकडं देइ ॥ २ ॥ इत्यादि, [ श्लेष्माणं संघानं चाप्रतिलिख्याप्रमृज्य तथा च व्युत्सृज्य प्रतिक्राम्यति तस्यापि मिथ्यादुष्कृतं ददाति ॥ २ ॥ ] तथा 'सोमणंतिए'ति 'स्वापनान्तिकं' स्वपनस्थ - सुतिक्रियाया स्था० ६४ ४ अन्ते - अवसाने भवं स्वापनान्तिकं, सुप्ठोत्थिता हि ईय प्रतिक्रामति साधव इति, अथवा स्वनो निद्रायशविकल्पस्त Educaton FiFortal & Private ΣΥΜΒΑΤΙΚΑ Ar पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~192~ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [६], उद्देशक [-], मूलं [५४०] श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः ॥३८०॥ प्रत सूत्रांक [५४० दीप अनुक्रम [५९१] SANSACAR स्यान्तो-विभागः स्वमान्तस्तत्र भवं स्वप्नान्तिकं, स्वप्नविशेषे हि प्रतिक्रमणं कुर्वन्ति साधवः, यदाह-गमणागमण स्थाना. विहारे सुत्ते वा सुमिणदसणे राओ । नावानइसतारे इरियावहियापडिक्कमणं ॥१॥ [गमनागमनयोविहारे स्वप्ने वा उद्देशः ३ स्वप्नदर्शने रात्रौ । नौनदीसंतारे ईयापथिकीप्रतिक्रमणं ॥१॥] यतः–'आउलमाउलाए सोवणवत्तियाए' इत्यादि प्रतिक्रमकी प्रतिक्रमणसूत्रं, तथा स्वाकृतप्राणातिपातादिष्वन्वर्थगत्या प्रतीपक्रमणरूपया कायोत्सर्गलक्षणप्रतिक्रमणमेवमुक्तम्--18 णानि न"पाणिवहमुसावाए अदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव । सयमेगं तु अणूणं उसासाणं हवेजाहि ॥१॥” इति, [प्राणिवधे मृ- क्षत्रतारपावादेऽदत्ते मैथुने परिग्रहे चैव उच्टासानामेकं शतमनूनं भवेत् ॥१॥] अनन्तरं प्रतिक्रमणमुक्तं, तच्चावश्यकमप्यु- काः षट्च्यते, आवश्यकं च नक्षत्रोदयाद्यवसरे कुर्वन्तीति नक्षत्रसूत्रं शेपसूत्राणि चा अध्ययनपरिसमाप्तेः पूर्वाध्ययनवदवसेया स्थान निनीति । इति श्रीमदभयदेवाचार्यविरचिते स्थानाख्यतृतीयाकविवरणे पदस्थानकाख्यं षष्ठमध्ययनं समाप्तम् ॥ वर्तितादि ग्रंथानं ७६५। सू०५३८ ५४० इति श्रीमति स्थानाङ्गे चन्द्राकुलनभस्तलमृगाङ्कश्रीमदभयदे वाचार्यविहितविवरणयुतं षष्ठं स्थानकं समाप्तम् ।। SAMACSSCICE ॥३८ ॥ Mamtaurasi मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र षष्ठं स्थानं परिसमाप्तं अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-६ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, षष्ठे स्थाने न किंचित उद्देशकः वर्तते ~193~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५४१] अथ सप्तमस्थानकम् प्रत सूत्रांक [५४१] दीप अनुक्रम [५९२] RSSCSCAL व्याख्यातं पष्ठमध्ययनमधुना सप्तममारभ्यते, अस्य चायमभिंसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने पटूसङ्ग्योपेताः पदार्थाः प्रकारूपिताः, इह तु त एव सप्तसङ्ख्योपेताः प्ररूप्यन्त इत्येवंसम्बन्धस्यास्य चतुरनुयोगद्वारस्येदमादिसूत्रम् सत्तविहे गणावकमणे पं० सं०-सव्वधम्मा रोतेनि १ एगतिता रोएमि एगइया णो रोएमि २ सव्वधम्मा वितिगिपछामि ३ एगतिया वितिगिच्छामि एगतिया नो वितिगिच्छामि ४ सम्वधम्मा जुहुणामि ५ एगतिया जुहुणामि पग तिया णो जुहुणामि ६ इच्छागि णं भंते ! एगहविहारपडिमं उनसंपत्तिा णं बिहरित्तते ७ (सू० ५४१) 'सत्तविह'त्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः-अनन्तरसूत्रे पुद्गला पर्यायत उक्ताः, इह तु पुद्गलविशेषा-1 णामेव क्षयोपशमतो योऽनुष्ठानविशेषो जीवस्य भवति तस्य सप्तविधत्वमुच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या, संहिता-3 दिस्तु तत्क्रमः प्रतीत एच, नवरं सप्तविधं-सप्तप्रकार प्रयोजनभेदेन भेदात् गणाद्-गच्छादपक्रमणं-निर्ममो गणापक्रमणं प्रज्ञप्तं तीर्थकरादिभिः, तद्यथा-सर्वान् 'धान्' निर्जराहेतून् श्रुतभेदान्-सूत्रार्थोभयविषयान् अपूर्वग्रहणवि पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अथ सप्तमं स्थानं आरभ्यते ~194~ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१४१] Hk श्रीस्थाना वृत्तिः ॥३८१॥ प्रत सूत्रांक [५४१] दीप अनुक्रम [५९२] स्मृतसन्धानपूर्वाधीतपरावर्तनरूपान् चारित्रभेदांश्च-क्षपणवैयावृत्त्यरूपान् 'रोचयामि' रुचिविषयीकरोमि चिकीर्षामि, ते चामुत्र परगणे सम्पद्यन्ते नेह स्वगणे, बहुश्रुतादिसामग्यभावाद्, अतस्तदर्थ स्वगणादपक्रमामि भदन्त ! इत्येवं गुरु उद्देशः३ पृच्छाद्वारेणैक गणापक्रमणमुक्तं १, अथ 'सर्वधर्मान् रोचयामी'त्युक्ते कथं पृच्छार्थोऽवगम्यते इति ?, उच्यते, 'इच्छामि णं भंते! एकल्लविहारपडिम'मित्यादिपृच्छावचनसाधादिति, रुचेस्तु करणेच्छार्थता 'पत्तियामि रोएमी'त्यत्र व्याख्या | मणकारतेवति, क्वचित्तु 'सब्बधम्म जाणामि, एवंपि एगे अवक्कमे' इत्येवं पाठः, तत्र ज्ञानी अहमिति किं गणेनेति मदादपक्रा-12 जानि मति १, तथा 'एगइय'त्ति एककान् काश्चन श्रुतधर्माश्चारित्रधर्मान् वा रोचयामि-चिकीर्षामि एककांश्च श्रुतधी सू०५४१ चारित्रधर्मान वा नो रोचयामि-न चिकीर्षामीत्यतश्चिकीर्षितधर्माणां स्वगणे करणसामध्यभावादपकमामि भदन्त इति है द्वितीयं २, तथा सर्वधर्मान्-उक्तलक्षणान् विचिकित्सामि-संशयविषयीकरोमीत्यतः संशयापनोदार्थ स्वगणादपक्रमा-12 मीति तृतीयं ३, एवमेककान् विचिकित्सामि एककान् नो विचिकित्सामीति चतुर्थं ४, तथा 'जुरणामित्ति जुहोमिअन्येभ्यो ददामि, न च स्वगणे पात्रमस्त्यतोऽपक्रमामीति पञ्चमं ५, एवं षष्ठमपि ६, तथा इच्छामि णं भदन्त!-धर्माचार्य एकाकिनो गच्छनिर्गतत्वाजिनकल्पिकादितया यो विहारो-विचरणं तस्य या प्रतिमाप्रतिपत्तिा-प्रतिज्ञा सा एकाकि-1 विहारप्रतिमा तामुपसम्पद्य-अङ्गीकृत्य विह मिति सप्तममिति । अथवा सर्वधर्मान् रोचयामि-श्रद्दधे अहमिति || तेषां स्थिरीकरणार्थमपक्रमामि, तथा एककान रोचयामि श्रद्दधे एककांश्च नो रोचयामीत्यश्रद्धितानां श्रद्धानार्थमपकामामीत्यनेन पदद्वयेन सर्वविषयाय देशविषयाय च सम्यग्दर्शनाय गणापक्रमणमुकं १। एवं सर्वदेशविषयसंशयवि-12 AmEautator पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~ 195~ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५४१] दीप अनुक्रम [५९२] Education [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [५४१] स्थान [७], उद्देशक [-], नोदसूचकेन 'सब्बधम्मा विचिकिच्छामीत्यादिपदद्वयेन ज्ञानार्थमपक्रमणमुक्तमिति, तथा 'सर्वधर्मान् जुहोमी' ति जुहोतेरदनार्थत्वाद् भक्षणार्थस्य चासेवावृत्तिदर्शनादाचराम्यासेवाम्यनुतिष्ठामीतियावत् तथा एककाशासेवामीति सर्वेषामासेव्यमानानां विशेषार्थमनासेवितानां च क्षपणवैयावृत्त्यादीनां चारित्रधर्माणामासेवार्थमपक्रमामीत्यनेन पदद्वयेन तथैव चारित्रार्थमपक्रमणमुक्तमिति, उक्तं च- "नाण दंसणट्ठा चरणा एवमाइ संक्रमणं । संभोगट्ठा व पुणो आयरियट्ठा व णायन्त्रं ॥ १ ॥” इति [ ज्ञानार्थ दर्शनार्थं चरणार्थं इत्याद्यर्थं संक्रमणं संभोगार्थ च पुनः आचार्यार्थ च ज्ञातव्यं ॥ १॥ ] तत्र ज्ञानार्थ- "सुत्तस्स व अत्थस्स व उभयस्स व कारणा उ संकमणं । वीसज्जियस्स गमणं भी ओ य. नियत्तए कोइ ॥ १ ॥” इति [ सूत्रस्य वार्थस्य वोभयस्य वा कारणात् संक्रमणं विसर्जितस्य गमनं भीतो वा निवर्त्तते कोऽपि ॥१॥ ] दर्शनप्रभावकशास्त्रार्थ दर्शनार्थ, चारित्रार्थं यथा - "चरितट्ठ देसि दुविहा, ( देशे द्विविधा दोषा इत्यर्थः > एसणदोसा य इत्थिदोसा य । ( ततो गणापक्रमणं भवति > गच्छमि य सीयंते आयसमुत्थेहिं दोसेहिं ॥ १ ॥” इति, [ चारित्रार्थ देशे दोषेषु द्विविधास्ते एषणादोषाः स्त्रीदोषाश्च आत्मसमुत्थैदोषैर्गच्छे च सीदति ॥ १ ॥ ] सम्भोगार्थं नाम यत्रोपसम्पन्नस्ततोऽपि विसम्भोगकारणे सदनलक्षणे सत्यपक्रामतीति, आचार्यार्थ नामाचार्यस्य महाकल्पश्रुतादि श्रुतं नास्त्यतस्तदध्यापनाय शिष्यस्य गणान्तरसङ्कमो भवतीति इह च स्वगुरुं पृष्टुंव विसर्जितेनापक्रमितव्यमिति सर्वत्र पृच्छार्थी व्याख्येयः उक्तकारणवशात् पक्षादिकाला परतोऽविसर्जितोऽपि गच्छेदिति, निष्कारणं गणापक्रमणं स्वविधेयं, यतः-- "आयरियाईण भया पच्छित्तभया न सेवइ अकिचं । वेयावच्चञ्झयणेमु सज्जए तदुवओगेणं ॥ १ ॥" [ आचा Far Far & Pria Use Only पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 196 ~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५४२] स्थाना० सप्तधा विभङ्गा प्रत ३८२॥ ज्ञानं सू०५४२ सूत्रांक [५४१] दीप अनुक्रम [५९२] श्रीस्थाना- हर्यादीनं भयात् प्रायश्चित्तभयान सेवतेऽकार्य वैयावृत्त्याध्ययनयोः सम्यते तदुपयोगेन ॥१॥] (सूत्रार्थोपयोगेने- जसूत्र- त्यर्थः> तथा-"एगो इत्थीगंमो तेणादिभया य अल्लिययगारे (गृहस्थान् > कोहादी च दिन परिनिवाति से | अन्ने ॥१॥त्ति, [एका स्त्रीगम्यः स्तेनादिभयानि चाश्रयत्यगारिणः क्रोधादीनुदीरयंतं तमन्ये परिनिर्वापयन्ति ॥१॥ एवं श्रद्धानस्थैर्याद्यर्थमन्यथा वा गणादपक्रान्तस्य कस्यापि विभङ्गज्ञानं स्यादिति तस्य भेदानाह सत्तविहे विभंगणाणे पं० त०-गदिसिलोगाभिगमे १ पंचदिसिलोगाभिगमे २ किरियापरणे जीवे ३ मुदग्गे जीवे ४ अमुदग्गे जीने ५ रूबी जीवे ६ सबमिणं जीवा ७ । तत्थ खलु इमे पढमे विभंगणाणे-जया णे सहारूवस्स समणस्स या माहणस्स वा विभंगणाणे समुप्पजति, से गं तेणं विभंगणाणेण समुप्पन्नेणं पासति पातीणं वा पहिणं का दाहिणं पा उपीणं वा उर्दु वा जाव सोहम्मे कप्पे, तस्स णमेवं भवति-अस्थि णं मम अतिसेसे णाणसणे समुप्पन्ने एगदिसिं लोगामिगमे, संतेगतिया समणा वा माहणा वा एवमासु पंचदिसि लोगाभिगमे, जे ते एवमासु मिक्छ ते एव मासु, पढमे विभंगनाणे १ । अहावरे दोणे विभंगनाणे, जता अंतहारूवस्स समणस्स का माहणस वा विभगणाणे समुपजाति, सेणं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पोणं पासति पातीणं वा पतिणं वा वाहिणं वा नदीणं वा उई जाव सोहम्मे कापे, तस्स णमेवं भवति-अस्थि णं मम अतिसेसे पाणदसणे समुप्पन्ने पंचदिसि लोगाभिगमे, संतेगतिता समणा वा माहणा वा एवमासु-एगदिसि लोयामिगमे, जे ते एवमासु मिच्छं ते एकमाईसु, दोचे विभंगणाणे २। अहावरे तो विभंगणाणे, जया गं तहारूवरम समणस्स वा माइणस्स वा विभंगणाणे समुपजति, से णं तेणं विभ ॥३८२॥ E aton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~197~ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१४२] 3% प्रत सूत्रांक [५४२] दीप अनुक्रम [५९३] गणाणणं समुष्पोणं पासति पाणे अतिवातेमाणा मुसं वत्तेमाणे अदिममावितमाणे मेहुणे पडिसेवमाणे परिग्गहं परिगि- । ग्रहमाणे राइभोयर्ण भुंजमाणे वा पावं च णं कम्मं कीरमाणं णो पासति, तस्स णमेचं भवति-अस्थि णं मम अतिसेसे णाणदसणे सगुपन्ने, किरिताबरणे जीवे, संतेगतिता समणा वा माहणा वा एवमाहसुनो किरितावरणे जीणे, जे ते एवमासु मिकछं से एक्माहंसु, तच्चे विभंगणाणे ३ । अहावरे चउत्ये विभंगणाणे जया पे तयारूपस्स समणस्स वा माहणस्स वा जाव समुप्पजति, से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पनेणं देवामेव पासति, बाहिरन्भतरते पोग्गले परितादितिता पुढेगतं णाणतं फुसिया फुरेत्ता फुट्टित्ता विकुम्विता णं विकुवित्ता गं चिट्टित्तए, तस्स णमेवं भवति-भत्थि णं मम अतिसेसे णाणदसणसमुप्पन्ने, मुदग्गे जीवे, संतेगतिता समणा वा माहणा वा एषमासु-अमुम्मो जीवे, जे ते एवमासु मिच्छं ते एवमासु, पपत्ये निभंगनाणे ४ । अहावरे पंचमे विभंगणाणे, जथा गं तधारूवस्स समणस्स जाव समुपजति, से ण तेणं विभंगणाणेणं समुष्पन्नेणं देवामेव पासति, बाहिरभंतरए पोग्गलए अपरितादितित्ता पुढे. गतं णाणत्तं जाव विउम्वित्ता पं चिहित्तते तस्स णमेवं भवति-अस्थि जाव समुप्पन्ने अमुदग्गे जीवे, संतेगतिता समणा वा माहणा वा एवमासु-मुग्ने जीवे, जे ते एवमाहंसु मिच्छ से एबमाइंसु, पंचमे विभंगणाणे ५ । अहावरे हे विभंगणाणे, जया णं तधारूवस्स समणस्स वा माणस वा जाव समुप्पज्जति, से गं तेणं विभंगणाणेणं समुपमेणं देवामेव पासति, बाहिरन्भतरते पोगले परितातित्ता वा अपरियावितिता वा पुढेगतं णाणसं कुसेता जाव विकुबित्ता चिडित्तते, तस्स णमेवं भवति-अस्थि णं मम अतिसेसे णाणदसणे समुप्पने, रूबी जीये, संतेगतिता RSSMALS E aton File F rau पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~198~ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१४२] स्थाना० उद्देशः३ सप्तधा विभङ्ग ज्ञानं सू०५४२ प्रत सूत्रांक [५४२] दीप अनुक्रम [५९३] श्रीस्थाना समणा वा मादणा वा एवमाहंसु-अरूवी जीवे, जे ते एवमाहेसु मिच्छं ते एवमाईसु, छड्ढे विभंगणाणे ६ । अहावरे सत्तमे विभंगणाणे जया णं तहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स वा विभंगणाणे समुपज्जति, से णं तेणं विभंगणाणणं इसूत्रवृत्तिः समुप्पन्नेणं पासह मुहुमेणं वायुकातेणं फुड पोग्गलकार्य एततं येवंतं चलंतं खुभंतं फंदर घट्टतं वीरें तं तं भावं परिणमंतं, तस्स णमेवं भवति-अस्थि णं मम अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पन्ने, सव्वमिणं जीवा, संतेगतिता समणा वा ॥३८३॥ 'माहणा वा एषमासु-जीवा चेव अजीवा चेव, जे ते एवमासु मिच्छं ते एव माईसु, सस्स णमिमे पचारि जीवनिकाया णो सम्ममुवगता भवंति, तं०-पुढचिकाइया आऊ तेऊ वाउकाइया, इच्चेतेहिं चउहि जीवनिकाएहि मिच्छादंड पवत्तेइ सत्तमे विभंगणाणे ७ । (सू० ५४२) 'सत्तविहे'त्यादि, 'सप्तविध' सप्तप्रकार विरुद्धो वितथो वा अन्यथा वस्तुभङ्गो-वस्तुविकल्पो यस्मिंस्तद्विभङ्गं तच तज्ज्ञानं च साकारत्वादिति विभङ्गज्ञानं मिथ्यात्वसहितोऽवधिरित्यर्थः, 'एगदिसं'ति एकस्यां दिशि एकया दिशा पूर्वो- दिकयेत्यथे। 'लोकाभिगमो' लोकावबोध इत्येक विभङ्गज्ञान, विभङ्गता चास्य शेषदिक्षु लोकस्यानभिगमेन तत्प्रतिषधनादिति १, तथा पंचसु दिक्षु लोकाभिगमो नैकस्यां कस्यांचिदिति, इहापि विभङ्गता एकदिशि लोकनिषेधादिति २, कियामात्रस्यैव-प्राणातिपातादेजीवः क्रियमाणस्य दर्शनात तुकर्मणश्चादर्शनात क्रियैवावरणं-कम्मै यस्य स क्रियावरण, कोऽसी-जीव इत्यवष्टम्भपरं यद्विभङ्ग तत्तृतीय, विभङ्गता चास्य कर्मणोऽदर्शनेनानभ्युपगमादेवमुत्तरत्रापि विभादताऽवसेयेति ३, 'मुयग्गे'ति बाह्याभ्यन्तरपुद्गलरचितशरीरो जीव इत्यवष्टम्भवत्, भवनपत्यादिदेवानां बाह्याभ्यन्तरपुर D ३८३॥ E Fit Forum पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~199~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१४२] प्रत सूत्रांक [५४२] दीप अनुक्रम [५९३] लपर्यादानतो वैक्रियकरणदर्शनादिति चतुर्थं ४, 'अमुदग्गे जीवेत्ति देवानां बाह्याभ्यन्तरपुद्गलादानविरहेण वैक्रियवतां | दर्शनाद् अबाह्याभ्यन्तरपुद्गलरचितावयवशरीरो जीव इत्यवसायवसश्चम ५, तथा 'रूपी जीवे'त्ति देवानां वैक्रियशरीरचता दर्शनाद्रूप्येव जीव इत्येवमवष्टम्भवत् षष्ठमिति ६, तथा 'सव्वमिणं जीव'त्ति वायुना चलतः पुद्गलकायस्य दर्शनात् सर्वमेवेदं वस्तु जीवा एव, चलनधम्मोपेतत्वादित्येवं निश्चयवत्सप्तममिति सत्रहवचनमेतत् ।'तत्थे'त्यादि खेत| स्यैव विवरणवचनभुत्तानार्थमेव नवरं 'तस्य'त्ति तेषु सप्तसु मध्ये 'जया णं'ति यस्मिन् काले 'से गति इह तदेति गम्यते स विभंगी 'पासइत्ति उपलक्षणत्वाजानातीति च, अन्यथा ज्ञानत्वं विभंगस्य न स्यादिति, 'पाईणं वेत्यादि, वा | विकल्पार्थः, 'उहूं जाव सोहम्मो कप्पो' इत्यनेन सौधर्मात् परतः किल प्रायो बालतपस्विनो न पश्यन्तीति दर्शितं, तथाद्रवधिमतोऽप्यधोलोको दुरधिगमो विभङ्गज्ञानिनस्तु सुतरामित्यधोदिग्दर्शनमिह नाभिहितं, दुरधिगम्यता चाधोलोकस्य त्रिस्थानकेऽभिहितेति, 'एवं भवइति एवंविधो विकल्पो भवति, यदुत-अस्ति मे अतिशेष-शेषाण्यतिक्रान्तं सातिशयमित्यर्थों ज्ञानं च दर्शनं च ज्ञानेन वा दर्शनं ज्ञानदर्शनं, ततश्चैकदिशो दर्शनेन तत्रैव लोकस्योपलम्भादाह-एकदिशि लोकाभिगम इति, एकदिग्मात्र एव लोकस्तथोपलम्भादिति भावः, 'सन्ति' विद्यन्ते एकके श्रमणा वा ब्राह्मणा वा, ते | चैवमाहुः-अन्यास्वपि पञ्चसु दिक्षु लोकाभिगमो भवति, तास्वपि तस्य विद्यमानत्वात्, ये ते एवमाहुः यदुत-पञ्चस्वपि | | दिक्षु लोकाभिगमो मिथ्या ते एक्माहुरिति प्रथम विभङ्गज्ञानमिति । अथापरं द्वितीय, तत्र 'पाईणं वे'त्यादी, वाश-15 ताब्दश्चकारार्थों द्रष्टव्यः विकल्पार्थत्वे तु पञ्चानां दिशां पश्यत्ता न गम्यते, एकस्या एव च गम्यते, तथा च प्रथमद्वितीय 13456-52 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~200~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१४२] विभङ्ग प्रत सूत्रांक [५४२] दीप अनुक्रम [५९३] श्रीस्थाना- योविभङ्गयोर्भेदो न स्यादिति, कचिद्वाशब्दा न दृश्यन्त एवेति २, प्राणानतिपातयमानानित्यादिषु जीवानिति गम्यते, स्थाना सूत्र- ट्रानो किरियावरणे'त्ति अपितु कर्मावरण इति ३, 'देवामेव'त्ति देवानेव भवनवास्यादीनेव 'बाहिरन्मंतरे' तिउद्देशः ३ वृत्ति बाह्यान शरीरावगाहक्षेत्रात् अभ्यन्तरान्-अवगाहक्षेत्रस्थान पुद्गलान्-वैक्रियवर्गणारूपान् 'पर्यादाय' परि-समन्तात् वैक्रि-II सप्तधा यसमुत्पातेनादाय-गृहीत्वा, 'पुढेगति पृथकालदेशभेदेन कदाचिक्कचिदित्यर्थः, 'एकत्वं' एकरूपत्वं 'नानास्वं' ना-131 ॥३८४॥ नारूपत्वं विकृत्य उत्तरक्रियतया 'चिठूत्तए'त्ति स्थातुं आसितुं प्रवृत्तानिति वाक्पशेष इति सम्बन्धः, कथं विकृत्येत्याही ज्ञान 'फुसित्ता'तानेव पुद्गलान् स्पृष्ट्वा तथाऽऽरमना स्फुरित्वा वीर्यमुल्लास्य पुद्गलान् वा स्फोरयित्वा तथा 'स्फुटित्वा' प्रका- सू०५४२ शीभूय, पुद्गलान् वा स्फोटयित्वा, वाचनान्तरे तु पदद्वयमपरमुपलभ्यते, तत्र संवर्त्य-सारानेकीकृत्य निवर्त्य-असा W ३८४॥ रान् पृथकृत्येति, अथवा पर्याप्तपुद्गलैरुत्तरवैक्रियशरीरस्यैकत्वं नानात्वं च कर्मतापनं स्पृष्ट्वा-प्रारभ्य तथा स्फुरस्कृत्वास्फुटं कृत्वा सम्-एकीभावेन वर्तितं-सामान्यनिष्पन्नं कृत्वा निर्वसितं कृत्वा-सर्वथा परिसमाप्य, किमुक्तं भवति ?-विकुळ-वैक्रियं कृत्वा न त्वौदारिकतयेति, तस्येति विभङ्गज्ञानिनो बाह्याभ्यन्तरपुद्गलपर्यादानप्रवृत्तदेवान् पश्यत एवं भबति-इति विकल्पो जायते, 'मुदग्गे'ति बाह्याभ्यन्तरपुद्गलरचितशरीरो जीव इति ४, अथापरं पञ्चमं, तत्र बाह्याभ्यन्तरान् पुगलान्-अपर्यादायेत्यत्र निषेधस्य वैकियसमुद्घातापेक्षित्वादुत्पत्तिक्षेत्रस्थांस्तूसत्तिकाले गृहीत्वा भवधारणीयश-| रीरस्यैकत्वमेकदेवापेक्षया कण्ठाद्यवयवापेक्षया वा नानात्वं त्वनेकदेवापेक्षया हस्ताङ्गल्याद्यवयवापेक्षया या विकुऱ्या स्थातुं प्रवृत्तानित्यादि, शेष प्राग्वत्, बाह्यपुद्गलपर्यादानं हि विनोत्तरवैक्रियैकत्वनानात्वे किल न भवत इति भवधारणीयमिहा CamEauratonimumational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~ 201~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१४२] प्रत सूत्रांक [५४२] दीप अनुक्रम [५९३] धिकृतं, तदेवमबाह्याभ्यन्तरपुद्गलरचितशरीरदेवदर्शनात्तस्यैवं विकल्पो भवति-'अमुदग्गे'त्ति अबाह्याभ्यन्तरपुनलछारचितावयवशरीरो जीव इति ५, 'रूवी जीवेत्ति पुद्गलानां पर्यादानेऽपर्यादाने च वैक्रियरूपस्यैकानेकरूपस्य देवेषु । दर्शनादपवानेव जीव इत्यवसायो जायते, तस्य अरूपस्य कदाचनाप्यदर्शनादिति ६, 'सुहमें'त्यादि सूक्ष्मेण-मन्देन । न त सूक्ष्मनामकर्मोदयवत्तिना, तस्य वस्तुचलनासमर्थत्वात्, 'फुडंति स्पृष्टं 'पुद्गलकार्य पुगलराशिं 'एपंतति || एजमान कम्पमानं 'ब्येजमानं' विशेषेण कम्पमानं 'चलन्तं स्वस्थानादन्यत्र गच्छन्तं 'वश्यन्तं' अधो निमज्जन्त 'स्पन्दन्त' ईषचलन्त 'घट्टयन्त' वस्त्वन्तरं स्पृशन्तमुदीरयन्तं वस्त्वन्तरं प्रेरयन्तं तं तमनाख्येयमनेकविधं 'भावं पर्याय 'परिणमन्तं'गच्छन्तं तं सव्वमिण'ति सर्वमिदं चलत् पुद्गलजातं जीवाः स्पन्दनलक्षणजीवधर्मोपेतत्वात्, यच्च * चलदपि श्रमणादयो जीवाश्चाजीवाश्चेति प्राहुः तन्मिथ्येति तदध्यषसाय इति, 'तस्स 'ति तस्य विभङ्गज्ञानवतः 'इ-1 में'त्ति वक्ष्यमाणा न सम्यगुपगता:-अचलनावस्थायां जीवत्वेन न बोधविषयीभूताः, तपथा-पृथिव्यापस्तेजो वायवः, चलनदोहदादिधर्मवतां सानामेव दोहदादित्रसधर्मवतां वनस्पतीनामेव च जीवतया प्रज्ञानात्, पृथ्व्यादीनां तु वाकायुचलनेन स्वतश्चलनेन च त्रसत्येनैव प्रज्ञानात् स्थावरजीवतया तु तेषामनभ्युपगमाञ्चेति, 'इचेएहिंति इतिहेतोरेतेषु || चतुर्ष जीवनिकायेषु मिथ्यात्वपूर्वो दण्डो-हिंसा मिथ्यादण्डस्तं प्रवर्सयति, तद्रूपानमिज्ञः संस्तान हिनस्ति निहते चेति भाव इति सप्तमं विभङ्गज्ञानमिति ७ मिथ्यादण्डं प्रवर्तयतीत्युकं, दण्डव जीवेषु भवतीति योनिसङ्गहतो जी-IN वानाह E aton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: -~-202~ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१४३] ७स्थाना० श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः ॥३८५॥ प्रत सूत्रांक [५४२] दीप अनुक्रम [५९३] सत्तविधे जोणिसंगधे पं० सं०-अंडजा पोतजा जराउजा रसजा संसत्तगा संमुच्छिमा उभिगा, अंडगा सत्तगतिता सत्तागतित्ता पं० सं०-अंडगे अंडगेसु उववजमाणे अंडतेहिंतो वा पोतजेहिंतो वा जाच उभिएहितो वा उपजेज्जा, उद्देशः से चेवणं से अंडते अंढगत्तं विपजहमाणे अंडगताते वा पोतगताते वा जाव उम्भियत्ताते वा गमछेजा पोत्तगा सत्तग अण्डतातिता सत्तागतित्ता, एवं चेव सत्तण्हषि गतिरागती भाणियब्बा, जाव अभियत्ति (सू०५४३) आयरियउवज्झायस्स दियोनिगं गणंसि सत्त संगहठाणा पं० त०-आयरियउवज्झाए गणसि आणं वा धारणं वा सम्म पउंजित्ता भवति, एवं संग्रहःगजधा पंचढाणे जाव आयरियतवन्झाए गणसि आपुच्छियचारि यावि भवति नो अणापुच्छियचारि यावि भवति, आय- 13 संग्रहेतरे रियउवज्झाए गणंसि अणुप्पन्नाई उवगरणाई सम्म उप्पाइत्ता भवति, आयरियउवज्झाए गणसि पुष्वुप्पन्नाई उपकरणाई पिण्डपासम्म सारक्खेत्ता संगोवित्ता भवति णो असम्म सारक्वेत्ता संगोवित्ता भवइ । आयरियउवज्झायस्स गं गणसि सत्त नैषणावअसंगठाणा पं० ०-आयरियउवज्झाए गणंसि आणं वा धारणं वा नो सम्म पउंजित्ता भवति, एवं आव उबगरणाणं ग्रहाद्याः नो सम्म सारक्खेचा संगोवेत्ता भवति (सू०५४४) सत्त पिंडेसणाओ पन्नत्तातो । सत्त पाणेसणाओ पन्नत्ताओ । सू०५४३सस उम्गदपडिमातो पनचाता । सत्तसत्तिकया पन्नता । सत्त महज्झयणा पण्णता । सत्तसत्तमिया गं भिक्खुपडिमा ५४५ एकूणपण्णताते रातिदिएहिमेगेण य छण्णउएणं भिक्खासतेणं अहासुतं [अहा अत्यं] जाव आराहियाधि भवति (सू० ५४५) 'सत्तविहे'इत्यादि, योनिभिः-उत्सत्तिस्थानविशेषेर्जीवानां सङ्ग्रहः योनिसङ्कहा, सच सप्तधा, योनिभेदात् सप्तधा ॥३८५॥ जीवा इत्यर्थः, अण्डजा-पक्षिमत्स्यसदिया, पोतं-वस्त्रं तद्वज्जाता: पोतादिव वा बोहित्थाजाताः, अजरायुवेष्टिता इत्यर्थः, Econ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~203~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१४५] प्रत सूत्रांक [५४५] दीप अनुक्रम [५९६] %AGROCEROSCONSORR402 पोतजाः-हस्तिवल्गुलीप्रभृतयः, जरायो-गर्भवेष्टने जाता तद्वेष्टिता इत्यर्थों जरायुजाः-मनुष्या गवादयश्च, रसे-तीमन-|| काञ्जिकादी जाता रसजाः, संवेदाज्जाताः संवेदजा-यूकादयः, सम्मूर्छन निर्वृत्ताः सम्मूछिमा:-कृम्यादयः, उद्भिदो -भूमिभेदाजाता उद्भिजाः-खञ्जनकादयः । अथाण्डजादीनामेव गत्यागतिप्रतिपादनाय 'अंडये'त्यादि सूत्रसप्तकं, तत्र मृतानां सप्त गतयोऽण्डजादियोनिलक्षणा येषां ते सप्तगतयः सप्तभ्य एवाण्डजादियोनिभ्य आगतिः-उत्पत्तियेषां ते सप्तागतयः, 'एवं चेव'चि यथाऽण्डजानां सप्तविधे गत्यागती भणिते तथा पोतजादिभिः सह सप्तानामध्यण्डजादिजी-15 वभेदानां गतिरागतिश्च भणितव्या 'जाव उम्भिय'त्ति सप्तमसूत्र यावदिति, शेषं सुगम । पूर्व योनिसङ्ग्रह उक्त इति सङ्घहप्रस्तावासनहस्थानसूत्रम्-'आयरिए'त्यादि, आचार्योपाध्यायस्येति समाहारद्वन्दः कर्मधारयो वा 'गणे' गच्छे स-11 हो ज्ञानादीनां शिष्याणां वा तस्य 'स्थानानि' हेतवः सहस्थानानि, आचार्योपाध्यायो गणे आज्ञा वा-विधिविषयमादेशं धारणां वा-निषेधविषयमादेशमेव सम्यक् प्रयोक्ता भवति, एवं हि ज्ञानादिसङ्ग्रहः शिष्यसकहो वा स्या, अन्यथा तद्भश एवेति प्रतीत, यतः-"जहि नस्थि सारणा धारणा य पडिचोयणा य गच्छंमि । सो उ अगच्छो गच्छो मोत्तब्यो | संजमत्थीहिं ॥१॥" इति, [यत्र गच्छे सारणा बारणा च प्रतिचोदना च नास्ति स गच्छोऽगच्छ एव संयमार्थिभिमोक्तव्यश्च ॥१॥] 'एवं जहा पंचठाणे'त्ति, तच्चेद-आयरियउवज्झाए णं गणंसि अहाराइणियाए कितिकम्म पढजित्ता भवति २ आयरियउवम्झाए णं गर्णसि जे सुयपजवजाते धारेइ ते काले काले सम्म अणुप्पयाइत्ता भवद ३ आ-1 यरिय उवज्झाए णं गणसि गिलाणसेहवेआवचं सम्म अब्भुद्वित्ता भवई ४ आयरियउवज्झाए णं गणंसि आपुच्छियचारि ACAAGALORERAKAKAR स्था०६५ SamEaucatunintaman (M anummary पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~204~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५४५] वृत्तिः प्रत सूत्रांक [५४५] दीप अनुक्रम [५९६] श्रीस्थाना- यावि हवइ, नो अणापुच्छियचारी ५' स्थानद्वयं विहवेति, व्याख्या तु सुकरैव, नवरमाप्रच्छनं गच्छस्य, यत उक्तम्- स्थाना० सूत्र- "सीसे जइ आमंते पडिच्छगा तेण वाहिरं भावं । अह इयरे तो सीसा ते व समत्तमि गच्छंति ॥१॥ तरुणा बाहिरभावं उद्देशः३ न य पडिलेहोबही ण किइकम्मं । मूलगपत्तसरिसगा परिभूया पश्चिमो थेरा ॥२॥" इति, [शिष्यान् यद्यामंत्रयेत् प्र- अण्डता तीच्छकास्तेन बाह्यं भावं अथेतरांस्तदा शिष्यास्ते च समाप्ते ब्रजन्ति ॥१॥ तरुणा बाह्यभावं न च प्रतिलेखनोपधेः कृ- दियोनि॥३८६॥ |तिकर्म मूलकपत्रसदृशकाः परिभूता ब्रजामः स्थविराः॥२॥] तथा 'अणुप्पन्नाईति अनुत्पन्नानि-अलब्धानि 'उपक- संग्रहः गरणानि' वस्त्रपात्रादीनि सम्यग्-एषणादिशुधा 'उत्पादयिता' सम्पादनशीलो भवति, संरक्षयिता-उपायेन चौरा- णसंग्रहेतरे दिभ्यः 'सङ्गोपयिता' अल्पसागारिककरणेन मलिनतारक्षणेन चेति । एवं सनहस्थानविपर्ययभूतमसङ्ग्रहसूत्रमपि भाव- पिण्डपानीयमिति । अनन्तरमाज्ञां न प्रयोक्ता भवतीत्युक्तमाज्ञा च पिण्डैपणादिविषयेति पिण्डैषणादिसूत्रपटम्-'सस पिंडे- नैषणाव सणा'त्ति पिण्ड:-समयभाषया भक्तं तस्यैषणा-ग्रहणप्रकाराः पिण्डैषणाः, ताश्चैता:-"संस? १ मसंसट्ठा २ उद्धड ३ तह |ग्रहाद्या सअप्पलेविया चेव ४ । उम्गहिया ५ पग्गहिया ६ उज्झियधम्मा य७ सत्तमिया ॥२॥" अत्रासंसृष्टा हस्तमात्राभ्यां चिन्तनीया सू०५४३'असंसट्टे हत्थे असंसट्टे मत्ते' अक्खरडियत्ति बुत्तं भवइ, एवं गृह्णतः प्रथमा भवति, गाथायां सुखमुखोचारणार्थोऽन्य-13 ५४५ था पाठः, संसृष्टा ताभ्यामेव चिन्त्या 'संसढे हत्थे संसढे मत्ते' खरडिएत्ति वुत्तं भवइ, एवं गृहतो द्वितीया, उद्धृता नाम ॥३८६॥ मास्थाल्यादी स्वयोगेन भोजनजातमुद्धृतं, ततो असंसट्टे हत्थे असंसहे मत्ते संसढे वा मत्ते संसट्टे वा हत्थे, एवं गृहतः। मातृतीया, अल्पलेपा नाम अल्पशब्दोऽभाववाचकः, निर्लेप-पृथुकादि गृहृतश्चतुर्थी, अवगृहीता नाम भोजनकाले शरा-1 SamEaucatunintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~205~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१४५] प्रत 69-96 सूत्रांक [५४५] दीप अनुक्रम [५९६] COCKR वादिषूपहृतमेव भोजनजातं यत् ततो गृह्णतः पञ्चमी, प्रगृहीता नाम भोजनवेलायां दातुमभ्युद्यतेन करादिना प्रगृहीत योजनजातं भोक्तुं वा स्वहस्तादिना तद् गृहृत इति षष्ठी, उज्झितधा नाम यत्परित्यागाई भोजनजातमन्ये च द्विपदादयो नावकाङ्गन्ति तदर्द्धत्यकं वा गृहृत इति हृदयं सप्तमीति । पानकैषणा एता एव, नवरं चतुर्थी नानात्वं, तत्र द्यायामसौवीरकादि निलेपं विज्ञेयमिति । 'उग्गहपडिम'त्ति अवगृह्यत इत्यवग्रहो-वसतिस्तत्प्रतिमाः-अभिग्रहा अवनहप्रतिमाः, तत्र पूर्वमेव विचिन्त्यैवंभूतः प्रतिश्रयो मया ग्राह्यो नान्यथाभूत इति तमेव याचित्वा गृह्णतः प्रथमा, तथा यस्य भिक्षोरेवंभूतोऽभिग्रहो भवति, तद्यथा--अहं च खल्वेषां साधूनां कृते अवग्रहं ग्रहीष्यामि, अन्येषां चावग्रहे गृहीते है। सति वत्स्यामीति तस्य द्वितीया, प्रथमा सामान्येन इयं तु गच्छान्तर्गतानां साम्भोगिकानामसम्भोगिकानां चोद्युक्तविहारिणां, यतस्तेऽन्योऽन्याध याचन्त इति, तृतीया त्वियं-अन्यार्थमवग्रहं याचिष्ये अन्यावगृहीतायां तु न स्थास्यामीति, एषा स्वहालन्दिकानां, यतस्ते सूत्रावशेषमाचार्यादभिकासन्तः आचार्यार्थं तां याचन्त इति, चतुर्थी पुनरहमन्येषां |कृते अवग्रहं न याचिष्ये अन्यावगृहीते तु वत्स्यामीति, इयं तु गच्छ एव अभ्युद्यतविहारिणां जिनकल्पाद्यर्थं परिकम्म कुर्वतां, पञ्चमी तु अहमात्मकृते अवग्रहमवग्रहीष्यामि न चापरेषां द्वित्रिचतुःपञ्चानामिति, इयं तु जिनकल्पिकस्येति, षष्ठी पुनर्यदीयमवग्रहं ग्रहीष्यामि तदीयमेव चेत्कटादि संस्तारकं ग्रहीष्यामि, इतरथोत्कुटुको वा निषण्ण उपविष्टो वा रजनी गमिष्यामीत्येषाऽपि जिनकल्पिकादेरिति, सप्तमी एव पूर्वोक्का, नवरं यथाऽऽस्तृतमेव शिलादिकं ग्रहीष्यामि मानेतरदिति । अयं च सूत्रत्रयार्थः क्वचित्सूत्रपुस्तक एव दृश्यत इति । 'सत्ससत्तिक्कय'त्ति अनुद्देशकतयैकसरत्वेन ए SamEautatunintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 206~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१४५] श्रीस्थाना सूत्र वृत्तिः ॥२८७॥ प्रत सूत्रांक [५४५] |कका:-अध्ययनविशेषा आचाराङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्वितीय चूडारूपास्ते च समुदायतः सप्तेतिकृत्वा सप्तकका अ-IFI भिधीयन्ते, तेषामेकोऽपि सप्तकक इति व्यपदिश्यते, तथैव नामत्वात्, एवं च ते सप्तेति, तत्र प्रथमः स्थानसप्लैकको, देशा३ द्वितीयो नैषेधिकीसप्तककः, तृतीय उच्चारप्रश्रवणविधिसतंकका, चतुर्थः शब्दसप्लैककः, पञ्चमो रूपसप्तैकका, षष्ठः पर- अण्डताक्रियासप्तकका, सप्तमोऽन्योऽन्यक्रियासप्तकक इति । 'सत्त महज्झयण'त्ति सूत्रकृताङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे महान्ति- वियोनिप्रथमश्रुतस्कन्धाध्ययनेभ्यः सकाशाद् ग्रन्धतो बृहन्ति अध्ययनानि महाध्ययनानि, तानि च-पुण्डरीकं १ क्रियास्थानं २ आहारपरिज्ञा ३ प्रत्याख्यानक्रिया ४ अनाचारश्रुतं ५ आर्द्रककुमारीयं ६ नालन्दीयं ७ चेति । 'सत्रासतमिय'त्ति|SI सप्तसप्तमानि दिनानि यस्यां सा सप्तसप्तमिका, सा हि सप्तसप्तभिर्दिनसप्तकैथोत्तरं वर्द्धमानदत्तिभिर्भवति, तत्र प्रथमे सप्तके प्रतिदिनमेका भक्तस्य पानकस्य चैका दत्तिवत्सप्तमे सप्त दत्तयः, भिक्षुपतिमा-साध्वभिग्रहविशेषः, सा चैकोन- 1नपणावपञ्चाशता रानिन्दिवैः-अहोरात्रैर्भवति, यतः सप्त सप्तकान्येकोनपञ्चाशदेव स्यादिति, तथा एफेन च षण्णवत्यधिकेन 3 ग्रहाद्याः भिक्षाशतेन, यतः प्रथमे सप्तके सप्तैव द्वितीयादिषु तद्विगुणायाः यावत्सप्तमे एकोनपश्चाशदिति, सर्वाः सङ्कलिताः शतं त सू०५४३पण्णवत्यधिकं भवति, भक्तभिक्षाश्चैताः पानकभिक्षा अप्येतावत्यो न चेह गणिता इति, एतत्स्वरूपमेवम्-"पडिमासु ५४५ सत्तगा सत्त, पढमे तत्थ सत्तए । एकेक गिण्हए भिक्खं, बिइए दोन्नि दोन्नि ऊ ॥१॥ एवमेक्ककियं भिक्खं, छुभेजे-16 केकसत्तए । गिण्हई अंतिमे जाव, सत्त सत्त दिणे दिणे ॥२॥ अहवा एकेक्कियं दति, जा सत्तेके कसत्तए । आएसो ॥२८७॥ अस्थि एसोवि, सिंहविकमसन्निहो ॥३॥" इत्यादि, [प्रतिमाः सप्तसप्तिकाः प्रधमे तत्र सप्तके एकैकां भिक्षां गृह्णाति दीप 4560 अनुक्रम [५९६] Econ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~207~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ५४५ ] दीप अनुक्रम [५९६] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [५४५] स्थान [७], उद्देशक [-], द्वितीये द्वे द्वे एव ॥१॥ एवमेकैकां भिक्षा क्षिपेद्यावत् एकैकसप्तकेऽन्तिमे दिने सप्त सप्त गृह्णाति ||२|| अथवैकैकां दत्तिं ( हापयेत्) एकैकसप्तके यावत् सप्त एपोऽप्यादेशोऽस्ति सिंहगतिसदृशः ॥ ३ ॥ ] 'अहासुत्तं'ति यथासूत्रं - सूत्रानतिक्रमेण यावत्करणात् 'अहाअत्थं' यथार्थ - नियुक्त्यादिव्याख्यानानतिक्रमेणेत्यर्थः, 'अहातचं' यथातत्त्वं सप्तसप्तमिकेत्य| भिधानार्थानतिक्रमेण अन्वर्थसत्यापनेनेत्यर्थः 'अहामग्गं' मार्गः - क्षायोपशमिको भावस्तदनतिक्रमेण, औदयिकभावागमनेनेत्यर्थः, 'अहाकष्प' यथाकल्पं कल्पनीयानतिक्रमेण प्रतिमासमाचारानतिक्रमेण वा 'सम्मं कारणं' कायप्रवृत्त्या न मनोमात्रेणेत्यर्थः, 'फासिया' स्पृष्टा प्रतिपत्तिकाले विधिना प्राप्ता, 'पालिय'ति पुनः पुनरुपयोगप्रति जागरणेन रक्षिता, 'सोहिय'ति शोभिता तत्समाप्तौ गुर्वादिप्रदानशेषभोजनासेवनेन शोधिता वा अतिचारवर्जनेन तदालोचनेन वा, 'तीरियत्ति तीरं पारं नीता, पूर्णेऽपि कालावधी किञ्चित्कालायस्थानेन, 'विट्टिय'त्ति कीर्त्तिता पारणकदिने अयमयं चाभिग्रहविशेषः कृत आसीद् अस्यां प्रतिमायां स चाराधित एवाधुना मुत्कलोऽहमिति गुरुसमक्षं कीर्त्तनादिति, 'आराहिय'त्ति एभिरेव प्रकारैः सम्पूर्णैर्निष्ठां नीता भवतीति प्रत्याख्यानापेक्षया अन्यत्र व्याख्यानमेषामेवं- "उचिए काले वि हिणा पत्तं जं फासियं तयं भणियं । तह पालियं तु असई सम्मं उबओगपडियरियं ॥ १ ॥ गुरुदाण सेस भोयण सेवणयाए सोहियं जाण । पुन्नेवि घेवकालावस्थाणा तीरियं होइ ॥ २ ॥ भोयणकाले अमुगं पञ्चवखायंति भुंज किट्टिययं । आराहियं पयारेहिं संगमेएहिं निदृवियं ॥ ३ ॥” इति । [ विधिना यदुचिते काले प्राप्तं तत्स्पृष्टं भणितं असकृत्सम्यगुपयोगप्रति चरितं पालितं तथैव ॥ १ ॥ गुरुदानशेषभोजनसेवनतया शोधितं जानीहि पूर्णेऽपि स्तोककालावस्थानात्तीर्ण भ Far Far & Prau Use Only पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~ 208~ anuray.org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१४५] 5 श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः ॥ ३८॥ 444 *50-4560% 34567 सू०५४६ प्रत सूत्रांक [५४५] दीप अनुक्रम [५९६] वति ॥ २॥ भोजनकालेऽमुकं प्रत्याख्यातमित्युपयुज्य भुनक्ति कीर्तितं सम्यगेभिः प्रकारनिष्ठितमाराधितं ॥३॥] स्थाना० सप्तसप्तमिकादिप्रतिमाश्च पृथिव्यामेव विधीयन्त इति पृथ्वीप्रतिपादनायाह उद्देशः ३ अहेलोगे णं सत्त पुढवीओ पं०, सत्त घणोदधीतो पं०, सत्त घणवाता सत्त तणुवाता पं० सत्त उवासंतरा पं०, एतेसु पृथ्वीधनणं सत्रासु उयासंतरेसु सत्त तणुवाया पइट्ठिया, एतेसु णं सत्तसु तणुवातेसु सत्त घणवाता पइडिया, एएसु णं सत्तसु वातादिघणबातेसु सत्त घणोदधी पतिहिता, एतेसु णं सत्तसुघणोदधीसु पिंडलगपिहुणसंठाणसंठिाओ सत्त पुढवीओ पं० सं० सप्तकानि पढमा जाव सत्तमा, एतासि णं सत्तण्डं पुढवीणं सत्त णामधेजा पं० ६०-पम्मा वंसा सेला अंजणा रिट्ठा मघा माघबती, पतासि णं सत्तण्हं पुढवीणं सत्त गोत्ता पं० त०-रयणप्पभा सकरप्पमा बालअप्पमा पंकप्पभा धूमप्पभा तमा तमतमा (सू० ५४६) 'अहेलोए' इत्यादि, अधोलोकग्रहणादू लोकेऽपि पृथिवीसत्ताऽवगम्यते, तत्र चैका ईषत्यारभाराख्या पृथिव्य-18 स्तीति, इह च यद्यपि प्रथमपृथिव्या उपरितनानि नव योजनशतानि तिर्यग्लोके भवन्ति तथापि देशोनाऽपि पृथिवीतिकृत्वा न दोषायेति, एताश्च क्रमेण बाहल्यतो योजनलक्षमशीत्यादिसहस्राधिकं भवन्ति, उक्तं च-“पढमा असीइस-1 हस्सा १ बत्तीसा २ अट्टवीस ३ वीसा य ४ । अट्ठार ५ सोल ६ अ य ७ सहस्स लक्खोवरिं कुजा ॥१॥" इति ।। *अधोलोकाधिकारात्तगतवस्तुसूत्राण्यावादरसूत्रात्, सुगमानि चैतानि, नवरं घनोदधीनां वाहस्य विंशतिर्योजनसहस्राणि | घनतनुवाताकाशान्तराणामसङ्ख्यातानि तानि, आह च-"सव्वे वीससहस्सा बाहलेणं घनोदधी नेया । सेसाणं तु असंखा E पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~209~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ५४६ ] दीप अनुक्रम [५९७] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-], मूलं [ ५४६ ] स्थान [७], अहो २ जाव सत्तमिया ॥ १ ॥” इति [ विंशतिः सहस्राणि बाहल्येन सर्वत्र घनोदधयः शेषाणामसङ्ख्येयानि एव अधोऽधो यावत्सप्तम्यां घनतनुवातान्तराणां ॥ १ ॥ ] तथा छत्रमतिक्रम्य छत्रं छत्रातिच्छत्रं तस्य संस्थानं-आकारोऽधस्तनं छत्रं महदुपरितनं उध्विति तेन संस्थिताः छत्रातिच्छत्रसंस्थानसंस्थिताः, इदमुक्तं भवति सप्तमी सप्तरज्जुविस्तृता षष्ट्या - दयस्त्वेके करज्जुहीना इति, कचित्पाठः 'पिंडलगपिहुल संठाणसंठिया' तत्र पिंडलगं - पटलकं पुष्पभाजनं तद्वत्पृथुलसंस्थानसंस्थिता इति पटलकपृथुलसंस्थानसंस्थिताः, 'पृथुलथुल संस्थान संस्थिता' इति कचित्पाठः, स च व्यक्त एव, 'नामधे ज'त्ति नामान्येव नामधेयानि, 'गोत्त'त्ति गोत्राणि तान्यपि नामान्येव, केवलमन्वर्थयुक्तानि गोत्राणि इतराणि त्वितराणि, अन्वर्थश्च सुखोन्नेयः । सप्तावकाशान्तराणि प्राक् प्ररूपितानि तेषु च बादरा वायवः सन्तीति तत्प्ररूपणायाहतवा बायरवाकाइया पं० तं० पातीणवाते पडीणवाते दाहिणवाते उदीणवाते उड़वाते अहोवाते विदिसिवा ( सू० ५४७) सत्त संठाणा पं० तं०दीहे रहस्से वट्टे तंसे चउरंसे पिहुले परिमंडले ( सू० ५४८ ) सच भयट्ठाणा पं० सं०—इइलोगभते परलोनभते आदाणभत्ते अकमहाभते वेयणमते मरणभते असिलोगभते (सू० ५४९) सत्तहिं ठाणेहिं छउमत्थं जाणेजा, सं०-पाणे अश्वात्ता भवति मुसं वदन्ता भवति अदिन्नमादिता भवति सफरिसरसत्रगंधे आसादेत्ता भवति पूतासकारमणुवूदेता भवति इमं सावजंति पण्णवेत्ता पडिसेवेत्ता भवति णो जधावादी तथाकारी यावि भवति । सत्तर्हि ठाणेहिं केवली जाणेना, तं० णो पाणे अइवाइत्ता भवति जाव जधावाती तथाकारी यावि भवति (सू० ५५० ) Education taman Far Far & Private Only पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~210~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५५०] श्रीस्थाना वृत्तिः ॥३८९॥ प्रत सूत्रांक [५५० 'सत्सविहा बायरेत्यादि, सूक्ष्माणां न भेदोऽस्ति ततो वादरग्रहणं, भेदश्च दिम्बिदिग्भेदात् प्रतीत एवेति । वायवो| स्थाना० ह्यदृश्यास्तथापि संस्थानवन्तो भयवन्तश्चेति संस्थानभयसूत्रे, संस्थानानि च प्रतीतानि, तद्विशेषाः प्रतरघनादयोऽन्यतो उद्देशः। ज्ञेयाः। 'सत्त भयट्ठाणे त्यादि, भयं-मोहनीयप्रकृतिसमुत्थ आत्मपरिणामस्तस्य स्थानानि-आश्रया भयस्थानानि, तत्र वायुसंस्थामनुष्यादिकस्य सजातीयादन्यस्मान्मनुष्यादेरेव सकाशाद्ययं तदिहलोकभयं, इहाधिकृतभीतिमतो जाती लोक इहलो- नभयानि कस्ततो भयमिति व्युत्पत्तिः, तथा विजातीयात्-तिर्यग्देवादेः सकाशान्मनुष्यादीनां यद्भवं तत्परलोकभयं, आदीयत केवलित्वाइत्यादान-धनं तदर्थं चौरादिभ्यो यद्यं तदादानभयं, अकस्मादेव-वाह्यनिमित्तानपेक्षं गृहादिष्वेव स्थितस्य राज्यादौ । भयमकस्मादूभयं, वेदना-पीडा तभयं वेदनाभयं, मरणभयं प्रतीतं, अश्लोकभयं-अकीर्तिभयं, एवं हि क्रियमाणे ज्ञानहेतवः महदयशो भवतीति तद्भयान प्रवर्त्तत इति । भयं च छदास्थस्यैव भवति, स च यैः स्थानायते तान्याह-सत्तहिंद्र सू०५४७ठाणेही'त्यादि, सप्तभिः स्थानैर्हेतुभूतैः छनास्थं जानीयात् , तद्यथा-प्राणान् अतिपातयिता, तेषां कदाचिद् व्यापादनशीलो भवति, इह च प्राणातिपातनमिति वक्तव्येऽपि धर्माधम्मिणोरभेदादतिपातयितेति धम्मी निर्दिष्टा, प्राणातिपातनाच्छनास्थोऽयमित्यवसीयते, केवली हि क्षीणचारित्रावरणत्वान्निरतिचारसंयमत्वादप्रतिषेवित्वान्न कदाचिदपि प्राणाना|मतिपातयिता भवतीत्येवं सर्वत्र भावना ज्ञेया, तथा मृषा वादिता भवति, अदत्तमादाता-गृहीता भवति, शब्दादीनास्वादयिता भवति, पूजासत्कारं-पुष्पार्चनवखाद्यर्चने अनुव्हयिता-परेण स्वस्य क्रियमाणस्य तस्यानुमोदयिता, तद्भावे ॥ ३८९॥ हर्षकारीत्यर्थः, तथेदमाधाकर्मादि सावा-सपापमित्येवं प्रज्ञाप्य तदेव प्रतिषेविता भवति, तथा सामान्यतो नो यथा-1 दीप अनुक्रम [६०१] wtanuman पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~211~ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५५०] CAR प्रत सूत्रांक [५५० "वादी तथाकारी अन्यथाभिधायान्यथा का भवति 'चापी'ति समुच्चये । एतान्येव विपर्यस्तानि केवलिगमकानि भव-18 दन्तीत्येतत्प्रतिपादनपरं केवलिसूत्रं, सुगममेव । केवलिनश्च प्रायो गोत्रविशेषवन्त एव भवन्ति प्रव्रज्यायोग्यत्वान्नाभेयादिवदिति 'सत्त मूलगोत्ते'त्यादिना ग्रन्थेन गोत्रविभागमाह सत्त मूलगोता पं० २०-फासवा गोतमा बच्छा कोच्छा कोसिता मंडवा वासिहा, जे कासवा ते सत्तविधा पं. तं०-ते कासवा ते संडेला ते गोता ते चाला ते मुंजतिणो ते पव्वपेच्छतिणो ते परिसकण्हा, जे गोयमा ते सत्तविधा पं० तं. ते गोषमा ते गग्गा ते भारदा ते अंगिरसा ते सकाराभा ते भक्खरामा ते उदगतामा, जे वच्छा ते सत्तविधा पं०-ते बच्छा ते अग्गेया ते मित्तिया ते सामिलिणो ते सेलतता ते अट्ठिसेणा ते धीयकम्हा, जे कोल्छा ते सत्तविधा ५००-ते कोच्छा ते मोग्गलायणा हे पिंगलायणा ते कोडीणा ते मंडलिणो ते हारिता ते सोमया, जे कोसिमा ते सत्तविधा पं००-ते कोसिता ते कचातणा ते सालंकातणा ते गोलिकातणा ते पक्खिकायणा ते अग्गिचा ते लोहिया, जे मंडवा ते सत्तविहा पं० त०-ते मंडवा ते अरिहा ते समुता ते तेला से एलावचा ते कंडिला ते खारातणा, जे वासिहा ते सत्तविहा पं० २० ते वासिहा ते उजायणा ते जारेकण्हा ते वग्धायचा ते कोडिन्ना ते सप्णी ते पा रासरा (सू० ५५१) सुगमश्चार्य, नवरं गोत्राणि तथाविधैकैकपुरुषप्रभवा मनुष्यसन्तानाः उत्तरगोत्रापेक्षया मूलभूतानि-आदिभूतानि गोत्राणि मूलगोत्राणि, काशे भवः काश्यः-रसस्तं पीतवानिति काश्यपस्तदपत्यानि काश्यपाः, मुनिसुव्रतनेमिवजों जिना-1 ARCCCESCAMPIONAGACAM दीप अनुक्रम [६०१] SamEaucator पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~212~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५५१] दीप अनुक्रम [६०२] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [५५१] स्थान [७], उद्देशक [-], वृत्तिः श्रीस्थाना- ५ चक्रवर्त्यादयश्च क्षत्रियाः सप्तमगणधरादयो द्विजाः जम्बूस्वाम्यादयो गृहपतयश्चेति, इह च गोत्रस्य गोत्रवोऽभेदादेवं इसूत्रनिर्देशः, अन्यथा काश्यपमिति वाच्यं स्यादेवं सर्वत्र, तथा गोतमस्यापत्यानि गौतमाः-क्षत्रियादयो यथा सुत्रतनेमी जिनौ नारायणपद्मवर्जवासुदेवबलदेवा इन्द्रभूत्यादिगणनाथत्रयं वैरस्वामी च, तथा वत्सस्यापत्यानि वत्साः शय्यम्भवादयः, एवं कुत्सा - शिवभूत्यादयः “कोच्छं सिवभूई पिय" इति वचनात् एवं कौशिकाः पटुलूकादयः, मण्डोरपत्यानि मण्डवाः, विशिष्टस्यापत्यानि वाशिष्टाः षष्ठगणधरार्थ सुहस्त्यादयः, तथा ये ते काश्यपास्ते सप्तविधाः, एके काश्यपशब्दव्यपदेश्यत्वेन काश्यपा एवान्ये तु काश्यपगोत्रविशेषभूतशण्डिल्यादिपुरुषापत्यरूपाः शाण्डिल्यादयोऽवगन्तव्याः । अयं च मूलगो| त्रप्रतिगोत्रविभागो नयविशेषमताद्भवतीति नयविभागमाह ॥ ३९० ॥ सत्त मूलनया पं० तं० नेगमे संग बबहारे उज्जुसुते सदे समभिरूडे एवंभूते (सू० ५५२ ) 'सत्त मूले 'त्यादि, मूलभूता नया मूलनयाः, ते च सप्त, उत्तरनया हि सप्त शतानि, यदाह--"एक्केको य सयविहो सत्त नयसया हवंति एवं तु । अन्नोऽविय आएसो पंचैव सया नयाणं तु ॥ १ ॥” [ एकैकः शतविधः एवं सप्तनयशतानि भवन्ति अन्योऽपि चादेशो नयानां पंचैव शतानि ॥ १ ॥ ] तथा - "जावइया वयणपहा तावइया चेव हुंति नयवाया। जावइया नयवाया तावइया चैव परसमय ॥ २ ॥ "ति, [यावन्तो वचनपंथानः तावन्तश्चैव भवन्ति नयवादाः यावन्तो नयवादास्तावन्तश्चैव परसमया इति ॥ १ ॥ ] तत्रानन्तधर्माध्यासिते वस्तुन्येकधर्म्मसमर्थनप्रवणो बोधविशेषो नय इति, तत्र 'शेगमे 'त्ति नैकैर्मानिर्महासत्तासामान्यविशेषविशेषज्ञानैर्मिमीते मिनोति वा नैकमः, आह च - "गाई माणाई Education mation Far Far & Fran ० स्थाना० उद्देशः ३ मूलगोत्राणि नयाश्व सू० ५५१ ५५२ ~213~ पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ७ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ॥ ३९० ॥ [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५५२] F 6996--50-5600 प्रत सूत्रांक [५५२] दीप अनुक्रम [६०३] सामन्नोभयविसेसनाणाई । तेहिं मिणइ तो णेगमो णो णेगमाणोत्ति ॥१॥" [नैकानि मानानि सामान्योभयविशेपज्ञानानि यत्तैर्मिनोति ततो नैगमो नयो नैकमान इति ॥१॥] इति, निंगमेषु वा-अर्थबोधेषु कुशलो भवो वा नैगमः, अधवा के गमा:-पन्धानो यस्य स नैकगमः, आह च-"लोगस्थनिबोहा वा निगमा तेसु कुसलो भवो वाऽयं । ५ अहवा जंगगमो णेगपहा णेगमो तेणं ॥१॥" इति, [लोकार्थनिबोधा वा निगमास्तेषु कुशलो भवो वाऽयं । अथवा यत् नैकगमोऽनेकपथो नैगमस्तेन ॥१॥] तत्रायं सर्वत्र सदित्येवमनुगताकारावबोधहेतुभूतां महासत्तामिच्छति अनुवृत्तव्यावृत्तावबोधहेतुभूतं च सामान्यविशेष द्रव्यत्वादि व्यावृत्तावबोधहेतुभूतं च नित्यद्रव्यवृत्तिमन्त्यं विशेषमिति, आहइत्थं तीयं नैगमः सम्यग्दृष्टिरेवास्तु सामान्यविशेषाभ्युपगमपरत्वात् साधुवदिति, नैतदेवं, सामान्यविशेषवस्तूनामत्यन्तभेदाभ्युपगमपरत्वात्तस्येति, आह च भाष्यकार:-"जं सामनविसेसे परोप्परं वत्थुओ य सो भिन्ने । मन्नइ अचंतमओ मिच्छादिट्ठी कणादोब्व ॥ १ ॥दोहिघि नपहिं नीयं सत्थमुलूएण तहवि मिच्छत्तं । ज सविसयपहाणतणेण अन्नोन्ननिरवेक्खा ॥१॥” इति, [यत्सरस्परं वस्तुनश्च सामान्यविशेषी भिन्नौ अत्यन्तै मनुतेऽतो मिथ्यादृष्टिः कणाद | | इव ॥ १॥ उलूकेन शाखं द्वाभ्यां नयाभ्यां नीतमपि मिथ्यात्वं यत्स्वविषयप्रधानत्वेनाभ्योऽन्यनिरपेक्षौ (अङ्गीकृती)। ॥१॥] तथा सग्रहणं भेदानां सङ्गालाति वा भेदान् सङ्गान्ते या भेदा येन स सनहा, उक्तन-संगहणं संगिण्हइ |संगिझते व तेण जं भेया । तो संगहोत्ति" [संग्रहणं संगृह्णाति संगृह्यते वा तेन यस्मा दास्ततः सङ्घहः ॥] एतदुक्तं भवति-सामान्यप्रतिपादनपरः खल्वयं सदित्युक्त सामान्यमेव प्रतिपद्यते न विशेष, तथा च मन्यते-विशेषाः सामान्य AC565-29 MEautatuny FirparantarvautaGIN पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~214~ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५५२] इसूत्र प्रत सूत्रांक [५५२] दीप अनुक्रम [६०३] श्रीस्थाना-1|| तोऽर्थान्तरभूताः स्युरनर्थान्तरभूता वा?, यद्यर्थान्तरभूता न सन्ति ते, सामान्यादर्थान्तरत्वात् खपुष्पवत् , अथान- स्थाना. मर्थान्तरभूताः सामान्यमानं ते, तदव्यतिरिकत्वात् , तत्स्वरूपवदिति, आह च-"सदिति भणियंमि जम्हा सवत्थाणुप्प- उद्देशः ३ वृत्तिः वत्तए वुद्धी। तो सब तम्मत्तं नस्थि तदत्वंतर किंचि ॥१॥ कुंभो भावाऽणनो जइ तो भावो अहऽनहाऽभावो । एवं नया: पडादओऽविहु भावाऽनन्नत्ति तम्मत्तं ॥२॥" इति, [सदिति भणिते यस्मात्सर्वत्रानुप्रवर्तते बुद्धिः ततः सर्वं तन्मात्रा सू०५५२ ॥३९१॥ नास्ति तदर्थान्तरं किंचित् ॥१॥ कुंभो भावादनन्यो यदि ततो भावोऽथान्यथाऽभावः एवं पटादयोऽपि भावादनन्या | इति तन्मात्रं (सर्व)॥२॥] तथा व्यवहरणं व्यवहरतीति वा व्यवहियते वा-अपलप्यते सामान्यमनेन विशेषान् वा|ऽऽश्रित्य व्यवहारपरो व्यवहार, आह च--"ववहरणं ववहरए स तेण ववहीरए य सामन्नं । ववहारपरो य जओ विसेसओ तेण ववहारो ॥१॥” इति, [व्यबहरणं व्यवहरति व्यपहरति वा सामान्य व्यवहारपरो यतश्च विशेषतस्तेन व्यवहारः ॥१॥] अयं हि विशेषप्रतिपादनपरः सदित्युक्ते विशेषानेव घटादीन प्रतिपद्यते, तेषामेव व्यवहारहेतुत्वात्, न तदतिरिक्तं सामान्यं, तस्य व्यवहारापेतत्वात्, तथा च-सामान्य विशेषेभ्यो भिन्नमभिन्नं वा स्यात्, यदि भिन्नं विशेषव्यतिरेकेणोपलभ्येत, न चोपलभ्यते, अथाभिन्नं विशेषमात्र तत्तव्यतिरिक्तत्वात्तत्स्वरूपवदिति, आह च-"उवलंभवव-IN हाराभावाओ त(नि)ब्बिसेसभावाओ । तं नथि खपुष्फंपिय संति विसेसा सपञ्चक्खं ॥१॥” इति, [उपलभव्यवहारा-15 दभावात्तद्वि (निर्वि)शेषभावात् तन्नास्ति खपुष्पमिव विशेषाः सन्ति स्वप्रत्यक्षं ॥१॥] तथा लोकसंव्यवहारपरो व्यवहारः ॥३९१॥ तथाहि-असौ पश्चवर्णेऽपि भ्रमरादिवस्तुनि बहुतरत्वात् कृष्णत्वमेव मन्यते, आह च-"बहुतरओत्तिय तं चिय ग| E aton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~215~ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५५२] प्रत सूत्रांक [५५२] दीप अनुक्रम [६०३] मेइ संतेवि सेसए मुयाह । संववहारपरतया ववहारो लोगमिच्छंतो ॥१॥" [ संव्यवहारपरतया लोकमिच्छन् व्यवहारो बह-1 तरत्वादेव तं गमयति सतोऽपि शेषकान्मुंचत्येव ॥१॥] इति ३, तथा ऋजु-वक्रविपर्ययादभिमुखं श्रुतं-ज्ञानं यस्यासी ऋजुश्रुतः, ऋजु वा-वर्तमानमतीतानागतवकपरित्यागाद्वस्तु सूत्रयति-गमयतीति ऋजुसूत्रः, उक्तं च-"उजु रि सुयं | नाणमुज्जु सुयमस्स सोऽयमुज्जुसुओ। सुत्तयइ वा जमुखं वत्थु तेणुजुमुत्तोत्ति ॥१॥"[ऋजु-अवकं श्रुतं-ज्ञानं ऋजु श्रुतमस्य सोऽयमृजुश्रुतः सूत्रयति वा यजु वस्तु तेन ऋजुसूत्र इति ॥१॥] अयं हि वर्तमानं निजकै लिङ्गवचननामादिभिन्नमप्येक वस्तु प्रतिपद्यते, शेषमवस्त्विति, तथाहि-अतीतमेष्यद्वा न भावो, विनष्टानुत्पन्नत्वाददृश्यत्वात्खपुष्पवत्, तथा परकीयमध्यवस्तु निष्फलत्वात् खकुसुमवत् , तस्माद्वर्तमान स्वं वस्तु, तच न लिङ्गादिभिन्नमपि स्वरूपमुज्झति, लिङ्गभिन्नं तटस्तटी तटमिति वचनभिन्नमापो जलं नामादिभिन्नं नामस्थापनाद्रव्यभावभिन्नं, आह च-"तम्हा निजगं संपयकालीयं लिंगवयणभिन्नपि । नामादिभेयविहियं पडिवजइ चरधुमुज्जुसुय ॥१॥"त्ति ४, [तस्मान्निजकं साम्पतकालीन लिंगवचनभिन्नमपि नामादिभेदवदपि प्रतिपद्यते ऋजुसूत्रो वस्तु ॥१॥] तथा शपनं शपति वा असौ शप्यते वा तेन वस्त्विति शब्दस्तस्यार्थपरिग्रहादभेदोपचारानयोऽपि शब्द एव, यथा कृतकस्वादिलक्षणहेत्वर्थप्रतिपादक दि पदं हेतुरेवोच्यत इति, आह च-"सवणं सवइ स तेणं व सप्पए पत्थु जंतओ सहो । तस्सऽत्थपरिग्गहओ नओवि सदोत्ति हेतुब्ध ॥१॥" इति, [शपनं शपति स तेन वा शष्यते वस्तु यत्ततः शब्दः । तस्यार्थपरिग्रहात् नयोऽपि शब्द स्था०६६8 इति हेतुरिव हेत्वर्धप्रतिपादकः ॥१॥] अयं च नामस्थापनाद्रव्य कुम्भा न सन्त्येवेति मन्यते, तत्कार्याकरणात् खपुष्पवत्, E aton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~216~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५५२] श्रीस्थाना- वृत्तिः ॥३९२॥ प्रत सूत्रांक [५५२] दीप अनुक्रम [६०३] 355235 न च भिन्नलिङ्गवचनमेकं, लिङ्गवचनभेदादेव, स्त्रीपुरुषवत् कुटा वृक्ष इत्यादिवत् , अतो घटः कुटः कुम्भ इति स्वप-IP स्थाना र्यायध्वनिवाच्यमेकमेवेति, आह च-"तं चिय रिउसुत्तमयं पचुप्पन्नं विसेसियतरं सो । इच्छइ भावघडं थिय जं न उस उद्देशा३ नामादओ तिनि ॥१॥" [तदेव ऋजुसूत्रमतं प्रत्युत्पन्नं विशेषिततरं स इच्छति भावघटमेव (मनुते) नैव नामादीखीन् यत् ॥१॥]५, तथा नानार्थेषु नानासंज्ञासमभिरोहणात् समभिरूढः, उक्तं च-"जं जं सन्नं भासह तं तं सू०५५२ |चिय समभिरोहए जम्हा । सनंतरत्थविमुहो तओ क(न)ो समभिरूढोत्ति ॥१॥"[यां यां संज्ञा भाषते तां तां सम-४ भिरोहत्येव यस्मात् संज्ञान्तरार्थविमुखस्ततो नयः समभिरूढइति ॥ १॥] अयं हि मन्यते-घटकुटादयः शब्दा भिन्नप्रवृतिनिमित्तत्वाद्भिन्नार्थगोचराः, घटपटादिशब्दवत् , तथा च घटनात् घटो विशिष्टचेष्टावानर्थो घट इति, तथा 'कुट कोटिल्ये' कुटनात् कुटा, कौटिल्ययोग्यात् कुट इति, घटोऽन्यः कुटोऽप्यन्य एवेति ६, तथा यधाशब्दार्थ एवं पदार्थों भूतः सन्नित्यर्थोऽन्यथाभूतोऽसन्नितिप्रतिपत्तिपर एवंभूतो नयः, आह च-"एवं जहसद्दत्थो संतो भूओ तयऽन्नहाऽभूओ। सेणेवभूयनओ सहत्थपरो विसेसेणं ॥१॥" इति, [एवं यथाशब्दार्थस्तथा भूतः सन्नन्यथाऽभूतः ततः (अ. सन्) तेनैवंभूतनयः विशेषेण शब्दार्थपरः ॥१॥] अयं हि योषिन्मस्तकव्यवस्थितं चेष्टावन्तमेवार्थ घटशब्दवाच्या मन्यते, न स्थानभरणादिक्रियान्तरापन्नमिति, भवन्ति चात्र श्लोकाः-"शुद्धं द्रव्यं समाश्रित्य, सङ्गहस्तदशुद्धितः । निगमव्यवहारी स्तः, शेषाः पर्यायमाश्रिताः ॥शा अन्यदेव हि सामान्यमभिन्नज्ञानकारणम् । विशेषोऽप्यन्यमेवेति, मन्यते ॥२९२ ॥ नैगमो नयः॥२॥ सद्रूपतानतिक्रान्तस्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्व, सङ्गहन् सनहो मतः॥३॥ व्यवहा SamEaucatunintamational FFG पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~217~ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५१२] दीप अनुक्रम [६०३] [भाग - 6] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [७], उद्देशक [-1 मूलं [५५२] Educatunnin रस्तु तामेव, प्रतिवस्तु व्यवस्थिताम् । तथैव दृश्यमानत्वाद्, व्यवहारयति देहिनः ॥ ४ ॥ तत्रर्जुसूत्रनीतिः स्यात्, शुद्धपर्यायसंस्थिता | नश्वरस्यैव भावस्य, भावात् स्थितिवियोगतः ॥ ५ ॥ अतीतानागताकारकालसंस्पर्शवर्जितम् । वर्त्तमानतया सर्वमृजुसूत्रेण सूत्रयते ॥ ६ ॥ विरोधिलिङ्गसङ्ख्यादिभेदाद्भिन्नस्वभावताम् । तस्यैव मन्यमानोऽयं, शब्दः प्रत्यवतिष्ठते ॥ ७ ॥ तथाविधस्य तस्यापि वस्तुनः क्षणवृत्तिनः । ब्रूते समभिरूढस्तु, संज्ञाभेदेन भिन्नताम् ॥ ८ ॥ एकस्यापि ध्वनेर्वाच्यं सदा तन्नोपपद्यते । क्रियाभेदेन भिन्नत्वादेवंभूतोऽभिमन्यते ॥ ९ ॥" अथ कथं सप्त नयशतान्यसङ्ख्या वा नयाः सप्तसु नयेष्वन्तर्भवन्तीति१, उच्यते, यथा वक्तृविशेषादसङ्ख्येया अपि स्वराः सप्तसु स्वरेध्विति स्वराणामेव स्वरूपप्रतिपादनाय सत्त सरेत्यादि स्वरप्रकरणमाह सत्त सरा पं० तं०—लज्जे रिसने गंधारे, मज्झिमे पंचमे सरे । धेवते चैव णिसाते, सरा सत्त विवाहिता ॥ १ ॥ एएसि णं सन्तं सराणं सत्त सरद्वाणा पं० नं० -- सजे तु अग्गजिन्भाते, उरेण रिसभं सरं । कंडुग्गतेण गंधारं,' णासाए पंचमं वूया, दंतोद्वेण य धेवतं । मुद्धाणेण य णेसातं, सरठाणा विवाहिता ॥३॥ ० - सज्जं रखति मयूरो, कुकुडो रिसहं सरं । हंसो णदति गंधारं, मज्झिमं तु गवेकाले, कोइला पंचमं सरं । छद्धं च सारसा कोंचा, जिसावं सत्तमं गता ।। ५ ।। सत्त सनं रवति मुइंगो, गोमुही रिसमं सरं । संखो णदति गंधारं मज्झिमं पुण झहरी ॥ ६ ॥ चउचलणपतिद्वाणा, गोहिया पंचमं सरं आडंबरो रेवतिवं महाभेरी य सत्तमं ॥ ७ | ॥ एतेसि णं सत्तस - मज्झजिब्भाते मज्झिमं ॥ २ ॥ सत्त सरा जीवनिस्सिता पं०, लगा || ४ || अह कुसुमसंभवे सरा अजीवनिस्सिता पं० [सं० Far Far & Pra Us पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र - [ ०३] अंग सूत्र - [०३] ~218~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूचांक [५५३] गाथा ॥१-३२|| दीप अनुक्रम [६०४ -६४३] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ३९३ ॥ ল Education Inhal [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः ) स्थान [७], उद्देशक -L मूलं [ ५५३ ] + गाथा १-३२ राणं सच सरलक्खणा पं० तं०- "सज्ञेण लभति विति, कतं च ण विणस्सति । गावो मित्ता य पुत्ता य, णारीणं चैव वल्लभो ॥ ८ ॥ रिसभेण उ एसजं, सेणावचं घणाणि य । वत्थगंधमलंकारं इत्थिओ सयणाणि व ।। ९ ।। गंधारे गीतजुत्तिणा, ववित्ती कलाहिता । भवंति कतिणो पन्ना, जे अन्ने सत्थपारंगा ॥ १० ॥ मज्झिमसरसंपन्ना, भवंति सुहजीविणो । खायती पीयती देती, मज्झिमं सरमस्सितो ॥ ११ ॥ पंचमसरसंपन्ना, भवंति पुढबीपती । सूरा संगहकतारो, अगगणणातगा ॥ १२ ॥ रेवतसरसंपन्ना, भवंति कलहप्पिया साउणिता वग्गुरिया, भोयरिया मच्छबंधा य ॥ १३ ॥ चंडाला मुट्ठिया सेया, जे अन्ने पावकम्मिणो । गोघातगा य जे चोरा, णिसायं सरमस्सिता ॥ १४ ॥ एतेसिं सचण्डं सराणं तभी गामा पण्णत्ता, वं० सज्जगामे मज्झिमगामे गंधारगामे, सज्जगामस्स णं सत्त मुच्छणातो पं० [सं० मंगी कोरव्वीया हरी व रयतणी य सारकंता व । छट्ठी य सारसी णाम सुद्धसजा य सत्तमाः ॥ १५ ॥ मज्झिमगामस्स णं सत्त मुच्छणातो पं० नं० - उत्तरमंदा रयणी, उत्तरा उत्तरासमा । आसोकंता य सोवीरा, अ भिरु दवति सत्तमा || १६ || गंधारगामस्स णं च मुच्छणातो पं० [सं० गंदी व खुद्दिमा पूरिमा य चउत्थी य सुद्धगंधारा | उत्तरगंधारावित, पंचमिता हवति मुच्छा उ १७ ॥ सुडुतरमायामा सा छडी नियमसो उ णायव्वा । अह उत्तरायता कोडीमातसा सतभी मुच्छा ॥ १८ ॥ सत्त सराओ कभी संभवंति गेयस्स का भवंति जोणी ? । कतिसमता उसासा कति वा गेयस्स आगारा ? ॥ १९ ॥ तत्त सरा णाभीतो भवंति गीतं च रुयजोणीतं । पादसमा ऊसासा तिन्नि व गीयरस आगारा || २० || आइमिडं आरभंता समुब्बता य मज्झगारंमि । अवसाणे तज्जर्वितो तिन्निव Far Far & Pria Use Only ७ स्थाना० उद्देशः १ स्वरप्रकरणं सू० ५५३ ~219~ ॥ ३९३ ॥ - - पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०३] अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१५३] +गाथा १-३२ प्रत सूत्रांक CSCSC [५५३] गाथा ||१-३२|| दीप अनुक्रम [६०४-६४३] गेयस्स आगारा ॥२१॥ छरोसे अवगुणे तिन्निय वित्ताई दो व भणितीओ । जाणाहिति सो गाहिए सुसिक्खिओ रंगमज्जामि ॥ २२ ॥ भीतं दुत रहस्सं गायतो मा त गाहि उत्तालं । काकस्सरमणुनासं च होति गेयस्म छदोसा ॥२३॥ पुग्नं १ रतं २ प अलंकियं ३ च वत्तं ४ सहा अविघुटुं५ । मधुरं ६ सम ७ सुकुमारं ८ अढ गुणा होति गेयस्स ॥ २४ ॥ उरकंठसिरपसत्यं च गेजते मरिमिअपबद्धं । समतालपडुक्खेवं सत्तसरसीहरं गीयं ।। २५ ॥ निहोस सारवंतं च, विजुत्तमलंकियं । उपणीय सोपयारं च, मियं मधुरमेव य ॥ २६ ॥ सममसमं घेव, सव्यस्थ विसमं च जं। तिनि वित्तप्पयाराई, चउत्थं नोपलन्भती ॥ २७ ॥ सकता पागता चेव, दुहा भणितीओ आहिया । सरमंडलंमि गिर्जते, पसस्था इसिभासिता ।। २८ ॥ केसी गातति य मधुरं केसी गासति खरं च रुक्खं च । केसी गायति चउर केसि विलंबं दुतं फेसी ॥ २९॥ विस्सरं पुण केरिसी? || सामा गायइ मधुरं काली . गाय खरं च रुक्खं च । गोरी गातति पर काण विलंब इतं अंधा ॥३०॥ विस्सरं पुण पिंगला ।। तंतिसमं तालसमं पादसमं लयसमं गहसमं च । नीससिऊससियसमं संचारसमा सरा सत्त ॥ ३१॥ सत्त सरा य ततो गामा, मुच्छणा एकवीसती । ताणा एगूणपण्णासा, समत्तं सरमंडलं ।। ३२ ।। (सू० ५५३) इति सरमंडलं समतं ।। सुगमं चेदं, नवरं स्वरणानि स्वरा:-शब्दविशेषाः, 'सजे'त्यादिश्लोकाः, षड्यो जातः पडूजः, उक्तं हि-"नासां कण्ठमुरस्तालु, जिह्वां दन्ताश्च संश्रितः । पद्भिः सञ्जायते यस्मात्तस्मात् षड्ज इति स्मृतः॥१॥" तथा ऋषभो-वृषभस्तद्वद् यो वत्तेते स ऋषभ इति, आह च-"वायुः समुत्थितो नाभेः, कण्ठशीर्षसमाहतः। नईत्वृषभवद् यस्मात् , तस्मादृषभ 525-25% E ator पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~220~ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५५३] गाथा ॥१-३२|| दीप अनुक्रम [६०४ -६४३] श्रीस्थाना नसूत्र वृत्तिः ॥ ३९४ ॥ Education T [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [ ५५३ ] + गाथा १-३२ उच्यते ॥ १ ॥” तथा गन्धो विद्यते यत्र स गन्धारः स एव गान्धारो, गन्धवाहविशेषः इत्यर्थः, अभाणि हि - "बायुः समुत्थितो नाभेः, कण्ठशीर्षसमाहतः । नानागन्धावहः पुण्यो, गान्धारस्तेन हेतुना ॥ १ ॥” तथा मध्ये कायस्य भवो मध्यमः, यदवाचि "वायुः समुत्थितो नाभेरुरोहृदि समाहतः । नाभिं प्राप्तो महानादो, मध्यमत्वं समश्नुते ॥ १ ॥ तथा पञ्चानां षड्जादिस्वराणां निर्देशक्रममाश्रित्य पूरणः पञ्चमः अथवा पञ्चसु नाभ्यादिस्थानेषु मातीति पश्चमः स्वरः, यदभ्यधायि - " वायुः समुत्थितो नाभेरुरोहत्कण्ठशिरोहतः । पञ्चस्थानोत्थितस्यास्य, पञ्चभत्वं विधीयते ॥ १ ॥” तथा अभिसन्धयते-अनुसन्धयति शेषस्वरानिति निरुक्तिवशाद् चैवतः, यदुक्तम् - "अभिसन्धयते यस्मादेतान् पूर्वोत्थितान् | स्वरान् । तस्मादस्य स्वरस्यापि धैवतत्वं विधीयते ॥ १ ॥ पाठान्तरेण रैवतश्चैवेति तथा निषीदन्ति स्वरा यस्मिन् स निषादः, यतोऽभिहितं "निषीदन्ति स्वरा यस्मान्निपादस्तेन हेतुना । सर्वाश्चाभिभवत्येष, यदादित्योऽस्य दैवतम् ॥१॥" इति, तदेवं स्वराः सप्त 'वियाहियत्ति व्याख्याताः, ननु कार्य हि कारणायत्तं जिह्वा च स्वरस्य कारणं सा चासये यरूपा ततः कथं स्वराणां सङ्ख्यातत्वमिति, उच्यते, असङ्ख्याता अपि विशेषतः स्वराः सामान्यतः सर्वेऽपि सप्तस्वन्तर्भवन्ति, अथवा स्थूलस्वरान् गीतं चाश्रित्य सप्त उक्ताः, आह च "कर्ज करणायतं जीहा य सरस्स ता असंखेखा । सरसंख| मसंखेला करणस्सासंखयताओ ॥ १ ॥ सत् य सुत्तनिबद्धा कह न विरोहो ? तओ गुरू आह । सत्तणुबाई सब्वे वायरगहणं च गेयं वां ॥ २ ॥” इति । [ कार्य कारणावत्तं स्वरस्यच जिह्वा ता असङ्ख्येयाः स्वराः सङ्ख्येया असङ्ख्याताः कारणस्यासङ्ख्यत्वात् ॥ १ ॥ सप्त च सूत्रे निवन्द्राः कथं न विरोधः ततो गुरुराह सर्वेऽपि सप्तानुपातिनः स्थूलग्रहणमाश्रित्य गेयं Far Far & Pra Un ७ स्थाना० उद्देशः स्वरप्रकरणं सू० ५५३ ~ 221~ ॥ ३९४ ॥ antary org पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ७ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५५३] +गाथा १-३२ प्रत सूत्रांक [५५३] गाथा ||१-३२|| दीप अनुक्रम [६०४-६४३] ॐॐॐॐॐॐ4545% या ॥२॥] स्वरानामतोऽभिधाय कारणतस्तनिरूपणायोपक्रमते-'एएसि ॥'मित्यादि, तत्र नाभिसमुत्थः स्वरोजहै| विकारी आभोगेन अनाभोगेन वा यं प्रदेश प्राप्य विशेषमासादयति तत्स्वरस्योपकारकमिति स्वरस्थानमुच्यते, 'सज्जशामित्यादिश्लोकद्वयं, अयादिति सर्वत्र क्रिया, षड्जं तु प्रथमस्वरमेव अग्रभूता जिहा अप्रजिह्वा जिह्वानमित्यर्थः तया, यद्यपि षड्जभणने स्थानान्तराण्यपि व्याप्रियन्ते अप्रजिह्वा वा स्वरान्तरेषु व्याप्रियते तथापि सा तत्र बहुतरव्यापारवतीतिकृत्वा तया तमेव ब्रूयादित्यभिहित, उरो-वक्षस्तेन ऋषभस्वरं, 'कंठुग्गएणंति कण्ठश्वासाबुनकच-उत्कटः कण्ठोअकस्तेन कण्ठस्य वोग्रत्वं यत्तेन कण्ठोग्रत्वेन कण्ठाद्वा यवुद्गतं-उद्गतिः स्वरोगमलक्षणा क्रिया तेन कण्ठोद्गतेन गन्धारं, जिहावा मध्यो भागो मध्यजिह्वा तया मध्यमं, तथा दन्ताश्च ओष्ठौ च दन्तोष्ठं तेन धैवतं रैवतं वेति । 'जीवनिस्सियत्ति जीवाश्रिताः जीवेभ्यो वा निःसृता-निर्गता, 'समित्यादिश्लोकः, 'नदतिरौति 'गवेलग'त्ति गावश्च एलकाश्च-ऊरणका गवेलकाः अथवा गवेलका-ऊरणका एव इति, "अह कुसुम' इत्यादिरूपकं गाथाभिधानं, "विषमाक्षरपाद या पादैरसमं दशधर्मवत् । तन्नेऽस्मिन् यदसिद्धं, गाथेति तत् पण्डितै यम् ॥१॥” इति वचनात्, 'अथेति विशेषार्थः, विशेषार्थता चैवं-यथा गवेलका अविशेषेण मध्यम स्वरं नदन्ति न तथा कोकिलाः पञ्चम, अपि तु कुसुमसम्भवे काल इति, कुसुमानां बाहुल्यतो वनस्पतिषु सम्भवो यस्मिन् स तथा तत्र, मधावित्यर्थः । 'अजीवमिस्सिय'त्ति | तथैव नवरं जीवप्रयोगादेत इति । 'सज'मित्यादि श्लोकः, मृदङ्गो-मर्दला गोमुखी-काहला यतस्तस्या मुखे गोशामन्यवा| क्रियत इति, 'घ' इत्यादिश्लोकाः चमिश्चरणैः प्रतिष्ठानं भुवि यस्याः सा तथा, गोधाचर्मणा अवनखेति गोधिका-I8 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~222~ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५५३] +गाथा १-३२ प्रत असत्र सूत्रांक 45RDAS [५५३] गाथा ॥१-३२|| दीप अनुक्रम [६०४-६४३] श्रीस्थाना- वाद्यविशेषो दर्दरिकेति यसर्यायः, आडम्बर:-पटहः सप्तममिति-निपादं । 'एएसि 'मित्यादि, 'सत्त'त्ति स्वरभेदात् स्थाना सप्त स्वरलक्षणानि यथास्वं फलं प्रति प्रापणाव्यभिचारीणि स्वररूपाणि भवन्ति, तान्येव फलत आह-सज्जेणे'त्यादि उद्देशः श्लोकाः सप्त, षड्जेन लभते वृत्ति, अयमर्थः-पड्जस्येदं लक्षणं-स्वरूपमस्ति येन वृत्ति-जीवनं लभते षड्जस्वरयुक्तः प्राणी, स्वरप्रक एतच्च मनुष्यापेक्षया लक्ष्यते, मनुष्यलक्षणत्वादस्पेति, कृतं च न विनश्यति तस्येति शेषः, निष्फलारम्भो न भवतीत्यर्थः, रण ३९५॥ गावो मित्राणि च पुत्राश्च भवन्तीति शेषः। 'एसजति ऐश्वर्य गन्धारे गीतयुक्तिज्ञाः बर्यवृत्तयः-प्रधानजीविकाः कला- सू०५५३ भिरधिकाः कवयः-काव्यकारिणः प्राज्ञाः सद्बोधाः, ये च उक्तेभ्यो गीतयुक्तिज्ञादिभ्योऽन्ये शास्त्रपारगा:-धनुर्वेदादि-| पारगामिनस्ते भवन्तीति, शकुनेन-श्येनलक्षणेन चरन्ति-पापदि कुर्वन्ति शकुनान् वा प्रन्ति शाकुनिकाः, वागुरा-12 मृगबन्धनं तया चरन्तीति वागुरिकाः, शूकरेण शूकरवधार्थ चरन्तीति शूकरान् वा नन्तीति शौकरिकाः, मौष्टिकामल्ला इति, 'एतेषा'मित्यादि, तत्र व्याख्यानगाथा-'सजाइ तिहा गामो ससमूहो मुच्छनाण विन्नेओ। ता सत्त एककामेके तो सत्त सराण इगवीसा ॥१॥ अननसरविसेसे उप्पायंतस्स मुच्छणा भणिया। कत्ता व मुच्छिओ इव कुणहे। मुच्छ व सो बत्ति ॥२॥" का वा मूच्छित इव करोति, मूईन्निव वा स कर्तेत्यर्थः, इह च मङ्गीप्रभृतीनामेकविंशतिहै मूछेनानां स्वरविशेषाः पूर्वगते खरप्राभृते भणिताः, अधुना तु तद्विनिर्गतेभ्यो भरतवैशाखिलादिशास्त्रेभ्यो वि ज्ञेया इति । 'सत्सस्सरा कओ गाहा, इह चत्वारः प्रश्नाः, तत्र कुत इति स्थानात् का योनिरिति-का जातिः तथा कति ॥३९५॥ समया येषु ते कतिसमयाः, उच्छासाः किंपरिमाणकाला इत्यर्थः, तथाऽऽकारा:-आकृतयः स्वरूपाणीत्यर्थः, 'सत्त SAMS पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~2234 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५५३] +गाथा १-३२ प्रत सूत्रांक । ASANCHARAC [५५३] गाथा ||१-३२|| दीप अनुक्रम [६०४-६४३] सरा' गाहा प्रश्ननिर्वचनार्थी स्पष्टा, नवरं रुदितं योनिः-जातिः समानरूपतया यस्य तद् रुदितयोनिक, पादसमया उच्छ्रासा-यावद्भिः समयैः पादो वृत्तस्य नीयते तावत्समया उच्छामा गीते भवन्तीत्यर्थः, आकारानाह-'आई' गाहा, आदौ-प्राथम्ये मृदु-कोमलमादिमृदु गीतमिति गम्यते, आरभमाणाः, इह समुदितत्रयापेक्षं बहुवचनमन्यथा एक एवं | आकारो द्वयमन्यद् वक्ष्यमाणलक्षणमिति, तथा समुद्वहन्तश्च महत्तां गीतध्वनेरिति गम्यते, मध्यकारे-मध्यभागे, तथा अवसाने च क्षपयन्तो-गीतध्वनि मन्द्रीकुर्वन्तस्त्रयो गीतस्याकारा भवन्ति, आदिमध्यावसानेषु गीतध्वनिः मृदुतारमन्द्रस्वभावः क्रमेण भवतीति भावः, किं चान्यत्-'छ होसे' दारगाहा, षट् दोषा वर्जनीयाः, तानाह-'भीर्य'गाहा, भीत-त्रस्तमानसं १ द्रुतं-त्वरितं २ 'रहस'ति इस्वस्वरं लघुशब्दमित्यर्थः, पाठान्तरेण 'उप्पिच्छं' श्वासयुक्तं त्वरितं चेति उत्ताल-उत्पाबल्यार्थे इत्यतितालमस्थानतालं वा, तालस्तु कंशिकादिशब्द विशेष इति ४, 'काकस्वर' श्लक्ष्णाश्रव्यस्वरं, | अनुनासं च-सानुनासिकं नासिकाकृतस्वरमित्यर्थः, किमित्याह-गायन् गानप्रवृत्तस्त्वं हे गायन! मा गासी, किमिति, | यत एते गेयस्य षट् दोषा इति । अष्टौ गुणानाह-'पुन्न' गाहा, पूर्ण स्वरकलाभिः १ रक्तं गेयरागेणानुरक्तस्य २ अलङ्कतमन्यान्यस्वरविशेषाणां स्फुटशुभानां करणात् ३ व्यक्तमक्षरस्वरस्फुटकरणत्वात् ४ 'अविघुडं' विक्रोशनमिव यन्न विस्वरं ५ मधुरं-मधुरस्वर कोकिलारुतवत् ६ सम-तालवंशस्वरादिसमनुगतं ७ सुकुमार-ललितं ललतीव यत् स्वरघोलनाप्रकारेण शब्दस्पर्शनेन श्रोत्रेन्द्रियस्य सुखोत्पादनाद्वेति ८, एभिरधाभिर्गुणयुक्तं गेयं भवति, अन्यथा विडम्बना । किश्चान्यत्-उरगाहा, उरकण्ठशिरासु प्रशस्त-विशुद्धं, अयमों-यधुरसि स्वरो विशालस्तत उरोविशुद्धं, कण्ठे यदि पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~224~ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५५३] +गाथा १-३२ श्रीस्थाना- प्रत असूत्र वृत्तिः सूत्रांक ॥३९६॥ [५५३] गाथा ॥१-३२|| दीप अनुक्रम [६०४-६४३] स्वरो वर्तितोऽस्फुटितश्च ततः कण्ठविशुद्ध, शिरसि प्राप्तो यदि नानुनासिकस्ततः शिरोविशुद्धं, अथवा उरकण्ठशिरःसुस्थाना० श्लेष्मणा अव्याकुलेषु विशुद्धेषु-प्रशस्तेषु यत्तत्तयेति, चकारो गेयगुणान्तरसमुच्चये गीयते-उधार्यते गेयमिति सम्बध्यते, उद्देशः ३ किंविशिष्टमित्याह ?-'मृदुक' मधुरस्वरं 'रिभितं' यत्राक्षरेषु घोलनया संचरन् स्वरो रङ्गतीव घोलनाबहुलमित्यर्थः, स्वरप्रक'पदवद्ध' गेयपदैनिबद्धमिति, पदत्रयस्य कर्मधारयः, 'समतालपडुक्खेवं ति समशब्दः प्रत्येक सम्बध्यते तेन समा- रणं स्ताला-हस्तताला उपचारात् तद्रवो यस्मिंस्तत्समतालं तथा समः प्रत्युत्क्षेपः प्रतिक्षेपो वा-मुरजकंशिकाद्यातोद्यानां यो सू०५५३ ध्वनिस्तालक्षणः नृत्यपादक्षेपलक्षणो वा यस्मिंस्तत्समप्रत्युत्क्षेपं समप्रतिक्षेपं वेति, तथा 'सत्तसरसीभरं'ति सप्त स्वराः 'सी-1 | भर'न्ति अक्षरादिभिः समा यत्र तत्सप्तस्वरसीभरं, ते चामी-'अक्खरसमं १ पयसमं २ तालसमं ३ लयसम ४ गहसम|४ च ५। नीससिऊससियसमं व सञ्चारसम ७ सरा सत शाति, इयं च गाथा स्वरप्रकरणोपास्ते 'तंतिसम'मित्यादिरधी|तापि इहाक्षरसममित्यादि व्याख्यायते, अनुयोगद्वारटीकायामेवमेव दर्शनादिति, तत्र दीर्षे अक्षरे दी स्वरः क्रियते | इस्वे इस्वः प्लुते प्लुतः सानुनासिके सानुनासिका तदक्षरसम, तथा यद् गेयपद-नामिकादिकमन्यतरबन्धेन बद्ध यत्र स्वरे अनुपाति भवति तत्तत्रैव यत्र गीते गीयते तत्पदसममिति, यत्सरस्पराहतहस्ततालस्वरानुवर्ति भवति तत्तालसम, ऋजादार्वाधन्यतरमयेनाङ्गलिकोशकेनाहतायास्तम्छ्याः स्वरप्रकारो लयस्तमनुसरतो गातुर्यद्यं तालयसम, प्रथमतो वंशतच्या|| दिभियः स्वरो गृहीतस्तत्सम गीयमानं ग्रहसम, निःश्वसितोच्छुसितमानमनतिकामतो यनेयं तनिःश्वसितोसितसम, ||३९६॥ तैरेव वंशतन्यादिभिर्यदङ्गुलिसञ्चारसमं गीयते तत्सञ्चारसम, गेयं च सप्त स्वरास्तदात्मकमित्यर्थः । यो गेये सूत्रबन्धः 35 SamEaucatunintamatana पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~225 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५५३] +गाथा १-३२ प्रत सूत्रांक BHARA [५५३] गाथा ||१-३२|| दीप अनुक्रम [६०४-६४३] स एवमष्टगुण एवं कार्य इत्याह-निहोस सिलोगो, तत्र निर्दोष-"अलियमुवधायजणयं" इत्यादिद्वात्रिंशतसूत्रदोपरहित १ सारवद्-अर्थेन युक्तं २ हेतुयुकं-अर्थगमककारणयुक्कं ३ अलङ्कतं-काव्यालङ्कारयुक्तं ४ उपनीतं-उपसंहार-| युक्तं ५सोपचारं-अनिष्ठराविरुद्धालजनीयाभिधानं सोझास वा ६ मितं पदपादाक्षरैः नापरिमितमित्यर्थः ७ मधुरं त्रिधा शब्दार्थाभिधानतो ८ गेयं भवतीति शेषः। 'तिनि य वित्ताईति यदुक्तं तब्याख्या-'सम'सिलोगो, तत्र सर्म पादैरसाक्षरैश्च, तत्र पादैश्चतुर्भिरक्षरस्तु-गुरुलघुभिः, अर्द्धसमं त्वेकतरसम, विषमं तु सर्वत्र पादाक्षरापेक्षयेत्यर्थः, अन्ये तु व्या-18 चक्षते-सम-यत्र चतुर्वपि पादेषु समान्यक्षराणि, अर्द्धसमं यत्र प्रथमतृतीययोद्वितीयचतुर्थयोश्च समत्वं, तथा सर्वत्र-सर्वपादेषु विषमं च-विषमाक्षरं यद् यस्माद्वस भवति ततस्त्रीणि वृत्तप्रजातानि-पद्यप्रकारा, अत एव चतुर्थ नोपलभ्यत इति, 'दोन्नि य भणिइओत्ति अस्य व्याख्या-'सक्कया' सिलोगो, मणितिः-भाषा 'आहिया' आख्याता स्वरमण्डलेपडूजादिस्वरसमूहे, शेष कण्ठ्यं । कीदृशी स्त्री कीदृशं गायतीति प्रश्नमाह-केसी' गाहा, 'केसिति कीदृशी 'खर'न्ति | खरस्थानं रूक्षं-प्रसिद्धं चतुरं-दक्षं विलम्ब-परिमन्थरं दुत-शीघ्रमिति, 'विस्सरं पुण केरिसिति विस्सरं पुण केरि| सित्ति गाथाधिकमिति, उत्तरमाह-'सामागाहा कण्ठ्या, 'पिंगलति कपिला, 'तंति'गाहा तन्त्रीसम-वीणादितन्त्री शब्देन तुल्यं मिलितं च, शेष प्राग्वत् , नवरं 'पादों' वृत्तपादः, तन्त्रीसममित्यादिषु गेयं सम्बन्धनीय, तथा गेयस्य स्वरा-| मानोंग्तरत्वादुक्तं 'संचारसमा सरा सत्तति, अन्यथा सञ्चारसममिति वाच्यं खात्, तैतिसमा तालसमेत्यादि वेति, अयं च स्वरमण्डलसहेपाया, 'सत्त सरा' सिलोगो, सता तनी तानो भव्यते, तत्र पजादिः स्वरः प्रत्येकं सप्तभिस्तान E aton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~226~ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५५३] +गाथा १-३२ प्रत श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः स्थाना० | उद्देशः | स्वरप्रक सूत्रांक रणं ॥३९७॥ सू०५५३ [५५३] गाथा ॥१-३२|| दीप अनुक्रम [६०४-६४३] गयित इत्येवमेकोनपश्चाशत्तानाः सततन्त्रीकायां वीणायां भवन्तीति, एवमेकतन्त्रीकायां त्रितन्त्रीकायां च, कण्ठेनापि गीयमाना एकोनपञ्चाशदेवेति । अनन्तरं गानतो लौकिकः काबर उक्तोऽधुना लोकोत्तर तमेवाह सत्तविधे कायकिलेसे पण्णते, तं०-ठाणातिते उकुदुयासणिते पडिमठाती वीरासणिते णेसजिते दंडातिते लगंडसाती (सू० ५५४) जंबुरीवे २ सत्त वासा पं०,०-भरहे परवते हे वते हेरनवते हरिवासे रम्मगवासे महाविदेदे । जंबुहीये २ सत्त वासहरपन्यता पं०, ०-चुल्लहिमवंते महाहिमवते नम नीलवंते रुप्पी सिहरी मैदरे । जंधुदी २ सत्त महानदीओ पुरस्थाभिमुहीओ लवणसमुदं समप्पेंति, तं०-ग. रोहिता हिरी सीता हरकता सुवष्णकूला रत्ता । जंबुहीवे २ सत्त महानतीओ पञ्चत्वाभिमुहीओ लवणसमुई समुपैति, नं.-सिंधू रोहितसा हरिकता सीतोदा जारीकता रुप्पकूला रत्तपती धायइसंडदीवपुरच्छिमद्धे णं सत्तवासा पं0 -भरहे जाय महाविदेदे, धायइसंडदीवपुरच्छिमे गं सत्त वासहरपन्वता पं० सं०-लहिमवते जाव मंदरे, धायःसंडदीवपुर० सत्त महानतीओ पुरस्छामिमुहीतो कालोयसमुई समप्पेंति, तं०-गा जाव रत्ता, धायइसंडदीवपुरच्छिमझेणं सत्त महानतीओ पञ्चत्थाभिमुहीओ लवणसमुई समप्पेंति, सं०-सिंधू जाव रत्तवती, धायइसंडदीवे पञ्चस्थिमद्धे णं मत्त वासा एवं चेव, णवरं पुरस्थाभिमुहीओ लवणसमुदं समप्पेति पञ्चत्थाभिमुद्दाओ कालोदं, सेसं तं चेब, पुक्खवरदोषड़पुरच्छिमद्धे णं सत्त वासा तहेव, णवरं पुरत्याभिमुहीओ पुक्खरोदं समुई समप्र्षेति पञ्चत्वामिमुहीतो कालोदं समुई समति, सेसं तं चेव, एवं पञ्चस्थिमद्धेवि, णवरं पुरस्थाभिमुहीमो कालोदं समुई सम० पञ्चत्याभिमुहीओ पुक्खरोदं समति, सम्वत्य वासा वासहरपन्चता णतीचो य ॥३९७॥ SamEaucatunintamatani wtantnam पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~227~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूचांक [५५५] दीप अनुक्रम [६४५ ] स्था० ६७ Educatun Intamanions [भाग - 6] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [५५१] स्थान [७], उद्देशक [-1. - तं मित्तदा मे भाणितव्वाणि । (सू०५५५) । जंबुद्दीने २ भारहे वासे तीताते उस्सप्पिणीते सत्त कुलगरा हुआ, सुदामे य, सुपासे य सर्वपभे । विमलघोसे सुघोसे त, महाघोसे य सन्तमे ॥ १ ॥ जंबुद्दीवे २ भारहे वासे इमीसे ओप्पणीए सत्त कुरा हुत्था - पढमित्थ विमलवाहण १ चक्खुम २ जसमे ३ चछत्थममिचंदे ४ । तत्तो य पसेणइ ५ पुण मरुदेवे चैव ६ नाभी य ७ ||१|| एएसि णं सत्तण्डं कुलगराणं सत्त भारियाओ हुत्था, सं० चंदजसा १ चंदकांता २ सुरूव३ पडिव ४ चक्लुकंता ५ य सिरिकंता ६ मरुदेवी ७ कुलकरइत्थीण नामाई ||२|| जंबुद्दीवे २ भारहे वासे आगामिस्साए उस्सप्पिणीए सत्त कुलकरा भविस्संति - मित्रावाहण सुभोमे य, सुप्पभे य सयंपमे । दत्ते सुडुमे [सुद्दे सुरूवे य] सुबंधू य, आगमेस्सिण होक्खती || १|| विमलवाहणे णं कुछकरे सतविधा रुक्खा उपभोगत्ता हव्यमागच्छसु, वं०मतंगतात भिंगा चित्तंगा चेव होति चित्तरसा । मणियंगा त अणियणा सत्तमगा कप्परुक्खा य ॥ १ ॥ (सू० ५५६ ) सत्तविधा दंडनीती पं० [सं० - हमारे मकारे धिकारे परिभासे मंडळबंधे चारते छविच्छेदे (सू० ५५७) एगमेस्स णं रनो चाउरंतचक्रवट्टिस्स णं सत्त एगिंदियरतणा पं० तं० चकरयणे १ छत्तरयणे २ चम्मरयणे ३ दंडरयणे ४ असिरयणे ५ मणिरयणे ६ काफणिरयणे ७ । एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्रवट्टिस्स सत्त पंचिदियरतणा पं०, सेणावतीरयणे १ गाहावतिरयणे २ बडतिरयणे ३ पुरोहितरयणे ४ इत्थिरयणे ५ आसरयणे ६ हत्थिरयणे ७ (सू० ५५८ ) सत्तर्हि ठाणेहिं ओगाढं दुस्समं जाणेजा, सं० अकाले वरिसइ १ काले ण वरिसद् २ असाधू पुजंति ३ साधू ण पुति ४ गुरूहिं जणो मिच्छं पटिवन्नो ५ मनोदुहता ६ वतिदुहता ७ सत्तर्हि ठाणेहिं ओगाढं सुसमं जा । तं० Far Far & Pra U पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र - [ ०३] अंग सूत्र - [०३] ~228~ Summary o "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५५९] गाथा दीप अनुक्रम [६४६ -६५८] श्रीस्थानी ङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ३९८ ॥ [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-], मूलं [५५९] + गाथा स्थान [७], Educationmanonst णेज्जा, तं० अकाले न वरसइ १ काले वरिसइ २ असाधू ण पुनंति ३ साधू पुनंति ४ गुरु जणो सम्मं पडि वनो ५ मणोसुहत्ता ६ वतिसुहता ७ (सू० ५५९ ) 'सत्तविहे 'त्यादि, प्रायः प्रागेव व्याख्यातमिदं तथापि किञ्चिल्लिख्यते, कायस्य - शरीरस्य क्लेशः खेदः पीडा कायकेशो-बाह्यतपोविशेषः, स्थानायतिकः स्थानातिगः स्थानातिदो वा कायोत्सर्गकारी, इह च धर्मधर्मिणोरभेदादेवमुप न्यासः, अन्यथा कायक्लेशस्य प्रक्रान्तत्वात् स एव वाच्यः स्यात्, न तद्वान्, इह तु तद्वानिर्दिष्ट इति, एवं सर्वत्र उत्कटुकासनिक:-प्रतीतः, तथा प्रतिमास्थायी - भिक्षुप्रतिमाकारी वीरासनिको यः सिंहासननिविष्टमिवास्ते, नैषयिकःसमपदपुतादिनिषद्योपवेशी दण्डायतिकः- प्रसारितदेहो लगण्डशायी भूम्यलग्नपृष्ठः । इदं च कायक्लेशरूपं तपो मनुष्य- -वगाढदुलोक एवास्तीति तत्प्रतिपादनपरं 'जम्बुद्दीवे'त्यादि प्रकरणं, गतार्थ चैतत् । मनुष्यक्षेत्राधिकारात्तद्गत कुलकरकल्पवृक्ष- ष्षमासुषमे * नीतिरत्नदुष्षमा दिलिङ्गसूत्राणि पाठसिद्धानि चैतानि, नवरं 'आगमिस्सेण होक्स्खत्ति आगमिष्यता कालेन हेतुना ४ सू० ५५६भविष्यतीत्यर्थः तथा विमलवाहने प्रथमकुलकरे सति सप्तविधा इति पूर्व दशविधा अभूवन् 'रुक्ख'ति कल्पवृक्षाः 'उपभोगत्ताए'त्ति उपभोग्यतया 'हवं' शीघ्रमागतवन्तः, भोजनादिसम्पादनेनोपभोगं तत्कालीन मनुष्याणामागता इत्यर्थः, 'मत्तंगया य' गाहा, 'मत्तंगया' इति मत्तं मदस्तस्य कारणत्वान्मद्यमिह मत्तशब्देनोच्यते तस्याङ्गभूताः - कार - णभूतास्तदेव वाऽङ्गं अवयवो येषां ते मत्ताङ्गकाः, सुखपेयमद्यदायिन इत्यर्थः, चकारः पूरणे, 'भिंग'त्ति संज्ञाशब्दत्वाद् | भृङ्गारादिविविधभाजनसम्पादका भृङ्गाः, 'चित्तंग'त्ति चित्रस्य अनेकविधस्य माल्यस्य कारणत्वाच्चित्राङ्गाः, 'चित्तरसत्ति ५५९ FarForPrsten १७ स्थाना० उद्देशः १ कुलकरा द्याः नीतयः र लानि अ ~ 229~ ।। ३९८ ॥ पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ७ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५५९] +गाथा प्रत सूत्रांक [१५९] चित्रा-विचित्रा रसा-मधुरादयो मनोहारिणो येभ्यः सकाशात् सम्पद्यन्ते ते चित्ररसाः, 'मणियंगत्ति मणीनां-आभरणभूतानामङ्गभूता:-कारणभूताः मणयो वा अङ्गानि-अवयवा येषां ते मण्यङ्गाः, भूषणसम्पादका इत्यर्थः, 'अणियण'त्ति अनग्नकारकत्वादनम्ना-विशिष्टवस्त्रदायिनः, संज्ञाशब्दो वाऽयमिति, 'कप्परुक्ख'त्ति उक्तव्यतिरिक्तसामान्यकल्पितफलदायित्वेन कल्पना करूपस्तनधाना वृक्षाः कल्पवृक्षा इति । 'दंडनीइ'त्ति दण्डनं दण्ड:-अपराधिनामनुशासनं, तत्र तस्य वा स एव वा नीतिः-नयो दण्डनीतिः, 'हकारेत्ति हु इत्यधिक्षेपार्थस्तस्य करणं हक्कारः, अयमर्थः-प्रथमद्वितीयकुलकरकालेऽपराधिनो दण्डो हकारमात्र, तेनैवासौ हतसर्वस्वमिवात्मानं मन्यमानः पुनरपराधस्थाने न प्रवर्तत इति तस्य दण्डनीतिता, एवं मा इत्यस्य निषेधार्थस्य करणं-अभिधानं माकार, तृतीयचतुर्थकुलकरकाले महत्यपराधे माकारो दण्डः इतरत्र तु पूर्व एवेति, तथा धिगधिक्षेपार्थ एव तस्य करणं-उच्चारणं धिक्कारः, पञ्चमषष्ठसप्तमकुलकरकाले महा|पराधे धिक्कारो दण्डो जघन्यमध्यमापराधयोस्तु क्रमेण हक्कारमाकाराविति, आह च-पढमवीयाण पढमा तइयचउत्थाणा अभिनवा बीया । पंचमछस्स य सत्तमस्स तइया अभिणवा उ ॥१॥” इति, [प्रथमद्वितीययोः प्रथमा तृतीयचतु-31 योरभिनवा द्वितीया । पञ्चमषष्ठसप्तमानां तृतीयाऽभिनवा तु ॥१॥] तथा परिभाषणं परिभाषा-अपराधिनं प्रति ४ कोपाविष्कारेण मा यासीरित्यभिधानं, तथा 'मण्डलबन्धों' मण्डलं-इशितं क्षेत्रं तत्र बन्धो-नास्मात् प्रदेशाद् गन्त-४ व्यमित्येवं वचनलक्षणं, पुरुषमण्डलपरिवारणलक्षणो वा, 'चारक' गुप्तिगृहं 'छविच्छेदों' हस्तपादनासिकादिच्छेदः, इयमनन्तरा चतुर्विधा भरतकाले बभूव, चतसृणामन्त्यानामाद्यद्वयमृपभकाले अन्ये तु भरतकाले इत्यन्ये, आह् च गाथा दीप अनुक्रम [६४६-६५८] Ecoto N ayam पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~230~ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५५९] + गाथा दीप अनुक्रम [६४६ -६५८] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ३९९ ॥ [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ५५९ ] + गाथा स्थान [७], उद्देशक [-], "परिभासणा उ पढमा मंडलिबंधंमि होइ बीया उ । चारग छविछेदादी भरहस्स चढव्हिा नीई ॥ १ ॥ इति । [ प्र धमा परिभाषणैव देशनिर्वासे द्वितीया चारकं छविच्छेदादिश्च भरतस्य चतुर्विधा नीतिः ॥ १ ॥ ] 'चक्करपणे त्यादि, 'रलं निगद्यते तत् जाती जातौ यदुरकृष्ट' मितिवचनात् चक्रादिजातिषु यानि वीर्यत उत्कृष्टानि तानि चकरलादीनि मन्तव्यानि तत्र चक्रादीनि सप्तैकेन्द्रियाणि - पृथिवीपरिणामरूपाणि तेषां च प्रमाणं "चकं छत्तं दंडो तिन्निवि एयाई वामतुलाई । धम्मं दुहत्थदीहं बत्तीसं अंगुलाई असी ॥ १ ॥ चउरंगुलो मणी पुण तस्सद्धं चैव होइ विच्छिन्नो । चउरंगुलप्पमाणा | सुवन्नवरकागणी नेया ॥ १ ॥ [ चक्रं छत्रं दण्डः श्रीण्यप्येतानि धामतुल्यानि । चर्म द्विहस्तदीर्घ द्वात्रिंशदंगुलान्यसिः ५ ॥ १ ॥ मणिः पुनः चतुरंगुलः तदर्द्धमेव विस्तीणों भवति । सुवर्णवरकाकिणी चतुरंगुलप्रमाणा ज्ञेया ॥ २ ॥] सेनापतिः - सैन्यनायको गृहपतिः - कोष्ठागारनियुक्तः वर्द्धकी - सूत्रधारः पुरोहितः शान्तिकर्मकारीति, चतुर्दशाप्येतानि प्रष्पमासुषमे त्येकं यक्षसहस्राधिष्ठितानीति । 'ओगाढं 'ति अवतीर्णा अवगाढां वा प्रकर्षप्राप्तामिति, अकालः-अवर्षा, असाधवः- ५ सू० ५५६असंयताः गुरुषु मातापितृधर्माचार्येषु 'मिच्छे' मिथ्याभावं विनयभ्रंशमित्यर्थः 'प्रतिपन्नः' आश्रितः, 'मणोदुयत्ति मनसो मनसा वा दुःखिता दुःखितत्वं दुःखकारित्वं वा द्रोहकरवं वा, एवं 'वयदुहये' त्यपि व्याख्येयमिति । 'सम्म'ति ॐ सम्यग्भावं विनयमित्यर्थः । एते च दुष्षमासुषमे संसारिणां दुःखाय सुखाय चेति संसारिप्ररूपणायाह वगाढदु ५५९ सत्तविद्दा संसारसमानगा जीवा पं० नं०नेरतिता तिरिक्खजोणिता तिरिक्खजोणिणितो मणुस्सा मणुस्त्रीओ देवा देवीओ (सू० ५६० ) सचविधे आउभेदे पं० सं०' अज्झवसानिमित्ते आहारे यणा पराधाते । फासे आणापाणू Education Itamational Far Far & Prias Use Only पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ७ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 231~ ७ स्थाना० उद्देशः ३ कुलकरा द्याः नीतयः रज्ञानि अ ॥ ३९९ ॥ [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१६२] +गाथा प्रत सूत्रांक [५६२] C46-05- 20 गाथा सत्तविध मिजए आउं ॥ १॥' (सू०५६१) सत्तविधा सम्बजीवा पं०, तं०-पुढविकाइया आउ० तेउ० बाउ० वणस्सति० तसकातिता अकातिता, अहवा सत्तविहा सम्बजीवा पं०, ०-कण्हलेसा जाव सुफलेसा अलेसा (सू०५६२) 'सत्ते'त्यादि कण्ठ्यं, संसारिणां च संसरणं आयुमेंदे सति भवतीति तदर्शयन्नाह-'सत्ते'त्यादि, तत्र 'आज्यभे-18 देति आयुषो-जीवितव्यस्य भेदः उपक्रमः आयुर्भेदः, स च सप्तविधनिमित्तप्रापितत्वात् सप्तविध एवेति, 'अज्झव-| साण'गाहा, अध्यवसानं-रागस्नेहभयात्मकोऽध्यवसायो निमित्तं-दण्डकशाशस्त्रादीनि समाहारद्वन्द्वस्तत्र सति आयुभिंद्यत इति सम्बन्धः, तथा आहारे-भोजनेऽधिके सति, तथा वेदना-नयनादिपीडा पराघातो गर्तपातादिसमुत्थः, इहापि समाहारद्वन्द्व एव तत्र सति, तथा स्पर्श-तथाविधभुजङ्गादिसम्बन्धिनि सति, तथा 'आणापाणु'त्ति उच्छासनिःश्वासौ निरुद्धावाश्रित्येति, एवं च सप्तविधं यथा भवति तथा भिद्यते आयुरिति, अथवा अध्यवसानमायुरुपक्रमकारणमिति शेषः, एवं निमित्तमित्यादि, यावदाणापाणुत्ति व्याख्येयं, प्रथमैकवचनान्तत्वादध्यवसानादिपदानां, एवं सप्तविधत्वादायुर्भेदहेतूनां सप्तविध यथा भवति तथा भिद्यते आयुरिति, अयं चायुर्भेदः सोपक्रमायुषामेव नेतरेपामिति, आह-यद्येवं भिद्यते आयुस्ततः कृतनाशोऽकृत्याभ्यागमश्च स्यात्, कथं?, संवत्सरशतमुपनिबद्धमायुस्त स्य अपान्तराल एव व्यपगमास्कृतनाशो येन च कर्मणा तद्भिद्यते तस्याकृतस्यैवाभ्यागमः, एवं च मोक्षानाश्वासः ततश्चारित्राप्रवृत्त्यादयो दोषा इति, आह च-"कम्मोवकामिज्जइ अपत्तकालंपि जइ तओ पत्ता । अकयागमकयनासा मोक्खाणासासओ दोसा ॥१॥" [अप्राप्तकाले यदि कर्म उपक्रम्यते ततोऽकृतागमकृतनाशान्मोक्षेऽनाश्वासः दोषाः॥१॥] अनोच्यते-यथा दीप अनुक्रम [६५९-६६२] EU पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~232~ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१६२] +गाथा श्रीस्थानाइसूत्रवृत्तिः । प्रत सूत्रांक ॥४०० [५६२] MARACROSAGACASACANCIALG वर्षशतभोग्यभक्तमप्यग्निकव्याधितस्यास्पेनापि कालेनोपभुञ्जानस्य न कृतनाशो नायकृताभ्यागमस्तददिहापीति, आह||७ स्थाना० च-"न हि दीहकालियस्सवि णासो तस्साणुभूइओ खिप्पं । बहुकालाहाररस व दुयमग्गियरोगिणो भोगो ॥१॥ सव्वं च उद्देशः ३ पएसतया भुजइ कम्ममणुभागओ भाइयं । तेणावस्साणुभवे के कयनासादओ तस्त? ॥२॥ किंचिदकालेवि फलं पाइजइहा सर्वजीवाः पच्चए य कालेणं । तह कम्मं पाइज्जइ कालेण वि पच्चए अन्नं ॥ ३ ॥ जह वा दीहा रजू डज्झइ कालेण पुंजिया खिप्पं आयुरुपवितओ पडो उ सुस्सइ पिंडीभूओ उ कालेणं ॥४॥” इत्यादि [अग्निरोगिणो बहुकालाहारस्य भोग इव दीर्घकालिकस्यापि| क्रमाः सतस्य क्षिप्रमनुभूतितो नोक्को नाशलक्षणो दोषः॥१॥ सर्व च कर्म प्रदेशतया भुज्यतेऽनुभागतो भक्तं तेनावश्यानुभवे जीवाः कर्मणः के कृतनाशादयस्तस्य? ॥२॥ किंचित्फलमकालेऽपि पाच्यतेऽन्यत्कालेन पच्यते तथा कर्म पाच्यतेऽन्यत्कालेनापि ब्रह्मदत्तापाच्यते ॥ ३॥ यथा दीर्घा रज्जुः कालेन दह्यते पुंजिता क्षिप्रं क्षिप्रं विततः पटः शुष्यति पिण्डीभूतस्तु कालेन ॥४॥] अयं चायुर्भेदः कथश्चित्सर्वजीवानामस्तीति तानाह-सत्ते'त्यादि सूत्रद्वयं कण्ठ्यं, नवरं सर्वे च ते जीवाश्चेति स-1 जीवाः, संसारिमुक्ता इत्यर्थः, तथा 'अकाइय'त्ति सिद्धाः षडिधकायाव्यपदेश्यत्वादिति, अलेश्याः-सिद्धाः अयोगिनो। ५६३ वेति ॥ अनन्तरं कृष्णलेश्यादयो जीवभेदा उक्ताः, तत्र च कृष्णलेश्यः सन्नारकोऽप्युत्पद्यते ब्रह्मदत्सवदिति ब्रह्मदत्तस्वरूपाभिधानायाहबंभदत्ते णं राया चाउरतचकवट्टी सत्त धणूई उड़े उच्चत्तेणं सत्त व वाससयाई परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किया M ॥४० ॥ 'अधे सत्तमाए पुढवीए अप्पतिडाणे णरए णेरतितत्ताए उबवने (सू०५६३) मल्ली णं अरहा अप्पसत्तमे मुंडे भवित्ता गाथा युर्गती सू०५६०. दीप अनुक्रम [६५९-६६२] CamEauratonitumational Tantrayuru पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~233~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१६२] प्रत सूत्रांक [५६४] अगारातो अणगारियं पवाए, तं०-माही विदेहरायवरकन्नगा १ पडिबुद्धी इक्खागराया २ चंदच्छाये अंगराया ३ रुप्पी कुणालाधिपती ४ संखे कासीराया ५ अदीणसत्तू कुरुराता ६ जितसत्तू पंचालराया ७ (सू० ५६४) | 'बंभदत्ते'त्यादि सुगम ॥ ब्रह्मदत्त उत्तमपुरुष इति तदधिकारात् उत्तमपुरुषविशेषस्थानोसन्नमल्लिवक्तव्यतामाह|'मल्ली णमित्यादि, मल्लिरहन 'अप्पसत्तमे त्ति आत्मना सप्तमः-सप्तानां पूरणः आत्मा वा सप्तमो यस्यासावात्म| सप्तमो, मलिशब्दस्य स्त्रीलिजावेऽप्यच्छब्दापेक्षया पुंनिर्देशः, विदेहजनपदराजस्य बरकन्या विदेहराजवरकन्या १, तथा प्रतिबुद्धिर्नाम्ना इक्ष्वाकुराजः साकेतनिवासी २, चन्द्रच्छायो नाम अङ्गजनपदराजश्चम्पानिवासी ३, रुक्मी नाम कुणालजनपदाधिपतिः श्रावस्तीवास्तव्यः ४, शङ्खो नाम काशीजनपदराजो वाराणसीनिवासी ५, अदीनशत्रुर्नाम्ना कुरुदेशनाथः हस्तिनागपुरवास्तव्यः ६, जितशत्रुर्नाम पञ्चालजनपदराजः काम्पिल्यनगरनायक इति ७, आत्मसप्तमत्वं च भगवतः प्रवज्यायामभिहितप्रधानपुरुषमन्नध्याग्रहणाभ्युपगमापेक्षयाऽवगन्तव्यं, यतः प्रत्रजितेन तेन ते प्रत्राजिता, तथा त्रिभिः |पुरुषशतैः बाह्यपरिषदा विभिच खीशतैरभ्यन्तरपरिषदाऽसौ संपरिवृतः परिवजित इति ज्ञातेषु श्रूयत इति, उक्तं च"पासो मल्ली य तिहिं तिहिं सपहि"ति, [पार्थो मल्ली च त्रिभित्रिभिः शतैः] एवमन्येष्वपि विरोधाभासेषु विषयविभागाः सम्भवन्तीति निपुणैर्गवेषणीयाः, शेषं सुगममिति, इत्वं चैतच्चरितं मल्लिज्ञाताध्ययने श्रूयते-जम्बूद्वीपेऽपरविदेहे सलिलावतीविजये वीतशोकायां राजधान्यां महाबलाभिधानोराजा पनिर्बालवयस्यैः सह प्रव्रज्यां प्रतिपेदे, तत्र महाबलस्तैवयस्यानगारैरूचे-यद्वांस्तपस्तपस्वति तद्वयमपीत्येवं प्रतिपन्नेषु तेषु यदा ते तमनुसरन्तश्चतुर्थादि विदधुस्तदाऽसावष्टमादि दीप अनुक्रम [६६४] E aton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~234~ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१६२] +गाथा वृत्तिः प्रत सूत्रांक [५६४] श्रीस्थाना- Iव्यधासीद, एवं च स्त्रीनामगोत्रकर्मासौ वधन्ध अहंदादिवात्सल्यादिभिश्च हेतुभिस्तीर्थकरनामेति, ततस्ते जीवितक्षयाजयन्ता- स्थाना० गसूत्र- भिधानविमाने अनुत्तरसुरत्वेनोसेदिरे, ततश्युत्वा महापलो विदेहेषु जनपदेषु मिथिलायां राजधान्यां कुम्भकराजस्य | उद्देशः३ प्रभावत्या देव्यास्तीर्थकरीत्वेन समजनि, मल्लिरिति नाम च पितरौ चक्रतुः, तदन्ये तु यथोकेषु साकेतादिषु सञ्जज्ञिरे, मल्लीजिन ततो मल्ली देशोनवर्षशतजाता अवधिना तानाभोगयाञ्चकार, तत्प्रतिबोधनार्थ च गृहोपवने षगर्भगृहोपेतं तन्मध्यभागे 51 चरितं ॥४०१॥ दूच कनकमयीं शुपिरा मस्तकच्छिद्रां पद्मपिधानां स्वप्रतिमां कारयामास, तस्यां चानुदिवसं स्वकीयभोजनकवलं प्रक्षेप- सू०५६४ यामास, इतश्च साकेते प्रतिबुद्धिराजः पद्मावत्या देव्या कारिते. नागयज्ञे जलजादिभास्वरपञ्चवर्णकुसुमनिर्मितं श्रीदाम|गण्डक दृष्ट्वा अहोऽपूर्वभकिकं इदमिति विस्मयादमात्यमुवाच-दृष्टं वापीदमीदशमिति?, सोऽवोचत्-मल्लिविदेहवरराजकन्यासत्कश्रीदामगण्डापेक्षयेदं लक्षांशेऽपि शोभया न वर्तते, ततो राज्ञाऽवाचि-सा पुनः कीदृशी, मन्त्री जगादअन्या नास्ति तादृशीत्युपश्रुत्य सञ्जातानुरागोऽसौ मलिवरणार्थ दूतं विससर्ज शतथा चम्पायां चन्द्रच्छायराजः कदाचिदर्हन्नकाभिधानेन श्रावकेण पोतवणिजा चम्पावास्तव्येन यात्राप्रतिनिवृत्तेन दिव्ये कुण्डलयुग्मे कौशलिकतयोपनीते सति | पप्रच्छ, यदुत-यूयं बहुशः समुद्र लढयथ, तत्र च किञ्चिदाश्चर्यमपश्यत्?, सोऽवोचत्-स्वामिन्नस्यां यात्रायां समुद्रमध्येs-18 स्माकं धर्मचालनार्थ देवः कश्चिदुपसर्ग चकार, अविचलने चास्माकं तुष्टेन तेन कुण्डलयुगलद्वितयमदाथि, तदेक कुम्भ-IN कस्य अस्माभिरुपनिन्ये, तेनापि मल्लिकन्यायाः कर्णयोः स्वकरेण विन्यासि, सा च कन्या त्रिभुवनाथभूता दृष्टा, इति || ॥४०१॥ श्रुत्वा तथैव दूतं प्रेषयामास तथा श्रावस्त्यां रुक्मिराजः सुबाहुभिधानायाः स्वदुहितुश्चातुर्मासिकमजनमहोत्सवे नग-15 दीप अनुक्रम [६६४] CamEauratoniummational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~235~ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१६२] +गाथा प्रत सूत्रांक [५६४] रीचतुष्पथनिवेशितमहामण्डपे विभूत्या मज्जिता तां तत्रैवोपविष्टस्य पितुः पादवन्दनार्थमागतां अङ्के निवेश्य तलावण्यमवलोकयन् व्याजहार, यदुत भो वर्षधर दृष्ट इंदशोऽन्यस्याः कस्याश्चिदपि कन्यायाः मजनकमहोत्सवः१, सोऽवोचद्-देव! वि-| देहवरराजकन्यासत्कमजनोत्सवापेक्षया अयं लक्षांशेऽपि रमणीयतया न वर्तत इत्युपश्रुत्य तथैव दूतं प्रेषयति स्मेति शतधा | अन्यदा मल्लिसत्कदिव्यकुण्डलयुग्मसन्धिविजघटे, तत्सट्टनार्थ कुम्भकेन सुवर्णकाराः समादिष्टास्तथैव कर्नु तमशक्नुवन्तश्च नगर्या निष्कासिताः, बाणारस्यां शङ्खराजमाश्रिताः, भणिताश्च ते तेन-केन कारणेन कुम्भेन निष्काशिता यूयं ?, तेऽभिदधुःमलिकन्यासत्कविघटितकर्णकुण्डलसन्धानाशकनेनेति, ततः कीदृशी सेति पृष्टेभ्यस्तेभ्यो मल्लिरूपमुपश्रुत्य तथैव दूतं प्राहिणोत्४ा तथा कदाचिन्मल्या मल्लदिन्नाभिधानोऽनुजो भ्राता सभां चित्रकश्चित्रयामास, तत्रैकेन चित्रकरयूना लब्धिविशेपवता यमनिकान्तरिताया मल्लिकन्यायाः पादाङ्गठमुपलभ्य तदनुसारेण मल्लिसदृशमिव तद्रूपं निर्वतितं, ततश्च मल्लदिन्नकुमारः सान्तःपुरश्चित्रसभायां प्रविवेश, विचित्राणि च चित्ररूपाण्यवलोकयन् मल्लिरूपं ददर्श, साक्षान्महीयमिति मन्यमानो ज्येष्ठाया भगिन्या गुरुदेवभूताया अहमग्रतोऽविनयेनायात इति भावयन् परमनीडां जगाम, ततस्तद्धात्री चित्र-10 मिदमिति ग्यवेदयत्। ततोऽसावस्थाने तेनेदं लिखितमिति कुपितस्तं वध्यमाज्ञापितवान् , चित्रकरश्रेणी तु तं ततो मोचयामास, तथापि कुमारः सन्दशकं छेदयित्वा तं निर्विषयमादिदेश, सच हस्तिनागपुरे अदीनशत्रुराजमुपाश्रितः, ततो राजा तन्निर्गमकारणं पप्रच्छ, तेन च तथैव कथिते दूतं प्रहिणोति स्मेति ५। तथा कदाचिच्चोक्षाभिधाना परिवाजिका मल्लिभवनं प्रविवेश, तां च दानधर्म च शौचधर्म चोदाहयन्ती मल्लिस्वामिनी निर्जिगाय, निर्जिता च सती सा कु-IC SSCXCORREN *ECRECASANSAR दीप अनुक्रम [६६४] SamEaucaton's Hanuman पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~236~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५६२] +गाथा प्रत सूत्रांक [५६४] श्रीस्थाना- पिता काम्पिल्यपुरे जितशत्रुराजमुपाश्रिता, भणितं च नरपतिना-धोक्षे! बहुत्र त्वं संचरस्यतोऽद्राक्षीः काश्चिक- स्थाना० सूत्र- ट्राचिदस्मदन्तःपुरपुरन्ध्रीसदृशीं १, सा व्याजहार-विदेहवरराजकन्यापेक्षया युष्मत्पुरन्ध्रयो लक्षांशेऽपि रूपसौभाग्यादि- उदशा वृत्ति भिर्गुणैने वर्तन्त इति श्रुत्वा तथैव दूतं विसर्जितवानिति ६ । एवमेते पडपि दूताः कुम्भक कन्यां याचितवन्तः, सच मल्लीजिन॥४०२॥ Bातानपद्वारेण निष्काशितवान, दूतवचनाकर्णनाजातकोपाः षडपि अविक्षेषेण मिथिलां प्रति प्रतस्थुः, आगच्छतश्च ता-131 नुपश्रुत्य कुम्भकः सबलवाहनो देशसीमान्ते गत्वा रणरङ्गरसिकतया तान् प्रतीक्षमाणस्तस्थी, आयातेषु तेषु लग्नमायोधनं, बहुत्वात् परबलस्य निहतकतिपयप्रधानपुरुषमतिनिशितशरशतजर्जेरितजयकुञ्जरमतिखरचरुपमहारोपप्लुतवाजिवि-1 सरविक्षिप्ताश्चवारमुत्तुङ्गमत्तमताजचूर्णितचकिचक्रमुल्लूनच्छत्रं पतत्पताकं कान्दिशीककातरं कुम्भकसैन्यं भजामगमत् , ततोऽसौ निवृत्य रोधकसज्जः समासामासे, ततस्तज्जयोपायमलभमानमतिव्याकुलमानसं जनकमवलोक्य मही समाश्वासयन्ती समादिदेश, यदुत-भवते दीयते कन्येत्येवं प्रतिपादनपरपरस्परप्रच्छन्नपुरुषप्रत्येकप्रेषणोपायेन पुरि पा[र्थिवाः पडपि प्रवेश्यन्तां, तथैव कृतं, प्रवेशितास्ते, पूर्वरचितगर्भगृहेषु मलिप्रतिमामवलोक्य च ते सेयं मलीति मन्यमानास्तद्रूपयोवनलावण्येषु मूञ्छिता निर्निमेपदृष्ट्या तामेवावलोकयन्तस्तिष्ठन्ति स्म, ततो मल्ली तत्राजगाम, प्रतिमायाः पिधानं चापससार, ततस्तस्या गन्धः सर्पादिकमृतकगन्धातिरिक्त उद्दधाव, ततस्ते नासिकां पिदधुः पराभुखाश्च तस्थुः, ॐामली च तानेवमवादीत्-किन्नु भो भूपा! यूयमेवं पिहितनासिकाः परापुखीभूताः, ते ऊचुः-गन्धेनाभिभूतत्वात्, पुनः साऽयोचत्-यदि भो देवानां प्रिया! प्रतिदिनमतिमनोज्ञाहारकवलक्षेपेणैवंरूपः पुद्गलपरिणामः प्रवत्तेते कीरशः पुनरस्यो-1 ॐॐॐॐॐ दीप अनुक्रम [६६४] SamEaucatunintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~237~ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१६२] +गाथा प्रत सूत्रांक [५६४] दारिकस्य शरीरस्य खेलवान्तपित्तशुक्रशोणितपूयाशवस्य दुरन्तोच्छासनिश्वासस्य पूतिपुरीषपूर्णस्य चयापचयिकस्य शटनपतनविध्वंसनधर्मकस्य परिणामो भविष्यतीति !, ततो मा यूयं मानुष्यककामेषु सजत, किंच-"किंध तयं पम्हढे जथ तया भो जयंतपवरंमि । वुच्छा समयनिवद्धं देवा! तं संभरह जाई ॥१॥" इति [किश्च तद्विस्मृतं यत्तदा जयंतप्रवरे | विमाने व्युषिताः समयनिबद्धं तां जाति देवा भो संस्मरत ॥१॥] भणिते सर्वेषामुसन्नं जातिस्मरणं, अथ मल्लिरवादीत्-अहं भोः! संसारभयात् प्रत्रजिष्यामि, यूयं किं करिष्यथ', ते ऊचुः-वयमप्येवं, ततो मल्लिरवोचत्-यद्येवं ततो गच्छत स्वनगरेषु स्थापयत पुत्रान् राज्येषु ततः प्रादुर्भवत ममान्तिकमिति, तेऽपि तथैव प्रतिपेदिरे, ततस्तान् मल्ली गृहीत्वा कुम्भकराजान्तिकमाजगाम, तस्य तान् पादयोः पातयामास, कुम्भकराजोऽपि तान् महता प्रमोदेनापूपुजत् स्वस्थानेषु च विससर्जेति, मल्ली च सांवत्सरिकमहादानानन्तरं पोषशुद्धैकादश्यामष्टमभकेनाश्विनीनक्षत्रे तैः पछिपतिभिनन्दनन्दिमित्रादिभिर्नागवंशकुमारैस्तथा बाह्यपर्षदा पुरुषाणां त्रिभिः शतैरभ्यन्तरपर्षदा च स्त्रीणां त्रिभिः शतैः सह प्रवत्राज, उत्पन्न केवलश्च तान् प्रत्राजितवानिति । एते च सम्यग्दर्शने सति प्रत्रजिता इति सामान्यतो दर्शननिरूपणायाह सत्तविहे सणे पं०, ०-सम्मईसणे मिच्छदसणे सम्मामिच्छदसणे चक्खुदंसणे अचक्खुदसणे ओहिसणे केवल दसणे (सू० ५६५) छलमत्यवीयरागे णं मोहणिजायज्जाओ सत्त कम्मपयडीओ वेयेति, संजहाणाणावरणिज इंसणावरणिज वेयणिय आवयं नामं गोतमंतरातितं (सू० १६६) सत्त ठाणाई छउमत्थे सम्बभावणं न याणति न पासति, दीप अनुक्रम [६६४] RSkCASSES २ -- - CamEauratonimumational wjanuman पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~238~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५६७] श्रीस्थानाअसूत्रवृत्तिः प्रत ॥४०३॥ सूत्रांक [५६७] MSROSASS ASAASA तं.-धम्मस्थिकार्य अधम्मत्थिकार्य आगासस्थिकार्य जीवं असरीरपडिबद्ध परमाणुपोग्गलं सई गंध, एयाणि चेष उत्पन्नणाणे ७स्थाना० जाव जाणति पासति, सं०-धम्मस्थिगात जाव गंधं (सू० ५६७) समणे भगवं महावीरे पयरोसभणारायसंघयणे उद्देशः३ समचउरससंठाणसंठिते सत्त रयणीओ उई उच्चत्तेणं हुत्या (सू० ५६८) सत्त विकहाओ पं०, सं०-इथिकहा भत्त- ४ा दर्शनानि कहा देसकहा रावकहा मिउकालणिता दंसणभेयणी चरित्तभेयणी (सू० ५६९) आयरियावज्झायस्स णं गर्णसि सत्त । छद्मस्थवी. अइसेसा पं०, तं०-आयरियउवज्झाए अंतो उवस्सगरस पाते णिगिझिय २ पप्फोडेमाणे या पमजमाणे वा णातिकमति, तरागवेद्यएवं जघा पंचढाणे जाव बाहिं उवस्सगस्स एगरात वा दुरातं वा वसमाणे नातिकमति, उपकरणातिसेसे भत्तपाणातिसेसे कमाणि छ(सू० ५७०) सत्तविधे संजमे पं०, ०-पुढाविकातितसंजमे जाव तसकातितसंजमे अजीवकायसंजमे । सत्चविधे झस्थेतरअसंजमे पं०, सं०-पुढविकातितभसंजमे जाव तसकातितअसंणमे अजीवकायअसंजमे । सत्तविहे आरंभे पं० सं० ज्ञेयाज्ञेयाः पुढविकातितआरंभे जाव अजीवकातआरंभे । एवमणारंभेचि, एवं सारंभेवि, एवमसारंभेवि, एवं समारंभेवि, एवं अस वीरोच्चता | विकथा: मारंभेवि, जाव अजीवकायअसमारंभे (सू० ५७१) सूर्यतिश"दसणे'त्यादि सुगम, परं सम्यग्दर्शन-सम्यक्त्वं मिथ्यादर्शनं-मिथ्यात्वं सम्यग्मिथ्यादर्शनं-मिश्रमिति, एतच्च याः संय० त्रिविधमपि दर्शनमोहनीयभेदानां क्षयक्षयोपशमोदयेभ्यो जायते तथाविधरुचिस्वभावं चेति, चक्षुदेर्शनादि तु दर्शना-18/०५५५चरणीयभेदचतुष्टयस्य यथासम्भवं क्षयोपशमक्षयाभ्यां जायते सामान्यग्रहणस्वभावं चेति, तदेवं श्रद्धानसामान्यग्रहण- ५७१ योर्दर्शनशब्दवाच्यत्वादर्शनं सक्षधोकमिति । अनन्तरं केवलदर्शनमुक्तं, तच्च छद्मस्थावस्थाया अनन्तरं भवतीति छद्म दीप +5%25-594 अनुक्रम [६६७] ECH पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~239~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५७१] प्रत सूत्रांक [५७१] स्थप्रतिबद्धं सूत्रद्वयं, विपर्ययसूत्रं च 'छउमत्थे त्यादि सुगम, नवरं छद्मनि-आवरणद्वयरूपे अन्तराये च कर्मणि तिष्ठ-131 तीति छद्मस्थः-अनुत्पन्न केवलज्ञानदर्शनः स चासौ वीतरागश्च-उपशान्तमोहत्वात् क्षीणमोहत्वाद्वा बिगतरागोदय इत्यर्थः, 'सत्त'ति मोहस्य क्षयादुपशमाद्वा नाष्टावित्यर्थः, अत एवाह-'मोहणिजबजाउ'त्ति । एतान्येव च जिनो जाना। तीत्युक्तं, स च वर्तमानतीर्थे महावीर इति तत्स्वरूपं तत्प्रतिषिद्धविकथाभेदांश्चाह-'समणे इत्यादि सूत्रद्वयं सुगम, नवरं 'विकहात्ति चतस्रः प्रसिद्धाः व्याख्याताश्चेति 'मिउकालुणिय'त्ति श्रोतृहदयमाईवजननात् मृद्वी सा चासो कारुणिकी च-कारुण्यवती मृदुकारुणिकी-पुत्रादिवियोगदुःखदुःखितमात्रादिकृतकारुण्यरसगर्भप्रलापप्रधानेत्यर्थः, तद्यथा-"हा पुत्त पुत्त हा वच्छ! वच्छ मुक्कामि कहमणाहाहं ? । एवं कलुणविलावा जलंतजलणेऽज्ज सा पडिया ॥१॥"|| इति, [हा पुत्र पुत्र हा वत्स! वत्स कथमनाथाऽहं मुक्ताऽस्मि । एवं कारुणिकप्रलापा ज्वलज्ज्वलने साऽद्य पतिता ॥१] दर्शनभेदिनी ज्ञानाद्यतिशयितकुतीर्थिकप्रशंसादिरूपा, तद्यथा-'सूक्ष्मयुक्तिशतोपेतं, सूक्ष्मबुद्धिकरं परम् । सूक्ष्मार्थदर्शिमिष्ट, श्रोतव्यं बौद्धशासनम् ॥१॥ इत्यादि, एवं हि श्रोतृणां तदनुरागात्- सम्यग्दर्शनभेदः स्यादिति, चारित्रभेदिनी न सम्भवन्तीदानी महानतानि साधूनां प्रमादबहुलवादतिचारप्रचुरत्वादतिचारशोधकाचार्यतस्कारकसाधुशुद्धीनामभावादिति ज्ञानदर्शनाभ्यां तीर्थ वर्चत इति ज्ञानदर्शनकर्तव्येष्वेव यलो विधेय इति, भणितं च-"सोही य नस्थि नवि दित करेंता नविय केइ दीसंति । तिरथं च नाणदंसण निजवगा चेव वोच्छिन्ना ॥१॥” इत्यादि, [नास्ति च शोधिर्नाशापि दातारः नापि च केचिदपि कर्त्तारो दृश्यन्ते ज्ञानदर्शनाभ्यां तीर्थ च नियामका व्युच्छिन्नाः॥१॥] अनया हिट *4556444-9-26-156456569 दीप अनुक्रम [६७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~240~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [१७१] R- 5 प्रत ॥ ४. ४ ॥ सूत्रांक [५७१] स्थाना- प्रतिपन्नचारित्रस्यापि तद्वैमुख्यमुपजायते किं पुनस्तदभिमुखस्येति चारित्रभेदिनीति॥ विकथासु च वर्तमानान साधूनाचार्या स्थाना० जासूत्र- निषेधयन्ति सातिशयत्वात्तेषामिति तदतिशयप्रतिपादनायाह-आयरिएत्यादि, पञ्चस्थानके व्याख्यातप्राय तथापि उद्देशः ३ वृत्तिः किश्चिदुच्यते-आचार्योपाध्यायो निगृह्य निगृह्य-अन्तर्भूतकारितार्थत्वेन पादधूल्याः प्रसरन्त्या निग्रहं कारयित्वा २ प्रस्फो-| | दर्शनानि टयन-पादप्रोग्छनेन वैयावृत्त्यकरादिना प्रस्फोटनं कारयन् प्रमार्जयन्-प्रमार्जनं कारयन्नाज्ञामतिकामति, शेषसाधवः छद्मस्थवीउपाश्रयाद्वहिरिदं कुर्वन्तीत्याचार्यादेरतिशयः, 'एव'मित्यादिनेदं सूचितं "आयरिय उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स उच्चार-14 | तरागवेद्यपासवर्ण विगिंचेमाणे वा विसोहेमाणे वा णाइकमाइ २ आयरियउवज्झाए पभू इच्छा वेयावडियं करेजा इच्छा नो करेज्जा ३, कर्माणि छआयरियउबझाए अंतो उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा संवसमाणे नाइक्कमइ ४ आयरियउवज्झाए बाहिं उवस्सयस्स। झस्थेतर ज्ञेयाज्ञेयाः एगरायं वा दुरायं वा संवसमाणे णाइकमइ ५” एतद् व्याख्यातमेवेति, इदमधिकं-उपकरणातिशेषः-शेषसाधुभ्यः सका. वीरोच्चता शात् प्रधानोज्वलवस्खाधुपकरणता, पतंच-"आयरियगिलाणाणं मइला मइला पुणोवि धोति । माहु गुरूण अ- विकथा: वो लोगम्मि अजीरणं इयरे ॥१॥” इति, [आचार्याणां ग्लानानां च मलिनानि २ पुनः २ क्षालयंति गुरूणामवज्ञा | सूर्यतिशलिमा भूत् लोके ग्लानानामजीर्ण च ॥१॥] (ग्लान इत्यर्थः> भक्तपानातिशेषः-पूज्यतरभक्तपानतेति, उक्तं च-"कलमो- याः संय० मायणो उ पयसा परिहाणी जाव कोवुम्भजी । तत्थ उ मिज तुप्पतरं जत्थ य ज अधियं दोसुं ॥१॥" [पयसा कल- सू०५६५|मोदनो यावत् परिहान्या कोद्रवोद्धाजी तत्रापि मृदु स्निग्धतरं यत्र क्षेत्रकालयोर्यदर्चितं च ॥१॥]('कोदबुब्भज्जि'त्ति | ५७ कोदवजाउलयं 'दोसु'त्ति क्षेत्रकालयोरिति > गुणाश्चैते-"सुत्तत्थथिरीकरणं विणओ गुरुपूय सेहबहुमाणो । दाणवइस-TRIMean-r. दीप अनुक्रम [६७१] 5233%% E aton Lanummary: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~241~ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५७१] प्रत 4% 8 सूत्रांक [५७१] *! बुद्धी बुद्धीवलवणं चेव ॥१॥” इति। [सूत्रार्थस्थिरीकरणं विनयो गुरुपूजा शैक्षबहुमानः दानपतिश्रद्धा वृद्धिः बुद्धिवलवर्द्धनं चैव ॥१॥]॥ एते चाचार्यातिशयाः संयमोपकारायैव विधीयन्ते न रागादिनेति संयम तद्विप-12 |क्षभूतमसंयम चासंयमभेदभूतारम्भादित्रयं च सविपक्ष प्रतिपादयन् सूत्राष्टकं सातिदेशमाह-'सत्तविहे' इत्यादि। सुगम, नवरं संयमा-पृथिव्यादिविषयेभ्यः सपरितापोपद्रावणेभ्यः उपरमः, 'अजीवकायसंजमें'त्ति अजीवकायानांपुस्तकादीनां ग्रहणपरिभोगोपरमः, असंयमस्वनुपरमः, आरम्भादयोऽसंयमभेदार, तलक्षणमिदं प्रागमिहितम्-"आरंभो उद्दवओ परितावकरो भवे समारंभो। संकप्पो संरंभो सुद्धनयाणं तु सब्वेसिं ॥ १॥” इति, [आरम्भ उपद्रवतः परितापको भवेत् समारंभः । संरंभा संकल्पः शुद्धनयानां च सर्वेषां ॥१॥] नन्वारम्भादयोऽपद्रावणपरितापादिरूपा | उकास्ते चाजीवकायानामचेतनतया न युक्तास्तदयोगादजीवकायानारम्भादयोऽपीति, अत्रोच्यते, अजीवेषु पुस्तकादिषु ये समाश्रिता जीवास्तदपेक्षया अजीवकायप्राधान्यादजीवकायारम्भादयो न विरुध्यन्त इति । अनन्तरं संयमादय उतास्ते च जीवविषया इति जीवविशेषान स्थितितः प्रतिपादयन् सूत्रचतुष्टयमाह अध भंते! अदसिकुसुंभकोदवफंगुरालग[वराकोदूसगासणसरिसबमूलाबीयाणं एतेसि णं धन्नाणं कोट्ठातत्ताणं पलाउचाणं जाव पिहियाणं केवतितं कालं जोणी संचिट्ठति ?, गो०! जहणणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं सत्त संबच्छराई, तेण पर जोणी पगिलायति जाव जोणीयोच्छेदे पण्णत्ते १ (सू० ५७२) बायरआउकाइयाणं उकोसेणं सत्त वाससहस्साई ठिती पन्नत्ता २। तलाए णं वालयप्पभाते पुढवीए उकोसेणं नेहयाणं सत्त सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ३, चउत्थीतेणं पंकप्पभाते पुढचीते 4 दीप अनुक्रम [६७१] %9-4-9-2-564 CARARIA E पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~242~ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५७३] श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः ॥४०५॥ प्रत सूत्रांक [५७३] जह नेरइयाणं सत्त सागरोवमाई ठिती पं०४ (सू०५७३) सकस्स णं देविंदरस देवरो वरुणस्स महारनो सत्त भगमहिसीतो पं०, ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारो सत्त अगमहिसीतो पं०, ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरन्नो जमरस महारनो सत्त अग्गामहिसीओ पं० (सू० ५७४) ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरको अभितरपरिसाते देवाणं सत्त पलिओवमाई ठिती पं०, समरस णं देविंदस्स देवरन्नो अग्गमहिसीणं देवीणं सत्त पलिओवमाई ठिती पं०, सोहम्मे कप्पे परिग्गहियाणं देवीणं उकोसेणं सत्त पलिओवमाई ठिती पं० (सू०५७५) सारस्सयमाश्चाणं सस देवा सत्त देवसता पं०, गहतोयतुसियाण देवाणं सत्त देवा सत्त देवसहस्सा पं० (सू. ५७६) अणकुमारे कप्पे उकोसेणं देवाणं सत्त सागरोक्माई ठिती पं०, माहिदे कप्पे उकोसेणं देवाणं सातिरेगाई सत्त सागरोवमाई ठिती पं०, पंभलोगे कप्पे जहण्णेणं देवाणं सत्त सागरोबमाई ठिती पं० । (सू०५७७) बंभलोवलंततेसु णं कप्पेसु विमाणा सत्त जोवणसताई उई उपत्तेणं पं० (सू० ५७८) भवणवासीणं देवाणं भवधारणिजा सरीरमा उकोसेणं सप्त रयणीमओ उहूं उच्चत्तेणं, एवं बाणमंतराणं एवं जोइसियाणं, सोहम्मीसाणेसु णं कप्पेसु देवाणं भवधारणिजगा सरीरा सत्त रयणीओ उई उच्चत्तेणं पं० (सू० ५७९) गंदिस्सरवरस्स णं दीवस्स अंतो सत्त दीवा पं० त०-जंबुद्दीवे दीये १ धायइसंडे दीवे २ पोक्खरखरे ३ वरुणवरे ४ खीरवरे ५ घयवरे ६ क्षोयवरे । णदीसरवरस्स णं दीवस्स अंतो सत्त समुदा ५०, तं०लवणे कालोते पुक्सरोदे वरुणोए खीरोदे घओदे खोचोदे (सू०५८०) सत्त सेढीओ पं० त०-जुआयता एगतोबंका दुहतोवंका एगतोखुहा दुहतोलुहा चकवाला अद्भचकवाला (सू०५८१) चमरस्स णं अमुरिंदरस अमुरकुमाररनो ७स्थाना. | उद्देश:३ बीजयोन्यादि आ| नन्दीश्वरावीपसमुद्राः श्रेण्यः अनीकाधिपाः सू०५७२५८२ दीप अनुक्रम [६७३] ॥४०५॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~243~ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५८२] ल प्रत सूत्रांक [५८२] सत्त अणिता सत्त अणिताधिपती पं० त० पायताणीए १ पीढाणिए २ कुंजराणिए ३ महिसाणिए ४ रहाणिए ५ नट्टाणिए ६ गंधवाणिए ७ दुमे पायवाणिताधिपती एवं जहा पंचट्ठाणे जाव किंनरे रथाणिताधिपती रितु णट्टाणियाहिवती गीतरती गंधब्बाणिताधिपती। बलिस्स णं वइरोयणिदस्स बइरोयणरण्णो सत्ताणीया सत्त अणीयाधिपती पं० सं०-पायत्ताणिते जाव गंधव्याणिते, महदुमे पायत्ताणिताधिपती जाव किंपुरिसे रपाणिताधिपती महारिढे गट्टाणिताधिपती गीतजसे गंधब्बाणिताधिपती । धरणस्स नागकुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो सत्त अणीता सत्त अणिताधिपती पं० त०-पायत्ताणिते जाव गंधब्बाणिए रुहसेणे पायत्ताणिताधिपती जाव आणंदे रवाणिताधिपती नंदणे णहाणियाधिपती तेतली गंधल्याणियाधिपती । भूताणदस्स सप्त अणिया सत्त अणियाहिवई पं० त०-पायत्ताणिते जाप गंधव्याणीए दक्खे पायत्ताणीवाहिवती जाच णंदुत्तरे रहाणिक रती णट्टाणि० माणसे गंधवाणियाहिबई, एवं जाव घोसमहाघोसाणं नेयम् । सकस्स णं देविंदस्स देवरनो सत्त अणिया सत्त अणियाहिवती पं० ०-पायत्ताणिए जाव गंधवाणिए, हरिणेगमेसी पायताणीयाधिपती जाव माढरे रघाणिताधिपती सेते णट्टाणिताहिवती तुंचुरू गंधवाणिताधिपती । ईसाणस्स गं देविंदस्स देवरनो सत्त अणीया सत्त अणियाहिबईणो पं० सं०-पायत्ताणिते जाव गंधव्याणिते लहुपरकमे पायत्ताणियाहिवती जाव महासेते णट्टाणिक रते गंधवाणिताधिपती सेसं जहा पंचट्ठाणे, एवं जाव अशुतस्सवि नेतम्ब (सू०५८२) चमरस्स ण असुरिंदरस असुरकुमाररनो दुमस्त पायत्ताणिताहिबतिरस सत्त कफछाओ पं०२०-पढमा कच्छा जाव सत्तमा कच्छा, चमरस्स गमसुरिंदस्स असुरकुमाररनो दुमस्स पायत्ताणिताधिपतिस्स दीप अनुक्रम [६८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~244~ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूचांक [५८३] गाथा |||| दीप अनुक्रम [६८३ ६८४] श्रीस्थानाज्ञसूत्रमुक्ति ॥ ४०६ ॥ Education In [भाग-6] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं वृत्तिः) उद्देशक [-1. मूलं [५८३ ] + गाथा-१ स्थान [७], - पढमाए कच्छा चउसद्धि देवसहस्सा पं० जावतिता पढमा कच्छा तन्विगुणा दोचा कच्छा तब्बिगुणा तथा कच्छा एवं जाब जावतिता उट्ठा कच्छा, तब्बिगुणा सत्तमा कच्छा एवं बलिस्सवि, णबरं महद्दुमे सठ्ठिदेव साहस्सितो, सेसं तं चैव धरणस्स एवं चैव, णवरमट्ठावीसं देवसहस्सा, सेसं तं चैव, जधा धरणरस एवं जाव महाघोसरस, नवरं पायतापितापिपती अने ते पुग्वभणिता । सकस्स णं देविंदस्स देवरन्नो हरिणेगमेसिस्स सत्त कच्छाओ पन्नत्ताओ पं०, ०पढमा कच्छा एवं जहा चमरस्स वहा जाव अणुतस्स, णाणत्तं पायत्ताणिताधिपतीणं ते पुन्वभणिता, देवपरीमाणमिमं सकस चउरासीतिं देवसहस्सा, ईसाणस्स असीती देवसहस्साई, देवा इमाते गायाते अणुगंतव्वा 'चउरासीति असीति बावन्तरि सत्तरी य सट्टीया । पन्ना चत्तालीसा तीसा वीसा दुससहस्सा || १ | जाव अनुत्तस्स लघुपरक्कमस्स दुसदेव सहस्सा जाव जावतिता छट्ठा कच्छा तब्बिगुणा सत्तमा कच्छा (सू० ५८३ ) 'अहे 'त्यादि सूत्रसिद्धं, नवरं अथेति परिप्रश्नार्थः भदन्तेति गुर्वामन्त्रणं 'अयसी'ति अतसी कुसुंभो लट्टा रालक:कंगविशेषः सनः त्वक्प्रधानो धान्यविशेषः सर्षपाः - सिद्धार्थकाः मूलकः- शाकविशेषः तस्य बीजानि मूलकबीजानि, ककारलोपसन्धिभ्यां मूलाबीयत्ति प्रतिपादितमिति, शेषाणां पर्याया लोकरूढितो ज्ञेया इति यावद्ब्रहणात् 'मंचाउताणं माला उत्ताणं ओलित्ताणं लित्ताणं ठंडियाणं मुद्दियाणं'ति द्रष्टव्यं व्याख्याऽस्य प्रागिवेति, पुनर्यावत्करणात् 'पवि द्धंसह विद्धंसह से बीए अबीए भवइ, तेण परं'ति दृश्यं ॥ 'बादरआउकाइयाणं'ति सूक्ष्माणां स्वम्तर्मुहूर्त्तमेवेति, एवमतरत्रापि विशेषणफलं यथासम्भवं स्वधिया योजनीयं । अनन्तरं नारका उक्ता इति स्थितिशरीरादिभिस्तत्साधर्म्याद्दे Far Far & Pria Use Only ७ स्थाना० उद्देशः ३ देवानां कच्छाः सू० ५८३ ~245~ ॥ ४०६ ॥ - - पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०३] अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५८३] गाथा |||| दीप अनुक्रम [६८३ ६८४] - Educato [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [५८३] + गाथा-१ स्थान [७], उद्देशक [-], वाना वक्तव्यतामभिधित्सुः सूत्रप्रपञ्चमाह - 'सकस्से त्यादि सुगमश्चार्य, नवरं 'वरुणस्स महारनो'ति लोकपालस्य पश्चिमदिग्वर्त्तिनः सोमस्य पूर्वदिग्लोकपालस्य यमस्य दक्षिणदिग्लोकपालस्य । अनन्तरं देवानामधिकार उतो देवाचासाथ द्वीपसमुद्रा इति तदर्थं 'नंदीसरे' त्यादि सूत्रद्वयं कण्ठ्यं । एते च प्रदेशश्रेणीसमूहात्मक क्षेत्राधाराः श्रेण्याऽवस्थिता इति श्रेणिप्ररूपणायाह- 'सत्त सेढीत्यादि श्रेणयः प्रदेशपतयः ऋम्बी-सरला सा चासावायता व-दीर्घा ऋज्वायता, स्थापना- 'एक ओवंका' एकस्यां दिशि वक्रा | ''दुहओका' उभयतो वका, स्थापना | एगओखहा-एकस्यां दिश्यकुशाकारा दुहओ खहा-उभयतोऽङ्कुशाकारा CD चक्रवाला- वलयाकृतिः • अर्द्धचक्रवाला - अर्द्धवख्याकारेति C एताञ्चैकतोवक्राद्या लोकपर्यन्तप्रदेशापेक्षाः सम्भाव्यन्ते । चक्रवालार्द्धचक्रवालादिना गतिविशेषेण भ्रमणयुक्तानि दर्पितत्वादेवसैन्यानि भवन्तीति तत्प्रतिपादनाय 'मरे'त्यादि प्रकरणं, सुगमं, नवरं पीठानीकं अभ्यसैन्यं, नाव्यानीकं-नर्तकसमूहो गन्धर्व्वानीकं गायनसमूहः 'एवं जहा पंचमठाणए त्ति अतिदेशात् 'सोमे आसराया पीढाणीयाहिवई २ वैकुंथू हत्थिराया कुंजराणियाहिवई ३ लोहियक्ले महिसाणियाहिवई ४ इति द्रष्टव्यमेवमुत्तरसूत्रेष्वपीति । तथा धरणस्येव सकलदाक्षिणात्यानां भवनपतीन्द्राणां सेना सेनाधिपतयः, औदीच्यानां तु भूतानन्दस्येवेति, 'कच्छ'ति समूहः, यथा धरणस्य तथा सर्वेषां भवनपतीन्द्राणां महाघोषान्तानां केवलं पादातानीकाधिपतयोऽन्ये ज्ञेयाः, ते च पूर्वमनन्तरसूत्रे भणिताः, 'नाणसं'ति शक्रादीनामानतप्राणतेन्द्रान्तानामेकान्तरितानां हरिणैगमेषी पादातानीकाधिपतिरीशानादीनामारणाच्युतेन्द्रान्तानामेकान्तरितानां लघुपराक्रम इति, 'देवेत्यादि, देवाः प्रथमकच्छासम्बन्धिनोऽन Far Portal & Privas Use Only पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~246~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५८३] + गाथा-१ स्थाना. श्रीस्थाना- लसूत्र प्रत वृत्तिः सूत्रांक वचनानि विनयः सू०५८४ ॥४०७॥ ५ [५८३] गाथा ||१|| या गाथयाऽवगन्तव्याः, 'चतुरासी' गाहा, चतुरशीत्यादीनि पदानि सौधर्मादिषु क्रमेण योजनीयानि, नवरं विंशति- पदमानतप्राणतयोर्योजनीयं, तयोहि प्राणताभिधानस्येन्द्रस्यैकत्वात्, दशेति पदं वारणाच्युतयोर्योजनीयं, अच्युता| भिधानस्येन्द्रस्यैकत्वादिति । सकलमिदमनन्तरोदितं वचनप्रत्याय्यमिति वचनभेदानाह सत्तविहे पणविकप्पे पं० ०-आलावे अणालावे उहावे अणुलावे संलावे पलावे विष्पलावे (सू० ५८४) सत्तविहे विणए पं० सं०-णाणविणए दसणविणए चरित्तविणए मणविणए वतिविणए कायविणए लोगोश्यारविणए । पसत्थमणविणए सत्तविधे पं० त०-अपावते असावजे अकिरिते निरुवकेसे अणण्हकरे अरुविकरे अभूताभिसंकमणे, अप्पसत्थमणविणए सत्तविधे पं० २०-पावते सावजे सकिरिते सउलकेसे अण्हकरे छविकरे भूतामिसंकणे, पसत्यवाविगए सत्सविधे पं० तं०-अपावते असावज्जे जाव अभूतामिसंकणे, अपसत्थवइविणते सत्तविधे पं० सं०-पावते जान भूताभिसंकणे, पसत्यकातविणए सत्तविधे पं० सं०-भाउत्तं गमणं आउत्तं ठाणं आउत्तं निसीयणं आउत्तं तुअट्टणं आउत्तं उतघणं आजतं पहंधणं आउत्तं सबिदितजोगजुंजणसा, अपसत्यकातविणते सत्तविधे पं० २०-अणाउत्तं गमणं जाव अणाउत्तं सम्बिदितजोगजुंजणता । लोगोवतारविणते सत्तविधे पं० २०-अभासवत्तितं परदाणुवत्तितं कजाहे कतपढिकितिता मत्तगवेसणता देसकालण्णुता सनत्थेसु यापडिलोमता (सू०५८५) 'सत्तविहे त्यादि, सप्तविधो वचनस्य-भाषणस्य विकल्पो-भेदो वचनविकल्पः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-आङ ईषदर्थत्यादीप-13 लपनमालापः, ननः कुत्सार्थत्वादशीलेत्यादिवत् कुत्सित आलापः अनालाप इति, उल्लाप:-काक्कावर्णनं 'काका वर्णनमु दीप अनुक्रम [६८३६८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~247 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५८५] प्रत सूत्रांक [५८५] CREASONAGACCORc लाप' इति वचनात् स एव कुत्सितोऽनुलापः, क्वचित्पुनरनुलाप इति पाठस्तत्रानुलापा-पीनःपुन्यभाषणं "अनुलापो| मुहुर्भाषा" इति वचनात् , सल्लापः-परस्परभाषणं "संलापो भाषणं मिथः" इति वचनात्, प्रलापो-निरर्थकं वचनं | "प्रलापोऽनर्थकं वचः" इति वचनात् स एव विविधो विप्रलाप इति ॥ एतेषां वचनविकल्पानां मध्ये केचिद्विकल्पा विनयार्था अपि स्युरिति विनयभेदप्रतिपादनायाह-'सत्तविहे'त्यादि, सप्तविधो विनीयतेऽष्टप्रकारं कर्मानेनेति विनयः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-ज्ञान-आभिनिवोधिकादि पञ्चधा तदेव विनयो ज्ञानविनयो ज्ञानस्य वा विनयो-भत्त्यादिकरणं ज्ञान| विनयः, उक्तं च "भत्ती १ तह बहुमायो २ तद्दिद्वत्थाण सम भावणया ३। विहिगहण ४ भासोऽविय ५ एसो विणओ जिणाभिहिओ ॥१॥"[भक्तिस्तथा बहुमानं तदृष्टार्थानां सम्यग्भावना विधिना ग्रहणं अभ्यासोऽपि च एष | विनयो जिनाख्यातः ॥१॥] दर्शन-सम्यक्त्वं तदेव विनयो दर्शनविनयो दर्शनस्य वा-तदव्यतिरेकाद्दर्शनगुणाधिकानां शुश्रूषणाऽनाशातनारूपो बिनयो दर्शनविनयः, उर्फ च-"सुस्सूसणा अणासायणा य विणओ उ दंसणे दुविहो । दसण-1 गुणाहिएK कजइ सुस्सूसणाविणओ ॥१॥सकार १ भुटाणे २ सम्माणा ३ सणअभिग्गहो तह य ४ । आसणमणुप्पयाणं ५ कीकम्म ५ अंजलिगहो य ७॥२॥ इतस्सऽणुगच्छणया ८ ठियस्स तह पज्जुवासणा भणिया ९ । गच्छंताणुब्वयणं १० एसो सुस्सूसणाविणओ ॥३॥" इति, [शुश्रूषणाऽनाशातना च विनयस्तु दर्शने द्विविधः । दर्शनगुणाधिकेषु क्रियते शुश्रूषणाविनयः॥१॥ सत्कारोऽभ्युत्थानं सन्मान आसननिमन्त्रणा तथा च आसनसंक्रामणं कृतिकर्म अंजलिहश्च ॥२॥ आगच्छतोऽभिवजनं स्थितस्य तथा पर्युपासना भणिता गच्छतोऽनुव्रजन एष शुश्रूषणाविनयः ॥३॥ दीप अनुक्रम [६८६] 44444 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~248~ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५८५] दीप अनुक्रम [६८६] श्रीस्थानानसूत्रवृत्तिः ॥ ४०८ ॥ [ भाग - 6] "स्थान" स्थान [७], - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [-], मूलं [५८५ ] इह च सत्कारः-स्तवनवन्दनादि अभ्युत्थानं विनयार्हस्य दर्शनादेवासनत्यजनं सम्मानो वस्त्रपात्रादिपूजनं आसनाभिग्रहः पुनस्तिष्ठत आदरेण आसनानयनपूर्वकमुपविशतात्रेति भणनं आसनानुप्रदानं तु आसनस्य स्थानात्स्थानान्तरसचारणं कृतिकर्म-द्वादशावर्त्तवन्दनकं, शेषं प्रकटमिति । उचितक्रियाकरणरूपोऽयं दर्शने शुश्रूषणाविनयः, अनाशातना| विनयस्तु अनुचितक्रियाविनिवृत्तिरूपः, अयं पञ्चदशविधः, आह च - "तिरथगर १ धम्म २ आयरिय ३ वायगे ४ थेर ५ कुल ६ गणे ७ संघे ८ । संभोगिय ९ किरियाए १० मइनाणाईण १५ य तहेव ॥ १ ॥ [ तीर्थंकराचार्य धर्मवाचकस्थविरकुलगणसंघानां सांभोगिकानां क्रियावादिनां मत्यादिज्ञानानां च तथैव ॥ १ ॥] साम्भोगिका-एकसामाचारीकाः क्रिया- आस्तिकता, अत्र भावना तीर्थकराणामनाशातनायां तीर्थकर प्रज्ञप्तधर्म्मस्याना शातनायां वर्त्तितव्यमि त्येवं सर्वत्र द्रष्टव्यमिति, “कायव्या पुण भक्ती बहुमाणो तहय वन्नवाओ य । अरहंतमाइयाणं केवलनाणावसाणाणं ॥ १२ ॥” [ अर्हदादीनां केवलज्ञानावसानानां पंचदशानां भक्तिः कर्त्तव्या पुनर्बहुमानः तथा च वर्णवादश्च ॥ १ ॥ ] उक्तो दर्शनविनयः, साम्प्रतं चारित्रविनय उच्यते, तत्र चारित्रमेव विनयश्चारित्रस्य वा श्रद्धानादिरूपो विनयश्चारित्रविनयः, आह “सामाइयादिचरणस्स सद्दहगया १ तहेच कारणं । संफासणं २ परूवण ३ मह पुरओ. भव्वसत्ताणं ॥ १ ॥” इति, [ सामायिकादिश्चारित्रस्य श्रद्धानं तथैव कायेन स्पर्शना अथो भव्यानां पुरतः प्ररूपणा सत्त्वानां ॥ १ ॥ ] मनोवाकायविनयास्तु मनःप्रभृतीनां विनयार्हेषु कुशलप्रवृत्त्यादिः, उक्तं च-- "मणवइकाइयविणओ आयरियाईण सच्वकालंपि । अकुसलाण निरोहो कुसलाणमुईरणं तहय ॥ १ ॥ [सर्वकालमपि आचार्याणां मनोवाक्कायिकविनयः यदकुशलानां Fat Portal & Private O ७ स्थाना० उद्देशः ३ विनयः सू० ५८५ ~249~ ॥ ४०८ ॥ anthray org पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ७ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५८५] 455 प्रत सूत्रांक [५८५] | निरोधः कुशलानां उदीरणं च तथा ॥१॥] लोकानामुपचारो-व्यवहारस्तेन स एव वा विनयो लोकोपचारविनयः । मनोवाक्कायविनयान प्रशस्ताप्रशस्तभेदान् प्रत्येकं सप्तप्रकारान् लोकोपचारविनयं च सप्तधैवाह-पसत्थमणे त्यादि, सूत्र-| सप्तकं सुगम, नवरं प्रशस्तः-शुभो मनसो विनयनं विनयः प्रवर्तनमित्यर्थः प्रशस्तमनोविनयः, तत्र अपापकः-शुभचितारूपः असावद्यः-चौर्यादिगर्हितकानालम्बनः अक्रिय:-कायिक्याधिकरणिक्यादिक्रियावर्जितो निरुपक्लेश:-शोकादिबाधावर्जितः 'स्तु प्रश्रवण' इति वचनात् आस्वः-आश्रवः कर्मोपादानं तत्करणशील आस्वकरस्तनिषेधादनास्लवकरः। -प्राणातिपाताद्याश्रववर्जित इत्यर्थः, अक्षयिकरः-प्राणिनां न क्षयेः-व्यथाविशेषस्य कारकः, अभूताभिशङ्कनो-न भूतान्यभिशङ्कन्ते-बिभ्यति यस्मात् स तथा, अभयङ्कर इत्यर्थः, एतेषां च प्रायः सदृशार्थत्वेऽपि शब्दनयाभिप्रायेण भेदोऽवगन्तव्योऽन्यथा वेति, एवं शेषमपि । आयुक्तं गमनं आयुक्तस्य-उपयुक्तस्य सँल्लीनयोगस्य यदिति, एवं सर्वत्र, नवरं स्थान-ऊर्झस्थानं कायोत्सर्गादि 'निसीयणं'ति निषदनं-उपवेशन 'तुपट्टणं' शयनं 'उल्लङ्घन' डेवनं देहल्यादेः प्रलहन-14 | अर्गलादेः सर्वेषामिन्द्रियाणां योगा-व्यापाराः सर्वे वा ये इन्द्रिययोगास्तेषां योजनता-करणं सर्वेन्द्रिययोगयोजनता। 'अन्भासवत्तियं' ति प्रत्यासत्तिवर्तित्वं, श्रुताद्यर्थिना हि आचार्यादिसमीपे आसितव्यमित्यर्थः, 'परच्छंदाणुवत्तिय-2 न्ति पराभिप्रायानुवर्तित्वं, 'कज्जहे'ति कार्यहेतोः, अयमर्थः-कार्य-श्रुतप्रापणादिकं हेतुं कृत्वा, श्रुतं प्रापितोऽह-14 सामनेनेति हेतोरित्यर्थों, विशेषेण विनये तस्य वर्तितव्यं तदनुष्ठानं च कर्तव्यमिति, तथा 'कृतप्रतिकृतिता' कृते भक्तादि नोपचारे प्रसन्ना गुरवः प्रतिकृति-प्रत्युपकरणं सूत्रादिदानतः करिष्यन्तीति भक्तादिदानं प्रति यतितव्यमिति, आर्तस्य-2 दीप अनुक्रम [६८६] Smarati Fit Forum पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~250~ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५८५] प्रत सूत्रांक [५८५] श्रीस्थाना- दुखार्तस्य गवेषणं औषधादेरित्यार्तगवेषणं तदेवार्तगवेषणतेति, पीडितस्योपकार इत्यर्थः, अथवा आत्मना आप्तेन या स्थाना असूत्र- भूरवा गवेषण-सुस्थदुःस्थतयोरन्वेषणं कार्यमिति, देशकालज्ञता-अवसरज्ञता, सर्वार्थेष्वप्रतिलोमता-आनुकूल्यमिति । | उद्देश ३ वृत्तिः [विनयात्कर्मघातो भवति, स च समुद्घाते विशिष्टतर इति समुद्घातप्ररूपणायाह | समुद्धाता सत्त समुग्धाता पं० सं०-वेयणासमुग्घाए कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्घाए बेउब्धियसमुग्याते तेजससमुग्याए ॥४०९॥ सू०५८६ आहारगसमुग्धाते केवलिसमुग्धाते, मणुस्साणं सत्त समुग्धाता पं० एवं चेव (सू० ५८६) 'सत्त समुग्घाए'त्यादि, 'हन हिंसागत्योः' हननं घातः समित्येकीभावे उत्-प्राबल्ये तत एकीभावेन प्राबल्येन च घातो-निर्जरा समुद्घातः, कस्य केन सहकीभावगमनं ?, उच्यते, आत्मनो वेदनाकषायाद्यनुभवपरिणामेन, यदा ह्यात्माद वेदनीयाद्यनुभवज्ञानपरिणतो भवति तदा नान्यज्ञानपरिणत इति, प्राबल्येन घातः कथं, यस्माद्वेदनीयादिसमुद्धात-IN परिणतो बहून वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवयोग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्य उदये प्रक्षिप्यानुभूय निजेरयति, | आत्मप्रदेशः सह संश्लिष्टान् शातयतीत्यर्थः, उक्तं च-"पुब्बकयकम्मसाढणं तु निजरा" इति [पूर्वकृतकमंशाटन तु निर्जरा ॥] स च वेदनादिभेदेन सप्तधा भवतीत्याह-सप्त समुद्घाताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-वेदनासमुद्घात इत्यादि, तत्र वेदनासमुद्घातोऽसद्धेद्यकश्रियः, कषायसमुद्घातः कषायाख्यचारित्रमोहनीयकर्माश्रयः, मारणान्तिकसमुद्घातोऽन्त-18|| हा मुहत्तशेषायुष्ककमाश्रयः, वैकुर्विकतैजसाहारकसमुद्घाताः शरीरनामकर्माश्रयाः, केवलिसमुद्घातस्तु सदसवेद्यशुभाशु-16 भनामोचनीचैर्गोत्रकर्माश्रय इति, तत्र वेदनासमुद्घातसमुद्धत आत्मा वेदनीयकर्मपुद्गलशातं करोति, कषायसमुद्घा *RACK दीप अनुक्रम [६८६] HI४०९। SamEaucatunitammational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~251 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५८६] 964 प्रत SO4t सूत्रांक [५८६] तसमुद्धतः कषायपुद्गलशात मारणान्तिकसमुद्घातसमुद्धतः आयुष्ककर्मपुद्गलघातं वैकुर्विकसमुद्घातसमुद्धतस्तु जीव-15 प्रदेशान् शरीराद्वहिनिष्काश्य शरीरविष्कम्भवाहल्यमात्रमायामतश्च सङ्ख्येयानि योजनानि दण्ड निसृजति निसृज्य च यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्नद्धान् शातयति, यथोक्तम्-"वेउब्बियसमुग्घाएणं समोहन्नइ समोह|णित्ता संखेज्जाई जोयणाई दंडं निसरइ २त्ता अहावायरे पुग्गले परिसाडेई"त्ति, [वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्ति समवहत्य सङ्गयेययोजनप्रमाणं दंड निसृजति निसृज्य प्रारबद्धान् यथास्थूलान् पुद्गलान् परिशाटयति ॥शा] एवं तैजसाहारकसमुद्घातावपि व्याख्येयौ, केवलिसमुद्घातेन समुद्धतः केवली वेदनीयादिकर्मपुद्गलान् शातयतीति, इहान्त्योऽष्टसामयिका शेषास्त्वसङ्ख्यातसामयिका इति । चतुर्विशतिदण्डकचिन्तायां सप्तापि समुद्घाता मनुष्याणामेव भवन्तीत्याह |-'मणुस्साणं सत्ते'त्यादि, 'एवं चेव'त्ति सामान्यसूत्र इव सप्तापि समुच्चारणीया इति । एतच समुद्घातादिक [जिनाभिहितं वस्त्वन्यथा प्ररूपयन् प्रवचनवाह्यो भवति यथा निह्नवा इति तद्वक्तव्यता सूत्रत्रयेणाह समणस्स भगवो महावीरस्स तिथंसि सत्त परतणनिहगा पं०, तं-बहुरता जीवपतेसिता अवत्तिता सामुच्छेहता दोकिरिता तेरासिता अबद्धिता एएसि णं सत्तण्हं पवयणनिहगाणं सत्त धम्मातरिता हुत्था, तं०-जमालि तीसगुत्ते आसाढे आसमिसे गंगे छलुए गोदामाहिले, एतेसि णं सत्तण्हं पबयणनिहगाणं सत्तुष्पत्तिनगरा होत्या, सं०-सावत्थी उसमपुर सेतवित्ता मिहिलमुल्लगातीर । पुरिमंतरंजि दसपुर णिण्हगउत्पत्तिनगराई ॥ १॥ (सू० ५८७) 'समणे'ल्यादि कण्ठ्यं, नवरं प्रवचन-आगमं निडवते-अपलपन्त्यन्यथा प्ररूपयन्तीति प्रवचननिहवा प्रज्ञप्ता जिनः, दीप अनुक्रम [६८७] स्था०६९] . . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~252~ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५८७] +गाथा- १ वृत्तिः प्रत सूत्रांक [५८७] गाथा श्रीस्थाना- तत्र 'यहरयत्ति एकेन समयेन क्रियाध्यासितरूपेण वस्तुनोऽनुससे प्रभूतसमयेश्वोपत्तेः बहुषु समयेषु रता:-सत्तामा स्थाना० गसूत्र बहरता, दीर्घकालद्रव्यप्रसूतिप्ररूपिण इत्यर्थः, तथा जीवः प्रदेश एवं येषां ते जीवप्रदेशास्त एव जीवप्रादेशिकाः अ-1 उद्देशः३ धवा जीवप्रदेशो जीवाभ्युपगमतो विद्यते येषां ते तथा, चरमप्रदेशजीवप्ररूपिण इति हृदयं, तथा अव्यक्तं-अस्फुट निव वस्तु अभ्युपगमतो विद्यते येषां तेऽव्यक्तिकाः, संयताद्यवगमे सन्दिग्धबुद्धय इति भावना, तथा समुच्छेदः-प्रसूत्यन-15 | स्वरूपं ॥४१०॥ Kान्तरं सामस्त्येन प्रकर्षेण च छेदः समुच्छेदो-विनाशः समुच्छेदं ब्रुवत इति सामुच्छेदिकाः, क्षणक्षयिकभावप्ररूपका इत्यर्थःला सू० ५८७ तथा द्वे क्रिये समुदिते द्विक्रियं तदधीयते तद्वैदिनो वा द्वैक्रियाः, कालाभेदेन क्रियाद्वयानुभवप्ररूपिण इत्यर्थः, तथा । जीवाजीवनोजीवभेदास्त्रयो राशयः समाहृतास्त्रिराशि तत्प्रयोजनं येषां ते त्रैराशिकाः, राशियख्यापका इत्यर्थः, तथा स्पृष्टं जीवेन कर्म न स्कन्धबन्धवद्बद्धमबद्धं तदेषामस्तीत्यबद्धिकाः, स्पृष्ट कर्मविपाकमरूपका इति हृदयं, 'धम्मायरियत्ति धर्मः-उक्तप्ररूपणादिलक्षणः श्रुतधर्मस्तत्प्रधानाः प्रणायकत्वेनाचार्या धर्माचार्यास्तन्मतोपदेष्टार इत्यर्थः, तत्र जमाली क्षत्रियकुमारो, यो हि श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य भागिनेयो भगवडुहितुः सुदर्शनाभिधानाया भत्तो पुरुष-15 & पञ्चशतीपरिवारो भगवत्प्रवाजित आचार्यत्वं प्राप्तः श्रावस्त्यां नगर्या तेन्दुके चैत्ये विहरन्ननुचिताहारादुसन्नरोगो वेद-1 नाभिभूततया शयनार्थ समादिष्टसंस्तारकसंस्तरणः कृतः संस्तारकः? इतिविहितपरिप्रश्नः संस्तारककारिसाधुना संखियमाणत्वेऽपि संस्तृत इतिदत्तप्रतिवचनो गत्वा च दृष्टक्रियमाणसंस्तारकः कर्मोदयाद्विपर्यस्तबुद्धिः प्ररूपयामास-यत् क्रियमाणं कृतमिति भगवान् दिदेश तदसत् प्रत्यक्षविरुद्धत्वाद् अश्रावणशब्दवत्, प्रत्यक्षविरुद्धता चास्यासंस्तृतसं-॥४१० SCॐॐॐ दीप अनुक्रम [६८८ ६८९] Eco पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~253~ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५८७] +गाथा- १ प्रत सूत्रांक [५८७] गाथा कस्तारकासंस्तृतत्वदर्शनात् , ततश्च क्रियमाणत्वेन प्रत्यक्षसिद्धेन कृतत्वधर्मोऽपनीयत इति भावना, आह च-"सक्वं चिय संथारो ण कजमाणो कडोत्ति मे जम्हा । बेइ जमाली सच्चन कन्जमाण कयं तम्हा ॥१॥” इति, [मम संस्तारकः क्रियमाणः साक्षान्न कृत एवेति यस्मात् जमालिब्रवीति तस्मात् क्रियमाणं कृतं न सत्यं ॥१॥] यश्चैवं प्ररूपयन् स्थविरैरवमुक्त:-हे आचार्य ! क्रियमाणं कृतमिति नाध्यक्षविरुद्धं, यदि हि क्रियमाणं-क्रियाविष्टं कृतं नेष्यते ततः क्रियानारम्भसमय इव पश्चादपि क्रियाऽभावे कथं तदिष्यत इति सदा प्रसङ्गः, कियाऽभावस्थाविशिष्टत्वात् , यदप्युक्तं 'अर्द्ध|संस्तूतसंस्तारकासंस्तृतत्वदर्शनात् तदध्ययुक्तं, यतो यद्यदा यत्राकाशदेशे वस्त्रमास्तीयते तत्तदा तत्रास्तीर्णमेव, एवं|| पाश्चात्यवस्खास्तरणसमये खल्वसावास्तीर्ण एवेति, आह च-"जं जत्थ नभोदेसे अत्धुब्बइ जस्थ जत्थ समयंमि । तं सातत्य तत्थमरधुयमरधुव्वंतंपि तं चेव ॥१॥" इति, [यत्र नभोदेशे यस्मिन् यस्मिन् समये यदास्तीर्यते सस्तिस्मिस्तदास्तीर्ण आस्तीर्यमानमपि तदेव ॥१॥] तदेवं विशिष्टसमयापेक्षीणि भगवद्वचनानीति, एवमपि प्रत्युक्तो यो न तत् प्रतिपन्नवान् , सोऽयं बहुरतधर्माचार्यः १ तथा तिष्यगुप्ता वसुनामधेयाचार्यस्य चतुर्दशपूर्वधरस्य शिष्यो, यो हि राजगृहे | विहरन्नात्मप्रवादाभिधानपूर्वस्य 'एगे भंते ! जीवप्पएसे जीवेत्ति वत्तव्वं सिया?, नो इणमट्टे समढे, एवं दो तिन्नि संखेजा |वा असंखेजा जाव एकेणावि पएसेण ऊणे नो जीवेत्ति वत्तव्वं सिआ, जम्हा कसिणे पडिपुन्ने लोगागासपएसतुलप्पएसे जीवेति वत्तवं सिया' [एको भदन्त ! जीवप्रदेशो जीव इति वक्तव्यः स्यात् ?, नेपोऽर्थः समर्थः, एवं द्वौ त्रयः सङ्ख्येया असमवेया वा यावदेकेनापि प्रदेशेनोनः जीव इति नो वक्तव्यः स्यात्, यस्मात् कृत्स्ना प्रतिपूर्णः लोकाकाशप्रदेशतुल्यप्रदेशः CRky ||१|| दीप अनुक्रम [६८८६८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~254~ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५८७] +गाथा- १ श्रीस्थाना- सूचवृत्तिः प्रत सूत्रांक [५८७] गाथा ॥४११॥ ||१|| जीव इति वक्तव्यः स्यात् ॥] इत्येवमादिकमालापकमधीयानः कर्मोदयादुस्थितः सन्नित्थमभिहितवान्-योकादयो जीव- स्थाना० प्रदेशाः खल्वेकप्रदेशहीना अपि न जीवाख्यां लभन्ते किन्तु चरमप्रदेशयुक्ता एवं लभन्त इति, ततः स एवैकः प्रदेशो उद्देश:३ जीव इति, तदावभावित्वाज्जीवत्वस्येति, आह च-"एगादओ पएसा न य जीवो न य पएसहीणोवि । जं तो स जेणा निवपुन्नो स एव जीवो पएसोत्ति ॥१॥" [एकादयः प्रदेशा जीवो न न च प्रदेशहीनोऽपि यत्तत्स येन पूर्णः स एव प्रा स्वरूपं देशो जीव इति ॥] यश्चैवमभिदधानो गुरुणोक्तो-नैतदेवं, जीवाभावप्रसङ्गात् , कथं ?, भवदभिमतोऽन्त्यप्रदेशोऽप्यजीवः, |सू०५८७ आद्यप्रदेशतुल्यपरिणामत्वात् , प्रथमादिप्रदेशवत्, प्रथमादिप्रदेशो वा जीवः शेषप्रदेशतुल्यपरिणामत्वादन्त्यप्रदेशवत्, न च पूरण इतिकृत्वा तस्य जीवत्वं युज्यते, एकैकस्य पूरणत्वाविशेषाद्, एकमपि विना तस्यासम्पूर्णत्वमिति, आह च -"गुरुणाऽभिहिओ जइ ते पढमपएसो न संमओ जीवो। तो तप्परिणामो चिय जीवो कहमतिमपएसो? ॥१॥" [गुरुणाऽभिहितः स यदि ते प्रथमप्रदेशो जीव इति न संमतस्तत्परिणाम एवान्त्यप्रदेशः कथं जीवः ॥१॥] इत्यादि, एवमुक्तोऽपि न प्रतिपन्नवान , ततः सङ्घाहिष्कृतो, यश्चामलकल्पायां मित्रश्रीनाम्ना श्रमणोपासकेन संखयां भक्कादिग्रहणाथै गृहमानीयाग्रतश्च विविधानि खाद्यकादिद्रव्याण्युपनिधाय तत एकैकमवयवं दत्त्वा पादेषु निपत्याहो धन्योऽहं मया साधवः प्रतिलम्भिता इत्यभिदधानेनाहो अहं भवता धर्षित इति वदन् भवत्सिद्धान्तेन भवान् प्रतिलम्भितो मया यदि परं वर्द्धमानस्वामिसिद्धान्तेन नेति प्रतिभणता प्रतियोधितः, सोऽयं जीवप्रदेशिकानां धर्माचार्य इति ॥४११॥ तथा आषाढा, येन हि श्वेतव्यां नगीं पोलासे उद्याने स्वशिष्याणां प्रतिपन्नागाढयोगाना रात्री हृदयशूलेन मरणमा-1 दीप अनुक्रम [६८८६८९] wtanuman पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~255~ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५८७] +गाथा- १ प्रत सूत्रांक [५८७] गाथा साद्य देवेन भूत्वा तदनुकम्पया स्वकीयमेव कडेवरमधिष्ठाय सर्षी सामाचारी अनुप्रवर्तयता योगसमाप्तिः शीघ्रं कृता, वन्दित्वा तानभिहितं च-क्षमणीयं भदन्ताः! यन्मया यूयं वन्दनं कारिताः, यस्य च शिष्या इयचिरमसंयतो वन्दितो-12 |ऽस्माभिरिति विचिन्त्याव्यक्तमतमाश्रिताः, तथाहि-“को जाणइ किं साहू देवो वा तो न वंदणिज्जोत्ति । होजा-14 संजयनमणं होज मुसावायममुगो ति ॥१॥"[को जानाति किमयं साधुर्देवो वाऽतो न वंदनीय इति भवेदसंयतनमनं भवेद्वा मृषावादोऽमुकोऽयमिति ॥१॥] इति, यच्छिष्यांश्च प्रति-"थेरवयणं जइपरे संदेहो किं सुरोत्ति साहुत्ति। देवे कहन संका? किं सो देवो अदेवोत्ति ॥२॥ तेण कहियन्ति व मई देवोऽहं देवदरिसणाओ य । साहुत्ति अहं कहिए| समाणरूवंमि किं संका॥३॥ देवस्स व किं वयणं सचंति न साहुरूवधारिस । न परोप्परंपि बंदह जं जाणताऽवि जयओत्ति ॥४॥" स्थविरबचनं यदि परं किमयं सुरा साधुरिति परस्मिन् संदेहः देवे न कथं शंका किं स देवोऽदेवो वेति ॥ तेन देवोऽहमिति कधितं दर्शनाच देव इति मतिः अहं साधुरिति कथिते समानरूपे का शंका ॥२॥ देवस्य वा वचनं किं सत्यं इति साधुरूपधारिणो न यत्परस्परं यतयोऽपि जानन्तो न वंदध्वे ॥१॥] एवं चोच्यमाना अध्यप्रतिपद्यमाना यद्विनेया सङ्घाहिष्कृता विहरन्तश्च राजगृहे बलभद्राभिधानराजेन कटकमद्देन मारणमादिश्य कथमस्मान् यतीन् श्रावकत्वं मारयसीति अवाणा न वयं जानीमः के यूयं चौरा वा चारिका वेति प्रत्युत्तरदानतः प्रतिबोधिता, सोऽयहैमव्यक्तमतधर्माचार्यो, न चायं तन्मतप्ररूपकत्वेन किन्तु प्रागवस्थायामिति ३। तथा अश्वमित्रो, वो हि महागिरि शिष्यस्य कोण्डिन्याभिधानस्य शिष्यो मिथिलायां नगर्या लक्ष्मीगृहे चैत्ये अनुप्रवादाभिधाने पूर्व नैपुणिके वस्तुनि | ASSASSASSINAX ||१|| दीप अनुक्रम [६८८६८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~256~ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५८७ ] गाथा |||| दीप अनुक्रम [६८८ ६८९ ] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्तिः [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-] मूलं [५८७] +गाथा- १ ॥ ४१२ ॥ छिन्नच्छेदननयवक्तव्यतायां 'पडुप्पन्नसमयनेरइया वोच्छिजिस्संति, एवं जाव वैमाणियत्ति, एवं विईयाइसमएसु वत्तव्वमित्येवं रूपमालापकमधीयानो मिथ्यात्वमुपगतः, वभाण च यदि सर्व एव वर्त्तमानसमय सञ्जाता व्यवच्छेत्स्यन्ति तदा कुतः कर्मणां वेदनमिति, आह च--"एवं च कओ कम्माण वेयणं सुकयदुक्कयाणंति ? उपायानंतरओ सन्त्रस्स[णाससम्भावा ॥ १ ॥ [ एवं च सुकृतदुष्कृतकर्मणां कुतो वेदनं इति, उत्पादानन्तरं सर्वस्यापि नाशसद्भावात् ॥ १ ॥ ] ४ यश्चैवं प्ररूपयन् गुरुणा भणितः-- "एगनयमपणमिदं सुतं यच्चाहि मा हु मिच्छतं निरवेक्खो सेसाणवि नयाण हिययं वियारेहि ॥ १ ॥ न हि सब्वहा विणासो अद्धापज्जायमेत्तानासंमि । ( अद्धापर्यायाः- कालकृतधर्माः > सपरपज्जा - यानंतधम्मिणो वत्थुणो जुत्तो ॥ २ ॥ अह सुत्ताउत्ति मई नणु सुत्ते सासयपि निद्दिहं । वत्युं दव्वट्टाए असासयं पज्ज| यद्वाए ॥ ३ ॥ तत्थवि न सब्वनासो समयादिविसेसणं जओऽभिहियं । इहरा न सव्वणासे समयादिविसेसणं जुत॥ ४ ॥ न्ति [ इदमेकनयमतेन सूत्रं मा त्रजीर्मिथ्यात्वं निरपेक्षः शेषाणामपि नयानां (मतं) हितदं हृदयं वा विचारय ॥ १ ॥ स्वपरपर्यायैरनन्तधर्मिणो वस्तुनोऽद्धापर्यायमात्रनाशे सर्वथा विनाशो न युक्तः ॥ २ ॥ अथ सूत्रादितिमतिः ननु सूत्रे शाश्वतमपि निर्दिष्टं वस्तु । द्रव्यार्थतया पर्यायार्थतया अशाश्वतं ॥ ३ ॥ तत्रापि न सर्वथा नाशः समयादिविशेषणं यतोऽमिहितं । इतरथा सर्वनाशे समयादिविशेषणं न युक्तम् ॥ ४ ॥ ] इदं चाप्रतिपद्यमान उद्घाटितः, | यश्च काम्पिल्ये शुल्कपालश्रावकैर्मार्यमाणोऽस्माभिर्यूयं श्रावकाः श्रुताः तत्कथं साधून मारयथेति वदन् युष्मत्सि|द्धान्तेन प्रव्रजिताः श्रावकाश्च ये ते व्यवच्छिन्ना यूयं वयं चान्ये इति दत्तप्रत्युत्तरः सम्यक्त्वं प्रतिपन्नः सोऽयं सामु Far For Pr ७ स्थाना० उद्देशः श् निह्नव स्वरूपं सू० ५८७ ~ 257 ~ ॥ ४१२ ॥ authayog पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ७ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५८७] +गाथा- १ प्रत सूत्रांक [५८७] गाथा %A5ॐॐॐॐॐ52%* च्छेदिकानां धर्माचार्य इति । तथा 'गंग' इति, यो हि आर्यमहागिरिशिष्यस्य धनगुप्तस्य शिष्यः उल्लुकातीराभिधाननगराच्छरद्याचार्यवन्दनार्थ प्रस्थित उल्लुका नदीमुत्तरन् खलतिना शिरसा दिनकरकरनिकरसम्पातसातमुष्णं पादाभ्यां च शीतलजलजनितनितान्तशीतं वेदयंश्चिन्तयामास-सूत्रेऽभिहितमेका क्रियैकदा वेद्यते शीता वोष्णा वा, अहं च द्वे क्रिये वेदयामि अतो वे क्रिये समयेनकेन वेद्यते इति, गत्वा च गुर्वेन्तिके वन्दित्वाऽभिदधावभिप्रायमात्मीयमाचा-18 र्याय, तेन चावाचि-मैवं वोचः, यतो नास्त्येकदा क्रियाद्वयवेदनं, केवलं समयमनसोरतिसूक्ष्मतया भेदो न लक्ष्यते, उत्सलपत्रशतव्यतिभेदवत् , एवं च प्रतिपादितः सन्नप्रतिपद्यमानो बहिष्कृतः अन्यदा राजगृहे महातपस्तीरप्रभाभिधाने नदविशेपे मणिनागनानो नागस्य चैत्ये पर्षन्मध्ये स्वमतमावेदयन् मणिनागेन विसर्पदर्पगर्भया भारत्याऽभिहितो-रे रे दुष्टशैक्ष! कस्मादस्मासु सत्स्वेवमप्रज्ञापनीय प्रज्ञापयसि ?, यत इहैव स्थाने स्थितेन भगवता वर्द्धमानस्वा|मिना प्रणिन्ये-यथैकदैकैव क्रिया वेद्यत इति, ततस्त्वं ततोऽपि लष्टतरो जातः!, छईयनं वाद, मा ते दोषात् नाशशयिष्यामीति भयमापनः प्रतिबुद्धः, सोऽयं द्वैक्रियाणां धर्माचार्य इति ५। तथा 'छलुए'त्ति, द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेष-18 M|समवायलक्षणपट्पदार्थप्ररूपकत्वाद् गोत्रेण च कौशिकत्वात् षडुलुको, यो हि नामान्तरण रोहगुप्तो, यश्चान्तरमयां पुर्या भूतगुहाभिधानव्यन्तरायतने व्यवस्थितानां श्रीगुप्ताभिधानानामाचार्याणां वन्दनार्थं प्रामान्तरादागच्छन् प्रवादिप्रदा-12 पितपटहकध्वनिमाकये सदर्प च तं निषेध्याचार्यस्य तन्निवेद्य ततो मायूर्यादिविद्या उपादाय राजकुलमतिगत्य बलश्रीनाम्रो नरनायकस्यामतः पोशालाभिधानपरिव्राजकमवादिनमाहूय तेन च जीवाजीवलक्षणे राशिद्वये खापिते ||१|| दीप अनुक्रम [६८८६८९] E aton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~258~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५८७] +गाथा- १ श्रीस्थाना- प्रत वाता सूत्रांक ॥४१३॥ [५८७] गाथा ||१|| तत्प्रतिभाप्रतिघाताय नोजीवलक्षणं तृतीयं राशिं व्यवस्थाप्य तद्विद्यानां स्वविद्याभिः प्रतिघातकरणेन तं निगृह्य गुरु- स्थाना० समीपमागत्य तन्निवेदितवान् , यश्च गुरुणा अभिहितो, यथा-गच्छ राजसभामनुप्रविश्य ब्रूहि राशित्रयप्ररूपणमपसि-1 उद्देशान द्धान्तरूपं वादिपरिभधाय मया कृतमिति, ततो योऽभिमानादाचार्य प्रत्यवादीत्-यथा राशित्रयमेवास्ति, तथाहि- | निवजीवा:-संसारस्थादयः अजीवा:-घटादयः नोजीवास्तु दृष्टान्तसिद्धाः, यथा हि दण्डस्यादिमध्यामाणि भवन्तीत्येवं स्वरूप सर्वभावानां प्रैविध्यमिति, यश्च राजसमक्षमाचार्येण कुत्रिकापणे जीवयाचने पृथिव्यादिजीवलाभात् अजीवयाचने ०५८७ अचेतनलेष्ट्रादिलाभात् नोजीवयाचनेऽचेतनलेष्टादिलाभाच्च निगृहीतः, सोऽयं त्रैराशिकधर्माचार्य इति ६ । तथा गोघामाहिल इति, यो हि दशपुरनगरे आर्यरक्षितस्वामिनि दिवं गते आचार्यश्रीदुर्चलिकापुष्पमित्रे गर्ण परिपाल-15|| यति विन्ध्याभिधानसाधोरष्टमं कर्मप्रवादाभिधानं पूर्वमाचार्यादुपश्रुत्य प्रत्युच्चारयतः कर्मबन्धाधिकारे किश्चित्कर्म जीवप्रदेशैः स्पृष्टमात्र कालान्तरस्थितिमप्राप्य विघटते शुष्ककुड्यापतितचूर्णमुष्टिवत् किचित्पुनः स्पृष्टं बद्धं च कालान्तरेण विघटते आ लेपकुड्ये सस्नेहचूर्णवत् किंचित्पुनः स्पृष्टं बद्धं निकाचितं जीवेन सहकत्वमापन्नं कालान्तरेण वेद्यते इत्येवमाकर्योक्तवान्-मन्वेवं मोक्षाभावः प्रसजति, कथं?, जीवात् कर्म न वियुज्यते, अन्योऽन्याविभागवद्धत्वात् , | स्वप्रदेशवत्, उक्तं च-"सोउं भणइ सदोस बक्वाणमिणंति पावइ जओ ते । मोक्खाभावो जीवप्पएसकम्माविभागाओ॥१॥ नहि कम्मं जीवाओ अवेह अविभागओ पएसब्ब । तदणवगमादमोक्खो जुत्तमिणं तेण वक्खाणं ॥२॥"|SI॥४१३ इति [ श्रुत्वा भणति इदं व्याख्यानं सदोषमिति यतो भवतां प्रामोति मोक्षाभावो जीवप्रदेशकर्मणोरविभागात् ॥१॥ दीप अनुक्रम [६८८ ६८९] SamEaucatunime पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~259~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५८७] +गाथा- १ प्रत सूत्रांक [५८७] गाथा नैव कर्म जीवादपैति प्रदेश इवाविभागात्तदनपगमादमोक्षस्तेनेदं व्याख्यानं युक्तं (स्पृष्टमात्रतारूप) ॥२॥] तथा-जीवः | कर्मणा स्पृष्टो न तु पद्यते, वियुज्यमानत्वात् , कशुकनेव तद्वानिति, ततो विन्ध्यसाधुनैतस्मिन्नाचार्यायाथें निवेदिते | यस्तेनाभिहितो-(आचार्यादवधार्यार्थ गोष्ठामाहिलो विन्ध्येनोक्तः,) भद्र! यदुक्तं स्वया जीवात् कर्म न वियुज्यत इति, तत्र प्रत्यक्षबाधिता प्रतिज्ञा आयुःकर्मवियोगात्मकस्य मरणस्य प्रत्यक्षरवात् , हेतुरप्यनैकान्तिकोऽन्योऽन्याविभागसम्बद्धानामपि क्षीरोदकादीनामुपायतो वियोगदर्शनात्, दृष्टान्तोऽपि न साधनधर्मानुगतः, स्वप्रदेशस्य विद्युतत्वासिद्धेस्तद्रूपेणानादिरूपत्वाद् भिन्नं च जीवात् कर्मेति, यच्चोक्तं-"जीवः कर्मणा स्पृष्टो न बध्यते इत्यादि," तत्र किं | प्रतिप्रदेशं स्पृष्टो नभसेवोत त्वङमात्रे कझुकेनेव, यद्याद्यः पक्षः तदा दृष्टान्तदाान्तिकयोवैषम्यं कझुकेन प्रतिप्रदेशमस्पृष्टत्वाद्, अथ द्वितीयः, ततो नापान्तरालगत्यनुयायि कम, पर्यन्तवर्तित्वाद्, बाह्याङ्गमलबद्, एवं सर्वो मोक्षभाक कर्मानुगमरहितत्वात् मुक्तवद्, इत्यादि प्रतिपाद्यमानो यो नैतत्प्रतिपन्नवानुद्घाटितश्चेति सोऽयमबद्धिकधर्माचार्यः इति । उसत्तिनगराणि सप्तानां क्रमेण सप्तैव 'होत्थति सामान्येन वर्तमानत्वेऽपि नगराणां तद्विशेषगुणातीतत्वेनादतीतनिर्देशा, 'सावत्थी गाहा, ऋषभपुर-राजगृहं उल्लुका नदी तत्तीरवर्तिनगरमुलकातीरं 'पुरीति नगरी अन्तरं जीति तन्नाम, इह च मकारोऽलाक्षणिका, 'दसपुर'त्ति अनुस्वारलोपादिति । एते च निहवाः संसारे पर्यटन्तः सातासातभोगिनो भविष्यन्तीति तत्स्वरूपं सूत्रद्वयेनाह सातावेयणिजस्स कम्मरस सत्तविधे अणुभावे पं०, तं०-मणुन्ना सहा मणुण्णा रूवा जाव मणुना फासा मणोसुद्दता ||१|| ASSESAKASEARCARKI दीप अनुक्रम [६८८६८९] Eco पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~260~ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५८८] भास्थानाअसूत्रवृत्तिः 6-2259 प्रत सूत्रांक [५८८] ॥४१४॥ वतिसुहता । असातावेयणिजस्स णं कम्मस्स सत्तविधे अणुभावे पं०, तं०-अमणुना सदा जाव पतिदुहता (सू० ७ स्थाना ५८८) महाणक्खत्ते सत्ततारे पं०, अभितीयादिता सत्त णक्खत्ता पुब्वदारिता पं० सं०-अमिती सवणो धणिट्ठा उद्देशः ३ सतमिसता पुल्या भवता उत्तरा भवता रेवती, अस्सणितादिता णं सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिता ५०, तं०-- | सातासास्सिणी भरणी कित्तिता रोहिणी मिगसिरे अहा पुणवसू, पुस्सादिता णं सत्त णक्खत्ता अवरदारिता पं०, तं०--पुस्सो तानुभवः भसिलेसा मधा पुच्चा फरगुणी उत्तरा फग्गुणी हत्यो चित्ता, सातितातिया णं सत्त णक्षत्ता उत्तरदारिता पं०, तं० पूर्वादिद्वा-साति बिसाहा अणुराहा जेट्ठा मूलो पुब्बासाढा उत्तरासाढा (सू० ५८९) जंबूदीवे दीवे २ सोमणसे बक्खार- राणि नक्षपव्यते सत्त कूटा पं० सं०-सिद्धे १ सोमणसे २ तह बोद्धव्वे मंगलावतीकूडे ३ । देवकुरु ४ विमल ५ कंचण ६ त्राणि कूविसिहकूडे ७ त बोद्धये ॥ १॥ जंबूदीवे २ गंधमायणे वक्खारपव्वते सत्त कूडा पं० सं०-सिद्धे त गंधमातण टानि योबोद्धव्वे गंधिलावतीफूढे । उत्तरकुरू फलिहे लोहितक्ख आणदणे चेव ॥ १॥ (सू० ५९०) वितिविताणं सत्त जा नयश्चयतीकुलकोटिजोणीपमुहसयसहस्सा पन्नत्ता (सू० ५९१) जीवाणं सत्तट्ठाणनिवत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताते चिणिंसु नादि वा चिणंति वा चिणिस्संति वा तं०-नेरतियनिव्वत्तिते जाव देवनिव्वत्तिए एवं चिण जाब णिजरा चेव (सू० ५५२) सू०५८८सत्तपतेसिता खंधा अर्णता पण्णत्ता सत्तपतेसोगाढा पोग्गला जाब सत्तगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता (सू०५९३) सत्तमट्ठाणं सत्तमं सत्तमं अज्झवणं सम्मत्तं ॥ M॥४१४॥ 'साये'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं, 'अणुभावे'त्ति विपाक: उदयो रस इत्यर्थः, मनोज्ञाः शब्दादयः सातोदयकारणत्वाद-18 दीप अनुक्रम [६९८] ५९३ CamEauratomitimational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-७ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~261~ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-], मूलं [५९३] +गाथा- २ A प्रत सूत्रांक [५९३] गाथा नुभावा एवोच्यन्ते, तथा मनसः शुभता मनःशुभता, साऽपि सातानुभावकारणत्वारसातानुभाव उच्यते, एवं वच:शुभताऽपि, मनःसुखता वा सातानुभावः, तत्स्वरूपत्वात् तस्याः, एवं वाक्सुखताऽपीति, एवमसातानुभावोऽपि।।सातासाताधिकारात् तद्वतां देवविशेषाणां प्ररूपणाय सूत्रपञ्चकमाह-'महे'त्यादि सुगम, नवरं पूर्व द्वारं येषामस्ति तानि पूर्वद्वारिकाणि, पूर्वस्यां दिशि गम्यते येष्वित्यर्थः, एवं शेषाण्यपि सप्त सप्तेति, इह चार्थे पञ्च मतानि सन्ति, यत आह चंद्रप्रज्ञस्याम्-"तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीओ पन्नत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु-कत्तिाइआ सत्त नक्खत्ता पुब्बदा& रिया पन्नत्ता" एवमन्ये मघादीन्यपरे धनिष्ठादीनि इतरेऽश्चिन्यादीनि अपरे भरण्यादीनि, दक्षिणापरोत्तरद्वाराणि च सप्त सप्त यथामतं क्रमेणैव समवसेयानीति, 'वयं पुण एवं क्यामो-अभियाइया णं सत्त नक्खत्ता पुब्बदारिया पन्नत्ता, एवं दक्षिणद्वारिकादीन्यपि क्रमेणैवेति, तदिह षष्ठं मतमाश्रित्य सूत्राणि प्रवृत्तानि, लोके तु प्रथम मतमानित्यैतदभिधीयते, यदुत-"दहनाद्यमृक्षसप्तकमैन्यां तु मघादिकं च याम्यायाम् । अपरस्यां मैत्रादिकमथ सौम्यां दिशि धनिष्ठादि | १॥ भवति गमने नराणामभिमुखमुपसर्पतां शुभप्राप्तिः । अथ पूर्वमृक्षसप्तकमुद्दिष्टं मध्यममुदीच्याम् ॥ २॥ पूर्वायामौदीच्यां प्रातीच्या दक्षिणाभिधानायां । याम्यां तु भवति मध्यममपरस्यां यातुराशायाम् ॥ ३॥ येऽतीत्य यान्ति मूढाः परिघाख्यामनिलदहनदिनेखाम् । निपतन्ति तेऽचिरादपि दुर्व्यसने निष्फलारम्भाः॥४॥" इति ॥ देवाधिकारादेवनिवासकूटसूत्रद्वयं-'जंबू' इत्यादि कण्ठ्यं, केवलं 'सोमणसे'त्ति सौमनसे गजदन्तके देवकुरूणां प्राचीने 'कुटानि' शिखराणि, 'सिद्धे' गाहा, सिद्धायतनोपलक्षितं सिद्धकूट मेरुप्रत्यासन्नमेवं सर्वगजदन्तकेषु सिद्धायतनानि, शेषाणि ततः ||२|| दीप अनुक्रम [६९०६९८] E aton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~262~ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५९३] गाथा ॥२॥ दीप अनुक्रम [६९० ६९८ [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [७], उद्देशक [-] मूलं [ ५९३] + गाथा- २ ॥ ४१५ ॥ श्रीस्थाना-परंपरयेति, 'सोमणसे'त्ति सौमनसकुटं तत्समाननामकतदधिष्ठातृदेवभवनोपलक्षितं मङ्गलावतीविजयसमनामदेवस्य झसूत्र- मङ्गलावतीकूटं, एवं देवकुरुदेव निवासो देवकुरुकूटमिति, विमलकाञ्चनकूटे यथार्थे क्रमेण च वत्सावत्समित्राभिधानावृत्तिः | धोलोकवासिदि कुमारीद्वयनिवासभूते, वशिष्टकूटं तन्नामदेवनिवासः एवमुत्तरत्रापि, गन्धमादनो गजदन्तक एवोत्तरकुरूणां प्रतीचीनः, तत्र 'सिद्धे' गाहा, कण्ठ्या, नवरं स्फाटिककूटे लोहिताक्षकूटे अधोलोकनिवासिभोगङ्कराभोगवत्यभिधानदिकुमारीद्वय निवासभूते इति ॥ कूटेष्वपि पुष्करिणीजले द्वीन्द्रियाः सन्तीति द्वीन्द्रियसूत्रम् 'बेइंदियाण'मित्यादि, जाती-द्वीन्द्रियजातौ याः कुलकोटयः तास्तथा ताश्च ता योनिप्रमुखाश्च द्विलक्षसङ्ख्यद्वीन्द्रियोत्पत्तिस्थानद्वारकास्ता जातिकुल कोटियोनिप्रमुखाः, इह च विशेषणं परपदं प्राकृतत्वात्, तासां शतसहस्राणि - लक्षाणीति, इदमुक्तं भवति-द्वीन्द्रियजाती या योनयस्तत्प्रभवा याः कुलकोटयस्तासां लक्षाणि सप्त प्रज्ञप्तानीति, तत्र योनिर्यथा गोमयः तत्र चैकस्यामपि कुलानि विचित्राकाराः कृम्यादय इति । शेषा ध्रुवगण्डिका ससम्बन्धा पूर्ववव्याख्येयेति ॥ इति श्रीमद| भयदेवाचार्यविरचिते स्थानास्यतृतीयाङ्गविवरणे सप्तस्थानकाभिधानं सप्तममध्ययनं समाप्तम् ॥ INNNNNRANNANAANANAA इति श्रीमदभयसूरिसूत्रितविवरणयुतं सप्तमं सप्तस्थानाध्ययनं समाप्तम् ॥ Educational Far Fortal Pria Use On ७ स्थाना० उद्देशः ३ सातासा तानुभवः पूर्वादिद्वाराणि नक्ष ~263~ त्राणि कू दानि यो नयश्चयनादि सू० ५८८ ५९३ ।। ४१५ ।। पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०३] अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र सप्तमं स्थानं परिसमाप्तं अत्र मूल - संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ७ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, सप्तमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [५९४] अथाष्टमस्थानकाख्यमष्टमाध्ययनं। प्रत सूत्रांक [५९४] व्याख्यातं सप्तममध्ययनमधुना सङ्ख्याक्रमसम्बद्धमेवाष्टस्थानकाख्यमष्टममध्ययनमारभ्यते, तस्य चेदमादिसूत्रम् अहि ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति एगलविहारपडिमं उवसंपजित्ताणं विहरित्तते, तं-सड़ी पुरिसाते सो पुरिसजाए मेहावी पुरिसजाते बहुस्सुते पुरिसजाते सत्तिर्म अपाहिकरणे घितिम वीरितसंपन्ने (सू०५९४) अट्ठविधे जोणिसंगहे पं० त०-अंडगा पोतगा जाव उम्भिगा उववातिता, अंडगा अट्ठगतिचा अट्ठागा पं०, ०-अंडए अंडएम स्ववजमाणे अंडरहितो वा पोततेहिंतो वा जाव उववातितेहिंतो वा उववजेज्वा, से चेव णं से अंडते अंडगत्तं विष्पजहमाणे अंडगताते वा पोतगत्ताते वा जाव उवयातितत्ताते वा गच्छेजा, एवं पोतगावि, जराउजावि, सेसाणे गतीरागती णस्थि (सू० ५९५) जीवा णमह कम्मपगडीतो चिर्णिसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, सं०-णाणावरणिजं दरिसणावरणिजं वेयणिज मोहणिज आउयं नाम गोत्तं अंतरातितं, नेरइया णं अङ्क कम्मपगडीओ चिणिंसु वा ३, एवं चेव, एवं निरंतर जाव वेमाणियाणं २४, जीवा णमह कम्मपगडीओ उवचिणिंसु वा ३ एवं चेन, एवं चिण १ उवचिण २ बंध ३ उदीर ४ वेय ५ तह णिजरा ६ चेव । एते छ चउवीसा २४ दंडगा भाणियन्वा (सू० ५९६) ACCCCCCCESS दीप अनुक्रम [६९९] स्था०७० Ech पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अथ अष्टमं स्थानं आरभ्यते ~264~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [५९६] वृत्तिः प्रत सूत्रांक [५९६] श्रीस्थाना- 'अहडी'त्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायं सम्बन्धः-अनन्तरं पुद्गला उक्ताः, ते च कार्मणाः प्रतिमाविशेषप्रतिपत्ति-स्थाना IN मतो विशेषेण निर्जीर्यन्त इत्येकाकिविहारप्रतिमायोग्यः पुरुषो निरूप्यते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या, संहिताविपर्यस्तु उदेशः३ प्रसिद्ध एव, नवरं अष्टाभिः स्थानः-गुणविशेषैः सम्पन्नो-युक्तोऽनगार:-साधुरहेंति-योग्यो भवति 'एगल्ल'त्ति एका-1 प्रतिमाही किनो विहारो-प्रामादिचर्या स एव प्रतिमा-अभिग्रहः एकाकिविहारपतिमा जिनकल्पप्रतिमा मासिक्यादिका वा भिक्षु- ॥४१६॥ गुणाः योसाप्रतिमा तामुपसम्पद्य-आश्रित्य णमित्यलङ्कारे 'विहां प्रामादिषु चरितुं, तद्यथा-'सद्धि'त्ति श्रद्धा-तत्त्वेषु श्रद्धा- निसंग्रहः नमास्तिक्यमित्यर्थोऽनुष्ठानेषु वा निजोऽभिलाषस्तद्वत् सकलनाकिनायकरायचलनीयसम्यक्त्वचारित्रमित्यर्थः, पुरुषजातं | अष्टकर्म-पुरुषप्रकारः १, तथा सत्य-सत्यवादि, प्रतिज्ञाशूरत्वात् , सन्यो हितत्वाद्वा सत्यं २, तथा मेधा-श्रुतग्रहणशक्तिस्तद्वत् च यादि मेधावि, अथवा मेराए धावतित्ति मेधावि-मर्यादावर्ति ३, तथा मेधावित्वादहु-प्रचुरं श्रुतं-आगमः सूत्रतोऽर्थतश्च सू०५९४यस्य तद्वहुश्रुतं, तच्चोत्कृष्टतोऽसम्पूर्णदशपूर्वधरं जघन्यतो नवमस्य तृतीयवस्तुवेदीति ४, तथा शक्तिमत्-समर्थ पञ्च- ५९६ विधकृततुलनमित्यर्थः, तथाहि-"तवेण सत्तेण सुत्तेण, एगत्तेण बलेण य । तुलणा पंचहा वुत्ता, जिणकप्पं पडिवजओ| X॥१॥" ५, [तपसा सत्त्वेन सूत्रेणैकत्वेन बलेन च पंचधा तुलना उक्ता जिनकल्पं प्रतिपद्यमानस्य ॥१॥] 'अल्पाधिकरणं' निष्कलहं ६ 'धृतिमत् चित्तस्वास्थ्ययुक्तमरतिरत्यनुलोमप्रतिलोमोपसर्गसहमित्यर्थः ७, वीर्य-उत्साहातिरेकस्तेन संपन्नमिति ८, इहाद्यानामेव चतुर्णा पदानां प्रत्येकमन्ते पुरुषजातशब्दो दृश्यते ततोऽन्त्यानामध्ययं सम्बन्धनीय ॥४१६॥ इति । अयं चैवंविधोऽनगारः सर्वप्राणिनां रक्षणक्षमो भवतीति तेषामेव योन्याः सनहं गत्यागती चाह-'अढविहे'-13/ SMS दीप अनुक्रम [७०१] 15544 CamEauratonitumational File F rau पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~265~ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [५९६] प्रत सूत्रांक [५९६] ! त्यादि सूत्रचतुष्टयं सुगम, नवरमौपपातिका देवनारकाः, 'सेसाणंति अण्डजपोतजजरायुजवर्जितानां रसजादीनां गतिरागतिश्च नास्तीत्यष्टप्रकारेति शेषः, यतो रसजादयो नौपपातिकेषु सर्वेषूत्पद्यन्ते, पञ्चेन्द्रियाणामेव तत्रोत्पत्तेः, ना-| प्यौपपातिका रसजादिषु सर्वेष्वप्युपपद्यन्ते, पञ्चेन्द्रियैकेन्द्रियेष्वेव तेषामुपपत्तेरिति अण्डजपोतजजरायुजसूत्राणि त्रीण्येव भवन्तीति । अण्डजादयश्च जीचा अष्टविधकर्मचयादेर्भवन्तीति चयादीन् पट् क्रियाविशेषान् सामान्यतो नारका| दिपदेषु च प्रतिपादयन्नाह-'जीवा 'मित्यादि, प्रागिव व्याख्येयं, नवरं चयनं व्याख्यानान्तरेणासकलन उपचयनपरिपोषण बन्धन-निर्मापणं उदीरणं-करणेनाकृष्य दलिकस्योदये दानं वेदन-अनुभव उदय इत्यर्थः, निर्जरा-प्रदेशेभ्यः शटनमिति, लाघवार्थमतिदिशन्नाह-एवं चेव'त्ति यथा चयनार्थः कालत्रयविशेषतः सामान्येन नारकादिषु चोक्ता एवमुपचयार्थोऽपीति भावः, 'एवं चिणे त्यादिगाथोत्तरार्द्ध प्राग्वत् 'एए छे'त्यादि, यतश्चयनादिपदानि षड्। | अत सामान्यसूत्रपूर्वकाः पडेव दण्डका इति । अष्टविधकर्मणः पुनश्चयादिहेतुमासेव्य तद्विपार्क जानन्नपि कर्मगुरुत्वात् कश्चिन्नालोचयतीति दर्शयन्नाह अट्ठहिं ठाणेहिं माती मार्य कट्ट नो आलोतेजा नो पडिक्कमेजा जाव नो पढिवजेजा, ०-करिंसु वाऽहं १ करेमि वाऽहं २ करिस्सामि बाऽई ३ अकित्ती वा मे सिया ४ अवण्णे वा मे सिया ५ अवणए वा मे सिया ६ कित्ती वा मे परिहाइस्सइ ७ जसे वा मे परिहाइस्सइ ८ । अहहि ठाणेहि माई मायं कटु आलोएजा जाब पढिवजेजा, संजहा-मातिस्स णं अस्सि लोए गरहिते भवति १ उववाए गरहिते भवति २ आजाती गरहिता भवति ३ पगमवि माती मातं * RIBERS दीप अनुक्रम [७०१] wjanuman पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~266~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूचांक [५९७] दीप अनुक्रम [ ७०२] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ४१७ ॥ Educatun छ [भाग - 6] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [८], उद्देशक [-1. मूलं [५९७] - कटु नो आलोएना जाव नो पडिवलेजा णत्थि तरस आराहणा ४ एगमवि मायी मायं कटु आलोएजा जाव पडिव - ज्जा अस्थि are आराहणा ५ बहुतोचि माती मायं कट्टु नो आलोएज्या जाव नो पडिवज्जेज्जा नस्थि तरल आराणा ६ बहुओवि माती मायं कटु आलोएजा जाब अस्थि तस्स आरोहणा ७ आयरियउवज्झायरस वा मे अतिसे नाणदंसणे समुपज्जेज्जा से तं मममालोएजा माती णं एसे ८ माती णं मातं कट्टु से जहा नामए अयागरेति वा तं बागरेति वा आगरेति वा सीसागरेति वा रुप्पागरेति वा सुवन्नागरेति वा तिलागणीति वा तुसागणीति वा बुसागनीति वा लागणीति वा दलागणीति वा सोडितालिच्छाणि वा भंडितालिच्छाणि वा गोलियालिच्छाणि वा कुंभारावा वाकवावाति वा इट्टावातेति वा जंतवाडचुहीति वा लोहारंवरिसाणि वा तत्ताणि समजोतिभूवाणि किंसुकफुडसमाणाणि उकासहस्साई विणिम्मुतमाणाई २ जालासहस्साई पहुंचमाणाई इंगालसहस्साई परिकिरमाणाई अंतो २ झियायति एवमेव माती मायं कट्टु अंतो २ झियायइ जतिवि त णं अन्ने केति वदति संपित णं भाती जाणति अमेसे अभिसामि २, माती णं मातं कट्टु अणालोतितपडिते कालमासे कालं किया अण्णतरेसु देवलोगेसु देवदत्ताते उवबत्तारो भवंति, सं० नो महिडिएसु जाव नो दूरंगतितेसु नो चिट्टितीएस से णं तत्थ देवे भवति णो महि द्विए जाव नो चिरठितीते, जाबि त से तत्थ बाहिरभंतरिया परिसा भवति साविय णं नो आढाति नो परियाणाति जो महरिणमासणेणं उवनिमंतेति, भापि य से भासमाणस्स जाव चत्तारि पंच देवा अनुत्ता चेव अभुति-मा बहुं देवे ! भासउ, से णं ततो देवलोगाओ आउक्खणं भवक्खणं ठितिक्खणं अनंतरं चयं चत्ता इहेव Far Far & Pria Use Only ८ स्थाना० उद्देशः २ आलोच ~267~ केतरगुण दोषाः सू० ५९७ ॥ ४१७ ॥ - - पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०३] अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [१९७] प्रत सूत्रांक [५९७] माणुस्सए भवे जाई इमाई कुलाई भवंति, १०-अवकुलाणि वा पंतकुलाणि वा तुच्छकुलाणि वा दरिरकुलाणि वा मिक्खागकुलाणि वा किवणकुलाणि वा तहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ताते पञ्चायाति, से णं तत्थ पुमे भवति दुरूवे दुबन्ने दुग्गंधे दुरसे दुफासे अणिढे अकंते अप्पिते अमणुण्णे अमणामे हीणस्सरे दीणस्सरे अणिट्ठसरे अकंतसरे अपित्तस्सरे अमणुण्णस्सरे अमणामस्सरे अणाएजवयणपञ्चायाते, जाविय से तत्थ बाहिरभंतरिता परिसा भवति सावि त णं णो आढाति णो परिताणति नो महरिहेणं आसणेणं उवणिमंतेति, भासपि त से भासमाणस्स जाव चत्तारि पंच जणा अंवुत्ता चेव अम्मुद्रुति-मा बहुं अजउत्तो! भासउ.२ । माती णं मातं कट्ट आलोचितपडिकते कालमासे कालं किचा अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उबवत्तारो भवंति, तं०-महिडिएसु जाव चिरद्वितीसु, से णं तत्थ देवे भवति महिडीए जाव चिरद्वितीते हारविरातितयच्छे कहकतुडितथंभितभुते अंगदकुंडलमउडगंडतलकन्नपीढधारी विचित्तहत्याभरणे विचित्तवत्थाभरणे विचित्तमालामउली कलाणगपवरवत्यपरिहिते कल्लाणगपवरगंधमलाणुलेवणधरे भामुरबोंदी पलंबवणमालधरे दिवेणं बन्नेणं दिव्वेणं गंधणं दिन्वेणं रसेणं दिव्वेणं फासेण दिवेणं संघातेणं दिवेण संठाणेणं दिव्वाए इड्डीते दिव्याते जूतीते दिग्वाते पभाते दिव्वाते छायाते दिलाए अचीए दिघेणं तेएणं दिव्वाते लेस्साए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा महयाऽहतणगीववातिततंतीतलतालतुडितघणगुतिंगपटुप्पवातितरवेणं दिव्वाई भोगभोगाई मुंजमाणे विहरह जावि त से तत्थ बाहिरभंतरता परिसा भवति सावित णमाढाइ परियाणाति महारिहेण आसणेणं ज्वनिमंतेति भासंपि त से भासमाणस्स जाव चत्तारि पंच देवा अवुत्ता चेव अन्मुट्ठिति-बहुं देवे! भासउ २, सेणं दीप TRA 4+ अनुक्रम [७०२] + पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~268~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [१९७] प्रत सूत्रांक सू०५९७ [५९७] श्रीस्थाना तमो देवलोगातो आलक्खएणं ३ जाव चइत्ता इइव माणुस्सए भवे जाई इमाई कुलाई भवंति, इलाई जाय बहुजणस्स लास्थाना० असूत्र अपरिभूताई तहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ताते पश्चाताति, से णं तत्थ पुमे भवति सुरूने सुबन्ने सुगंधे सुरसे मुफासे इढे कंते जाव उद्देशः ३ वृत्तिः मणामे अहीणस्सरे जाव मणामस्सरे आदेजवतणे पञ्चायाते, जाऽविय से तत्थ बाहिरभंतरिता परिसा भवति सावि त आलोचणं आढाति जाष बहुमजउत्ते! भासउ २ (सू० ५९७) | केतरगुण'अट्टही'त्यादि, मायीति मायावान 'माय'ति गुप्तत्वेन मायाप्रधानोऽतिचारो मायैव तां 'कृत्वा' विधाय 'नो आ- दोषाः लोचयेद्' गुरवे न निवेदयेत्, नो प्रतिक्रमेत्-न मिथ्यादुष्कृतं दद्यात् जावकरणात् नो निंदेजा-स्वसमक्ष नो गरहेज्जा -गुरुसमक्षं नो विउद्देजा-न व्यावत्तेंतातिचारात् नो चिसोहेजा-न विशोधयेदतिचारकलङ्क शुभभावजलेन नो अ-| करणतया-अपुनःकरणेनाभ्युत्तिष्ठिद्-अभ्युत्थानं कुर्यात् नो यथार्ह तपःकर्म-प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यतेति, तद्यथा'करेसुं वाऽहंति कृतवांश्चाहमपराध, कृतत्वाच्च कथं सस्य निन्दादि युज्यते, तथा 'करेमि वाऽहं ति साम्प्रतमपि त-18 * महमतिचारं करोमीति कीदृश्यनिवृत्तस्यालोचनादिक्रिया?, तथा करिष्यामि वाऽहमिति न युक्तमालोचनादीति ३, शेष सष्टम् , नवरमकीर्तिः-एकदिग्गामिन्यप्रसिद्धिरवर्ण:-अयशः सर्वदिग्गामिन्यप्रसिद्धिरेव, एतद्वयमविद्यमानं मे भवि-18 व्यतीति, अपनयो वा-पूजासत्कारादेरपनयनं मे स्यादिति, तथा कीर्तिर्यशो वा विद्यमानं मे परिहास्यतीति ॥ उक्कार्थस्य ॥४१८॥ |विपर्ययमाह-'अहही'त्यादि सुगम, नवरं मायीत्यासेवावसर एव नालोचनाद्यवसरेऽपि, मायिन आलोचनाद्यप्रवृत्ते, मायां-अपराधलक्षणां कृत्वा आलोचयेदित्यादि, मायिनो ह्यनालोचनादावयमनर्थः, यदुत-'अस्सि'ति अयं दीप अनुक्रम [७०२] Fit For MEmmary: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~269~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [१९७] प्रत सूत्रांक [५९७] लोको-जन्म गर्हितो भवति, सातिचारतया निन्दितत्वादित्युक्तं च-"भीउब्विग्गनिलुक्को पायडपच्छन्नदोससयकारी। अप्पच्चयं जणंतो जडस्स धी जीवियं जियइ ॥१॥” इति, [भीतोद्विग्नो गोपायन् प्रकटं प्रच्छन्नं च दोपशतकारकः । अप्रत्ययं जडस्य जनयन घिग् जीवितं जीवति ॥१॥] इत्येकं १, तथा 'उपपातो' देवजन्म गर्हितः किस्वि-| पिकादित्वेनेति, उक्तं च-"तवतेणे वइतेणे, रूवतेणे य जे नरे । आयारभावतेणे य, कुब्बई देवकिम्बिसं ॥१॥" &ा[तपास्तेनो वचस्स्तेनः रूपस्तेनश्च यः नरः । आचारभावस्तेनश्च करोति देवकिल्बिषं ॥१॥] इति द्वितीयं, आ जातिः-ततश्च तस्य मनुष्यजन्म गर्हिता जात्यैश्चर्यरूपादिरहिततयेति, उक्तं च-"तत्तोवि से चइत्ताण, लम्भिही एल मूअगं । नरगं तिरिक्खजोणिं वा, बोही जत्थ सुदुलहा ॥१॥" [ततोऽपि स च्युत्वा प्राप्स्यत्येडकमूकतां नरकं तिय-13 लाग्योनं च यत्र सुदुर्लभा चोधिः॥१॥] तृतीय, तथा एकामपि मायी मायां-अतिचाररूपां कृत्वा यो नालोचयेदि त्यादि, नास्ति तस्याराधना ज्ञानादिमोक्षमार्गस्येत्यनर्थ इति, उक्तं च-"लज्जाए गारवेण य बहुस्सुयमएण वावि दुचरियं । जे न कहिंति गुरूणं न हु ते आराहगा होति ॥१॥"[लजया गौरवेन च बहुश्रुतत्वमदेन वा दुश्चरितमपि ये गुरुभ्यो न कथयन्ति ते नैवाराधका भणिताः॥१॥] तथा-"नवि तं सत्थं व विसं व दुप्पउत्तो व कुणइ वेयालो। जंतं व दुप्पउत्तं सप्पो व पमाइओ कुद्धो॥२॥ जं कुणइ भावसलं अणुद्धियं उत्तमढकालंमि । दुलहबोहीअतं अणं तसंसारियत्तं वा ॥३॥” इति [ शस्त्रं वा विषं वा दुष्पयुक्तो वेतालो वा नैव तत्करोति दुष्प्रयुक्तं यंत्रं वा प्रमादिनः क्रुद्धः & सर्पो वा ॥१॥ यदनुतं भावशल्यमुत्तमार्थकाले करोति दुर्लभबोधिकत्वमनन्तसंसारिकत्वं च ॥२॥] चतुर्थ, तथा & दीप अनुक्रम [७०२] SamEaucatani पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~270~ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५९७] दीप अनुक्रम [७०२] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ४१९ ॥ [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [५९७] एकामपीत्यादिना त्वर्धप्राप्तिरुक्तेति, यदाह -- “उद्धरियसव्वसलो भत्तपरिन्नाऍ धणियमाउत्तो । मरणाराहणजुत्तो चंदगवेज्झं समाणे ॥ १ ॥” इति [ उद्धृतसर्वशल्यः भक्तपरिज्ञायां गाढमायुक्तः मरणाराधनायुक्तः चन्द्रकवेध्यं संपूरयति ॥ १२॥ ] पञ्चममपि, एवं बहुत्वेनापि अनालोचनादावालोचनादौ वाऽनर्थोऽर्थश्च पष्ठसप्तमे, तथाऽऽचार्योपाध्यायस्य वा मे अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पद्येत, स च मामालोकयेत् माई णमेष इत्युल्लेखेनेत्येवं भयादालोचयतीत्यष्टमं, शेषं सूत्रं 'अयं लोक उपपात आजातिश्च गर्हिते'त्यस्य पदत्रयस्य विवरणतया अवगन्तव्यं, तत्र मायी मायां कृत्वेति, इह कीदृशो भवेदुच्यत इति वाक्यशेषो दृश्यः, 'स' इति यो भवतोऽपि प्रसिद्धः यथेति दृष्टान्तोपन्यासे 'नामए'त्ति सम्भावनायामलङ्कारे वा अयआकरो-छोहाकरः यत्र छोहं ध्मायते इतिरुपदर्शने वा विकल्पे तिला-धान्यविशेषास्तेषामवयवा अपि तिलास्तेषामग्निः - तदहनप्रवृत्तो वह्निस्तिलाग्निः, एवं शेषा अध्यग्निविशेषाः, नवरं तुषाः कोद्रवादीनां बुसंयवादीनां कडङ्गरो नलः-शुपिरसराकारः दलानि पत्राणि सुण्डिका:-पिटकाकाराणि सुरापिष्टस्वेदन भाजनानि कवेहयो वा सम्भाव्यन्ते तासां लिंछाणि- चुल्लीस्थानानि सम्भाव्यन्ते, उक्तं च वृद्धेः- “गोलिय सोडियमंडियलिच्छाणि अग्नेराश्रयाः" अन्यैस्तु देशभेदरूढ्या एते पिष्टपाचकायादिभेदा इत्युक्तं, मयाऽप्येतदुपजीव्यैव सम्भावितमिति, तथा भण्डिका स्थास्यः ता एव महत्यो गोलिकाः, प्रतीतं चैतच्छच्दद्वयं लिंछानि तान्येवेति, कुम्भकारस्यापाको भाण्डपचनस्थानं कवेछुकानि - प्रतीतानि तेषामापाकः- प्रतीत एव 'जंतवाडचुली' इक्षुयन्त्रपाटचुली 'लोहारंबरिसाणि वत्ति लोहकारस्याम्बरीषा-भ्राष्ट्रा आकरणानीति लोहकाराम्बरीषा इति, तष्ठानि - उष्णानि समानि-तुल्यानि जाज्वल्यमान Far Portal & Prau Use Only पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~271~ ८ स्थाना० उद्देशः ३ आलोचकेतरगुणदोषाः सू० ५९७ ॥ ४१९ ॥ Goog [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [५९७] दीप अनुक्रम [७०२] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [५९७] त्वात् ज्योतिषा - हिना भूतानि जातानि यानि तानि समज्योतिर्भूतानि, किंशुकफुलं - पलासकुसुमं तत्समानानि रक्ततया उल्का इव उसका अग्निपिण्डास्तत्सहस्राणीति प्राचुर्यख्यापकं विनिर्मुशन्ति विनिर्मुञ्चन्तीति भृशार्थे द्विर्वचनं अङ्गारा-लघुतराग्निकणास्तत्सहस्राणि प्रविकिरन्ति २'अंतो अंतो' अन्तरन्तः 'शियायंति' ध्मायन्ति इन्धनैदीप्यन्त इति दृष्टान्तो, दान्तिक स्त्येवमेवेत्यादि पश्चात्तापाग्निना ध्मायति- जाज्वल्यते, 'अहमेसेति अहमेषोऽभिशये अहमेषोऽभिशा इति- एभिरहं दोपकारितया आशको सम्भाव्ये इति, उकं हि -"निचं संकियभीओ गम्मो सव्यस्स खलियचारित्तो । साहुजणस्स अवमओ मओऽवि पुण दुग्गई जाइ ॥ १ ॥” [ नित्यं शङ्कितभीतो गम्यः सर्वस्य स्खलितचारित्रः साधुजनेनावमतः मृतोऽपि पुनर्दुर्गतिं याति ॥ १ ॥ ] अनेनानालोचकस्यायं छोको गर्हितो भवतीति दर्शितं, 'से णं तस्से'त्यादिना पाठान्तरेण मायी णं मायं कट्टु इत्यादिना वा उपपातो गर्हितो भवतीति दर्श्यते, 'कालमासे' चि मरणमासे उपलक्षणत्वान्मरणदिव से मरणमुहूर्त्ते 'कालं किचा' मरणं कृत्वा अन्यतरेषु व्यन्तरादीनां 'देवलोकेषु' देवजनेषु मध्ये 'उबवत्तारो'त्ति वचनव्यत्ययादुपपत्ता भवतीति, नो महर्द्धिकेषु परिवारादिॠच्या नो महाद्युतिषु शरीराभरणादिदीघ्या नो महानुभागेषु वैक्रियादिशक्तितः नो महाबलेषु प्राणवत्सु नो महासौख्येषु नो महेशाख्येषु वा नो दूरंगतिकेषु न सौधर्मादिगतिषु नो चिरस्थितिकेषु - एकव्यादिसागरोपमस्थितिकेषु यापि च 'से' तस्य 'तत्र' देवलोकेषु 'बाह्या' अप्रत्यासन्ना दासादिवत् 'अभ्यन्तरा' प्रत्यासन्ना पुत्रकलत्रादिवत् 'परिषत्' परिवारो भवति सापि 'नो आद्रियते' नादरं करोति, 'नो परिजानाति' स्वामितया नाभिमन्यते 'नो' नैव महच्च तदहं च-योग्यं महार्हं तेनासने Far Far & Private On पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] ~272~ stray.org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [५९७] श्रीस्थाना- सूत्र- वृत्तिः प्रत ॥४२०॥ सूत्रांक [५९७] नोपनिमन्त्रयते, किंबहुना १, दौर्भाग्यातिशयात्तस्य यावञ्चतुःपञ्चाः देवा भाषणनिषेधायाभ्युत्तिष्ठन्ति-प्रयतन्ते, कथं बाद स्थाना 'मा बहु'मित्यादि, अनेनोपपातग)क्ता, आजातिगस्तित्वं तु से ण'मित्यादिनाऽऽचष्टे, 'सेति सोऽनालोचकस्ततो- उद्देशः३ व्यन्तरादिरूपाद् देवलोकादवधेः आयुःकर्मपुद्गलनिर्जरणेन भवक्षयेण-आयुःकर्मादिनिबन्धनदेवपयोयनाशेन स्थितिक्ष- आलोचयेण-आयुरस्थितिबन्धक्षयेण देवभवनिबन्धनशेषकर्मणां वा, अनन्तरं-आयुरक्षयादेः समनन्तरमेव 'व्यव' च्यवनं| केतरगण'च्युत्वा' कृया 'इहैव' प्रत्यक्षे मानुष्यके भवे पुंस्तया प्रत्याजायत इति सम्बन्धः, केषु कुलेषु कुटुम्बकेषु अन्वयेषु वाला दोषाः किंविधेषु?-'यानि इमानि' वक्ष्यमाणतया च प्रत्यक्षाणि भवन्ति, तद्यथा-अन्तकुलाणि-वरुटम्पिकादीनां प्रान्तकुला-II सू०५९७ |नि-चण्डालादीनां तुच्छकुलानि-अल्पमानुपाणि अगम्भीराशयानि वा दरिद्रकुलानि-अनीश्वराणि कृपणकुलानि-तक। णवृत्तीनि नटनग्नाचार्यादीनां भिक्षाककुलानि-भिक्षणवृत्तीनि तथाविधलिङ्गिकानां च तथाप्रकारेवन्तकुलादिवित्यर्थः, प्रत्यायाति प्रत्याजायते वा 'पुमि त्ति पुमान् 'अणि?'त्यादि इष्यते स्म प्रयोजनवशादितीष्टः कान्ता-कान्तियोगात् प्रिया-प्रेमविषयः मनोज्ञ:-शुभस्वभावः मनसाअम्यते--म्यते सौभाग्यतोऽनुपर्यत इति मनोऽमः एतनिषेधात् प्रकृतविशेषणानि तथा हीनस्वर:-इस्वस्वरस्तथा दीनो-दैन्यवान् पुरुषस्तत्सम्बन्धित्वारस्वरोऽपि दीनः स स्वरो यस्य स तथा,| अनादेयवचनश्वासी प्रत्याजातश्चेति अथवा प्रथमैकवचनलोपादनादेयवचनो भवति प्रत्याजातः सन्निति, शेष कण्ठयं यावद् भासउत्ति, अनेन प्रत्याजातिगर्हितत्वमुक्तमिति, 'मायीत्यादिना आलोचकस्येहलोकादिस्थानत्रयागहितत्वमु-13॥४२०॥ तविपर्ययस्वरूपमाह-हारेण विराजितं वक्षः-उरो यस्य स तथा कटकानि प्रतीतानि तुटितानि-बाह्वाभरणविशेषास्तैः दीप अनुक्रम [७०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~273~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [५९७] प्रत सूत्रांक [५९७] स्तम्भितौ स्तब्धीकृतौ भुजी-पाहू यस्य स तथा । 'अंगदें'त्यादि, कर्णावेव पीठे-आसने कुण्डलाधारत्वाकर्णपीठे, मृष्टेपृष्टे गण्डतले प-कपोलतले च कर्णपीठे च यकाभ्यां ते मृष्टगण्डतलकर्णपीठे ते च ते कुण्डले चेति विशेषणोत्तरपदः । प्राकृतत्वात्कर्मधारयः, अङ्गदे च-केयूरे बाह्वाभरणविशेषावित्यर्थः, कुण्डलमृष्टगण्डतलकर्णपीठे च धारयति यः सट्र तथा, अथवा अङ्गदे च कुण्डले च मृष्टगण्डतले कर्णपीठे च-कर्णाभरणविशेषभूते धारयति यः स तथा, तथा विचि त्राणि-विविधानि हस्ताभरणानि-अङ्गलीयकादीनि यस्य स तथा, तथा विचित्राणि वस्त्राणि चाभरणानि च यस्य वखालण्येव वाऽऽभरणानि-भूषणानि अवस्थाभरणानि वा-अवस्थोचितानीत्यर्थो यस्य स तथा, विचित्रा मालाश्च-पुष्पमाला मौलिश्च-शेखरो यस्य विचित्रमालानां वा मौलियस्य स तथा, कल्याणकानि-मानल्यानि प्रवराणि-मूल्यादिना वस्त्राणि परिहितानि-निवसितानि येन तान्येव वा परिहितो-निवसितो यः स तथा, कल्याणक प्रवरं च पाठान्तरेण प्रवरगन्धं च माल्य-मालायां साधु पुष्पमित्यर्थः अनुलेपनं च-श्रीखण्डादिविलेपनं यो धारयति स तथा, भास्वरा-दीपा बोन्दी-शरीरं यस्य स तथा, प्रलम्बा या वनमाला-आभरणविशेषस्तां धारयति यः स तथा, दिव्येन-स्वर्गसम्बन्धिना प्रधानेनेत्यर्थो वर्णादिना युक्त इति गम्यते, सातेन संहननेन-वज्रर्षभनाराचलक्षणेन संस्थानेन-समचतुरस्खलक्षणेन ऋव्या-115 विमानादिरूपया युक्त्या-अन्यान्यभक्तिभिस्तथाविधद्रव्ययोजनेन प्रभया-प्रभावन माहात्म्येनेत्यर्थः, छायया-प्रतिषि-] म्वरूपया अचिषा-शरीरनिर्गततेजोज्यालया तेजसा-शरीरस्थकाम्त्या लेश्यया-अन्तःपरिणामरूपया शुक्लादिकया उद्योतयमानः-स्थूलवस्तूपदर्शनतः प्रभासयमानस्तु-सूक्ष्मवस्तूपदर्शनत इति, एकाधिकत्वेऽपि चैतेषां न दोषः, उत्कर्षप्रति दीप अनुक्रम [७०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~274~ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [१९७] प्रत सूत्रांक श्रीस्थाना- पादकत्वेनाभिहितत्वादिति, महता-प्रधानेन बृहता वा रवेणेति सम्बन्धः, अहतम्-अनुबद्धो रवस्यैतद्विशेषणं नाव्य-दाद स्थाना सूत्र- INनृत्तं तेन युकं गीतं नाट्यगीतं तच वादितानि च-तानि शब्दवन्ति कृतानि तन्त्री च-वीणा तली च-हस्ती तालाच-INउद्देशः३ वृत्तिः कंशिकाः 'तुडिय'त्ति तूर्याणि च-पटहादीनि वादिततन्त्रीतलतालतूर्याणि तानि च तथा धनो-मेघस्तदाकारो यो मृदङ्गो आलोच. ध्वनिगाम्भीर्यसाधात् स चासौ पटुना-दक्षेण प्रवादितश्च यः स धनमृदङ्गपटुपवादितः स चेति द्वन्द्धे तेषां रवा-श- केतरगुण॥४२१॥ ब्दस्तेन करणभूतेन, अथवा 'आह-यत्ति आख्यानकप्रतिबद्धं यन्नाव्यं तेन युक्तं यत्तद्गीतं, शेषं तथैव, इह च मृदङ्ग- | दोषाः ग्रहणं तूर्येषु मध्ये तस्य प्रधानत्वात्, यत उच्यते-'मद्दलसाराई तूराईति, भोगाहाँ भोगा:-शब्दादयो भोगभोगास्तान || सासू०५९७ भुञ्जान:-अनुभवन् विहरति-क्रीडति तिष्ठति वेति, भाषामपि च 'से' तस्य भाषमाणस्यास्तामेको द्वौ वा सौभाग्यातिWशयात् यावचत्वारः पञ्च वा देवा अनुक्का एव-केनाप्यप्रेरिता एव भाषणप्रवर्तनाय बहोरपि भाषितस्य स्वबहुमतत्व-IN ख्यापनाय चाभ्युत्तिष्ठन्ति, अवते च 'बहु'मित्यादि, अभिमतमिदं भवदीयं भाषणमिति हृदयं, अनेनालोचकस्योपपातागर्हितत्वमुक्त, एतगणनादिहलोकागर्हितत्वलघुताहादादिआलोचनागुणसभावेन वाच्यं, आलोचनागुणात-"लहुयाल्हाइयजणणं अप्पपरनियत्ति अज्जवं सोही। दुकरकरणं आढा निस्सलत्तं च सोहिगुणा ॥१॥" [लघुताऽऽहा|दिताजननं आत्मपरनियंतृताऽऽर्जवं शोधिः दुष्करकरणं आदरः निःशस्यत्वं च शोधिगुणाः॥१॥ इदानीं तस्यैव | प्रत्याजात्यगर्हितत्वमाह-से ण'मित्यादिना, 'अड्डाईति धनवन्ति यावत्करणात् 'दित्ताई'-दीप्तानि प्रसिद्धानि हतानि ॥४२१॥ वा-दर्पवन्ति 'विच्छिन्नविउदभवणसयणासणजाणवाहणाई तत्र विस्तीर्णानि-विस्तारवन्ति विपुलानि-बहूनि भवनानि RDCRACKXX [५९७] दीप R अनुक्रम [७०२] SamEaucatunintamatani पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~275~ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [१९७] SSC प्रत + सूत्रांक + [५९७] 18 गृहाणि शयनानि-पर्यवादीनि आसनानि-सिंहासनादीनि यानानि-रथादीनि वाहनामि व-वेगसरादीमि येषु कुलेषु तानि तथा, कचित् 'वाहणाइमाईति पाठस्तत्र विस्तीर्णविपुलैर्भवनादिभिराकीर्णानि-सङ्कीर्णानि युक्तानीत्यर्थः इति || व्याख्येयं, तथा 'बहुधणबहुजायरूवरययाई बहु धनं-गणिमधरिमादि येषु तानि तथा बह जातरूपं च-सुवर्ण रजतंचरूप्यं येषु तानि तथा, पश्चात्कर्मधारयः, 'आओगपओगसंपउत्ताई' आयोगेन-द्विगुणादिलाभेन द्रव्यस्ख प्रयोग:-अ| धमर्णानां दानं तत्र सम्पयुक्तानि-व्यापृतानि तेन वा संप्रयुक्तानि-संगतानि तानि तथा, 'विच्छवियपउरभत्तपाणाई। | विच्छहिते-त्यक्ते बहुजनभोजनावशेषतया विच्छईवती वा-विभूतिमती विविधभक्ष्यभोज्यचूष्यलेह्यपेयाचाहारभेदयुक्ततया प्रचुरे भक्तपाने येषु तानि तथा, 'बहुदासीदासगोमहिसगवेलयप्पभूयाई बहवो दासीदासा येषु तानि तथा गावो महिण्यश्च प्रतीताः गवेलका-उरभ्रास्ते प्रभूताः-प्रचुरा येषु तानि तथा पश्चारकर्मधारयः, अथवा बहवो दास्यादयः प्र. भूता जाता येषु तानि तथा, बहुजनस्थाप्यरिभूतानि अपरिभवनीयानीत्यर्थः, तृतीयार्थे वा षष्ठी, ततो बहुजनेनापरि-14 भूतानि-अतिरस्कृतानि 'अजउत्ति आर्ययोः-अपापकर्मवतोः पित्रोः पुत्रो यः स तथा, अनेनालोचकस्यानालोचकप्रत्याजातिविपर्यय उक्ता॥ कृतालोचनायनुष्ठानाश्च संवरवस्तो भवन्तीति संवरं तद्विपर्यस्तमसंबरं चाह अढविहे संवरे ५००-सोशियसंवरे जाव फासिदियसंवरे मणसंवरे बतिसंवो कायसंवरे, अवविहे असंवरे पं० ०-सोनिदिनभसंवरे जाव कायनसंघरे (सू०५९८) अट्ट फासा पं०२०-ककडे मउते गरुते छहुते सीते उस्था०७१ + दीप अनुक्रम [७०२] ET Firparantarvaataand पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~276~ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [१९९] (०३) उद्देशः३ वृत्तिः प्रत ॥४२२॥ सूत्रांक [५९९] सिणे निजे लुक्से (सू०५९९ ) अट्ठविधा लोगठिती पं० सं०-भागासपतिद्विते बाते १ वातपतिद्विते उदही २ एवं अधा छट्ठाणे जाव जीवा कम्मपतिद्विता अजीवा जीवसंगहीता जीवा कम्मसंगहीता (सू०६००) 'अढविहे त्यादि सूत्रद्वयं कण्ठ्यं, अनन्तरं कायसंवर उक्तः, कायश्चाष्टस्पों भवतीति स्पर्शसूत्र, कण्ठ्यं चेति, स्पर्शा-18 संवरेतराः श्चाष्टावेवेति लोकस्थितिरियमितो लोकस्थितिविशेषमाह-'अट्टविहे'त्यादि, कण्ठ्ये, 'एवं जहा छहाणे इत्यादि, तत्र स्पर्शालोचैवं-उदधिपइट्ठिया पुहवी, घनोदधावित्यर्थः ३ पुढविपइडिया तसा थावरा पाणा मनुष्यादय इत्यर्थः ४ अजीवा जीच-18 कस्थितिः पइट्ठिया, शरीरादिपुद्गला इत्यर्थः ५ जीवा कम्मपट्ठिया कर्मवशवर्तित्वादिति ६ अजीवाः पुनलाकाशादयो जीवैः गणिसंपसङ्गृहीताः-स्वीकृताः अजीवान् विना जीवानां सर्वव्यवहाराभावात् ७ जीवा कर्मभिः-ज्ञानावरणादिभिः सङ्गृहीता- दःनिधबद्धाः ८, षष्ठपदे जीवोपग्राहकत्वेन कर्मण आधारता विवक्षितेह तु तस्यैव जीवबन्धनतेति विशेषः ॥ इदं च लोकस्थि- यः समित्यादि स्वसम्पदुपेतगणिवचनात् ज्ञायत इति गणिसम्पदमाहअट्ठविहा गणिसंपता पं० २०-आचारसंपया १ सुयसंपता २ सरीरसंपता ३ वतणसंपता ४ बातणासंपता ५ मतिसं सू०५९८पता ६ पतोगसंपता ७ संगहपरिण्णाणाम अट्ठमा ८ (सू०६०१) एगमेगे णं महानिही अट्ठचकवालपतिढाणे अट्ठहजोयणाई उडु उपत्तेणं पन्नत्ते (सू०६०२) अट्ठ समितीतो पं० सं०-ईरियासमिति भासासमिति एसणा० आया णभंडमत्त० उभारपासवण मणस० वइस० कायसमिती (सू०६०३) 'अट्टविहा गणिसंपयेत्यादि गणः-समुदायो भूयानतिशयवान वा गुणानां साधूनां वा यस्यास्ति स गणी-आचा-12 ACC तयः दीप अनुक्रम [७०४] CamEauratoniumariand पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~277~ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६०३] % %* * प्रत सूत्रांक [६०३] 5-4%95545464546437 पर्यस्तस्य सम्पत्-समृद्धिांवरूपा गणिसम्पत् तत्राचरणमाचारः-अनुष्ठानं स एव सम्पत्-विभूतिस्तस्य वा सम्पत्-सम्पत्ति प्राप्तिः आचारसम्पत्, सा च चतुद्धों, तद्यथा-संयमभुवयोगयुक्तता, चरणे नित्यं समाध्युपयुक्ततेत्यर्थः १ असं-| प्रग्रहः आत्मनो जात्याधुत्सेकरूपमाहवर्जेनमिति भावः २ अनियतवृत्तिः अनियतविहार इति योऽर्थः ३ वृद्धशीलता| बर्मनसो निर्विकारतेतियावत् ४, एवं श्रुतसम्पत्, साऽपि चतुद्धों, तद्यथा-बहुश्रुतता युगप्रधानागमतेत्यर्थः १ परिचितसूत्रता २ विचित्रसूत्रता स्वसमयादिभेदात् ३ घोषविशुद्धिकरता च उदात्तादिविज्ञानादिति ४, शरीरसम्पचतुर्डा, तद्यथा-आरोहपरिणाहयुक्तता उचितदैध्यविस्तरतेत्यर्थः१ अनषत्रपता अलज्जनीयाङ्गत्तेत्यर्थः २ परिपूर्णेन्द्रियता ३ स्थिरसं& हननता चेति ४, वचनसम्पचतुझे, तद्यथा-आदेयवचनता १ मधुरवचनता २ अनिश्रितवचनता मध्यस्थवचनतेत्यर्थः |३ असन्दिग्धवचनता चेति ४, वाचनासम्पच्चतु , तद्यथा-विदित्वोदेशनं १ विदित्वा समुद्देशनं परिणामिकादिक शिष्य ज्ञावेत्यर्थः २ परिनिर्वाप्य वाचना, पूर्वदत्तालापकानधिगमय्य शिष्यं पुनः सूत्रदानमित्यर्थः ३ अर्थनिर्यापणा, अर्थस्य पूर्वापरसाङ्गल्येन गमनिकेत्यर्थः ४, मतिसम्पचतुर्की, अवग्रहेहापायधारणाभेदादिति, प्रयोगसम्पच्चतु , इह प्रयोगो वादविषयस्तत्रारमपरिज्ञानं वादादिसामर्थ्य विषये १ पुरुषपरिज्ञानं किंनयोऽयं वाद्यादिः २ क्षेत्रपरिज्ञानं ३ वस्तुपरिज्ञानं | वस्त्विह वादकाले राजामात्यादि ४, सहपरिज्ञा सङ्ग्रहः-स्वीकरणं तत्र. परिज्ञा-ज्ञानं नाम-अभिधानमष्टमीसम्पत्, सा |च चतुर्विधा, तद्यथा-बालादियोग्यक्षेत्रविषया १ पीठफलकादिविषया २ यथासमयं स्वाध्यायभिक्षादिविषया ३ यथोचितविनयविषया चेति ४ ॥ आचार्या हि गुणरत्ननिधानमिति निधानप्रस्तावान्निधिव्यतिकरमाह-'एके'त्यादि, ए-17 * दीप अनुक्रम [७०८] SamEautatunintammational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~278~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६०३] प्रत सूत्रांक [६०३] श्रीस्थाना- केको महानिधिश्चक्रवर्तिसम्बन्धी अष्टचक्रवालप्रतिष्ठान:-अष्टचक्रप्रतिष्ठितः, मञ्जूषावत्, तत्स्वरूप घेदम-"नवजो- स्थाना. सूत्र- यणविच्छिन्ना बारसदीहा समूसियां अह । जक्खसहस्सपरिवुडा चकट्ठपइडिया नववि ॥१॥" [नवापि नवयोजन- उद्देशः ३ वृत्तिः विस्तीर्णानि द्वादशदीर्घानि अष्टसमुच्छ्रितानि यक्षसहस्रपरिवृतानि चक्राष्टकप्रतिष्ठितानि ॥१॥] द्रव्यनिधानवक्तव्य आचार्यातोक्का, भावनिधानभूतसमितिस्वरूपमाह-'अट्ट समिईत्यादि, सम्यगितिः-प्रवृत्तिः समितिः, ईयायां गमने समिति-15 लोचक॥४२३॥ चक्षुर्व्यापारपूर्वतयेतीर्यासमितिः, एवं भाषायां निरवद्यभाषणतः, एषणायामुद्गमादिदोषवर्जनता, आदाने ग्रहणे भा-14 योर्गुणा कण्डमात्रायाः-उपकरणमात्राया भाण्डस्य वा-वस्त्राद्युपकरणस्य मृन्मयादिपात्रस्य वा मानस्य च-साधुभाजनविशेषस्य प्रायश्चित् मदा निक्षेपणायां च समितिः सुप्रत्युपेक्षितसुप्रमार्जितक्रमेणेति, उच्चारप्रश्नवणखेलसिङ्घानजलानां पारिष्ठापनिकायां समितिः सू०६०६स्थण्डिलविशुद्ध्या विक्रमेण, खेलो-निष्ठीप सिंघानो-नासिकाश्लेष्मेति, मनसः कुशलतायों समिति, वाचोऽकुक्षछत्व-18 ६.४ #निरोघे समितिः, कायस्य स्थानादिषु समितिरिति ॥ समितिष्वतिचारादावालोचना देयेत्यालोचनाचार्यखालोचकसाधोः प्रायश्चित्तस्य च स्वरूपाभिधानाय सूत्रत्रयमाह अट्ठाई ठाणेहि संपन्ने अणगारे अरिहति बाढीपणा पडिच्छित्तए, ०-आतारवं आहारखं बवहारवं ओवीला पकुवरी अपरिस्याती निजावते अवातरंसी । अहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति अत्तदोसमालोइत्तते, जातिसंपन्ने कुलसंपन्ने विणयसंपने गाणसंपन्ने सणसंपन्ने चरित्तसंपन्ने खते दंते (सू०६०४) अढविहे पायच्छिते पं० सं० दीप अनुक्रम [७०८] PU४२३॥ FFG पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~279~ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६०५] प्रत सूत्रांक [६०५] CLASS आलोयणारिहे परिणामणारिहे तनुभयारिहे विवेगारिहे विउत्सग्गारिहे तवारिहे छेयारिहे मूलरिद (सू० ६०५) भट्ट मत वाणा पं००-जातिमते कुलमते बलमते रूवमते तव० सुतक लाभ इसरितमते (सू०६०६) 'अहही त्यादि सुगम, नवरं 'आयारवं'ति ज्ञानादिपञ्चप्रकाराचारवान् ज्ञानासेवनाभ्या, 'आहार'न्ति अवधारणावान् आलोचकेनालोच्यमानानामतीचाराणामिति, आह च-"आयारवमायारं पंचविहं मुणइ जो अ आयरइ । आहारवमवहारे आलोईतस्स सम्वति ॥२॥"[आचारवानाचारं पंचविधं जानाति यश्चाचरति आधारवानवधारयत्यालोचयतः सर्वमपि ॥२॥] 'ववहारवं'ति आगमश्रुताज्ञाधारणाजीतलक्षणानां पञ्चानामुक्तरूपाणां व्यवहाराणां ज्ञातेति, "ओवीलए ति अपनीडयति-विलज्जीकरोति यो लज्जया सम्यगनालोचयन्तं सर्वं यथा सम्यगालोचयति तथा करोतीत्यपनीडका, अभिहितं च-“वषहारव ववहारं आगममाई उ मुणइ पंचविहं । ओवीलुवगृहंत जह आलोएछ त सव्वं ॥१॥" ति | [व्यवहारवान व्यवहारमागमादिपंचविधं जानाति अपनीडयत्यनालोचयन्तमालोचयति यथा तत् सवै ॥२॥] 'पकुब्वए'त्ति आलोचिते सति यः शुद्धिं प्रकर्षेण कारयति स प्रकारीति, भणितं च-"आलोइयमि सोहिं जो कारावेइ सो पकु व्वीओ।" इति, [आलोचिते यः शोधि कारयति स प्रकारी।] 'अपरिस्साईत्ति न परिश्रवति-नालोचकदोषानु॥४/पश्रुत्यान्यस्मै प्रतिपादयति य एवंशीला सोऽपरिधावीति, यदाह-"जो अन्नस्स पदोसे न कहेई व अपरिसाई सो18 होइ॥"[योऽन्यस्य दोषान् न कथयति एषोऽपरिश्श्रावी भवति॥१॥] इति, 'निजवए'चि निर्यापयति तथा करीति यथा गुर्वपि प्रायश्चित्तं शिष्यो निर्वाहयतीति निर्यापक इति, न्यगादि च-"निज्जवओ तह कुणई निव्वहई जेण पच्छि-12 दीप अनुक्रम [७१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~280~ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६०६] प्रत ॥४२४॥ सूत्रांक [६०६] श्रीस्थाना-IIत"न्ति, निर्यापकस्तथा करोति निर्वाहयति येन प्रायश्चित्तं] 'अवायदंसित्ति अपायान्-अनर्थान् शिष्यचित्तभङ्गा- स्थाना० नसूत्र- निर्वाहादीन् दुर्भिक्षदोर्षल्यादिकृतान् पश्यतीत्येवंशीलः, सम्यगनालोचनायां वा दुर्लभबोधिकत्वादीन् अपायान् शिष्यस्य उद्देश ३ दर्शयतीति अपायदशीति, भणितं च-"दुभिक्खदुब्बलाई इहलोए जाणए अवाए उ । दंसेइ य परलोए दुलहबोहित्ति | संसारे ॥शा" इति, [ दुर्भिक्षदुर्बलत्वादिकानिह लोकेऽपायान् ज्ञापयेत् दर्शयति च परलोके च संसारे दुर्लभबोधित्वमितिटालोचक Dur] अत्तदोस'त्ति आत्मापराधमिति, जातिकुले मातापितृपक्षी, तत्सम्पन्नः प्रायोऽकृत्यं न करोति, कृत्वापि पश्चात्तापा- योगुणाः दालोचयतीति तद्रहणं, यदाह-"जाईकुलसंपन्नो पायमकिच्चन सेबई किंचि। आसेविडं च पच्छा तग्गुणओ संममालोए प्रायश्चित्त | ॥” इति, [जातिकुलसम्पन्नः प्रायः किंचिदकृत्यं न सेवते आसेव्य च पश्चात् तद्गुणतः सम्यगालोचयेत् ॥१॥] विनय- मदार | सम्पन्नः सुखेनैवालोचयति, तथा ज्ञानसम्पन्नो दोपविपाकं प्रायश्चित्तं वाऽवगच्छति, यतोऽवाचि-"नाणेण न संपन्नो दो- सू०६०५|सविवागं वियाणि घोरं । आलोएइ सुहं चिय पायच्छित्तं च अवगच्छे ॥१॥" इति, [ज्ञानसंपन्नस्तु घोरं दोषविपाका ६०६ विज्ञाय सुखमेवालोचयति प्रायश्चित्तं वाऽवगच्छति ॥२॥]दर्शनसम्पन्नः शुद्धोऽहमित्येवं श्रद्धत्ते, चारित्रसम्पनो भूयस्तमपराधं न करोति सम्यगालोचयति प्रायश्चित्तं च निर्वाहयतीति, उक्तं च-"सुद्धो तहत्ति सम्म सद्दहई दंसणेण संपन्नो। चरणेण उ संपन्नो न कुणइ भुजो तमबराहं ॥१॥" इति, [तथा शुद्ध इति सम्यक् श्रद्धत्ते दर्शनसम्पन्नः चरणसंपनस्तु भूयस्तमपराधं न करोति ॥१॥] क्षान्तः परुष भणितोऽप्या चायने रुप्यतीति, आह च-"खंतो आयरिएहिंदी फरसं भणिओऽवि नवि रूसे"त्ति, [क्षान्तः आचार्यैः परुष भणितोऽपि नैव रुष्येत् ॥] दान्तः प्रायश्चित्तं दत्तं वोढुं| 4GANGRESS दीप अनुक्रम [७११] 1 ॥४४॥ Eco Firparantarvaataand पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~281~ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६०६] * 4%95445 प्रत सूत्रांक [६०६] सम| भवतीति, आह च-"दंतो समस्थो वोढुं पच्छित्तं जमिह दिजए तस्स" इति, [दान्तः वोढुं समर्थः प्राय& श्चित्तं यदिहापराधे दत्तं तस्य ॥] 'आलोयणे'त्यादि, व्याख्यातं प्रायः, जात्यादिमदेषु सत्स्वालोचनायां न प्रवर्तत इति मदस्थानसूत्रं, गतार्थ, नवरं मदस्थानानि-मदभेदाः, इह च दोषाः 'जात्यादिमदोन्मत्तः पिशाचवद्भवति दुःखितश्चेह । जात्यादिहीनता परभवे च निःसंशयं लभते ॥१॥' इति॥वादिनां हिप्रायः श्रुतमदो भवतीति वादिविशेषान् दर्शयन्नाह अट्ट अकिरियावाती पं००-एगावाती १ अणेगावाती २ मितवादी ३ निम्मितवादी ४ सायवाती ५ समुच्छेदवाती ६ णितावादी ७ण संति परलोगवाती ८ (सू०६०७) 'अट्ठ अकिरिए'त्यादि, क्रिया-अस्तीतिरूपा सकलपदार्थसार्थव्यापिनी सैवायथावस्तुविषयतया कुत्सिता अक्रिया नमः कुत्सार्थत्वात्तामकियां वदन्तीत्येवंशीला: अक्रियावादिनो, यथावस्थितं हि वस्त्वनेकान्तात्मकं तन्नास्त्येकान्तास्मकमेव चास्तीति प्रतिपत्तिमन्त इत्यर्थः, नास्तिका इति भावः, एवंवादित्वाचैते परलोकसाधकक्रियामपि परमार्थतो न बदन्ति, तन्मतवस्तुसत्त्वे हि परलोकसाधकक्रियाया अयोगादित्यक्रियावादिन एव ते इति, तत्रैक एवात्मादिरर्थ इत्येवं वदतीत्येकवादी, दीर्घत्वं च प्राकृतत्वादिति, उक्तं चैतन्मतानुसारिभिः-"एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥” इति, अपरस्त्वात्मैवास्ति नान्यदिति प्रतिपन्नः, तदुक्तम्"पुरुष एवेदं ग्निं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् , उतामृतत्त्वस्येशानो यदन्नेनाधिरोहति यदेजति यजति यहरे यदु अन्तिके यदन्तरस्य सर्वस्यास्य बाह्यत" इति, तथा “नित्यज्ञानविवर्तोऽयं, क्षितितेजोजलादिकः । आत्मा तदात्मकश्चेति, सङ्गिरन्ते * दीप ** अनुक्रम [७११] ** Eaton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~282~ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६०७] (०३) प्रत सूत्रांक [६०७] श्रीस्थाना- परे पुनः॥१॥” इति, शब्दाद्वैतवादी तु सबै शब्दात्मकमिदमित्येकत्वं प्रतिपन्न, उक्तं च "अनादिनिधनं ब्रह्मस्थाना० असूत्र- शब्दतत्त्वं यदक्षरम् । विवर्त्ततेऽर्थभावेन, प्रक्रिया जगतो यतः॥१॥इति, अथवा सामान्यवादी सर्वमेवैकं प्रतिप-18 उद्देशः ३ वृत्तिः द्यते, सामान्यस्यैकत्वादित्येवमनेकधैकवादी, अक्रियावादिता चास्य सद्भूतस्यापि तदन्यस्य नास्तीति प्रतिपादनात् आ माद्वैतपुरुषाद्वैतशब्दाद्वैतादीनां युक्तिभिरघटमानानामस्तित्वाभ्युपगमाच, एवमुत्तरत्रापीति १, तथा सत्यपि कथञ्चिदे- वादिनः ॥४२५॥ करवे भावानां सर्वथा अनेकत्वं वदतीत्यनेकवादी, परस्परविलक्षणा एवं भावास्तथैव प्रमीयमाणत्वात्, यथा रूपं रूपत-18| है येति, अभेदे तु भावानां जीवाजीवबद्धमुक्तसुखितदुःखितादीनामेकत्वप्रसङ्गात् दीक्षादिवैयर्थ्यमिति, किश्व-सामान्यमहजीकृत्यैकत्वं विवक्षितं परैः, सामान्य च भेदेभ्यो भिन्नाभिन्नतया चिन्त्यमान न युज्यते, एवमवयवेभ्योऽवयवी? धर्मेभ्यश्च धर्मीत्येवमनेकवादी, अस्याप्यक्रियावादित्वं सामान्यादिरूपतयैकरवे सत्यपि भावानां सामान्यादिनि-15 पेन तनिषेधनादिति, न च सामान्य सर्वथा नास्ति, अभिन्नज्ञानाभिधानाभावप्रसङ्गात् , सर्वथा वैलक्षण्ये चिकपरमा-1 णुमन्तरेण सर्वेषामपरमाणुस्वप्रसङ्गात्, तथा अवयविनं धम्मिण च विना न प्रतिनियतावयवधर्मव्यवस्था स्थाद्, भेदाभेदविकल्पदूषणं च कथञ्चिद्वादाभ्युपगमनेन निरवकाशमिति २, तथा अनन्तानन्तरवेऽपि जीवानां मितान-18| परिमितान् वदति 'उत्सन्नभव्यकं भविष्यति भुवन मित्यभ्युपगमात्, मितं वा जीवं-अङ्गठपर्वमा श्यामाकतन्दुलमात्रं वा वदति न त्वपरिमितमसम्वेवप्रदेशात्मकतया अङ्गलासययभागादारभ्य यावलोकमापूरयतीत्येवमनियतप्रमाण-| तया वा, अथवा मितं सप्तद्वीपसमुद्रात्मकतया लोकं वदत्यन्यथाभूतमपीति मितवादीति, तस्याप्यक्रियावादित्वं वस्तु दीप अनुक्रम [७१२] T ॥४२५ SamEaucatunintamiational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~283~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६०७ ] दीप अनुक्रम [७१२] Education) [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६०७] तत्त्वनिषेधनादेवेति १ तथा निम्मितं - ईश्वर ब्रह्मपुरुषादिना कृतं लोकं वदतीति निम्मितवादी, तथा चाहुः " आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतर्क्यमविज्ञेयं, प्रसुष्ठमिव सर्वतः ॥ १ ॥ तस्मिन्नेकार्णवीभूते, नष्टस्थावरजङ्गमे । नष्टामरनरे चैव, प्रणष्टोरगराक्षसे ॥ २ ॥ केवलं गहरीभूते, महाभूतविवर्जिते । अचिन्त्यात्मा विभुस्तत्र, शयानस्तप्यते तपः ॥ ३ ॥ तत्र तस्य शयानस्य, नाभेः पद्मं विनिर्गतम् । तरुणरविमण्डलनिभं हृद्यं काश्चनकर्णिकम् ॥ ४ ॥ तस्मिन् पद्मे तु भगवान् दण्डीयज्ञोपवीतसंयुक्तः । ब्रह्मा तत्रोत्पन्नस्तेन जगन्मातरः सृष्टाः ॥ ५ ॥ अदितिः सुरसङ्घानां दितिरसुराणां मनुर्मनुष्याणाम्। विनता विहङ्गमानां माता विश्वप्रकाराणाम् ॥ ६ ॥ कटुः सरीसृपाणां सुलसा माता तु नागजातीनाम् । सुरभिश्चतुष्पदानामिला पुनः सर्वबीजानाम् ॥ ७ ॥” इति प्रमाणयति चासो - बुद्धिमत्कारणकृतं भुवनं संस्थानवत्त्वात् घटवदित्यादि, अक्रियावादिता चास्य 'न कदाचिदनीदर्श जगदिति वचनादकृत्रिम भुवनस्या कृत्रि मतानिषेधात् न चेश्वरादिकर्तृकस्वं जगतोऽस्ति, कुलालादिकारकवैयर्थ्यप्रसङ्गात् कुलालादिवच्चेश्वरादेर्बुद्धिमत्कारणस्यानीश्वरताप्रसङ्गात् किख - ईश्वरस्थाशरीरतया कारणाभावात् क्रियास्वप्रवृत्तिः स्यात् खशरीरत्वे च तत्शरीरस्थापि कर्त्रन्तरेण भाव्यं, एवं चानवस्थाप्रसङ्ग इति ४, तथा सातं सुखमभ्वसनीयमिति वदवीति सातवादी, तथाहि भवलोववादी कश्चित् सुखमेवानुशीलनीयं सुखार्थिना, न त्वसातरूपं तपोनियमब्रह्मचर्यादि, कारणानुरूपत्वात् कार्यस्य, नहि शुक्लैस्तन्तुभिरारब्धः पटो रक्तो भवति अपि तु शुक्ल एव, एवं सुखासेवनात् सुखमेवेति, उक्तं च- "मृद्धी शय्या प्रातः रुत्थाय पेया, भक्तं मध्ये पानकं चापरा । द्राक्षाखण्डं शर्करा वार्द्धरात्रे, मोक्षश्चान्ते शाक्यपुत्रेण दृष्टः ॥ १ ॥" अ Far Portal & Private On पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~284~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६०७] प्रत ४२६॥ सूत्रांक [६०७] श्रीस्थाना- क्रियावादिता चास्य संयमतपसोः पारमार्थिकप्रशमसुखरूपयोः दुःखत्वेनाभ्युपगमात् कारणानुरूपकार्याभ्युपगमस्य च स्थाना. सूत्र- विषयसुखादननुरूपस्य निर्वाणसुखस्थाभ्युपगमेन बाधितत्वादिति ५, तथा समुच्छेद-प्रतिक्षणं निरन्वयनाशं वदति यः उद्देशः ३ दृत्तिः स समुच्छेदवादी, तथाहि-वस्तुनः सत्त्वं कार्यकारित्वं, कार्याकारिणोऽपि वस्तुत्वे खरविषाणस्यापि सत्त्वप्रसङ्गात्, कार्यअक्रिया च नित्यं वस्तु क्रमेण न करोति, नित्यस्यैकस्वभावतया कालान्तरभाविसकलकार्यभावप्रसङ्गात्, न चेदेवं प्रतिक्षणं स्व- वादिनः जीभावान्तरोखत्त्या नित्यत्वहानिरिति, योगपद्येनापि न करोति अध्यक्षसिद्धत्वाद्योगपद्याकरणस्य, तस्मात् क्षणिकमेव वस्तु सू०६०७ कार्य करोतीति, एवं च अर्थक्रियाकारित्वात् क्षणिक वस्त्विति, अक्रियावादी चायमित्थमवसेयः-निरन्वयनाशाभ्युप|गमे हि परलोकाभावः प्रसजति, फलार्थिनां च क्रियास्वप्रवृत्तिरिति, तथा सकलक्रियासु प्रवर्तकस्यासस्येयसमयसम्भ-18 व्यनेकवर्णोलेखवतो विकल्पस्य प्रतिसमयक्षयित्वे एकाभिसन्धिप्रत्ययाभावात् सकलव्यवहारोच्छेदः स्यादत एवैकान्त-I क्षणिकात् कुलालादेः सकाशादर्थक्रिया न घटत इति, तस्मात् पर्यायतो वस्तुसमुच्छेदवद् द्रव्यतस्तु न तथेति ६, तथा| नियत-नित्यं वस्तु बदति यः स तथा, तथाहि-नित्यो लोकः, आविर्भावतिरोभावमात्रत्वादुसादविनाशयो, तथा असतोऽनुसादाच्छशविषाणस्येव सतश्चाविनाशात् घटवत् , नहि सर्वथा घटो विनष्टः, कपालाद्यवस्थाभिस्तस्य परिणतत्वात् , तासां चापारमार्थिकत्वात् , मृत्सामान्यस्यैव पारमार्थिकत्वात् , तस्य चाविनष्टत्वादिति, अक्रियावादी चायमेका४न्तनित्यस्य स्थिरैकरूपतया सकलक्रियाविलोपाभ्युपगमादिति ७, तथा 'न सन्ति परलोगे वा' इति नेति-न विद्यते ॥४२६॥ शान्तिश्च-मोक्षः परलोकश्च-जन्मान्तरमित्येवं यो वदति स तथा, तथाहि-नास्त्यात्मा प्रत्यक्षादिप्रमाणाविषयत्वात् ॐॐॐॐ5454 दीप अनुक्रम [७१२] E aton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~285~ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६०७] प्रत 4%950155 सूत्रांक खरविषाणवत्, तदभावान्न पुण्यपापलक्षणं कर्म, तदभावान्न परलोको नापि मोक्ष इति, यश्चतचतन्यं ततधर्म इति, अस्याक्रियावादिता स्फुटैव, न चैतस्य मतं सङ्गच्छते, प्रत्यक्षाद्यप्रवृत्त्याऽऽत्मादीनां निराकर्तुमशक्यत्वात् , सत्यपि वस्तुनि प्रमाणाप्रवृत्तिदर्शनादागमविशेषसिद्धत्वाच्च, भूतधर्मतापि न चैतन्यस्य, [अविकृतपित्ताद्याधारभूतभूता इति भावः] 8 विवक्षितभूताभावेऽपि जातिस्मरणादिदर्शनादिति, एषां चेह वादिनामष्टानामपि दिग्मात्रमुपदर्शित, विशेषस्त्वन्यतो | ज्ञेय ऊह्यो वेति ॥ पते च वादिनः शास्त्राभिसंस्कृतबुद्धयो भवन्तीत्यष्टस्थानकावतारीणि शास्त्राण्याह अविहे महानिमित्त पं० त०-भोमे उपपाते सुविणे अंतलिक्खे अंगे सरे लक्खणे वंजणे (सू०६०८) अदुविधा वयणविभत्ती पं० सं०---निदेसे पढमा होती, वीतिया उवतेसणे । ततिता करणंमि कता, चउत्थी संपदावणे ॥१॥ पंचमी त अवाताणे, छट्ठी सस्सामिवादणे । सत्तमी सन्निहाणत्थे, अट्ठमी आमंतणी भवे ॥२॥ तस्थ पढमा विभत्ती निहेसे सो इमो अहं वत्ति १ । वितीता उण उवतेसे भण कुण व तिमं व तं वत्ति ॥३२॥ ततिता करणंमि कया णीतं च कतं च तेण व मते वा ३ । हंदि णमो साहाते हवति चउत्थी पदाणमि ॥ ४ ॥ अवणे गिण्हसु तत्तो इत्तोत्ति व पंचमी अबादाणे । छट्ठी तरस इमस्स प गतस्स वा सामिसंबंधे ॥५हवइ पुण सत्तमी तमिमंमि आहारकालभाचे त । आमंतणी भवे अहमी उ जह हे जुषाणती ॥६॥ (सू० ६०९) अट्ठ ठाणाई छउमस्थेणं सबभावेणं ण याणति न पासति, तं०-धम्मस्थिगात जाब गंध वात, एताणि चेव उम्पन्ननाणदसणधरे अरहा जिणे केवली जाणइ पासइ जाब गंध [६०७] दीप अनुक्रम [७१२] 55 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~286~ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६१०] गाथा १-५ दीप अनुक्रम [७२१] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ४२७ ॥ Educato [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६१०] + गाथा १-५ वा (सू० ६१० ) अट्ठविधे आउवेदे पं० तं० कुमारमिथे कायतिमिच्छा सालाती सहहत्ता जंगोली भूतवेजा खार रसावणे (सू० ६११ ) 'अट्ठ महानिमित्ते 'त्यादि, अतीतानागतवर्त्तमानानामतीन्द्रियभावानामधिगमे निमित्तं - हेतुर्यद्वस्तुजातं तनिमित्तं, तदभिधायकशास्त्राण्यपि निमित्तानीत्युच्यन्ते तानि च प्रत्येकं सूत्रवृत्तिवार्त्तिकतः क्रमेण सहस्रलक्ष कोटीप्रमाणानीतिकृत्वा महान्ति च तानि निमित्तानि चेति महानिमित्तानि, तत्र भूमिविकारो भौमं भूकम्पादि तदर्थं शास्त्रमपि भौममेवमन्यान्यपि वाच्यानि १, नवरमुदाहरणमिह - 'शब्देन महता भूमिर्यदा रसति कम्पते । सेनापतिरमात्यश्च, राजा राज्यं च पीच्यते ॥ १ ॥ इत्यादि, उत्पादः - सहजरुधिरवृद्ध्यादिः २, स्वप्नो यथा 'मूत्रं वा कुरुते स्वप्ने, पुरीषं वाऽतिलोहितम् । प्रतिबुद्ध्येत् तदा कश्चिलभते सोऽर्थनाशनम् ॥ १ ॥' इति ३, अन्तरिक्षं-आकाशं तत्र भवमान्तरिक्षं गन्धर्व्वनगरादि, यथा 'कपिलं सस्यघाताय, माजिष्टं हरणं गवाम् । अव्यक्तवर्ण कुरुते, बलक्षोभं न संशयः ॥ १ ॥ गन्धर्वनगरं स्निग्धं, सप्राकारं सतोरणम् । सौम्यां दिशं समाश्रित्य राज्ञस्तद्विजयंकरम् ॥ २ ॥ इत्यादि ४, अनं- शरीरावयवस्तद्विकार आङ्गं शिरःस्फुरणादि, यथा 'दक्षिणपार्श्वे स्पन्दनमभिधास्ये तत्फलं स्त्रिया वामे । पृथिवीलाभः शिरसि स्थानविवृद्धिलाटे स्याद् ॥ १ ॥ इत्यादि ५, स्वरः-शब्दः षड्जादिः, स च निमित्तं यथा - 'सज्ञेण लम्भई विसिं, कथं च न वि णस्सइ । गावो मित्ता य पुत्ता य, नारीणं चेव वल्लभो ॥ १ ॥ इत्यादि, शकुनरुतं वा यथा – “विविचिविसद्दो पुन्नो, सामाए सूलिसूलि धन्नो उ । चेरी चेरी दित्तो चिकुत्ती लाभ हेउत्ति ॥ १ ॥" इत्यादि ६, लक्षणं स्त्रीपुरुषादीनां यथा Far Faria & Pras Use Only ८ स्थाना० उद्देशः ३ निमित्तं ~ 287 ~ विभक्तयः छद्मस्थेत रज्ञेयाज्ञे यानि आयुर्वेदः सू० ६०८ ६११ ॥ ४२७ ॥ yog पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६११] दीप अनुक्रम [७२२] स्था० ७२ Educator [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [६११] स्थान [८], उद्देशक [-], " अस्थिवर्थाः सुखं मांसे, त्वचि भोगाः स्त्रियोऽक्षिषु । गतौ यानं स्वरे चाज्ञा सर्व्वं सत्त्वे प्रतिष्ठितम् ॥ १ ॥” इत्यादि ७, व्यञ्जनं-मषादि, यथा- 'ललाटकेशः प्रभुत्वायेत्यादि ८ ॥ एतानि च शास्त्राणि वचनविभक्तियोगेनाभिधेयप्रतिपादकानीति वचनविभक्तिस्वरूपमाह - 'अडविहा वयणविभत्सीत्यादि, उच्यते एकत्वद्वित्वबहुत्वलक्षणोऽथ यैस्तानि वचनानि विभज्यते कर्तृत्व कर्मत्वादिलक्षणोऽर्थो यया सा विभक्तिः वचनात्मिका विभक्तिर्वचन विभक्तिः, 'सु औ जसि 'त्यादि, 'निद्देसे सिलोगो, निर्देशनं निर्देशः - कर्मादिकारकशक्तिभिरनधिकस्य लिङ्गार्थमात्रस्य प्रतिपादनं तत्र प्रथमा भवति, यथा स वा अयं वाऽऽस्ते अहं वा आसे १, तथा उपदिश्यत इत्युपदेशनं-उपदेशक्रियाया व्याप्यमुपलक्षणत्वादस्य क्रियाया यव्याप्यं तत् कर्मेत्यर्थस्तत्र द्वितीया, यथा भण इमं श्लोकं कुरु वा तं घटं ददाति तं याति ग्रामं २, तथा क्रियते येन तत्करणं-क्रियां प्रति साधकतमं करोतीति वा करणः कर्त्ता 'कृत्यल्युटो बहुल' (पा० ३-३-११३ ) मिति वचनादिति, तत्र करणे तृतीया कृता-विहिता, यथा नीतं सस्यं तेन शकटेन कृतं कुण्डं मयेति ३, तथा 'संपदावणेति सत्कृत्य प्रदाप्यते यस्मै उपलक्षणत्वात् सम्प्रदीयते वा यस्मै स सम्प्रदापनं सम्प्रदानं वा, तत्र चतुर्थी, यथा भिक्षवे भिक्षां दापयति ददाति बेति, सम्प्रदापनस्थोपलक्षणत्वादेव नमःस्वस्तिस्वाहास्वधाऽलंवपड्युक्ताश्च चतुर्थी भवति नमः | शाखायें - वैरादिकायै नमःप्रभृतियोगोऽपि कैश्चित्सम्प्रदानमभ्युपगम्यते इति चतुर्थी ४, 'पञ्चमी'ति श्लोकः, अपादीयते अपायतो-विश्लेषत आ-मर्यादया दीयते 'दो अवखण्डन' इति वचनात् खण्ड्यते भिद्यते आदीयते वा गृह्यते यस्मात्तदपादानमवधिमात्रमित्यर्थस्तत्र पञ्चमी भवति, यथा- अपनय ततो गृहाद्धान्यमितो वा कुशलागुहाणेति ५, Far Portal & Private On पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~288~ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६११] प्रत सूत्रांक [६११] श्रीस्थाना- छट्ठी सस्सामिवायणेत्ति स्वं च स्वामी च स्वस्वामिनी तयोर्वचनं-प्रतिपादनं तत्र स्वस्वामिवचने-स्वस्वामिसम्बन्धे स्थाना ङ्गसूत्र- इत्यर्थः, षष्ठी भवति, यथा-तस्यास्य वा गतस्य वाऽयं भृल्या, 'वायणे'तीह प्राकृतत्वाद् दीर्घरवं , सनिधीयते किया उद्देशः ३ वृत्तिः अस्मिन्निति सन्निधानं-आधारस्तदेवार्थः सन्निधानार्थस्तत्र सप्तमी, विषयोपलक्षणत्वाचास्य काले भावे च क्रियाविशेषणे, निमित्त तत्र सन्निधाने तद्भक्तमिह पात्रे, तत्सप्तच्छदवनमिह शरदि पुष्यति, पुष्यनक्रिया शरदा विशेषिता, तत् कुटुम्बकमिह | विभक्तयः ॥४२८॥ लगवि दुह्यमानायां गतं, इह गमनक्रिया गोदोहनभावेन विशेषितेति ७, अष्टम्यामन्त्रणी भवेदिति, सु औ जसिति, छद्मस्थेत प्रथमाऽपीयं विभक्तिरामन्त्रणलक्षणस्यार्थस्य कर्मकरणादिवत् लिङ्गार्थमात्रातिरिक्तस्य प्रतिपादकत्वेनाष्ठम्युक्ता, यथा हे रज्ञेयाजेयुवनिति श्लोकद्वयार्थः । उदाहरणगाथास्तु व्याख्यातानुसारेण भावनीयाः, 'तत्थ'गाहा 'तइया'गाहा, इह 'हंदी'त्युप्र-1 यानि आ. दर्शने 'पयाणमित्ति सम्प्रदाने, 'अवणे'गाहा 'अवणे'त्ति अपनयेत्यर्थः, इदं चानुयोगद्वारानुसारेण व्याख्यातं, आद- युर्वेदः शेषु तु 'अमणे' इति दृश्यते, तत्र च स्यामन्त्रणतया गमनीयं, हे अमनस्के इत्यर्थः ॥ अथ वचनविभक्तियुक्तशास्त्रसं- सू० ६०८स्कारात् किं छद्मस्थाः साक्षाददृश्यार्थान् विदन्ति ?, उच्यते, नेत्याह-'अट्ठट्ठाणे त्यादि व्याख्यातं प्राक्, नवरं यावसत्करणात् 'अधम्मत्थिकार्य २ आगासत्थिकार्य ३ जीवमसरीरपडिबद्धं ४ परमाणुपोग्गलं ५ सद्द ६ मिति द्रष्टव्यमिति, एतान्येव जिनो जानातीत्याह च-एपाणी'त्यादि, सुगमं ।। यथा धर्मास्तिकायादीन जिनो जानाति तथाऽऽयुर्वेद-18 मपि जानाति, स चाय-अट्टविहे आउब्वेए' इत्यादि, आयु:-जीवितं तद्विदन्ति रक्षितुमनुभवन्ति चोपक्रमरक्षणे ४२८॥ विदन्ति वा-लभन्ते यथाकालं तेन तस्मात्तस्मिन् वेत्यायुर्वेदः-चिकित्साशास्त्रं तदष्टविध, तद्यथा-कुमाराणां-बालकानां ६११ दीप अनुक्रम [७२२] KEER SamEaucatunintamate Fit For m पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~289~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६११] प्रत सूत्रांक [६११] IAIभृती-पोषणे साधु कुमारभृत्य, तद्धि तन्वं कुमारभरणक्षीरदोषसंशोधनार्थ दुष्टशून्यनिमित्तानां व्याधीनामुपशमनार्थ चेति १ कायस्य ज्वरादिरोगग्रस्तस्य चिकित्साप्रतिपादकं तन्त्रं कायचिकित्सा, तत्तन्त्रं हि मध्याङ्गसमाश्रितानां ज्वरातीसाररतशोफोन्मादप्रमेहकुष्ठादीनां शमनार्थमिति २ शलाकायाः कर्म शालाक्यं तत्प्रतिपादक तन्त्रं शालाक्य, एतद्धि ऊर्खचक्रगतानां रोगाणां श्रवणवदननयनघ्राणादिसंश्रितानामुपशमनार्थमिति ३ शल्यस्य हत्या-हननमुद्धारः शल्यहत्या तत्प्रतिपादक तन्त्रमपि शस्यहत्येत्युच्यते, तद्विधतृणकाष्ठपाषाणपांसुलोहलोष्ठास्थिनखपायाजान्तर्गतशल्योखरणार्थमिति | ४ 'जङ्गोली ति विषविघाततन्त्रमगदतन्त्रमित्यर्थः, तद्धि सर्पकीटलूतादष्टविषनाशनार्थे विविधविषसंयोगोपशमनार्थ | चेति ५भूतादीनां निग्रहार्थं विद्यातन्त्र भूतविद्या, सा हि देवासुरगन्धर्वयक्षरक्षःपितृपिशाचनागग्रहाद्युपसृष्टचेतसां शान्ति कर्मबलिकरणादिग्रहोपशमनार्थेति ६ 'क्षारतन्त्र'मिति क्षरणं क्षारः शुक्रस्य तद्विषयं तन्त्रं यत्र तत्तथा, इदं हि सुश्रुतादिषु वाजीकरणतन्त्रमुच्यते, अवाजिनो वाजीकरणं रेतोवृद्ध्या अश्वस्येव करणमित्यनयोः शब्दार्थः सम एवेति, तत् तन्त्रं हि अल्पक्षीणविशुष्करेतसामाप्यायनप्रसादोपजनननिमित्तं प्रहर्षजननार्थमिति ७ रसः-अमृतरसस्तस्यायनं-प्राप्तिः रसायनं, तद्धि वयःस्थापनमायुर्मेधाकरणं रोगापहरणसमर्थे च तत्प्रतिपादक शाखं रसायनतन्त्रमिति ॥ कृतरसायनश्च देववनिरुपक्रमायुर्भवतीति देवप्रस्तावाद्देवानामष्टकाम्याह सकस्स णं देविंदस्स देवरन्नो अडग्गमहिसीओ पं० त०-पउमा सिवा सती अंजू अमला अच्छरा णवमिया रोहिणी १ ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरस्रो अवग्गमहिसीओ पं०२०-कण्हा कण्हराती रामा रामरक्खिता वसू वसुगुत्ता वसुमित्ता ॐॐॐॐॐॐॐ दीप अनुक्रम [७२२] Et पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~290~ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६१२] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्तिः प्रत ॥ ४२९॥ सूत्रांक वसुंधरा २ सकस्स ण देविंदस्स देवरत्नो सोमस्स महारत्नो अटुग्गमहिसीओ पं०३ ईसाणस्स पं देविदास देवरन्नो वेसमणरस महारस्रो अहन्गमहिसीओ पं० ४ अट्ठ महागहा पं० सं०-चंदे सूरे सुके युहे वहस्सती अंगारे सणिपरे केऊ ५ (सू० ६१२) अढविधा तणवणस्ततिकातिया पं० सं०-मूले कंदे संधे तया साले पवाले पत्ते पुष्फे (सू० ६१३) चउरिदिया णं जीवा असमारभमाणस्स अटुविधे संजमे कजति, तं०-चक्युमातो सोक्खातो अवपरोवित्ता भवति, चक्खुमतेणं दुपयेणं असंजोएत्ता भवति, एवं जाव फासामातो सोक्खातो अवयरोवेत्ता भवति फासामएणं दुक्खेणं असंजोगेता भवति । चउरिदिया णं जीवा समारभमाणस्स अट्ठविधे असंजमे कजति, तं०-चक्खुमातो सोक्खाओ ववरोवेत्ता भवति, चक्खुमतेणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवति, एवं जाव फासामातो सोक्खातो (सू० ६१४) अट्ठ सुहुमा पं० सं०-पाणमुहुमे १ पणगसुहुमे २ वीयसुहुमे ३ हरितसुहुमे ४ पुष्फसुहुमे ५ अंडसुहुमे लेणमुटुमे ७ सिणेहसुहुमे ८ (सू० ६१५) भरहस्स णं रन्नो चाउरंतचकवहिस्स अट्ठ पुरिसजुगाई अणुबद्धं सिद्धाई जाव सम्वदुक्खप्पहीणाई, तं०-आविधजसे महाजसे अतिवले महाबले तेतवीरिते कित्तवीरिते दंडवीरिते जलवीरिते (सू० ६१६) पा. सस्स गं अरहओ पुरिसादाणितस्स अट्ठ गणा अट्ठ गणहरा होत्या, तं०-मुझे अजयोसे वसिडे बंभचारी सोमे सिरिधरिते वीरिते भद्दजसे (सू० ६१७) तत्र 'सकस्से'त्यादि सूत्रपञ्चकं सुगम, नवरं महाग्रहा-महानिर्थसाधकत्वादिति । महाग्रहाश्च मनुष्यतिरश्चामुपघातानुग्रहकारिणो बादरवनस्पत्युपघातादिकारित्वेनेति बादरवनसतीनाह-'अट्ठविहे'त्यादि, सुगम, नवरं 'तणवण- स्थाना० उद्देशः ३ अग्रमहिव्याद्या मूलाद्या चतुरक्षसंयमेतरौ सूक्ष्माणि सूयेयशआद्या पार्चगणिनः सू०६१२ [६१२] दीप अनुक्रम [७२३] ६१७ ॥४२९॥ JamEauratoKLE पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~291~ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६१७] प्रत सूत्रांक [६१७] स्सइ'त्ति बादरवनस्पतिः, कन्दः-स्कन्धस्याधः स्कन्धः स्थुडमिति प्रतीतं त्वक्-छल्ली शाला-शाखा प्रवालं-अङ्करः पत्रपुष्पे प्रतीते । एतदानयाश्चतुरिन्द्रियादयो जीवा भवन्तीति चतुरिन्द्रियानाश्रित्य संयमासंयमसूत्रे, ते च प्रागिवेति । सूक्ष्माण्यप्याश्रित्य संयमासंयमौ स्त इति तान्याह-'अट्ट मुहुमत्यादि, सूक्ष्माणि श्लक्ष्णत्वादल्पाधारतया च, तत्र प्राणसूक्ष्मअनुद्धरिः कुन्धुः स हि चलन्नेव विभाव्यते न स्थितः सूक्ष्मत्वादिति १ पनकसूक्ष्म पनकः-उल्ली, स च प्रायः प्रावृट्काले भूमिकाष्ठादिषु पञ्चवर्णस्तद्रव्यलीनो भवति, स एव सूक्ष्ममिति एवं सर्वत्र २ तथा बीजसूक्ष्म-शाल्यादिवीजस्य मुखमूले कणिका लोके या तुषमुखमित्युच्यते ३ हरितसूक्ष्म-अत्यन्ताभिनवोझिन्नपृथिवीसमानवणे हरितमेवेति ४ पुष्प-18 सूक्ष्म-वटोदुम्बराणां पुष्पाणि तानि तद्वर्णानि सूक्ष्माणीति न लक्ष्यन्ते ५ अण्डसूक्ष्म-मक्षिकाकीटिकागृहकोकिलाब्राह्मशाणीककलास्याण्डकमिति ६ लयनसूक्ष्मं लयन-आश्रयः सत्त्वानां, तब कीटिकानगरकादि, तत्र कीटिकाश्चान्ये च सूक्ष्माः सत्त्वा भवंतीति ७ स्नेहसूक्ष्ममवश्यायहिममहिकाकरकहरतनुरूपमिति ८ । अनन्तरोक्तसूक्ष्मविषयसंयममासेव्य ये अष्टकतया सिद्धास्तानाह-'भरहस्से'त्यादि कण्ठ्यं, किन्तु 'पुरिसजुगाईति पुरुषा युगानीव-कालविशेषा इव क्रमवृत्तित्वात् पुरुषयुगानि 'अनुबई' सन्ततं यावत्करणात् 'बुद्धाई मुकाई परिनिबुडाईति, एतेषां चादित्ययश:प्रभृतीनामिहोतक्रमस्यान्यथात्वमध्युपलभ्यते, तथाहि-"राया आइचजसे महाजसे अइवले अबलभदे । बलविरियकत्तविरिए जलविरिए दंडविरिए य ॥१॥” इति [आदित्ययशा राजा महायशा अतिबलः बलभद्रः बलवीर्यः कार्तवीर्यः जलवीर्यः दंडवीर्यः ॥१॥] इह चान्यथात्वमेकस्यापि नामान्तरभावादू गाथानुलोम्याच सम्भाव्यता दीप अनुक्रम [७२८] Eco पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~292~ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६१७] प्रत सूत्रांक [६१७] श्रीस्थाना-1 इति । संयमवदधिकारात् संयमवतामेवाष्टकान्तरमाह-'पासे'त्यादि व्यक्तं, किंतु 'पुरिसादाणीयस्स'त्ति परुषाणां स्थाना० सूत्र- मध्ये आदीयत इत्यादानीय उपादेय इत्यर्थः, गणा-एकक्रियावाचनानां साधूनां समुदायाः गणधरा-तन्नायका आ- उद्दशः ३ वृत्तिः चार्याः भगवतः सातिशयानन्तरशिष्याः, आवश्यके तूभयेऽपि दश श्रूयन्ते, "दस नवगं गणाण माण जिणिदाणं" दर्शनानि [देश नैव जिनेन्द्राणां गणानां मानं ॥] इति वचनात् 'जावइया जस्स गणा तावइया गणहरा तस्से'ति [यस्य या-18 उपमाद्वा॥४३०॥ वन्तो गणास्तावन्त एव गणधरास्तस्य ॥१॥] वचनाच, तदिहाल्पायुष्कत्वादिकं कारणमपेक्ष्य द्वयोरविवक्षणमिति सम्भाव्यते, न चाटस्थानकानुरोध इह समाधानं वक्तुं शक्यते, पर्युषणाकल्पेऽप्यष्टानामेवाभिधानादिति । गणध-18 | कृभूमिः राश्च दर्शनवन्त इति दर्शनं निरूपयन्नाह बीरराजअढविधे दंसणे पं० सं०-सम्मइसणे गिच्छईसणे सम्मामिच्छदसणे चक्खुदसणे जाव केवलसणे सुविणदसणे पयः (सू० ६१८) अट्ठविधे अद्धोवमिते पं० २०-पलितोवमे सागरोवमे उस्सप्पिणी ओस पिणी पोग्गलपरियढे तीतद्धा सू०६१८अणागतद्धा सम्बद्धा (सू० ६१९) अरहतो णं अरिट्टनेमिस्स जाब अट्ठमातो पुरिसजुगातो जुर्गतकरभूमी दुवासपरियाते अंतमकासी (सू० ६२०)। समणेणे भगवता महावीरेणं अट्ठ रायाणो मुंडे भवेत्ता भगारातो अणगारितं पन्चाविता, तं०-वीरंगव वीरजसे संजयएणिज्जते य रायरिसी । सेयसिवे उदायणे [तह संखे कासिबद्धणे ] (सू० ६२१) 'अहविहे दसणे इत्यादि कण्ठ्यं, केवलं स्वप्नदर्शनस्याचक्षुर्दर्शनान्तर्भावेऽपि सुप्तावस्थोपाधितो भेदो विवक्षित ॥४३०।। इति । सम्यग्दर्शनादेश्च स्थितिप्रमाणमौपम्याद्धया भवतीति तां प्ररूपयवाह-'अहविहे अद्धोवमिए' इत्यादि सुगम, दीप अनुक्रम [७२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~293~ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६२१] प्रत सूत्रांक [६२१] नवर औपम्यमुपमा पल्यसागररूपा तनधाना अद्धा-कालोऽद्धौपम्यं राजदन्तादिदर्शनात पल्येनोपमा यत्र काले परि-15 माणतः स पल्योपर्म, रूढितो नपुंसकलिङ्गता, एवं सागरोपमं, अवसर्पिण्यादीनां तु सागरोपमनिष्पन्नत्वादुपमाका-14 लत्वं भावनीय, समयादिस्तु शीर्षप्रहेलिकान्तः कालोऽनुपमाकाल इति । कालाधिकारादिदमपरमाह-'अरहओ इ-IN त्यादि, जाव अहमाउत्ति अष्टमं पुरुषयुगं-अष्टपुरुषकालं यावत् युगान्तकरभूमिः पुरुषलक्षणयुगापेक्षयाऽन्तकराणां&ाभवक्षयकारिणां भूमिः कालः सा आसीदिति, इदमुक्तं भवति-नेमिनाथस्य शिष्यप्रशिष्यक्रमेणाष्टी पुरुषान् यावन्निशर्वाणं गतवन्तो न परत इति, तथा पर्यायापेक्षयाऽप्यन्तकरभूमिः प्रसङ्गादुच्यते-'दुवास'त्ति द्विवर्षमाने केवलिपर्याये | नेमिनाथस्य जाते सति साधवो भवान्तमकाघुरिति । तीर्थकरवक्तव्यताधिकारादिदमाह-'समणेण'मित्यादि सुगम, नवरं 'भवित्त'त्ति अन्तर्भूतकारितार्थत्वात् मुण्डान भावयित्वेति दृश्य, 'वीरंगए' इत्यादि 'तह संखे कासितवद्धणए' इत्येवं चतुर्थपादे सति गाथा भवति, न चैवं दृश्यते पुस्तकेष्विति, एते च यथा प्रवाजितास्तथोच्यते, तत्र वीराङ्गको ४ वीरयशाः संजय इत्येते प्रतीताः, एणेयको गोत्रतः, स च केतकार्द्धजनपदश्वेतंबीनगरीराजस्य प्रदेशिनाम्नः श्रम णोपासकस्य निजका कश्चिद्राजर्षिः, तथा सेये आमलकल्पानगर्याः स्वामी, यस्यां हि सूर्यकाभो देवः सौधर्मात् देवलोकाद् भगवतो महावीरस्य वन्दनार्थमवततार नाव्यविधिं चोपदर्शयामास, यत्र च प्रदेशिराजचरितं भगवता प्रत्यपादीति, तथा शिवः हस्तिनागपुरराजो, यो ह्येकदा चिन्तयामास-अहमनुदिनं हिरण्यादिना वृद्धिमुपगच्छामि यतस्ततो ऽस्ति पुराकृतकर्मणां फलमतोऽधुनापि तदर्थमुद्यच्छामीति, ततो व्यवस्थाप्य राज्ये पुत्रं कृत्वोचितमखिलकर्त्तव्यं दि दीप अनुक्रम [७३२] % E aton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~294~ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६२१] प्रत सूत्रांक [६२१] श्रीस्थाना- प्रोक्षिततापसतया प्रवत्राज, ततः षष्ठषष्ठेन तपस्यतस्तथोचितमातापयतः परिशटितपत्रादिना पारयतो विभङ्गज्ञान-12 स्थाना. सूत्र- दामुपदे, तेन च विलोकयानकार सप्त द्वीपान् सप्त समुद्रानिाते, उत्पन्नं च मे दिव्यज्ञानमित्यवष्टम्भादागत्य नगरे बहुज-18 उद्देशः ३ वृत्तिः तानस्य यथोपलब्धं तत्त्वमुपदिदेश, तदा च तत्र भगवान् विजहार गौतमश्च भिक्षा भ्राम्यन् जनाच्छिवप्ररूपणां शुश्राव, दर्शनानि उपमाद्वा॥४३१॥ गत्वा च भगवन्तं प्रपच्छ, भगवांस्त्वसङ्ख्येयान द्वीपसमुद्रान् प्रज्ञापयामास, भगवढूचनं च जनात् श्रुत्वा शिवः शकाङ्कितः, ततस्तस्य विभङ्गः प्रतिपपात, ततोऽसौ भगवति जातभक्तिभगवत्समीपं जगाम, स भगवता प्रकटिताकूतो जा | नेम्यन्ततसर्वज्ञप्रत्ययः प्रवत्राज, एकादश 'चाङ्गानि पपाठ सिद्धश्चेति, तथा उदायनः सिन्धुसौवीरादीनां षोडशानां जनपदानां कृमिः वीतभयप्रमुखानां त्रयाणां त्रिषश्यधिकानां नगरशतानां दशानां च मुकुटबद्धानां राज्ञां स्वामी श्रमणोपासका, येन | वीरराजचण्डप्रद्योतमहाराज उज्जयनीं गत्वा उभयबलसमक्षं रणाङ्गणे रणकर्मकुशलेन करिवरगिरेनिंपात्य पद्धो मयूरपिच्छेन | ललाटपट्टे अङ्कित्तश्च, तथाऽभिजिन्नामानं स्नेहानुगतानुकम्पया राज्यगृद्धोऽयं मा दुर्गतिं यासीदिति भावयता स्वपुत्रं || दिसू०६१८राज्ये अव्यवस्थाप्य केशिनामानं च भागिनेयं राजानं विधाय महावीरसमीपे प्रवत्राज, यकदा तत्रैव नगरे विजहार, | उत्पन्नरोगश्च वैद्योपदेशाद्दधि युभुजे राज्यापहाराशङ्किना च केशिराजेन विषमिश्रदधिदापनेन पञ्चत्वं गमितः यद्गुणपक्षपातिन्या च कुपितदेवतया पाषाणवर्षेण कुम्भकारशय्यातरवर्ज सर्च तन्नगरं न्यपातीति, तथा शः काशीवर्द्धनो वाणारसीनगरीसम्बन्धिजनपदवृद्धिकर इत्यर्थः, अयं च न प्रतीतः, केवलमलकाभिधानो राजा वाराणस्यां भगवता प्र-४॥४३१॥ पथः दीप अनुक्रम [७३२] SamEaurat पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~295 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६२१] प्रत सूत्रांक [६२१] अबाजितोऽन्तकृदशासु श्रूयते स यदि परं नामान्तरेणायं भवतीति ॥ एते चाहारादौ मनोज्ञामनोज्ञे समवृत्तय इति प्रस्तावादाहारस्वरूपमाह अवविहे आहार पं० तं०-गणुण्णे असणे पाणे साइमे साइमे अमणुण्णे जाव साइमे (सु. ६२२) अपि सणकुमारमाहिंदाणं कपाणं हहि बंभलोगे कप्पे रिहविमाणे पत्थडे एत्य णमक्खाडगसमचरेससंठाणसंठितातो अg कणहरातीतो पं० त०-पुररिछगेणं दो कण्हरातीतो दाहिणेणं दो कण्हराइओ पञ्चच्छिमेणं दो कण्हराइनो उत्तरेण दो कण्हराइओ, पुरच्छिमा अन्तरा कण्हराती दाहिणं बाहिरं कण्हराई पुट्ठा, दाहिणा अभंतरा कहराती पञ्चमिछमगं बाहिरं कण्हराई पुढा, पञ्चच्छिमा अन्र्भतरा कण्हराती उत्तरं वाहिरं कण्हराई पुढा, उत्तरा अनंतरा कण्हराती पुरछिम बाहिर कण्हराती पुढा, पुरच्छिमपञ्चच्छिमिल्लाओ बाहिराओ दो कण्हरातीतो छलसातो, उत्तरदाधिणाओ बा. हिराओ यो कण्हरातीतो तसाओ, सव्वाओऽवि णं अभंतरकण्हरातीतो चउर्रसाओ १ एतासि णं अहण्हं कण्हरातीणं अट्ट नामधेजा पं० २०-कारातीति वा मेहरातीति वा मघाति वा माधवतीति वा वातफलिहेति वा वातपलिक्योभेति वा देवपलिहे या देवपलिक्खोमेति वा २ एतासि णं अटुण्डं कण्हरातीणं अहसु उवासंतरेसु भट्ट छोगतिसविमाणा पं० तं०-अची अधिमाली बतिरोभणे पभंकरे चंदामे सूराभे सुपइट्टाभे अग्गियामे ३ एतेनु णं अट्ठसु लोगंतितविमाणेसु अट्ठविधा लोगंतिता देवा पं० २०-सारसतमाइचा वण्ही वरुणा य गहतोया थ । तुसिता अन्यावाहा अग्गिया चेव बोद्धव्या ॥शा ४ एतेसि णमहण्हं लोगंतितदेवाणं अजहण्णमणुकोसेणं अहसागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ५ (सू०६२३) दीप अनुक्रम [७३२] ******************** Jamaicate File Form a t Lanummary: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~296~ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६२४] गाथा |||| दीप अनुक्रम [ ७३६ ] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ४३२ ॥ [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-], मूलं [६२४] + गाथा-१ स्थान [८], अ धम्मस्थिगतमपतेसा पं० अट्ट अधम्मत्विगात० एवं चैव अट्ठ आगासत्विगा० एवं चैव अट्ठ जीवमज्झपएसा पं० ( सू० ६२४ ) 'अवि' त्यादि सुगमं । आहारद्रव्याणि रसपरिणामविशेषथन्त्यमनोज्ञान्यनन्तरमुक्तान्यथ क्षेत्रविशेषान् पुद्गलगतवर्णपरिणाम विशेषव स्वेनामनोज्ञान् कृष्णराज्यभिधानान् प्रतिपादयन् सूत्रपञ्चकमाह - 'उपि' इत्यादि सुगमं, नवरं 'उपि'ति उपरि 'हेहिं'ति अधस्तात् ब्रह्मलोकस्य रिष्ठाख्यो विमानस्तस्तस्येति भावः, आखाटकवत्समं तुल्यं सर्वासु दिक्षु चतुरस्रं चतुष्कोणं यत्संस्थानं - आकारस्तेन संस्थिताः आखाटकसमचतुरस्र संस्थानसंस्थिताः कृष्णराजयः - कालकपुद्गलपङ्कयस्तयुक्त क्षेत्रविशेषा अपि तथोच्यन्त इति, यथा च ता व्यवस्थितास्तथा दश्यते - 'पुरच्छिमे णं ति पुरस्तात् पूर्वस्यां दिशीत्यर्थः, द्वे कृष्णराजी, एवमन्यास्वपि द्वे द्वे, तत्र प्राक्तनी यकाऽभ्यन्तरा कृष्णराजी सा दाक्षिणात्यां बाह्यां तां 'स्पृष्टा' सृष्टवती, एवं सर्वा अपि वाच्या, तथा पौरस्त्यपाश्चात्ये द्वे बाधे कृष्णराजी पडसे-पट्टोटिके औत्तरदाक्षिणात्ये द्वे वाह्ये कृष्णराज्यौ श्यसे सर्वाश्चतस्रोऽपीत्यर्थोऽभ्यन्तराश्चतुरस्राः, नामान्येव नामधेयानि, कृष्णराजी कृष्णपुद्गलपङ्क्तिरूपत्वाद् इतिरुपप्रदर्शने वा विकल्पे मेघराजीव या सा मेघराजीति चाभिधीयते कृष्णत्वात् तथा मघा पष्ठपृथिवी तद्वदतिकृष्णतया सा मघेति वा माघवती - सप्तमपृथिवी तद्वद्या सा माघवतीति वातपरिघादीनि तु तमस्कायसूत्रवज्याख्येयानीति । एतासामष्टानां कृष्णराजीनामष्टस्ववकाशान्तरेषु राजीद्वयमध्यलक्षणेष्वष्टौ ठोकान्तिकविमानानि भवन्ति, एतानि चैवं प्रज्ञश्यामुच्यन्ते - अभ्यन्तरपूर्वाया अग्रे अर्चिर्विमानं तत्र सारस्वता देवाः, Education tamational Far Far & Pra Use On ८ स्थाना० उद्देशः ३ आहारः कृष्णरा ज्याद्याः म पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र अत्र मूल- संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~297~ ध्यप्रदेशाः सू० ६२२ ६२४ ॥ ४३२ ॥ yog [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६२४] ॐॐ प्रत पूर्वी सूत्रांक [६२४] गाथा अर्चि पूर्वयोः कृष्णराज्योर्मध्ये अधिर्मालीविमाने आदित्या देवाः, अभ्यन्तरदक्षिणाया अग्रे वैरोचने विमाने वलयः, दक्षिणयोमामध्ये शुभरे विमाने वरुणा, अभ्यन्तरपश्चिमाया अग्रे चन्द्राभे गद्देतोयाः, अपरयोमध्ये सूराभे तुपिताः, अभ्यन्तरोत्तराया। अग्रे अकाभेऽव्यावाधार, उत्तरयोर्मध्ये सुप्रतिष्ठाभे आग्नेयाः, बहुमध्यभागे रिष्ठाभे विमाने रिष्ठा देवा इति, स्थापना चेयर 'अजहन्नुकोसेणं'ति जघन्यत्वोत्कर्षाभावेनेत्यर्थः, ब्रह्मलोके हि जघन्यतः सप्त सागरोपमाण्युत्कृष्टतस्तु दशेति लोकान्तिकानां त्वष्टाविति । कृष्णराजयो यू - अधिमीलि. लोकस्य मध्यभागवृत्तय इति धम्मोंदीनामपि मध्यभागवृत्तिकस्याष्टकचतुष्टयस्या | विष्करणाय सूत्रचतुष्टयं-'अट्ट धम्मे' त्यादि, स्फुटं, नवरं धर्माधर्माकाशानां वैरोचन मध्यप्रदेशास्ते ये रुचकरूपा इति, जीवस्यापि केवलिसमुद्घाते रुचकस्था एव ते अन्यदा त्वष्टावविचला ये ते मध्यप्रदेशाः, शेषास्त्वावर्त्तमानजलमिवानवरतमुद्वर्तनपरिवर्तनपरास्तत्स्वभाषाये ते अमध्यप्रदेशा इति । जीवमध्यप्रदेशादिप-1|| दार्थप्रतिपादकास्तीर्थकरा भवन्तीति प्रकृताध्ययनावतारिणी तीर्थङ्करवक्तव्यता सूत्रद्वयेनाहअरहता णं महापउमे अट्ठ रायाणो मुंडा भवित्ता अगारातो अणगारित पठवावेस्सति, तं०-पउभं पउमगुम्म नलिणं नलिन इतरा ACCES दमप्रतिष्टामय ||१|| ५चन्द्राम ETHE धवराम दीप अनुक्रम [७३६] Et पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~298~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६२५] प्रत सूत्रांक [६२५] श्रीस्थानागुम्मै परमततं धणुद्धतं कणगरहं भरहं १ (सू० ६२५) कण्हस गं वासुदेवस्स अट्ट अम्गमहिसीओ भरहतो णं अरिठ्ठ ८स्थाना० सूत्र नेमिस्स अंतिते मुंडा भवेता अगारातो अणगारितं पश्यतिता सिद्धाओ जाव सम्बदुक्सप्पहीणाओ,०-पउमावती | उद्देशः३ वृत्तिः गोरी गंधारी लक्खणा सुसीमा जंववती सच्चभामा रुप्पिणी कण्हअग्गमहिसीओ २ (सू० ६२६) वीरितपुवस्स णं अट्ठ | महापद्मचत्थू अह चूलिआवत्थू पं० (सू०६२७) | राजर्षया' .॥४३३॥ NI 'अरहा 'मित्यादि सुगम, नवरं 'महापउमें त्ति महापद्मो भविष्यदुत्सर्पिण्यां प्रथमतीर्थकरः श्रेणिकराजजीव इति सिद्धकृ इहैव नवस्थानके वक्ष्यमाणव्यतिकर इति, 'मुंडा भवित्त'त्ति मुण्डान् भावयित्वेति । कृष्णाग्रमहिषीवक्तव्यता त्वन्त- ष्णाग्रमकृशाङ्गादवसेवा, सा चेयं-किल द्वारकावत्यां कृष्णो वासुदेवो बभूव, पद्मावत्यादिकास्तस्य भार्या अभूवन , अरिष्ठ-टू हिष्यः वीनेमिस्तत्र विहरति स्म, कृष्णः सपरिवारः पद्मावतीप्रमुखाश्च देव्यो भगवन्तं पर्युपासासिरे, भगवांस्तु तेषां धर्ममाचख्यौ, यप्रवादवततः कृष्णो वन्दित्वाऽभ्यधात्-अस्या भदन्त! द्वारकावत्या द्वादशनवयोजनायामविस्ताराया धनपतिनिर्मितायाः प्र- स्त्वाद्याः |त्यक्षदेवलोकभूतायाः किंमूलको विनाशो भविष्यति?, भगवान् त्रिभुवनगुरुर्जगाद-सुराग्निद्वीपायनमुनिमूलको विनाशो का विनाशासू०६२५भविष्यतीति निशम्य मधुमथनो मनस्येवं विभाषितवान्-धन्यास्ते प्रद्युम्नादयो ये निष्क्रान्ताः अहमधन्यो भोगमूच्छितो ६२७ /न शक्नोमि प्रबजितुमिति, ततस्तमहनवादी-भोः! कृष्ण न भवत्ययमों यद्वासुदेवाः प्रवजन्ति, कृतनिदानत्वात्तेषां,131 अथाह भदन्त ! कोत्सत्स्ये?, भुवनविभुराह-दग्धायां पुरि पाण्डुमथुरां प्रति चलितः कौशाम्बकानने न्यग्रोधस्याधः X ॥४३३॥ सुप्तो जराकुमाराभिधानभात्रा काण्डेन पादे विद्धः कालं कृत्वा वालुकप्रभायामुत्पत्स्यसे, एवं निशम्य यदुनन्दनो दीन PERHARॐॐ दीप अनुक्रम [७३७] SamEaucatunintimational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~299~ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६२७] प्रत सूत्रांक [६२७] 5 मनोवृत्तिरभवत्, ततो जगद्गुरुरगादीत-मा दैन्यं ब्रज यतस्ततस्त्वमुद्त्याऽऽगामिन्यामुत्सर्पिण्या भारते वर्षेऽममाभिधानो द्वादशोऽर्हन् भविष्यसीति श्रुत्वा जहर्ष सिंहनादादि च चकार, ततो जनाईनो नगरी गत्वा घोषणां कारयाशकार यदु ताहता नेमिनाथेनास्या नगर्या विनाशः समादिष्टस्ततो यः कोऽपि तत्समीपे प्रनजति तस्याहं निष्क्रमणमहिमानं वितनो18|मीति निशम्य पद्मावतीप्रभृतिका देव्योऽवादिषुः-वयं युष्माभिरनुज्ञाताः प्रजजामा, ततस्ता महान्तं निष्क्रमणमहिमानं कृत्वा नेमिजिननायकस्य शिष्यिकात्वेन दत्तवान् , भगवांस्तु ताः प्रवाजितवान्, ताश्च विंशतिवर्षाणि प्रत्रग्यापर्याय परिपाल्य मासिक्या संलेखनया परमोच्छासनिःश्वासाभ्यां सिद्धा इति । एताश्च सिद्धा वीर्यादिति वीर्याभिधायिनः पू स्य स्वरूपमाह-वीरियपु'त्यादि, वीर्यप्रवादास्यस्य तृतीयपूर्वस्य वस्तूनि-मूलवस्तूनि अध्ययनविशेषा आचारे दिनचर्याध्ययनवत् चूलावस्तूनि त्वाचाराप्रवदिति ॥ वस्तुवीयोदेव गतयोऽपि भवन्तीति ता दर्शयन्नाह भट्ट गतितो पं० २०-णिरतगती तिरियगई जाव सिद्धिगती गुरुगती पणोलणगती पन्भारगती (सू० ६२८) गंगासिंधुरत्तारतपतिदेवीण दीवा अट्ट २ जोयणाई आयामविक्खंभेणं पं० (सू० ६२९) उकामुहमेहमुहविजुमुह विजुवंतदीवाणं दीषा अट्ठ २.जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं पं० (सू० ६३०) कालोते णं समुद्दे अह जोयणसयसहस्साई धकावालविक्रमेण पन्नत्ते (सू०६३१) अम्भतरपुक्खरहे णं अट्ठ जोयणसयसहस्साई चकवालविक्खंभेणं पं०, एवं वाहिन खुक्खरजेवि (सू० ६३२) एगमेगस्स णं रनो चाचरंतचकवट्टिस्स अट्टसोवन्निते काकिणिरयणे उत्सले दुवालसंसिते अट्ठकणिते अधिकरणिसंठिते पं० (सू०६३३) मागभरस जोयणस्स अट्ट धणुसहस्साई निधत्ते पं० (सू०६३४) स्था०७३ दीप अनुक्रम [७३९] CROSS पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~300~ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६३४] PawantIR न C सत्र प्रत त्ति सूत्रांक ॥४३४॥ [६३४] 'अट्ठ-गईओं इत्यादि, सुगम, नवरं 'गुरुगइति भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य गोरवेण-ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्गमनस्वभावेन स्थाना. या परमावादीनां स्वभावतो गतिः सा गुरुगतिरिति, या तु परप्रेरणात् सा प्रणोदनगतिर्वाणादीनामिव, या तु द्रव्यान्त-IX| उद्देश:३ राकान्तस्य सा प्राग्भारगतिथा नावादेरधोगतिरिति । अनन्तरं गतिरुक्तेति गतिमतीनां गङ्गादिनदीनामधिष्ठातृदेवीद्वी- गतिगंगापस्वरूपमाह-'गंगे'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं गङ्गाद्या भरतैरवतनद्यस्तदधिष्ठातृदेवीनां निवासद्वीपा गङ्गादिप्रपातकुण्ड- दिद्वीपामध्यवर्तिनः। द्वीपाधिकारादन्तरद्वीपसूत्र, तत एव द्वीपवतः कालोदसमुद्रस्य प्रमाणसूत्र, तदनन्तरभाविनः पुष्करा- तरद्वीप. भ्यन्तरार्द्धस्य बाह्यार्द्धस्य च सूत्रे, सुगमानि चैतानि, नवरमुल्कामुखमेधमुख विद्युन्मुखविद्युदन्तशन्देषु प्रत्येकं द्वीप- कालोद शब्दः सम्बध्यते, ततश्चोल्कामुखद्वीपादयो णमित्यलकारे द्वीपा हिमवतः शिखरिणश्च वर्षधरपर्वतस्य पूर्वयोर्दष्ट्रयो- | पुष्करार्धपरपरयोश्च सप्तानां सप्तानामन्तरद्वीपानां मध्ये पष्ठोऽन्तरद्वीपः अष्टावष्टौ योजनशतानि आयामविष्कम्भेन प्रज्ञप्तःकाकणी पुष्कराः च चक्रिणो भवन्तीति तत्सत्करत्नविशेषस्याष्ट स्थानकेऽवतारं कुर्वन्नाह-एगमेगे' इत्यादि, एकैकस्य राज- योजनानि श्चतुरन्तचक्रवर्तिन इत्यत्रान्यान्यकालोपन्नानामपि तुल्यकाकणीरत्नप्रतिपादनार्थमेकैकग्रहणं निरुपचरितराजशब्द- सू०१२८विषयज्ञापनार्थ राजग्रहणं षट्खण्डभरतादिभोक्तृत्वप्रतिपादनार्थ चतुरन्तचक्रवर्तिग्रहणमिति, अष्टसीवर्णिकं काफ-1XI ६३४ |णिरत्नं, सुवर्णमानं तु चत्वारि मधुरतृणफलान्येका श्वेतसर्पपः षोडश श्वेतसर्षपा एक धाग्यमापकफलं दे धान्यमाषफले एका गुजा पश्च गुञ्जाः एकः कर्ममापकः षोडश कर्ममाषकाः एकः सुवर्णः, एतानि च मधुरतणफलादीनि भर- 5lu ४३४॥ तकालभावीनि गृह्यन्ते, यतः सर्वचक्रवर्तिनां तुल्यमेव काकणिरत्नमिति, पतलं द्वादशानि अष्टकर्णिकं अधिकरणीसं-15 दीप अनुक्रम [७४६] %5%85%54545 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~301~ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६३४] प्रत सूत्रांक [६३४] स्थित प्रज्ञप्तमिति, तन्न तलानि-मध्यस्खण्डानि अश्रयः-कोव्यः कर्णिकाः-कोणविभागाः अधिकरणिक-सुवर्णकारोपकरणं प्रतीतमेवेति, इदश्च चतुरङ्गुलप्रमाणं 'चउरंगुलप्पमाणा सुवन्नवरकागणी नेय'त्ति वचनादिति । अङ्गुलप्रमाणनिष्पन्नं योजनमानमाह-मागहे त्यादि, मगधेषु भवं मागधं-मगधदेशव्यवहतं तस्य योजनस्य-अध्वमानविशेषस्याष्ट धनुःसह-४ स्राणि निहारो निर्गमः प्रमाणमितियावत् 'निहते'त्ति क्वचिसाठः तत्र निध-निकाचितं निश्चितं प्रमाणमिति ग-8 म्यते, इदं च प्रमाणं परमाण्वादिना क्रमेणावसेयं, तथाहि-"परमाणू तसरेणू रहरेणू अग्गय च वालस्स । लिक्खा जया |य जवो अद्वगुणविवद्धिया कमसो ॥१॥"[परमाणुखसरेणू रथरेणुलस्यानं च लिक्षा यूका च यवोऽष्टगुणविवर्द्धिताः क्रमशः॥१॥] तत्र परमाणुरनन्तानां निश्चयपरमाणूनां समुदयरूपः, ऊर्वरेण्वादि(उत्श्लक्ष्मणश्लक्ष्णिका)भेदा| अनुयोगद्वाराभिहिता अनेनैव सङ्गहीता दृश्या, तथा पौरस्त्यादिवायुप्रेरितखस्यति-छतीति प्रसरेणुः, रथगमनोत्खातो रथरेणुरिति, एवं चाष्टौ यवमध्यान्यंगुलं, चतुर्विंशतिरंगुलानि हस्तः, चत्वारो हस्ता धनुः, द्वे सहस्र धनुषां गव्यूतं, चत्वारि गव्यूतानि योजनमिति, मागधग्रहणात् क्वचिदन्यदपि योजनं स्यादिति प्रतिपादितं, तत्र यस्मिन् देशे षोडश|भिर्धन शतैर्गव्यूतं स्यात्तत्र पद्भिः सहस्त्रैश्चतुर्भिः शतधनुषां योजनं भवतीति ॥ योजनप्रमाणमभिधायाष्टयोजनतो जम्ब्वादीनां प्रमाणप्रतिपादनाय सूत्रचतुष्टयमाह जंपू णं सुदंसणा अट्ठ जोषणाई उद्धं उत्तेणं बहुमज्झदेसभाए अट्ट जोयणाई विक्खंभेणं सातिरेगाई अट्ठ जोयणाई सव्यगगेणं पं०१, कूडसामली णं अह जोयणाई एवं चेव २ (सू०६३५) तिमिसगुहा णमट्ठ जोयणाई उद्धं उत्तेणं ३ खंडप्पया दीप अनुक्रम [७४६] 24 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~302~ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६३६-६४४] + गाथा: + श्रीस्थानासूत्र + ॐ *SASSASSASAK* प्रत सूत्रांक [६३५-६४४] ८ स्थाना० उद्देशः३ जम्बूगुहावक्षारनगरी अर्हदादिदीर्घबै ॥४३५॥ ताब्यचू तगुहा गं बह जोषणाई उद्धं उच्चत्तेणं एवं चेव ४ (सू० ६३६) जंबूमंदरस्स पच्चयस्स पुरछिमेणं सीताते महानतीते समतोफूले भट्ट बक्खारपब्वया पं०, ०-चित्तकूडे पम्हकूढे नलिणकूडे एगसेले तिकूडे वेसमणकूडे अंजणे मायंजणे १। जंघूमंदरपचपिछमेणं सीतोताते महानतीते नभतोफूले अट्ठ वक्खारपव्यता पं० २०-अंकाक्ती पम्हावती आसीविसे सुहावहे चंदपवते सूरपब्वते णागपब्बते देवपव्वते २ । जंबूमंदरपुरच्छिमेणं सीताते महानतीते उत्तरेणं अट्ट पकवट्टिविजया पं० २०-कच्छे सुकच्छे महाकच्छे कच्छगावती आवत्ते जाव पुक्सलावती ३, जंवूमंदरपुरच्छिमेणं सीताते महानतीते दाहिणेणमट्ट चक्कट्टिविजया पं० सं०-वच्छे सुवच्छे जाव मंगलावती ४, जंबूमंदरपवच्छिमेण सीतोतामहानदीते दाहिणेणं अट्ठ चकवट्टिविजया पं० सं०-पम्हे जाव सलिलावती ५, जंबूमंदरपचरिथमेणं सीतोताप महानदीए उत्तरेणं भट्ट पकवट्टिविजया पं० २०-चप्पे सुवप्पे जाच गंघिळावती ६ । बूमंदरपुरच्छिमेणं सीताते महानतीते उत्तरेणमट्ठ रायहाणीतो पं० सं०-खेमा खेमपुरी चेव जाव पुंडरीगिणी ७, जंबूमंदरपुर० सीताए महाणईए दाहिणेणं अट्ट रायहाणीतो पं० ०-मुसीमा कुंडला चेव जाव रयणसंचया ८, जंबूमंदरपञ्चच्छिमेणं सीओदाते महाणदीते दाहिणेणं अट्ट रायहाणीभो पं० २०-आसपुरा जाव बीतसोगा ९, जंचूमंदरपत्र० सीतोताते महानतीते उत्तरेणमट्ठ रायहाणीजो पं० सं०-विजया बेजयंती जाव अडज्मा १० (सू० ६३७) जंबूमंदरपुर० सीताते महाणदीए उत्तरेणं नकोसपए भट्ठ परहंता भट्ट चावट्टी भट्ठ बलदेवा अट्ठ वासुदेवा तप्पजिसु वा उपजंति वा उप्पजिस्संति वा ११, जंबूमंदरपुरच्छि० मीताए दाहिणेणं सकोसपए एवं चेव १२ जंबूमंदरपञ्चस्थित सीओयाते महाणदीए पाहिजेणं नको लिकादि दीप म्हस्तिकूटकल्पादि, सू०६३५६४४ अनुक्रम [७४६-७८१] ***** SESSI Fit For पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~303~ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६३६-६४४] + गाथा: + + 4 प्रत CERSARO सूत्रांक [६३५-६४४] सपए एवं चेव १३, एवं उत्तरेणवि १४ (सू०६३८) जंबूमंदरपुर० सीताते महानईए उत्तरेणं अट्र दीहवेयडा अट्ट तिमिसगुहाओ अट्ठ खंडगप्पवातगुहा अट्ठ कयमालगा देवा अट्ठ णट्टमालगा देवा अट्ठ गंगाकुंडा अट्ठ सिंधुकुंडा अट्ठ गंगातो अट्ठ सिंधूओ अट्ठ उसभकूडा पब्बता अह उसभकूडा देवा पं०१५, जंवूमंदरपुरच्छिमेणं सीताते महानतीते दाहिणणं अट्ठ दीहवेलडा एवं व जाव अह उसभकूडा देवा पं०, नवरमेत्य रत्तारत्तावतीतो तासिं चेव कुंडा १६, जंबूमंदरपवच्छिमे णं सीतोताए महानदीते दाहिणेणं अट्ट दीहवेयडा जाव अट्ठ नट्टमालगा देवा अट्ठ गंगाकुंडा अट्ट सिंधुकुंडा अट्ठ गंगातो अह सिंधूभो अट्ठ सभकूडपब्वता अट्ठ सभकूहा देवा पण्णत्ता १७, जंबूमंदरपञ्चत्थि० सीओताते महानतीते उत्सरेणं बाह दीहवेयडा जाव अट्ट नट्टमालगा देवा अट्ट रत्तकुंदा अट्ट रत्तावतिकुंडा भट्ट रचाओ जाव अह उसभकूडा देवा पं० १८ (सू०६३९) मंदरचूलिया णं बहुमझदेसभाते अढ जोयणाई विक्खंभेणं पं० १९ (सू० ६४०) धायइसंखदीवे पुरस्थिमश्रेणं धायतिरुक्खे अह जोयणाई नहुं चश्चत्तेणं ५० बहुमज्झदेसभाए अह जोयणाई विक्खंभेणं साइरेगाई मह जोयणाई सम्बग्गेण पं० एवं धायहरुक्खातो आढवेत्ता सञ्चेव जंबूदीववत्तव्वता भाणियब्वा जाव मंदरचूलियत्ति एवं पत्रछिमद्धेवि महाधाततिरुक्खातो आढवेत्ता जाव मंदरचूलियत्ति एवं पुक्सरवरदीवपुरच्छिमद्धेवि पउमरुक्थाओ आढवेत्ता जाप मंदरपूलियत्ति एवं पुक्खरखरदीवपश्चत्थि० महापत्तमरुक्खातो जाव मंदरचूलितत्ति (सू०६४१) जंधूदीवे २ मंदरे पग्बते भासालवणे मह दिसाहत्यिकूहा पं० सं०-पचमुत्तर नीलवंते सुहत्थि अंजणागिरी कुमुते य । पलासते वडिंसे (भट्ठमए) रोयणागिरी ।।१॥१जंबूदीवस्स णे दीवस्स जगती अह जोयणाई पई नचचेण बहुमजादेसभाते अजोयणाई दीप अनुक्रम [७४६-७८१] KA पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~304~ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६३६-६४४] + गाथा: श्रीस्थानाअसूनवृत्तिः ८ स्थाना० | उद्देशः३ जम्बूगुहावक्षारनग|री अर्हदा प्रत सूत्रांक [६३५-६४४] ॥४३६॥ | दिदीप विक्वंभेणं २ (सू० ६४२)जंबूदीचे २ मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं महाहिमवंते वासहरपवते अह कूडा 00-- सिद्धे महहिमवंते हिमते रोहित्ता हरीकूढे । हरिकंता हरिवासे वेरुलिते चेव कूडा उ ॥ १॥३ मंयूमंदरउत्तरेणं रुपिमि वासहरपब्क्ते अट्ट कूदा पं० २०-सिद्धे य रुप्पी रम्मग नरकंता बुद्धि रुप्पकूडे था । हिरण्णवते मणिकंचणे त कम्पिमि कूडा उ ॥१॥ ४ जंघूमंदरपुरच्छिमेणं स्वगवरे पन्वते अट्ठ कूडा पं० त०-रिटे तवणिज कंचण रयत विसासोधिने पलंबे य । अंजण अंजणपुलते रुयगस्स पुरच्छिमे कूदा ॥ १।१ सत्थ णं अह दिसाकुमारिमहत्तस्तिानो महिडियाको भाव पलिओवमहितीताचो परिवसंति तं०-णंदुत्तरा व गंदा, आणंदा दिवद्धणा । विजया व वेजयंती, जयंती अपराजिया ॥ १ ॥ २ घूमंदरवाहिणेणं रुतगवरे पन्वते अट्ठ कूडा पं० सं०-कणते कंचणे पउमे नलिणे ससि दिवायरे येव । बेसमणे बेकलिते स्यगन्स र दाहिणे कूठा ॥१॥३ बत्थ णं अह दिसाकुमारिमहत्तरियातो महिडियावो जाब पलिभोवमहितीतातो परिवसति तं- समाहारा सुप्पतिण्णा, सुष्पबुद्धा जसोहरा । लकिछवती सेसवती, चित्तगुत्ता बर्मूधरा ॥ १॥ ४ जंबूमंदरपञ्च० रुयगबरे पवते अट्ठ कूडा पं० २०-सोस्थिते त अमोहे य, हिमवं मंदरे तहा । कमको सतगुत्तमे चंदे, अहमे त सुदसणे॥१॥ ५ तत्थ णमट्ट दिसाकुमारिमहत्तरियाओ महिडियातो जाव पलिओवमद्वितीतातो परिवसंति तं०-इलादेवी सुरादेवी, पुढवी पउमावती । एगनासा गवमिता, सीता भद्दा त अटुमा ।। १॥ ६ जंबूमंदरउत्तरमावरे पब्बते अट्ठ कूडा पं० २०-रसणे स्यणुश्चते ता, सब्बरवण खणसंचते येव । विजये य विजयते जयंते अपराजिते ॥ १॥ ७ तत्थ णं अट्ठ दिसाकुमारिमहत्तरियातो महड़िताओ जाव पलिभोनमद्वितीतामओ परिवसंति | ताब्यलिकादिन दीप | म्हस्तिकूटकल्पादि, सू०६३५६४४ अनुक्रम [७४६-७८१] ॥ ४३६ ॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~305~ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६३६-६४४] + गाथा: प्रत सूत्रांक [६३५-६४४] 40545*55 २०-अलंबुसा मितकेसी पोंडर गीतवारुणी । आसा य सञ्चगा चेव, सिरी हिरी व उत्तरतो ॥१॥ ८ अट्ठ महेलोगवत्थब्यातो दिसाकुमारिमहत्तरितातो पं० २०-मोगकरा भोगवती, सुभोगा भोगमालिणी । सुवच्छा वच्छमित्ता य, वारिसेणा बलाहगा ॥१॥१ अह उसृलोगवत्थव्वाओ दिसाकुमारिमहत्तरितातो पं० २०–ोघंकरा मेधवती, सुमेघा मेघमालिणी । तोयधारा विचित्ता य, पुष्फमाला अणिदिता ॥१॥२ (सू० ६४३) अट्ठ कंप्पा तिरित्तमिस्सोववन्नगा पं० २०-सोहम्मे जाव सहस्सारे ३, एतेसु णमट्ठसु कप्पेसु अट्ठ इंदा पं० तं०-सके जाव सहस्सारे ४, एतेसि णं अवहमिदाणं अट्ठ परियाणिया विमाणा पं० २०-पालते पुष्फते सोमणसे सिरिवच्छे गंदावते कामकमे पीतिमणे विमले ५ (सू० ६४४ 'जंबू ण'मित्यादि, जम्बूः-वृक्षविशेषस्तदाकारा सर्वरलमयी या सा जम्बूर, यया अयं जम्बूद्वीपोऽभिधीयते, सुदर्श-| नेति तस्या नाम, सा चोत्तरकुरूणां पूर्वाद्धे शीताया महानद्याः पूर्वेण जाम्बूनदमययोजनशतपञ्चकायामविष्कम्भस्य द्वादशयोजनमध्यभागपिण्डस्य क्रमपरिहाणितो द्विगन्यूतोच्छ्रितपर्यन्तस्य द्विगव्यूतोच्छ्रितपञ्चधनु शतविस्तीर्णपद्मवरवेदिकापरिक्षिप्तस्य द्विगन्यूतोच्छ्रितसच्छत्रतोरणचतुरस्य पीठस्य मध्यभागव्यवस्थितायां चतुर्योजनोच्छ्रितायामष्टयोजनायामविष्कम्भायां मणिपीठिकायां प्रतिष्ठिता द्वादशवेदिकागुप्ता, 'अह जोयणाईमित्यादि अष्ट योजनान्यूर्वोच्चत्वेन बहुमध्यदेशभागे-शाखाविस्तारदेशे अष्ट योजनानि विष्कम्भेण सातिरेकाणि-अतिरेकयुक्तान्युद्वेधगम्यूतिद्वयेनाधिकानीति भावः सब्बांग्रेण-सर्वपरिमाणेनेति, तस्याश्च चतस्रः पूर्वादिदिक्षु शाखाः, तत्र पूर्वशाखायां "भवर्ण कोसपमाण सयणिज्ज दीप A 4 % अनुक्रम [७४६ -७८१] A8 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~306~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६३५ -६४४] दीप अनुक्रम [७४६ -७८१] श्रीस्थानाझसूत्रवृत्तिः ॥ ४३७ ॥ [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ (मूलं + वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-] मूलं [६३६-६४४] + गाथा: + तत्थऽणाढियसुरस्स | तिसु पासाया सासु तेसु सीहासणा रम्मा ॥१॥ ते पासाया कोर्ससमूसिया कोसमद्धविच्छिन्ना | विडिमोवरि जिणभवणं कोसद्धं होइ विच्छिन्नं ॥ २ ॥ देसूणकोसमुचं जंबू अट्ठस्सएण जंबूर्ण । परिवारिया विराय तत्तो अप्पमाणाहिं ॥ ३ ॥ [भवनं क्रोशप्रमाणं शयनीयं तत्रानादृतसुरस्य । त्रिषु शालेषु प्रासादाः तेषु सिंहासनानि रम्याणि ॥ १ ॥ ते प्रासादाः कोशसमुच्छ्रिता अर्धक्रोशविस्तीर्णाः विडिमोपरि जिनभवनं क्रोशार्द्धविस्तीर्ण भवति ॥ २ ॥ देशोनकोशोचं जंबूनामष्टशतेन परिवृता जंबूर्विराजते ततोऽर्धप्रमाणाभिः ॥ ३ ॥ ] तथा त्रिभिर्योजनशतप्रमागैर्वनैः संपरिक्षिप्ता - "जंबूओ पन्नासं दिसि विदिसिं गंतु पढम वणसंडं । चउरो दिसासु भवणा विदिसासु य होंति पा साया ॥ १ ॥ कोसपमाणा भवणा चढवावी परिगया य पासाया । कोसद्धवित्थरा कोसमूसियाऽणाढियसुरस्य ॥ २ ॥ पंचेव धणुसयाई ओवेहेणं हवंति बाबीओ। कोसद्धवित्थडाओ कोसायामाउ सब्वाउ ॥ ३ ॥ इति “पासायाण चण् भवणाण य अंतरे कूडा ॥” [जंबूतः पंचाशदिक्षु विदिक्षु गत्वा प्रथमवनखंडं चतसृषु दिक्षु चत्वारि भवनानि विदिक्षु प्रासादाच भवन्ति ॥ १ ॥ क्रोशप्रमाणानि भवनानि चतुर्वापीपरिगताश्च प्रासादाः क्रोशार्द्ध विस्तराः क्रोशोच्छ्रिताः अनादतसुरस्य ॥ २ ॥ वाप्यः उद्वेधेन पंचधनुःशतानि भवंति कोशार्धविस्तृताः क्रोशायामा एव सर्वाः ॥ ३ ॥ चतुर्णां प्रासादानां भवनानां चान्तरे कूटाः ॥ ] तानि चाष्टौ यदाह – “अडुसभकूडतुला सब्बे जंबूणयामया भणिया । तेसुवरिं जिणभवणा कोसपमाणा परमरम्मा ॥ १ ॥” इति [ ऋषभकूटतुस्या अष्टौ सर्वे जांबूनदमया भणिताः तेषामुपरि जिनभव| नानि क्रोशप्रमाणानि परमरम्याणि ॥ १ ॥ ] कूटशाल्मली जम्बूतुल्यवक्तव्यता, यदाह - "देवकुरुपच्छिम गरुतावासस्स Far For Privas Use On ८ स्थाना० उद्देशः ३ जम्बूगुहावक्षारनग री अर्हदादिदीर्घवे ~307~ ताढ्यचू लिकादि हस्तिकूटकल्पादि सू० ६३५६४४ ॥ ४३७ ॥ anuray.com पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६३६-६४४] + गाथा: कमवा प्रत सूत्रांक [६३५-६४४] सामलिदुमरस । एसेव गमो नवरं पेढं कूडा य रययमया ॥१॥" इति [देवकुरुपश्चिमा. गरुडावासस्य शाल्मलिद्धट्रमस्य एष एव गमो नवरं पीठं कूटाश्च रजतमया ॥१॥] अत एव एवं चेवे'त्युक्त, गुहासूत्रे व्यक्के । जम्ब्वादीनि च | वस्तूनि जम्बूद्वीपे भवन्तीति जम्बूद्वीपाधिकारात्तगतवस्तुप्ररूपणाय क्षेत्रसाधाद् धातकीखण्डपुष्करार्द्धगतवस्तुप्ररू-1 पणाय च जम्बू इत्यादिक सूत्रप्रपञ्चमाह-सूत्रसिद्धश्चार्य, नवरं सूत्राणामयं विभागो-वे आद्ये वक्षस्काराणां २ चत्वारि |च प्रत्येक विजयनगरीतीर्थकारादिदीपवैतान्यादीना १८ मेकं चूलिकायाः १९, एवं धातकीपंडादौ धातक्यादिसूत्रपू-टू ण्येतान्येव द्विद्धिर्भवन्तीति, तथा मालवच्छैल मेरोः पूर्वोत्तरविदिग्व्यवस्थित लक्षणीकृत्य प्रदक्षिणया वक्षारा विजयाश्च व्यवस्थाप्यन्त इति, तत्र चक्रवर्तिनो विजयन्ते येषु यान् वा ते चक्रवर्तिविजया:-क्षेत्रविभागा इति, 'जाव पु क्खलावई'त्ति भणनात् 'मंगलायत्ते पुक्खले'त्ति द्रष्टव्यं, 'जाव मंगलावई'त्तिकरणात् 'महावच्छे बच्छावई रम्मे रम्मए है रमणिज्जे' इति दृश्य, 'जाव सलिलावईत्तिकरणात् 'सुपम्हे महापम्हे पम्हावई संखे नलिणे कुमुए'त्ति दृश्य, 'जाव गं घिलावई'त्तिकरणात् 'महावप्पे वप्पाबई वग्गू सुवग्गू गंधिले'त्ति दृश्यं 'खेमपुरा चेव जाव'त्तिकरणात् 'अरिठ्ठा रिहावई खग्गी मंजूसा उसहपुरी'ति दृश्य, 'सुसीमा कुण्डला चेव जावत्तिकरणात् 'अपराजिया पहंकरा अंकावई पम्हावई सुभा', इति दृश्यं, 'आसपुरा जाव'त्तिकरणात् 'सीहपुरा महापुरा विजयपुरा अवराजिया अवरा असोग'त्ति दृश्य, वैजयन्ती जावत्तिकरणात् 'जयन्ती अवराजिया चक्कपुरा खग्गपुरा अवज्झत्ति दृश्य, एताश्च क्षेमादिराजधान्यः कच्छादिविज-| यानां शीतादिनदीसमासन्नखण्डनयमध्यमखण्डे भवंति नवयोजनविस्तारा द्वादशयोजनायामाः। मासु च तीर्थकरा दीप अनुक्रम [७४६-७८१] Et पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~308~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६३६-६४४] + गाथा: श्रीस्थानाअसूत्रवृत्तिः ॥४३८॥ प्रत सूत्रांक [६३५-६४४] दयो भवन्तीति 'अट्ठ अरहंत'त्ति उत्कृष्टतोऽष्टावर्हन्तो भषम्तीति, प्रत्येक विजयेषु भावात् , एवं चक्रवादयोऽपि, स्थाना. एवं च चतुष्यपि महानदीकुलेषु द्वात्रिंशत्तीर्थकरा भवन्तीति, चक्रवर्जिनस्तु यद्यपि शीताशीतोदानधोरेकैकस्मिन् उद्देशः ३ कूले अष्टावष्टावुत्पद्यन्त इत्युच्यते तथापि सर्वविजयापेक्षया नैकदा ते द्वात्रिंशद्भवन्ति, जघन्यतोऽपि वासुदेवचतुष्टया- जम्बूगुहाविरहितत्वान्महाविदेहस्य, यत्र च वासुदेवस्तत्र चक्रवर्ती न भवतीति, तस्मादुत्कृष्टतोऽप्यष्टाविंशतिरेव चक्रवर्तिनो वक्षारनग भवन्ति, एवं जघन्यतोऽपि चक्रवर्तिचतुष्टयसम्भवाद्वासुदेवा अप्यष्टाविंशतिरेव, यासुदेवसहचरत्वाद्बलदेवा अप्येव- री अर्हदामामिति । 'दीहवेय'त्ति दीर्घग्रहणं वर्तुलवैताळ्यव्यवच्छेदार्थ, गुहाष्टकयोर्यथाक्रम देवाष्टके इति, गङ्गाकुण्डानि नी-12 | दिदीर्घवै लववर्षधरपर्वतदक्षिणनितम्बस्थितानि पष्टियोजनायामविष्कम्भाणि मध्यवर्तिगङ्गादेवीसभवनद्वीपानि त्रिदिक्सतो-४ | ताड्यचूरणद्वाराणि येभ्यः प्रत्येकं दक्षिणतोरणेन गङ्गा विनिर्गत्य विजयानि विभजन्त्यो भरतगङ्गावच्छीतामनुप्रविशन्तीति,&ालिकादिएवं सिन्धुकुण्डान्यपि । 'अट्ट उसभकूट'त्ति अष्टौ ऋषभकूटपर्वता अष्टास्वपि विजयेषु सद्भावात् ते च वर्षधरपवारहस्तिकूटतप्रत्यासन्ना म्लेच्छखण्डत्रयमध्यखण्डवर्तिनः सर्वविजयभरतैरवतेषु भवन्ति, तत्प्रमाणं चेदम्-"सब्वेवि उसभकूडाकस्पादि, उम्बिद्धा अढ जोयणा होति । वारस अट्ट य चउरो मूले मज्नुवरि विच्छिन्ना ॥१॥"[सर्वेऽपि ऋषभकूटा अष्टयोज- सू०६३५नान्युद्विद्धाः भवन्ति । मूले मध्ये उपरि च द्वादशाष्टौ चत्वारि विस्तीर्णाः॥१॥] इति, देवास्तनिवासिन एवेति, नवरं ६४४ 'एत्थ रत्तारत्तावईओ सासिं चेव कुंड'त्ति, शीताया दक्षिणतोऽपि अष्टौ दीर्घवैताच्या इत्यादि सर्व समानं केवलं गंगा-४॥४३८ ॥ सिन्धुस्थाने रक्तारक्तवत्यौ वाच्ये, गङ्गादिकुण्डस्थानेऽपि रकादिकुण्डानि बाच्यानीति, तथाहि-अट्ठ रत्ताकुण्डा प दीप अनुक्रम [७४६-७८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~309~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६३६-६४४] + गाथा: SC-CA प्रत सूत्रांक [६३५-६४४] मत्ता अढ रसपईकुण्डा अढ रत्ताओ अट्ट रत्तवईओं तथा निषधवर्षधरपर्वतोत्तरनितम्बवत्तीनि पष्टियोजनप्रमा-1 णानि रकारक्तवतीकुण्डानि येभ्य उत्तरतोरणेन विनिर्गत्य ताः शीतामनुपतन्तीति, तथा धातकीमहाधातकीपद्ममहाप-12 झवृक्षाः जम्बूवृक्षसमानवक्तव्याः, यदाह-"जो भणिओ जंबूए विही उ सो चेव होइ एएसिं । देवकुरासुं सामलिरुक्खा| जह जंबूदीवम्मि ॥१॥" इति [य एव विधिर्जम्ब्वा भणितः स एव एतेषां (धातक्यादीनां) भवति देवकुरुषु शा-1 ल्मली वृक्षा यथा जंबूद्वीपे ॥१॥] क्षेत्राधिकारात् 'जंबुद्दीवे'त्यादि सूत्रचतुष्टयं, सुगम, नवरं 'भद्दसालवणे'त्ति मेरुपरिक्षेपतो भूम्यां भद्रशालधनमस्ति, तत्राष्टी शीताशीतोदयोरुभयकूलवतीनि पूर्वादिषु दिक्षु हस्त्याकाराणि कूटानि दिशाहस्तिकूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-'पउमें सिलोगो, कण्ठ्यः नवरमस्य सप्रसंगो विभागोऽयम्-"मेरुओ पन्नासं दिसि । विदिसिं गंतु भद्दसालवणं । चउरो सिद्धाययणा दिसासु विदिसासु पासाया ॥१॥छत्तीसुच्चा पणवीसवित्थडा दुगुणमायताययणा । चउवाविपरिक्खित्ता पासाया पंचसयउच्चा ॥२॥ ईसाणस्सुसरिमा पासाया दाहिणा य सकस्स । अट्ठ य हवंति कूडा सीतोसीतोदुभयकूले ॥३॥ दो दो चउद्दिसि मदरस्स हिमवंतकूडसमकप्पा। पउमुत्तरोऽत्थ पढमो पुब्बिम सीउत्तरे कूले ॥४॥ तत्तो य नेलवंते सुहत्थि तह अंजणागिरी कुमुए। तहय पलासवडंसे अट्ठमए रोयणगिरी या ॥५॥ | इति [ मेरुतः दिक्षु विदिक्षु च पंचाशयोजनी गत्वा भद्रशालवनं दिक्षु चत्वारि सिद्धायतनानि विदिक्षु प्रासादाः॥१॥ पत्रिंशदुच्चानि पञ्चविंशतिविस्तृतानि द्विगुणायतान्यायतनानि पंचशतोचा वापीचतुष्कपरिक्षिप्ताः प्रासादाः ॥ २॥ उत्तरत्या ईशानस्य दाक्षिणात्याश्च शक्रस्य प्रासादाः शीताशीतोदोभयकूलयोरष्टौ कूटानि भवन्ति ॥३॥ मेरोश्चतसृषु दीप अनुक्रम [७४६-७८१] -96-0- % % पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~310~ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६३५ -६४४] दीप अनुक्रम [७४६ -७८१] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ४३९ ॥ [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-] मूलं [६३६ - ६४४ ] + गाथा: स्थान [८], ८ स्थाना० दिक्षु द्वौ द्वौ हिमवत्कूटसमाः अत्र प्रथमः पद्मोत्तरः पौरस्त्ये शीताया उत्तरकूले ॥ ४ ततश्च नीलवान् सुहस्ती तथांजनगिरिः कुमुदः तथा पलाशावतंसकः अष्टमो रोचनगिरिश्च ॥५॥ ] जगती वेदिकाधारभूता पाली । 'सिद्ध'गाहा, सि- उद्देशः ३ द्धायतनोपलक्षितं कूटं सिद्धकूटं तच्च प्राच्यां, ततः क्रमेणापरतः शेषाणि, महाहिमवत्कूटं तद्गिरिनायक देवभवनाधिष्ठितं, हैमवतकूटं हैमवद्वर्षनायकदेवावासभूतं, रोहितकूटं रोहिताख्यनदीदेवता सत्कं हीकूटं महापद्माख्यतत्हदनिवासि हीनामक देवतासत्कं हरिकान्ताकूटं तन्नामनदीदेवतासत्कं हरिवर्षकूटं हरिवर्षनायकदेवसत्कं वैडूर्यकूटं तद्रत्नमयत्वादिति, अनेनैव क्रमेण रुक्मिकूटान्यप्यूह्यानि, तद्गाथा 'सिद्धे रूप्पी'त्यादि, कण्ठ्यम्, 'जंबूदीवे'त्यादि, क्षेत्राधिका रात् रुचकाश्रितं सूत्राष्टकं कण्ठ्यं, नवरं जम्बूद्वीपे यो मन्दरस्तदपेक्षया प्राच्यां दिशि रुचकवरे रुचकद्वीपवर्त्तिनि प्रा* ग्वर्णितस्वरूपे चक्रवालाकारे अष्टौ कूटानि, तत्र 'रिट्टे' त्यादि गाथा स्पष्टा तेषु च नन्दोत्तराद्याः दिक्कुमार्यो वसन्ति भगवतोऽर्हतो या जन्मन्यादर्शहस्ता गायन्त्यस्तं पर्युपासते, एवं दाक्षिणात्या भृङ्गारहस्ता गायन्ति एवं प्रतीच्याः तालवृन्तहस्ताः, एवमौदीच्याश्चामरहस्ताः, देवाधिकारादेव 'अह अहे' इत्यादिपञ्चसूत्री कण्ठ्या, नवरं 'अहेलोगवत्थब्बाओ'त्ति, “सोमणसगंधमायणविज्जुप्पभमालवंतवासीओ। अट्ठ दिसिदेवयाओ वत्थवाओ अहे लोए ॥ १ ॥” इति [ सौमनसगन्धमादन विद्युत्प्रभ माल्यवद्वासिन्यः अष्टौ दिग्देव्यः अधोलोकवास्तव्याः, ॥ १ ॥ ] भोगंकराद्या अष्टो या अर्हतो जन्मभवनसंवर्त्तकपवनादि विद्धतीति ऊर्ध्वलोकवास्तव्याः तथा च "नंदणवणकूडेसुं एयाओ उठोयवस्थब्वाउ"त्ति, [ नन्दनवन कूटेषु एता उर्ध्वलोकवास्तव्याः ॥ ] याः अभवईलकादि कुर्वन्तीति । 'तिरियमिस्सोववन्न Education Sanlond Far Far Privas Use Only जम्बू गुहा वक्षारनग री अर्हदा४ दिदीर्घवैताढ्यचू लिकादिहस्तिकूटकल्पादि, सू० ६३५ ६४४ ॥ ४३९ ॥ ~311~ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र - [ ०३] अंग सूत्र - [०३] अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते yo "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६३६-६४४] + गाथा: प्रत सूत्रांक [६३५-६४४] -4-%649450954:56-645 गति अष्टसु तिर्यश्चोऽप्युत्पधन्ते इति भूतभवापेक्षया तिर्यग्भिमिश्रास्तिर्य मिश्रास्ते मनुष्या उपपन्ना-देवतया जाता येषु । ते तिर्यडिमश्रोपपन्नका इति, परियायते-गम्यते यैस्तानि परियानानि तान्येव परियानिकानि परियानं वा-गमनं प्रयोजनं येषां तानि परियानिकानि यानकारकाभियोगिकपालकादिदेवकृतानि पालकादीन्यष्टौ क्रमेण शकादीनामिन्द्राणामिति । देवत्वं च तपश्चरणादिति तद्विशेषमाह अहमियाणं मिक्खुपडिमाण चतसहीते राइदिएहि दोहि व अट्ठासीतेहिं मिक्खासतेहिं अहासुत्ता जाप अणुपालितावि भवति (सू०६४५) अवविधा संसारसमावनगा जीवा पं००-पढमसमयनेरतिता अपदमसमयनेरतिता एवं जाव अपढमसमयदेवा १ अवविधा सम्बजीवा पं० २०-नेरतिता तिरिक्खजोणिता तिरिक्स जोणिणीओ मणुस्सा मणुस्सीमो देवा देवीओ सिद्धा २ अथषा अवविधा सव्वजीवा पं० सं०-आभिणियोहितनाणी जाव केवलनाणी मतिमन्नाणी सुतअण्णाणी विभंगणाणी ३ (सू०६४६) अट्ठविधे संजमे पं० त०-पढमसमयमुहुमसंपरागसरागसंजमे अपढमसमयमुहमसंपरायसरागसंजमे पढमसमयबादरसंजमे अपहमसमयबादरसंयमे पढमसमयउवसंतकसायवीतरायसंजमे अपढमसमयतवसंतकसायवीतरागसंजमे पढ़मसमयखीणकसायवीतरागसंजमे अपढमसमयखीण (सू० ६४७) अट्ठ पुढवीओ पं० २०-रवणप्पभा जाब अहे सत्तमा ईसिपन्भारा १ ईसीपब्भाराते ण पुढवीते बहुमज्नदेसभागे भट्ठजोयगिए दीप अनुक्रम [७४६-७८१] १ दशमे स्थान के वक्ष्यन्ति यद् भाभियोगिका बिमानीभवन्तीति ।। स्था E पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~312~ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६४५-६४८] श्रीस्थाना स्थाना वृत्तिः प्रतिमास ॥४४०॥ प्रत सूत्रांक [६४५-६४८] यमपृथ्व्यः सू०६४५. खेते मह जोयणाई माहलेणं पण्णत २ ईसिपम्भारात णं पुढवीते अट्ठ नामधेजा पं० त०-ईसिति वा ईसिपम्भाराति वा तणूति वा तणुतणूइ वा सिद्धीति वा सिद्धालतेति वा मुत्तीति वा मुत्तालतेति वा ३ (सू०६४८) 'अहमिए'त्यादि, अष्टावष्टमानि दिनानि यस्यां सा तथा, या ह्यष्टाभिदिनानामष्टकैः पूर्यते तस्यामष्टावष्टमदिनानि भवन्त्येव, तत्र चाष्टावष्टकानि चतुःषष्टिर्भवत्येव, तथा प्रथमाष्टके एका दत्तिर्भोजनस्य पानकस्य च एवं द्वितीये द्वे एवम टमेऽष्टौ, ततो द्वे शते अष्टाशीत्यधिक भिक्षाणां सर्वाग्रतो भवत इति, 'अहासुत्सा' 'अहाकप्पा अहामग्गा अहातचा सम्मं कारण फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया आराहिया' इति यावत्करणात् दृश्य 'अणुपालिय'त्ति आत्म संयमानुकूलतया पालिता इति । तपश्च न सर्वेषामपि संसारिणामिति सम्बन्धात् संसारिणो जीवाधिकारात् सर्वजीट्रावांश्च प्रतिपादयन् 'अढविहे'त्यादि सूत्रत्रयमाह, कण्ठ्यं चेदम् , नवरं प्रथमसमयनैरपिका नरकायु प्रथमसमयोदये इतरे वितरस्मिन् एवं सर्वेऽपि १, अनन्तरं ज्ञानिन उक्तास्ते च संयमिनोऽपि भवन्तीतिसम्बन्धात् संयमसूत्रं, तत्र 'संयमे'त्ति चारित्रं, स चेह तापद् द्विधा-सरागवीतरागभेदात् , तत्र सरागो द्विधा-सूक्ष्मवादरकषायभेदात्, पुनस्तौ प्रथमाप्रथमसमयमेदाए द्विधा, एवं चतुर्दा सरागसंयम इति, तत्र प्रथमः समयः प्राप्ती यस्य स तथा, सूक्ष्मा-किट्टीकृतः सम्परायः -कषायः सञ्जवलनलोभलक्षणो वेद्यमानो यस्मिन् स तथा, सह रागेण-अभिष्वङ्गलक्षणेन यः स सरागः स एव संयमः सरागस्य षा साधो संयमो यः स तथा पश्चारकर्मधारय इत्येकः, द्वितीयोऽयमेव अप्रथमसमयविशेषित इति, अर्थ Mाद्विविधोऽपि श्रेणियापेक्षया पुन विध्यं लभमानोऽपि न विवक्षित इति चतुर्की नोका, सथा चादरा-अकिष्टीकृत्ताः दीप अनुक्रम [७८२-७८५] Firparantarvaataand पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~313~ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६४५ -६४८] दीप अनुक्रम [७८२ -७८५] Education [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-], मूलं [६४५-६४८ ] स्थान [८], - सम्परायाः सबलनको घादयो यस्मिन् स तथा वीतरागसंयमस्तु श्रेणिद्वयाश्रयणाद् द्विविधः पुनः प्रथमाप्रथमसमयभेदेनैकैको द्विविध इति चतुर्द्धा, सामस्त्येन चाष्टघेति । संयमिनश्च पृथिव्यां भवन्तीति पृथिवीसूत्रत्रयं कण्ठ्यं, नवरमष्टयोजनिक क्षेत्रमायामविष्कम्भाभ्यामिति गम्यते । ईषत्प्राग्भाराया ईषदिति वा नाम रत्नप्रभाद्यपेक्षया ह्रस्वत्वात् तस्याः १ एवं प्राग्भारस्य ह्रस्वत्वादीषव्यग्भारेति वा २ अत एव तनुरिति वा तन्वीत्यर्थः ३ अतितनुत्वात्तनुतनुरिति वा ४ सिद्ध्यन्ति तस्यामिति सिद्धिरिति वा ५ सिद्धानामाश्रयत्वात् सिद्धालय इति वा ६ मुच्यन्ते सकलकर्म्मभिस्तस्यामिति | मुक्तिरिति वा ७ मुक्तानामाश्रयत्वान्मुक्तालय इति वेति ८ । सिद्धिश्च शुभानुष्ठानेष्वप्रमादितया भवतीति तानि तद्विष यत आह अहं ठाणेहिं सं संघटितव्यं जतितव्यं परकमितवं अरिंस च णं अट्टे णो पमातेतव्यं भवति - असुयाणं धम्माणं सम्मं सुणता अन्तवं भवति १ सुताणं धम्माणं ओगिण्हणयाते उवधारणयाते अब्भुतब्वं भवति २ पावार्ण कम्माणं संजमेणमकरणताते अच्भुट्टेयन्वं भवति ३ पोराणाणं कम्माणं तवसा विचिणताते विसोहणताते अभुट्टेतब्वं भवइ ४ असंगिहीतपरितणस्स संगिण्हणताते अब्भुट्टे यब्वं भवति ५ सेहं आयारगोयरगहणताते अब्भुद्वेयन्वं भवति ६ गिलास अगिला वैयावञ्चकरणताए अन्मुद्वेयन्वं भवति ७ साहम्मिताणमधिकरणंसि उत्पांसि तत्य अनिस्सि तोषस्तिो अपक्खग्गाही मज्झत्थभावभूते कह साहम्मिता अप्पसदा अप्पझंझा अप्पतुमतुमा उवसामणताते अब्दु भवति १० (सू० ६४९) महामुकसहस्सा रेसु णं कप्पेसु विमाणा अट्ट जोयणसताई उर्दू उच्चतेणं पन्नता Far Far & Private पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~314~ anthray org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६५०] श्रीस्थानाअसूत्रवृत्तिः प्रत ॥४४१॥ सूत्रांक [६५० (सू० ६५०) अरहतो णं अरिहनेमिस्स अट्ठसया वादीणं सदेवमणुयासुराते परिसाते वादे अपराजिताणं नकोसिया ८स्थाना वाविसंपया हुत्था (सू० ६५१) | उद्देशा३ 'अट्ठहीं त्यादि, कण्ठ्यं, नवरं अष्टासु स्थानेषु-वस्तुषु सम्बग्घटितव्यं-अप्राप्तेषु योगः कार्यः यतितव्यं-प्राप्तेषु तदवियो-18 यतनीयगार्थ यत्नः कार्यः पराक्रमितव्यं-शक्तिक्षयेऽपि तसालने पराक्रमः-उत्साहातिरेको विधेय इति, किं बहुना?-एवं एतस्मिन्-IC | स्थानकअष्टस्थानकलक्षणे वक्ष्यमाणेऽर्थे न प्रमादनीयं-न प्रमादः कार्यों भवति, अश्रुतानाम्-अनाकर्णितानां धम्मोणां-श्रुतभे-IPI ल्पवादिनः दानां सम्यक् श्रवणतायां श्रवणतायै वाऽभ्युत्थातव्यं-अभ्युपगन्तव्यं भवति १, एवं श्रुतानां-श्रोत्रेन्द्रियविषयीकृतानाम-16 सू०६४९वग्रहणतायै-मनोविषयीकरणाय उपधारणतायै-अविच्युतिस्मृतिवासनाविषयीकरणायेत्यर्थः २, 'विकिंचणयाए'त्ति | ६५१ विवेचना निर्जरेत्यर्थः, तस्यै, अत एवात्मनो विशुद्धिः-विशोधना अकलङ्कत्वं तस्यै इति ३, असङ्गहीतस्य-अनाश्रितस्य | परिजनस्य-शिष्यवर्गस्येति ४, सेहति विभक्तिपरिणामाच्छैक्षस्य-अभिनवप्रवजितस्य 'आयारगोयरति आचार:-सा- | धुसमाचारस्तस्य गोचरो-विषयो प्रतषटादिराचारगोचरः अथवा आचारश्च-ज्ञानादि विषयः पञ्चधा गोचरक्ष-भिक्षाचर्ये-1 त्याचारगोचरं, इह विभक्तिपरिणामादाचारगोचरस्य ग्रहणतायां-शिक्षणे शैक्षमाचारगोचरं ग्राहयितुमित्यर्थः ६, 'अगिलाए'त्ति अग्लान्या अखेदेनेत्यर्थः, वैयावृत्त्यं प्रतीति शेषः ७,'अधिगरणंसि'त्ति विरोधे, तत्र साधर्मिकेषु निश्रितंरागः उपाश्रित-द्वेषः अथवा निश्रित-आहारादिलिप्सा उपाश्रित-शिष्यकुलाद्यपेक्षा तद्वर्जितो यः सोऽनिधितोपाश्रितः,IN न पक्ष शाखबाधितं गृहातीत्यपक्षनाही, अत एवं मध्यस्थभावं भूता-पायो यः स तथा, स भवेदिति शेषः, तेन च दीप अनुक्रम [७८७] I I४४१॥ Khannary पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~3154 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६५१] प्रत सूत्रांक [६५१] है तथाभूतेन कथं नु?-केन प्रकारेण साधम्मिकाः-साधवोऽल्पशब्दाः-विगतराटीमहावनयः अल्पझंझा-विगततथाविध-है। | विप्रकीर्णवचनाः अल्पतुमन्तुमा:-विगतक्रोधकृतमनोविकारविशेषा भविष्यन्तीति भावयतोपशमनायाधिकरणस्याभ्यु-II स्थातव्यं भवतीति । अप्रमादिनां देवलोकोऽपि भवतीति देवलोकप्रतिबद्धाष्टकमाह-'महासुके'त्यादि कण्ठ्यं, अनन्त-18 रोक्तविमानवासिदेवैरपि वस्तुविचारे न जीयन्ते केचिद्वादिन इति तदष्टकमाह-'अरहओं इत्यादि, सुगमं । एतेषां च नेमिनाथस्य विनेयानां मध्ये कश्चित्केवलीभूत्वा वेदनीयादिकर्मस्थितीनामायुष्कस्थित्या समीकरणा) केवलिसमु-2 द्घातं कृतवानिति समुद्घातमाह भवसमतिए केवलिसमुग्पाते पं० सं०-पढमे समए दंडं करेति बीए समए कवाई करेति ततिए समते मंधान करेति चउत्थे समते लोग पूरेति पंचमे समए लोग पडिसाहरति छठे समए मंथं पडिसादरति सत्तमे समए कबार्ड पडिसाह रति अट्ठमे समए दंडं पडिसाहरति (सू० ६५२) | 'अडे'त्यादि, तत्र समुद्घातं प्रारभमाणः प्रथममेवावजीकरणमभ्येति, अन्तमौहर्तिकं उदीरणावलिकायां कर्मप्रक्षेपव्यापाररूपमित्यर्थः, ततः समुद्घातं गच्छति, तत्र च प्रथमसमये स्वदेहविष्कम्भमूर्ध्वमधश्चायतमुभयतोऽपि लोकास्तगामिनं जीवप्रदेशसङ्घातं दण्डमिव दण्डं केवली ज्ञानाभोगतः करोति, द्वितीये तु तमेव दण्ड पूर्वापरदिग्द्वयप्रसारणात् पावतो लोकान्तगामिकपाटमिव कपाटं करोति, तृतीये तदेव दक्षिणोत्तरदिग्दये प्रसारणान्मन्धानं करोति लोकान्तप्रापिणमेवेति, एवं च लोकस्य प्रायो बहु पूरितं भवति, मन्थान्तराण्यपूरितानि भवन्ति अनुश्रेणिगमनाजीवप्रदेशा-2 दीप अनुक्रम [७८८] 1325%25k SamEairato पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~316~ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६५२] श्रीस्थाना- मसूत्र- वृति ॥४४॥ प्रत सूत्रांक [६५२] CURRE | मर्दयोगः नामिति, चतुर्थे तु समये मन्थान्तराण्यपि सकललोकनिष्कुटैः सह पूरयति, ततश्च सकलो लोकः पूरितो भवतीति, तदन-18 ८स्थाना० स्तरमेव पञ्चमे समये यथोक्तप्रतिलोमं मन्थान्तराणि संहरति जीवप्रदेशान् सकर्मकान् सङ्कोचयंति, पष्ठे मन्थानमुप|संहरति, घनतरसंकोचात्, सप्तमे कपाटमुपसंहरति, दण्डात्मनि सकोचात्, अष्टमे दण्डमुपसंहत्य शरीरस्थ एव भवति, समुद्धाता तत्र च "औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः । मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तमषष्ठद्वितीयेषु ॥१॥ कार्मणशरीर- | अनुत्तराः योगी चतुर्थके पश्चमे तृतीये च । समयत्रये च तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमाद् ॥२॥” इति, पाबनसोस्त्वप्रयो देवाः सूर्य| कैव, प्रयोजनाभावादिति, अतोऽभिहितमष्टौ समयाः यस्मिन् सोऽष्टसमयः स एवाष्टसामयिका केवलिनः समुद्घातो| केवलिसमुद्घातो न शेष इति । अनन्तरं केवलिनां समुद्रातवक्तव्यतोक्ता, अथाकेवलिना गुणवतां देवत्वं भवतीति देवाधिकारवत् समणस्सेत्यादि सूत्रपश्चक द्वीपद्धारासमणस्स णं भगवतो महावीरस्स अट्ठ सया अणुत्तरोववातियाणं गतिकल्लाणार्ण जाव आगमेसिभदाणं तफोसिता अणुत्त [णि कर्मरोववातितसंपया हुत्या १ (सू०६५३) अविधा वाणमंतरा देवा पं० सं०-पिसाया भूता जक्खा रक्खसा किन्नरा स्थिति कु-- किंपुरिसा महोरगा गंधल्या २ एतेसि णं अहण्हं वाणमंतरदेवाणं अट्ठ चेतितरुक्खा पं० त०-कलंबो अ पिसायाण, वडो लुकोटीअक्वाण घेतितं । तुलसी भूयाणं भवे, रक्खसाणं च कंडओ ॥ १॥ असोओ किन्नराणं च, किंपुरिसाण य पंपतो। पुद्गलादि सू०६५२नागरुक्यो भुयंगाणं, गंधल्याण य तेंदुओ॥२॥३(सू०६५४) इमीसे रयणप्पभाते पुढवीते बहुसमरमणिजामी ६५५ भूमिभागाओ अट्ठजोयणसते उड़बाहाते सूरविमाणे चार चरति ४ (सू० ६५५) अट्ठ नक्खत्ता चंदेणं सदि पमई जोर्ग ॥४४२॥ दीप अनुक्रम [७८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~317~ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६५६] + गाथा प्रत सूत्रांक [६५६] जोति तं०–कत्तिता रोहिणी पुणब्बसू महा चित्ता विस्साहा अणुराधा जेट्ठा ५ (सू०६५६) जंबुरीवस्स णं दीवस्स दारा अट्ठजोयणाई उडु उपत्तेणं पन्नत्ता १ सब्वेसिपि दीवसमुदाणं दारा अट्ठजोयणाई उई उच्चत्तेणं पन्नत्ता २ (सू०६५७) पुरिसवेयणिजस्स णं कम्मस्स जहन्नेणं अटूसंबच्छराई बंधठिती पन्नत्ता १ जसोकित्तीनामएणं कम्मस्स जहण्णेणं अट्ठ मुहुताई बंधठिती पं०२ उपगोयस्स णं कम्मस्स एवं चेव ३ (सू०६५८) तेईबियाणमट जातीकुलकोडीजोणीपमुहसत सहस्सा पं० (सू०६५९) जीवा णं अट्ठठाणणिव्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताते चिणिंसु वा चिणंति या चिणिसंति था, तं०-पढमसमयनेरतितनिव्वत्तिते जाव अपढमसमयदेवनिव्वत्तिते, एवं चिणउवचिण जाव मिजरा चेव अट्ठपतेसिता खंधा अर्णता पण्णत्ता, अट्ठपतेसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता जावं अट्ठगुणलुक्या पोग्गला अणता पणत्ता (सू० ६६०) अट्ठमं ठाणं सम्मत्तं ।। अहम भज्झयणं सम्मत्तं ॥ सुगम, नवरं अनुत्तरेषु-विजयादिविमानेषूपपातो येषामस्ति तेऽनुत्तरोपपातिकास्तेषां साधूनामिति गम्यते, तथा गति:देवगतिलक्षणा कल्याणा येषां, एवं स्थितिरपि, तथा आगमिष्यद्भद्र-निर्वाणलक्षण येषां ते तथा तेषां चैत्यवृक्षा मणिपीठिकानामुपरिवर्तिनः सर्वरत्नमया उपरिच्छत्रध्वजादिभिरलताः सुधादिसभानामग्रतो ये श्रूयन्ते त एत इति सम्भाव्यते ये तु “चिंधाई कलंबझए सुलस वडे तहय होइ खटुंगे । असोय चंपए या नागे तह तुंबरू चेव ॥१॥इति, [चिह्नानि कलंचो ध्वजः सुलसः वटः तथा च भवति खटांगः । अशोकचंपकश्च नागस्तथा तुबरुश्चैव ॥१॥] ते चिह्नभूता एतेभ्योऽन्य एवेति, 'कलंबो' इत्यादि श्लोकद्वयं कण्ठ्यं नवरं 'भुयंगाणं'ति महौरगाणामिति । 'चारं चरईत्ति गाथा दीप अनुक्रम [७९५] Editor पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~318~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [८], उद्देशक [-], मूलं [६६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: x प्रत सूत्रांक [६६०] श्रीस्थानाचारं करोति, चरतीत्यर्थः, पमई'ति प्रमई:-चन्द्रेण स्पृश्यमानता तल्लक्षणं योगं च योजयम्त्यात्मनश्चन्द्रेण सार्द्ध कदाचित् स्थाना. सूत्र- न तु तमेव सदैवेति, उक्तं च-"पुणब्वसुरोहिणिचित्ता महजेट्टणुराह कित्तियविसाहा । चंदस्स उभयजोगो" इति [पुनर्वसू उद्देशः३ वृत्तिः रोहिणी चित्रा मघानुराधा ज्येष्ठा कृत्तिका विशाखा एतेषां चंद्रेणोभयथा योगः (दक्षिणोत्तरयोः)] यानि च दक्षि- समुद्धाताः णोत्तरयोगीनि तानि प्रमईयोगीन्यपि कदाचिद्भवन्ति, यतो लोकश्रीटीकाकृतोक्तं-"एतानि नक्षत्राण्युभययोगीनि- अनुत्तराः ॥४४३॥ चन्द्रस्य दक्षिणेनोत्तरेण च युज्यन्ते कथञ्चिचन्द्रेण भेदमप्युपयान्ती"ति, एतत्फलं चेदम्-"एतेषामुत्तरगा ग्रहाः सुभि-15 देवाः सूर्यक्षाय चन्द्रमा नितरा"मिति । देवनिवासाधिकाराद्देवनिवासभूतजम्बूद्वीपादिद्वारसूत्रद्वयं । देवाधिकाराद्देवत्वभाविकर्म- चारा: प्र| विशेषसूत्रत्रयम्, कर्माधिकारात्तन्निबन्धनकुलकोटिसूत्र, त्रीन्द्रियादिवैचित्र्यहेतुकर्मपुद्गलसूत्राणि च सुगमानि, नवरं मर्दयोगः 'जाती'त्यादि जाती-त्रीन्द्रियजाती कुलकोटीनां योनिप्रमुखाणां-योनिद्वारकाणां याने शतसहस्राणि तानि तथेति ॥ द्वीपद्वारा |णि कर्म स्थितिः कुइति श्रीमदभयदेवसूरिविरचिते स्थानाण्यतृतीयाङ्गविवरणे लुकोटीऽष्टस्थानकाख्यमष्टममध्ययनं समाप्तम् ।। श्लोकाः ७२० पुलादि सू०६५६ दीप अनुक्रम [७९९] ॥४४३॥ POPetasnaBPredable Only अत्र अष्टमं स्थानं परिसमाप्तं अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-८ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, अष्टमे स्थाने न किंचित् उद्देशक: वर्तते ~319~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूचांक [६६१] दीप अनुक्रम [८०० ] [भाग - 6] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ६६९ ] स्थान [९], उद्देशक [-1. Educationmationsd - ॥ अथ नवस्थानकाख्यं नवमाध्ययनम् ॥ व्याख्यातमष्टममध्ययनमधुना सङ्ख्याक्रमसम्बद्धमेव नवमस्थानकाख्यं नवममध्ययनमारभ्यते, अस्य च पूर्वेण सह सम्बन्धः सङ्ख्याक्रमकृत एवैकः सम्बन्धान्तरं तु पूर्वस्मिन् जीवादिधर्म्मा उक्ताः इहापि त एवेत्येवं सम्बन्धस्यास्यादिसूत्रम्नवहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंधे संभोतितं विसंभोतितं करेमाणे णातिकमति, तं० आयरियपडिणीयं उवज्झायपडिणीयं थेरपडिणीवं कुल० गण० संघ० नाण० दंसण० चरित्तपढिणीयं ( सू० ६६१ ) णव बंभचेरा पं० तं० सत्यपरिना लोगविजओ जाव उवाणसुयं महापरिण्णा (सू० ६६२ ) नव बंभचेरगुतीतो पं० तं० विवित्साई सयणासणाई सेवित्ता भवति णो इत्थिसंसत्ताई तो पसुसंसत्ताई नो पंडगसंसत्ताई १ नो इस्थिणं कई कद्देता २ नो इत्थिठाणाई सेवित्ता भवति ३ णो इत्थीणमिंदिताई मणोहराई मणोरमाई आलोइत्ता निज्झाइता भवइ ४ णो पणीतरसभोती ५ णो पाणभोयणस्स अतिमत्तं आहारते सता भवति ६ णो पुव्वरतं पुम्बकीलियं समरेता भवति ७ णो सदाणुवाती णो रूवाणुवाती णो सिलोगाणुवाती ८ णो सातसोक्खपडिबद्धे यावि भवति ९ णव बंभचेरमगुत्तीओ पं०सं० गो Far Far & Pra Use Only पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र - [ ०३] अंग सूत्र - [०३] अथ नवमं स्थानं आरभ्यते ~320~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६६३] प्रत सूत्रांक ब्रह्मचर्या [६६३] श्रीयाना- विवित्ताई सयणासणाई सेवित्ता भवइ, इत्थीसंसप्ताई सुसंसचाई पंडगसंसत्ताई इत्थीर्ण कर हिस्सा भया इत्या ९ स्थाना असूत्र ठाणाई सेवित्ता भवति इत्थीण इंदियाई जाव निझाइत्ता भवति पणीवरसभोई पाणभोयणस्त भइमायमाहारए सकी | उद्देशः ३ वृत्ति भवद पुनरमं पुल्यकीलियं सरिता भवइ सहाणुबाई रूवाणुवाई सिलोगाणुवाई जाब सायासुक्खपडिषी वावि भवति | विसंभोग(सू०६६३) कारणानि ॥४४४॥ 'नवहिं ठाणेहि समणे इत्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वसूत्रे पुद्गला वर्णितास्तद्विशेषोदयाच्च A कश्चिच्छ्रमणभावमुपगतोऽपि धर्माचार्यादीनां प्रत्यनीकतां करोति, तं च विसम्भोगिकं कुर्वनपरः सुश्रमणो माज्ञामति- णि गुप्त्य कामतीतीहाभिधीयत इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या, सा च सम्बन्धत एवोक्तेति । स्वयं ब्रह्मचर्यव्यवस्थित एवं चैवं| गुप्तयः करोतीति तदभिधायकाध्ययनानि दर्शयन्नाह-'नव बंभचेरें त्यादि, ब्रह्म-कुशलानुष्ठानं तच्च तच चासेळ्यमिति ब- सू०६६१कामचर्य संयम इत्यर्थः तत्प्रतिपादकान्यध्ययनान्याचारप्रथमश्रुतस्कन्धप्रतिबद्धानि ब्रह्मचर्याणि, तत्र शखं द्रजभावभे दादनेकविधं तस्य जीवशंसनहेतोः परिज्ञा-ज्ञानपूर्वक प्रत्याख्यानं यत्रोच्यते सा शस्त्रपरिज्ञा १, 'लोकविजओ'त्ति लाभावलोकस्य रागद्वेषलक्षणस्य विजयो-निराकरणं यत्राभिधीयते स लोकविजयः २ 'सीओसणिज्जति शीता-अनु-1 कूलाः परीपहा उष्णा:-प्रतिकूलास्तानाश्रित्य यत्कृतं तच्छीतोष्णीयम् ३ 'सम्मति सम्यक्रवमचलं विधेयं न ताप-14 सादीनां कष्टतपासे विनामष्टगुणैश्वर्यमुद्वीक्ष्य दृष्टिमोहः कार्य इति प्रतिपादनपरं सम्यक्त्वं ४ 'आवंतीति आद्यपदेन ॥४४४॥ नामान्तरेण तु लोकसारा, तच्चाज्ञानाद्यसारत्यागेन लोकसाररत्नत्रयोयुक्तेन भाव्यमित्येवमधु लोकसारः ५ 'धूयंति विभे- दीप ६६३ अनुक्रम [८०२] CamEauratomuintimational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~3214 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६६३] प्रत सूत्रांक [६६३] 8555555 EX पूर्त-सङ्गानां त्वजनं तत्प्रतिपादक धूतमिति 'विमोहोसि मोहसमुत्थेषु परीपहोपसर्गेषु प्रादुर्मूसपु विमोहो भवेत् & तान् सम्यक् सहेतेति यत्राभिधीयते स विमोहः ७ महावीरासेवितस्योपधानस्थ-तपसः प्रतिपादक श्रुत-ग्रन्थ उपधान-12 श्रुतमिति ८ महती परिज्ञा-अन्तक्रियालक्षणा सम्यग्विधेयेतिप्रतिपादनपर महापरिज्ञेति । ब्रह्मचर्यशब्देन मैथुनविहै रतिरप्यभिधीयत इति ब्रह्मचर्यगुप्तीः प्रतिपादयन्नाह-नवेत्यादि, ब्रह्मचर्यस्य-मैथुनप्रतस्य गुप्तयो-रक्षाप्रकाराः ब्रह्म चर्यगुप्तयः, 'विविक्तानि स्त्रीपशुपण्डकेभ्यः पृथग्वत्तीनि शयनासनानि-संस्तारकपीठकादीनि उपलक्षणतया स्थानादीनि च 'सेविता' तेषां सेवको भवति ब्रह्मचारी, अन्यथा तद्बाधासम्भवात्, एतदेव सुखार्थ व्यतिरेकेणाह-नो स्त्रीससक्कानि-नो देवीनारीतिरश्चीभिः समाकीर्णानि सेविता भवतीति सम्बध्यते, एवं पशुभिः-गवादिभिः, तत्संसको हि तस्कृतविकारदर्शनात् मनोविकारः सम्भाव्यत इति, पण्डका:-नपुंसकानि, तत्संसक्ती खीसमानो दोषः प्रतीत एवेत्येकम् । [१, नो स्त्रीणां केवलानामिति गम्यते 'कथा' धर्मदेशनादिलक्षणवाक्यप्रतिबन्धरूपां यदिवा 'कर्णाटी सुरतोपचारकु शला लाटी विदग्धपिया' इत्यादिकां प्रागुक्ता वा जात्यादिचातूरूपां कथयिता-तत्कथको भवति ब्रह्मचारीति द्वितीय PR, 'नो इस्थिगणाईतीह सूत्रं दृश्यते केवलं 'नो इत्विठाणाईति सम्भाव्यते उत्तराध्ययनेषु तथाऽधीतत्वात् प्रक्र मानुसारित्वाच्चास्येतीदमेव व्याख्यायते-नो खीणां तिष्ठन्ति येषु तानि स्थानानि-निषद्याः खीस्थानानि तानि सेविता भवति ब्रह्मचारी, कोऽर्थः-खीभिः सहकासने नोपविशेद्, उत्थितास्वपि हि तासु मूहुर्त नोपविशेदिति, दृश्यमानपाठाभ्युपगमे त्वेवं व्याख्या-नो स्त्रीगणानां पर्युपासको भवेदिति ३ नो स्त्रीणामिन्द्रियाणि-नयननासिकादीनि मनो ह दीप +5+% अनुक्रम [८०२] % पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~322~ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६६३] प्रत सूत्रांक [६६३] श्रीस्थाना. रन्ति-दृष्टमात्राण्याक्षिपन्तीति मनोहराणि, तथा मनो रमयन्ति-दर्शनानन्तरमनुचिन्त्यमानान्याहादयन्तीति मनोर- ९ स्थाना. सूत्रमानि आलोक्यालोक्य ' नियता' दर्शनानन्तरमतिशयेन चिन्तयिता यथाऽहो सलवणत्वं लोचनयोः ऋजुत्वं नाशा- उद्देशः३ वृत्तिः वंशस्येत्यादि भवति ब्रह्मचारीति ४ 'नो प्रणीतरसभोगी नो गलत्स्नेहविन्दुभोक्ता भवति ५ नो पानभोजनस्य रूक्ष-18 स्याप्यतिमात्रस्य "अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स कुजा दवस्स दो भाए । वाऊपवियारणट्ठा छन्भायं ऊणयं कुज्जा ॥१॥"त ॥४४५॥ तत्त्वानि [अर्धमशनस्य सव्यञ्जनस्य कुर्यात् द्रवस्य द्वौ भागौ । वायुप्रविचारणार्थं पष्ठं भागमूनं कुर्यात् ॥१॥] इत्येवंविधप्रमाणाति णात सर्वजीवाः क्रमेणाहारक:-अभ्यवहा 'सदासर्वदा भवति, खाद्यस्वाद्ययोरुत्सर्गतो यतीनामयोग्यत्वासानभोजनयोर्ग्रहणमिति || रोगहेतवः G 'नो पूर्वरतं नो गृहस्थावस्थायां खीसम्भोगानुभवनं तथा 'पूर्वक्रीडितं तथैव द्यूतादिरमणलक्षणं 'स्मा' चिन्त सू०६६४यिता भवति ७'नो शब्दानुपाती'ति शब्द-मन्मनभाषितादिकमभिष्वङ्गहेतुमनुपतति-अनुसरतीत्येवंशीलः शन्दा४नुपाती एवं रूपानुपाती श्लोक-ख्यातिमनुपततीति श्लोकानुपातीति पदत्रयेणाप्येकमेव स्थानकमिति ८ 'नो सातसौख्यदप्रतिबद्ध' इति सातात्-पुण्यप्रकृतेः सकाशाद्यत्सौख्य-सुखं गन्धरसस्पर्शलक्षणं विषयसम्पाद्यं तत्र प्रतिबद्धः-तत्सरो ब्र झचारी, सातग्रहणादुपशमसौख्य प्रतिबद्धतायां न निषेधः, वापीति समुच्चये, भवति ९ । उक्तविपरीताः अगुप्तयोs-1 प्येवमेवेति । उक्तरूपं नवगुप्तिसनाथं च ब्रह्मचर्य जिनैरभिहितमिति जिनविशेषी प्रकृताध्ययनावतारद्वारेणाह M४४५॥ अभिणदणाभो अरहमओ सुमती अरहा नवदि सागरोजमकोडीसयसहस्सेहिं विइकतेहि समुप्पन्ने (सू० ६६४) नव सम्भावपयथा पं० सं०-जीवा अजीवा पुण्णं पावो आसको संवरो निजरा बंधो मोक्खो ९ (सू०६६५) णवविहा ६६५ दीप अनुक्रम [८०२] INEauraton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~323~ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६६६] प्रत सूत्रांक [६६६] CARE* KAROLkrit संसारसमावनगा जीवा पं० सं०-पुढविकाइया जाव वणस्पइकाइया वेइंदिया जाव पंचिदितत्ति १ पुढधिकाइया नवगइया नवआगतिता पं० त०-पुढवीकाइए पुढविकाइएमु उपवञ्जमाणे पुढ विकाइएहितो वा जाप पंचिदियेहितो वा उववजेजा, से चेवण से पुढविकाइए पुढविकायत्तं विपजहमाणे पुढविकाइयत्ताए जाव पंचिंदियत्ताते वा गच्छेज्जा २ एवमाउकाइयावि ३ जाव पंचिंदियत्ति १० णवविधा सबजीवा पं० तं०-एगिदिया वेइंदिया तेइंदिया चउरिविया नेरतिता पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा सिद्धा ११ अथवा गवविहा सधजीवा पं० त०-पढमसमयनेरतिता अपढमसमयनेरतिता जाब अपढमसमयदेवा सिद्धा १२ । नवविहा सव्वजीवोगाहणा पं० २०-पुड विकाइओगाहणा आउकाइओगाणा जाव पणस्सइकायउगाहणा येईदियोगाहणा तेइंदियओगाहणा चउरिदियओगाहणा पंचिंदियओगाहणा १३ जीवाणं नवहिं ठाणेहिं संसार वत्तिमुवा पत्तंति वा बत्तिस्संति वा, तं०-गुढविकाइयत्ताए जाव पंथिदियत्ताए १४ (सू०६६६) णवहिं ठाणेहिं रोगुत्पत्ती सिया तं०-अनासणाते अहितासणाते अतिणिहाए अतिजागरितेण उच्चार निरोहेणं पासवणनिरोहेणं अद्भाणगमणेणं भोवणपतिकूलताते इंदियस्थविकोवणवाते १५ (सू० ६६७) 'अभिणदणे'त्यादि कण्ठ्यं । अभिनन्दनसुमतिजिनाभ्यां च सद्भूताः पदार्थाः प्ररूपितास्ते च नवेति तान् दर्शयनाह-नव सम्भात्यादि, सद्भावेन-परमार्थेनानुपचारणेत्यर्थः पदार्था-वस्तूनि सद्भावपदार्थाः, तद्यथा-जीवाः सुखदुःखज्ञानोपयोगलक्षणा, अजीवास्तद्विपरीता, पुण्य-शुभप्रकृतिरूपं कर्म पापं-तद्विपरीतं कमैंव आश्रूयते-गृह्यते |कर्मानेनेत्याश्रयः शुभाशुभकर्मादानहेतुरिति भावः, संवरः-आश्रवनिरोधो गुस्यादिभिः, निर्जरा विपाकात् तपसा वा SAK ASKCAMER-4 दीप अनुक्रम [८०५] स्था०७५] Et पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~324~ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६६७] श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः ॥४४६॥ प्रत सूत्रांक [६६७] कर्मणां देशतः क्षपणा, बन्धः-आश्नवैरात्तस्य कर्मण आत्मना संयोगः, मोक्षः-कृत्स्नकर्मक्षयादात्मनः स्वात्मन्यवस्था- स्थाना नमिति, ननु जीवाजीवव्यतिरिक्ताः पुण्यादयो न सन्ति, तथाऽयुज्यमानत्वात् , तथाहि-पुण्यपापे कर्मणी बन्धोऽपि उद्देश ३ तदात्मक एव कर्म च पुद्गलपरिणामः पुद्गलाश्चाजीवा इति, आश्रवस्तु मिथ्यादर्शनादिरूपः परिणामो जीवस्य, स चात्मानं जिनान्तरं पुद्गलांश्च विरहय्य कोऽन्यः?, संवरोऽप्याश्रवनिरोधलक्षणो देशसभेद आत्मनः परिणामो निवृत्तिरूपो, निर्जरा तु तत्वानि कर्मपरिशाटो जीवः कर्मणां यत् पार्थक्यमापादयति स्वशक्त्या, मोक्षोऽप्यात्मा समस्तकर्मविरहित इति, तस्माजी-14 सर्वजीवाः वाजीवौ सद्भावपदार्थाविति वक्तव्यं, अत एवोक्तमिहेव "जदत्थिं च णं लोए तं सव्वं दुष्पडोयार, तंजहा-जीवधेयरोगहेतवः अजीवच्चे" अत्रोच्यते, सत्यमेतत्, किन्तु यावेव जीवाजीवपदाथों सामान्येनोक्तो तावेवेह विशेषतो नवधोक्ती, सा- ०६१६. मान्यविशेषात्मकत्वाद्वस्तुनः, तथेह मोक्षमार्गे शिष्यः प्रवर्तनीयो न सङ्ग्रहाभिधानमात्रमेव कर्त्तव्यं, स च यदैवमाख्या-1|| ६६७ यते यदुताश्रवो बन्धो बन्धद्वारायाते च पुण्यपापे मुख्यानि तत्त्वानि संसारकारणानि संवरनिजरे च मोक्षस्य तदा संसारकारणत्यागेनेतरत्र प्रवर्तते नान्यथेत्यतः पटोपन्यासः मुख्यसाध्यख्यापनार्थ च मोक्षस्येति । अत्र च पदार्थेन-17 |बके प्रथमो जीवपदार्थोऽतस्तझेदगत्यागत्यवगाहनासंसारनिर्वर्तनरोगोसत्तिकारणप्रतिपादनाय 'नवविहे'त्यादिसूत्रप दशकमाह, सुगमं चेदं, नवरं अवगाहन्ते यस्यां सा अवगाहना-शरीरमिति, 'वर्तिसु वत्ति संसरणं निर्वर्तितवन्तः-अनुभू-I सातवन्तः, एवमन्यदपि, 'अचासणयाए'त्ति अत्यन्त-सततमासनं-उपवेशनं यस्य सोऽत्यासनस्तद्धावस्तत्ता तया, अर्शी-1 या ॥४४६॥ [विकारादयो हि रोगा एतया उत्पद्यन्त इति अथवा अतिमात्रमशनमत्यशनं तदेवात्यशनता, दीर्घत्वं च प्राकृतत्वात् दीप अनुक्रम [८०६] E ator पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~325~ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६६७] प्रत सूत्रांक [६६७] तया, सा चाजीर्णकारणत्वात् रोगोत्पत्तये इति, 'अहियासणयाए'त्ति अहित-अननुकूल टोलपाषाणाद्यासनं यस्य स तथा, शेषं तथैव, तया, अहिताशनतया वा, अथवा 'साऽजीर्णे भुज्यते यत्तु, तदध्यसनमुच्यते ।' इति वचनात् तद-II ध्यसनं-अजीणे भोजनं तदेव तत्ता तयेति, भोजनप्रतिकूलता-प्रकृत्यनुचितभोजनता तया, इन्द्रियार्थानां-शब्दादि-४ विषयाणां विकोपन-विपाकः इन्द्रियार्थविकोपनं कामविकार इत्यर्थः, ततो हि ख्यादिष्यभिलाषादुन्मादादिरोगोत्पत्तिः, यत उक्तम्-"आदावभिलापः१ स्थाचिन्ता तदनन्तरं २ ततः स्मरणम् ३ । तदनु गुणानां कीर्तन ४ मुद्धेगश्च ५ प्रला-1 पश्च ६ उन्माद७ स्तदनु ततो व्याधिद जडता ९ ततस्ततो मरणम् १० ॥१॥" इति विषयाप्राप्तौ रोगोत्पत्तिरत्यासक्तावपि राजयक्ष्मादिरोगोत्पत्तिः स्वादिति शारीररोगोत्पत्तिकारणान्युक्तान्यथान्तररोगकारणभूतकर्मविशेषभेदाभिधानायाह णवविधे बुरिसणावरणिजे कम्मे पं० तं-निद्दा निहानिहा पयला पयलापयला थीणगिद्धी चक्खुदसणावरणे अचक्खुन दसणावरणे अवधिदसणावरणे केवलदसणावरणे (सू०६६८) अभिती णं णक्खत्ते सातिरंगे नव मुहुत्ते देण सद्धिं जोगं जोतेति, अभीतिआतिआ ण णवनक्सचा णं चंदस्स उत्तरेण जोग जोति, सं०-अभीती सवणो धणिवा जाव भरणी (६६९) इमीसे णं रयणप्पभाते पुढबीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ णवजोअणसताई उद्धं अबाहाते उवरिल्ले तारारूवे पार परति (सू०६७०) जंबूदीचे णं दीवे णवजोयणिआ मच्छा पविसिसु वा पविसंति वा पविसिस्संति वा (सू०६७१) जंबुद्दीवे वीचे भारहे वासे इमीसे ओसपिणीते णव बलदेववासुदेवपियरो हुत्या - पयावती त नंभे य, रोहे सोमे सिवेतिता । महासीहे अम्गिसीहे, दसरह नवमे य वसुदेवे ॥ १॥ इत्तो आढत्तं जधा दीप अनुक्रम [८०६] SCREXX SamEairat पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~326~ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६७२] + गाथा: श्रीस्थानाइसूत्रवृत्तिः ॥४४७॥ प्रत सूत्रांक [६७२] समवाये निरखसेस जाव एगा से गम्भवसही सिजिझस्सति आगमेस्सेणं । जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे आगमेस्साए उस्स ९स्थाना पिणीवे नव बलदेववासुदेवपितरो भविस्संति, नव बलदेव० मायरो भावस्सति एवं जया समवाते निरवसेसं जाव महा उद्देशः ३ भीमसेण सुग्गीवे य अपछिमे । एए खलु पडिसत्तू कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । सव्वेवि चकजोही हम्मेहंती सच | निद्रादिकेहिं ॥ १॥ (सू० ६७२) | नक्षत्रयो 'न'त्यादी, सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि सामान्यग्रहणात्मको बोधो दर्शनं तस्यावरणस्वभावं कर्म दर्शनावरणं गातारतत् नवविध, तत्र निद्रापञ्चकं तावत् 'द्रा कुत्सायां गती' नियतं द्राति-कुत्सितत्वमविस्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यमनयेति| कापाषा निद्रा-सुखप्रबोधा स्वापावस्था नखच्छोटिकामात्रेणापि यत्र प्रबोधो भवति तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि निद्रेति का- | मत्स्या रा. येण व्यपदिश्यते, तथा निद्रातिशायिनी निद्रा निद्रानिद्रा शाकपार्थिवादित्वात् मध्यपदलोपी समासः, सा पुनःखप्र- | माद्या बोधा स्वापावस्था, तस्यां प्रत्यर्थमस्फुटतरीभूतचैतन्यत्वाइःखेन बहुभिर्घोलनादिभिः प्रबोधो भवत्यतः सुखप्रयोध-18| सू०६६८निद्रापेक्षया अस्या अतिशायिनीत्वं तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि कार्यद्वारेण निद्रानिद्रेत्युच्यते, उपविष्ट उर्वस्थितो ६७२ वा प्रचलत्यस्यां स्वापावस्थायामिति प्रचला, सा युपविष्टस्योर्ध्वस्थितस्य वा घूर्णमानस्य स्वार्भवति, तथाविधविपाक-1|| वेद्या कर्मप्रकृतिरपि प्रचलेति उच्यते, तथैव प्रचलातिशायिनी प्रचला प्रचलाप्रचला, सा हि चङ्कमणादि कुर्वतः स्वप्नुभ-181 वत्यतः स्थानस्थितस्वप्नुभवां प्रचलामपेक्ष्यातिशायिनी तद्विपाका कर्मप्रकृतिरपि प्रचडामचला, स्त्याना-बहुत्वेन 8 ॥४४७॥ सातमापना गृद्धिा-अभिकासर जाग्रदवस्थाऽव्यवसितार्थसाधनविषया यस्यां स्वापावस्थायां सा स्त्यानगृद्धि, तस्या दीप अनुक्रम [८१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~327~ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६७२] प्रत सूत्रांक [६७२] हि सत्यां जानदवस्थाध्यवसितमर्धमुत्थाय साधयति स्त्याना वा-पिण्डीभूता ऋद्धिः-आरमशक्तिरूपाऽस्यामिति स्त्यानिर्द्धिरित्यप्युच्यते, तदावे हि स्वप्नुः केशवाईबलसहशी शक्तिर्भवति, अधवा स्त्याना-जडीभूता चैतन्यर्द्धिरस्यामिति स्त्यानद्धिरिति, तादृशविपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि स्त्यानर्द्धिः स्त्यानगृद्धिरिति वा, तदेवं निद्रापथकं दर्शनावरणक्ष-18 योपशमालब्धात्मलाभानां दर्शनलब्धीनामाधारकमुक्तमधुना यद्दर्शनलब्धीनां मूलत एवं लाभमावृणोति तदिदं दर्श-18 नावरणचतुष्कमुच्यते, चक्षुषा दर्शन-सामान्यग्राही बोधश्चक्षुर्दर्शनं तस्यावरणं चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुषा-चक्षुर्वर्जे|न्द्रियचतुष्टयेन मनसा वा यदर्शनं तदचक्षुदर्शनं तस्यावरणमचक्षुर्दर्शनावरणं, अवधिना-रूपिमर्यादया अबधिरेव वा करणनिरपेक्षो बोधरूपो दर्शनं-सामान्यार्थग्रहणमवधिदर्शनं तस्यावरणमवधिदर्शनावरणं, तथा केवलं-उक्तस्वरूपं तच्च तदर्शनं च तस्यावरणं केवलदर्शनावरणमित्युक्तं नवविधं दर्शनावरणं । जीवानां कर्मणः सकाशानक्षत्रादिदेवत्वं तिर्यक्त्वं मानुषत्वं च भवतीति नक्षत्रादिवक्तव्यताप्रतिबद्धं सूत्रवृन्द 'अभीत्यादि हम्मिहति सचकेहिं' इत्येतदन्तमाह सुगमंच,18। नवरं 'साइरेग'त्ति सातिरेकानव मुहर्त्तान् यावच्चतुर्विशत्या मुहूर्तस्य द्विषष्टिभागैः षषष्ट्या च द्विपष्टिभागस्य सप्तपष्टिभागानामिति, 'उत्तरेण जोगं'ति उत्तरस्यां दिशि स्थितानि, दक्षिणाशास्थितचन्द्रेण सह योगमनुभवन्तीति भावः, 'बहुसमरमणिज्जाउ'त्ति अत्यन्तसमो बहुसमोऽत एव रमणीयो-रम्यस्तस्माद्भूमिभागात् न पर्वतापेक्षया नापि श्व-18 धापेक्षयेति भावः, 'आयाधाए'त्ति अन्तरे कृत्वेति वाक्पशेषः, 'उवरिल्लेति उपरितनं तारारूप-तारकजातीय 'चार' धमणं 'चरति' आचरति, 'नवजोयणिय'त्ति नव योजनायामा एवं प्रविशन्ति, लवणसमुद्रे यद्यपि पञ्चशत दीप अनुक्रम [८१४] Editor पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~328~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६७२] ॐ म श्रीस्थाना- सूत्र वृत्तिः प्रत ॥४४८॥ सू०६७३ सूत्रांक [६७२] योजनायामा मत्स्या भवन्ति तथापि नदीमुखेषु जगतीरन्ध्रौचित्येनैतावतामेव प्रवेश इति, लोकानुभावो वाऽयमिति, स्थाना० 'पयावई'त्यर्द्धं श्लोकस्योत्तरं तु गाथापश्चाद्ध मिति, सोपायातिदिशन्नाह-'एत्तो'त्ति इतः सूत्रादारब्धं 'जहा समाए'त्ति उद्देशः ३ समवाये चतुर्थांगे यथा तथा निरवशेष ज्ञेयं, तच्चार्थत इदं-नव वासुदेवबलदेवानां मातापितरस्तेषामेव नामानि-पूर्व- ट्र निधानभवनामानि धर्माचार्या निदानभूमयो-निदानकारणानि प्रतिशत्रवो गतयश्चेति, किमन्तमेतदित्याह-जाव एका' प्रकरणं | इत्यादि गाथापश्चाई, पूवार्द्ध त्विदमस्या:-'अटुंतकडा रामा इको पुण बंभलोयकप्पंमि'त्ति । 'सिज्झिस्सइ आगमि स्सेणं'ति आगमिष्यति काले सेत्स्यति णमिति वाक्यालङ्कारे तृतीया वेयमिति, तथा 'जंबूदी।' त्यादावागाम्युत्सर्पिणीसूत्रे 'एवं जहा समवाए' इत्याद्यतिदेशवचनमेवमेव भावनीयं यावत्पतिवासुदेवसूत्रं महाभीमसेनः सुग्रीवश्चापश्चिम इत्येतदन्तं, तथा 'एते गाहाएते अनन्तरोदिता नव प्रतिशत्रवः 'कित्तीपुरिसाण'त्ति कीर्तिप्रधानाः पुरुषाः कीर्तिपुरुषास्तेषां, 'चकजोहि'त्ति चक्रेण योढुं शीलं येषां ते चक्रयोधिनः 'हमीहंति'त्ति हनिष्यन्ते स्वचकैरिति ॥ इह महापुरुषाधिकारे महापुरुषाणां चक्रवर्तिनां सम्बन्धिनिधिप्रकरणमाह एगमेगे णं महानिधी ण णव णव जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ते एगमेगस्स णं रन्नो चावरंतचावहिस्स नव महानिहओ पं० सं०- सप्पे १ पंदुयए २ पिंगलते ३ सम्वरयण ४ महापउमे ५ । काले य ६ महाकाले ७ माणवग ८ महानिही संखे ९ ॥१॥ सप्पंमि निवेसा गामागरनगरपट्टणाणं च । दोगमुहमडबाणं खंधाराणं गिहाणं च ॥२॥ गणियस्स य बीयाणं माणुम्माणुस्स जं पमाणं च । धन्नस्स य बीयाणं उप्पत्ती पंछते भणिया ॥३॥ सध्या भाभ KEBAAR दीप अनुक्रम [८१४] 354545* ॥४४८ FF पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~329~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६७३] + गाथा: प्रत सूत्रांक [६७३] गाथा ॥१-१४|| *555 रणविहीं पुरिसाणं-जा य होइ महिलाणं । आसाण व हत्थीण य पिंगलगनिहिमि सा भणिया ॥ ४॥ रवणाई सस्वरयणे चोइस पवराई चक्कबहिस्स । उप्पाजंति एगिदियाई पंचिंदियाई च ॥५॥ वत्थाण य उप्पत्ती निष्पत्ती'चेव सबभत्तीणं । रंगाण य धोयाण य सव्वा एसा महापउमे ॥ ६॥ काले कालण्णाणं भव्यपुराणं च तीसु वासेसु । सिप्पसतं कम्माणि य तिन्नि पयाए हियकराई ॥ ७॥ लोहस्स य उप्पत्ती होइ महाकालि आगराणं च । रुप्परस सुबन्नस्स य मणिमोत्तिसिलप्पवालाणं ॥ ८ ॥ जोधाण य उप्पत्ती आवरणाणं च पहरणाणं च । सव्वा य जुद्धनीती माणवते दंडनीती य ॥ ९॥ नट्टविही नाडगविही कव्वस्स चउन्विहस्स उत्पत्ती । संखे महानिहिम्मी तुडियंगाणं च सम्बेसि ॥१०॥ चकट्ठपइहाणा अद्गुस्सेहा य नव य विक्खंभे । बारसदीहा मंजूससंठिया जहवीई मुद्दे ॥ ११॥ वेरलियमणिकवाडा कणगमया विविधरयणपडिपुन्ना । ससिसूरचकलक्खणअणुसमजुगबाहुवतणा त ॥ १२॥ पलिओचमट्टितीया णिहिसरिणामा य तेसु खलु देवा । जेसि ते आवासा अकिब्जा आहिवचा वा ।। १३ ॥ एए ते नवनिहओ पभूतधणरयणसंचयसमिद्धा । जे वसमुवगच्छंती सब्वेसिं चकवट्टीणं ॥ १४ ॥ (सू०६७३) 'एगमेगें' इत्यादि सुगम, नवरं “नेसप्पे १ पंडुयए २ पिंगले ३ सव्वरयण ४ महापउमे ५ । काले अ६ महाकाले माणवगमहानिही ८ संखे ९॥१॥"[नैसर्पः पाण्डुका पिंगलः सर्वरत्नः महापद्मः कालश्च महाकालः माणवका शंख इति नव महा निधयः॥१॥] 'नेसप्पमि'गाहा, इह निधौनतन्नायकदेवयोरभेदविवक्षया नैसों देवस्तस्मिन् सति तत इत्यर्थः, निवेशाः-स्थापनानि अभिनवग्रामादीनामिति, अथवा चक्रवर्तिराज्योपयोगीनि द्रव्याणि सर्वाण्यपि नवसु दीप अनुक्रम [८१५-८२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~330~ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६७३] निधान प्रत सूत्रांक [६७३] गाथा ॥१-१४|| 456 श्रीस्थाना-12निधिष्ववतरन्ति, नब निधानतया व्यवहियन्त इत्यर्थः, तत्र ग्रामादीनामभिनवानां पुरातनानां च ये सन्निवेशा-निवे- स्थाना. गसूत्र- शनानि ते नैसनिधी वर्तन्ते, नैसर्पनिधितया व्यवाहियन्त इति भावः, तत्र ग्रामो-जनपदपायलोकाधिष्ठितः आकरो वृत्तिः -यत्र सन्निवेशे लवणायुपद्यते, न करो यत्रास्ति तनकर पत्तनं-देशीस्थानं द्रोणमुख-जलपथस्थलपथयुक्तं मर्डब-अ-1 ॥४४९॥ विद्यमानप्रत्यासन्नवसिम स्कन्धावार:-कटकनिवेशो गृह-भवनमिति । 'गणित'गाहा, गणितस्व-दीनारादिपूगफला-12 प्रकरणं दिलक्षणस्य, चकारस्य व्यवहितः सम्बन्धः स च दर्शयिष्यते, तथा बीजानां-तन्निवन्धनभूतानां तथा मानं सेतिकादिसू० ६७३ तद्विषयं यत्तदपि मानमेव धान्यादि मेयमिति भावः, तथोन्मानं-तुलाकोंदि तद्विषयं यत्तदप्युन्मानं खण्डगुडादि ध-1 रिममित्यर्थः, ततो द्वन्द्वसमाहारः कार्यस्ततस्तस्य च, किमित्याह-यामाणं, चकारी व्यवहितसम्बन्ध एव, तथैव दर्श-1 यिष्यते, तलाण्डु के भणितमिति लिङ्गपरिणामेन सम्बन्धः, तथा धान्यस्य-त्रीह्यादेवींजानां च-तद्विशेषाणामुत्पत्तिश्च या सा पाण्डके-पाण्डुकनिधिविषया, तव्यापारोऽयमिति भावो, भणिता-उक्ता जिनादिभिरिति २ । 'सब्वा' गाहा कण्ठया शरयण'गाहा, अक्षरघटनैव-रत्नाम्येकेन्द्रियाणि चक्रादीनि सप्त पत्रवेन्द्रियाणि सेनापत्यादीनि सप्त उत्पद्यन्ते -भवन्ति यानि चक्रवर्तिनस्तानि सर्वाणि 'सर्वरत्ने' सर्वरलनामनि निधी द्रष्टव्यानीति ॥ 'वस्थाणं'गाहा, वस्त्राणां|वाससां योत्पत्तिः सामान्यतो या च विशेषतो निष्पत्तिः-सिद्धिः सर्वभक्तीनां सर्ववस्त्रप्रकाराणां सर्वो वा भक्तयःप्रकारा येषां तानि तथा तेषां, किंभूतानां वखाणामित्याह-राणां-रङ्गवतां रक्तानामित्यर्थः, धौतानां-शुद्ध स्वरूपाणां, स(वैषा महापो-महापद्मनिधिविषया ५। 'काले गाहा, 'काले' कालनामनि निधौ ‘कालज्ञान' कालस्य शुभाशुभरूपस्य दीप अनुक्रम [८१५-८२९] CamEauratoniumational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~331~ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६७३] + गाथा प्रत सूत्रांक [६७३] गाथा ॥१-१४|| ज्ञानं वर्तते, ततो ज्ञायत इत्यर्थः, किम्भूतमित्याह-भाषिवस्तुविषयं भव्यं पुरातनवस्तुविषयं पुराणं, चशब्दाद् वर्त्त| मानवस्तुविषयं वर्तमानं, 'तीसु वासेसु'त्ति अनागतवर्षत्रयविषयमतीतवर्षत्रयविषयं चेति, तथा शिल्पशतं कालनिधी वर्त्तते, शिल्पशतं च घट १ लोह २ चित्र ३ वस्त्र ४ नापित ५ शिल्पानां प्रत्येकं विंशतिभेदत्वादिति, तथा कर्माणि च । कृषिवाणिज्यादीनि कालनिधाविति प्रक्रमः, एतानि च त्रीणि कालज्ञानशिल्पकर्माणि प्रजाया:-लोकस्य हितकराणि निर्वाहाभ्युदयहेतुत्वेनेति 'लोहगाहा, लोहस्य चोत्पत्तिर्महाकाले निधी भवति-वर्चते, तथा आकराणां च लोहादि|सत्कानामुत्पत्तिराकरीकरणलक्षणा, एवं रूप्यादीनामुत्पत्तिः सम्बन्धनीया केवलं मणयः-चन्द्रकान्तादयः मुक्तामुक्ताफलानि शिलाः-स्फटिकादिकाः प्रवालानि-विदुमाणीति ७ 'जोगाहा योधाना-शूरपुरुषाणां योत्पत्तिरावरणानां |-सनाहाना प्रहरणानां खड़ादीनां सा युद्धनीतिश्च-व्यूहरचनादिलक्षणा माणवके निधी निधिनायके वा भवति, ततः प्रवर्त्तत इति भावः, दण्डेनोपलक्षिता नीतिर्दण्डनीतिश्च-सामादिश्चतुर्विधा, अत एवोक्तमावश्यके-सेसा उ दंडनीई माणवगनिहीउ होइ भरहस्स'त्ति का 'नह'गाहा, नाव्य-नृत्यम् , तद्विधिः-तत्करणप्रकारः, नाटक-चरितानुसारि नाटक-13 लक्षणोपेतं तद्विधिश्च, इह पदद्वये द्वन्द्वः तथा काव्यस्य चतुर्विधस्य धर्मार्थकाममोक्षलक्षणपुरुषार्थप्रतिवद्धग्रन्थस्य १ अ-18 थवा संस्कृतप्राकृतापभ्रंशसङ्कीर्णभाषानिवद्धस्य २ अथवा समविषमार्द्धसमवृत्सबद्धतया गद्यतया चेति ३ अथवा गद्यप गेयवर्णपदभेदबद्धस्येति उत्पत्तिः-प्रभवः शङ्के महानिधी भवति, तथा तूर्याङ्गाणां च-मृदङ्गादीनां सर्वेपामिति ९ 'चक्क'गाहा, चक्रेष्वष्टासु प्रतिष्ठान प्रतिष्ठा--अवस्थानं येषां ते तथा, अष्टी योजनान्युत्सेधः-उच्छ्यो येषां ते तथा, दीप अनुक्रम [८१५-८२९] ACADASANTOS AACANCE मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~332~ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६७३] + गाथा श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः 4-5 ॥४५०॥ प्रत सूत्रांक [६७३] गाथा ॥१-१४|| नव योजनानीति गम्यते विष्कम्भे-विस्तरे निधय इति शेषः, द्वादशयोजनानि दीर्घा मषाः-प्रतीताः तत्संस्थिताः-18 स्थाना तत्संस्थाना, जाह्नव्या-गङ्गाया मुखे भवन्तीति । 'वेरुलियंगाहा, वैडूर्यमणिमयानि कपाटानि येषां ते तथा, मयश-IM उद्देशा३ ब्दस्य वृत्त्या उतार्थतेति, कनकमया:--सौवर्णा विविधरत्नप्रतिपूर्णाः प्रतीतं शशिसूरचक्राकाराणि लक्षणानि-चिहानि विकतय-' येषां ते तथा अनुसमा:-अनुरूपा अविषमाः 'जुग'त्ति यूपः तदाकारा वृत्तत्वादीर्घत्वाच बाहवो-द्वारशाखा वदनेषु- छिद्राणि मुखेषु येषां ते तथा ततः पदत्रयस्य कर्मधारये शशिसूरचक्रलक्षणानुसमयुगबाहुवदना इति, चः समुच्चये । 'पलि- पुण्यं पापं गाहा, 'निहिसरिनाम'त्ति निधिभिः सहक्-सदृक्षं नाम येषां देवानां ते तथा, येषां देवानां ते निधयः आवासाः- पापश्रुतं आश्रयाः, किम्भूताः?-'अकेया' अक्रयणीयाः, सर्वदैव तत्सम्बन्धित्वात्, आधिपत्यं च-स्वामिता च तेषु येषां देवा-13ासू०६७४. नामिति प्रक्रमः, 'एते ते'गाहा, कण्ठ्या । अनन्तरं चित्तविकृतिविगतिहेतवो निधय उक्ताः अधुना तथाविधा एव विकृतीः प्रतिपादयन्नाह गव विगतीतो पं००-खीर दधि णवणीतं सपि तेलं गुलो महुं मज मंसं (सू०६७४) णवसोतपरिस्सवा बोंदी पण्णत्ता, तं०-दो सोत्ता दो णेत्ता दो घाणा मुहं पोसे पाऊ (सू०६७५) प्रायविधे पुन्ने पं० सं०-अन्नपुन्ने १ पाणपुणे २ बस्यपुग्ने ३ लेणपुण्णे ४ सयणपुन्ने ५ मणपुन्ने ६ वतिपुण्णे ७ कायपुण्णे ८ नमोकारपुण्णे ९ (सू० ६७६) ४ ४५०॥ णव पावसायतणा पं० सं०-पाणातिवाते मुसाबाते जाव परिग्गहे कोहे माणे माया लोभे (सू० ६७७) नवविधे RRE दीप अनुक्रम [८१५-८२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~3334 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६७८] + गाथा प्रत सूत्रांक [६७८] पावसुयपसंगे पं० ०-जुपाते १ निमित्ते २ मते ३ आतिक्खिते ४ तिगिल्छते ५ । कला ३ आवरणे . नाणे ८ मिच्छापावतणेति त ९॥ १॥ (सू० ६७८) 'नव विगईओं' इत्यादि गतार्थ तथाप्युच्यते किञ्चित्-'विगईओं'त्ति विकृतयो विकारकारित्वात् , पक्वान्नं तु कदाचिदविकृतिरपि तेनैता नव, अन्यथा तु दशापि भवन्तीति, तथाहि-"एक्केण चेव तवओ पूरिजइ पूयएण जो ताओ। बिईओऽवि स पुण कप्पड़ निविगईअ लेवडो नवरं ॥१॥” इति [एकेन चैव तपकः पूर्यतेऽपेन यस्ततो द्वितीयो-13 ऽपि स पुनः कल्पते निर्विकृति कस्य लेपकृत नवरं ॥१॥] (द्वितीयोऽपि विकृतिनै भवतीति भावः> तत्र क्षीरं पञ्चधार -अजैडकागोमहिष्युष्ट्रीभेदात् , दधिनवनीतघृतानि चतुषोष्ट्रीणां तदभावात् , तैलं चतुर्द्धा-तिलातसीकुसुम्भसर्षपभेदात् , गुडो द्विधा-द्रवपिण्डभेदात् , मधु त्रिधा-माक्षिककौन्तिकभ्रामरभेदात् , मद्यं द्विधा-काष्ठपिष्टभेदात्, मांस त्रिधा-जलस्थलाकाशचरभेदादिति । विकृतयश्चोपचयहेतवः शरीरस्येति तस्यैव स्वरूपमाह-'नवेत्यादि, नवभिः श्रोतोभिः-छिद्रैः परिश्रवति-मलं धरतीति नवश्रोतःपरिश्रवा बोन्दी-शरीरमौदारिकमेवैवंविधं द्वे श्रोत्रे-कणों नेत्रेनयने प्राणे-नासिके मुख-आस्वं पोसएत्ति-उपस्था पायु:-अपानमिति । एवंविधेनापि शरीरेण पुण्यमुपादीयत इति पुण्यभेदानाह–'पुन्ने'त्यादि, पात्रायान्नदानाद् यस्तीर्थकरनामादिपुण्यप्रकृतिबन्धस्तदन्नपुण्यमेवं सर्वत्र, नवरं 'लेणं'ति लयन-गृहम् , शयन-संस्तारको मनसा गुणिषु तोषात् वाचा प्रशंसनात् कायेन पर्युपासनान्नमस्काराच्च यत्पुण्यं तन्मनः-|| पुण्यादीनि, उरतं च-"अन्नं पानं च वखं च, आलयः शयनासनम् । शुश्रूषा वन्दनं तुष्टिः, पुण्यं नवषिधं स्मृतम् गाथा दीप अनुक्रम [८३०-८३५] CARMER पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~334~ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६७८] + गाथा (०३) प्रत सूत्रांक [६७८] श्रीस्थाना-8॥१॥" इति । पुण्यविपर्यासरूपस्य पापस्य कारणान्याह-नव पावस्सेत्यादि कण्ठ्यं, नवरं पापस्य-अशुभप्रकृति-|४९ स्थाना. गसूत्र- रूपस्यायतनानि-बन्धहेतव इति । पापहेत्वधिकारात् पापश्रुतसूत्रं, कण्ठयम् , नवरं पापोपादानहेतुः श्रुतं-शास्त्रं पाप- उद्देशः३ वृत्तिः श्रुतं तत्र प्रसङ्गः-तथाऽऽसेवारूपः विस्तरो वा-सूत्रवृत्तिवार्त्तिकरूपः पापश्रुतप्रसङ्गः, 'उपाए सिलोगो तत्रोत्पात:- वस्तूनि ॥४५१॥ प्रकृतिविकाररूपः सहजरुधिरवृष्ट्यादि तत्प्रतिपादनपरं शास्त्रमपि तथा राष्ट्रोत्पातादि, तथा निमित्तं-अतीतादिपरि-18| गणाः ज्ञानोपायशास्खं कूटपर्वतादि २ मन्त्रो-मन्त्रशास्त्रं जीवोद्धरणगारुडादि ३ 'आइक्खिए'त्ति मातङ्गविद्या यदुपदे- सू०६७२शादतीतादि कथयन्ति डोण्ड्यो बधिरा इति लोकप्रतीताः ४ चैकित्सिक-आयुर्वेदः ५ कला-लेखाद्याः गणितप्रधानाः ६८० शकुनरुतपर्यवसाना द्वासप्ततिस्तच्छास्त्राण्यपि तथा ६ आनियते आकाशमनेनेत्यावरण-भवनप्रासादनगरादि तल्लक्षहैणशास्त्रमपि तथा वास्तुविद्येत्यर्थः ७ अज्ञानं-लौकिक श्रुतं भारतकाव्यनाटकादि ८ मिथ्याप्रवचन-शाक्यादितीआर्थिकशासनमिति ९ एतच्च सर्वमपि पापश्रुतं संयतेन पुष्टालम्बनेनासेव्यमानमपापश्रुतमेवेति, इतिरेवंप्रकारे, चः समु-11 चये ॥ उत्पतादिश्रतवन्तश्च निपुणा भवन्तीति निपुणपुरुषाभिधानायाह ॥४५१॥ नव उणिता वत्थू पं० सं०---संखाणे निमित्ते कातिते पोराणे पारिहस्थिते परपंडिते वातिते भूतिकम्मे विगिच्छते (सू० ६७९) समणस्स णं भगवतो महावीरस्स णव गणा हुस्था, तं०-गोदासे गणे उत्तरबलिस्सहगणे उदेवगणे चारगगणे उदयातितगणे विस्सवातितगणे कामवृितगणे माणवगणे कोडिलगणे ५ (सू०६८०) समणेणं भगवता महा गाथा RECASCHECRESCRICORNERGAON दीप अनुक्रम [८३०-८३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~335~ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६८१] प्रत सूत्रांक [६८१] वीरेण समणाणं णिगंधाणं णवकोडिपरिसुद्धे मिक्खे पं० २०–ण हणइ ण हणावइ हणत णाणुजाण ण पतति ण पतावेति पततं गाणुजाणति ण किणति ण कितावेति किगंतं पाणुजाणति (सू०६८१) 'नव निउणे त्यादि, निपुणं-सूक्ष्मं ज्ञानं तेन चरन्तीति नैपुणिकाः निपुणा एव वा नैपुणिकाः 'वत्थु'त्ति आचार्यो| दिपुरुषवस्तूनि पुरुषा इत्यर्थः, 'संखाणे' सिलोगो, सङ्घबान-गणितं तद्योगात्पुरुषोऽपि तथा, सङ्ख्याने वा विषये निपुण इति, एवमन्यत्रापि, नवरं निमित्त-चूडामणिप्रभृति कायिक-शारीरिकम् इडापिङ्गलादि प्राणतत्त्वमित्यर्थः, पुराणोवृद्धः, स च चिरजीवित्वादू दृष्टबहुविधव्यतिकरत्वान्नैपुणिक इति, पुराणं वा-शास्त्रविशेषः तज्ञो निपुणप्रायो भवति, 'पारिहथिए'त्ति प्रकृत्यैव दक्षः सर्वप्रयोजनानामकालहीनतया कर्जेति, तथा पर:-प्रकृष्टः पण्डितः परपण्डितो-बहुशास्त्रज्ञः परो वा-मित्रादिः पण्डितो यस्य स तथा, सोऽपि निपुणसंसर्गानिपुणो भवति, वैद्यकृष्णकवदिति, वादीवादलब्धिसम्पन्नो यः परेण न जीयते मन्त्रवादी वा धातुवादी वेति, ज्वरादिरक्षानिमित्तं भूतिदानं भूतिकर्म तत्र नि| पुणः, तथा चिकित्सिते निपुणः, अथवा अनुपवादाभिधानस्य नवमपूर्वस्य नैपुणिकानि वस्तूनि-अध्ययनविशेषा ए वेति । एते च नैपुणिकाः साधवो गणान्तर्भाविनो भवन्तीति गणसूत्रं'समणस्सेत्यादि सूत्रं कण्ठ्यं, नवरं गणाः | एकक्रियावाचनानां साधूनां समुदायाः, गोदासादीनि च तन्नामानीति । उक्तगणवर्तिनां च साधूनां यद्भगवता प्रज्ञप्तं Iतदाह-समणेण मित्यादि, नवभिः कोटिभिः-विभागैः परिशुद्ध-निदोष नवकोटिपरिशुद्ध भिक्षाणां समूहो भै| प्रज्ञप्त, तद्यथा-न हन्ति साधुः स्वयमेव गोधूमादिदलनेन न घातयति परेण गृहस्थादिना नन्तं न-नैव अनुजानाति || स्था०७६ दीप C+ M अनुक्रम [८३८] ak Et पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~336~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६८१] प्रत सूत्रांक [६८१] श्रीस्थाना- अनुमोदनेन तस्य वा दीयमानस्याप्रतिषेधनेन 'अप्रतिषिद्धमनुमत'मिति वचनात् हनमप्रसङ्गजननाञ्चेति, आह ए- 1९ स्थाना कार्म सयं न कुब्वइ जाणतो पुण तहवि तग्गाही । वड्डेइ तप्पसंग अगिण्हमाणो उ वारेइ ॥१॥" इति [कामं न उद्देशः३ वृत्तिः करोतीति सत्यं तथापि जानानस्तग्राही पुनस्तत्प्रसंगं वर्धयति अगृह्णानस्तु वारयति ॥१॥] तथा हतं-पिष्टं सत् गो- ईशानव धूमादि मुद्गादि वा अहतमपि सन्न पचति स्वयं, शेष प्राग्वत्, सुगम च, इह चाद्याः षट् कोटयोऽविशोधिकोट्यामवत- ॥ ४५२॥ रुणेशानारन्ति आधाकर्मादिरूपत्वात् अन्त्यास्तु तिम्रो विशोधिकोव्यामिति, उक्तं च-"सा नवहा दुह कीरइ उग्गमकोडी महिषी|विसोहिकोडी य । छसु पढमा ओयरई कीयतियमी विसोही उ ॥१॥” इति [सा नवविधा कोटी द्विधा क्रियते उद्ग- लोकान्ति४|मकोटिविंशोधिकोटिश्च । पटूसु प्रथमावतरति क्रीतत्रिके विशोधिरेव ॥१॥] नवकोटीशुद्धाहारग्राहिणां कथश्चित्रिवों- कौवेयकाः जणाभावे देवगतिर्भवत्येवेति देवगतिगतवस्तुस्तोममभिधित्सुः 'ईसाणसे'त्यादि सूत्रनवकमाह सू०६८२ईसाणस्स णं देविंदरस देवरणो वरुणस्स महारझो णव अग्गमहिसीओ पं० (सू०६८२) ईसाणस्स णं देविंदस्स ६८५ देवरण्णो अग्गमहिसीणं णव पलिओवमाई ठिती पं०, ईसाणे कप्पे उकोसेणं देवीणं णव पलिओवमाई ठिती पं० (सू०६८३) नव देवनिकाया पं० सं०-"सारस्सयमाइचा वण्ही वरुणा य गद्दतोया य । तुसिया अन्याबाहा अग्गिचा चेव रिद्वा य ॥१॥" अव्वाबाहाणं देवाणं नव देवा नव देवसया पं० एवं अग्गिवावि, एवं रिट्ठावि (सू० ६८४) णब गेवेजविमाणपत्थडा पं० सं०-हेछिमहेट्ठिमगेविजविमाणपत्थडे हेडिममझिमगेविजविमाणपत्थडे है ॥४५२॥ हिमनवरिमगेविजविमाणपत्थडे मझिमहे हिमगेविजविमाणपत्थडे मज्झिममज्झिमगेविजविमाणपत्थडे मजिामउवरिम दीप अनुक्रम [८३८] SCSC CamEauratomitimational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~337 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६८५] दीप अनुक्रम [८४५] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-1, मूलं [ ६८५] + गाथा स्थान [९], Education विमाणपत्थरिमदेहिमगेवे० उबरिममज्झिम० उवरिम २गेविजविमाणपत्थडे, एतेसि णं णवण्डं गेविजविमाणपत्था व नामधिजा पं० तं भद्दे सुभद्दे सुजाते सोमण से पित्तदरिसणे । सुदंसणे अमोहे व सुप्पबुद्धे जसोघरे || १ || (सू० ६८५ ) चेदम् नवरं 'नवपलिओ माईति नबैव, तासां सपरिग्रहत्वाद् उक्तं च- " सपरिग्गहेयराणं सोहंमीसाण पलिय १ साहीयं २ । उक्कोस सत्त पना नव पणपन्ना य देवीणं ॥ १ ॥” इति [ सौधर्मेशानयोः सपरिग्रहाणां इतरासां च देवीनां पल्यमधिकं च उत्कृष्टं सप्त पश्चाशत् नव पश्चपञ्चाशञ्च ॥ १ ॥ ] 'सारस्सय' गाहा सारस्वताः १ आदित्या २ | वह्नयः ३ वरुणा ४ गई तोयाः ५ तुषिता ६ अव्यावाघा ७ आग्नेयाः ८, एते कृष्णराज्यन्तरेष्वष्टासु परिवसन्ति, रिष्ठास्तु कृष्णराजिमध्य भागवर्त्तिनि रिष्ठाभषिमानप्रस्तटे परिवसन्तीति ॥ अनन्तरं ग्रैवेयकविमानानि उक्तानि तद्वासिनश्चायुष्मन्तो भवन्तीत्यायुःपरिमाणभेदानाह नवविहे आउपरिणामे पं० [सं० गतिपरिणामे गतिबंधणपरिणामे ठिइपरिणामे ठितिबंधणपरिणामे उडुंगारवपरिणामे अहेगारवपरिणामे तिरितंगारवपरिणामे दीइंगारवपरिणामे रहस्संगारवपरिणामे (सू० ६८६ ) णवणवमिता णं भिक्खुपडिमा एगासीते रातिदिएहिं चउहि य पंचुत्तरेहिं मिक्लासतेहि अधासुत्ता जाव आराहिता ताचि भवति ( सू० ६८७ ) वविधे पायच्छिते पं० नं० आलोयणारिहे जाब मूलारिहे अणवठप्पारिधे (सू० ६८८) Far Far & Private पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~ 338~ antray og "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६८८] प्रत सूत्रांक [६८८] श्रीस्थाना- ... 'नवविहे'त्यादि, 'आउपरिणामेत्ति आयुषः-कर्मप्रकृतिविशेषस्य परिणामः-स्वभावः शक्तिः धर्म इत्यायुम्परिणामः,14स्थाना. गसूत्र- तत्र गतिर्देवादिका तां नियतां येन स्वभावेनायुजीवं प्रापयति स आयुषो गतिपरिणामः १, तथा येनायु:स्वभावेन प्रति-I उद्देशः ३ वृत्तिः नियतगतिकर्मवन्धो भवति यथा नारकायुःस्वभावेन मनुष्यतिर्यग्गतिनामकर्म बनाति न देवनरकगतिनामकर्मेति स आयुःप॥ ४५३ ॥ गतिबन्धनपरिणामः २, तथा आयुषो या अन्तर्मुहर्तादित्रयखिंशत्सागरोपमान्ता स्थितिर्भवति सा स्थितिपरिणामः ३, रिणामाः है तथा येन पूर्वभवायुःपरिणामेन परभवायुषो नियतां स्थिति बन्नाति स स्थितिबन्धनपरिणामः, यथा तिर्यगायुःपरिणा- भिक्षुप्रति मेन देवायुष उत्कृष्टतोऽप्यष्टादश सागरोपमाणीति ४ तथा येनायुःस्वभावेन जीवस्योर्वदिशिगमनशक्तिलक्षणः परिणामोमाः प्रायभवति स ऊर्ध्वगौरवपरिणामा, इह गौरवशब्दो गमनपर्यायः५, एवमितरौ द्वाविति ६-७, तथा यत आयुःस्वभावाज्जीवस्यश्चित्तानि दीर्घ-दीर्घगमनतया लोकान्तात् लोकान्तं यावद् गमनशक्तिर्भवति स दीर्घगौरवपरिणामः ८, एवं च यस्माद्रस्वं गमनं स सू०६८६हस्वगौरवपरिणामः, सर्वत्र प्राकृतत्वादनुस्वार इति, अन्यथाप्यूह्यमेतदिति ९॥ अनन्तरमायुःपरिणाम उक्तः, तत्रैव चायु:- II परिणामविशेषे सति तपाशक्तिर्भवतीति तपोविशेषाभिधानायाह-'नवनवमिए'त्यादि कण्ठय, नवरं नव नवमानि दिनानि यस्यां सा नवनवमिका नवनवमानि च भवन्ति नवसु नवकेविति तत्परिमाणेयमिति, नव च नयकान्येकाशी-1 तिरितिकृत्वा एकाशीत्या रात्रिन्दिवैः-अहोरात्रैर्भवति, तथा प्रथमनवके प्रतिदिनमेका दत्तिः पानकस्य भोजनस्य चेत्येव-15|| मेकोत्तरया वृष्या नवमे नवके नव नव दत्तयः, ततश्च सर्वसङ्कलनया चतुर्भिश्च पश्चोत्तरभिक्षाशतेयेंधासूत्रं यथाकल्पं ॥४५ ॥ यथामार्ग यथातत्त्वं सम्यक्कायेन स्पृष्टा पालिता शोभिता तीरिता कीर्तिता आराधिता चापि भवतीति । इयं च ज-jit ६८८ दीप अनुक्रम [८४८] AAG FFG पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~339~ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६८८] NAGAC+ प्रत सूत्रांक [६८८] मान्तरकृतपापकर्मप्रायश्चित्तमिति प्रायश्चित्तनिरूपणसूत्र, तच्च गतार्थमिति । प्रायश्चित्तं च भरताविक्षेत्रेवेति तगतवस्तुविशेषप्रतिपादनाय 'जंबूदीवेत्यादि एरवए कूडनामाई' इत्येतदन्तं सूत्रप्रपञ्चमाह जंबूमंदरदाहिणेणं भरहे दीहवेत नव कूडा पं० सं०-सिद्धे १ भरहे २ खंडग ३ माणी ४ वेयड ५ पुन्न ६ तिमिसगुहा ७ । भरहे ८ बेसमणे ९ या भरहे कूडाण णामाई ॥१॥ जंबूमंदिरदाधिणेणं निसभे वासहरपन्वते णव कूडा पं० सं०-सिद्धे १ निसहे २ हरिवास ३ विदेह ४ हरि ५ घिति ६ अ सीतोता ७ ॥ अवरविदेहे ८ रुयगे ९ निसभे कूढाण नामाणि ||१|| जंबूमंदरपक्वते गंदणवणे जब कूदा पं० त०-णदणे १ मंदरे २ व निसहे ३ हेमवते ४ रयय ५ रथए ६ व । सागरचित्ते ७ वहरे ८ बलकूडे ९ चेव बोद्धब्बे ॥१॥ जंबूमालवंतवक्वारपवते व फूडा पं० सं०सिद्धे १ व मालवंते २ उत्तरकुरु ३ करछ ४ सागरे ५ रयते ६ । सीता ७ तह पुण्णणामे ८ हरिस्सहकूडे ९ य योद्धव्ये ॥१॥ जंबू० कच्छे दीहवेयड़े नव कूड़ा पं० सं०-सिद्धे १ कच्छे २ संडग ३ माणी ४ वेयड़ ५ पुण ६ तिमिस गुहा ७ । कच्छे ८ बेसमणे या ९ कच्छे कूडाण णामाई ॥१॥ जंबू सुकच्छे दीहवेयड़े णव कूठा पं० सं०-सिद्धे १ सुकच्छे २ खंडग ३ माणी ४ वेयड ५ पुन्न ६ तिमिसगुदा ७ । सुकच्छे ८ वेसमणे ९ वा मुकरिछ फूडाण णामाई ॥१॥ एवं जाब पोक्खलावतिमि दीहवेयड़े, एवं वच्छे दीदवेयड़े एवं जाव मंगलावतिमि दीहवेहड़े । जंबूविजुष्पभे वक्खारपब्बते नव कूड़ा पं० सं०-सिद्धे १ अ विजुणामे २ देवकूरा ३ पम्ह ४ कणग ५ सोपस्थी ६ । सीतोताते ७ सजले ८ हरिफूडे ९ चेन योद्धल्वे ॥१॥ जंबू० पम्हे दीहवेयड़े णव कूडा पं० ०-सिद्धे १ पम्हे २ खंडग ३ दीप अनुक्रम [८४८] Eco Natimary पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~340~ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६८९] + गाथा: (०३) श्रीस्थानासूत्र प्रत वृत्तिः वैताब्या सूत्रांक ॥४५४॥ NARS [६८९] माणी ४ वेयड ५ एवं चेव आव सलिलावर्तिमि दीहवेयड़े, एवं वप्पे दीहवेयड़े एवं जाव गंधिलावतिमि वीहवेगड़े नव एस्थाना कूड़ा पं० त०-सिद्धे १ गंधिल २ खंडग ३ माणी ४ वेयड ५ पुन्न ६ तिमिसगुहा ७ । गंधिलावति ८ वेसमण ९ कूडाण | उद्देशः३ होति णामाई ॥१॥ एवं सम्वेसु दीहवेयडेसु दो कूडा सरिसणामगा सेसा ते चेव, जयूमंदरेणं उत्तरेणं नेलवते वासहरपव्यते णव कूडा पं० सं०-सिढे १ निलवंत २ विदेह ३ सीता ५ कित्ती त ५ नारिकता ६५ । अवर विदेहे रम्म- दिकूटागकूडे ८ उबदसणे ९ चेव ॥१॥ जंबूमबरउत्तरेणं एरवते दीहवेतड़े नव कूडा पं० ०-सिद्धे १ रवणे २ खंढग । धिकारः ३ माणी ४ वेयड़ ५ पुण्ण ६ तिमिसगुहा । एरवते ८ वेसमणे ९ परवते कूडणामाई ॥१॥ (सू० ६८९) सू०६८९ सुगमश्चार्य, नवरं भरतग्रहणं विजयादिव्यवच्छेदाथै दीर्घग्रहणं वर्तुलवैताठ्यव्यवच्छेदार्थमिति, सिद्धेगाहा, तत्र सिद्धायतनयुक्तं सिद्ध कूटं सक्रोशयोजनषट्रोच्छ्रयमेतावदेव मूले विस्तीर्ण एतदोपरि विस्तारं क्रोशायामेनार्द्धकोशवि कम्भेण देशोनकोशोचेनापरदिग्द्वारवर्जपञ्चधनुःशतोच्छ्रयतदर्द्धविष्कम्भद्वारत्रयोपेतेन जिनप्रतिमाष्टोत्तरशतान्वितेन | सिद्धायतनेन विभूषितोपरितनभागमिति, तच्च वैतादथे पूर्वस्यां दिशि शेषाणि तु क्रमेण परतस्तस्मादेवेति भरतदेवप्रा सादावतंसकोपलक्षितं भरतकूटं, 'खंडग'त्ति खण्डप्रपाता नाम वैताड्यगुहा यया चक्रवर्ती अनार्यक्षेत्रात् स्वक्षेत्रमागच्छति तदधिष्ठायकदेवसम्बन्धित्वात् खण्डप्रपातकूटमुच्यते, 'माणी'ति माणिभद्राभिधानदेवावासत्वान्माणिभद्रकूट 'वे| P४५४॥ यत्ति वैताम्यगिरिनाथदेवनिवासाद्वैतादयकूटमिति 'पुन्नत्ति पूर्णभद्राभिधानदेवनिवासात्पूर्णभद्रकूट तिमिसगुहा नाम है गुहा यया स्वक्षेत्राचक्रवत्ती चिलातक्षेत्रे याति तदधिष्ठायकदेवावासात् तिमिसगुहाकूटमिति, 'भरहे'त्ति तथैव, वैश्रम दीप अनुक्रम [८४९-८६८] 1%24444 ३ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~341~ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६८९] + गाथा: *** प्रत सूत्रांक [६८९] 4%954 णलोकपालावासत्वाद्वैश्रमणकूटमिति । 'सिद्धेगाहा, सिद्धेत्ति सिद्धायतनकूट तथा निषधपर्वताधिष्ठातृदेवनिवासोपेतं निषधकूट हरिवर्षस्य क्षेत्र विशेषस्याधिष्ठातृदेवेन स्वीकृतं हरिवर्षकूट, एवं विदेहकूटमपि, हीदेवीनिवासी हीकूट, एवं धृतिकूट, शीतोदा नदी तद्देवीनिवासः शीतोदाकूट, अपरविदेहकूटं विदेहकूटवदिति, रुचकश्चक्रवालपर्वतः तदधिष्ठा५ तृदेवनिवासो रुचककूटमिति । 'नंदणे'ति नन्दनवन मेरोः प्रथममेखलायां तत्र नव कूटानि 'नंदण'गाहा, तत्र नन्द-13 नवने पूर्वादिदिक्षु चत्वारि सिद्धायतनानि विदिक्षु चतुश्चतुःपुष्करिणीपरिवृताश्चत्वारः प्रासादावतंसकाः, तत्र पूर्वमासिद्धायतनादुत्तरत उत्तरपूर्वस्थप्रासादाद्दक्षिणतो नन्दनकूट, तत्र देवी मेघङ्करा १, तथा पूर्वसिद्धायतनादेव दक्षिणतो दक्षिणपूर्वप्रासादादुत्तरतो मन्दरकूट, तत्र मेघवती देवी, अनेन क्रमेण शेषाण्यपि यावदष्टम, देव्यस्तु निषधकूटे सुमेघा हैमवतकूटे मेघमालिनी रजतकूटे सुवच्छा रुचककूटे वच्छामित्रा सागरचित्रकूटे वैरसेना वैरकूटे बलाहकेति बलकूट तु मेरोरुत्तरपूर्वस्यां नन्दवने तत्र बलो देव इति । 'मालवंते' इत्यादि, 'सिद्धेगाहा, माल्यवान्पूर्वोत्तरी गजदन्तपर्वतः तत्र सिद्धायतनकूट मेरोरुत्तरपूर्वतः, एवं शेषाण्यपि, नवरं सिद्धकूटे भोगादेवी रजतकूटे भोगमालिनी देवी शेषेषु स्वसमाननामानो देवाः, हरिसहकूटं तु नीलवत्सर्वतस्य नीलवत्कूटाद् दक्षिणतः सहस्रप्रमाणं विद्युत्प्रभवति हरिकूटं नन्द-18 नवनवति बलकूटं च, शेषाणि तु प्रायः पञ्चयोजनशतिकानीति, एवं कच्छादिविजयवैताव्यकूटान्यपि व्याख्यातानुसारेण ज्ञेयानि, नवरं एवं 'जाव पुक्खलावईमी'त्यादौ यावत्करणान्महाकच्छाकच्छावतीआवर्तमङ्गलावर्तपुष्कलेषु सुकच्छवद्वैतान्येषु सिद्धकूटादीनि नव नव कूटानि वाच्यानि, नवरं द्वितीयाष्टमस्थानेऽधिकृतविजयनाम वाच्यमिति, एवं 'व-18 दीप अनुक्रम [८४९-८६८] 4-54 Eco पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~342~ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६८९] + गाथा: प्रत ॥५५५॥ सूत्रांक [६८९] श्रीस्थाना- पच्छेति शीताया दक्षिणे समुद्रासने एवं 'जाव मंगलावईमी'त्यत्र यावत्करणात् सुवच्छमहावच्छबच्छावतीरम्यरम्यकर-11९स्थाना. इसूत्र- | मणीयेषु प्रागिव कूटनवकं दृश्यमिति । विद्युत्लभो देवकुरुपश्चिमगजदन्तकः, तत्र नव कूटानि पूर्ववन्नवरं दिक्कुमायौं | उद्देशः३ वृत्तिः वारिसेनाबलाहकाभिधाने क्रमेण कनककूटस्वस्तिककूटयोरिति, 'पम्हेति शीतादाया दक्षिणेन विद्युप्रभाभिधानगजद- पार्श्वशरीन्तकप्रत्यासन्नविजये 'जाव सलिलावईमी त्यत्र यावत्करणात् सुपक्ष्ममहापक्ष्मपक्ष्मावतीशङ्गनलिनकुमुदेषु प्रागिव नवरमानवी नव कूटानि बाच्यानि, 'एव'मित्युक्ताभिलापेन 'वप्पत्ति शीतोदाया उत्तरेण समुद्रप्रत्यासन्ने विजये 'जाव गंधिलावई-भारतीर्थे भा. मी'त्यत्र यावत्करणात् सुवप्रमहावप्रवप्रावतीकच्छावतीवल्गुसुवल्गुगंधिलेषु नव नव कूटानि मागिव दृश्यानीति । पुनःविजिनाः पक्ष्मादिविजयेषु षोडशस्वतिदिशति-'एवं सम्बेसु इत्यादिना, कूटानां सामान्य लक्षणमुक्तमिति विशेषार्थिना तु सू०६९०जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिनिरूपणीया, एवं नीलवत्कूटानि एरवतकूटानि च व्याख्येयानीति । इयं कूटवक्तव्यता तीर्थकरैरुक्तेति प्रकृतावतारिणीं जिनवक्तव्यतामाह पासे गं अरहा पुरिसादाणिए बजरिसहणारातसंघयणे समचउरंससंठाणसंठिते नव रयणीभो उई उचत्तेणं हुस्था (सू० ६९०) समणस्स णं भगवतो महावीरस्स तित्थंसि णवहिं जीवहिं तित्थगरणामगोते कम्मे णिव्यतिते सेणितेणे सुपासेणं उदातिणा पोट्टिलेणं अणगारेणं दढाउणा संखेणं सततेणं सुलसाए साविताते रेवतीते ९ (सू०६९१) 'पासे'त्यादि सूत्रद्वयं कण्ठ्यं, नवरं 'तित्थगरनामेति तीर्थकरत्वनिबन्धनं नाम तीर्थकरनाम तच गोत्रं च-कर्म-10 ॥४५५॥ विशेष एवेत्येकवद्भावात् तीर्थकरनामगोत्रमिति अथवा तीर्थकरनामेति गोत्र-अभिधानं यस्य तत्तीर्थकरनामगोत्रमिति, 1 ६९१ दीप अनुक्रम [८४९-८६८] Eco पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~343~ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९१] प्रत सूत्रांक [६९१] श्रेणिको राजा प्रसिद्धस्तेन १, एवं सुपार्थो भगवतो वर्धमानस्य पितृव्यः २, उदायी कोणिकपुत्रः, यः कोणिकेऽप-1 क्रान्ते पाटलिपुत्रं नगरं न्यधीविशत् यश्च स्वभवनस्य विविक्तदेशे पर्वदिनेष्वाहूय संविनगीतार्थसद्गुरूस्तत्पर्युपासनापरायणः परमसंवेगरसप्रकर्षमनुसरन् सामायिकपौषधादिकं सुश्रमणोपासकप्रायोग्यमनुष्ठानमनुतिष्ठते एकदा च निशि देश| नि.टितरिपुराजपुत्रेण द्वादशवार्षिकद्रव्यसाधुना कृतपौषधोपवासः सुखप्रसुप्तः कङ्कायाकर्तिकाकण्ठकर्त्तनेन विनाशित | इति २, पोहिलोऽनगारोऽनुत्तरोपपातिकाङ्गेऽधीतो हस्तिनागपुरनिवासी भद्राभिधानसार्थवाहीतनयो द्वात्रिंशद्भायोत्यागी महावीरशिष्यो मासिक्या संलेखनया सर्वार्थसिद्धोपपन्नः महाविदेहात्सिद्धिगामी, अयं त्विह भरतक्षेत्रात् सि-IA द्धिगामी गदित इति ततोऽयमन्यः सम्भाव्यत इति ४, दृढायुरप्रतीतः ५, शङ्गशतको श्रावस्तीश्रावको, ययोरीहशी वक्तव्यता-किल श्रावस्त्यां कोष्ठके चैत्ये भगवानेकदा विहरति स्म, शङ्खादिश्रमणोपासकाश्चागतं भगवन्तं विज्ञाय व-18 न्दितुमागताः, ततो निवर्तमानांस्तान् शङ्खः खल्वाख्याति स्म-यथा भो देवानांप्रिया! विपुलमशनाद्युपस्कारयत ततस्त-1 परिभुञ्जानाः पाक्षिकं पर्व कुर्वाणा विहरिष्यामः, ततस्ते तत्प्रतिपेदिरे, पुनः शङ्खोऽचिन्तयत्-न श्रेयो मेऽशनादि भुञ्जानस्य पाक्षिकपौषधं प्रतिजाग्रतो विहर्तुं श्रेयस्तु मे पौषधशालायां पौषधिकस्य मुक्ताभरणशस्त्रादेः शान्तवेषस्य विहर्तुं, अथ स्वगृहे गत्वा उत्पलाभिधानस्वभार्या या वार्ता निवेद्य पौषधशालायां पौषधमकार्षीत्, इतश्च तेऽशनाद्युपस्कारयां चक्रुः एकत्र च समवेयुः शङ्ख प्रतीक्षमाणास्तस्थुः, ततोऽनागच्छति शङ्के पुष्कलीनामा श्रमणोपासका शतक इत्यपर-1 8 नाम शङ्खस्याकारणार्थ तद्गृहं जगाम, आगतस्य चोत्पला श्रावकोचितप्रतिपत्तिं चकार, ततः पौषधशालायां स विवेश,8 दीप अनुक्रम [८७०] AchARACK Et पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~344~ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९१] सूत्रवृत्तिः प्रत ॥४५६॥ सूत्रांक [६९१] 4% ४ापधिकी प्रतिचक्राम, शङ्खमभ्युवाच-यदुतोपस्कृतं तदशनादि तद् गच्छामः श्रावकसमवायं भुमहे तदशनादि प्रति-18|९स्थाना० जागृमः पाक्षिकपौषधं, तत उवाच शङ्क:-अहं हि पौषधिको नागमिष्यामीति, ततः पुष्कली गत्वा श्रावकाणां तत्लाउद्देशः ३ निविवेद ते तु तदनु बुभुजिरे, शङ्खास्तु प्रातः पौषधमपारयित्वैव पारगतपादपद्ममणिपतनार्थं प्रतस्थौ, प्रणिपत्य च तमु- | पार्श्वशरीचितदेशे उपविवेश, इतरेऽपि भगवन्तं वन्दित्वा धम्म च श्रुत्वा शङ्कान्तिकं गत्वा एवमूचुः-सुष्टु त्वं देवानांप्रिय! अ- रमानं वीस्मान् हीलयसि, ततस्तान भगवान जगाद-मा भो यूयं शङ्ख हीलयत शङ्खो अहीलनीयः, यतोऽयं प्रियधर्मा दृढधा रतीर्थे भाच, तथा सुदृष्टिजागरिकां जागरित इत्यादि ६-७, सुलसा राजगृहे प्रसेनजितो राज्ञः सम्बन्धिनो नागाभिधानस्य विजिनाः रथिकस्य भायो बभूव, यस्याश्चरितमेवमनुश्रूयते-किल तया पुत्रार्थ स्वपतिरिन्द्रादीन् नमस्यन्नभिहितः-अन्यां परिण-18 सू०६९०येति, स च यस्तव पुत्रस्तेनेह प्रिये! प्रयोजनमिति भणित्वा न तत् प्रतिपन्नवान, इतश्च तस्याः शकालये सम्यक्त्वप्र- ६९१ |शंसां श्रुत्वा तत्परीक्षार्थ कोऽपि देवः साधुरूपेणागतस्तं च वन्दित्वा बभाण-किमागभनप्रयोजनम् , देवोऽवादीत्-तव गृहे लक्षपार्क तैलमस्ति तच्च मे वैद्येनोपदिष्टमिति तद्दीयता, ददामीत्यभिगता गृहमध्ये अवतारयन्त्याश्च भिन्नं देवेन तद्भाजनं एवं द्वितीय तृतीयं चेत्येवमखेदां दृष्ट्वा तुष्टो देवो द्वात्रिंशतं च गुटिका ददौ, एकैको खादेद्वात्रिंशत्ते सुता | भविष्यन्ति प्रयोजनान्तरे चाहं स्मर्तव्य इत्यभिधाय गतोऽसौ, चिन्तितं चानया-सर्वाभिरष्येक एव मे पुत्रो भूयादिति सर्वाः पीताः, आहूता द्वात्रिंशत्पुत्राः बर्द्धते स्म जठरमरतिश्च ततः कायोत्सर्गमकरोत् आगतो देवो निवेदितो ॥४५६ ॥ व्यतिकरो विहितो महोपकारो जातो लक्षणवत्पुत्रगण इत्यादि ७, तथा रेवती भगवत औषधदात्री, कथं , किलै दीप अनुक्रम [८७०] %*-54- 5456 CamEauratomitimational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~345~ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६९१] दीप अनुक्रम [८७०] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [६९१] स्थान [९], उद्देशक [-], कदा भगवतो मेण्डिकग्रामनगरे विहरतः पित्तज्वरो दाहबहुलो बभूव लोहितवर्चश्च प्रावर्त्तत, चातुर्वर्ण्य च व्याकरोति | स्म यदुत गोशालकस्य तपस्तेजसा दग्धशरीरोऽन्तः षण्मासस्य कालं करिष्यतीति तत्र च सिंहनामा मुनिरातापना| ऽवसान एवममन्यत मम धर्माचार्यस्य भगवतो महावीरस्य ज्वररोगो रुजति, ततो हा वदिष्यन्त्यन्यतीर्थिकाः यथा छद्मस्थ एव महावीरो गोशालक तेजोऽपहतः कालगत इति एवम्भूतभावनाजनितमानसमहादुः ख खेदितशरीरो मालुककच्छाभिधानं विजनं वनमनुप्रविश्य कुहुकुहेत्येवं महाध्यनिना प्रारोदीत्, भगवांश्च स्थविरैस्तमाकार्योक्तवान् हे सिंह ! यश्वया व्यकल्पि न तद्भावि, यत इतोऽहं देशोनानि पोडश वर्षाणि केवलिपर्यायं पूरयिष्यामि, ततो गच्छ त्वं नगरमध्ये, तत्र रेवत्यभिधानया गृहपतिपत्न्या मदर्थं द्वे कुष्माण्डफलशरीरे उपस्कृते, न च ताभ्यां प्रयोजनं तथाऽन्यदस्ति तद्गृहे परिवासितं मार्जाराभिधानस्य वायोर्निवृत्तिकारकं कुक्कुटमांसकं बीजपूरककटाहमित्यर्थः, तदाहर, तेन नः प्रयो जनमित्येवमुक्तोऽसौ तथैव कृतवान्, रेवती च सबहुमानं कृतार्थमात्मानं मन्यमाना यथायाचितं तत्पात्रे प्रक्षिप्तवती, | तेनाप्यानीय तद्भगवतो हस्ते विसृष्टं, भगवतापि वीतरागतयैवोदरकोष्ठे निक्षितं, ततस्तरक्षणमेव क्षीणो रोगो जातः, जातानन्दो यतिवर्गो मुदितो निखिलो देवादिलोक इति । अनन्तरं ये तीर्थकरा भविष्यन्ति ते प्रकृताध्ययनानुपातेनोक्ता अधुना तु ये जीवाः सेत्स्यन्ति तथैव तानाह एस णं अलो! कहे वासुदेवे १ रामे बलदेवे २ उदये पेढालपुते ३ पुट्टिले ४ सतते गाड़ावती ५ दारुते नितंठे ६ Education manonst Far Far & Pria Use Only पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~ 346~ www "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९२] श्रीस्थाना मसूत्र वृत्तिा प्रत 11४५७॥ सूत्रांक - 9OCISCENCE [६९२] समती नितंठीपुत्ते ७ सावितयुद्धे अम्बढे परिव्वायते ८ अजाविणं सु पासा पासावचिजा ९ आगमेस्साते उस्सप्पिणीते २स्थाना चाउजामं धर्म पन्नवतित्ता सिझिहिन्ति जाव अंतं काहिंति (सू० ६९२) उद्देशः३ 'एस 'मित्यादि, तत्र 'एप' इति वासुदेवानां पश्चिमोऽनन्तरकालातिकान्त इति 'अजोति आमन्त्रणवचनं भग-II भाविवान् महावीरः किल साधूनामन्त्रयति हे आर्या ! 'उदये पेढालपुत्ते'त्ति सूत्रकृतद्वितीयश्रुतस्कन्धे नालन्दीया-|| सिद्धाः ध्ययनाभिहितः, तद्यथा-उदकनामाऽनगारः पेढालपुत्रः पार्श्वजिनशिष्यः, योऽसौ राजगृहनगरवाहिरिकाया नाल- सू०६९२ न्दाभिधानायाः उत्तरपूर्वस्यां दिशि हस्तिद्वीपवनखण्डे व्यवस्थितः, तदेकदेशस्थ गौतमं संशयविशेषमापृच्छय विच्छिनसंशयः सन् चतुर्यामधर्म विहाय पश्चयामं धर्म प्रतिपेदे इति । पोट्टिलशतकावनन्तरोक्कावेव । दारुकोऽनगारो वासु-18 देवस्य पुत्रो भगवतोऽरिष्ठनेमिनाथस्य शिष्योऽनुत्तरोपपातिकोक्तचरित इति, तथा सत्यकिनिन्थीपुत्रो यस्वेदशी वक्तव्यता-किल चेटकमहाराजदुहिता सुज्येष्ठाभिधाना वैराग्येण प्रबजिता उपाश्रयस्यान्तरातापयति स्म, इतश्च पेढालो नाम परिव्राजको विद्यासिद्धो विद्या दातुकामो योग्यपुरुषं गवेषयति यदि ब्रह्मचारिण्याः पुत्रो भवेत्ततः सुम्यस्ता विद्या | भवेयुरिति भावयंस्तां चातापयन्तीं दृष्ट्वा धूमिकाव्यामोहं कृत्वा वीज निक्षिप्तवान् गर्भः सम्भूतो दारको जातो, निम्रमाथिकासमेतो भगवत्समवसरणं गतः, तत्र च कालसन्दीपनामा विद्याधरो भगवन्तं वन्दित्वा पप्रच्छ-कुतो में भयं ॥ ४५७ ॥ स्वामी व्याकार्षीत्-एतस्मात्सत्यकेः, ततोऽसौ तत्समीपमुपागत्यावज्ञया तं प्रति वभाण-अरे रे मां त्वं मारयिष्यसि इति भणित्वा पादयोः पातिता, ततोऽन्यदा साध्वीभ्यः सकाशादपहृत्य पितृविद्याधरेण विद्याः माहितो, अथ रोहिण्या : दीप अनुक्रम [८७१] E aton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~347~ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९२] प्रत सूत्रांक [६९२] विद्यया पञ्चसु पूर्वभवेषु मारितः, षष्ठभवे षण्मासावशेषायुपा तेनासी नेष्टा, इह तु सप्तमे भवे सिद्धा, तल्ललाटे विवरं | विधाय तच्छरीरमतिगता, ललाटच्छिद्रं च देवतया तृतीयमक्षि कृतं, तेन च स्वपिता स च कालसन्दीपो मारितः, विद्याधरचक्रवर्तित्वं च प्रापि, ततोऽसौ सर्वीस्तीर्थकरान् बन्दित्वा नाव्यं चोपदांभिरमते स्मेति । तथा श्राविकांश्रमणोपासिकां सुलसाभिधानां बुद्धः-सर्वज्ञधर्मे भावितेयमित्यवगतवान् श्राविका वा बुद्धा-ज्ञाता येन स श्राविका-२ बुद्धः 'अंमडों अंमडाभिधानः परित्राजकविद्याधरश्रमणोपासकः, अयं चार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेद-चम्पाया न-18 गर्योः अम्बडो विद्याधरश्रावको महावीरसमीपे धर्ममुपश्रुत्य राजगृहं प्रस्थिता, स च गच्छन् भगवता बहुसत्योपकाराय भणितः,-यथा सुलसाश्राविकायाः कुशलवार्ती कथयेः, स च चिन्तयामास-पुण्यवतीयं यस्याखिलोकनाथः स्वकी-10 यकुशलवार्ती प्रेषयति, कः पुनस्तस्या गुण इति तावत्सम्यक्त्वं परीक्षे, ततः परिव्राजकषधारिणा गत्वा तेन भणि-18 ताऽसौ-आयुष्मति ! धर्मों भवत्या भविष्यतीत्यस्मभ्यं भक्त्या भोजनं देहि, तया भणितम्-येभ्यो दत्ते भवत्यसौ ते। विदिता एव, ततोऽसावाकाशविरचिततामरसासनो जनं विस्मापयते स्म, ततस्तं जनो भोजनेन निमन्त्रयामास, स तु नैच्छत् , लोकास्तं प्रपच्छ-कस्य भगवन्! भोजनेन भागधेयवत्वं मासक्षपणपर्यन्ते संवर्द्धयिष्यति', स प्रतिभ-18 णति स्म-सुलसायाः, ततो लोकस्तस्या बर्द्धनकं न्यवेदयत्, यथा तव गेहे भिक्षुरयं बुभुक्षुः, तयाऽभ्यधायि-किं पाखडिभिरस्माकमिति, लोकस्तस्मै न्यवेदयत्, तेनापि व्यज्ञायि-परमसम्यग्दृष्टिरेषा या महातिशयदर्शनेशिन दृष्टिव्या-14 मोहमगमदिति, ततो लोकेन सहासौ तद्हे नैषेधिकी कुर्वन् पञ्चनमस्कारमुचारयन् प्रविवेश, साऽप्यभ्युत्थानादिकां दीप अनुक्रम [८७१] NROERROLtd Et पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~348~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९२] (०३) श्रीस्थाना- ङ्गसूत्र- वृत्तिः स्थाना उद्देशः प्रत ॥४५८॥ चरितं सू०६९३ सूत्रांक [६९२] X6ASEASEX प्रतिपत्तिमकरोत् , तेनाप्यसावुपबृंहितेति, यश्चीपपातिकोपाङ्गे महाविदेहे सेत्स्यतीत्यभिधीयते सोऽन्य इति सम्भाव्यते, तथा आर्यापि-आर्यिकाऽपि सुपार्थाभिधाना पार्थापत्यीया-पार्श्वनाथशिष्यशिष्या, चत्वारो यामा-महाप्रतानि यत्र स चतुर्यामस्तं प्रज्ञाप्य सेत्स्यन्ति १, एतेषु च मध्यमतीर्थकरत्वेनोत्पत्स्यन्ते केचित्केचित्तु केवलित्वेन, भवसिद्धिओ उ भयवं सिज्झिस्सइ कण्हतित्थंमी'ति वचनादिति भावः, शेष सष्टं । अनन्तरसूत्रोक्तस्य श्रेणिकस्य तीर्थकरत्वाभिधाना- याह-एस णमित्यादि जस्सीलसमायारों इत्यादिगाधापर्यन्तं सूत्र एस णं अजो! सेणिए राया निभिसारे कालमासे कालं किया इमीसे रयणप्पभाए पुढपीते सीमतते नरए चउरासीतिवाससहस्सद्वितीयंसि निरयसि रइयत्ताए उबवजिहिति से णं तत्थ परइए भविस्सति काले कालोभासे जाव परमकिण्हे बन्नेणं से णं तत्थ वेवणं वेदिहिती उज्जलं जाव दुरहियासं, से णे ततो नरतातो उपहेत्ता आगमेसाते उस्सप्पिणीते इहेब जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयडगिरिपायमूले पुंडेसु जणवतेसु सतदुबारे णगरे संमुइस्स कुलकरस्स मेंहाए भारियाए कुम्छिसि पुमत्ताए पञ्चायाहिती, तए णं सा भद्दा भारिया नवण्हं मासाणं बहुपद्धिपुण्णाणे अवहमाण य राईदियाणं वीतिताणं सुकुमालपाणिपात अहीणपडिपुग्नपंचिंवियसरीरं लक्खणबंजणजाय सुरूवं दारगं पयाहिती, जं रयणि च णं से दारए पयाहिती तं रणिं च णं सत्तदुबारे णगरे सम्भंतरवाहिरए भारगसो य कुंभग्गसो त पउमवासे त रथणवासे त बासे वासिहिति, तए णं तस्स दारवस्स अम्मापियरो एकारसमे दिवसे वइते जाव बारसाहे दिक्से अयमेयारूवं गोणं गुणनिष्फण्णं नामधिज काहिंति जम्हा णं अम्हामिमंसि दारगंसि जातंसि समाणसि सयदु दीप अनुक्रम [८७१] ४॥ ४५८॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~349~ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] प्रत सूत्रांक [६९३] वारे नगरे सबिभतरवाहिरए भारगसो य कुंभग्गसो ये पउमवासे य रयणवासे व बासे युद्ध होऊ णमम्हामिमस्स दारगस्स नामधि महापउमे, लए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधिज फाहिति-महापरमेसि, सए ण महापधर्म दारगं अम्मापितरो सातिरेगं अहवासजातर्ग जाणित्ता महता रायामिसेएणं अभिसिंचिहिति, से ण सस्थ राया भषिस्सति महता हिमवंतमहत्तमलयमंदररायवन्नतो जाव रजं पसाहेमाणे विहरिरसति, तते णं तस्स महापतमस्स रखो अनया कयाइ दो देवा महिगिया जाव महेसक्खा सेणाकर्म काहिंति, सं०-पुग्नभइते माणिभहते, तए ण सतगुवारे नगरे बहवे रातीसरतलवरमाडंबितकोढुंबितइन्भसेडिसेणावतिसत्यवाहप्पमितयो अन्नमन्नं सदावेहिति एवं बतिस्संति जम्हा णे देवाणुपिया! अम्हें महापउमस्स रन्नो दो देवा महिड़िया जाव महेसक्खा सेनाकम्मं करेंति, तं०-पुनभहे त माणिभरे यतं होऊ णमम्हं देवाणुप्पिया! महापउमस्स रनो दोचेवि मामधेज्जे देवसेणे, तते णं तस्स महापउमस्स दोगेवि मामधेने भविस्सह देवसेणेति २, नए णे तस्स देवसेणस्स रनो अन्नता कताती सेयसंखतलविमलसनिकासे चउईते हस्थिरपणे समुष्पजिहिति, तए णं से देवसेणे राया स सेयं संखतलविमलसन्निकासं चउइंतं हस्थिरवणं दुरूढे समाणे संतदुवार मगर मझमोणं अभिक्खणे २ अतिजाहि त णिजाहि त, तते गं सतदुवारे गगरे बहये रातीसरतलवरजाय अनमन्नं सराविति २ एवं वासंति-जम्हा ण देवाणुप्पिया! अम्हं देवसेणस्स रन्नो सेते संसतलविमलसन्निकासे पर्दते हस्थिरयणे समुपने सं होऊ णमई देवाणुपिया ! देवसेणस्स रन्नो तच्चेवि नामधेजे विमलवाहणे, तते णे तस्स देवसेणस्स रसो सवेवि णामधेजे भविस्सति विमलवाहणे २, तए ण से विमलवाहणे राया तीसं वासाई अगारवासमझे वसित्ता अम्मापितीहि दीप 45%45454564 अनुक्रम [८७२-८७६] Eaton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~350~ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: (०३) श्रीस्थानालसूत्रवृत्तिः प्रत ९स्थाना | उद्देशः३ महापद्म परितं सू०६९३ ४५९॥ सूत्रांक [६९३] ACAKACCACCOC+Ch देवत्तगतेहिं गुरुमहत्तरतेदि अब्मणुनाते समाणे उर्दुमि सरए संबुद्धे अणुत्तरे मोक्समग्गे पुणरवि लोगंतितेहिं जीयकपितेहि देवेदि ताहि इटाहिं कतादि पिचाहि मणुनाहि मणामाहिं उरालाहिं कल्लाणाहिं धन्नाहिं सिवाई मंगलादि सस्सिरीआदि वग्गूहिं अमिणविजमाणे अभिधुवमाणे य बहिया सुभूमिभागे उजाणे एग देवदूसमादाय मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पम्वयाहिति, तस्स णं भगवंतस्स साइरेगाई दुवालस बासाई निचं पोसहकाए चियत्तदेहे जे केई उक्सग्गा उप्पति तं०-दिव्वा वा माणुसा वा तिरिक्खजोणिया वा ते उप्पन्ने सम्म सहिस्सद खमिस्साह तितिक्खिस्सा अहियासिस्सइ, तए णं से भगवं ईरियासमिए भासासमिए जाव गुत्तभयारि अममे अकिंचणे छिमगये निरुपलेवे कंसपाईव मुक्तोए जहा भावणाए जाव सुहृयहुयासणेतिय तेयसा जलंते ॥ कंसे संखे जीवे गगणे वाते व सारए सलिले । पुक्खरपत्ते कुंमे विहगे खम्गे य भारंडे ॥१॥ कुंजर वसहे सीहे नगराया चेव सागरमखोमे । चंदे सूरे कणगे बसुंधरा चेच मुटुबदुए ।। २ ।। नत्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्था पडिबंधे भवइ, से य पटिबंधे चउबिहे पं० २०-अंडए वा पोयएइ वा उागहेइ वा पाहिएइ वा, जं जं जं णं दिसं इच्छह तं गं तं णं दिसं अपडिबढे सुचिभूए लहुभूए अणप्पगथे संजमेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरिस्सइ, तस्स णं भगवंतस्स अणुत्तरेणं नाणेणं अणुत्तरेणं ईसणेणं अणुवधरिएणं एवं आलएणं विहारेणं अजवे महवे लाघवे खंती मुत्ती गुत्ती सच संजम तवगुणसुचरियसोवचियफलपरिनिव्वाणमम्गेणं अप्पाणं भाषमाणस्स झाणतरियाए वट्टमाणस्स अणते अणुत्तरे निवाघाए जाव केवलवरनाणसणे समुप्पजिदिति, तए णं से भगवं अरह जिणे भविस्सइ, केवली सन्यनू सम्वदरिसी सदेवमणुमासु दीप अनुक्रम [८७२-८७६] ॥४५९॥ CamEauratomitimational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~351~ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] प्रत सूत्रांक [६९३] रस्स लोगस्स परियागं जाणइ पासइ सव्वलोए - सव्वजीवाणं आगई गति ठिय चयर्ण उववायं तक मणोमाणसियं मुत्तं कई परिसेवियं आवीकम्मं रहोकम्मं अरहा अरहस्स भागी तं तं कालं मणसवयसकाइए जोगे वट्टमाणाणं सब्बलोए सबजीवाण सम्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरद, तए णं से भगवं तेणं अणुत्तरेणं केवलवरनाणदसणेणं सदेवमणुभासुरलोग अभिसमिया समणाणं निर्गवाणं [जे केइ उवसम्गा उप्पजति, 40-दिब्बा वा माणुसा वा तिरिक्खजोणिया वा ते उत्पने सम्मं सहिस्सइ खमिस्सइ तितिक्खिस्सइ अहियासिस्सइ, तते णं से भगवं अणगारे भविस्सति ईरियास मिते भास० एवं जहा बद्धमाणसामी त चेव निरवसेसं जाव अव्वाचारविउसजोगजुत्ते, तस्स णं भगवंतस्स एतेणं विहारेणं विहरमाणस्स दुवालसहि संवच्छरेहिं वीतिकंतेहिं तेरसहि य पक्वहिं तेरसमस्त थे संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स अणुत्तरेणं णाणेणं जहा भावणाते केवलबरनाणदसणे समुप्पजिहिन्ति जिणे भविस्सति केवली सम्वन्नू सन्यदरिसी सणेरईए जाव] पंच महब्बयाई सभाषणाई छच्च जीवनिकायधम्म देसेमाणे विहरिस्सति से जहाणामते मनो! मते समणार्ण निग्गंथाणं एगे आरंभठाणे पण्णत्ते, एवामेव महापउमेवि अरहा समणाणं णिग्गंथाणं एग आरंभट्ठाणं पण्णवेहिति से जहाणामते अज्जो मते समणाणं निगंथाणं दुविद्दे बंधणे पं० ०-पेजवंधणे दोसबंधणे, एवामेव महापउमेवि अरहा समगाणं णिग्गंधाणं दुविहं बंधणं पनवेहिती, तं०-पेजबंधगं च दोसबंधणं च, से जहानामते अजो मते समणा० निर्गयाणं सओ दंडा पं००-मणदंडे ३ एवामेव महापउमेवि समणाणं निग्गंथाणं ततो दंडे पण्णवेदिति, सं०-मणोदंडं ३, से जहा नामए एएणं अभिलावणं चत्तारि कसाया पं० २०-कोहकसाए ४ पंच कामगुणे पं० २०-सहे ५ छज्जीवनि दीप अनुक्रम [८७२-८७६] ॐॐॐॐ ER पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~352~ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] श्रीस्थानाअसूत्रवृत्तिः ९स्थाना उद्देशः३ महापाचरितं प्रत सूत्रांक ॥४६.॥ सू०६९३ [६९३] काता पं० सं०-गुढविकाइया जाव तसकाइया, एवामेव जाव तसकाइया, से जहाणामते एएणं अमिलावणं सत्त मयद्वाणा पं०० एवामेव महापउमेवि अरहा समणाण निग्गंधाणं सत्त भयहाणा पनवेहिति, पवमह महाणे, व बमयेरगुत्तीओ दसविधे समणधम्मे एवं जाव तेतीसमासातणाउत्ति से जहानामते अजो! मते समणाण निधाण मगभावे मुंजभावे अण्हाणते अदंतवणे अच्छत्तए अणुवाहणते भूमिसेजा फलंगसेजा कटुसेजा केसलोए भरवासे परपर. पवेसे जाव लावलद्धवित्तीत पन्नत्ताओ एवामेव महापतमेवि अरहा समणाणं निग्गंथाणं गग्गभाव जाव लद्धावलावित्ती पण्णवेहिती, से जहाणामए अजो! मए समणाणं नि० आधाकम्मिएति वा उदेसितेतिवा मीसजापति का अनमोयरपति वा पूतिए कीते पामिचे अच्छेजे 'अणिसट्टे अमिहडेति वा कंतारभत्तेति वा दुभिक्खभत्ते गिलाणभत्ते बहलिताभत्तेइ वा पाहुणभत्तेइ वा मूलभोयणेति वा कंदभौ० फलभो० बीयभो० हरियभोयणेति वा पडिसिद्धे, पवाय महापउमेवि अरहा समणाणं. आधाकम्मितं वा जाव हरितभोयणं वा पहिसेहिस्सति, से जहानामते अजो ! मए समणाण पंचमहव्यतिए सपठिकमणे अचेलते धम्मे पण्णचे एवामेव महापउमेवि अरहा समणाणं णियाण पंचमहब्बतितं जाव अचेलंग धम्म पण्णवेहिती, से जहानामए अज्जो! मए पैचाणुरुवतिते सत्तसिक्खापतिते दुवालसविघे सावगधम्मे पण्णते एवामेव महापउमेवि अरहा पंचाणुब्बतितं जाव सायगधर्म पण्णवेस्सति, से जहानामते अजो! मए समणाण ० सैजातरपिंडेति वा रायपिटेति वा पडिसिद्धे एवामेव महापउमेवि अरहा समणाणं. सेज्जातरपिंडेति वा पढिसेहिस्सति, से जघाणामते अनो! मम णय गणा इगारस गणधरा एवामेव महापउमस्सवि अरिहतो गव गणा एगारस गणपरा अविसति, दीप अनुक्रम [८७२-८७६] ॥४६॥ LmEaucation पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~3534 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: प्रत सूत्रांक [६९३] 84545453 से जहानामते अजो! अहं तीसं वासाई अगारवासमो वसित्ता मुंडे भवित्ता जाव पव्वतिते दुवालस संपराई तेरस पक्खा छउमस्थपरियागं पाउणित्ता तेरसहि पक्सहिं ऊणगाई तीसं बासाई केवलिपरियागं पाउणित्ता बायालीस वासाई सामण्णपरियाग पाउणित्ता बावत्तरि वासाई सब्बाउयं पालइत्ता सिव्हिास्सं जाव सम्वदुक्खाणमंतं करेस्स एवामेव महापठमेवि अरहा तीसं वासाई अगारवासमझे वसित्ता जाव पविहिती दुवालस संवच्छाराई जाव बावत्तरिवासाई सब्याउयं पालइत्ता सिक्झिहिती जाय सम्बदुक्खाणमंतं काहिती-"जैसीलसमायारो अरहा तिथंकरो महावीरी । तस्सीलसमायारो होति उ अरहा महापउमे ॥ १॥ (सू०६९३) (इति श्री महापाचारित्रं संपूर्णमिति) सुगम चैतत्, नवरं एषः-अनन्तरोक्त आर्या इति श्रमणामन्त्रणं 'भिभित्ति ढका सा सारो यस्य स तथा, किल तेन कुमारत्वे प्रदीपनके जयढका गेहान्निष्काशिता ततः पित्रा भिंभिसार उक्त इति, सीमंतके नरकेन्द्र के प्रथमप्रस्तटवर्तिनि चतुरशीतिवर्षसहस्रस्थितिषु नरकेषु मध्ये नारकत्वेनोत्पत्स्यते, कालः स्वरूपेण कालावभास:-काल एवावभासते पश्यतां यावत्करणात् 'गंभीरलोमहरिसे' गम्भीरो महान् लोमहषों-भयविकारो यस्य स तथा, 'भीमो' विकराल: 'उत्तासणओं उद्वेगजनकः, 'परमकिण्हे बन्नेण'ति प्रतीतं, स च तत्र नरके वेदनां वेदयिष्यति, उज्वलां-विपक्षस्य लेशेनाप्यकलङ्कितां यावत्करणात् त्रीणि मनोवाकायबलानि उपरिमध्यमाधस्तनकायविभागान् वा तुलयति-जयतीति ४वितुला तां, कचिद्विपुलामिति पाठः, तत्र विपुला-दारीरव्यापिनी तां, तथा प्रगाढां-प्रकर्षवती कटुका-कटुकरसोत्पा|दितां कर्कशा-कर्कशस्पर्शसम्पादितां अथवा कटुकद्रव्यमिव कटुकामनिष्टा, एवं कर्कशामपि, चण्डो-वेगवी झटि दीप अनुक्रम [८७२-८७६] SamEaucatunimimation पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~354~ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६९३] दीप अनुक्रम [८७२ -८७६] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ४६१ ॥ [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-] मूलं [६९३] + गाथाः त्येव मूच्छोंत्यादिकां, वेदना हि द्विविधा - सुखा दुःखा चेति, सुखान्यवच्छेदार्थे दुःखामित्याह, दुर्गा - पर्वतादिदुर्गमिव कथमपि लङ्घयितुमशक्यां दिव्यां- देवनिर्मितां किं बहुना ? - दुरधितहां - सोदुमशक्यामिति, इहैव जम्बूद्वीपे, नासङ्ख्येयतमे, 'पुमत्ताए'ति पुंस्तया 'पच्चायाहिद्द'त्ति प्रत्याजनिष्यते, 'बहुपडिपुन्नाणं'ति अतिपरिपूर्णानामर्द्धमष्टमं येषु तान्यष्टमानि तेषु रात्रिन्दिवेषु - अहोरात्रेषु व्यतिक्रान्तेषु, इह षष्ठी सप्तम्यर्थे, सुकुमारौ -कोमली पाणी च पादौ च यस्य स सुकुमारपाणिपादस्तं, प्रतिपूर्णानि स्वकीयस्वकीयप्रमाणतः प्रतिपुण्यानि वा पवित्राणि पश्च इन्द्रियाणि करणानि यस्मिंस्ततथा अहीनमङ्गोपाङ्गप्रमाणतः प्रतिपूर्णपञ्चेन्द्रियं प्रतिपुण्यपञ्चेन्द्रियं वा शरीरं यस्य सोऽहीनप्रति पूर्णपञ्चेन्द्रियशरीरः अहीनप्रतिपुण्यपञ्चेन्द्रियशरीरो वा तं तथा लक्षणं - पुरुषलक्षणं शास्त्राभिहितं 'अस्थिष्वर्थाः सुखं मांस' इत्यादि, मानोन्मानादिकं वा व्यञ्जनं- मषतिलकादि गुणाः सौभाग्यादयः अथवा लक्षणव्यञ्जनयोर्ये गुणास्तैरुपेतो लक्षणव्यञ्जनगुणोपेतः, उबवेओत्ति तु प्राकृतस्याद्वर्णागमतः, अथवा उप अपेत इति स्थिते शकन्ध्वादिदर्शनादकारलोप इत्युपपेत इति लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेतस्तं लक्षणव्यञ्जनस्वरूपमिदमुक्तम् – “माणुम्माणपमाणादि लक्खणं बंजणं तु मसमाई । सहजं च लक्खणं वंजणं तु पच्छा समुप्पन्नं ॥ १॥” इति [लक्षणं मानोन्मानप्रमाणादि मषादिव्यंजनं अथवा सहजं लक्षणं पश्चात्समुत्पन्नं तु व्यंजनं ॥ १ ॥ ] लक्षणमेवाधिकृत्य विशेषणान्तरमाह - 'माणुम्माणे त्यादि, तत्र मानं - जलद्रोणप्रमाणता, सा ह्येवं जलभृते कुण्डे प्रमातव्यपुरुष उपवेश्यते, ततो यज्जलं कुण्डान्निर्गच्छति तद्यदि द्रोणप्रमाणं भवति तदा स पुरुषः मानोपपन्न इत्युच्यते, उन्मानं तुलारोपितस्यार्द्धभार प्रमाणता, प्रमाणं- आत्माङ्गुलेनाष्टोत्तरशताङ्गुलो Education intamanions Far Far & Pria Use On ९ स्थाना० उद्देशः ३ ~355~ महापद्मचरितं सू० ६९३ | ॥ ४६१ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ९ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: 45 प्रत सूत्रांक [६९३] यता, उक्त च-"जलदोण १ मद्धभार २ समुहाई समुस्सिओ व जो नव उ ३ माणुम्माणपमाण तिविहं खलु ल-| क्खणं एयं ॥१॥" इति [जलद्रोणो मानमर्द्धभारमुन्मानं स्वमुखानि नवसमुच्छ्रितो यस्तु प्रमाणं त्रिविधं एतल्लक्षणं दाखलु] ततश्च मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णानि सुष्ठु जातानि सर्वाण्यङ्गानि-शिरम्प्रभृतीनि यस्मिंस्तत् तथाविधं सुन्दरमङ्ग-1 शरीरं यस्य स तथा तं मानोन्मानप्रमाणप्रतिपूर्णसुजातसर्वाङ्गसुन्दरा, तथा शशिवत्सौम्याकारं कान्त-कमनीयं प्रियं-प्रेमावह दर्शनं यस्य स शशिसौम्याकारकान्तप्रियदर्शनस्तं, अत एव सुरूपमिति दारकं प्रजनिष्यति भनेति स-18 म्बन्धः, 'जं रयणिं च'ति यस्यां च रजन्यां 'तं रयणिं चत्ति तस्यां रजन्यां पुनरिति, अर्धरात्र एव च तीर्थकरोपत्तिरिति रजनीग्रहणं, 'से दारए पयाहित्ति स दारकः प्रजनिष्यते उत्पत्स्यत इति, 'सम्भितरबाहिरएत्ति सहाभ्यन्तरेण बाह्यकेन च नगरभागेन यनगरं तत्र, सर्वत्र नगर इत्यर्थः, विंशत्या पलशतैर्भारो भवति अथवा पुरुषोक्षेपणीयो भारो भारक इति यः प्रसिद्धः अग्रं-प्रमाणं ततो भार एवाग्रं भाराग्रं तेन भाराग्रेण भाराप्रशो-भारपरि-८ माणतः, एवं कुम्भारशो, नवरं कुम्भ आढकषष्ट्यादिप्रमाणतः, पद्मवर्षश्च रजवर्षश्च वर्षिष्यति भविष्यतीत्यर्थः, 'जा-IN वत्ति करणात् 'निब्धत्ते असुइजाइकम्मकरणे संपत्ते'त्ति दृश्य, तत्र 'निर्वृत्ते' निर्वर्तित इत्यर्थः पाठान्तरतः निव्वत्ते| वा निवृत्ते-उपरते अशुचीनां-अमेध्यानां जातकर्मणां-प्रसवव्यापाराणां करणे-विधाने सम्प्राप्ते-आगते 'बारसाहदि-| वसे'त्ति द्वादशानां पूरणो द्वादशः स एवाख्या यस्य स द्वादशाख्यः स चासो दिवसचेति विग्रहा, अथवा द्वादशं च । तदहश्च द्वादशाहस्तन्नामको दिवसो द्वादशाहदिवस इति, 'अयंति इदं वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षासन्न 'एयारूवंति एतदेव 31 AAAA दीप अनुक्रम [८७२-८७६] ET पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~356~ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ६९३] दीप अनुक्रम [८७२ -८७६] श्रीस्थाना ज्ञसूत्र वृत्तिः [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-] मूलं [६९३] + गाथाः स्थान [९], रूपं स्वभावो यस्य न मात्रयापि प्रकारान्तरापनमित्यर्थः, किं तत् ? - नामधेयं प्रशस्तं नाम, किंविधम् १-गौर्ण न पा रिभाषिकं, गौणमित्यमुख्यमपि स्यादित्याह - 'गुणनिष्पन्न' इति गुणानाश्रित्य पद्मवर्षादीन्निष्पन्नं गुणनिष्पन्नमित्यक्षरघटना, 'महापउमे महापड में 'ति तसित्रोः पर्यालोचनाभिलापानुकरणं, 'तए णं'ति पर्यालोचनानन्तरं 'महापडम' इति ४ महापद्म इत्येवंरूपं 'साइरेगढवा सजाय ति सातिरेकाणि-साधिकाम्यष्टी वर्षाणि जातानि यस्य स तथा तं, 'राय॥ ४६२ ॥ * वनओत्ति राजवर्णको वक्तव्यः स चायं - 'महयाहिमवन्तमहन्तमलयमंदरमहिंदसारे' महता - गुणसमूहेनान्तर्भूतभावप्रत्ययत्वाद्वा महत्तया हिमवांश्च-वर्षधरपर्वतविशेषः महांश्चासौ मलयश्च विन्ध्य इति चूर्णिकारः महामलयः स च म न्दरश्च - मेरुः महेन्द्रश्च शक्रादिः ते इव सारः- प्रधानो यः स तथा, 'अश्चंत विसुद्धदी हरायकुलर्वसप्पसूए' अत्यन्तविशुद्धः ४ सर्वथा निर्दोषः दीर्घश्च- पुरुषपरम्परापेक्षया यो राज्ञां भूपालानां कुललक्षणो वंशः सन्तानस्तत्र प्रसूतो जातो यः स तथा 'निरन्तरं रायलक्खणविराइयंगुचंगे' नैहन्तर्येण राजलक्षणैः- चक्रस्वस्तिकादिभिर्विराजितान्यङ्गानि - शिरःप्रभृतीन्युपाङ्गानि च अङ्गुल्यादीनि यस्य स तथा, 'बहुजणबहुमाणपूइए सब्वगुणसमिद्धे खत्तिए मुदिए' ति प्रतीत 'मु द्धाभिसिते' पितृपितामहादिभिर्मूर्द्धन्यभिषिको यः स तथा, 'माडपिङजाए' सुपुत्रो विनीतत्वादित्यर्थः, दयअप्पत्ते' दयाप्राप्तो दयाकारीत्यर्थः सीमङ्करे-मर्यादाकारी 'सीमन्धरे' मर्यादा पूर्वपुरुषकृत धारयति नात्मनापि टीपयति यः स तथा खेमंकरो-नोपद्रवकारी खेमधरे-क्षेमं धारयत्यम्यकृतमिति यः स तथा, 'माणुसिदे जणवयपिया' लोकपिता वत्सलत्वात्, 'जणवयपुरोहिए' जनपदस्य पुरोधाः पुरोहितः शान्तिकारीत्यर्थः, 'सेतुकरे' सेतुं मार्गमा Education Intamational FiFortal & Private १९ स्थाना० उद्देशः ३ महापद्मचरितं सू० ६९३ ~ 357 ~ ।। ४६२ ।। पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- ९ समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [६९३] दीप अनुक्रम [८७२ -८७६] Education an [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-] मूलं [६९३] + गाथाः पद्मवानां निस्तरणोपायं करोति यः स तथा 'केतुकरे' चिन्हकरः अद्भुतकारित्वादिति, 'नरपवरे' नरैः प्रबरः मरा वा प्रवरा यस्य स तथा 'पुरिसवरे' पुरुषप्रधानः 'पुरिससीहे' शौर्याद्यधिकतया, 'पुरिस आसी विसे' शोपसमर्थत्वात् 'पुरिसपुंडरीए' पूज्यत्वात् सेव्यत्वाच्च, 'पुरिसवरगंधहत्थी' शेषराजगज विजयित्वात्, 'अड्ढे' धनेश्वरत्वात् 'दित्ते' दकत्वात् 'वित्ते' प्रसिद्धत्वात् 'विच्छिन्नविपुलभवणसयणासण जाणवाहणाइने' पूर्ववत् 'बहुधणंबहुजायरूवरयए आओगपओगसंपत्ते' आयोगप्रयोगा-द्रव्यार्जनोपायविशेषाः सम्प्रयुक्ताः प्रवर्त्तिता येन स तथा, 'विच्छंड्डियपउरभत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेल गप्पभूए पडिपुन्नजंतकोसकोट्ठागारायुहागारे' यन्त्राणि - जलयन्त्रादीनि कोश:- श्रीगृहं कोष्ठागारंधान्यागारं आयुधागारं प्रहरणकोशः 'बलवं' हस्त्यादिसैन्ययुक्तः 'दुब्बलपच्चामित्ते' अबलप्रातिवेशिकराजः, 'ओहयकंटयं निहयकंटयं मलियकंटयं उद्धियकंटयं अकंटयं एवं ओहयसत्तुं उपहता राज्यापहारात् निहता मारणान्मलिता मानभञ्जनादुद्धृता देशनिष्काशनात्कण्टका- दायादा यत्र राज्ये तत्तथा, अत एवाकण्टकं एवं शत्रवोऽपि, नवरं शत्रवस्तेभ्योऽम्थे, 'पराईयसत्तुं' विजयवत्त्वादिति, 'ववगयदुभिक्खं मारिभयविध्यमुकं खेमं सिवं सुभिक्खं पसनबिडम' डिम्बानि - विघ्ना डमराणि - कुमारादिव्युत्थानादीनि, 'रज्जं पसासेमाणे' त्ति पालयन् 'विहरिस्सह'ति । 'दो | देवा महद्धिया' इत्यत्र यावत्करणात् 'महज्जुइया महाणुभागा महायसा महाबले 'ति दृश्यं, 'सेणाकम्मं ति सेनाया:सैन्यस्य कर्म्म-व्यापारः शत्रुसाधनलक्षणः सेनाविषयं वा कर्म - इतिकर्त्तव्यतालक्षणं सेनाकर्म्म, पूर्णभद्रश्च दक्षिणयक्षनिकायेन्द्रः माणिभद्रश्न-उत्तरयक्षनिकायेन्द्रः, 'बहवे राईसरे त्यादि, राजा महामाण्डलिकः ईश्वरी-युवराजो माण्ड FF&Private पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] ~358~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: श्रीस्थाना- जसूत्रवृत्तिः प्रत ॥४६३॥ सूत्रांक [६९३] लिकोऽमात्यो वा, अन्ये च ब्याचक्षते-अणिमाद्यष्टविधैश्वर्ययुक्त ईश्वर इति, तलवर:-परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टबन्धभू-18/९ स्थाना. षितो माडम्बिका-छिन्नमडम्बाधिपः, कौटुम्विका कतिपय कुटुम्बप्रभुरिभ्यः-अर्थवान् , सच किल यदीयपुञ्जीकृतद्र उद्देशः ३ व्यराश्यन्तरितो हस्त्यपि नोपलभ्यत इत्येतावताऽर्थेनेति भावः, श्रेष्ठी-श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टभूषितोत्तमाङ्गः पुर- महापद्मज्येष्ठो वणिक्, सेनापतिः-नृपतिनिरूपितो हस्त्यश्वरवपदातिसमुदायलक्षणायाः सेनायाः प्रभुरित्यर्थः, सार्थवाहका-४ चरितं सार्थनायकः एतेषां द्वन्द्वः, ततश्च राजादयः प्रभृतिः-आदिर्येषां ते तथा, 'देवसेणे'त्ति देवावेव सेना यस्य देवाधिष्ठिता सू०६९३ वा सेना यस्य स देवसेन इति, 'देवसेणाती'ति देवसेन इत्येवंरूपं, 'सेते'त्यादि श्रेयान्-अतिप्रशस्यः श्वेतो वा कीडगित्याह-शतलेन-कम्बुरूपेण विमलेन-पङ्कादिरहितेन सन्निकाशः-सङ्काशः सदृशो यः स शङ्कतलविमलसनिकाशः, 'दुरूदे'त्ति आरूढः 'समाणे'त्ति सन् 'अतियास्यति' प्रवक्ष्यति निर्यास्यति' निर्गमिष्यतीति, क्वचिद्वर्तमाननिशोरश्यते स च तत्कालापेक्ष इति, एवं सर्वत्र, 'गुरुमहत्तरएहिंति गुवों:-मातापित्रोमहत्तरा:-पूज्याः अथवा गौरवाहेत्वेन गुरवो महत्तराश्च बयसा वृद्धत्वाचे ते गुरुमहत्तराः 'पुणरवित्ति महत्तराभ्यनुज्ञानानन्तरं लोकान्ते-लोकाग्रलक्षणे सि-18 जस्थाने भवा लोकान्तिकाः, भाविनि भूतबदुपचारन्यायेन चैवं व्यपदेशः, अन्यथा ते कृष्णराजीमध्यवासिनो, लोकान्तभावित्वं च तेषामनन्तरभव एव सिद्धिगमनादिति, 'जीतकल्पः' आचरितकल्पो जिनप्रतिबोधनलक्षणो विद्यते येषां | ते जीतकल्पिकार, आचरितमेव तेषामिदं नतु तैस्तीर्थकरः प्रतिबोध्यते, स्वयंवुद्धत्वाद्भगवत इति, 'ताहिन्ति ताभिर्विवक्षिताभिः 'बग्गूहिंति चाम्भिर्यकाभिरानन्द उत्पद्यत इति भावः, 'इष्टाभिः इष्यन्ते स्म याः कान्ताभि-कम दीप अनुक्रम [८७२-८७६] CamEauratomitimational File Form a t पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~359~ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: X प्रत सूत्रांक [६९३] Bानीयाभिः प्रियाभिा-प्रेमोखादिकाभिः, विरूपा अपि कारणवशात् प्रिया भयन्तीत्यत उच्यते-मनोज्ञाभिः-शुभस्वरू-13 पाभिः मनोज्ञा अपि शब्दतोऽर्थतो न हृदयङ्गमा भवन्तीत्याह-'मणामाहिति मनः अमन्ति-गच्छन्ति यास्ताः तथा ताभिरुदारेण-उदात्तेन स्वरेण प्रयुक्तत्वादर्थेन वा युक्तत्वादुदाराभिः कल्यं-आरोग्य अणन्ति-शब्दयन्तीति कल्याणास्ताभिः, शिवस्य-उपद्रवाभावस्य सूचकत्वाच्छिवाभिः धनं लभन्ते धने वा साच्यो धन्यास्ताभिः मङ्गले-दुरितक्षये साध्व्यो मङ्गल्यास्ताभिः सह श्रिया-वचनार्थशोभया यास्ताः सश्रीकास्ताभिः वाग्भिरिति सम्बन्धितं अभिनन्द्यमानः-समुल्लास्यमानः, 'यहियत्ति नगराहिस्तादिति । इतो घाचनानन्तरमनुश्रित्य लिख्यते-'साइरेगाइ'न्ति अर्द्धसप्तमैासदिश वर्षाणि यावत् व्युत्सृष्टे काये परिकर्मवर्जनतस्त्यक्ते देहे परीपहादिसहनतस्तथा सक्ष्यति उत्सत्स्यमानेधूपसर्गेषु भयाभावतः क्षमिष्यत्युत्पन्नेषु क्रोधाभावतः तितिक्षिष्यति दैन्याभावतः अध्यासिष्यते अविचलतयेति, |'जाव गुत्तेत्तिकरणादिदं दृश्य-एसणासमिए आयाणभंडमत्तनिक्षेवणासमिए' भाण्डमात्राया आदाने निक्षेपे च | | समित इत्यर्थः, 'उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिठावणियासमिए' खेलो-निष्ठीवनं सिंघाणो-नासिकाश्लेष्मा जल्लोमला, 'मणगुत्ते वागुत्ते कायगुत्ते 'गुत्ते गुप्तत्वाद् त्रिगुप्तात्मेत्यर्थः, 'गुत्तिदिए' स्वविषयेषु रागादिनेन्द्रियाणामप्रवृत्तेः,॥ 'गुत्तभचारी' गुप्त जवभिब्रह्मचर्यगुप्तिभी रक्षितं ब्रह्म-मैथुनविरमण चरतीति विग्रहः, तथा 'अममें' अविद्यमानममे-| त्यभिलापो निरनुषहखात् 'अकिंचणे'नास्ति किंचणं-द्रव्यं यस्य स तथा, 'छिन्नग्रन्थे' छिन्नो अन्धो-धनधान्यादिस्तप्रतिबन्धो वा येन स तथा, कचित् 'किन्नग्गन्थे' इति पाठस्तब कीर्णः-क्षिप्तः, 'निरुवलेवे' द्रव्यतो निर्मलदेहत्वात् भा- दीप अनुक्रम [८७२ -८७६] स्था० ७८ amEairat पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~360~ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: श्रीस्थाना- प्रत सूत्रांक [६९३] वृत्तिः ॥ ४६॥ वतो बन्धहेत्वभावान्निर्गत उपलेपो यस्मादिति निरुपलेपः, एतदेवोपमानैरभिधीयते-'कंसपातीव मुक्कतोये' कांस्यपा- ९ स्थाना. त्रीव-कांस्वभाजनविशेष इव मुकं-त्यक्तं न लग्नमित्यर्थः तोयमिव बन्धहेतुत्वात्तोयं-स्नेहो येन स मुक्ततोयः यथा भा-४ उद्देश ३ वनायामाचाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धपञ्चदशाध्ययने तथा अयं वर्णको वाच्य इति भावः, कियदूरं यावदित्याह-'जाव महापामुहुये'त्यादि, सुख हुतं-क्षिप्तं घृतादीति गम्यते यस्मिन् स सुहुतः स चासौ हुताशनश्च-वहिरिति सुहुतहुताशनस्त- चरितं द्वत्तेजसा-ज्ञानरूपेण तपोरूपेण वा ज्वलन्-दीप्यमानः, अतिदिष्टपदानां सह गाथाभ्यामाह-'कंसे गाहा, 'कुंजर' सू०६९३ गाहा, 'कंसे'त्ति 'कंसपाईव मुकतोये' संखेत्ति 'संखे इव निरङ्गणे' रङ्गणं-रागायुपरजनं, तस्मानिर्गत इत्यर्थः, 'जी-1 'चि 'जीव इव अप्पडिहयगई' संयमे गतिः-प्रवृत्तिन हन्यते अस्य कथञ्चिदिति भावः, 'गगणे'त्ति 'गगनमिव निरालम्बणे' न कुलग्रामाद्यालम्बन इति भावः, 'बाये यत्ति 'वायुरिव अप्पडिबद्धे' प्रामादिष्वेकरात्रादिवासात् 'सारयसलिले'त्ति 'सारथसलिलं व सुद्धहियए' अकलुषमनस्त्वात् , 'पुकखरपतेत्ति 'पुक्खरपत्तंपिव निरुवलेवें' प्रतीतं, 'कुम्मे'त्ति 'कुम्मो इव गुत्तिदिए' कच्छपो हि कदाचिदवयवपञ्चकेन गुशो भवत्येवमसावपीन्द्रियपञ्चकेनेति, 'विहगे'त्ति 'विहग 2 |इव विप्पमुके' मुक्तपरिच्छदत्वादनियतवासाचेति, खग्गे यत्ति 'खग्गिविसाणंव एगजाए' खड्गः-आटव्यो जीवस्तस्य विषाण-शृङ्गं तदेकमेव भवति तद्वदेकजातः-एकभूतो रागादिसहायवैकल्यादिति, 'भारुंडे'त्ति 'भारुडपक्खीव अप्प-IN |मत्ते' भारुण्डपक्षिणोः किलक शरीरं पृथग्ग्रीवं त्रिपादं च भवति, तौ चात्यन्तमप्रमत्ततयैव निर्वाहं लभेते इति तेनोप-12॥५४॥ मेति ॥ १॥ 'कुंजरे'त्ति 'कुंजरो इव सोंडीरें हस्तीव शूरः कषायादिरिपून् प्रति, 'वसभे'त्ति 'वसभो इव जायथामें दीप अनुक्रम [८७२-८७६] E पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~361~ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: प्रत सूत्रांक [६९३] गोरिवोत्पन्नबलः, प्रतिज्ञातवस्तुभरनिर्वाहक इत्यर्थः, 'सीहे'त्ति 'सीहो इव दुद्धरिसे' परीपहादिभिरनभिभवनीय इत्यर्थः, नगराया चेवत्ति 'मंदरो इव अप्पकंपे' मेरुरिवानुकूलाद्युपसगैरविचलितसत्त्वः, 'सागरमक्खोहि'त्ति मकारोऽलाक्षणिकः सागरवदक्षोभः सागराक्षोभ इति सूत्रसूचा, सूत्रं च 'सागरो इव गंभीरे' हशोकादिभिरक्षोभितत्वादिति, 'चंदे'त्ति 'चंदे इव सोमलेसे' अनुपतापकारिपरिणामः, 'सूरेत्ति 'सूरे इव दित्ततेए' दीप्ततेजा द्रव्यतः शरीरदीच्या भावतो ज्ञानेन, 'कणगे'त्ति 'जचकणगंपिव जायरूवे' जातं-लब्ध रूप-स्वरूप रागादिकुद्रव्यविरहाद् येन स तथा, 'वसुंधरा चेवत्ति 'वसुंधरा इव सब्बफासविसहे' स्पर्शा:-शीतोष्णादयोऽनुकूलेतराः, 'सुहुयहुए ति व्याख्यातमेवेति, 'नत्थी'त्यादि, नास्ति तस्य भगवतो महापद्मस्यायं पक्षः, यदुत कुत्रापि प्रतिबन्धः-स्नेहो भविष्यतीति, 'अण्डए इ बत्ति अण्डजो-हंसादिः ममायमित्युलेखेन वा प्रतिवन्धो भवति, अथवा अण्डक मयूर्यादीनामिदं रमणकं मयूरादेः कारणमिति प्रतिबन्धः स्यादित्यथबाउण्ड पट्टसूत्रजमिति वा, पोतजो हस्त्यादिरयमिति वा प्रतिवन्धः स्थात्, अथवा पोतको बालक इति वा, अथवा पोतकं बखमिति वा प्रतिबन्धः स्यात्, आहारेऽपि च विशुद्धे सरागसंयमवतः प्रतिबन्धः स्यादिति दर्शयति'उग्गहिए इव'त्ति अवगृहीतं-परिवेषणार्थमुत्साटितं प्रगृहीतं-भोजनार्थमुपाटितमिति, अथवा अवग्रहिकमिति-अवग्रहोस्यास्तीति वसतिपीठफलकादिः, औपग्रहिकं वा दण्डकादिकमुपधिजातं, तथा प्रकर्षेण ग्रहोऽस्येति प्रग्रहिकम्-औधिकमु. पकरणं पात्रादीनि, अथवा अण्डजे वा पोतजे वेत्यादि व्याख्येयमिकारस्त्वागमिक इति, 'जन्नति यां यां दिशं णमिति वाक्यालङ्कारे तुशब्दो वा अयं तदर्थ एव, इच्छति तदा विहर्नुमिति शेषः, तां तां दिशं स विहरिष्यतीति सम्ब दीप अनुक्रम [८७२-८७६] Eco पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~362~ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: प्रत सूत्रांक [६९३] श्रीस्थाना दान्धः, सप्तम्यर्था धेयं द्वितीया तस्यां तस्यामित्यर्थः, शुचिभूतो भावशुद्धितो लघुभूतोऽनुपधित्वेन गौरवत्यागेन चार स्थाना गसूत्र 'अणुप्पगंधे ति अनुरूपतया-औचित्येन विरतेने त्वपुण्योदयादणुरपि वा-सूक्ष्मोऽप्यल्पोऽपि प्रगतो ग्रन्थो-धनादिर्यस्य उद्देश ३ वृत्तिः यस्माद्वाऽसावनुप्रग्रन्थः अपेवृत्त्यन्तर्भूतत्वादणुप्रग्रन्थो वा अथवा 'अणुप्पत्ति अनर्यः अनर्पणीयः अढौकनीयः परे-18|महापद्म पामाध्यामिकत्वात् अन्धवत्-द्रव्यवत् ग्रन्थो-ज्ञानादिर्यस्य सोऽनयग्रन्ध इति, "भावेमाणे'त्ति बासयन्नित्यर्थः, 'अणु- चरितं त्तरेणं'ति नास्त्युचरं-प्रधानमस्मादित्यनुत्तरं तेन, 'एव'मिति अनुत्तरेणेति विशेषणमुत्तरत्रापि सम्बन्धनीयमित्यर्थः, सू०६९३ 'आलयेन वसत्या विहारेणैकरात्रादिना आर्जवादयः क्रमेण मायामानगौरवक्रोधलोभनिग्रहाः गुप्तिमनःप्रभृतीनां तथा सत्यं च-द्वितीय महाव्रतं संयमश्च-प्रथमं तपोगुणाश्च अनशनादयः सुचरितं-सुष्ठासेवितं 'सोचविर्य'ति प्राकृ. तत्वाच्छौचंच-तृतीयं महाव्रतं, अथवा 'विय'त्ति विच विज्ञानमिति दूरदस्ततश्चैतान्येवता एव वा 'फल'त्ति फलप्रधानः परिनिर्वाणमार्गो-नितिनगरीपथः सत्यादिपरिनिर्वाणमार्गस्तेन, ध्यानयोः-ध्यानद्वितीयतृतीयभेदलक्षणयोरन्तरं-मध्यं ध्यानान्तरं तदेव ध्यानान्तरिका तस्यां वर्तमानस्य, शुक्लस्य द्वितीया दादुत्तीर्णस्य तृतीयमप्राप्तस्येत्यर्थः, अनन्तमनन्तविषयत्वात् अनुत्तरं सर्वोत्तमत्वात् नियाघातं धरणीधरादिभिरप्रतिहतत्वात् निरावरणं सर्वोवरणा-IN पगमात् कृत्स्नं सर्वार्थविषयत्वात् प्रतिपूर्ण स्वरूपतः पौर्णमासीचन्द्रवत् केवलमसहायमत एवं वरं ज्ञानदर्शनं प्रतीतं केवलवरज्ञानदर्शनमिति 'अरह'त्ति अर्हन् अष्टविधमहामातिहार्यरूपपूजायोगात् जिनो रागादिजेतृत्वात् केवली परि-IT४६५॥ पूर्णज्ञानादित्रययोगात् सर्वज्ञः सर्वविशेषार्थबोधात् सर्वदशी सकलसामान्यार्थावबोधात् ततश्च सह देवैश्च-वैमानिक दीप अनुक्रम [८७२-८७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोषः, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~363~ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: प्रत सूत्रांक [६९३] RJ435-4% ज्योतिष्कलक्षणैर्मत्यैश्च-मनुजैरसुरैश्च-भवनपतिव्यन्तरलक्षणर्यः स सदेवमासुरस्तस्य लोकः-पञ्चास्तिकायात्मकस्तस्य परियागं'ति जाताचेकवचन मिति पर्यायान-विचित्रपरिणामान् 'जाणइ पासइत्ति ज्ञास्यति द्रक्ष्यति चेत्यर्थः, एतच्च देवादिग्रहणं प्रधानापेक्षमन्यथा सर्वजीवानां सर्वपर्यायान् ज्ञास्यति, अत एवाह-सव्वलोए' इत्यादि, 'चयण'ति वैमानिकज्योतिष्कमरणं उपपात-नारकदेवानां जन्म तर्क-विमर्श मना-चित्तं मनसि भवं मानसिकं-चिन्तितं वस्तु भुक्तमोदनादि कृतं घटादि प्रतिषेवितं-आसेवितं प्राणिवधादि आविष्कर्म-प्रकटक्रियां रहकर्म-विजनव्यापार ज्ञास्यतीत्यनुवर्तते, तथा 'अरहा' न विद्यते रहो-विजनं यस्य सर्वज्ञत्वादसावरहाः, अत एव रहस्यस्य-प्रच्छन्नस्याभावोऽरहस्य तद्भजते इत्यरहस्यभागी, तं तं कालं आश्रित्येति शेषः, सप्तमी वेयमतस्तस्मिंस्तस्मिन् काल इत्यर्थः, 'मणसवयसकाइपत्ति मानसश्च वाचसश्च कायिकश्च मानसवाचसकायिकं तत्र योगे-व्यापारे इस्वत्वं च प्राकृतत्वादिति, वर्तमानानां -व्यवस्थितानां सर्वभावान्-सर्वपरिणामान् जानन् पश्यन्विहरिष्यति, 'अभिसमेच'त्ति अभिसमेत्य अवगम्य, 'सभावणाई'ति सह भावनाभिः प्रतिव्रतं पञ्चभिरीर्यासमित्यादिभिर्यानि तानि सभावनानि तासां च स्वरूपमावश्यकान्मन्तव्यं षड्जीवनिकायान् रक्षणीयतया 'धम्मति एवंरूपं चारित्रात्मक सुगतौ जीवस्य धारणाद् धर्म श्रुतधर्म च देशयन्-प्ररूपयन्निति, अथ महापास्यात्मनश्च सर्वज्ञत्वात् सर्वज्ञयोश्च मताभेदाभेदे चैकस्यायथावस्तुदर्शनेनासर्वज्ञताप्रसकादित्युभयोभगवान् समां वस्तुप्ररूपणां दर्शयन्नाह से जहें'त्यादि, 'से' इत्यथार्थों अथशब्दश्च वाक्योपन्यासार्थः यथेत्युपमानार्थः, 'नाम एति वाक्यालङ्कारे 'अज्जो'त्ति हे आर्याः शिष्यामन्त्रणं, 'एगे आरंभहाणे'त्ति आरम्भ दीप अनुक्रम [८७२-८७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~364~ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: प्रत 4 सूत्रांक [६९३] श्रीस्थाना- एव स्थान-वस्तु आरम्भस्थानमेकमेव, तत्ततामत्तयोगलक्षणत्वात् तस्य, यदाह-"सब्बो पमत्तजोगो समणस्स उ होइ ९स्थाना० सूत्र- आरंभो" इति, [ सर्वः प्रमत्तयोगः भवति आरंभ एव श्रमणस्य ॥] इतः शेषमावश्यके प्रायः प्रसिद्धमिति न लिखितं, उद्देशः ३ वृत्तिः | तथा फलक-प्रतलमायतं काष्ठ-स्थूलमायतमेव लब्धानि च सन्मानादिनाऽपलब्धानि च न्यकारपूर्वकतया यानि भक्ता- | महापद्म चरितं दीनि तैर्वृत्तयो-निर्वाहा लब्धापलब्धवृत्तयः, 'आहाकम्मिए इ बत्ति आधाय-आश्रित्य साधून कर्म-सचेतनस्याचे॥४६६॥ |तनीकरणलक्षणा अचेतनस्य वा पाकलक्षणा क्रिया यत्र भक्तादौ तदाधाकर्म तदेवाधाकमिकम् , उक्तं च-"सच्चित्तं सू०६९३ जमचित्तं साहणऽहाए कीरए जं च । अञ्चित्तमेव पच्चइ आहाकम्म तयं भणियं ॥१॥"[साध्वर्थ सचित्तं यदचित्तं | क्रियते अचित्तस्य पाकादि वा तदाधाकर्म भणितं ॥१॥] इह चेकारः सर्वत्रागमिकः इतिशब्दो वाऽयमुपप्रदर्शनार्थपरो वा विकल्पार्थः, 'उद्देसियंति अर्थिनः पाखण्डिनः श्रमणानिन्धान वोद्दिश्य दुर्भिक्षात्ययादौ यदकं वितीर्यते तदौदेशिकमिति, उद्देशे भवमोद्देशिकमितिशब्दार्थः, यद्वा तथैव यदुद्धरितं सद् दध्यादिभिर्विमिष्ठय दीयते तापयित्वा वा | तदपि तथैवेति, इहाभिहितम्-"उद्देसिय साहुमाई ओमन्वय भिक्खवियरणं जं च । उद्धरियं मीसेर्ड तविउ उद्दे-13 Pासियं तं तु ॥ १ ॥” इति [अवमात्यये साध्वादीनुद्दिश्य यद्भिक्षावितरणं यद्वा उदृतं मिश्रयित्वा तापयित्वा दानं| दूतदौदेशिकमेव ॥१॥] 'मीसजाए वति गृहिसंयतार्थमुपस्कृततया मित्रं जातं-उत्पन्न मिश्रजातं, यदाह-"पढमं ॥४६६ चिय गिहिसंजय मीसं उबक्खडा मीसगं तं तु ॥” इति [प्रथममेव गृहिसंयतमित्रमुपस्करोति तन्मिश्रमेव ॥] 'अज्झोयरए'त्ति स्वार्थमूलाद्रहणे साध्वाद्य) कणप्रक्षेपणमध्यवपूरकः, आह च-"सट्टा मूलद्दहणे अझोयर होइन दीप अनुक्रम [८७२-८७६] %%5E CamEauratominimational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~365~ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: प्रत सूत्रांक [६९३] पक्खयो।" इति, [मूलात् स्वार्थ पाके प्रक्षेपः साध्वर्थमध्यवपूरकः॥] 'पूईए'त्ति शुद्धमपि कर्माद्यवयवैरपवित्री-15 कृतं पूतिक, उक्तंच-"कम्मावयवसमेयं संभाविजइ जयं तु तं पूई ॥” इति [आधाकर्मावयवसमेतं संभाव्यते यत्तत्पूतिकं ॥] 'कीए'त्ति द्रव्येण भावेन या क्रीतं-स्वीकृतं यत्तत्कीतमिति, यतोऽभ्यधायि-"दबाइएहि किणणं साहूणढाइ कीयं तु ॥” इति [द्रव्याद्यैः क्रीणनं साध्वर्थ तस्क्रीतन्तु ॥] 'पामिचं' अपमित्यक-साध्वर्थमुद्धारगृहीतं, यतोऽभिहितम्-'पामिचं साहूणं अच्छा उच्छिदिउं दियावेइ" इति [साध्वध उद्यतकं गृहीत्वा ददाति प्रामित्यक] 'आच्छे । बलाद् भृत्यादिसकमाच्छिद्य यत्स्वामी साधवे ददाति, भणितं च-"अच्छेज चाछिंदिय जं सामी भिच्चमाईणं" इति [ भृत्यादिभ्य आच्छिद्य यत्स्वामी दत्ते तदाच्छेद्यं] 'अनिसृष्टं' साधारणं बहूनामेकादिना अननुज्ञातं दीयमानं, आह च-"अणिसटुं सामन्नं गोट्ठियमाईण दयउ एगस्स" इति [गोष्ठ्यादीनां सामान्य एकस्य ददतोऽनिसृष्टं ॥ 'अभ्याहृतं' स्वग्रामादिभ्य आहृत्य यद्ददाति, यतोऽवाचि-"सग्गामपरग्गामा जमाणियं अभिडं तय होई" इति हास्वग्रामपरग्रामाद्यदानीतं तदभ्याहृतं भवति ॥] [अध्यवपूरकादीनां स्वरूपमुक्तं न तु व्युत्पत्तिरित्याह-'एषा'मित्यादि] एषां शब्दार्थः प्रायः प्रकट एवेति, कान्तारभक्कादय आधाकम्मोदिभेदा एव, तत्र कान्तारं-अदबी तत्र भक्त-भोजनं | यत्साध्याद्यर्थं तत्तथा, एवं शेषाण्यपि, नवरं ग्लानो-रोगोपशान्तये यद्ददाति ग्लानेभ्यो वा यद् दीयते, तथा वईलिका मेघाडम्बरं तत्र हि वृष्ट्या भिक्षाभ्रमणाक्षमो भिक्षुकलोको भवतीति गृही तदर्थ विशेषतो भक्तं दानाय निरूपयतीति, प्रा&ाघूर्णकार-आगन्तुकाः भिक्षुका एवं तदर्थ यद्भक्तं तत्तथा, प्राघूर्णको वा गृही स यद्दापयति तदर्थ संस्कृत्य तत्तथा, मूल MESSANSAR %AR 0-90 दीप अनुक्रम [८७२-८७६] % E पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~366~ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: प्रत सूत्रांक [६९३] श्रीस्थाना-IIपुनर्नवादीनां तस्य भोजनं तदेव वा भोजनं भुज्यत इति भोजनमितिकृत्वा, कन्दः-सूरणादिः फल-पुष्यादि बीजस्थाना. सूत्र- दाडिमादीनां हरित-मधुरतृणादिविशेषः, जीववधनिमित्तत्वाच्चैषां प्रतिषेध इति। 'पंचमहब्बइए' इत्यादि प्रथमपश्चिमती-8. | उद्देशः३ वृत्तिः र्थकराणां हि पञ्च महाव्रतानि शेषाणां महाविदेहजानां च चत्वारीति पञ्चमहाव्रतिकः, एवं सह प्रतिक्रमणेन-उभयसन्ध्य- महापा मावश्यकेन यः स तथा, अन्येषां तु कारणजात एवं प्रतिक्रमणमिति, उक्तं च-"सपडिकमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छि-17 चरितं ॥४६७॥ मस्स य जिणस्स। मज्झिमयाण जिणाणं कारणजाए पडिकमणं ॥१॥" इति, [पूर्वस्य पश्चिमस्य जिनस्य साधोः सप्रतिक्रमणो सू०६९३ धर्मः मध्यमजिनसाधूनां कारणजाते प्रतिक्रमणं ॥१॥] तथा अविद्यमानानि-जिनकल्पिकविशेषापेक्षया असत्वादेव स्थविरकल्पिकापेक्षया तु जीर्णमलिनखण्डितश्वेताल्पत्वादिना चेलानि-वस्त्राणि यस्मिन् स तथा धर्मचारिवं, न च सति| 2 चेले अचेलता न लोके प्रतीता, यत उक्तम्-"जह जलमवगाहतो बहुचेलोऽवि सिरवेढियकडिल्लो । भन्नइ नगे अचेलो द तह मुणभोसंतचेलावि॥१॥" [यथा जलमयगाहयन् बहुचेलोऽपि शिरोवेष्टितकटीवखः नरोऽचेलो भण्यते तथा मुनयः सच्चेला अपि ॥१॥] अत:-"परिसुद्धजुन्नकुच्छियधोवानियअन्नभोगभोगेहिं । मुणओ मुच्छारहिया संतेहिं अचेलया होति ॥१॥"[श्वेतजीर्णकुथितस्तोकानियतान्यभोगभोगैः मूरिहिता मुनयः सत्स्वपि अचेलका भवन्ति ॥१॥]18 (अनियतैरन्यभोगे च सति भोग्यरित्यर्थः> न च वखं संसक्तिरागादिनिमित्ततया चारित्रविघातायाध्यात्मशुद्धेपद शरीराहारादिवदिति, न हि शरीरायकादिसंसक्तिन भवति रागो वा नोत्पद्यते, उक्तं च-"अह कुणसि भुलवस्थाइएसुर ॥४६७॥ [मुच्छ धुर्व सरीरेऽवि । अक्के जदुल्लभतरे काहिसि मुच्छ विसेसेणं ॥१॥” इति [स्थूलवस्त्रादिषु भूच्छोमथ करोषि ध्रुवं | दीप अनुक्रम [८७२-८७६] Fit For पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~367~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: S प्रत सूत्रांक [६९३] शरीरेऽपि अक्रेयदुर्लभतरे विशेषेण मूच्छी करिष्यसि ॥१॥] (अक्रयणीय इत्यर्थः> अध्यात्मशुज्यभावेऽचेलकत्वमपि न चारित्राय, यथोक्तम्-"अपरिग्गहावि परसंतिएसु मुच्छाकसायदोसेहिं । अविणिग्गहियप्पाणो कम्ममलमणंतमज्जाते ॥१॥"[अपरिग्रहा अपि परकीयेषु भू कषायदोषैः अविनिगृहीतात्मानः अनन्तं कर्ममलमर्जयन्ति ॥१॥] इति, जिनोदाहरणादचेलकत्वमेव श्रेय इति न वक्तव्यमेतत्, यतोऽभ्यधायि-"न परोवएसविसया न य छउमत्था परोवएसपि । दिति न य सीसवगं दिक्खंति जिणा जहा सब्जे ॥१॥ तह सेसेहि य सब्वं कर्ज जइ तेहिं सब्यसाहम्मं । एवं च कओ-तित्थं न चेदचेलत्ति को गाहो? ॥२॥"[जिनाः सर्वे न परोपदेशवशगाः न च छद्मस्थाः । परस्योपदेशमपि नच ददति न च शिष्यवर्ग दीक्षयंति यथा ॥१॥ तथा शेपैश्च सर्व कार्य यदि तैः सर्वसाधय एवं च कुतः | तीर्थ ? न चेदचेल इति को ग्राहः (आग्रहः)॥२॥] अपि च-उचितचेलसद्भावे चारित्रधर्मो भवत्येव तदुपकारित्वाच्छरीराहारादिवदिति, अथ कथं चेलस्य चारित्रोपकारितेति चेत्, उच्यते, शीतादित्राणतो जीवसंसक्तिनिमित्ततृणपरिहारादिहेतुत्वात्, उक्तं च-तणगहणानलसेवानिवारणा धम्मसुकझाणट्ठा । दिटु कापग्गहणं गिलाणमरणट्ठया चेव ॥१॥" इति, [तृणग्रहणानलसेवानिवारणाय धर्मशुक्लध्यानार्थ कल्पग्रहणं दृष्टं ग्लानार्थाय मरणार्थाय चैव ॥१॥] तथा 'सेज्जायरे'त्ति शेरते यस्यां साधवः सा शय्या तया तरति भवसागरं इति शय्यातरो-वसतिदाता तस्य पिण्डो भक्तादिः शय्यातरपिण्डः, सच अशनादि ४ वखादि ४ शूच्यादि ४ खेति, तहणे दोषास्त्वमी-"तित्थंकरपडिकुट्ठो अन्नायं उग्गमोऽवि य न सुज्झे । अविमुत्ती अलावता दुलहसेजा विउच्छेओ॥१॥” इति, [तीर्थकरप्रतिकुष्टः अ-18 दीप अनुक्रम [८७२-८७६] CCCCCC Editor May पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~368~ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [६९३] + गाथा: श्रीस्थाना- प्रसूत्रवृत्ति प्रत ॥४६८॥ सूत्रांक [६९३] ज्ञातत्वमुद्गमोऽपि च न शुष्यति अविमुक्तिरलाघवता दुर्लभा शय्या ब्युच्छेदश्च ॥१॥" राज्ञः-चक्रवर्तिवासुदेवादेः-९ स्थाना. पिण्डो राजपिण्डा, इदानीमुभयोरपि जिनयोः समानतानिगमनार्थमाह-'जस्सील'गाहा, यौ शीलसमाचारी-स्वभा- उद्देशः ३ वानुष्ठाने यस्य स यच्छीलसमाचारः तावेव शीलसमाचारौ यस्य स तथेति ॥ महापद्मजिनो हि महावीरवदुत्तरफाल्गुनी- पश्चाद्भागनक्षत्रजन्मादिव्यतिकर इति नक्षत्रसम्बन्धानक्षत्रसूत्र विमानकुणा णक्वत्ता चंदस्स पच्छंभागा पं० सं०-अभिती समणो धणिट्ठा रेवति अस्सिणि मगसिर पूसो । इत्यो चित्ता व | लकरतीतहा पकछंभागा णव हवंति ॥ १ ॥(सू० ६९४) आणतपाणतआरणवुतेमु कप्पेसु विमाणा णव जोयणसयाई उद्धं र्थान्तरद्वीउच्चत्तेणं पं० (सू०६९५) विमलवाहणे णं कुलकरे णव धणुसताई उद्धं उच्चत्तेणं हुल्या (सू० ६९६) उसमे गं अरहा पवीथीनोकोसलिते णं इमीसे भोसप्पिणीए णवहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं विईकंताहि तित्थे पवत्तिते (सू०६९७) पणदंत- कषायकुलहवंतगूढदंतसुद्धस्तदीवाणं दीया गवणवजोयणसताई आयामविक्खंभेणं पण्णता (सू०६९८) सुबास्स णं महाग- लकोटीपाहस्स गव वीहीओ पं० २०-हयवीही गतवीही जागवीही वसहवीही गोवीही उरगधीही अथवीही मितवीही वेसा | पपुद्गलाः गरवीही (सू०६९९) नवविधे नोकसायवेयणिजे कम्मे पं० त०-इत्यिवेते पुरिसवेते णपुंसगयेते हासे रती अरह सू०६९४भये सोगे दुगुंछे (सू०७००) चरिदियाणं णव जाइकुलकोडीजोणिपमुहसयसहस्सा पण्णता, भुयगपरिसप्पथलयर ७०३ पंबिंदियतिरिक्खजोणियाणं नवजाइकुलकोडिजोणिपगुहसयसहस्सा पण्णत्ता (सू०७०१) जीवा णं णवहाणनि ॥४६८॥ वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताते चिणिंसु वा ३ पुढविकाइयनिवत्तिते जाव पंचिदितनिवत्तिते, एवं चिणउपचिण जाव णि %AR दीप अनुक्रम [८७२-८७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~369~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [७०३] प्रत सूत्रांक ॐॐॐ [७०३] जरा चेव (सू०७०२) णव पएसिता खंधा अणंता पण्णत्ता नवपएसोगाढा पोग्गला अणंता पणत्ता जाव णवगुण लुक्खा पोग्गला अणता पण्णत्ता (सू०७०३) नवमं ठाणं नवमझयणं समत्तं ॥ कण्ठ्यं, च नवरं 'पच्छंभाग"त्ति पश्चाद्भागश्चन्द्रेण भोगो येषां तानि पश्चाद्धागानि चन्द्रोऽतिक्रम्य यानि भुले, पृष्ठ 2 दत्वेत्यर्थः, 'अभिई गाहा,'अस्सीइ'त्ति अश्विनी मतान्तरं पुनरेवम्-"अस्सिणिभरणी समणो अणराहधणिद्वरेवईपूसो । मियसिरहत्थो चित्ता पच्छिमजोगा मुणेयवा ॥१॥” इति [ अश्विनी भरणी श्रवणं अनुराधा धनिष्ठा रेवती पुष्यः मगशिरः हस्तश्चित्रा पश्चिमयोगानि ज्ञातव्यानि ॥१॥] नक्षत्रविमानव्यतिकर उक्त इति विमानविशेषव्यतिकरसूत्र, व्यक्तं ।। अनन्तरं विमानानामुचत्वमुक्तमिति कुलकरविशेषस्योच्चत्वसूत्रं कुलकरसम्बन्धाद्वृषभकुलकरसूत्र ऋषभो मनुष्य इत्यन्तरद्वीपजमनुष्यक्षेत्रविशेषप्रमाणसूत्रं च, सुगमानि चैतानि, नवरं घनदन्तादयः सप्तमा अन्तरद्वीपाः । नवयोजनशता-10 नीत्युक्तमिति समधरणीतलादुपरिष्टान्नवयोजनशताभ्यन्तरचारिणो ग्रहविशेषस्य व्यतिकरमाह-सुक्कस्से त्यादि, शुऋस्य महाग्रहस्य नव वीथय:-क्षेत्रभागाः प्रायस्त्रिभित्रिभिनेक्षत्रैर्भवन्ति, तत्र हयसंज्ञा वीथी हयवीथीत्येवं सर्वत्र, संज्ञा च व्यवहारविशेषार्थ, या चेह हयवीथी साऽन्यत्र नागवीथीति रूढा नागवीधी चैरावणपदमिति, एतासां च लक्षणं| भद्रबाहुप्रसिद्धाभिरार्याभिः क्रमेण लिख्यते-भरणी स्वात्याग्नेयं ३ नागाख्या १ वीथिरुत्तरे मागगें । रोहिण्यादि ३| रिभाख्या २ चादित्यादिः ३ सुरगजाख्या ३ ॥ १ ॥ (आग्नेयं-कृत्तिका, आदित्यं पुनर्वसुरिति) वृषभाख्या ४ पैव्यादिः ३ श्रवणादि ३मध्यमे जरद्गवाख्याः ५। प्रोष्ठपदादि ४ चतुष्के गोवीधि ६ स्तासु मध्यफलम् ॥ २॥ (पैञ्यं दीप 25% अनुक्रम [८८७]] E atonin पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~370~ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [७०३] प्रत सूत्रांक [७०३] श्रीस्थाना- मघा मध्यमे इति-मार्गे प्रोष्ठपदा-पूर्वभद्रपदा > अजवीथी ७ हस्तादि ४ मंगवीधी ८ वैन्द्रदेवतादि स्यात् । दक्षिण- ९ स्थाना० सूत्र- मार्गे वैश्वानाषाढवयं ब्राहयम् ॥ ३॥ (इन्द्र देवता-ज्येष्ठा ब्राहृयामभिजिदिति > एतासु भृगुबिचरति नागगराव उद्देशः३ वृत्तिः तीषु वीथिषु चेत् । बहु वर्षेत् पर्जन्यः सुलभौषधयोऽर्थवृद्धिश्च ॥ ४॥ पशुसंज्ञासु च ३ मध्यमसस्यफलादिर्यदा चरेद्प श्चाद्भाग भृगुजः। अजमृगवैश्वानरवीथिवर्थभयादितो लोकः ॥ ५ ॥ इति । वीधिविशेषचारेण च शुक्रादयो ग्रहा मनुजादी-टू विमानकु॥४६९॥ नामनुग्रहोपघातकारिणो भवन्तीति द्रव्यादिसामच्या कर्मणामुदयादिसद्भावादि तेसम्बन्धात् प्रस्तुताध्ययनावतारि कर्म- लकरतीस्वरूपमाह-नवविहे'त्यादि, इह नोशब्दः साहचर्याधः कषायैः-क्रोधादिभिः सहचरा नोकषायाः, केवलानां नैषार्थान्तरद्वीप्राधान्यं किन्तु यैरनन्तानुवन्ध्यादिभिः सहोदयं यान्ति तद्विपाकसदृशमेव विपाकमादर्शयन्तीति, बुधग्रहवदन्यसंसर्ग- पवीथीनोमनुवर्तन्ते, एवं च नोकषायतया वेद्यते यत्कर्म तनोकषायवेदनीयमिति, तत्र यदुदयेन स्त्रियाः पुंस्यभिलाषः पित्तो- कायकु दयेम मधुराभिलाषवत् स फुफुकाग्निसमानः स्त्रीवेदः, यदुदयेन पुंसः स्त्रियामभिलापः श्लेष्मोदयादम्लाभिलापवत् लकोटीपादस दावाग्निज्यालासमानः पुंवेदो, यदुदये नपुंसकस्य खीपुंसयोरुभयोरभिलाषः पित्तश्लेष्मणोरुदये मजिताभिलाष-1|| पपुद्गलाः वत् स महानगरदाहाग्निसमानो नपुंसकवेद इति, यदुदयेन सनिमित्तमनिमित्तं वा हसति तत्कर्म हास्य, यदुदयेन सचि- सू०६९४. |त्ताचित्तेषु बाह्यद्रव्येषु जीवस्य रतिरुत्पद्यते तद्रतिकर्म, यदुदयेन तेष्वेवारतिरुत्पद्यते तदरतिकर्म, यदुदयेन भयवर्जि-131 ७०३. तस्यापि जीवस्येहलोकादि सप्तप्रकारं भयमुत्पद्यते तद्भयकर्म, यदुदयेन शोकरहितस्यापि जीवस्याक्रन्दनादिः शोको जायते तच्छोककर्मेति, यदुदयेन च विष्ठादिबीभत्सपदार्थेभ्यो जुगुप्सते तज्जुगुप्साकर्मेति । अनन्तरं कर्मोक्तं, तदशव दीप अनुक्रम [८८७]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान-९ समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, नवमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~371~ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [९], उद्देशक [-], मूलं [७०३] तिनश्च नानाकुलकोटीभाजी भवन्तीति कुलकोटिसूत्रे तद्गताश्च कर्म चिन्वन्तीति चयादिसूबषटुं, कर्मपुनलप्रस्ता-13 वात् पुगलसूत्राणि, सुगमानि सानि, नवरं 'नव जाईत्यादि, चतुरिन्द्रियाणां जाती यानि कुलकोटीना योनिप्रमखाणां-योनिद्वारकाणां शतसहस्राणि तानि तथा, भुजैर्गच्छन्तीति भुजगाः-गोधादय इति । इति नक्मस्थानकविवरणम् ।। प्रत सूत्रांक [७०३] दीप RSSCAMSCIENCE WAROBA009890 इति श्रीमदभयदेवाचार्यविरचिते स्थानास्यतृतीयाङ्गविवरणे नवस्थानकाय नवममध्ययनं समाप्तम् ॥ श्लोकाः ७०७ hiesesentswasne w s 0938DYED9856080 अनुक्रम [८८७]] स्था० ७९ E पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अब नवमं स्थानं परिसमाप्तं ~372~ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत मूचांक [ ७०४] टीप अनुक्रम [ece] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ४७० ॥ %% [भाग-6] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं वृत्तिः) स्थान [१०], उद्देशक [-1. मूलं [७०४] Education Imand - अथ दशमस्थानाध्ययनम् । अथ सङ्ख्याविशेषसम्बन्धमेव दशस्थानकाध्ययनमारभ्यते, अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः - अनन्तराध्ययने जीवाजीवा नवत्वेन प्ररूपिता इह तु त एव दशत्वेन निरूप्यन्त इत्येवंसम्बन्धस्य चतुरनुयोगद्वारस्यास्येदमादि सूत्रम्दुविधा छोगहिती पं० [सं० जण्णं जीवा उदाइत्ता २ तत्थेव २ भुजो २ पञ्चायंति एवं एगा लोगट्टिती पण्णत्ता १ जणं जीवाणं सता समियं पाने कम्मे कजति एवंप्पेगा लोगहिती पण्णत्ता २ जण्णं जीवा सया समितं मोहणिजे पावे - कम्मे कञ्जति एवंप्पेगा लोगट्ठिती पण्णत्ता ३ ण एवं भूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा जं जीवा अजीवा भविस्संति अजीवा वा जीवा भविस्संति एवंप्पेगा लोगहिती पण्णत्ता ४ ण एवं भूतं ३ जं तसा पाणा वोच्छिजित्संति बावरा पाणा वोच्छिजिस्संति तसा पाणा भविस्संति वा एवंप्पेगा लोगद्विती पण्णत्ता ५ ण एवं भूतं ३ जं होगे अलोगे भवि स्पति अलोगे वा लोगे भविस्सति एवंप्पेगा लोगहिती पण्णत्ता ६ ण एवं भूतं वा ३ जं लोए अलोए पविस्सति अछोए वा छोए पविस्सति एवंप्पेगा लोगद्विती ७ जाब ताव लोगे ताव ताक जीवा जाव ताव जीवा ताव ताव लोग एवंप्पेगा लोगती ८ जाब ताव जीवाण त पोगलाण त गतिपरितावे ताव ताव लोए जाब ताव लोगे तार तान जीवाण य पोग्गलाण त गतिपरिताते एवंप्पेगा लोगद्विती ९ सव्वैसुवि णं लोगंतेसु अबद्धपासपुट्ठा पोटाला लुक्खत्ताते कज्जति जेणं जीवा व पोग्गला व नो संचायति वहिता लोगंता गमणयाते एवंप्पेगा लोगट्टिती पण्णत्ता १० (सू०७०४) Far Far & Pr पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र - [ ०३] अंग सूत्र - [०३] अथ दशमं स्थानं आरभ्यते अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~373~ १० स्थाना. उद्देशः ३ लोकस्थितिः सू० ७०४ ॥ ४७० ॥ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७०४] प्रत -2 सूत्रांक [७०४] 'दसविहा लोगेंत्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्व नवगुणरूक्षाः पुद्गला अनन्ता इत्युक्तं ते चासङ्ख्येयप्रदेशे लोके संमान्तीति लोकस्थितिरतः सैवेहोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या, इहापि संहितादिचर्चा प्रथमाध्ययनवत् केवलं लोकस्य-पचास्तिकायात्मकस्य स्थितिः-स्वभावः लोकस्थितियेदित्युदेशे णमिति वाक्यालङ्कारे | 'उद्दाइत्त'त्ति अपद्राय मृत्वेत्यर्थः, 'तत्थेव'त्ति लोकदेशे गतौ योनौ कुले वा सान्तरं निरन्तरं बौचित्येन भूयो भूयःपुनः पुनः 'प्रत्याजायन्ते' प्रत्युत्पद्यन्त इत्येवमप्येका लोकस्थितिरिति, अपिशब्द उत्तरवाक्यापेक्षया, अपिः क्वचिन्न दृश्यते, अथ द्वितीया-'जन्न' मित्यादि, सदा-प्रवाहतोऽनाद्यपर्यवसितं कालं 'समिय'ति निरन्तरं पापं कर्म-ज्ञानावरणादिकं सर्वमपि मोक्षविवन्धकत्वेन सर्वस्यापि पापत्वादिति क्रियते-बध्यते इत्येवमप्येका अन्येत्यर्थः, सततं कर्म|बन्धनमिति द्वितीया २, 'मोहणिजे त्ति मोहनीयं प्रधानतया भेदेन निर्दिष्टमिति सततं मोहनीयबन्धनं तृतीया ३, जीवाजीवानामजीवजीवत्वाभावश्चतुर्थी -४, बसानां स्थावराणां चाव्यवच्छेदः पञ्चमी ५, लोकालोकयोरलोकलोकत्वे-18 नाभवनं षष्ठी ६, तयोरेवान्योऽन्याप्रवेशः सप्तमी ७,'जाव ताव लोए ताव ताव जीव'त्ति याबल्लोकस्तावजीवाः, यावति क्षेत्रे लोकव्यपदेशस्तावति जीवा इत्यर्थः, 'जाव ताव जीवा ताव ताव लोए'त्ति, इह यावज्जीवास्तावत्तावल्लोको, यावति यावति क्षेत्रे जीचास्तावत्क्षेत्र लोक इति भावार्थः, 'जाव ता'त्यादिवाक्यरचना तु भाषामात्रमित्यटमी ८, यावज्जीवादीनां गतिपर्यायस्तावल्लोक इति नवमी ९, सर्वेषु लोकान्तेषु 'अबद्धपासपुट्ठति बद्धा-गाढश्लेषाः पाचस्पृष्टाः-छुप्तमात्रा ये न तथा तेऽबद्धपार्श्वस्पृष्टाः रूक्षद्रव्यान्तरेणेति गम्यते तत्सम्पर्कोदजातरूक्षपरिणामाः सन्त दीप अनुक्रम [८८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~374~ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७०४] दीप अनुक्रम [ece] श्रास्थाना ङ्गसूत्रवृति: ॥ ४७१ ॥ [भाग - 6] "स्थान" स्थान [१०], Education famations - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७०४] उद्देशक [-], इति भावः, लोकान्ते स्वभावात् पुद्गलाः रूक्षतया क्रियन्ते रूक्षतया परिणमन्ति, अथवा लोकान्तस्वभावाद्या रूक्षता भवति तथा ते पुद्गला अबद्धपार्श्वस्पृष्टाः - परस्परमसम्बद्धाः क्रियन्ते, किं सर्वधा १, नैवं, अपि तु तेनेत्यस्य गम्यमानत्वात्तेन रूपेण क्रियन्ते येन जीवाः सकर्म्मपुद्गलाः, पुद्गलाश्च परमाण्वादयो, 'नो संचायति'ति न शक्नुवन्ति बहिस्वालोकान्ताद् गमनतायै गन्तुमिति, छान्दसत्त्वेन तुमर्थे युट्प्रत्ययविधानादिति, एवमप्यन्या लोकस्थितिर्दशमी, शेषं कण्ठ्यमिति ॥ लोकस्थितेरेव विशिष्टवक्तृनिसृष्टा अपि शब्दपुङ्गला लोकान्त एव गच्छन्तीति प्रस्तावाच्छन्दभेदानाह दसविहे सद्दे पं० तं० नीहारि १ पिंडिमे २ लुक्खे ३, मिन्ने ४ जज्जरिते ५ इस । दीहे ६ रहस्से ७ पुहुत्ते ८ त काकणी ९ खिखिणिस्सरे १० ॥ १ ॥ ( सू० ७०५) दस इंदियत्वातीता पष्णता पं० [सं० देसेणवि एगे सहाई - सम्वेणवि एगे साई सुर्णिसु देसेणवि एगे रूवाएं पासिंधु सव्वेणवि एगे रुवाई पासिस एवं गंधाई रसाई फासाई जब सब्बेवि एगे फासाई पढिसंवेदेंसु, दस इंदियत्था पहुप्पन्ना पं० [सं० देसेणवि एगे सदाई सुर्णेति सब्वेणविएंगे सहाई सुणेति, एवं जाव फासाई, दस इंदियत्था अणागता पं० तं० देसेणवि एगे सहाई सुणिस्संति सदाई सुस्संति एवं जाव सव्वेणवि एगे फासाई पढिसंवेदेस्संति (सू० ७०६) defa 'दसविहे' इत्यादि, 'नीहारी' सिलोगो, निर्हारी - घोषवान् शब्दो घण्टाशब्दवत् पिण्डेन निर्वृत्तः पिण्डिमो- घोषवर्जितः दकादिशब्दवत् रूक्षः काकादिशब्दवत् भिन्नः कुष्ठाद्युपहतशब्दवत् झर्झरितो जर्जरितो वा स्तम्न्धी करटिकादिवाशब्दवत् दीर्घो दीर्घवर्णाश्रितो दुस्त्रव्यो वा मेघादिशब्दवत् इस्वो-इस्ववर्णाश्रयो विवक्षया लघुर्वा बीणादि Für Fortal & Private C १० स्थाना. उद्देशः ३ निर्हाराधाः शब्दाः इन्द्रियार्थाः सू० ७०५७०६ ~375~ ४ ।। ४७१ ।। angryog पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... आगमसूत्र - [ ०३] अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७०६] प्रत सूत्रांक [७०६] शब्दयत् , 'पुहसे यत्ति पृथक्त्वे-अनेकत्वे, कोऽर्थों-नानासूर्यादिद्रव्ययोगे या स्वरो यमलशाहादिशब्दवत् स सुमनत्व ति, 'काकणीति सूक्ष्मकण्ठगीतध्वनिः काकलीति यो रूढः 'खिंखिणी'ति किंकिणी-शुद्रघण्टिका तस्याः स्वरो-ध्वनिः | 8 किङ्किणीस्वरः । अनन्तरं शब्द उक्तः, स चेन्द्रियार्थ इति काळभेदेनेन्द्रियार्थान प्ररूपयन्सूत्रत्रयमाह-'दस इंखियेहै त्यादि, कण्ठ्यं, नवरं 'देसेणवित्ति विवक्षितशब्दसमूहापेक्षया देशेन-देशतः कांश्चिदित्यर्थः, एकः कश्चित्वानिति ।। 'सच्चेवित्ति सर्वतया सर्वानित्यर्थः, इन्द्रियापेक्षया वा श्रोत्रेन्द्रियेण देशता सम्भिन्नश्रोतोलब्धियुक्तावस्थायां सर्वे|न्द्रियैः सर्वतोऽथककर्णेन देशत उभाभ्यां सर्वतः, एवं सर्वत्र, 'पहुप्पन्नति अत्युसना वर्तमानाः। इन्द्रियार्थाश्च पुन्न-18 लधर्मा इति पुगलस्वरूपमाह-- दसहिं ठाणेहिमच्छिन्ने पोग्गले चलेजा, ०-आहारिजमाणे वा चलेजा परिणामेनमाणे वा चलेजा उस्ससिजमाणे का बलेमा निस्ससिकमाणे वा कलेजा वेदेमाणे वा चलेजा णिजरिजमाणे वा चलेजा विउबिजमाणे वा चलेजा परिवारिजमाणे या चलेजा जक्खाति? वा चलेजा वासपरिग्गहे वा चोखा (सू०.800) क्सहि ठाणेहिं कोधुपती सिया तं०-गणुभाई में सहफरिसरसरूवगंधाइमबहरिंसु १ अमणुलाई मे सफरिसरसरूवगंधाई अवहरिसु २ मणुण्णाई मे सफरिसरसरूवगंधाई अबाहरव ३ अमणुमाई मे सहफरिसजावाांधाई अवहरति ४ मणुण्णाई में सर जाव अक्हरिस्सति ५ श्रमणुषणाई मे सह माष उवहरिस्सति ६ मणुष्णाई मे सर जाच गंधाई अवहरिंसु वा भवहरद अवहरिसाति -प्रमणुण्णाई मे सह आप चक्हरिंसु था उवहरति उवहरिस्सति ८ गपुण्णमणुष्याई मर जाम भवहरिसु अवाह दीप अनुक्रम [८९१] 234%25 E aton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~376~ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७०८] श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः 5455 प्रत ॥४७२॥ सूत्रांक [७०८] रति अवहरिस्सइ उपहारसु उवहरति उवहरिस्सति ९ अहं च णं आयरियउवझायाणं सम्म वहामि ममं च णं आयरि- ल१०स्थाना. बउवज्झाया मिच्ई पवित्रा १० (सू०७०८) दसविधे संजमे पं० सं०-पुढचिकातितसंजमे जाव वणस्सतिकाय- उद्देशः३ संजमे पेइंदितसंजमे सेंदितसंजमे चउरिदितसंजमे पंचिंदियसंजमे अजीवकायसंजमे । दसविधे असंजमे ५००पुढविकातितअसंजमे आउ० तेउ० बाउ० षणस्सति जाव अजीवकायअसंजमे । वसविधे संवरे पं० तं-सोतिदिय- लना क्रोसंवरे जाव फासिवितसंबरे मण, वय काय. उवकरणसंबरे सूचीकुसग्गसंवरे । दसविधे असंबरे पं० २०-सोर्ति- | धोत्पत्तिदिवअसंवरे जाव सूचीकुसग्गअसंवरे (सू०७०९) हेतवः - 'दसही'त्यादि स्पष्टं, नवरं 'अच्छिन्ने'त्ति अच्छिन्न:-अपृथग्भूतः शरीरे विवक्षितस्कन्धे वा सम्बद्धः चलेत्-स्थानान्तरे यमाचार गच्छेत् 'आहारेजमाणे'त्ति आहियमाणा-खाद्यमानः पुद्गलः आहारे वा अभ्यवाहियमाणे सति पुद्गलश्वलेत् परिण- सू०७०७ ७०९ म्यमानः पुद्गल एवोदराग्निना खलरसभावेन परिणम्यमाणे वा भोजने उच्छृस्यमानः-उच्छासवायुपुद्गलः उच्चस्यमाने || वा-उच्छृसिते क्रियमाणे एवं निःश्वस्यमानो निःश्वस्यमाने वा बेद्यमानो निजींर्यमाणश्च कर्मपुगलोऽथवा वेद्यमाने नि-1 जीयमाणे च कर्मणि पैक्रियमाणो-क्रियशरीररतया परिणम्यमानः वैक्रियमाणे वा शरीरे परिचार्यमाणो-मैथुनसंज्ञाया विषयी क्रियमाणः शुक्रपुद्गलादिः परिचार्यमाणे वा-भुज्यमाने स्त्रीशरीरादौ शुक्रादिरेव यक्षाविष्टो-भूताद्यधि ॥४७२॥ राष्ठितः यक्षाविष्टे वा सति पुरुषे यक्षावेशे वा सति तच्छरीरलक्षणः पुद्गलः वातपरिगतो-देहगतवायुप्रेरितः वातपरिगते| कावा देहे सति बाह्यवातेन वोत्क्षिप्त इति । पुद्गलाधिकारादेव पुद्गलधर्मानिन्द्रियार्थानाश्रित्य यद्भवति तदाह-दसही दीप अनुक्रम [८९३] B53 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~377~ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७०९] दीप अनुक्रम [८९४] Education [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-], मूलं [ ७०९ ] स्थान [१०], त्यादि गतार्थे नवरं स्थानविभागोऽयम्-तत्र मनोज्ञान् शब्दादीन् मेऽपहृतवानित्येवं भावयतः क्रोधोत्पत्तिः स्यादित्येकं, एवं अमनोज्ञानुपहतवान्-उपनीतवान्, इह चैकवचनबहुवचनयोर्न विशेषः प्राकृतत्वादिति द्वितीयं एवं वर्त्तमाननिदेंशेनापि द्वयं भविष्यतापि द्वयमित्येवं षट्, तथा मनोज्ञानामपहारतः कालत्रयनिर्देशेन सप्तमः, एवममनोज्ञानामुपहारतोऽष्टमं, मनोज्ञामनोज्ञानामपहारोपहारतः कालत्रयनिर्देशेन नवमं, अहं चेत्यादि दशमं 'मिच्छति वैपरीत्यं विशेषेण प्रतिपन्नौ विप्रतिपन्नाविति । क्रोधोत्पत्तिः संयमिनां नास्तीति संयमसूत्रं, संयमविपक्षश्चासंयम इत्यसंयमसूत्रमसंयमविपक्षः संवर इति संवरसूत्रं संवर विपरीतोऽसंवर इत्यसंवरसूत्रं, सुगमानि चैतानि, नवरमुपकरणसंवरः- अप्रतिनियताकल्पनी यवखाद्यग्रहणरूपोऽथवा विप्रकीर्णस्य वस्त्राद्युपकरणस्य संवरणमुपकरणसंवरः, अयं चौधिकोपकरणापेक्षः तथा शूच्याः कुशाग्राणां च शरीरोपघातकत्वाद्यत्संवरणं-सङ्गोपनं स शूचीकुशाग्रसंवरः, एष तूपलक्षणत्वात्समस्तौपग्रहिकोप करणापेक्षो द्रष्टव्यः, इह चान्त्यपदद्वयेन द्रव्यसंवरायुक्ताविति । असंवरस्यैव विशेषमाह--" दसहि ठाणेहिं अहमंतीति भिज्जा, वं०-जातिमतेण वा कुलमएण वा जाव इस्सरियमतेण वा ८ णागसुवन्ना वा मे अंवितं हव्यमागच्छति ९ पुरिसधम्मातो वा मे उत्तरिते अहोधिते णाणदंसणे समुप्पन्ने १० (सू० ७१०) दसविधा समाधी पं० [सं० पाणातिवायवेरमणे मुसा० अदिन्ना० मेहुण० परिग्रहा० ईरितासमिती भासासमिती एसणासमिती आयाण ० उच्चारपासवणखेलसिंघाणगपारिहावणितासमिती, दसविधा असमाधी पं० सं० पाणातिवाते जाव परिग्गद्दे ईरिवाऽसमिती जान उपारपासवणखेलसिंघाणगपारिद्वावणियाऽसमिती (सू० ७११) दसविधा पव्वज्जा पं० [सं० छंदा १ Far Far & Pria Use Only पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~ 378~ stray.org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७१२] + गाथा प्रत सूत्रांक [७१२] मवैया श्रीस्थाना- रोसा ९ परिजुना विणा र पहिस्सुत्ता ५ व । सारणिता ६ रोगिणीला ७ अणादिता ८ देवसासी ॥१॥ १०स्थाना. सूत्र पच्छाणुबंधिता १० । दसविधे समणधम्मे पं०२०-खंती मुत्ती अजवे मरने लायवे सच्चे संजमे सवे चिताते चंभ- उद्देश ३ वृत्तिः परवाले क्सपिये वेगावचे पं००-आयरियवेयावचे १ बज्झायवेयावच्चे २ धेरवेयावये ३ तवस्सि०४ गिलाण.५ स्तम्भाः सेह० कुछ०७ गण. ८ संघवेयायचे ९ साहम्मियवेयावचे १० (सू० ७१२) । दसविवे जीवपरिणामे पं० समाधी॥४७३॥ सं०-गति परिणाये इंदितपरिणामे कसायपरिणामे लेसा० जोगपरिणामे उवओग० जाण दसण० चरित्त० वेतपरिणामे । तिरेप्रव्रज्यादसपिधे अजीवपरिणामे पं०, २०-बंधणपरिणामे गति. संठाणपरिणामे भेद० वण्ण. रस. गंध० फास. श्रमणधगुरुलहु० सरपरिणामे (सू० ७१३) | 'सही'त्यादि, स्पष्ट, नवरं 'अहमती'ति अहं अंता इति अन्तो-जात्यादिप्रकर्षपर्यन्तोऽस्यास्तीत्यन्तः अहमेव । त्यं जीवा AA जात्यादिभिरुत्तमत्या पर्यन्तवत्ती, अथवाऽनुस्वारपाकृततयेति अहं अति:-अति शयवानिति एवंविधोल्लेखेन 'भिजति || P जीवपरिस्तनीयात्-स्तब्धो भवेत् मायेदित्यर्थः, यावत्करणात् 'बलमएण रूवमएण सुबमएण तवमएण लाभमएणेति रश्य,12 णाम: पूतथा 'नागसुबळे ति नागकुमाराः सुपर्णकुमाराव या विकल्पार्थः मे-मम अन्तिक-समीपं 'हब्ब'शीप्रमागच्छन्तीति, सू०७१०* पुरुषाणां प्राकृतपुरुषाणां धर्मो-जानपर्यायलक्षणस्तस्माद्वा सकाशात् उत्तर-प्रधानः स एवौत्सरिकः 'अहोधिवाति नि-II कायतक्षेत्रविषयोऽवधिस्तष ज्ञानदर्शनं प्रतीतमिति । उक्तमदविलक्षणः समाधिरिति तत्सूत्रमेतद्विपक्षोऽसमाधिरिति शासना ॥४७३॥ समाधीतरबोसश्रायः मान्यति असून, अग्यावसथ मणामस्तशिशेषन यावृत्त्यमिति तत्सूत्रे जीवधमोचित अति || दीप अनुक्रम [८९९] AmEauratoninthiatioine पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~379~ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-1, मूलं [७१३] + गाथा प्रत सूत्रांक [७१३] जीवपरिणामसूत्रमेतद्विलक्षणवादजीवपरिणामसूत्र, सुगमानि चैतानि, नवरं 'समाहिति समाधान समाधि-समता सामान्यतो रागाचभाष इत्यर्थः स चोपाधिभेदाइशधेति । 'दागाहा, ''चि छन्दात् स्वकीयादभिप्रायविशेषाद्रो|विन्दवाचकस्वेव सुन्दरीनन्दस्येव वा, परकीयादा धातृवचभवदत्तस्येव या सा छंदा 'रोसा यति रोषात् शिवभूतेरिव या सा रोषा 'परिशुण्ण'शि परिघुना दारिद्रयात्काष्ठहारकस्येव था सा परिघूना 'सुविणे'ति स्वमात् पुष्प-12 पूलाया इव या स्वमे वा या प्रतिपचते सा स्वमा 'पडिसुया चेव'ति प्रतिश्रुतात्-प्रतिज्ञानाद् या सा प्रतिश्रुता| शालिभभगिनीपतिघन्यकस्पेय 'सारणिय'त्ति स्मारणाचा सा स्मारणिका मल्लिनाथस्मारितजम्मान्वराणां प्रतिबुख्यादिराजामामिव 'रोगिप्पिय'ति रोगः भालम्बनतथा विद्यते यस्यां सा रोयिणी सैव रोगिणिका सनत्कुमा रस्येव 'अणाढियत्ति अनाहताद्-अनादराया सा अनाहता नदिपेणस्येव अनाहतस्व वा-शिथिलस था सा तथा है 'देवसत्ति'त्ति देवसंज्ञ-देवप्रतिबोधनाद्या सा तथा मेतार्यादेरिवेति, 'वच्छाणुबंधा यचि गाथातिरिकं वत्स: पुत्रस्तदनुबन्धो यस्यामस्ति सा वत्सानुबन्धिका, वैरखामिमातुरिवेति, श्रमणधम्मो व्याख्यात एव, नवरं 'चियाए'त्ति त्यामो दानधर्म इति । व्यावृत्तो व्यापृतो चा व्यापारस्तत्कर्म वैवावृत्त्वं वैयावृत्त्वं वा भकपानादिभिरुपष्टम्भ इत्यर्थः, 'साहमिय'त्ति समानो धर्मः सधर्मस्तेन चरन्तीति साधम्मिकार-माधवः । 'परिणामे' त्यादि, परिपमनं परिणामस्तद्वारगमनमित्यर्थः, यदाह-"परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानं च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः॥१॥" द्रव्यार्थनयस्येति, "मसर्यवेण नाशः मादुर्भावोऽसता च पर्ययतः। द्रव्याणां । दीप अनुक्रम [९०० SamEaucatunar पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~380~ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७१३] + गाथा प्रत सूत्रांक [७१३] श्रीस्थाना- परिणामः प्रोक्तः खलु पर्ययनयस्य ॥१॥" इति, जीवस्य परिणामः २ इति विग्रहः, स च प्रायोगिका, तत्र|5१० स्थाना. गतिरेव परिणामो गतिपरिणामः, एवं सर्वत्र, गतिश्चेह गतिनामकर्मोदयानारकादिव्यपदेशहेतुः तपरिणामश्चाऽs- उद्देशः३ वृत्तिः भवक्षयादिति, स च नरकगत्यादिश्चतुर्विधः, गतिपरिणामे च सत्येवेन्द्रियपरिणामो भवतीति तमाह-इंदियपरि- स्तम्भाः णामेति स च श्रोत्रादिभेदात् पञ्चधेति, इन्द्रियपरिणती चेष्टानिष्टविषयसम्बन्धाद्रागद्वेषपरिणतिरिति तदनन्तरं क-| समाधीत॥४७४॥ पायपरिणाम उक्तः, सच क्रोधादिभेदाच्चतुर्विधः, कषायपरिणामे च सति लेश्यापरिणतिर्नतु लेश्यापरिणती कषाय-| रेप्रव्रज्यापरिणतिः, येन क्षीणकषायस्यापि शुक्ललेश्यापरिणतिर्देशोनपूर्वकोटिं यावद् भवति, यत उक्तम्-"मुहुत्तद्धं तु जहन्ना उ-| श्रमणधकोसा होइ पुब्बकोडीओ । नवहिं वरिसेहिं ऊणा नायब्वा सुक्कलेस्साए ॥१॥" इति [शुक्लेश्याया जघन्या स्थिति-Bामवैयावृमुहूर्त्ता नववर्षोंना पूर्वकोटी उत्कृष्टा ज्ञातव्या भवति ॥१॥] अतो लेश्यापरिणाम उक्का, स च कृष्णादिभेदात्त्य जीवापोटेति, अयं च योगपरिणामे सति भवति, यस्मान्निरुद्धयोगस्य लेश्यापरिणामोऽपैति, यतः-समुच्छिन्नक्रियं ध्यान- जीवपरि मलेश्यस्य भवतीतिलेश्यापरिणामानन्तरं योगपरिणाम उक्तः, स च मनोवाकायभेदानिधेति, संसारिणां च योगप-| णाम: &ारिणताबुपयोगपरिणतिर्भवतीति तदनन्तरमुपयोगपरिणाम उक्तः, सच साकारानाकारभेदाद् द्विधा, सति चोपयोग- सू०७१०परिणामे ज्ञानपरिणामोऽतस्तदनन्तरमसाचुक्ता, स-चाभिनिवोधिकादिभेदात् पञ्चधा, तथा मिथ्यादृष्टेोनमप्यज्ञान ७१३ |मित्यज्ञानपरिणामो मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानलक्षणत्रिविधोऽपि विशेषग्रहणसाधात् ज्ञानपरिणामग्रहणेन गृ-18॥४७४ ॥ लहीतो द्रष्टव्य इति, ज्ञानाज्ञानपरिणामे च सति सम्यक्त्वादिपरिणतिरिति ततो दर्शनपरिणाम उक्का, स च त्रिधा-स *5645+5353 दीप अनुक्रम [९०० Eco पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~381~ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७१३] + गाथा 4% E प्रत सूत्रांक [७१३] 5%E5%E4%E5%A5%ES - म्यक्त्वमिथ्यात्वमिश्रभेदात्, सम्यक्त्वे सति चारित्रमिति ततस्तपरिणाम उक्तः, सच सामायिकादिभेदात् पश्चति, ख्यादिवेदपरिणामे चारित्रपरिणामो न तु चारित्रपरिणामे वेदपरिणतिर्यस्मादवेदकस्यापि यथाख्यातचारित्रपरिणतिर्दष्टेति चारित्रपरिणामानन्तरं घेदपरिणाम उक्तः, स च ख्यादिभेदात् त्रिविध इति । 'अजीवे'त्यादि, अजीवानां-पुद्गलानां परिणामोऽजीवपरिणामः, तत्र बन्धन-पुद्गलानां परस्परं सम्बन्धः संश्लेष इत्यर्थः स एव परिणामो बन्धनपरिणामः, एवं सर्वत्र, बन्धनपरिणामलक्षणं चैतत्-"समनिद्धयाए बंधो न होइ समलुक्खयायवि न होई । वेमायनिखलुक्खत्तणेण बंधो उ खंधाणं ॥१॥"[समस्निग्धतया बंधो न भवति समरूक्षतयापि न भवति विमात्र स्निग्धरूक्षत्वेन स्कन्धानां वन्धः ॥ १॥] एतदुकं भवति-समगुणस्निग्धस्य समगुणस्निग्धेन परमाण्वाविना बन्धो न भवति, समगुणरूक्षस्थापि समगुणरूक्षेणेति, यदा विषमा मात्रा तदा भवति बन्धो, विषममात्रानिरूपणार्थमुच्यते "निद्धस्स निद्रेण दुयाहिएणं, लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं । निद्धस्स लुक्खेण उवेइ बंधो, जहन्नवजो विसमो समो वा ॥१॥” इति [स्निग्धस्य द्विकाधिकेन निग्धेन रूक्षस्य द्विकाधिकेन रूक्षेण रूक्षेण स्निग्धस्य बन्ध उपपद्यते विषमः समो वा जघन्यवयः ॥१॥] गतिपरिणामो द्विविधः-स्पृशद्गतिपरिणाम इतरश्च, तत्राद्यो येन प्रयत्नविशेषात् क्षेत्रप्रदेशान् स्पृशन् गच्छति, द्वितीयस्तु येनास्पृशन्नेव तान् गच्छति, न चार्य न सम्भाव्यते, गतिमद्रव्याणां प्रयतभेदोपलब्धेः, तथाहि-अभ्रकपहचूतलगतविमुक्ताश्मपातकालभेद उपलभ्यते अनवरतगतिप्रवृत्तानां च देशान्तरप्राप्तिकालभेदश्चेत्यतः सम्भाव्यतेऽस्पृशगतिपरिणाम इति, अथवा दीर्घहस्वभेदात् द्विविधोऽयमिति, संस्थानपरिणामः परिमण्डलवृत्तव्यत्रचतुरस्रायतभेदात् पञ्चविधा, RCRACCURACCX दीप अनुक्रम [९०० Et पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~382~ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७१३] + गाथा SA% प्रत सूत्रांक [७१३] श्रीस्थाना-प्रभेदपरिणाम पक्षधा, तब खण्डभेदः विनमृत्पिण्डस्येव १ प्रतरभेदोऽनपटलोष २ अनुवटभेदो खस्ने ३ पूर्णभेद १० स्थाना. सूत्र- चूर्णनं ४ उत्करिकाभेदः समुत्कीर्वमाणमस्तकस्येवेति, वर्णपरिणामः पक्षघा गन्धपरिणामो द्विधा रसपरिणामः पबचा उद्देशः वृत्तिः । सपरिणामोऽष्टधा, न गुरुकमधोगमनस्वभावं न लघुकमूर्ध्वगमनस्वभाव बद्रव्यं बदगुरुकलघुकं भयम्ससूनम पाच-1 अस्वा मनकर्मद्रव्यादि तदेव परिणामः परिणामततोरभेदात् अगुरुलघुकपरिणामः पतम्रहणेवैतद्विपक्षोऽपि गृहीतो प्रयाध्यायिक ॥४७५॥ तव गुरुकं च विवक्षया लघुकं च विवक्षयैव यत् द्रव्यं तद्गुरुकलघुकं मौदारिकादि स्थूलतरमित्यर्थः, इदमुरुखलं दिसू०७१४ |विध वस्तु निश्चयनवमतेन व्यवहारतस्तु चतुर्दा, तब गुरुक-अधोगमनस्वमा वजादि लघुकं-अयंगमवावं| भूमादि गुरुकलघुकं-तिर्यग्गामि वायुज्योतिम्कविमानादि अगुरुलघुक-आकाशादीति, आह भाष्यकारा--"विच्छपयो सम्वगुरू सवलहुं या न बिबई दन्न । वायरसिह गुरुङहुयं अगुरुगहु सेस दम्बं ॥१॥ गुरुय लहु अभय योभयमिति वावहारिवनयल्सा । दब ले १ दीवो २ वाऊ वोमं । जहासंसं ॥२॥” इति [निश्चयतः सवेगुरु सचेषु वा 8 द्रव्यं न विद्यते बादरं शह गुरुलघुकं शेष द्रव्यमगुरुलघुकं ॥१॥ गुरु लघु उभयं अनुभवं च द्रव्य व्यवहारनवोति - दीपः २ वायुः ३व्योम ४ यथासंख्यं ॥२॥] शब्दपरिणामः शुभाशुभमेदाद द्विषेति । बजीवपरिणामाधिकारात्| PI पुगठनक्षणाजीवपरिणाममन्तरिक्षलक्षणाजीवपरिणामोपाधिकमवाध्यायिकव्यपदेश्यं 'दविहे' स्यादिना सूत्रेणा बसविषे अवळिविकाते असन्माइए पं० २० वसावाते दिनिदाघे गजिते विजुवे निग्नावे बूबने जक्यालिचे भूमिका T ४७५॥ महिला स्वया । बसविहे बोधळिते भसदाखिये पं००-प्रति मंसं सोणिते भमुतिमामंते मुखाणमामी चंदो दीप अनुक्रम [९०० Ecom पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~383~ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७१४] प्रत सूत्रांक [७१४] बराते सूरोवराए पडणे रायबुग्गहे चसयरस अंतो ओरालिए सरीरगे (सू०७१४) पंचिंबियाणं जीवाणं असमारभमाणस्स दसविधे संजमे कजति, तं०-सोयामताओ सुक्खाओ अववरोवेत्ता भवति सोतामतेण दुक्खेणं असंजोगेचा भवति एवं जाव फासामतेणं दुक्खेणं असंजोएत्ता भवति, एवं असंयमोवि भाणिवब्बो (सू०७१५) तत्र 'अंतलिक्खए'चि अन्तरिक्ष-आकाशं तत्र भवमान्तरीक्षक स्वाध्यायो-वाचनादिः पञ्चविधो यथासम्भव | यस्मिन्नस्ति तत्स्वाध्यायिकं तदभावोऽस्वाध्यायिकं तत्रोल्का-आकाशजा तस्याः पातः उस्कापातः, तथा दिशो दिशि वा|| दाहो दिगाहा, इदमुक्तं भवति-एकतरदिग्विभागे महानगरप्रदीपनकमिव य उद्योतो भूमावप्रतिष्ठितो गगनतलवत्ती स दिशाह इति, गर्जित-जीमूतध्वनिः, विद्युत्-तडित् निर्घात:-साने निरत्रे वा गगने व्यन्तरकृतो महागर्जितध्वनिः, 'जूयए'त्ति सन्ध्याप्रभा चन्द्रप्रभा च यद्युगपद् भवतस्तत् जुयगोत्ति भणित, सन्ध्याप्रभाचन्द्रप्रभयोर्मिनत्वमिति भावः, तत्र चन्द्रप्रभाऽऽवृता सन्ध्या अपगच्छन्ती न ज्ञायते शुक्लपक्षप्रतिपदादिषु दिनेषु, सन्ध्याच्छेदे वाऽज्ञायमाने कालबेला न जानन्त्यतस्त्रीणि दिनानि प्रादोषिकं कालं न गृह्णन्ति ततः कालिकस्यास्वाध्यायः स्यादिति, उल्कादीनां चेदं स्वरूपं-"दिसिदाहो छिन्नमूलो उकसरेहा पयासजुत्ता वा । संझाछेयावरणो जुयओ सुक्के दिणे तिन्नि ॥१॥"[छिसमूलो विवाहः सरेखा प्रकाशयुक्ता वा उल्का संध्याछेदावरणस्तु यूपक एव शुक्ले त्रीणि दिनानि ॥१॥] 'जक्खालि 'ति यक्षादीप्यमाकाशे भवति, एतेषु स्वाध्यायं कुर्वतां क्षुद्रदेवता छलनां करोति, धूमिका-महिकाभेदो वर्णतो -5 मिका धूमाकारा धूवेत्यर्थः, महिका प्रतीता, एतच द्वयमपि कार्तिकादिषु गर्भमासेषु भवति, तच्च पतनानन्तरमेव दीप अनुक्रम [९०१] Et पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~384~ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७१५] REA 4 प्रत सूत्रांक [७१५] श्रीस्थाना- सूक्ष्मत्वात्सर्वमकायभावितं करोतीति, 'रयउग्धाए'त्ति विश्वसापरिणामतः समन्ताद्रेणुपतनं रजउद्घातो भण्यते ।।१०स्थाना. सूत्र- अस्वाध्यायाधिकारादेवेदमाह-'वसविहे ओरालिए' इत्यादि, औदारिकस्य-मनुष्यतिर्यक्शरीरस्येदमौदारिकमस्वाध्या-|| उद्देश वृत्तिः यिक, तत्रास्थिमांसशोणितानि प्रतीतानि, तत्र पञ्चेन्द्रियतिरश्चामस्वाध्यायिक द्रव्यतोऽस्थिमांसशोणितानि ग्रन्थान्तरे | अस्वा काचौप्यधीयते, यदाह-"सोणिय मंसं चम्मं अट्ठीवि य होति चत्तारि" इति, शोणितं मासं चर्मास्थि भवन्त्यपि च-साध्यायिक ॥४७६॥ लावारि ॥] क्षेत्रतः पष्टिहस्ताभ्यन्तरे, कालतः सम्भवकालाद्यावत्तृतीया पौरुषी मार्जारादिभिमूपिकादिव्यापादनेऽहोरात्रं सू०७१५ चेति, भावतः सूत्र नन्दादिकं नाध्येतव्यमिति, मनुष्यसम्बन्ध्यप्येवमेव, नवरं क्षेत्रतो हस्तशतमध्ये कालतोऽहोरात्रं Fol यावत् आर्त्तवं दिनत्रयं खीजन्मनि दिनाष्टकं पुरुषजन्मनि दिनसप्तकं अस्थीनि तु जीवविमोक्षदिनादारभ्य हस्तशताट्राभ्यन्तरस्थितानि द्वादश वर्षाणि यावदस्वाध्यायिकं भवति, चिताग्निना दग्धान्युदकवाहेन वा व्यूढान्यस्वाध्यायिक न भवति, भूमिनिखातान्यस्वाध्यायिकमिति, तथा अशुचीनि-अमेध्यानि मूत्रपुरीषाणि तेषां सामन्तं-समीपमशुचिसामन्तमस्वाध्यायिक भवति, उक्तं च कालग्रहणमाश्रित्य-"सोणियमुत्तपुरीसे घाणालोयं परिहरेज्जा" इति [शोणितमूत्रपुरीषेषु घाणालोको परिहरेत् ] श्मशानसामन्त-शवस्थानसमीप, चन्द्रस्य-चन्द्रविमानस्योपरागो-राहुविमानतेजसोपरञ्जनं चन्द्रोपरागो ग्रहणमित्यर्थः, एवं सूरोपरागोऽपि, इह चेदं कालमान-यदि चन्द्रः सूर्यो वा प्रहणे सति सग्रहोऽन्यथा वा ॥४७६॥ निमज्जति तदा ग्रहणकालं तद्राविशेष तदहोरात्रशेषं च ततः परमहोरात्रं च वर्जयन्ति, आह च-"चंदिमसूरुवरागे निग्याए |गुंजिए अहोरत्तं" इति चिन्द्रसूर्योपरागे निर्घाते गुंजितेऽहोरात्र] आचरितं तु यदि तत्रैव रात्री दिने वा मुक्तस्तदा चन्द्रग्रहणे दीप अनुक्रम [९०२] 15 El पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~385~ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७१५] 29-96-9- प्रत सूत्रांक [७१५] तस्या एव रात्रेः शेष परिहरन्ति, सूर्यग्रहणे तु तद्दिनशेष परिहत्यानन्तरं रात्रिमपि परिहरन्तीति, आह च-"आइन्नं दिणमके सोच्चिय दिवसो व राई य ।" इति [आचीर्ण दिनमुक्ते स एव दिवसः रात्रि ॥ चन्द्रसूर्योपरागयोश्चौदारिकत्वं सातदिमानप्रथिवीकायिकापेक्षयाऽवसेयमान्तरीक्षकत्वं तु सदपि न विवक्षितं, आन्तरीक्षवेनोकेभ्य आकस्मिकेभ्य उल्का-18 दिभ्यश्चन्द्रादिविमानानां शाश्वतत्वेन विलक्षणत्वादिति, 'पडणे'त्ति पतन-मरणं राजामात्यसेनापतिप्रामभोगिकादीनां, मातन्त्र यदा दण्डिका कालगतो भवति राजा वाऽन्यो यावन्न भवति तदा सभये निर्भये वा स्वाध्यायं वर्जयतीति निर्भय-12 श्रवणानन्तरमप्यहोरात्र वर्जयन्तीति ग्राममहत्तरेऽधिकारनियुक्त बहुस्वजने वा शय्यातरे वा पुरुषान्तरे वा सप्तगृहाभ्यन्तरमृतेऽहोरात्रं स्वाध्यायं वर्जयन्ति शनैर्वा पठन्ति, निर्दुःखा एत इति गहीं लोको मा कादिति, आह च-"मय- हर पगए बहुपक्खिए य सत्तघर अंतर मयंमि । निहुक्खत्ति य गरहा न पढंति सणीयगं वावि ॥१॥" इति [महत्तरे प्रगते बहुपाक्षिके च (शय्यातरे वा) सप्तगृहाभ्यन्तरे मृते निर्दुःखा इति गहेति न पठन्ति शनैवों ॥ १ ॥] तथा ४ 'राघवुग्गहे'त्ति राज्ञां सङ्ग्राम उपलक्षणत्वात्सेनापतिग्रामभोगिकमहत्तरपुरुषस्त्रीमलयुद्धान्यस्वाध्यायिक, एवं पांशुपि टादिभण्डनान्यपि, यत एते प्रायो व्यन्तरबहुलास्तेषु प्रमत्तं देवता छलयेन्निर्दुःखा एत इत्युडाहो वाऽप्रीतिकं वा भवे-12 |दित्यतो यद्विग्रहादिकं यचिरकालं यस्मिन् क्षेत्रे भवति तत्र विग्रहादिके तावत्कालं तत्र क्षेत्रे स्वाध्यायं परिहरन्तीति, उक्तं च "सेणाहिव भोइय मयहरे य सिथिमल्लयुद्धे य । लोहाइभंडणे वा गुज्झग उड्डाह अचियत्तं ॥१॥ इति,K [ सेनाधिपभोजिकमहत्तराणां पुस्त्रियोर्मलानां युद्धे च पांशुपिष्टादिभंडने वा गुह्यका उड्डाहो ऽप्रीतिश्च ॥१॥] तथो 9-964-96496-9929 दीप अनुक्रम [९०२] Edito! पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~386~ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७१५] दीप अनुक्रम [९०२] श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः ॥ ४७७ ॥ Educat [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-], मूलं [७१५] स्थान [१०], पाश्रयस्य- वसतेरन्तः - मध्ये वर्त्तमानमदारिकं मनुष्यादिसत्कं शरीरकं यद्युद्भिन्नं भवति तदा हस्तशताभ्यन्तरेऽस्वाध्यायिकं भवति, अधानुद्भिन्नं तथापि कुत्सितत्वादाचरितत्वाच्च हस्तशतं वर्ज्यते, परिष्ठापिते तु तत्र तत्स्थानं शुद्धं भवतीति । पञ्चेन्द्रियशरीरमस्वाध्यायिकमित्यनन्तरमुक्तमिति पञ्चेन्द्रियाधिकारात्तदाश्रितसंयमासंयम सूत्रे गतार्थे । संबमासंयमाधिकारात् तद्विषयभूतानि सूक्ष्माणि प्ररूपयन्नाह - दस सुदुमा पं० तं०—पाणसुडुमे पणगमुहुये जाव सिणेहसुदुमे गणियसुहुमे अंगसुदुमे ( सू० ७१६ ) जंबूमंदिरखाहि गंगासिंधुमहानदीओ दस महानतीओ समप्पेति, तं० जणा १ सरऊ २ आवी ३ कोसी ४ मही ५ सिंधू ६ विच्छा ७ विभासा ८ एरावती ९ चंद्रभागा १० | जंबूमंदरउत्तरेणं रत्तारत्तवतीओ महानंदीओ दस महानदीओ समपेंति, तं० किण्हा महाकिण्हा नीला महानीला तीरा महातीरा इंदा जाव महाभोगा ( सू० ७१७) जंबुद्दीवे २ भरद्दबासे दस रायहाणीओ पं० [सं० - चंपा १ महरा २ वाणारसी ३ य सावत्थी ४ तहत सातैतं ५ । इत्थिणउर ६ कंपिल्लं ७ महिला ८ कोसंवि ९ रायगि १० ॥ १ ॥ एवासु णं दसरायहाणीसु दस रायाणो मुंडा भवेत्ता जाव पब्बविता, सं०-भरहे सगरो मघवं सणकुमारो संती कुंथू अरे महापउमे हरिसेणो जयणामे (सू० ७१८) जंबुद्दीवे २ मंदरे पब्ब दस जोयणसयाई उब्वेहेणं धरणितले दस जोयणसहस्साहं विक्खंभेणं उबरिं दसजोयणसयाई विक्खंभेणं दसदसाइं जोयणसहस्साइं सब्बग्गेणं पं० ( सू० ७१९ ) जंबुद्दीबे २ मंदरस्स पब्बयस्स बहुमज्झदेसभागे इमीसे रयणप्पभाते पुढवीते उबरिमट्टितेसु सुगपतरेसु, एत्थ जमट्ठपतेंसिते रुयगे पं० जओ णमिमातो इस दिसाओ पवईति, Für Frau Use On १० स्थाना. उद्देशः ३ सूक्ष्माणि नद्यः रा जधान्यः मेरुः रुचकादिः सू० ७१६७२० ~ 387 ~ ॥ ४७७ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-1, मूलं [७२०] + गाथा MANCCCCCC प्रत सूत्रांक [७२० सं०-पुरच्छिमा १ पुरच्छिमदाहिणा २ दाहिणा ३ दाहिणपचत्थिमा ४ पचत्थिमा ५ पञ्चस्थिमुत्तरा ६ उत्तरा ७ उत्तरपुरछिमा ८ उका ९ अहो १०, एएसि णं दसहं दिसाणं दस नामधिजा पं० २०-ईदा अग्गीइ जमा हेरती वारुणी य वायया । सोमा ईसाणाविय विमला च तमा व बोद्धन्वा ॥१॥ लवणस्स णं समुदस्स दस जोषणसहस्साई गोतित्यविरहिते होते पं०, लवणस्स णे समुहस्स दस जोयणसहस्साई उदगमाले पन्नत्ते, सब्वेवि णे महापाताला दसदसाई जोयणसहस्साइमुन्हेणं पण्णता, मूले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं पन्नचा, बहुमझदेसभागे एगपएसिताते सेडीए दसहसाई जोयणसहस्साई विक्संमेणं पन्नत्ता, उवरि मुहमूले दस जोयणसहस्साई विक्वंभेणं पण्णता, तेसि णं महापातालाणं कुछा सम्ववइरामया सम्पत्यसमा दस जोयणसयाई बाहलेणं पन्नचा, सब्वेवि ब खुद्दा पाताला दस जोयणसताई उम्मेहेणं पं०, मूले वसदसाई जोवणाई विखंभेणं, बहुमज्झदेसभागे एगपएसिताते सेढीते दस जोयणसताई विक्संमेण पं०, खबरि मुहमूले वसदमाई जोषणाई विसंभेणं पं०, तेसि णं खुडापातालाणं कुडा सम्ववइरामता सम्यरथ समा दस जोयणाई वाहतेणं पण्णता (सू० ७२०) धायतिसंङगा गं मंदरा इसजोयणसयाई छब्बेहेणं धरणितले देसूणाई दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं उवरिं दस जोवणसयाई विक्खंभेणं प० । पुक्खरवरदीवद्धगा गं मैदरा यस जोयण एवं थेष (सू०७२१) सम्वेचि णं वट्टवेयद्धपब्बता दस जोयणसयाई उद्धं उच्चचेणं दस गाउयसयाइमुन्वेहेणं सव्वस्थसमा पागसंठाणसंठिता, दस जोयणसयाई विक्खंभेणं पं० (सू० ७२२) अंबुरी २ दस खेता पं० २०-भरहे एरवते हेमवते हेरनवते हरिवरसे रम्मगवस्से पुब्वविदेहे अवरविदेहे देवकुरा उत्तरकुरा (सू०७२३) माणुसुत्तरे णं पश्यते मूले दीप अनुक्रम [९११] CCCC AmEautatus पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~388~ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७२४] दीप अनुक्रम [९१५] श्रीस्थानाङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ४७८ ॥ [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७२४] स्थान [१०], उद्देशक [-], ucation intamations दस बावीसे जोयणसते विक्खंभेणं पं० (सू० ७२४) सब्वेवि णमंजणगपव्वता दस जोयणसयाइमुब्वेहेणं मूले दस जोयणसहस्साई विक्संभेणं उवरिं दस जोयणसत्ताई चिक्खंभेणं पन०, सब्वेवि णं दहि मुहपव्वता दस जोयण सताई उव्येणं सव्वत्यसमा पलासंठाणसंठिता दस जोयणसहस्साई विक्संभेणं पं०, सब्वेवि णं रतिकरगपव्वता दस जोवसवाई उद्धं उच्चतेणं दसगाउयसत्ताएं उब्वेहेणं सव्वत्थसमा झरिसंठिता दस जोयणसहस्लाई विक्संभेणं पं० (सू० ७२५) रुयगवरे णं पव्वते दस जोयणसवाई उब्बेद्देणं मूले दस जोयणसहस्साई विक्संभेणं उबरिं दस जोयणसताई विक्खमेणं पं० । एवं कुंडलवरेवि ( सू० ७२६ ) 'दस सुमेत्यादि, प्राणसूक्ष्मं - अनुद्धरितकुन्थुः पनकसूक्ष्मं उल्ली यावत्करणादिदं द्रष्टव्यं, बीजसूक्ष्मं त्रीह्यादीनां नखिका हरितसूक्ष्मं भूमिसमवर्ण तृणं पुष्पसूक्ष्म-वटादिपुष्पाणि अण्डसूक्ष्मं - कीटिकाद्यण्डकानि लयनसूक्ष्मं कीटि| कानगरादि स्नेहसूक्ष्मं अवश्या यादीत्यष्टम स्थानकभणितमेव इदमपरं गणितसूक्ष्मं - गणितं सङ्कलनादि तदेव सूक्ष्मं सूक्ष्म- ४तिकरा रुबुद्धिगम्यत्वात् श्रूयते च वज्रांतं गणितमिति, 'भङ्गसूक्ष्मं' भङ्गा-भङ्गका वस्तुविकल्पास्ते च द्विधा स्थानभङ्गकाः क्रमभ झकाच, तत्राद्या यथा द्रव्यतो नामैका हिंसा न भावतः १ अन्या भावतो न द्रव्यतः २ अन्या भावतो द्रव्यतश्च ३ अन्या न भावतो नापि द्रव्यतः ४ इति, इतरे तु द्रव्यतो हिंसा भावतश्च १ द्रव्यतोऽन्या न भावतः २ न द्रव्यतोऽन्या ४ भावतः ३ अन्या न द्रव्यतो न भावतः ४ इति तलक्षणं सूक्ष्मं भङ्गसूक्ष्मं, सूक्ष्मता चास्य भजनीयपदबहुले गहनभावेन सूक्ष्मबुद्धिगम्यत्वादिति । पूर्वं गणितसूक्ष्ममुक्तमिति तद्विषयविशेषभूतं प्रकृताध्ययनावतारितया जंबुद्दीवेत्यादि Für For Pr १० स्थाना. उद्देशः ३ धातकीमेरुः वृत्तवैताढ्यः क्षेत्राणि मानुषोत्तरः अञ्जनद धिमुखर ~389~ चककुण्डलौ सू० ७२१७२६ ॥ ४७८ ॥ www.g पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... आगमसूत्र - [ ०३] अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७२६] दीप अनुक्रम [९१७] in Educati [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-], मूलं [७२६] स्थान [१०], गङ्गासूत्रादिकं कुण्डलसूत्रावसानं क्षेत्रप्रकरणमाह, कण्ठ्यश्वेदम्, नवरं गङ्गां समुपयान्ति दशानामाद्याः पञ्च इतराः सिन्धुमिति, एवं रक्तासूत्रमपि नवरं यावत्करणात् 'इंदसेणा वारिसेण'ति द्रष्टव्यमिति । 'रायहाणीओ'त्ति राजा धीयते विधीयते अभिषिच्यते यासु ता राजधान्यः- जनपदानां मध्ये प्रधाननगर्यः, 'चंपा' गाहा, चम्पानगरी अङ्गजनपदेषु मथुरा सूरसेन देशे वाराणसी काश्यां श्रावस्ती कुणालायां साकेतमयोध्येत्यर्थः कोशलेषु जनपदेषु, 'हत्थिणपुरं ति नागपुरं कुरुजनपदे काम्पिल्यं पाञ्चालेषु मिथिला विदेहे कोशाम्बी वत्सेषु राजगृहं मगधेष्विति, एतासु किल साधवः उत्सर्गतो न प्रविशन्ति तरुणरमणीयपण्यरमण्यादिदर्शनेन मनःक्षोभादिसम्भवात् मासस्यान्तर्द्विखिर्वा प्रविशतां त्वाज्ञादयो दोषा इति एताश्च दशस्थानकानुसारेणाभिहिता न तु दशैवैताः अर्द्धपडिशतावार्थजनपदेषु पşिशतेर्नगरीणामुक्तत्वादिति, अयं च न्यायोऽन्यत्र ग्रन्थे तेषु तेषु प्रायश्चित्तादिविचारेषु प्रसिद्ध एवेति व्याख्यातं च दशराजधानीग्रहणे शेषाणामपि ग्रहणं निशीथ भाष्ये, यदाह - "दसरायहाणिगहणा सेसाणं सूयणा कया होह । मासस्संतो दुगतिग ताओं अइंतंमि आणाई ॥ १ ॥ दोषाश्चेह - "तरुणावेसित्थिविवाह रायमाईसु होइ सइकरणं । आउजगीयसद्दे इत्थी - सद्दे य सवियारे ॥ २ ॥” इति । [ दशराजधानीग्रहणाच्छेषाणां सूचना कृता भवति मासान्तर्द्विः त्रिः ताः प्रविशत आज्ञादि ॥ १ ॥ तरुणा वेश्यास्त्री विवाहरागा (राजा) दिषु भवति स्मृतिकरणं आतोद्यगीतशब्दे खीशब्दे च सविकारे ॥ १ ॥ ] 'एताखिति अनन्तरोदितासु दशस्वार्थ नगरीषु मध्ये अन्यतरासु कासुचिदश राजानः चक्रवर्त्तिनः प्रत्रजिता |इत्येवं दशस्थानकेऽवतारस्तेषां कृतः, द्वौ च सुभूमब्रह्मदत्ताभिधानी न प्रत्रजितौ नरकं च गताविति, तत्र भरतसगरी Far Far & Private On पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३] अंग सूत्र [०३] ~390~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७२६] प्रत सूत्रांक [७२६] श्रीस्थाना- प्रथमद्वितीयौ चक्रवतिराजौ साकेते नगरे विनीताऽयोध्यापर्याये जातौ प्रश्नजितौ च, मघवान् श्रावस्त्यां, सनत्कुमारा- १०स्थाना. सत्र-18 दयश्चत्वारो हस्तिनागपुरे महापद्मो वाणारस्यां हरिषेणः काम्पिल्ये जयनामा राजगृहे इति, न चैतासु नगरीषु क्रमेणैते ४ | उद्देशः३ वृत्तिः राजानो ब्याख्येयाः ग्रन्थविरोधात् , उक्तं च-"जमण विणीय उज्झा सावत्थी पंच हरिधणपुरंमि । वाणारसि कंपिल्ले है। सूक्ष्मादिः रायगिहे चेव कंपिल्ला ॥१॥" इति, [जन्म विनीताऽयोध्या श्रावस्तीषु पंच हस्तिनापुरे वाराणस्यां कोपिल्ये राजगृहे सू०७२१॥४७९ चैव कोपिल्ये ॥१॥] अप्रव्रजितचक्रवर्तिनी तु हस्तिनागपुरकाम्पिल्ययोरुत्पन्नाविति, ये च यत्रोपन्नास्ते तत्रैव प्रन-5 ७२६ जिता इति, इदमावश्यकाभिप्रायेण व्याख्यातं, निशीथभाष्याभिप्रायेण तु दशस्वेतासु नगरीषु द्वादश चक्रिणो| जाताः, तत्र नवस्वेकैका एकस्यां तु त्रय इति, आह च-"चंपा महुरा वाणारसी य सावस्थिमेव साकेयं । हथिण-10 पुरकपिल मिहिलाकोसविरायगिह ॥१॥संती कुंथू य अरो तिन्निवि जिणचक्ति एकहिं जाया। तेण दस होति जत्थ व केसव जाया जणाइन ॥३॥" ति, [चंपा मथुरा बाणारसी च श्रावस्ती एव साकेत हस्तिनापुरं कांपिन्य मिथिला कोशांबी राजगृहं ॥१॥ शान्तिः कुन्धुश्चारखयो जिनचक्रिणः एकत्र जाताः तेन दश भवति यत्र वा केशवा जाता जनाकीर्णाः॥२॥ मन्दरो-मेरु, 'उवहेणन्ति भूमावरगाहतः, 'विष्कम्भेण' पृथुत्वेन 'उपरि'पण्डकवनप्रदेशे दशशतानि सहस्रमित्यर्थः, दशदशकामि शतमित्यर्थः, केषां -योजनसहस्राणां, लक्षमित्यर्थः, ईदृशी च भणितिर्दशस्थानकानुरोधात् , 'सर्वाग्रेण' सर्वपरिमाणत इति 'उवरिमहेडिल्लेसु'त्ति उपरितनाधस्तनयोः क्षुल्लकातरयो, सर्वेषां ॥४७९॥ मध्ये तयोरेव लघुत्वात् , तयोरध उपरिच प्रदेशान्तरवृद्ध्या वर्द्धमानतरत्वालोकस्येति, 'अट्ठपएसिए'त्ति अष्टी म-18 +5954545645 KALARSA दीप अनुक्रम [९१७] k पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~391~ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७२६] प्रत सूत्रांक [७२६] देशा यस्मिन्नित्यष्टप्रदेशिका, स्वार्थिकप्रत्ययविधानादिति, तत्र चोपरितने प्रतरे चत्वारः प्रदेशा गोस्वनवदितरत्रापि दिाचत्वारस्तथैवेति, 'इमाउत्ति वक्ष्यमाणाः 'दसति चतस्रो द्विप्रदेशादयो बत्तराः शकटोद्धिसंस्थाना महादिशश्चत एव एकप्रदेशादयोऽनुत्तरा मुक्तावलीकल्पा विदिशा, तथा द्वे चतुष्पदेशादिके अनुत्तरे ऊर्ध्वाधोदिशाविति, 'पबहतिचि प्रवहति प्रभवन्तीत्यर्थः, 'इंदागाहा, इन्द्रो देवता यस्याः सा ऐन्द्री एवमानेयी याम्येत्यादि, विमला वितिमि-| रत्वादूचंदिशो नामधेयं, तमा अन्धकारयुक्तत्वेन रात्रितुल्यत्वादधोदिशश्चेति । 'लवणस्से'त्यादि, गर्वा तीर्थ-तबागादा-14 * ववतारमार्गो गोतीर्थ, ततो गोतीर्थमिव गोतीर्थ-अवतारवती भूमिः, तद्विरहितं सममित्यर्थः, एतच्च पञ्चनवतियोज नसहस्राण्याग्भागतः परभागतच गोतीर्थरूपां भूमि विहाय मध्ये भवतीति, 'उदकमाला' उदकशिखा वेलेत्यर्थः | दशयोजनसहस्राणि विष्कम्भतः उच्चैस्त्वेन पोडशसहस्राणीति, समुद्रमध्यभागादेवोत्थितेति, 'सव्वेची'त्यादि, सर्वेऽ-18 पीति पूर्वादिदिक्षु तदाबाच्चत्वारोऽपि 'महापाताला पातालकलशाः वलयामुखकेऊरजूयकईश्वरनामानश्चतु:स्थान काभिहिताः, क्षुलकपातालकलशव्यवच्छेदार्थ महाग्रहणं, दशदशकानि शतं योजनसहस्राणां लक्षमित्यर्थः, 'खद्वेधेन' टू गाघेनेत्यर्थः 'मूले बुने दशसहस्राणि मध्ये लक्षं, कथं, मूलविष्कम्भावुभयत एकैकप्रदेशवृख्या विस्तर गच्छता वा एकप्रदेशिका श्रेणी भवति तया, अनेन प्रदेशवृद्धिरुपदर्शिता, अथवा एकप्रदेशिकायाः श्रेण्या अत्यन्तमध्ये, ततोऽN उपरि च प्रदेशोनं लक्षमित्यर्थः, तथा उपरि, किमुक्तं भवति?-अत आह-'मुखमूले मुखपदेशे, 'कु'त्ति कुख्यानि II भित्तय इत्यर्थः, सर्वाणि च तानि वनमयानि चेति वाक्यं, 'सर्वेऽपीति सप्तसहस्राण्यष्टशतानि चतुरशीत्यधिकानीत्ये-15 SARANASICASANA दीप अनुक्रम [९१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~392 ~ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७२६] श्रीस्थाना- सूत्रवृत्ति : ॥४०॥ प्रत सूत्रांक [७२६] 16 सङ्ख्याः वलका महदपेक्षया, उद्वेधेन मध्यविष्कम्भेण च सहस्र, मूले मुखे च विष्कम्भेण शत, कुज्यवाहल्येन प १० स्थाना. दश । 'धायई' इत्यादि, 'मंदर'त्ति पूर्वापरौ मेरू, तत्स्वरूपं सूत्रसिद्ध, विशेष उच्यते-"धायइसंडे मेरू चुलसीइसहस्स उद्देशः ३ ऊसिया दोवि । ओगाढा य सहस्सं होति य सिहरमि विच्छिन्ना ॥१॥ मूले पणनउइसया चउणउइसया य होति घर-1 सूक्ष्मादिः प्राणियले" इति, [धातकीखंडे मेरू चतुरशीतिसहस्राणि उच्छ्रिती भवतः सहस्रमवगाढी शिखरे च विस्तीणों द्वावपि भवतः सू०७२१|॥१॥ पंचनवतिशतानि मूले चतुर्नवतिशतानि धरणितले च भवतः॥] सर्वेऽपि वृत्तवैताव्यपर्वताः विंशतिः प्रत्येक ७२६ पञ्चसु हैमवतैरण्यवतहरिवर्षरम्यकेष्वेषां शब्दावतीविकटावतीगन्धावतीमालवपर्यायाख्यानां भावादिति, वृत्तग्रहणं दी-1 वैताठ्यव्यवच्छेदार्थमिति, मानुषोत्तरश्चक्रवालपर्वतः प्रतीतः, अञ्जनकाश्चत्वारो नन्दीश्वरद्वीपवर्तिनः, दधिमुखाः प्रत्येकमजनकानां दिक्कतुष्टयव्यवस्थितपुष्करिणीमध्यवर्तिनः षोडशेति, रतिकरा नन्दीश्वरद्वीपे विदिग्व्यवस्थिताः चत्वा-12 | रचतु:स्थानकाभिहितस्वरूपाः । रुचको-रुचकाभिधानत्रयोदशद्वीपवती चक्रवालपर्वतः । कुण्डल:-कुण्डलाभिधान एकादशद्वीपवर्ती चक्रवालपर्वत एव, 'एवं कुण्डलवरेऽवी'त्यनेनेह कुण्डलवर उद्वेधमूलविष्कम्भोपरिविष्कम्भ रुचकवरपर्वतसमान उक्को, द्वीपसागरप्रज्ञत्यां त्वेवमुक्तः-"दस चेव जोयणसए बावीसे वित्थडो उ मूलंमि । चत्तारि जोयणसए चउवीसे वित्थडो सिहरि ॥१॥" इति [द्वाविंशत्यधिकानि दशयोजनशतानि मूले विस्तृतः चतुस्त्रिंशदधिकानि ॥४८॥ चतुर्योजनशतानि शिखरे विस्तृतः (कुंडलवरः) अत्र तुल्यं ॥१॥] रुचकस्यापि, तत्राय विशेष उक्त-मूलविष्कम्भोट दीप अनुक्रम [९१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~393~ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७२६] प्रत सूत्रांक [७२६] 54545555* दश सहस्राणि द्वाविंशत्यधिकानि शिखरे तु चत्वारि सहस्राणि चतुर्विशत्यधिकानीति । अनन्तरं गणितानुयोग उक्त, अथ द्रव्यानुयोगस्वरूपं भेदत आह दसविहे दविवाणुभोगे पं० त०-दवियाणुओगे १ माउयाणुओगे २ एगट्ठियाणुओगे ३ करणाणुओगे ४ अप्पितणपिते ५ भाविताभाविते ६ बाहिराबाहिरे ७ सासयासासते ८ तहणाणे ९ अतहणाणे १० (सू०७२७) 'दसविहे दविए'त्यादि, अनुयोजन-सूत्रस्यार्थेन सम्बन्धनं अनुरूपोऽनुकूलो वा योगः-सूत्रस्याभिधेयार्थ प्रति |2|| व्यापारोऽनुयोगः, व्याख्यानमिति भावः, स च चतुर्दो व्याख्येयभेदात्, तद्यथा-चरणकरणानुयोगो धर्मकथानुयोगो गणितानुयोगो द्रव्यानुयोगच, तत्र द्रव्यस्य-जीवादेरनुयोगो-विचारो द्रव्यानुयोगः, स च दशधा, तत्र 'दबियाणु ओगे'त्ति यज्जीवादेव्यत्वं विचार्यते स द्रव्यानुयोगो, यथा द्रवति-गच्छति तांस्तान् पर्यायान् यते वा तेस्तैः पर्याहायरिति द्रव्य-गुणपर्यायवानर्थः, तत्र सन्ति जीवे ज्ञानादया सहभावित्वलक्षणा गुणाःन हि तद्वियुक्तो जीवः कदाचनापि| सम्भवति, जीवत्वहाने, तथा पर्याया अपि मानुषत्वबाल्यादयः कालकृतावस्थालक्षणास्तत्र सन्त्येवेति, अतो भवत्यसी|| गुणपर्यायवत्त्वात् द्रव्यमित्यादि द्रव्यानुयोगः १, तथा 'माउयाणुओगे'त्ति इह मातृकेव मातृका-प्रवचनपुरुषस्योत्पादव्ययधौव्यलक्षणा पदत्रयी तस्या अनुयोगो, यथा उत्पादवज्जीवद्रव्यं बाल्यादिपर्यायाणामनुक्षणमुसत्तिदर्शनाद् अनुसादे ||४| |च वृद्धाद्यवस्थानामप्राप्तिप्रसङ्गादसमजसापत्तेः, तथा व्ययवज्जीवद्रव्यं प्रतिक्षणं बाल्याद्यवस्थानां व्ययदर्शनादब्यय-| सत्वे च सर्वदा पाल्यादिप्राप्तेरसमजसमेव, तथा यदि सर्वथाऽप्युत्पादव्ययवदेव तत् न केनापि प्रकारेण ध्रुवं स्यात्तदा का दीप अनुक्रम [९१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~394~ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७२७] प्रत सूत्रांक [७२७] श्रीस्थाना- अकृताभ्यागमकृतविप्रणाशप्राप्या पूर्वदृष्टानुस्मरणाभिलाषादिभावानामभावप्रसङ्गेन च सकलेहलोकपरलोकालम्बनानुष्ठा-१० स्थाना. मसूत्र नानामभावतोऽसमञ्जसमेव, ततो द्रव्यतयाऽस्य प्रौव्यमित्युसादव्ययधौव्ययुक्तमतो द्रव्यमित्यादि मातृकापदानु- उद्देश:३ वृत्तिः ॥४॥योगः२, तथा 'एगट्टियाणुओग'त्ति एकश्चासावर्थश्च-अभिधेयो जीवादिः स येषामस्ति त एकार्थिकाः-शब्दास्तैरनु-15 द्रव्यानु दियोगस्तत्कथनमित्यर्थः, एकार्थिकानुयोगो यथा जीवद्रव्यं प्रति जीवः प्राणी भूतः सत्त्वः, एकाथिकानां वाऽनुयोगो यथा | योगः ॥४८१॥ जीवनात्-प्राणधारणाजीवः, प्राणाना-उपासादीनामस्तित्वात् प्राणी, सर्वदा भवनाता, सदा सत्त्वात्सत्त्वः इ- सू०७२७ त्यादि ३, तथा 'करणाणुओगोति क्रियते एभिरिति करणानि तेषामनुयोगः करणानुयोगः, तथाहि-जीवद्रव्यस्य कर्तुर्विचित्रक्रियासु साधकतमानि कालस्वभावनियतिपूर्वकृतानि नैकाकी जीवा किञ्चन कर्तुमलमिति, मृद्रव्यं वा कुलालचक्रचीवरदण्डादिकं करणकलापमन्तरेण न घटलक्षणं कार्य प्रति घटत इति तस्य तानि करणानीति द्रव्यस्य करणानुयोग इति ४, तथा 'अप्पियाणप्पिए'त्ति द्रव्यं शर्पित-विशेषितं यथा जीवद्रव्यं, किंविधं-संसारीति, संसायपि3 वसरूपं त्रसरूपमपि पश्चेन्द्रियं तदपि नररूपमित्यादि, अनर्पित-अविशेषितमेव, यथा जीवद्रव्यमिति, ततश्चार्पितं च तदनर्पितं चेत्यर्पितानप्पितं द्रव्यं भवतीति द्रव्यानुयोगः ५, तथा 'भावियाभाविए'त्ति भावित-बासितं द्रव्यान्तर-1 संसर्गत: अभावितमन्यथैव यत् , यथा जीवद्रव्यं भावितं किञ्चित् , तच्च प्रशस्तभावितमितरभावितं च, तत्र प्रशस्तभावितं संविग्रभावितमप्रशस्तभावितं चेतरभावितं, तत् द्विविधमपि वामनीयमवामनीयं च, तत्र वामनीयं यत्संसर्गज Al॥४८॥ गुणं दोषं वा संसर्गान्तरेण वमति, अवामनीयं त्वन्यथा, अभावितं त्वसंसर्गप्राप्तं प्राप्तसंसर्ग वा वज्रतन्दुलकल्पं न दीप अनुक्रम [९१८] TOSSOCT पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 395 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७२७] दीप अनुक्रम [१८] स्था० ८१ Educator tha [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७२७] स्थान [१०], उद्देशक [-], वासयितुं शक्यमिति, एवं घटादिकं द्रव्यमपि ततश्च भावितं च अभावितं च भाविताभावितम् एवम्भूतो विचारो द्रव्यानुयोग इति ६ तथा 'बाहिरबाहिरे'ति बाह्याबाह्यं तत्र जीवद्रव्यं वाह्यं चैतन्यधर्मेणाकाशास्तिकायादिभ्यो | विलक्षणत्वात्तदेवावाह्यममूर्त्तत्वादिना धर्मेण अमूर्त्तत्वादुभयेषामपि चैतन्येन वा अवाह्यं जीवास्तिकायाचैतन्यलक्षणत्वादुभयोरपि, अथवा घटादिद्रव्यं वाह्यं कर्म्मचैतन्यादि त्वाह्ममाध्यात्मिकमितियावदिति, एवमन्यो द्रव्यानुयोग इति ७, तथा 'सासयासासए'ति शाश्वताशाश्वतं तत्र जीवद्रव्यमनादिनिधनत्वात् शाश्वतं तदेवापरापरपर्यायप्राप्तितोऽशाश्वतमित्येवमन्यो द्रव्यानुयोग इति ८, तथा 'ताण' ति यथा वस्तु तथा ज्ञानं यस्य तत्तथाज्ञानं सम्य| ग्दृष्टिजीवद्रव्यं तस्यैवावितथज्ञानत्वात्, अथवा यथा तद्वस्तु तथैव ज्ञानं-अवबोधः प्रतीतिर्यस्मिंस्तत्तथाज्ञानं, घटादिद्रव्यं घटादित्तथैव प्रतिभासमानं जैनाभ्युपगतं वा परिणामि परिणामितयैव प्रतिभासमानमित्येवमन्यो द्रव्यानुयोग इति ९, 'अतहणाणे'त्ति अतथाज्ञानं मिथ्यादृष्टिजीवद्रव्यमलातद्रव्यं वा वक्रतयाऽवभासमानमेकान्तवाद्यभ्युपगतं वा वस्तु तथाहि एकान्तेन नित्यमनित्यं वा वस्तु तैरभ्युपगतं प्रतिभाति च तत्परिणामितयेति तदतथाज्ञानमित्येवमन्यो द्रव्यानुयोग इति १० ॥ पुनर्गणितानुयोगमेवाधिकृत्योत्सातपर्व्वताधिकारमच्युतसूत्रं यावदाह चमरस्सणं असुरिंदरस असुरकुमाररन्नो तिमिच्छिकूडे उत्पातपन्वते मूले दसवावीसे जोयणसते विक्रमेणं पं० । चमरस्स णं असुरिन्दस्स असुरकुमाररनो सोमस्स महारनो सोमप्पने उप्पातपव्वते दस जोयणसयाई उद्धं उच्चणं दस गाउयसलाई उच्छेद्देणं मूले दस जोयणसयाई विक्खंभेणं पं० । चमरस्स णमसुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो जमस्स महारत्रो Far Fara & Pras Use Only पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~396~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७२८] श्रीस्थाना वृत्तिः प्रत ॥४८२॥ सूत्रांक [७२८] अमप्पभे उप्पातपवते एवं थेव, एवं वरुणस्सवि, एवं वेसमणस्सवि । बलिस णं वइरोवर्णिदास बतिरोतणरनो रुथगिंदे १०स्थाना. उप्पातपव्यते मूले दसबावीसे जोयणसते विक्खंभेणं पं० । बलिस्स गं बहरोयणिदरस सोमस्स एवं व जधा चमरस्स उद्देश ३ लोगपालाण तं चेव बलिस्सवि । धरणस्स णं णागकुमारिवस्स णागकुमाररन्नो धरणप्पमे उप्पातपश्यते दस जोयणसयाई उत्पातउर्दू उच्चत्तेणं दस गाउयसलाई उव्वेहेणं मूले दस जोयणसताई विखंभेणं । धरणस्स नागकुमारिंदस्स णं नागकुमा- पर्वताः ररणो कालवालस्स महारण्णो महाकालप्पभे उप्पातपञ्चते जोयणसयाई उद्धं एवं चेव, एवं जाव संखवालस्स, एवं | सू०७२८ भूतार्णदस्सवि, एवं लोगपालाणंपि से जहा धरणस्स एवं जाव थणितकुमाराणं सलोगपालाणं भाणियब, सव्यसि उप्पायपव्वया भाणियन्वा सरिसणामगा । सकस्स ण देविंदस्स देवरणो सकप्पभे उप्पातपञ्चते बस जोयणसहस्साई उद्धं उपरोणं दस गाज्यसहस्साई उब्बेहेणं मूले दस जोयणसहस्साई विखंभेणं पं०, सक्कस्स णं देविंदस्स देव० सोमस्स महारनो जधा सकस्स तथा सम्वेसि लोगपालाणं सव्येसि च इंदाणं जाव अनुयत्ति, सव्वेसि पमाणमेर्ग (सू० ७२८) 'चमरस्सेत्यादि, सुगम नवरं 'तिगिछिकडे'त्ति तिगिंछी-किंजल्कस्तत्प्रधानकूटत्वात्तिगिच्छिकूटा, तत्प्रधानत्वं च कमलबहुलत्वात्संज्ञा चेयं, 'उपायपब्वए'त्ति उत्पतनं-ऊद्भगमनमुत्पातस्तेनोपलक्षितः पर्वत उत्पातपर्वतः, स च रुचकवराभिधानात् त्रयोदशात्समुद्राद्दक्षिणतोऽसङ्घयेयान द्वीपसमुद्रानतिलय यावदरुणवरद्वीपारुणवरसमुद्री तयो-II ॥४८२॥ |ररुणवरसमुद्रं दक्षिणतो द्विचत्वारिंशतं योजनसहस्राण्यवगाह्य भवति, तत्प्रमाणं च-"सत्तरस एकवीसाई जोयण-10 सथाई सो समुब्बिद्धो । दस चेव जोयणसए बावीसे वित्थडो हेट्ठा ॥१॥चत्तारि जोयणसए चउवीसे वित्थडो उ म [R दीप अनुक्रम [९१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~397~ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७२८] -- प्रत - सूत्रांक [७२८] झमि । सत्तेव य तेवीसे सिहरतले वित्थडो होइ ॥ २॥” इति [ सप्तदशैकविंशतियोजनशतानि स समुद्विद्धः । दश चैव योजनशतानि द्वाविंशत्यधिकान्यधः विस्तृतः॥१॥ चतुर्विशत्यधिकचतुर्योजनशतानि मध्ये विस्तृतः त्रयोविंशत्य|धिकसप्तशतानि शिखरतले विस्तृतः भवति ॥ २॥] स च रत्नमयः पद्मवरवेदिकया वनखण्डेन च परिक्षिप्तः, तस्य च मध्येऽशोकावतंसको देवप्रसाद इति । 'चमरस्सेत्यादि, 'महारन्नोति लोकपालस्य सोमप्रभ उत्सातपर्वतः अरुणोदसमुद्र एव भवति, एवं यमवरुणवैश्रमणसूत्राणि नेयानीति । 'बलिस्से त्यादि, रुचकेन्द्र उत्सातपर्वतोऽरुणोदसमुद्रे एव भवति, यथोक्तम्- "अरुणस्स उत्तरेणं बायालीसं भवे सहस्साई । ओगाहिऊण उदहिं सिलनिचओ रायहाणीओ ॥१॥” इति [ अरुणस्योत्तरस्यां द्विचत्वारिंशतं सहस्राण्यवगाह्योदधि पर्वतः तत्र चतस्रो राजधान्यः॥१॥] 'बलिस्सेत्यादि, 'बईत्यादि सूत्रसूचा, एवं च दृश्यं वइरोयणिंदस्त वइरोयणरन्नो सोमस्स य महारन्नो' 'एवं वत्ति अतिदेशः, एतभावना-'जहे'त्यादि, यथा यत्प्रकारं चमरस्य लोकपालानामुत्पातपर्वतप्रमाणे प्रत्येक चतुर्भिः सूत्रैरुक्तं तं चेव'त्ति | तत्प्रकारमेव चतुर्भिः सूत्रः बलिनोऽपि वैरोचनेन्द्रस्यापि वक्तव्यं, समानत्वादिति, "धरणस्से त्यादि, धरणस्योसातपर्वतोऽरुणोद एव समुद्रे भवति, 'धरणस्से'त्यादि प्रथमलोकपालसूत्रे 'एवं चेव'त्तिकरणात् 'उच्चत्तेणं दस गाउयसयाई उन्हेण'मित्यादि सूत्रमतिदिष्ट, 'एवं जाव संखपालस्स'त्तिकरणाच्छेषाणां त्रयाणां लोकपालानां कोलवालसेलवालसंखवालाभिधानानामुत्पातपर्वताभिधायीनि त्रीण्यन्यानि सूत्राणि दर्शयति । एवं भूयाणंदस्सवित्ति भूतानन्दस्यापि औदीच्यनागराजस्यापि उत्पातपर्वतस्तस्य नाम प्रमाणं च वाच्यं, यथा धरणस्येत्यर्थः, भूतानन्दप्रभश्चोत्पातपर्वतोऽरुणो दीप अनुक्रम [९१९] Eco N avam पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~398~ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७२८] प्रत पर्वताः सूत्रांक [७२८] श्रीस्थाना-दद एव भवति, केवलमुत्तरतः, 'एवं लोगपालाणवि से त्ति 'से' तस्य भूतानन्दस्य लोकपालानामपि, एवमुत्पातपर्वत-16|१०स्थानासूत्र- प्रमाणं यथा धरणलोकपालानामिति भावः, नवरं तन्नामानि चतुःस्थानकानुसारेण ज्ञातव्यानीति, 'जहा धरणस्से' तिश उद्देशः ३ वृत्तिः यथा धरणस्य एवमिति-तथा सुपर्णविद्युत्कुमारादीनां ये इन्द्रास्तेषामुत्पातपर्वतप्रमाणं भणितव्यं, किंपर्यन्तानां तेषा-181 उत्पात | मित्यत आह-'जाव थणियकुमाराणं ति प्रकटं, किमिन्द्राणामेव नेत्याह-सलोगपालाण ति, तल्लोकपालानामपी-10 ॥४८३॥ त्यर्थः, 'सव्वेसिमित्यादि, सर्वेपामिन्द्राणां तल्लोकपालानां चोत्पातपर्वताः सदृग्नामानो भणितव्याः, यथा धरणस्य 2 सु०७२८ धरणप्रभः, प्रथमतलोकपालस्य कालवालस्य कालवालप्रभ इत्येवं सर्वत्र, ते च पर्वताः स्थानमङ्गीकृत्यैवं भवन्ति-"असुराणं नागाणं उदहिकुमाराण होति आवासा । अरुणोदए समुदे तत्थेव य तेसि उपाया ॥१॥ दीवदिसाअग्गीणं | थणियकुमाराण होति आवासा । अरुणवरे दीवंमि उ तत्व य तेसि उपाया ॥२॥” इति [असुराणां नागानां उद[धिकुमाराणां भवन्त्यावासाः । अरुणोदके समुद्रे तत्रैव च तेषामुत्पाताः॥१॥द्वीपदिगनीनां स्तनितकुमाराणां भवन्त्यावासाः । अरुणवरे द्वीपे तु तत्रैव च तेषामुत्पाताः ॥२॥] 'सकस्से' त्यादि, कुण्डलवरद्वीपकुण्डलपर्वतस्याभ्यन्तरे | दक्षिणतः पोडश राजधान्यः सन्ति, तासां चतसृणां चतसृणां मध्ये सोमप्रभयमप्रभवरुणप्रभवैश्रमणप्रभाख्या उत्पातपर्वताः सोमादीनां शकलोकपालानां भवन्ति, उत्तरपार्धे तु एवमेवेशानलोकपालानामिति, यथा शकस्य तथाऽच्युतान्तानामिन्द्राणां लोकपालानां चोत्पातपर्वता वाच्याः, यतः सर्वेषामेकं प्रमाण, नवरं स्थानविशेषो विशेषसूत्रादवग ॥४८ ॥ स्तव्यः । योजनसहस्राधिकारादेव योजनसाहनिकावगाहनासूत्रत्रयम् दीप अनुक्रम [९१९] Firparantarvaataand पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~399~ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूचांक [ ७२९] दीप अनुक्रम [९२०] [भाग - 6] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [७२९] स्थान [१०], उद्देशक [-1. Education intemational - बायरवणस्सतिकातिताणं उक्कोसेणं दस जोयणसयाई सरीरोगाहणा पण्णत्ता, जलचरपंचेंद्रियतिरिक्खजोणिताणं उकोसेणं दस जोयणसताई सरीरोगाहणा पन० उरपरिसप्पथलचरपंचिदिवतिरिक्खजोणिताणं उकोसेणं एवं चैव ( सू० ७२९ ) संभवाओ जमरातो अभिनंदणे अरहा दसहिं सागरोवम कोडिसतसहस्सेहिं बीतिकंतेहिं समुपपन्ने ( सू० ७३० ) दसविहे अनंतते पं० सं०-- णामाणंतते ठवणाणंसते दुब्बाणंवते गणणाणंतते पदसाणंतते एगवोणंतते दुहतोणंतते देसवित्थाराणंतते सव्ववित्थाराणंतते सासयाणंतते ( सू० ७३१) उप्पायपुव्वस्स णं दस क्ल्यू पं० अस्थिणत्थिष्पवातपुचस्स णं दस चूलवत्थू पं० (सू० ७३२) दसविदा पडिसेवणा पं० सं०दप्प १ पमाय २ णाभोगे ३, आउरे ४ आवती ५ त । संकिते ६ सहसकारे ७ भय ८ प्पयोसा ९ य वीमंसा १० ॥ १ ॥ दस आलोयणादोसा पं० [सं० आकंपइत्ता १ अणुमाणइत्ता २ जंदिनं ३ वायरं ४ च सुमं वा ५ छष्णं ६ सहाउल ७ बहुजण ८ अव्वत ९ तरसेवी १०|| १ | दसहि ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति अत्तदोसमालोएचते, तं० [जाइसंपन्ने कुलसंपन्ने एवं अधा अट्टहाणे जाव खंते दंते अमाती अपच्छातावी, दसहि ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति आलोयणं पडिच्छित्तए, तंजा - आयारखं अवहारवं जाव अवाससी पितधम्मे दधम्मे, दुसविधे पायच्छिते पं० तं० आलोयणारिछे जाव अणवट्टप्पारि पारंचियारिहे ( सू० ७३३) 'बादरे 'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं 'बादरे'ति वादराणामेव न सूक्ष्माणां तेषामङ्गुला सङ्ख्येयभागमात्रावगाहनत्यात्, एवं जघन्यतोऽपि मा भूदतः 'उक्कोसेणं' त्यभिहितं दश योजनशतानि उत्सेधयोजनेन, न तु प्रमाणयोजनेन, "उस्सेहप Far Fara & Pras पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र - [ ०३] अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~400 ~ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७३३] + गाथा: श्रीस्थानाअसूत्र- वृत्तिः प्रत सूत्रांक [७३३] ॥४८॥ माणाउ मिणे देह" । उत्सेधप्रमाणेन देहं मिनुयात् ] इति वचनात्, शरीरस्यावगाहना-येषु प्रदेशेषु शरीरमवगा |१०स्थाना. सा शरीरावगाहना, सा च तथाविधनद्या(दा)दिपद्मनालविषया द्रष्टव्येति । 'जलचरेत्यादि, इह जलचरा मत्स्याः गर्भजाउद्देशः ३ इतरे च दृश्याः , “मच्छजुयले सहस्स" [मत्स्ययुगले सहनं] मिति वचनात्, एते च किल स्वयम्भूरमण एव भवन्तीति। अवगाह'उरगे'त्यादि उरःपरिसप्पा इह गर्भजा महोरगा दृश्याः , "उरगेसु य गब्भजाईसु"[गर्भजातेपूदकेषु] । इति वचनात्, ना.जिनाएते किल बाह्यद्वीपेषु जलनिश्रिता भवन्ति, 'एवं चेव'त्ति 'दसजोयणसयाई सरीरोगाहणा पन्नत्ते'ति सूत्रं वाच्यमित्यर्थः। न्तरं अनएवंविधाश्चार्था जिनदर्शिता इति प्रकृताध्ययनावतारि जिनान्तरसूत्रं 'सम्भवेत्यादि, सुगम । अभिहितप्रमाणाश्चावगाहना-४ |न्तं वसूनि दयोऽन्येपि पदार्था जिनैरनन्ता दृष्टा इत्यनन्तकं भेदत आह-'दसविहे'त्यादि नामानन्तक-अनन्तकमित्येषा नामभूता है प्रतिषेवावर्णानुपूर्वी यस्य वा सचेतनादेर्वस्तुनोऽनन्तकमिति नाम तन्नामानन्तकं स्थापनानन्तक-यदक्षादावनन्तकमिति स्थाप्यते, द्रव्यानन्तक-जीवद्रव्याणां पुद्गलद्रव्याणां वा यदनन्तत्वं, गणनानन्तकं यदेको द्वौ त्रय इत्येवं सहयाता असङ्ख्याता अ-1|सू०७२९. * नन्ता इति सक्यामात्रतया सङ्ख्यातव्यानपेक्षं सङ्ख्यानमात्रं व्यपदिश्यत इति, प्रदेशानन्तकं-आकाशप्रदेशानां यदानन्त्य मिति, एकतोऽनन्तकमतीताद्धा अनागताद्धा वा, द्विधाऽनन्तकं सर्वाद्धा, देशविस्तारानन्तक एक आकाशपतरः, सर्व-12 विस्तारानन्तक-सर्वाकाशास्तिकाय इति, शाश्वतानन्तकमक्षयं जीवादिद्रव्यमिति । एवंविधार्थाभिधायक पूर्वगतश्रुतमिति Iपूर्वश्रुतविशेषमिहावतारयन् सूत्रद्वयमाह-उपायेत्यादि, उत्पातपूर्व प्रथमं तस्य दश वस्तूनि-अध्यायविशेषाा, अ-IMIMean स्तिनास्तिप्रवादपूर्वं चतुर्थं तस्य मूलवस्तूनामुपरि चूलारूपाणि वस्तूनि चूलावस्तूनि । पूर्वगतादिश्रुतनिषिद्धवस्तूनां साधो-17 गाथा: ७३३ दीप अनुक्रम [९२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~401~ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७३३] प्रत सूत्रांक [७३३] यद्विधा प्रतिपेवा भवति तद्विधां तां दर्शयन्नाह-दसविहे'त्यादि, प्रतिषेवणा-प्राणातिपाताद्यासेवन, 'दप्प'सिलोगो, दो-बल्गनादि, 'दप्पो पुण वग्गणाईओं [दर्पः पुनर्घल्पनादिकः] इति वचनात् , तस्मादागमप्रतिषिद्धप्राणातिपा ताद्यासेवा या सा दर्पप्रतिषेवणेति, एवमुत्तरपदान्यपि नेयानि, नवरं प्रमादः-परिहासविकथादिः, "कंदप्पाइ पमाओ"| कंदादिः प्रमाद] इति वचनाद्, विधेयेष्यप्रयलो वा, अनाभोगो-विस्मृतिः, एषां समाहारद्वन्द्वस्तत्र, तथा आतुरे-ग्लाने सति प्रतिजागरणार्थमिति भावः, अथवा आत्मन एवातुरत्वे सति, लुप्तभावप्रत्ययत्वात् , अयमर्थ:-क्षुत्पिपासाव्याधिभिरकाभिभूतः सन् यां करोति, उक्तं च-"पढमबीयदुओ वाहिओ व जं सेव आउरा एसा" इति [क्षुधातृपोपद्रुतो व्याधितो चार ४ यत्सेवते एषा आतुरा] तथा आपत्सु द्रव्यादिभेदेन चतुर्विधासु, तत्र द्रव्यतः प्रासुकद्रव्यं दुर्लभं क्षेत्रतोऽध्वप्रतिपन्नता कालतो दुर्भिक्षं भावतो ग्लानत्वमिति, उक्तं च-"दव्वाइअलंभे पुण चउबिहा आयया होइ" इति [द्रव्याघलाभे पुनः चतुर्विधा आपदो भवन्ति ।] तथा शङ्किते एपणेऽप्यनेषणीयतया "जं संके तं समावजे"[यत्शायेत तत्समापयेत ॥] इति वचनात, सहसाकारे-अकस्मारकरणे सति, सहसाकारलक्षणं चेदम्-"पुव्वं अपासिऊणं पाए छटमि जं पुणो पासे । न चएइ नियत्तेउं पायं सहसाकरणमेयं ॥१॥" इति [ पूर्वमदृष्ट्वा पादे त्यक्ते यत्पुनः पश्यति । न च निवर्तयितुं शक्नोति सहसाकरणमेतत् प्रायः॥१॥] भयं च-भीतिः नृपचौरादिभ्यः प्रद्वेषश्च-मात्सर्य भयप्रद्वेषं तस्माच्च प्रतिषेवा भवति, यथा राजाद्यभियोगान्मार्गादि दर्शयति सिंहादिभयाद्वा वृक्षमारोहति, उक्तं च "भयमभिउग्गेण सीहमाइ वत्ति" अ-13 भियोगेन सिंहादि वा भयं] इह प्रद्वेषग्रहणेन कषाया विवक्षिताः, आह च-"कोहाईओ पओसो"त्ति [क्रोधादिका गाथा: १९४ दीप अनुक्रम [९२८] E पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~402~ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७३३] प्रत सूत्रांक [७३३] वृत्ति गाथा: श्रीस्थाना- प्रद्वेषः] तथा विमर्श:-शिक्षकादिपरीक्षा, आह च-"वीमंसा सेहमाईणं" इति [शिष्यादीनां परीक्षा] ततोऽपि प्रति-16/१०स्थाना. इसूत्र पूषेवा-पृथिव्यादिसहाहादिरूपा भवतीति । प्रतिषेवायां चालोचना विधेया, तत्र च ये दोषास्ते परिहार्या इति दर्शना-18 उद्देशः ३ याह-दसेत्यादि, 'आकंप'गाहा, आकम्प्य आवयेत्यर्थः, यदुक्तम्-"वेयावच्चाईहिं पुवं आर्गपइत्तु आयरिए अवगाह आलोएद कहं मे थोवं वियरिज पच्छित्तं? ॥२॥” इति [वैयावृत्त्यादिभिः पूर्व आचार्यमाकंप्यालोचयति कथं मम स्तोक ना जिना॥४८५॥ प्रायश्चित्तं दद्यात्। ॥१॥] 'अणुमाणइत्ता' अनुमानं कृत्वा, किमयं मृदुदण्ड उतोपदण्ड इति ज्ञात्वेत्यर्थः, अय- न्तरं अनमभिप्रायोऽस्य-यद्ययं मृदुदण्डस्ततो दास्याम्यालोचनामन्यथा नेति, उक्तं च-"किं एस उग्गदंडो मिउदंडो वत्तिान्तं वसूनि एवमणुमाणे । अन्ने पलिंति थोवं पच्छित्तं मज्झ देहिजा ॥१॥" इति [किमेष उग्रदंडो मृदुदंडो वेत्यनुमायैवं प्रतिषेवा६ अन्यान् आलोचयति मम स्तोकं प्रायश्चित्तं दद्यात् ॥१॥] 'जं विट्ठति यदेव दृष्टमाचार्यादिना दोषजातं त-8 द्याः देवालोचयति नान्यं दोष, आचार्यरजनमानपरत्वेनासंविग्नत्वादस्येति, उक्तं च-"दिवा व जे परेणं दोसा वियडेइ ते है सू०७२९. |चिय न अक्षे । सोहिभया जाणंतु त एसो एयावदोसो उ ॥१॥" इति, [ये परेण दोषा दृष्टास्तानेव प्रकटयति| 21 | नाम्यान् । शोधिभयात् जानन्तु वा एष एतावद्दोष एव ॥१॥] 'वायरं वत्ति पादरमेवातिचारजातमालोचयति न|| सूक्ष्ममिति, 'सुहुमं वत्ति सूक्ष्ममेव वाऽतिचारमालोचयति, यः किल सूक्ष्ममालोचयति स कथं कादरं सन्तं नालोच-1 यत्येवंरूपभावसम्पादनायाचार्यस्येति, आह च-"बायर बद्धवराहे जो आलोएइ सुहुम नालोए । अहवा सुहुमा लोए। घरमन्नंतो उ एवं तु ॥१॥ जो सुहमे आलोए सो किह नालोय बायरे दोसे?"ति॥ इति [वादरः बृहतोऽपराधान् आलो-टू CACCOCCALCCAN दीप अनुक्रम [९२८] E aton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~403~ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७३३] प्रत सूत्रांक [७३३] । चयति सूक्ष्मानालोचयति अथवा सूक्ष्मानालोचयति परमेवं मन्वानः॥१॥-यः किल सूक्ष्मानालोचयति कथं स न बादरान |दोषानालोषयति ॥] 'छन्नं'ति प्रच्छन्नमालोचयति यथाऽऽत्मनैव शृणोति नाचार्यः, भणितं च-“छन्नं तह आलोए जह नवरं अपणा सुणइ ॥” इति, [छन्नं तथालोचयति यथाऽऽत्मनैव शृणोति परं] 'सदाउलय'ति शब्देनाकुलं शब्दाकुल-वृहच्छब्द, तथा महता शब्देनालो चयति यथाऽन्येऽप्यगीतार्थास्ते शृपवन्तीति, अभाणि च-"सद्दाउल बडेणं सद्देणालोय जह अगीयावि बोहेइ ॥" इति [शब्दाकुलं बृहता शब्देनालोचयति यथा अगीतार्था अपि बोधयति ॥] 'बहुजणंति बहवो जना-आलोचनाचार्याः यस्मिन्नालोचने तद्बहुजनं, अयमभिप्राय:-"एकरसालोएत्ता जो आलोए पुणोवि अन्नस्स । ते चेव य अबराहे तं होइ बहुजणं नाम ॥१॥” इति, [एकस्यालोच्य पार्वे यः पुनर-IN न्यस्याप्यालोचयति तानेवापराधान् तद्भवति बहुजनं नाम ।।१॥] अव्यक्तस्य-अगीतार्थस्य गुरोः सकाशे यदालोचनं तत्सम्बन्धादव्यक्तमुच्यते, उक्तं च-"जो य अगीयत्वस्सा आलोए तं तु होइ अव्वतं" इति [यश्चागीतार्थस्यालोचयति तत्तु भवत्यव्यक्तं ॥] 'तस्सेवित्ति ये दोषा आलोचयितव्यास्तत्सेवी यो गुरुस्तस्य पुरतो यदालोचनं स तत्सेविलक्षण आलोचनादोषः, तत्र चायमभिप्रायः आलोचयितु:-"जह एसो मतुल्लो न दाही गुरुगमेय पच्छित्तं । इय जो किलिटूचित्तो दिन्ना आलोयणा तेण ॥१॥" इति [यथैप मतुल्यो (दोषेणेति) न गुरु प्रायश्चित्तं दास्यति इति यः| क्लिष्टचित्तः तेनालोचना दत्ता एव (स्तमित्यर्थः)॥१॥] एतदोषपरिहारिणाऽपि गुणवत एवालोचना देयेति तद्गुणा-19 नाह-'वसहि ठाणेही'त्यादि, एवं अनेन क्रमेण यथाऽष्ट स्थानके तथा इदं सूत्रं पठनीयमित्यर्थे।, कियहूरं यावत्खते गाथा: दीप अनुक्रम [९२८] SaamEairator पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~4044 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७३३] श्रीस्थानाप्रसूत्र वृत्तिः प्रत सूत्रांक [७३३] ॥४८६॥ गाथा: आदतेत्तिपदे, तथाहि-'विणयसंपने नाणसंपन्ने दंसणसंपन्ने चरणसंपन्नेत्ति, 'अमायी अपच्छाणुताधी'ति पदद्वयमिहाधिका १० स्थाना. प्रकटं च, नवरं प्रधान्तरोक्तं तत्स्वरूपमिदं-"नो पलिउंचे अमायी अपच्छयाबी न परितप्पे'त्ति। [नापहवीतामायीनदशः ३ अपश्चात्तापी न परितप्येत् ] एवंभूतगुणवताऽपि दीयमानाऽऽलोचना गुणवतैव प्रत्येष्टव्येति तद्गुणानाह-दसही अवगाहकात्यादि, 'आयारवंति ज्ञानाद्याचारवान् १ 'अबहारवं'ति अवधारणावान् २ जावकरणात् 'ववहारवं' आगमा-14 ना जिनादिपश्चप्रकारव्यवहारवान् ३ 'उध्वीलए' अपनीडकः लज्जापनोदको यथा परः सुखमालोचयतीति ४ 'पकुब्बी' आ-14 न्तरं अनलोचिते शुद्धिकरणसमर्थः ५ 'निज्जवए' यस्तथा प्रायश्चित्तं दत्ते यथा परो निर्वोढुमलं भवतीति ६ 'अपरिस्साची न्तं वसूनि प्रतिषेवाआलोचकदोषानुपश्रुत्य यो नोनिरति ७ 'अवायदंसी' सातिचारस्य पारलौकिकापायदशीति पूर्वोक्तमेव ८ 'पियधम्मे द्याः दधम्म' १. त्ति अधिकमिह प्रियधर्मा-धर्मप्रियः दृढधा य आपद्यपि धर्मान्न चलतीति । आलोचितदो-18 सू०७२९पाय प्रायश्चित्तं देयमतस्तत्मरूपणसूत्र-आलोचना-गुरुनिवेदनं तयैव यच्छु यत्यतिचारजातं तत्तदर्हत्वादालोचनाई, तच्छुद्यर्थं यत्प्रायश्चित्तं तदप्यालोचनाहै, तच्चालोचनैवेत्येवं सर्वत्र, यावत्करणात् 'पडिक्कमणारिहे' प्रतिक्रमण-मिथ्यादुष्कृतं तदर्ह 'तदुभयारिहे' आलोचनापतिक्रमणाहमित्यर्थः 'विवेगारिहे' परित्यागशोध्यं 'घिउसग्गारिहे' कायो-121 त्सर्गार्ह 'तवारिहे' निर्विकृतिकादितपःशोध्यं 'छेदारिहे' पर्यायच्छेदयोग्यं 'मूलारिहे' व्रतोपस्थापनाई 'अणवट्ठ ॥४८६॥ पारिहे' यस्मिन्नासेविते कञ्चन कालं व्रतेष्वनवस्थाप्यं कृत्वा पश्चाचीर्णतपास्तद्दोषोपरतो व्रतेषु स्थाप्यते तदनवस्थाप्याई, दीप अनुक्रम [९२८] CamEauratomitimational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~405~ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत मूचांक [७३३] + गाथा: दीप अनुक्रम [२८] [भाग - 6] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ७३३] स्थान [१०], उद्देशक [-1 Education Thaman 'पारञ्चियारिहे' एतदधिकमिह तत्र यस्मिन् प्रतिषेविते लिङ्गक्षेत्रकालतपोभिः पाराखिको बहिर्भूतः क्रियते तत्पाराचिकं तदर्हमिति । पाराश्चिको मिथ्यात्वमप्यनुभवेदतो मिथ्यात्वनिरूपणाय सूत्रम् — दसविधे मिच्छते पं० नं० - अधम्मे धम्मसण्णा धम्मे अधम्मसण्णा अमग्गे मग्गसण्णा मग्गे उम्मग्गसन्ना अजीबेसु जीवसन्ना जीनेसु अजीवसन्ना असाहुसु साहुसन्ना साहुसु असाहुसण्णा अमुत्तेसु मुत्तसन्ना मुत्तेमु अमुत्तमण्णा ( सू० ७३४) चंदप्पभे णं अरहा दस पुव्वसतसहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे जावप्पहीणे, धम्मे णमरहा दस वाससयसहस्साई सब्वायं पालङ्गत्ता सिद्धे जावप्पहीणे, णनी णमरहा दस वाससहस्साई सब्बाउयं पालइत्ता सिद्धे जाव पहीणे, पुरिससीहे णं वासुदेवे दस वाससय सदस्साई सब्बाउवं पालदत्ता हट्टीते तमाए पुढवीए नेरतित्ताते उववन्ने, णेमी अरहा दस घणू उच्चणं दस व वाससयाई सवाउयं पालइत्ता सिद्धे जावप्पहीणे, कण्हे णं वासुदेवे दस घणूई उद्धं उच्चत्तेणं दस य वाससयाई सब्वाच्यं पाठइत्ता तचाते वालुयप्पभाते पुढवीते नेरतियत्ताते उबवन्ने, (सू० ७३५) दसवा भवणवासी देवा पं० तं० असुरकुमारा जाव धणियकुमारा। एएसि णं दसविधाणं भवणवासीणं देवाणं दस चेतितरुक्खा पं० [सं० आसत्थ १ सत्तिवन्ने २ सामलि ३ उंबर ४ सिरीस ५ दहिवशे ६ | वंजुल ७ पलास ८ वप्पे तते ९ कतार १० ।। १ ।। ( सू० ७३६) दसविधे सोक्खे पं० नं० - आरोग्ग १ दीहमा २ अड्डेज्जं ३ काम ४ भोग ५ संतोसे ६ । अस्थि ७ सुहभोग ८ निक्खम्ममेव ९ तत्तो अणाबाहे १० || १ || (सू० ७३७ ) दसविधे उवघाते पं० [सं० उगमोवघाते उप्पायणोवघाते जह पंचठाणे, जाव परिहरणोवघाते णाणोवघाते दंसणोवघाते चरित्तो - Far Far & Pra U पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र - [ ०३] अंग सूत्र - [०३] ~ ~406~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७३८] + गाथा: प्रत सूत्रांक [७३८] A श्रीस्थाना वघाते अधियत्तोवघाते सारक्खणोवधाते दसविधा विसोही पं० सं०-उग्गमविसोही उप्पावणविसोही जाव सारक्षण- १.स्थाना. सूत्रविसोही (सू०७३८) उद्देशः३ वृत्तिः तत्र अधर्मे-श्रुतलक्षणविहीनत्वादनागमे अपौरुषेयादौ धर्मसंज्ञा-आगमबुद्धिर्मिथ्यात्वं, विपर्यस्तत्वादिति १ मिथ्यात्वं धर्मे-कपच्छेदादिशुद्ध सम्यक्श्रुते आप्तवचनलक्षणेऽधर्मसंज्ञा सर्व एव पुरुषा रागादिमन्तोऽसर्वज्ञाश्च पुरुषत्वादहमि-18| शलाकाः ॥४८७॥ वेत्यादिप्रमाणतोऽनातास्तदभावात्तत्तदुपदिष्ट शाखें धर्म इत्यादिकुविकल्पवशादनागमबुद्धिरिति २ तथा उन्मार्गो- भवनबानिवृतिपुरीं प्रति अपन्थाः वस्तुतत्त्वापेक्षया विपरीतश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपस्तत्र मार्गसंज्ञा-कुवासनातो मार्गबुद्धिः ३ सिचैत्यवृतथा मार्गेऽमार्गसंज्ञेति प्रतीत ४ तथा अजीवेषु-आकाशपरमाण्वादिषु जीवसंज्ञा 'पुरुष एवेद'मित्याद्यभ्युपगमादितिक्षा उपतथा 'क्षितिजलपवन हुताशनयजमानाकाशचन्द्रसूर्याख्याः । इति मूर्तयो महेश्वरसम्बन्धिन्यो भवन्त्यष्टी ॥.१ ॥" घाताद्याः इति ५, तथा जीवेषु-पृथिव्यादिवजीवसंज्ञा यथा न भवन्ति पृथिव्यादयो जीवाः उच्छासादीनां प्राणिधर्माणामनु-15|| सू०७३४. पलम्भाद् घटवदिति ६ तथाऽसाधुषु-पडूजीवनिकायवधानिवृत्तेष्वौदेशिकादिभोजिष्वब्रह्मचारिषु साधुसंज्ञा, यथा- G७३८ साधव एते सर्वपापप्रवृत्ता अपि ब्रह्ममुद्राधारित्वादित्यादिविकल्परूपेति ७ तथा साधुषु-ब्रह्मचर्यादिगुणान्वितेषु असाधु | संज्ञा, एते हि कुमारप्रजिता नास्त्येषां गतिरपुत्रत्वात् स्नानादिविरहितत्वाद्वेत्यादिविकल्पात्मिकेति ८ तथाऽमुक्तेषु-1 दिसकम्मसु लोकव्यापारप्रवृत्तेषु मुक्तसंज्ञा, यथा-'अणिमाद्यष्टविधं प्राप्यैश्वर्य कृतिनः सदा । मोदन्ते निवृतात्मान- ४८५॥ स्तीर्णाः परमदुस्तरम् ॥१॥" इत्यादिविकल्पात्मिकेति ९ तथा मुक्तेषु-सकलकर्मकृतविकारविरहितेष्वनन्तज्ञानदर्श गाथा: दीप अनुक्रम [९३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~407~ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७३८] + गाथा: 44+KA प्रत सूत्रांक [७३८] गाथा: नसुखवीर्ययुक्तेषु अमुक्तसंज्ञा, न सन्त्येवेदशा मुक्काः, अनादिकर्मयोगस्य निवर्त्तयितुमशक्यत्वादनादित्वादेव आकाशात्मयोगस्येवेति, न सन्ति वा मुक्ताः मुक्तस्य विध्यातदीपकल्पवादात्मन एव वा नास्तित्वादित्यादिविकल्परूपेति १० अन-I न्तरं मिथ्यात्वविषयतया मुक्ता उक्काः, इदानीं तदधिकारातीर्थकरत्रयस्य दशस्थानकानुपातेन मुक्तत्वमभिधीयते-- दप्पभे णं' इत्यादि सूत्रत्रयमपि कण्ठ्यं, नवरं सिद्धे 'जाव'त्ति यावत्करणात् 'सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतकडे सञ्चदुक्खप्पही'त्ति सूत्रं द्रष्टव्यमिति, उक्ततीर्थकराश्च महापुरुषा इति तत्सम्बन्धि 'पुरिससीहें'त्यादिसूत्रत्रयं कण्ठयं । नैरविकतयेति प्रागुक्तं, नारकासन्नाश्च क्षेत्रतो भवनवासिन इति तद्गतं सूत्रद्वयं कण्ठ्यं, नवरं-"असुरा १ नाग २ सुवन्ना ३ विग्जू ४ अग्गी ५ य दीव ६ उदही ७ य । दिसि ८ पवण ९ थणियनामा १० दसहा एए भवणवासी ॥१॥" इति, अनेन क्रमणाश्वत्थादयश्चैत्यवृक्षा ये सिद्धायतनादिद्वारेषु श्रूयन्त इति । प्राग्भवनवासिनो देवा उक्तास्तेषां च किल सुखं भव तीति सुखं सामान्यत आह-दसविहें'त्यादि, 'आरोग'गाहा, आरोग्य-नीरोगता १दीर्घमायु:-चिरं जीवितं, शुभहै मितीह विशेषणं दृश्यमिति २, 'अहेजति आध्यत्व-धनपतित्वं सुखकारणत्वात्सुखं, अथवा आध्यैः क्रियमाणा इज्या पूजा आयेज्या, प्राकृतत्वादहेजत्ति ३, 'काम'त्ति कामौ शब्दरूपे सुखकारणत्वात् सुखं ४, एवं 'भोगे'त्ति भोगा:-ग-1 न्धरससः ५, तथा सन्तोपः-अल्पेच्छता तत्सुखमेव आनन्दरूपत्वात्सन्तोषस्थ, उकै च-"आरोगसारियं माणुसतणं सच्चसारिओ धम्मो । विज्जा निच्छयसारा सुहाई संतोससाराई॥१॥" इति [आरोग्यसारं मनुष्यत्वं सत्यसारो धर्मः । विद्या निश्चयसारा सुखानि संतोषसाराणि ॥१॥], 'अस्थिति येन येन यदा यदा प्रयोजनं तत्तत्तदा तस्था०८२|| दीप अनुक्रम [९३५] Et Samayam पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~408~ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७३८] + गाथा: प्रत सूत्रांक [७३८] श्रीस्थाना- दाऽस्ति-भवति जायते इति सुखमानन्दहेतुत्वादिति ७, 'मुह भोग'त्ति शुभ:-अनिन्दितो भोगो-विषयेषु भोगक्रि- १०स्थाना. सूत्र- येति स सुखमेव सातोदयसम्पाद्यत्वात् तस्येति ८, तथा 'निक्खम्ममेव'त्ति निष्क्रमणं निष्क्रमा-अविरतिजम्बाला-18 उद्देशः ३ वृत्तिः शादिति गम्यते, प्रवज्येत्यर्थः, इह च द्विर्भावो नपुंसकताच प्राकृतत्वात् , एवकारोऽवधारणे, अयमर्थः-निष्क्रमणमेव भव- मिथ्यात्वं स्थानां सुखं, निराबाधस्वायत्तानन्दरूपत्वात्, अत एवोच्यते-'दुवालसमासपरियाए समणे निग्गंधे अणुत्तराणं दे- शलाकाः ॥४८८॥ वाणं तेउलेसं वीइवयइति, तथा "नैवास्ति राजराजस्य तत्सुखं नैव देवराजस्य । यत्सुखमिहैव साधोलोकव्यापाररहि- भवनवातस्य ॥ १ ॥” इति, शेषसुखानि हि दुःखप्रतीकारमात्रत्वात् सुखाभिमानजनकत्वाच तत्त्वतो न सुखं भवतीति ९, | सिचैत्यवृ'तत्तो अणावाहि'त्ति ततो-निष्क्रमणमुखानन्तरं अनावाधं-न विद्यते आवाधा-जन्मजरामरणक्षुसिपासादिका यत्र क्षा उपलातदनांबा, मोक्षसुखमित्यर्थः, एतदेव च सर्वोत्तम, यत उक्तम्-नवि अस्थि माणसाणं तं सोक्खं नविय सम्बदे-1 पाताद्याः वाण । जं सिद्धाणं सोक्खं अब्वाबाहं उवगयाणं ॥१॥" इति, १० [नाप्यस्ति मनुष्याणां तत्सौख्यं नापि च सर्वदे- सू०७३४. भावानां । यत्सिद्धानां सौख्यमव्यायाधमुपगतानां ॥१॥] निष्क्रमणसुखं चारित्रसुखमुक्तं, तच्चानुपहतमनावाधसुखायेत्य तश्चारित्रस्यैतत्साधनस्य भक्तादेानादेश्वोपघातनिरूपणसूत्रं, तत्र यदुद्गमेन-आधाकादिना पोडशविधेनोपहननं-वि-18 राधनं चारित्रस्याकल्प्यता वा भक्तादेः स उगमोपघातः १, एवमुत्पादनया-धाच्यादिदोषलक्षणया यः स उत्पादनोप घातः, 'जहा पंचट्ठाणे'त्तिभणनात् तत्सूत्रमिह दृश्यं, कियत्, अत आह-'जाव परी'त्यादि, तच्चेदम्-'एसणो- ४८८॥ सावधाए' एषणया-शङ्कितादिभेदया यः स एपणोपघातः 'परिकम्मोवघाए' परिकर्म-वस्त्रपात्रादिसमारचनं तेनोपघातः14 गाथा: दीप अनुक्रम [९३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~409~ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७३८] + गाथा: प्रत सूत्रांक [७३८] * 555 स्वाध्यायस्य श्रमादिना शरीरस्य संयमस्य वोपघातः परिकर्मोपघाता, "परिहरणोवघाए' परिहरणा-अलाक्षणिकस्याकहथ्यस्य वोपकरणस्याऽऽसेवा तया यः स परिहरणोपघातः, तथा ज्ञानोपघातः श्रुतज्ञानापेक्षया प्रमादतः, दर्शनोपघातः शङ्कादिभिः, चारित्रोपधातः समितिभङ्गादिभिः, अचियत्तोवधाए'त्ति अचियत्तम्-अनीतिकं तेनोपघातो विनयादेः, 'सारक्खणोवघाए'त्ति संरक्षणेन शरीरादिविषये मूछो उपघातः परिग्रहविरतेरिति संरक्षणोपघात इति । उपघातविपक्षभूत| विशुद्धिनिरूपणाय सूत्रम्, तत्रोद्मादिविशुद्धिर्भक्तादेर्निरवद्यता, जावत्तिकरणात् एसणेत्यादि वाच्यमित्यर्थः, तत्र परिकर्मणा-वसत्यादिसारवणलक्षणेन क्रियमाणेन विशुद्धियों संयमस्य सा परिकमविशुद्धिः परिहरणया-वस्त्रादेः शा-1 स्त्रीययाऽऽसेवनया विशुद्धिः परिहरणाविशुद्धिः, ज्ञानादित्रयविशुद्धयस्तदाचारपरिपालनातः, अचियत्तस्य-अप्रीतिकस्य | विशोधिस्तन्निवर्तनादचियत्तविशोधिः, संरक्षणं संघमार्थ उपध्यादेस्तेन विशुद्धिश्चारित्रस्येति संरक्षणविशुद्धिः, अथवोद्गमाधुपाधिका दशप्रकाराऽपीयं चेतसो विशुद्धिर्विशुद्यमानता भणितेति । इदानी चित्तस्यैत्र विशुद्धिविपक्षभूतमुपध्याधुपाधिक सएक्लेशमभिधातुमुपक्रमते, तत्र सूत्रम् दसविधे संकिलेसे पं० सं०-उवहिसंकिलेसे उबस्सयसंकिलेसे कसायसंकिलेसे भत्तपाणसंकिलेसे मणसंकिलेसे वतिसंकिलेसे कायसंकिलेसे णाणसंकिलेसे ईसणसंकिलेसे चरित्तसंकिलेसे । दसविहे असंकिलेसे पं० त०-उबहिअसंकिलेसे जाव चरित्तभसंकिलेसे । (सू०७३९) दसविधे बले पं० त०-सोतिदितबले जाव फासिदितबले णाणबले दसणबले चरित्तबले तपबले बीरितबले (सू०७४०) गाथा: दीप अनुक्रम [९३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~410~ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४०] श्रीस्थानाझसूत्रवृत्तिः प्रत ॥४८९॥ ४ सूत्रांक [७४०] 'दसेत्यादि, सहशा-असमाधिः, उपधीयते-उपष्टभ्यते संयमः संयमशरीरं वा येन स उपधिः-वखादिस्तद्विषयः | १०स्थाना. सक्केशः उपधिसडक्लेशः, एवमन्यत्रापि, नवरं 'उबस्सय'त्ति उपाश्रयो-वसतिस्तथा कषाया एवं कषायैर्वा सडक्लेशः उद्देश ३ कषायसहरकेशः तथा भक्तपानाश्रितः सहक्लेशो भक्तपानसक्लेशः तथा मनसो मनसि वा सडकोशो वाचा सहक्लेशःसंक्लेशेतरे कायमाश्रित्य सड्क्लेश इति विग्रहः, तथा ज्ञानस्य सडक्लेश:-अविशुद्यमानता स ज्ञानसडकेशः, एवं दर्शनचारित्रयो-IA बलानि रपीति । एतद्विपक्षोऽसक्लेशस्तमधुनाऽऽह-दसे'त्यादि, कण्ठ्यं । असक्लेशश्च विशिष्टे जीवस्य वीर्यवले सति भव- सत्याद्या तीति सामान्यतो बलनिरूपणायाह-'दसे'त्यादि, श्रोत्रेन्द्रियादीनां पञ्चानां बलं-स्वार्थग्रहणसामर्थं 'जाव'त्ति चक्षु भाषा: रिन्द्रियबलादि वाच्यमित्यर्थः, ज्ञानबलं-अतीतादिवस्तुपरिच्छेदसामर्थ्य चारित्रसाधनतया मोक्षसाधनसामर्थ्य वा, दर्शनबलं सर्ववेदिवचनप्रामाण्यादतीन्द्रियायुक्तिगम्यपदार्थरोचनलक्षणं चारित्रबलं यतो दुष्करमपि सकलसङ्गवियोग पासू०७३९ ७४१ करोत्यात्मा यच्चानन्तमनाबाधमैकान्तिकमात्यन्तिकमात्मायत्तमानन्दमाप्नोति, तपोबलं यदनेकभवार्जितमनेकदुःख-19 कारणं निकाचितकर्मग्रन्धि क्षपयति, वीर्यमेव बलं वीर्यवलं, यतो गमनागमनादिकासु विचित्रासु क्रियासु वर्तते, यच्चापनीय सकलकलुषपटलमनवरतानन्दभाजनं भवतीति । चारित्रबलयुक्तः सत्यमेव भाषत इति तनिरूपणायाह दसविहे सचे पण्णत्ते-जणवय १ सम्मय २ ठवणा ३ नामे ४ रुवे ५ पदुश्चसच्चे ६ य । ववहार ७ भाव ८ जोगे ९ इसमे ओवम्मसचे व १० ॥१॥ बसविधे मोसे पं० त०-कोघे १ माणे २ माया ३ लोभे ४ पिजे ५ बहेव दोसे ६ य । हास ७ भते ८ अक्खातित ९ उवधातनिस्सिते दसमे १० ॥२॥ दसविधे सच्चामोसे पं० सं०-पन्नमी IR४८९॥ दीप अनुक्रम [९३७] -CACANCk E पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~411~ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४१] + गाथा: 2564 प्रत सूत्रांक [७४१] सते १ विगतमीसते २ जपण्णविगतमीसते ३ जीवमीसए ४ अजीवमीसए ५ जीवाजीवमीसए ६ अणतमीसए . परित्तमीसए ८ अद्धामीसए ९ अद्धद्धामीसए १० (सू० ७४१) 'दसविहे'त्यादि, सन्तः-प्राणिनः पदार्था मुनयो वा तेभ्यो हितं सत्यं दशविधं तत्मज्ञप्त, तद्यथा-'जणवगाहा, 'जणवय'त्ति सत्यशब्दः प्रत्येकमभिसम्बन्धनीयः, ततश्च जनपदेषु-देशेषु यद्यदर्थवाचकतया रूढं देशान्तरेऽपि तत्तदर्थवाचकतया प्रयुज्यमानं सत्यमवितधमिति जनपदसत्य, यथा कोकणादिषु पयः पिच्चं नीरमुदकमित्यादि, सत्यत्व चास्यादुष्टविवक्षाहेतुत्वान्नानाजनपदेविष्टार्थप्रतिपत्तिजनकत्वाद् व्यवहारप्रवृत्तेः, एवं शेषेष्यपि भावना कार्येति, 'संम-| 18य'ति संमतं च तत् सत्यं चेति सम्मतसत्य, तथाहि-कुमुदकुवलयोपलतामरसानां समाने पङ्कसम्भवे गोपालादीना-18 मपि सम्मतमरविन्दमेव पङ्कजमिति अतस्तत्र संमततया पङ्कजशब्दः सत्यः कुवलयादावसत्योऽसंमतत्वादिति, 'ठवपाण'त्ति स्थाप्यत इति स्थापना यलेप्यादिकम्मोहदादिविकल्पेन स्थाप्यते तद्विषये सत्यं स्थापनासत्यं, यथा अजिनोऽपि जिनोऽयमनाचार्योऽप्याचार्योऽयमिति, 'नामेंति नाम-अभिधानं तत्सत्यं नामसत्यं, यथा कुलमवर्द्धयन्नपि कुलवर्द्धन | उच्यते एवं धनवर्द्धन इति, 'रूखेति रूपापेक्षया सत्यं रूपसत्यं, यथा प्रपञ्चयतिः प्राजितरूपं धारयन् प्रत्रजित उच्यते न चासत्यताऽस्येति, 'पडुचसचे य'त्ति प्रतीत्य-आश्रित्य वस्त्वन्तरं सत्यं प्रतीत्यसत्यं, यथा अनामिकाया दीर्घत्वं इस्वत्वं चेति, तथाहि-तस्थानन्तपरिणामस्य द्रव्यस्य तत्तत्सहकारिकारणसन्निधाने तत्तद्रूपमभिव्यज्यत इति सत्यता, 456456-450- ACAKACCAGACOCCALCOC+ गाथा दीप अनुक्रम [९३८-९४२] FACE E aton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~412~ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४१] + गाथा: अस्त्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [७४१] ACH श्रीस्थाना- ववहार'त्ति व्यवहारेण सत्यं व्यवहारसत्यं, यथा दह्यते गिरिः गलति भाजनं, अयं च गिरिगततृणादिदाहे व्यवहारका १० स्थाना. प्रवर्तते, उदके च गलति सतीति, 'भाव'त्ति भावं-भूयिष्ठशुक्लादिपर्यायमाश्रित्य सत्यं भावसत्यं, यथा शुक्ला बला- उद्देशः३ 14केति, सत्यपि हि पञ्चवर्णसम्भवे शुक्वोत्कटत्वात् शुक्लेति, 'जोगे'त्ति योगतः-संवन्धतः सत्यं योगसयं, यथा दण्ड-18 सत्याचा योगाद् दण्डः छत्रयोगाच्छत्र एवोच्यत इति, दशममौपम्यसत्यमिति उपमैवीपभ्यं तेन सत्यमौपम्यसत्यं यथा समु-13 भाषा: ॥४९॥ द्रवत्तडागं देवोऽयं सिंहस्त्वमिति, सर्वत्रैकारः प्रथमैकवचनार्थो द्रष्टव्य इहेति । सत्यविपक्षं मृपाह-दसे'त्यादि, 'मो- सू०७४१ सेत्ति प्राकृतत्वात् मृषाऽनृतमित्यर्थः, 'कोहे गाहा, 'कोहे'त्ति क्रोधे निश्रितमिति सम्बन्धात् क्रोधाश्रितं-कोपाश्रितं मृपेत्यर्थः, तच्च यथा क्रोधाभिभूतः अदासमपि दासमभिधत्त इति, माने निश्रितं यथा मानाध्मातः कश्चित् केनचिदल्पधनोऽपि पृष्टः सन्नाह-महाधनोऽहमिति, 'माय'त्ति मायायां निश्रितं यथा मायाकारप्रभृतय आहुः-'नष्टो गोलका' इति, 'लोभेति लोभे निश्रितं वणिप्रभृतीनामन्यथाक्रीतमेवेत्थं क्रीतमित्यादि, 'पिज्ज'त्ति प्रेमणि निश्चितं | अतिरक्तानां दासोऽहं तवेत्यादि, 'तहेव दोसे यत्ति द्वेषे निश्रितं, मत्सरिणां गुणवत्यपि निर्गुणोऽयमित्यादि, 'हासे'त्ति हासे निश्रितं यथा कन्दर्पिकाणां कस्मिंश्चित्कस्यचित्सम्बन्धिनि गृहीते पृष्टानां न दृष्टमित्यादि, 'भये'त्ति भयनिश्रित तस्करादिगृहीतानां तथा तथा असमञ्जसाभिधानं, 'अक्खाइय'त्ति आख्यायिकानिश्रितं तत्प्रतिबद्धोऽसत्प्रलापः, 'उव-18 घायनिस्सिए'त्ति उपघाते-प्राणिषधे निश्रितं-आश्रितं दशमं मृषा, अचौरे चोरोऽयमित्यभ्याख्यानवचनं, मृषाशब्द-18| 1 ॥४९ ॥ स्त्वव्यय इति । सत्यासत्ययोगे मिश्रं वचनं भवतीति तदाह-'दसे'त्यादि, सत्यं च तन्मृषा चेति प्राकृतत्वात् सच्चा गाथा % + 7 दीप अनुक्रम [९३८-९४२] 4565E SamEaucatunintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~413~ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४१] + गाथा: प्रत सूत्रांक [७४१] ॐॐॐ5453 मोसंति, 'उप्पन्नमीसए'त्ति उत्सन्नविषयं मिश्र-सत्यामृषा उत्पन्न मित्रं तदेवोत्पन्नमिश्रक, यथैकं नगरमधिकृत्यास्मिन्नद्य दश दारका उत्पन्ना इत्यभिदधतस्तन्यूनाधिकभावे व्यवहारतोऽस्य सत्यामृपात्वात् , श्वस्ते शतं दास्यामीत्यभिधाय पञ्चाशत्यपि दत्तायां लोके मृषात्यादर्शनादनुत्पन्नेष्वेवादत्तेष्वेव वा मृपात्वसिद्धेः, सर्वथा क्रियाऽभावेन सर्वथा व्यत्ययाद्, एवं विगतादिष्यपि भावनीयमिति १, 'विगतमीसए'त्ति विगतविषयं मिश्रकं विगतमिश्रक, यथैकं ग्राममधिकृत्यास्मिनद्य दश वृद्धा विगता इत्यभिदधतो न्यूनाधिकभावे मिश्रमिति २, 'उप्पन्नविगयमीसए'त्ति उत्पन्नं च विगतं च उत्पन्नविगते तद्विषयं मिश्रकं उत्पन्नविगतमिश्रक, यथैकं पत्तनमधिकृत्यास्मिन्नद्य दश दारका जाताः दश च वृद्धा विगता इत्यभिदधतस्तन्यूनाधिकभाव इति ३, 'जीवमीसए'त्ति जीवविषयं मिश्र-सत्यासत्यं जीवमिश्र, यथा जीवन्मृतकृमिराशी जीवराशिरिति ४, "अजीवमीसए'त्ति अजीवानाश्रित्य मिश्रमजीवमिश्र, यथा तस्मिन्नेव प्रभूतमृतकृमिराशावजीव राशिरिति ५, 'जीवाजीवमिस्सए'त्ति जीवाजीवविषयं मिश्रकं जीवाजीवमिश्रक यथा तस्मिन्नेव जीवन्मृतकृमिराशी ४ प्रमाणनियमेनैतावन्तो जीवन्त्येतावन्तश्च मृता इत्यभिदधतस्तन्यूनाधिकत्वे ६, 'अणंतमीसएति अनन्तविषयं मिश्र कमनन्तमिश्रकं यथा मूलकन्दादौ परीतपत्रादिमत्यनन्तकायोऽयमित्यभिदधतः ७, 'परित्तमिस्सएत्ति परीत्तविषयं मिश्रक परीत्तमिश्रकं यथा अनन्तकायले शवति परीते परीत्तोऽयमित्यभिदधतः८,'अद्धामिस्सए'त्ति कालविषयं सत्यासत्यं यथा कश्चित् कस्मिंश्चित्प्रयोजने सहायांस्स्वरयन् परिणतप्राये वा वासरे एव रजनी वर्तत इति ब्रवीति ९, 'अद्वद्धामीसपत्ति अद्धा-दिवसो रजनी वा तदेकदेशः प्रहरादिः अद्धद्धा तद्विषयं मिश्रक-सत्यासत्यं अद्धाद्धामिश्रक, यथा CRORS गाथा दीप अनुक्रम [९३८-९४२] Editor पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~414~ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४१] + गाथा: श्रीस्थाना- प्रत सूत्रांक [७४१] वृत्तिः दृष्टिवाद * ॥४९ ॥ ARCISEASCACC -4. कश्चित् कस्मिंश्चित्प्रयोजने प्रहरमात्र एवं मध्याह इत्याह । भाषाधिकारात् सकलभाषणीयार्थव्यापकं सत्यभाषारूपं दृष्टि- १०स्थाना. वाद पर्यायतो दशधाऽह उद्देश:३ विहिवायरस णं दस नामधेजा पं० त०-विहिवातेति वा हेउवातेति वा भूषवातेति वा तथावातेति वा सम्मावातेति वा धम्मावातेति पा भासाविजतेति वा पुबगतेति वा अणुजोगगतेति वा सबपाणभूतजीवसत्तसुहावहेति वा (सू० ७४२) | नामानि 'विट्ठी'त्यादि, रटयो दर्शनानि वदनं वादः दृष्टीनां वादो दृष्टिवाद: दृष्टीनां वा पातो यस्मिन्नसौ दृष्टिपातः, सर्व-18 सू०७४२ नयरष्टय इहाण्यायन्त इत्यर्थः, तस्य दश नामधेयानि नामानीत्यर्थः, तद्यथा-दृष्टिवाद इति प्रतिपादितमेव, इतिशब्द| उपप्रदर्शने वाशब्दो विकल्पे, तथा हिनोति-गमयति जिज्ञासितमर्थमिति हेतुः-अनुमानोत्थापकं लिङ्गमुपचारादनुमानमेव | वा तद्वादो हेतुवादः, तथा भूताः-सद्भूताः पदार्थास्तेषां वादो भूतवादः, तथा तत्वानि-वस्तूनामैदम्पर्याणि तेषां वादस्तत्त्ववादस्तथ्यो वा-सत्यो बादस्तथ्यवादः, तथा सम्यम्-अविपरीतो वादः सम्यग्वादः, तथा धर्माणां-वस्तुपर्यायाणां | धर्मस्य वा-चारित्रस्य वादो धर्मवादः, तथा भाषा-सत्यादिका तस्या विचयो-निर्णयो भाषाविचयः, भाषाया वा-पाचो विजयः-समृद्धियस्मिन् स भाषाविजयः, तथा सर्वश्रुतात्पूर्व क्रियंत इति पूर्वाणि-उत्पादपूर्वादीनि चतुर्दश तेषु गतःअभ्यन्तरीभूतस्तत्स्वभाव इत्यर्थ इति पूर्वगतः, तथाऽनुयोगः-प्रथमानुयोगस्तीर्थकरादिपूर्वभवादिव्याख्यानग्रन्थो गण्डि-IN कानुयोगश्च भरतनरपतिवंशजानां निर्वाणगमनानुत्तरविमानवक्तव्यताव्याख्यानग्रन्ध इति द्विरूपेऽनुयोगे गतोऽनुयोग-IMIn४९ |गतः, एती च पूर्वगतानुयोगगती दृष्टिवादांशावपि दृष्टिवादतयोक्ती अवयवे समुदायोपचारादिति, तथा सर्वे--विश्वे ते गाथा दीप अनुक्रम [९३८-९४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~415~ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७४२] दीप अनुक्रम [९४३] Education [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ७४२ ] स्थान [१०], उद्देशक [-], च ते प्राणाश्च द्वीन्द्रियादयो भूताश्च-तरवः जीवाश्च पञ्चेन्द्रियाः सत्त्राश्च पृथिव्यादयः इति द्वन्द्वे सति कर्म्मधारयः, ततस्तेषां सुखं शुभं वा आवहतीति सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वसुखावहः, सुखावहत्वं च संयमप्रतिपादकत्वात् सत्वानां निर्वाणहेतुत्वाच्चेति । प्राणादीनां सुखावहो दृष्टिवादोऽशस्त्ररूपत्वात् शस्त्रमेव हि दुःखावहमिति शस्त्रप्ररूपणायाह इसविधे सत्थे पं० सं०—'सत्यमग्गी १ विसं २ लोणं ३, सिणेहो ४ खार ५ मंत्रिलं ६ । दुप्पउत्तो मणो ७ वाया ८, काया ९ भावो व अविरती १० ॥ १ ॥ दसविहे दोसे पं० तं० तज्जातदोसे १ मतिभंगदोसे २ पसस्थारदोसे ३ परिहरणदो से ४ | लक्खण ५ कारण ६ उदोसे ७, संकामणं ८ निगह ९ वत्थुदोसे १० ॥ १ ॥ दसविधे बिसेसे पं० [सं०] १ तज्जातदोसे २ त दोसे एगद्विनेति ३ त कारणे ४ त पडुप्पण्जे ५, दोसे ६ निबे ७ हिअट्टमे ८ ॥ १ ॥ अत्तणा ९ उबणीते १० ४, विसेसेति व ते दस || ( सू० ७४३ ) 'दसे त्यादि, शस्यते-हिंस्यते अनेनेति शस्त्रं, 'सत्थं' सिलोगो, शस्त्रं-हिंसकं वस्तु, तब द्विधा द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतस्तावदुच्यते-अग्निः-अनलः, स च विसदृशानलापेक्षया स्वकायशखं भवति, पृथिव्याद्यपेक्षया तु परकावशस्त्रं १ विपं स्थावरजङ्गमभेदं २ लवणं-प्रतीतं १ स्नेहः तैलघृतादि ४ क्षारो-भस्मादि ५ अम्लं काखिकं ६ 'भावों यत्ति इह द्रष्टव्यं तेन भावो भावरूपं शस्त्रं, किं तदित्याह- दुष्प्रयुक्तं - अकुशलं मनो-मानसं ७ बाग-वचनं दुष्प्रयुक्ता ८ कायश्च शरीरं दुष्प्रयुक्त एव ९, इह च कायस्य हिंसाप्रवृत्ती खड्गादेरुपकरणत्वात् कायग्रहणेनैव तद्ब्रहणं द्रष्टव्यमिति, अविरतिश्च-अप्रत्याख्यानमथवा अविरतिरूपो भावः शस्त्रमिति १० । अविरत्यादयो दोषाः शस्त्रमित्युक्तमिति दोष Far Far & Fran पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] ~416~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४३] + गाथा (०३) प्रत सूत्रांक [७४३] गाथा श्रीस्थाना- प्रस्तावाद्दोषविशेषनिरूपणायाह-'दसविहे'त्यादि, 'तज्जायेंत्यादि वृत्तं, एते हि गुरुशिष्ययोर्वादिप्रतिवादिनोर्वा वादा-14१० स्थाना. अस्त्र- श्रया इव लक्ष्यन्ते, तत्र तस्य गुवोदेजांत-जातिः प्रकारो वा जन्ममर्मकर्मादिलक्षणः तज्जातं तदेव दूषणमितिकृत्या उद्देशः ३ दोषस्तज्जातदोषः, तथाविधकुलादिना दूषणमित्यर्थः, अथवा तस्मात्-प्रतिवाद्यादेः सकाशाजातः क्षोभान्मुखस्तम्भादि- शस्त्रदोष लक्षणो दोषस्तजातदोषः १ तथा स्वस्यैव मतेः-बुद्धेर्भङ्गो-विनाशो मतिभङ्गो-विस्मृत्यादिलक्षणो दोषो मतिभङ्गदोपः २, विशेषः ॥४९२॥ तथा प्रशास्ता-अनुशासको मर्यादाकारी सभानायकः सभ्यो वा तस्माद् द्विष्टादुपेक्षकाद्वा दोषः प्रतिवादिनो जयदा-15सू०७४३ नलक्षणो विस्मृतप्रमेयप्रतिवादिनः प्रमेयस्मारणादिलक्षणो वा प्रशास्तृदोषः ३, इह त्थाशब्दो लघुश्रुतिरिति, तथा परिहरणं-आसेवा स्वदर्शनस्थित्या लोकरुया वा अनासेव्यस्य तदेव दोषः परिहरणदोषः, अथवा परिहरण-अनासेवन सभारूढया सेव्यस्य वस्तुनस्तदेव तस्माद्वा दोषः परिहरणदोषः अथवा वादिनोपन्यस्तस्य दूपणस्य असम्यकपरिहारो जात्युत्तरं परिहरणदोष इति, यथा बौद्धेनोक्तमनित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवदिति, अव मीमांसकः परिहारमाह-ननु | शीघटगतं कृतकत्वं शब्दस्यानित्यत्वसाधनायोपन्यस्यते शब्दगतं वा, यदि घटगतं तदा तच्छब्दे नास्तीत्यसिद्धता हेतोः, अथ शब्दगतं तन्नानित्यत्वेन व्याप्तमुपलब्धमित्यसाधारणानकान्तिको हेतुरित्ययं न सम्यक् परिहार, एवं हि सर्वानुमानोच्छेदप्रसङ्गः, अनुमानं हि साधनधर्ममात्रात् साध्यधर्ममात्रनिर्णयात्मकं, अन्यथा धूमादनलानुमानमपि न सियेत्, तथाहि-अग्निरत्र धूमायथा महानसे, अत्र विकल्प्यते-किमत्रेतिशब्दनिर्दिष्टपर्वतकप्रदेशादिगतधूमोऽग्निसाधनायो X ॥४९२॥ पात्तः उत महानसगतो, यदि पर्वतादिगतः सोऽग्निना न व्याप्तः सिद्ध इत्यासाधारणानकान्तिको हेतुः, अथ महान दीप 1-56499296 अनुक्रम [९४४-९४९] CamEauratomitimational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~417~ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४३] + गाथा (०३) प्रत सूत्रांक [७४३] सगतस्तदा नासौ पर्वतकदेशे वर्तत इत्यसिद्धो हेतुरिति अयं परिहरणदोष इति ४, तथा लक्ष्यते-तदन्यव्यपोहेनावधार्यते वस्स्वनेनेति लक्षणं स्वं च तलक्षणं च स्वलक्षणं यथा जीवस्योपयोगो यथा वा प्रमाणस्य स्वपरावभासकज्ञानत्वं ५, तथा करोतीति कारणं-परोक्षार्थनिर्णयनिमित्तमुपपत्तिमात्रं यथा निरुपमसुखः सिद्धो ज्ञानानावाधप्रकर्षात्, नात्र किल सकललोकमतीतः साध्यसाधनधानुगतो दृष्टान्तोऽस्तीत्युपपत्तिमात्रता ६, दृष्टान्तसद्भावेऽस्यैव हेतुव्यपदेशः स्यात्, तथा हिनोति-गमयतीति हेतुः साध्यसद्भावभावतदभावाभावलक्षणः, ततश्च स्वलक्षणादीनां इन्द्रः, तेषां दोषः स्वलक्षणकारणहेतुदोषः, इह काशब्दः छन्दोऽथ द्विर्बद्धो ध्येयः ७, अथवा सह लक्षणेन यी कारणहेतू तयो-| दोष इति विग्रहः तत्र लक्षणदोषोऽव्याप्तिरतियाप्तिर्वा, तत्राव्याप्तिर्यथा यस्यार्थस्य सन्निधानासन्निधानाभ्यां ज्ञानप्रतिभासभेदस्तरस्वलक्षणमिति, इदं स्वलक्षणलक्षणं, इदं चेन्द्रियप्रत्यक्षमेबाश्रित्य स्यात् न योगिज्ञानं, योगिज्ञाने हि न || सन्निधानासन्निधानाभ्यां प्रतिभासभेदोऽस्तीत्यतस्तदपेक्षया न किश्चित्स्वलक्षणं स्यादिति, अतिव्याप्तिर्यथा अर्थोपलब्धि-४ हेतुः प्रमाणमिति प्रमाणलक्षणं, इह चार्थोपलब्धिहेतुभूतानां चक्षुर्दध्योदनभोजनादीनामानन्त्येन प्रमाणेयत्ता न स्यात्, अथवा दार्शन्तिकोऽर्थो लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षण-दृष्टान्तस्तद्दोषः-साध्यविकलत्वादिः, तत्र साध्यविकलता यथा नित्यः शब्दो मूर्तत्वाद् घटवद्, इह घटे नित्यत्वं नास्तीति कारणदोपः साध्यं प्रति तद्व्यभिचारो यथा अपौरुषेयो वेदो X वेदकारणस्याश्रूयमाणत्वादिति, अश्रूयमाणत्वं हि कारणान्तरादपि सम्भवतीति हेतुदोषोऽसिद्धविरुद्धानकान्तिकत्व-| लक्षणः, तत्रासिद्धों यथाऽनित्यः शब्दश्चाक्षुषत्वाद् घटवदिति, अत्र हि चाक्षुषत्वं शब्दे न सिद्ध, विरुद्धो यथा नित्यः शब्द-12 AA%84%25 गाथा दीप अनुक्रम [९४४-९४९] E aton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~418~ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [ ७४३] + गाथा दीप अनुक्रम [९४४ -९४९] श्रीस्थाना सूत्र वृत्तिः ॥ ४९३ ॥ * [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-1, मूलं [७४३] + गाथा कृतकत्वात् घटवद्, इह घंटे कृतकत्वं नित्यत्वविरुद्धमनित्यत्वमेव साधयतीति, अनैकान्तिको यथा नित्यः शब्दः प्रमे यत्वादाकाशव, इह हि प्रमेयत्वमनित्येष्वपि वर्त्तते, ततः संशय एवेति ७ तथा सङ्क्रामणं प्रस्तुतप्रमेयेऽप्रस्तुतप्रमेयस्य प्रवेशनं प्रमेयान्तरगमनमित्यर्थः अथवा प्रतिवादिमते आत्मनः संक्रामणं परमताभ्यनुज्ञानमित्यर्थः तदेव दोष इति ८, तथा निग्रहः-छलादिना पराजयस्थानं स एव दोषो निग्रहदोष इति, तथा वसतः साध्यधर्मसाधन धर्मावत्रेति वस्तु-प्रकरणात् पक्षस्तस्य दोषः - प्रत्यक्षनिराकृतत्वादिः, यथा अश्रावणः शब्दः शब्दे ह्यश्रावणत्वं प्रत्यक्षनिराकृतमिति । एतेषामेव तज्जातादिदोषाणां सामान्यतोऽभिहितानां तदन्येषां चार्थानां सामान्यविशेषरूपाणां सतां विशेषाभिधानायाह'दसे त्यादि, विशेषो भेदो व्यक्तिरित्यनर्थान्तरं, 'वत्थु' इत्यादिः सार्द्धः श्लोकः, वस्थिति प्राक्तन सूत्रस्यान्तोको यः पक्षः, 'तज्ज्ञात' मिति तस्यैवादावुक्तं प्रतिवाद्यादेर्जात्यादि तद्विषयो दोषो वस्तुतज्जातदोषः, तत्र वस्तुदोषः -पक्षदोषस्त| ज्ञातदोषश्च जात्यादिहीलनमेतौ च विशेषौ दोषसामान्यापेक्षया, अथवा वस्तुदोषे वस्तुदोषविषये विशेषो-भेदः प्रत्यक्षनिराकृतत्वादिः, तत्र प्रत्यक्षनिराकृतो यथा अश्रावणः शब्दः, अनुमाननिराकृतो यथा नित्यः शब्दः, प्रतीतिनिराकृतो यथा अचन्द्रः शशी, स्ववचननिराकृतो यथा यदहं वच्मि तन्मिथ्येति, लोकरूढिनिराकृतो यथा शुचि नरशिर:कपालमिति, तज्जातदोषविषयेऽपि भेदो जन्ममर्मकर्मादिभिः, जन्मदोषो यथा - "कलवाए घोडीए जाओ जो गद्दहेण छूढेण । तस्स महायणमज्झे आयारा पायडा होंति ॥ १ ॥” [ कच्छूलायां वडवायां यो गदर्भेन क्षिप्तेन जातः । तस्य महाजनमध्ये आकाराः प्रकटा भवन्ति ॥ १ ॥ ] इत्यादिरनेकविधः २, चकारः समुचये, तथा 'दोसे'ति पूर्वोक FarForPrsten १० स्थाना. उद्देशः ३ शखदोष विशेषः सू० ७४३ ~ 419~ ॥ ४९३ ॥ way com पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र - [ ०३] अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-1, मूलं [७४३] + गाथा (०३) S % प्रत % सूत्रांक [७४३] 15-5- गाथा सूत्रे ये शेपा मतिभङ्गादयोऽष्टाचुक्तास्ते दोषा दोषशब्देनेह सङ्गहीताः, ते च दोषसामान्यापेक्षया विशेषा भवन्त्येवेति दोषो-विशेषः, अथवा 'दोसे'त्ति दोषेषु-शेषदोषविषये विशेषो-भेदः, सचानेकविधः स्वयमूह्यः ३, 'एगट्ठिए यत्ति एकश्चासावर्थश्च-अभिधेयः एकार्थः स यस्यास्ति स एकार्थिकः एकार्थवाचक इत्यर्थः, इति:-उपप्रदर्शने चः समुच्चये, सच शब्दसामान्यापेक्षयकार्थिको नाम शब्दविशेषो भवति, यथा घट इति, तथा अनेकाथिको यथा गौः, यथोक-दिशि १ हशि२ वाचि ३ जले ४ भुवि ५ दिवि ६ वजे ७ उंशी ८ पशौ ९च गोशन्दः" इति, इहैकाधिकविशेषग्रहणेनानेका-16 थिकोऽपि गृहीतस्तद्विपरीतत्वात्, न चेहासौ गण्यते, दशस्थानकानुरोधात्, अथवा कथञ्चिदेकाथिके शब्दग्रामे यः कथञ्चिद्देदः स विशेषः स्यादिति प्रक्रमः, 'इय'त्ति पूरणे, यथा शकः पुरन्दर इत्यत्रैकार्थे शब्दद्वये शकनकाल एव शक्रः18 हपूरणकाल एव पुरन्दरः एवंभूतनयादेशादिति, अथवा दोषशब्द इहापि सम्बयते, ततश्च,न्यायोजहणे शब्दान्तरा |पेक्षया विशेष इति ४, तथा कार्यकारणात्मके वस्तुसमूहे कारणमिति विशेषः, कार्यमपि विशेषो भवति, न चेहोक्को, दशस्थानकानुवृत्तेः, अथवा कारणे-कारणविषये विशेषो-भेदो यथा परिणामिकारणं मृपिण्डः, अपेक्षाकारणं दिग्देशकाला-18 काशपुरुषचक्रादि, अथवोपादानकारण-मृदादि निमित्तकारणं-कुलालादि सहकारिकारणं-चक्रचीवरादीत्यनेकधा कारणं, अथवा दोपशब्दसम्बन्धात् पूर्वव्याख्यातः कारणदोषो दोषसामान्यापेक्षया विशेष इति चः समुच्चये, तथा प्रत्युत्पन्नोवार्त्तमानिकः अभूतपूर्व इत्यर्थः दोषः-गुणेतरः, स चातीतादिदोषसामान्यापेक्षया विशेषः५, अथवा प्रत्युत्पन्ने-सर्वथा वस्तु न्यभ्युपगते विशेषो यो दोषोऽकृताभ्यागमकृतविप्रणाशादिः स दोषसामान्यापेक्षया विशेष इति ६, तथा नित्यो यो दोपोड-Cl स्थाa SESASARAMER दीप अनुक्रम [९४४-९४९] ET पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~420~ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४३] + गाथा प्रत T सूत्रांक [७४३] गाथा श्रीस्थाना- भव्यानां मिथ्यात्वादिरनाद्यपर्यवसितत्वात् स दोषसामान्यापेक्षया विशेषोऽथवा सर्वथा नित्ये वस्तुन्यभ्युपगते यो दोषो||१०स्थाना. इसूत्र बालकुमारायवस्थाऽभावापत्तिलक्षणः स दोषसामान्यापेक्षया दोषविशेष इति ७, तथा 'हिअट्ठमे'त्ति अकारप्रश्लेषाद- उद्देशः ३ वृत्तिः धिक-वादकाले यसरप्रत्यायनं प्रत्यतिरिक्तं दृष्टान्तनिगमनादि तदोषः, तदन्तरेणैव प्रतिपाद्यप्रतीतेस्तदभिधानस्था- चकाराद्य॥ ४९४॥ नर्थकत्वादिति, आह च-"जिणवयणं सिद्धं चेव भन्नए कत्थई उदाहरणं । आसज्ज उ सोयारं हेऊधि कहिंचि भानुयोगः नेजा ॥१॥ तथा-कथइ पंचावयवं दसहा वा सब्वहा न पडिकुटुं।" इति [जिनवचनं सिद्धमेव तथापि कचिदुदा- सू०७४४ हरणं भव्यते श्रोतारमासाद्य हेतुमपि कुत्रापि कथयेत् ॥१॥ कुत्रचिपंचावयवं दशधा वा सर्वथा न प्रतिकुष्टं ॥] ततश्चाधिकदोषो दोषविशेषत्वाद्विशेष इति, अथवाऽधिके दृष्टान्तादौ सति यो दोषो-दूपणं वादिनः सोऽपि दोषविशेष एव, अयं चाष्टम आदितो गण्यमान इति ८, 'अत्तण'त्ति आत्मना कृतमिति शेषः, तथा उपनीतं-प्रापितं परेणेति शेषः, वस्तुसामान्यापेक्षयाऽऽत्मकृतं च विशेषः, परोपनीतं चापरो विशेष इति भावः९, चकारयोर्विशेषशब्दस्य च प्रयोगो की भाषनावाक्ये दर्शितः, अथवा दोषशब्दानुवृत्तेरात्मना कृतो दोषः परोपनीतश्च दोष इति, दोषसामान्यापेक्षया विशेपावेतौ इति, एवं ते विशेषा दश भवन्तीति, इहादर्शपुस्तकेषु 'निजेऽहिअट्टमे'त्ति दृष्टं, न च तथाऽष्टी पूर्यन्त इति, लोनिचे इति व्याख्यात, इहोक्तरूपा विशेषादयो भावा अनुयोगगम्याः, अनुयोगश्चार्थतो बचनतक्ष, तत्राथेतो यथा-"अ-19 हिंसा संजमो तवो" इत्यत्राहिंसादीनां स्वरूपभेदप्रतिपादनं, वचनानुयोगस्त्वेषामेव शब्दाश्रितो विचार इति, तदिह ॥ ४९४॥ वचनानुयोगं भेदत आह दीप Ok6ASIC काऊ अनुक्रम [९४४-९४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~421~ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४४] प्रत सूत्रांक [७४४] 5-5345%256545454545%8 दसविधे सुद्धावाताणुओगे पं० २०-कारे १ मंकारे २ पिंकारे ३ सेतंकारे ४ सातकरे ५ एगत्ते ६ पुत्ते ७ संजहे ८ संकामिते ९ मिन्ने १० (सू०७४४) 'दसेत्यादि, शुद्धा-अनपेक्षितवाक्यार्थी या वाक्-वचनं सूत्रमित्यर्थः तस्या अनुयोगो-विचारः शुद्धवागनुयोगः, सूत्रे च अपुंवद्भावः प्राकृतत्वात् , तत्र चकारादिकायाः शुद्धवाचो योऽनुयोगः स चकारादिरेव व्यपदेश्यः, तत्र 'चंकारे'त्ति अत्रानुस्वारोऽलाक्षणिको यथा 'सुंके सर्णिचरे' इत्यादो, ततश्चकार इत्यर्थः, तस्य चानुयोगो, यथा चशब्दः समाहारेतरे तरयोगस मुच्चयान्वाचयावधारणपादपूरणाधिकवचनादिष्विति, तत्र “इत्थीओ सयणाणि य" इति, इह सूत्रे चकारः & समुच्चयार्थः स्त्रीणां शयनानां चापरिभोग्यतातुल्यतत्वप्रतिपादनार्थः १, 'मंकारे'त्ति मकारानुयोगो यथा 'समणं व मा हणं वा' इतिसूत्रे माशब्दो निषेधे, अथवा 'जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेवे'त्यत्र सूत्रे जेणामेव इह मकार आग-8 मिक एव, येनैवेत्यनेनैव विवक्षितप्रतीतेरिति २, 'पिंकारें'त्ति अकारलोपदर्शनेनानुस्वारागमेन चापिशब्द उक्तस्तदनुयोगो यथा अपि सम्भावनानिवृत्त्यपेक्षासमुच्चयगर्हाशिष्यामर्षणभूषणप्रश्नेविति, तत्र 'एवंपि एगे आसासे' इत्यत्र सूत्रे एकमपि अन्यथाऽपीति प्रकारान्तरसमुच्चयार्थोऽपिशब्द इति ३, 'सेयंकरत्ति इहाप्यंकारोऽलाक्षणिकस्तेन सेकार इति, तदनुयोगो यथा 'से भिक्खू धे'त्यत्र सूत्रे सेशब्दोऽथार्थः, अथशब्दश्च प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेष्वित्यानन्तर्याः सेशब्द इति, क्वचिदसावित्यर्थः, कचित्तस्येत्यर्थः, अथवा 'सेयंकार' इति श्रेय इत्येतस्य करणं श्रेयस्कारः, श्रेयस उच्चारणमित्यर्थः, तदनुयोगो यथा 'सेयं मे अहिजिउ अज्झयण मित्यत्र सूत्रे श्रेयः-अतिशयेन प्रशस्य दीप अनुक्रम [९५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~422~ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४४] प्रत सूत्रांक [७४४] श्रीस्थाना-कल्याणमित्यर्थः, अथवा 'सेयकाले अकर्म वावि भवई'त्यत्र सेयशब्दो भविष्यदर्थः ४, 'सायंकारे'त्ति सायमिति निपातः ८१० स्थाना. गसूत्र सत्यार्थस्तस्माद् 'वर्णात्कार इत्यनेन छान्दसत्वात्कारप्रत्ययः करणं वा कारस्ततः सायंकार इति तदनुयोगो यथा सत्य उद्देशः ३ वृत्तिः तथावचनसद्भावप्रश्नेविति, एते च चकारादयो निपातास्तेषामनुयोगभणनं शेषनिपातादिशब्दानुयोगोपलक्षणार्थमिति ५, चकाराद्य 'एगत्तेत्ति एकत्वमेकवचनं तदनुयोगो यथा 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग' इत्यत्रैकवचनं सम्यग्दर्शनादीनां समु- नुयोगः ॥४९५॥ दितानामेबैकमोक्षमार्गवख्यापनार्थं, असमुदितत्वे त्वमोक्षमार्गति प्रतिपादनार्थमिति ६, 'पुहुत्ते'त्ति पृथक्त्व-भेदो सू०७४४ द्विवचनबहुवचने इत्यर्थः, तदनुयोगो यथा 'धम्मस्थिकाये धम्मत्थिकायदेसे धम्मत्थिकायप्पदेसा' इह सूत्रे धर्मास्तिकायप्रदेशा इत्येतद्वहुवचनं तेषामसङ्ख्यातत्वख्यापनार्थमिति ७, 'संजूहे'त्ति सङ्गतं-युक्तार्थ यूध-पदानां पदयोर्वा समूहः। संयूथं, समास इत्यर्थः, तदनुयोगो यथा 'सम्यग्दर्शनशुद्ध सम्यग्दर्शनेन सम्यग्दर्शनाय सम्यग्दर्शनाद्वा शुद्ध सम्यग्दर्शन-10 शुद्धमित्यादिरनेकधा इति ८, 'संकामिय'त्ति सङ्कामितं विभक्तिवचनायन्तरतया परिणामितं तदनुयोगो यथा-'साहूर्ण बंदणेणं नासति पावं असंकिया भावा' इह साधूनामित्येतस्याः षष्ठ्याः साधुभ्यः सकाशादित्येवं लक्षणं पञ्चमीत्वेन विपरिणामं कृत्वा अशकिता भावा भवन्तीत्येतत्पदं सम्बन्धनीयं, तथा “अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइत्ति वुच्चई" इत्यत्र सूत्रे न स त्यागीत्युच्यते इत्येकवचनस्य बहुवचनतया परिणामं कृत्वा न ते त्यागिन उच्यन्त इत्येवं पदघटना कार्येति ९, 'भिन्न'मिति क्रमकालभेदादिभिभिन्न-विसदृशं तदनुयोगो यथा-'तिविहं तिविहेण मिति सङ्ग्रहमुक्त्वा पुनः 'मणेण'-14 मित्यादिना तिविहेणंति विवृतमिति क्रमभिन्नं, क्रमेण हि तिविहमित्येतन्न करोम्यादिना विवृत्य ततखि विधेनेति विय-का॥ ४९५ ॥ दीप अनुक्रम [९५० पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~423~ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४४] प्रत सूत्रांक [७४४] दरणीयं भवतीति, अस्य च क्रमभिन्नस्यानु योगोऽयं यथाक्रमविवरणे हि यथासङ्ख्यदोषः स्यादिति तत्परिहारार्थ क्रमभेद, तथाहि-नं करोमि मनसा न कारयामि वाचा कुर्वन्तं नानुजानामि कायेनेति प्रसज्यते, अनिष्टं चैतत्प्रत्येकपक्षस्यैवेष्टत्वात्, तथाहि-मनःप्रभृतिभिर्न करोमि तैरेव न कारयामि तैरेव नानुजानामीति, तथा कालभेदोऽतीतादिनिर्देशे प्राप्ते वर्त्तमानादिनिर्देशो यथा जम्बूद्वीपप्रज्ञात्यादिषु ऋषभस्वामिनमाश्रित्य 'सके देविंदे देवराया वंदति नमसति'त्ति सूत्रे, तदनुयोगश्चाय-वर्तमाननिर्देशखिकालभाविष्वपि तीर्थकरेग्वेतन्यायप्रदर्शनार्थ इति, इदं च दोषादिसूत्रत्रयमन्यथापि विमर्शनीयं, गम्भीरत्वादस्येति । वागनुयोगतस्त्वानुयोगः प्रवर्तत इति दानलक्षणस्यार्थस्य भेदानामनुयोगमाह दसविहे दाणे पं० २०-अणुकंपा १ संगहे २ चेव, भये ३ कालुणितेति य ४ । लज्जाते ५ गारवेणं च ६, अहम्मे उण सत्तमे ७ ॥१॥ धम्म त अट्ठमे चुत्ते ८, काहीति त ९ कतंति त १० ॥ दसविधा गती पं०२०-निरयगती निरयविग्गहराई तिरियगती तिरियविहन्गगई एवं जाब सिद्धिगइ सिद्धिविग्गहगती (सू० ७४५) दस मुंडा पन्नत्ता पं० सं०-सोर्तिदितमुंडे जाव फासिंदितमुंडे कोहमुंडे जाव लोभमुंडे दसमे सिरमुंडे (सू०७४६) सविधे संखाणे पं० तं-परिकम १ ववहारो २ रज्जू ३ रासी ४ कलासबने ५ य। जावंतावति ६ वग्गो ७ घणो ८त तह वग वग्गो ९ वि ॥१॥ कप्पो त १० (सू० ७४७) 'दसे'त्यादि, 'अणुकंपे'त्यादि श्लोकः सार्द्ध', 'अनुकंपत्ति दानशब्दसम्बन्धादनुकम्पया-कृपया दानं दीनानाथविषयमनुकम्पादानमथवा अनुकम्पातो यद्दानं तदनुकम्पैवोपचारात्, उक्तं च वाचकमुख्यैरुमाखातिपूज्यपादैः-"कृ-12 SAKAKKAR दीप अनुक्रम [९५०] SINEauratoIH पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~424~ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४७] + गाथा: प्रत सूत्रांक [७४७] ॥४९६॥ भीस्थाना- पणेऽनाथदरिद्रे व्यसनप्राप्ते च रोगशोकहते । यद्दीयते कृपादनुकम्पा तद्भवेदानम् ॥१॥" सनणं सनहा-व्यसनादौ बा१०स्थाना. सहायकरणं तदर्थ दानं सत्रहदानं, अथवा अभेदाहानमपि सङ्ग्रह उच्यते, आह च-"अभ्युदये व्यसने वा यत्कि उद्देशः ३ चिदीयते सहायार्थम् । तत्समहतोऽभिमतं मुनिभिर्दानं न मोक्षाय ॥१॥” इति, तथा भयात् यदानं तत् भयदान, II | दानानि भयनिमित्तत्वाद्वा दानमपि भयमुपचाराद् इति, उक्तं च-"राजारक्षपुरोहितमधुमुखमावल्लदण्डपाशिषु च । यद्दीयते मुण्डाः संभयात्तिन्यदानं बुधैज्ञेयम् ॥१॥" इति ३, कालुणिए इय'त्ति कारुण्यं-शोकस्तेन पुत्रवियोगादिजनितेन तदी-1&ा ख्यान यस्यैव तल्पादेः स जन्मान्तरे सुखितो. भवत्वितिवासनातोऽन्यस्य वा यद्दानं तत्कारुण्यदानं, कारुण्यजन्यत्वाद्वा दान- सू०७४५&ामपि कारुण्यमुक्तमुपचारादिति ४, तथा 'लज्जया'हिया दानं यत्तल्लज्जादानमुच्यते, उक्तं च-"अभ्यर्थितः परेण तु यदान ७४७ जनसमूहमध्यगतः। परचित्तरक्षणार्थं लज्जायास्तद्भवेद्दानम् ॥१॥" इति, ५, 'गारवेणं च'त्ति गौरवेण-गर्वेण यद्दीयते तद् गौरवदानमिति, उक्तं च-"नटनर्त्तमुष्टिकेभ्यो दानं सम्बन्धिबन्धुमित्रेभ्यः । यद्दीयते यशोऽथ गर्वेण तु तद्भवेद्दानम् ॥१॥" ६, अधर्मपोषकं दानमधर्मदानं, अधर्मकारणत्वाद्वा अधर्म एवेति, उक्तं च-"हिंसानृतचौर्योद्यतपरदारपरिग्रहप्रसक्तेभ्यः । यद्दीयते हि तेषां तज्जानीयादधर्माय ॥१॥" इति ७, धर्मकारणं यत्तद्धर्मदानं धर्मे एव वा, उक्तं च-"समतृणमणिमुक्तेभ्यो यदानं दीयते सुपात्रेभ्यः । अक्षयमतुलमनन्तं तदानं भवति धर्माय ॥१॥" इति, ८.12 MI'काही इय'त्ति करिष्यति कश्चनोपकार ममायमितिबुद्ध्या यद्दानं तत्करिष्यतीति दानमुच्यते ९, तथा कृतं ममानेन तत्प्रयोजनमिति प्रत्युपकारार्थ यद्दानं तत्कृतमिति, उक्तं च-"शतशः कृतोपकारो दत्तं च सहस्रशो ममानेन । अह- ॥४९६॥ गाथा: दीप *555555 अनुक्रम [९५१-९५६] कर पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~425~ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४७] + गाथा: * * * प्रत सूत्रांक [७४७] मपि ददामि किश्चित्प्रत्युपकाराय तद्दानम् ॥ १॥” इति १० । उक्तलक्षणाद्दानाच्छुभाशुभा गतिर्भवतीति सामान्यतो गतिनिरूपणायाह-दसे'त्यादि, 'निरयगतित्ति निर्गता अयात्-शुभादिति निरया-नारकाः तेषां गतिर्गम्यमानत्वान्नरकगतिस्तद्गतिनामकर्मोदयसम्पाद्यो नारकत्वलक्षणः पर्यायविशेषो वेति नरकगतिः, तथा निरयाणा-नारकाणां | विग्रहातू-क्षेत्रविभागानतिक्रम्य गतिः-ामनं निरयविग्रहगतिः स्थितिनिवृत्तिलक्षणा ऋजुषक्ररूपा विहायोगतिकर्मापाद्या वेति, एवं तिर्यड्नरनाकिनामपीति, 'सिद्धिगति इति सिद्ध्यन्ति-निष्ठितार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धिः सा चासौ गम्यमानत्वात् गतिश्चेति सिद्धिगतिः-लोकाग्रलक्षणा, तथा 'सिद्धविग्गहगइ'त्ति सिद्धस्य-मुक्तस्य विग्रहस्य-आकाश विभागस्यातिकमेण गतिः-लोकान्तप्राप्तिः सिद्धविग्रहगतिरिति, विग्रहगतिर्वक्रगतिरप्युच्यते परं सिद्धस्य सा नास्तीति तत्साहचर्याचारकादीनामष्यसी न व्याख्यातेति, अथवा द्वितीयपदैर्नारकादीनां वक्रगतिरुक्ता, प्रथमैस्तु निबि|शेषणतया पारिशेष्यादृजुगतिः, 'सिद्धिगईत्ति सिद्धौ गमनं निर्विशेषणबाच्चानेन सामान्यासिद्धिगतिरुक्का, 'सिद्धि[विग्गहगइति सिद्धावविग्रहेण-अवक्रेण गमनं सिद्ध्यविग्रहगतिः, अनेन च विशेषापेक्षायां विशिष्टा सिद्धिगतिरुक्का, सामान्यविशेषविवक्षया चानयोर्भेद इति । सिद्धिगतिर्मुण्डानामेव भवतीति मुण्डनिरूपणायाह-दसे'त्यादि, मुण्ड-18 यति-अपनयतीति मुण्डः, स च श्रोत्रेन्द्रियादिभेदाद् दशधेति, शेषं सुगम । मुंडा दशेति सङ्ख्यानमतस्तद्विधय उच्यन्ते, 'दसे'त्यादि, 'परिकम्म गाहा, परिकर्म-संकलिताद्यनेकविध गणितज्ञप्रसिद्धं तेन यत्सायेयस्य सत्यानं-परिगणन| है तदपि परिकर्मेत्युच्यते १, एवं सर्वत्रेति, 'व्यवहारः' श्रेणीव्यवहारादिः पाटीगणितप्रसिद्धोऽनेकधा २, 'रज्जुत्ति, 45565555 गाथा: दीप अनुक्रम [९५१-९५६] SamEaucatunintamatam पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~4264 Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७४७] + गाथा: दीप अनुक्रम [९५१ ___९५६] श्रीस्थाना झसूत्र वृत्तिः ॥ ४९७ ॥ Education [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७४७] + गाथा: स्थान [१०], उद्देशक [-], * रजवा यत्सङ्ख्यानं तद्रज्जुरभिधीयते तच्च क्षेत्रगणितं ३, 'रासि'त्ति धान्यादेरुत्करस्तद्विषयं सङ्ख्यानं राशिः, स च पाठ्यां राशिव्यवहार इति प्रसिद्धः ४, 'कलासवन्ने य'ति कलानाम्-अंशानां सवर्णनं सवर्णः सवर्णः सदृशीकरणं यस्मिन् सयाने तत्कलासवर्ण ५, 'जावंतावह'त्ति 'जावं तावन्ति वा गुणकारोति वा एगट्ठे मिति वचनाद् गुणकारस्तेन यत्सधानं तत्तथैवोच्यते तच्च प्रत्युत्पन्नमिति लोकरूढं, अथवा यावतः कुतोऽपि तावत एव गुणकराद्याच्छिकादित्यर्थः यत्र विवक्षितं सङ्कलितादिकमानीयते तद्यावत्तावत्सङ्ख्यानमिति, तत्रोदाहरणम् -'गच्छो वाच्छाभ्यस्तो बान्छयुतो गच्छसगुणः कार्यः । द्विगुणीकृतवान्छहृते वदन्ति सङ्कलितमाचार्याः ॥ १ ॥' अत्र किल गच्छो दश १०, ते च वाञ्छया यादच्छिकगुणकारेणाष्टकेनाभ्यस्ताः जाताऽशीतिः, ततो वाञ्छायुतास्ते अष्टाशीतिः ८८, पुनर्गच्छेन दशभिः सङ्गुणिता अष्टौ शतान्यशीत्यधिकानि जातानि ८८०, ततो द्विगुणीकृतेन यादृच्छिक गुणकारेण षोडशभिर्भागे हृते यल्लभ्यते तदशानां सङ्कलितमिति ५५ इदं च पाटीगणितं श्रूयते इति ६ यथा वर्ग:-संख्यानं यथा द्वयोर्वर्गश्चत्वारः 'सदृशद्विराशिघात' इति वचनात् ७ 'घणो य'ति घनः सङ्ख्यानं यथा द्वयोर्धनोऽष्टौ 'समत्रिराशिहति' रिति वचनात् ८, 'वग्गवरगो'ति वर्गस्य वर्गो वर्गवर्गः, स च सङ्ख्यानं, यथा द्वयोर्वर्गश्चत्वारश्चतुर्णी वर्गः षोडशेति, अपिशब्दः समुच्चये ९, 'कप्पे यति गाथाधिकं तत्र कल्पः-छेदः क्रकचेन काष्ठस्य तद्विषयं सङ्ख्यानं कल्प एव यपाव्यां क्राकचव्यवहार इति प्रसिद्धमिति, इह च परिकर्म्मादीनां केषाञ्चिदुदाहरणानि मन्दबुद्धीनां दुरवगमानि भविष्यन्त्यतो न प्रदर्शितानीति १० । दश मुण्डा उक्तास्ते च प्रत्याख्यानतो भवन्तीति प्रत्याख्याननिरूपणायाह Fit Formal & Private १० स्थाना. उद्देशः ३ दानानि मुण्डाः संख्यानं सू० ७४५ ७४७ ~ 427 ~ ॥ ४९७ ॥ waniary op पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३] अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४८] प्रत सूत्रांक 6 [७४८] दसविध पाक्खाणे पं०-अणागव १ मतिकतं २ कोडीसहियं ३ नियंटितं ४ चेव । सागार ५ मणागार ६ परि माणकढं ७ निरवसेसं ८॥१॥ संकेयं ९ चेव अद्धाए १०, पचखाणं दसविहं तु ॥ (सू०७४८) 'दसविहे त्यादि प्रतिकूलतया आ-मर्यादया ख्यानं-प्रकथनं प्रत्याख्यानं निवृत्तिरित्यर्थः, 'अणागय गाहा सार्दा, 'अणागय'त्ति अनागतकरणादनागतं-पर्युषणादावाचार्यादिवैयावृत्त्यकरणान्तरायसद्भावादारत एव तत्तपःकरणमित्यर्थः, उकं च-"होही पज्जोसवणा मम य तया अंतराइयं होज्जा । गुरुवेयावच्चेण तवस्सि गेलनयाए वा ॥१॥ सो दाइ तवोकम्म पडिवजइ तं अणागए काले । एवं पञ्चक्खाणं अणागय होइ नायचं ॥२॥"[भविष्यति पर्युषणा मम च तदाऽऽन्तरायिक भविष्यति आचार्यस्य वैयावृत्त्येन तपस्विनो ग्लानतया वा ॥१॥ स तदा तपःकर्म प्रतिपद्यते तदतीते काले एतत्प्रत्याख्यानमनागतं भवति ज्ञातव्यं ॥२॥] १'अइकंतति एवमेवातीते पर्युषणादौ करणादतिकान्तं, आह च"पज्जोसवणाए तवं जो खलु न करेइ कारणजाए । गुरुवेयावच्चेणं तवस्सिगेलनयाए का ॥१॥ सो दाइ तवोकम्म पडिवज्जइ तं अइच्छिए काले । एवं पञ्चक्खाणं अइकंत होइ नायब्वं ॥२॥” इति [पर्युषणायां यः खलु तपो न करोति. कारणजातेन गुरुवयावृत्त्येन तपस्विनो ग्लानवैयावृत्त्येन वा ॥१॥ स तदा तपाकर्म प्रतिपद्यते तदतीते काले एतनत्याख्यानमतिकान्तं भवति ज्ञातव्यं ॥२॥] २, 'कोडीसहियंति कोटीभ्यां-एकस्य चतुर्थादेरन्तविभागोऽपरस्य है चतुर्थादेरेवारम्भविभाग इत्येवंलक्षणाभ्यां सहितं-मिलितं युक्तं कोटीसहितं मिलितोभयप्रत्याख्यानकोटेश्चतुर्थादेः करदाणमित्यर्थः, अभाणि च "पढवणओ उ दिवसो पञ्चक्खाणस्स निट्ठवणओ य । जहियं समिति दुन्नि उतं भन्नइ दीप अनुक्रम [९५७-९५८] E पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~428~ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४८] CG १०स्थाना. उद्देशः३ प्रत्याख्या. नानि सू०७४८ + प्रत सूत्रांक [७४८] श्रीस्थाना- कोडिसहियं तु ॥१॥ इति प्रत्याख्यानस्य प्रस्थापकनिष्ठापकदिवसौ द्वावपि यत्र समितस्तद्भण्यते कोटीसहितं ॥१॥ ३, सूत्र- 'नियंटियंति नितरां यत्रित-प्रतिज्ञातदिनादी ग्लानत्वाद्यन्तरायभावेऽपि नियमाकर्त्तव्यमिति हृदयं, एतच्च प्रथमसं- वृत्तिः हननानामेवेति, अभ्यधायि च-"मासे मासे य तवो अमुगो अमुगदिवसे य एवइओ । हटेण गिलाणेण व कायमचो जावं ऊसासो ॥१॥ एवं पञ्चक्खाणं नियंटियं धीरपुरिसपन्नत्तं । जं गिण्हंतऽणगारा अणिस्सियप्पा अपडिबद्धा ॥२॥ ॥४९८॥ दाचोदसपुन्वी जिणकप्पिएसु पढमंमि चेव संघयणे । एयं वोच्छिन्नं खलु थेरावि तया करेसीया ॥३॥इति, [मासि मासि चामुकं तपोऽमुकदिवसे इयन्तं कालं हृष्टेन वा ग्लानेन वा कर्त्तव्यं यावदुच्छासः॥१॥ एतन्नियंत्रितं धीरपुरुषप्रज्ञप्त प्रत्याख्यानं यदनिधितास्मानोऽप्रतिबद्धा अनगारा गृह्णन्ति ॥२॥ चतुर्दशपूर्विजिनकल्पिकयोरेतत् प्रथम एव संहनने तदा | स्थविरा अपि अकार्युर्युच्छिन्नं च एतत् ॥] ४,'सागा'ति आक्रियन्त इत्याकारा:-प्रत्याख्यानापवादहेतवोऽनाभोगाद्या|स्तैराकारैः सहेति साकारं ५, 'अणागारति अविद्यमाना आकारा-महत्तराकारादयो निच्छिन्नप्रयोजनत्वात् प्रतिपत्तुर्यस्मि| स्तदनाकारं, तत्रापि अनाभोगसहसाकारावाकारी स्याता, मुखेऽवल्यादिप्रक्षेपसम्भवादिति ६, परिमाणकडंति परिमाणंसङ्खयानं दत्तिकवलगृहभिक्षादीनां कृतं यस्मिंस्तत्परिमाणकृतमिति, यदाह-"दत्तीहि पकवलेहिं व घरेहिं भिक्खाहिं। अहव दुब्बेहिं । जो भत्तपरिचायं करेइ परिमाणकडमेयं ॥१॥” इति [दत्तिभिः कवला गृहैमिक्षाभिरथवा द्रव्यैः यो। भक्तपरित्यागं करोत्येतत् परिमाणकृतं ॥१] ७, 'निरवसेसं ति निर्गतमवशेषमपि अल्पाल्पमशनाद्याहारजातं यस्मात्तत् | निरवशेष वा-सर्वमशनादि तद्विषयत्वान्निरवशेषमिति, अभिहितश्व-"सव्वं असणं सव्वं च पाणगं सच्वखजपेज्ज दीप अनुक्रम [९५७-९५८] K4 ॥४९८॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~429~ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७४८] प्रत सूत्रांक [७४८] विहिं । परिहरइ सब्वभावेण एवं भणियं निरवसेसं ॥१॥" इति, [सर्वमशनं सर्वं च पानकं सर्वखाद्यपेयविधि सर्वभा न परिहरति एतन्निरवशेष भणितं ॥१॥]८, संकेययं चेव'त्ति केतनं केतः-चिहमङ्गष्टमुष्टिप्रन्थिगृहादिकं स एव | केतकः सह केतकेन सकेतकं ग्रन्थादिसहितमित्यर्थः, भणितं च-"अंगुट्टमुट्टिगंठीघरसेउस्सासथिबुगजोइक्खे । भणियं सकेयमेयं धीरेहि अणतणाणीहिं ॥१॥" इति [अंगुष्ठमुष्टिग्रन्थिगृहस्वेदोन्छासस्तिबुकदीपानाश्रित्य प्रत्याख्यानमेतत्संकेतं भणितं धीरैरनन्तज्ञानिभिः ॥१॥]९'अद्धाए'त्ति अद्धाया:-कालस्य पौरुष्यादिकालमानमाश्रित्येत्यर्थः, न्य| गादि च-"अद्धापच्चक्खाणं जं तं कालप्पमाणछेएणं । पुरिमद्धपोरसीहिं मुहुत्तमासद्धमासेहिं ॥१॥” इति [तदद्धाप्रत्याख्यानं यत्कालप्रमाणच्छेदेन पुरिमाईपौरुषीमुहर्तमासार्द्धमासैः॥१॥] १० । 'पञ्चक्खाणं दसविधं तु'त्ति प्रत्याख्यानशब्दः सर्वत्रानागतादौ सम्बध्यते तुशब्द एवकारार्थः ततो दश विधमेवेति, इहोपाधिभेदात् स्पष्ट एवं भेद इति न पौनरुक्त्यमाशङ्कनीयमिति । प्रत्याख्यान हि साधुसामाचारीति तदधिकारादन्यामपि सामाचारी निरूपयन्नाह दसविहा सामायारी पं० २०-इच्छा १ मिच्छा २ तहकारो ३, आवस्सिता ४ निसीहिता ५ । आपुच्छणा ६ य पतिपुच्छा , छंदणा ८ व निर्मतणा ९ ॥१॥ उवसंपया १० य काले सामायारी भवे दसविहा उ ॥ (सू० ७४९) समणे भगवं महावीरे छमत्थकालिताते अंतिमरातितंसी इमे दस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे जहा–एगं च णं महाघोररुवदित्तधरं तालपिसायं सुमिणे पराजितं पासित्ता णं पडिबुद्धे १, एगं च णं महं सुशिलपक्खगं पुसकोइलगं सुमिणे पासित्ता णं पढिबुद्धे, २, एगं च णं महं चित्तविचित्तपक्खगं पुसकोइलं सुविणे पासित्ता णं पडिबुझे ३, एगं च णं महं 15655557555 दीप अनुक्रम [९५७-९५८] nummary पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~430~ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५०] (०३) श्रीस्थानाइसूत्रवृत्तिः प्रत १०स्थाना. | उद्देशः३ सामाचार्यः | वीरस्वमाः सू०७४९७५० ॥४९९॥ सूत्रांक [७५०] दामदुर्ग सम्वरषणामयं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे ४ एगं च णं महं सेतं गोवर्ग सुमिणे पासित्ता ण पडिबुद्धे ५, एगं च णं गह परमसरं सब्बओ समंवा कुसुमितं सुनिणे पासित्ता णं पढिबुद्धे ६, एगं च णं महासागर उम्मीवीचीसहस्सफलितं भुयाहि तिणं सुमिणे पासित्ता गं पडिबुद्धे ७, एगं च णं महं दिणयरं तेयसा जलंत सुमिणे पासित्ता गं पडिबुते ८, एनं च णं मह हरिवेरुलितवन्नाभेणं नियतेणमंतेणं माणुसुत्तर पम्वतं सव्वतो समंता आवेदिय परिवेढियं सुमिणे पासित्ता ण पडिबुद्धे ९, एगं च णं मई मंदरे पव्वते मंदरचूलियानो उवरि सीहासणवरगयम चाणं मुमिणे पासित्ता गं पडिबुद्धे १० । जणं समणे भगवं महावीरे एगं महं घोररूवदित्वधरं तालपिसात सुमिणे परासितं पासित्ता पं पडिबुद्धे तन्नं समणेणं भगवता महावीरेणं मोहणिजे कम्मे मूलाओ उग्घाइते १, जं ने समणे भगवं महावीरे एगं मई मुक्लिपक्खगं ाव पडिबुद्धे तं णं समणे भगवं महावीरे सुकझाणोवगए विहद २, जण समणे भगवं महावीरे एग महं चित्तविचित्तपक्खा जाव पडिबुद्धे तं गं समणे भगवं महावीरे ससमतपरसमयितं चित्तविचित्तं दुवालसंग गणिपिडगं आपवेति पण्णवेति परूवेति सेति निदंसेति उपदंसेति तं-आयारं जावविट्ठीवार्य ३, जं समणे भगवं महावीरे एग महं दामदुर्ग सब्बरवणा जाव पडिबुद्धे तं नं समगे भगवं महावीरे दुविहं धम्म पण्णवेति, सं०-अगारधर्म च अणगारधम्मं च समणे भगवं महावीरे एगं महं सेतं गोवरगं सुमिणे जाव पहियुद्धतं णं समणस्स भगवो महावीरस्स चाउवण्णाइण्णे संघे तं--समणा समणी सावगा सावियाओ ५ णं समणे भगवं महावीरे एवं महं पउमसरं जाव पडिबुद्धे तं गं समणे भगवं महावीरे चउठिवहे देवे पण्णवेति, सं०-भवणवासी वाणमंतरा दीप अनुक्रम [९५९-९६१] ॥४९९॥ File For Tantrary: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~431~ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५०] प्रत सूत्रांक [७५०] जोइसवासी माणवासी ६ जण्णं समणे भगवं महावीरे एगं महं उम्मीवीचीजाव पडिबुद्धे त ण समणेणं भगवता महावीरेणं अणातीते अणवदग्गे दीहमद्धे चारैतसंसारकतारे तिन्ने ७ जणं समणे भगवं महावीरे एग महं विणकर जाव पडिबुद्धे तन्नं समणस्स भगवतो महावीरस्स अर्णते अणुत्तरे जावसमुप्पन्ने ८ जण समणे भगवं एगं महं हरियेरुलित जाव पडिबुद्धे तण्णं समणस्स भगवतो महावीरस्स सदेवमणुयासुरे लोगे उराला कित्तिवन्नसद्दसिलोगा परिगुन्वति इति सलु समणे भगवं महावीरे इति०९ जणं समणे भगवं महावीरे मंदरे पञ्चते मंदरचूलिवाए उपरि जाव पटिबुद्धे त णं समणे भगवं महावीरे सदेवमणुयासुराते परिसाते मझगते केवलिपन्नत्तं धर्म आघवेति पण्णवेति जाव उवदंसेति १० (सू० ७५०) 'दसे'त्यादि, समाचरणं समाचारस्तावः सामाचार्य तदेव सामाचारी संव्यवहार इत्यर्थः 'इच्छे'त्यादि सार्द्धश्लोक:'इच्छा इति, एषणमिच्छा करणं कारः, तत्र कारशन्दः प्रत्येकमभिसम्बन्धनीयः, इच्छया-बलाभियोगमन्तरेण कार इच्छाकारः इच्छाक्रियेत्यर्थः, इच्छा चेच्छाकारेण ममेदं कुरु, इच्छाप्रधानक्रियया न बलाभियोगपूर्विकयेति भावार्थः, अस्य च प्रयोगः स्वार्थ परार्थं वा चिकीर्षन् यदा परमभ्यर्थयते, उक्तं च-"जइ अध्भत्थेज परं कारणजाए करेज से || कोइ । तत्थ उ इच्छाकारोन कप्पइ बलाभिओगो उ॥१॥" इति [यदि परं कोऽपि कारणेऽभ्यर्थयेत्तत्र तस्य कुर्या-IN दिच्छाकारं न कल्पते बलाभियोगो यस्मात् ॥१॥] तथा मिथ्या वितथमनृतमिति पर्यायाः, मिथ्याकरणं मिथ्याकारः मिथ्याक्रियेत्यर्थः, तथा च संयमयोगे वितथाचरणे विदितजिनवचनसाराः साधवस्तरिक्रयावतथ्यप्रदर्शनाय मिथ्याकार दीप GRORS-862 अनुक्रम [९५९-९६१] स्था०४ Et पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~432~ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५०] श्रीस्थाना. सूत्रवृत्तिः प्रत ॥ ५०० सूत्रांक [७५०] *ckC5 कुर्वते, मिथ्याक्रियेयमिति हृदयं, भणितं च-"संजमजोगे अब्भुडियस्स जं किंचि वितहमायरियं । मिच्छा एयंति विया-१०स्थाना. |णिऊण मिच्छत्ति कायव्वं ॥ १॥” इति [संयमयोगेऽभ्युत्थितेन यत्किंचिद्वितथमाचरितं एतन्मिथ्येति विज्ञाय मिथ्या-18| उद्देशः ३ कारः कर्त्तव्यः॥१॥] तथाकरणं तथाकारः, स च सूत्रप्रश्नादिगोचरः, यथा भवद्भिरुक्तं तथैवेदमित्येवस्वरूपः, गदितं सामाचार्य भाच-“वायणपडिसुणणाए उवएसे सुत्तअत्थकहणाए । अवितहमेयंति तहा पडिसुणणाए तहकारो॥१॥" इति, [वाच- वीरस्वताः नापतिश्रवणयोः उपदेशे सूत्रार्थकथने अवितथमेतदिति तथाकारः प्रतिश्रवणे च तथाकारः॥१॥] अयं च पुरुषविशेष- सू०७४९. विषय एवं प्रयोक्तव्य इति, अगादि.च-"कप्पाकप्पे परिनिवियस्स ठाणेसु पंचसु ठियस्स । संजमतवहस्स उ अविग-II ७५० प्पणं तहकारो ॥१॥” इति [कल्प्याकल्प्ययोः परिनिष्ठितस्य ज्ञानादिषु स्थानेषु पञ्चसु स्थितस्य संयमतपोवर्त्तकस्याबिकल्पेन तथाकारः ॥१॥] ३, 'आवस्सिया यत्ति अवश्यकर्त्तव्योगैर्निष्पन्नाऽऽवश्यकी, चः समुच्चये, एतत्प्रयोग आश्रयानिर्गच्छतः आवश्यकयोगयुक्तस्य साधोर्भवति, आह हि-"कजे गच्छतस्स ज गुरुनिसेण सुत्तनीईए । आवस्सियत्ति नेया सुद्धा अन्नत्थजोगाओ॥१॥" [सूत्रनीत्या गुर्वाज्ञया गच्छतः कायें आवश्यकी शुद्धा ज्ञेयेत्यम्बर्थयोगात् ॥१॥]| ला(अन्वयोगादित्यर्थः> तथा निषेधेन निर्वृत्ता नैपधिकी-व्यापारान्तरनिषेधरूपा, प्रयोगश्चास्या आश्रये प्रविशत इति, यत | आह-"एवोग्गहप्पवेसे निसीहिया तह निसिद्धजोगस्स। एयरसेसा उचिया इयरस्स (अनिषिद्धयोगस्य >न चेव नस्थित्ति | ॥१॥ (अम्वों नास्तीतिकृत्वेत्यर्थः>" एवमवग्रहप्रवेशे तथा निषिद्धयोगस्य नैषेधिकी। एतस्यैपोचिता इतरस्यैषा नोचितैव ॥ ५० ॥ अन्धर्थो नास्तीति हेतोः॥१॥] तथा आपृच्छनमापृच्छा सा विहारभूमिगमनादिषु प्रयोजनेषु गुरोः कार्यों, चशब्दः पूर्व दीप अनुक्रम [९५९-९६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~433~ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५०] SAEC प्रत सूत्रांक [७५०] 44ॐॐॐकर वत्, इहोक्तम्-"आपुच्छणा उ कज्जे गुरुणो तस्समयस्स वा नियमा । एवं खु तयं सेयं जायइ सइ निजराहेऊ ॥१॥ इति [कार्ये गुरोः तत्संमतस्य वा नियमादाप्रच्छनं एवं खलु तत् श्रेयो जायतेऽसकृत् निर्जराहेतुः॥१॥ तथा प्रतिपृच्छाप्रतिप्रश्नः, सा च प्राग्नियुक्तेनापि करणकाले कार्या, पूर्व निषिद्धेन वा प्रयोजनतस्तदेव क कामेनेति, यदाह-"पडिपुछणा उ कजे पुब्वनिउत्तस्स करणकालम्मि । कजन्तरादिहे निद्दिट्टा समयकेहिं ॥१॥” इति [कार्य पूर्व नियुक्तस्य करणकाले प्रतिप्रच्छना कार्यान्तरार्थं समयकेतुभिनिर्दिष्टा ॥१॥] तथा छन्दना च-पारगृहीतेनाशनादिना कार्या, इहाMवाचि-"पुवगहिएण छंदण गुरुआणाए जहारिहं होइ । असणादिणा उ एसाणेयेह विसेसविसयत्ति ॥१॥" [पूर्वगृ8 हीतेनाशनादिना गुर्वाज्ञया यथार्हाणां निमन्त्रणं एषा ज्ञेया विशेषविषयेति छंदना ॥१॥] तथा निमन्त्रणा-अगृहीतेनैवाशनादिना भवदर्थमहमशनादिकमानयाम्येवंभूता, इहार्थे अभ्यधायि-"सज्झाया उब्वाओ (श्रान्तः> गुरुकिच्चे सेसगे असंतंमि । तं पुच्छिऊण कज्जे सेसाण निमंतणं कुज्जा ॥१॥" इति [स्वाध्यायाच्छ्रान्तो गुरुकृत्ये शेषेऽसति तं HIपृष्ट्वा कार्ये शेषाणां निमंत्रणं कुर्यात् ॥१॥] तथा 'जवसंपत्ति उपसंपत्-इतो भवदीयोऽहमित्यभ्युपगमः, सा च माज्ञानदर्शनचारित्रार्थत्वात् निधा, सत्र ज्ञानोपसम्पत् सूत्रार्थयोः पूर्वगृहीतयोः स्थिरीकरणार्थ तथा वित्रुटितसन्धानार्थं तथा प्रथमतो ग्रहणार्थमुपसम्पद्यते, दर्शनोपसम्पदप्येवं, नवरं दर्शनप्रभावकसम्मत्यादिशास्त्रविषया, चारित्रोपसम्पच्च वैयावृत्त्यकरणार्थ क्षपणार्थ चोपसम्पद्यमानस्येति, भणितं हि-"उवसंपया य वितिहा नाणे तह दंसणे चरित्ते य । दसणनाणे तिविहा दुबिहा य चरित्तअट्टाए ॥१॥ वत्तणसंघणगहणे सुत्तत्योभयगया उ एसत्ति । वेयावच्चे खमणे दीप AR अनुक्रम [९५९-९६१] Eaton पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~434~ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५०] श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः प्रत ।।५०१॥ सूत्रांक [७५०] काले पुण आवकहियत्ति ॥२॥” इति, [उपसंपञ्च त्रिविधा ज्ञाने तथा दर्शने चारित्रे च दर्शनज्ञानयोस्त्रिविधा चारि-15/१०स्थाना. त्रार्थ द्विविधा ॥१॥ आवर्तनसन्धानग्रहणानि सूत्रार्थोभयगताम्येते वैयावृत्त्ये तपसि कालतः पुनर्यावत्कथं ॥२॥] उद्देशः ३ 'काले'त्ति उपक्रमणकाले आवश्यकोपोद्घातनिर्युक्त्यभिहिते सामाचारी दशविधा भवति ॥ इयं च सामाचारी महावी- सामाचार्यः रेणेह प्रज्ञापिता अतो भगवन्तमेवोररीकृत्य दवास्थानकमाह-समणे'त्यादि सुगम, नवरं 'छउमस्थकालियाएत्ति प्राकृ-IX वीरस्वमा तत्वात् छद्मस्थकाले यदा किल भगवान् त्रिकचतुष्कचत्वरचतुर्मुखमहापयादिषु पटुपटहप्रतिरवोद्घोषणापूर्व यथाकाम- सू०७४९मुपहतसकलजनदारिद्यमनवच्छिन्नमन्दं यावन्महादानं दत्त्वा सदेवमनुजासुरपरिषदा परिवृतः कुण्डपुरान्तिर्गत्य ज्ञात- ७५० | खण्डवने मार्गशीर्षकृष्णदशम्यामेकका प्रव्रज्य मनःपर्यायज्ञानमुखाद्याष्टी मासान विहृत्य मयूरकाभिधानसन्निवेशबहिः| स्थानां दूयमानाभिधानानां पाखण्डिकानां सम्बन्धिन्येकस्मिन्नुटजे तदनुज्ञया वर्षावासमारभ्य अविधीयमानरक्षतया पशुभिरुपयमाणे उटजेणीतिकं कुर्वाणमाकलय्य कुटीरकनायकमुनिकुमारकं ततो वर्षाणामद्धमासे गतेऽकाल एव 2 निर्गस्यास्थिकग्रामाभिधानसन्निवेशाद बहिः शूलपाणिनामकयक्षायतने शेष वर्षावासमारेभे, तत्र च यदा रात्री शूल-15 | पाणिभंगवतः क्षोभणाय झटिति टालिताहालकमट्टहास मुञ्चन् लोकमुत्रासयामास तदा विनाश्यते स भगवान् देवे| नेति भगवदालम्बना जनस्याधृति जनितवान् पुनर्हस्तिपिशाचनागरूपैर्भगवतः क्षोभं कर्तुमशक्नुवन् शिराकर्णनासादन्तनखाक्षिपृष्ठिवेदनाः प्राकृतपुरुषस्य प्रत्येक प्राणापहारप्रवणाः सपदि सम्पादितवान् तथापि प्रचण्डपवनप्रहतसुरगिरिशिखरमिवाविचलनावं वर्द्धमानस्वामिनमवलोक्य श्रान्तः सन्नसौ जिनपतिपादपद्मवन्दनपुरस्सरमाचचक्षे-क्षमस्व क्षमा-1 दीप FASCAREER अनुक्रम [९५९-९६१] ५०१॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~435~ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७५० ] दीप अनुक्रम [९५९ -९६१] Educato [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७५०] स्थान [१०], उद्देशक [-], श्रमण इति तथा सिद्धार्थाभिधानो व्यन्तरदेवस्तन्निग्रहार्थमुद्दधाव, वभाण च अरे रे शूलपाणे अप्रार्थितप्रार्थक हीनपुव्यचतुर्दशीक श्रीह्रीधृतिकीर्त्तिवर्जित दुरन्तप्रान्तलक्षण! न जानासि सिद्धार्थ राजपुत्रं पुत्रीयितनिखिलजगज्जीवं जीवितसममशेषसुरासुरनरनिकायनायकानामेनं च भवदपराधं यदि जानाति त्रिदशपतिस्ततस्त्वां निर्विषयं करोतीति श्रुत्वा चासौ भीतो द्विगुणतरं क्षयमयति स्म तथा सिद्धार्थश्च तस्य धर्ममचकथत्, स चोपशान्तो भगवन्तं भक्तिभरनिर्भरमानसो गीतनृत्तोपदर्शनपूर्वकमपूपुजत्, लोकश्च चिन्तयाचकार - देवार्यकं विनाश्येदानीं देवः क्रीडतीति, स्वामी च | देशोनांश्चतुरो यामानतीव तेन परितापितः प्रभातसमये मुहूर्त्तमात्रं निद्राप्रमादमुपगतवान् तत्रावसरे इत्यर्थोऽथवा छद्म|स्थकाले भवा अवस्था छद्मस्थकालिकी तस्यां 'अंतिमराइयंसि त्ति अन्तिमा - अन्तिमभागरूपा अवयवे समुदायोपचारात् सा चासो रात्रिका चान्तिमरात्रिका तस्यां रात्रेरवसान इत्यर्थः महान्तः - प्रशस्ताः स्वप्नां-निद्रावि कृतविज्ञानप्रतिभातार्थविशेषास्ते च ते चेति महास्वमास्तान 'स्वपने' स्वापक्रियायां 'एगं चेति चकार उत्तरस्वमापेक्षया समुच्चयार्थः 'महाघोरं' अतिरौद्रं रूपम् - आकारं 'दीसं' ज्वलितं दृप्तं वा दवद्धारयतीति महाघोररूपदीष्ठधरस्तद्द्दष्टधरो वा, प्राकृतत्वादुत्तरत्र विशेषणन्यासः, तालो - वृक्षविशेषस्तदाकारो दीर्घत्वादिसाधर्म्यात् पिशाचो - राक्षसस्तालपिशाचस्तं 'पराजितं ' निराकृतमात्मना १ 'एगं च'त्ति अन्यं च 'पुंसकोकिलगं' ति पुमांश्चासौ कोकिलश्च परपुष्टः पुंस्कोकिलकः स च किल कृष्णो भवतीति शुक्लपक्ष इति विशेषितः २ 'चित्तविचित्तपक्ख'चि चित्रेणेति-चित्रकर्म्मणा विचित्रौ-विविधवर्णविशेषयन्तौ पक्षौ यस्य स तथा ३ 'दामदुर्गति मालाद्वयं ४ 'गोवरगं' ति गोरूपाणि ५ 'पउमसर'त्ति प Far Far & Pras Use On पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~436~ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५०] प्रत सूत्रांक [७५०] श्रीस्थाना- मानि यत्रोत्पद्यन्ते सरसि तसासरः 'सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्तात्-विदिक्षु च कुसुमानि-पद्मलक्षणानि जातानि यत्र १०स्थाना. सूत्र- का तत्कुसुमितं ६ 'उम्मीवीइसहस्सकलिय'ति ऊर्मयः-कलोलाः तल्लक्षणा या वीचयस्ता अम्मिवीचयः, वीचिशब्दोश उद्देशः ३ वृत्तिः हि लोकेऽन्तरार्थोऽपि रूढः, अथवोम्मेिवीच्योविंशेषो गुरुत्वलघुत्वकृतः, क्वचिद्धीचिशब्दो न पठ्यते एवेति, ऊम्मिवी- सामाचार्यः चीनां सहस्रैः कलितो-युक्तो यः स तथा तं 'भुजाभ्यां बाहुभ्यामिति ७ तथा दिनकरं ८ एकेन च णमित्यलङ्कारे वीरस्वमाः ॥५०२॥ 'मह'न्ति महता छान्दसत्वात् एगं च णं महंति पाठे मानुषोत्तरस्यैते विशेषणे 'हरिवेरुलियवन्नामेणं'ति हरिः- सू०७४९पिको वर्णः वैडूर्य-मणिविशेषस्तस्य वर्णो-नीलो वैडूर्यवर्णः, ततो द्वन्द्वः तद्वदाभाति यत्तद्धरिवैडूर्यवर्णाभं तेन, अथवा हरिवन्नीलं तच तद्वैडूर्यं चेति शेषं तथैव, निजकेन-आत्मीयेनांत्रेण-उदरमध्यावयवविशेषेण 'आवेढिय'ति सकृदावेष्टितं 'परिवेढियंति असकृदिति ९ 'एगं च णं महति आत्मनो विशेषणं 'सिंहासणवरगयति सिंहासनानां मध्ये यद्वरं तत्सिंहासनवरं तत्र गतो-व्यवस्थितो यस्तमिति १० । एतेषामेव दशानां महास्वमानां फलप्रतिपादनायाह-४ 'जन्न'मित्यादि सुगम, नवरं 'मूलओत्ति आदितः सर्वथैवेत्यर्थः, 'उद्धाइए' उद्घातितं विनाशितं विनाशयिष्यमाणत्वेनोपचारात, सूत्रकारापेक्षया स्वयमतीतनिर्देश एवेत्येवमन्यत्रापि, 'ससमयपरसमइय'ति स्वसिद्धान्तपरसिद्धान्ती यत्र स्त इत्यर्थः, गणिनः-आचार्यस्य पिटकमिव पिटक-वणिज इव सर्वस्वस्थानं गणिपिटक 'आधवेह'त्ति आख्यापयति I#सामान्यविशेषरूपतः प्रज्ञापयति सामान्यतः प्ररूपयति प्रतिसूत्रमर्थकथनेन दर्शयति तदभिधेयप्रत्युपेक्षणादिक्रियादशेनेन, II इयं क्रियेभिरक्षरैरुपात्ता इत्थं क्रियत इति भावना, 'निदंसेइति कथञ्चिदगृह्णतः परानुकम्पया निश्चयेन पुनः पुनर्द- दीप BHASॐॐ S अनुक्रम [९५९-९६१] स SamEaucatunitammational Fit For पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~437~ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७५० ] दीप अनुक्रम [ ९५९ -९६१] Educator [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७५० ] स्थान [१०], उद्देशक [-], र्शयति निदर्शयति 'उयदंसेइति सकलनययुक्तिभिरिति ३, 'चाउब्वण्णापणे'त्ति चत्वारो वर्णाः श्रमणादयः समा हता इति चतुर्वर्ण तदेव चातुर्वर्ण्य तेनाकीर्णः -आकुलश्चातुर्वण्यकीर्णः अथवा चत्वारो वर्णाः-प्रकारा यस्मिन् स तथा, दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्, चतुर्वर्णश्चासावाकीर्णश्च ज्ञानादिभिर्महागुणैरिति चतुर्वर्णाकीर्णः, 'चडव्विहे देवे पन्नवेह' त्ति बन्दनकुतूहलादिप्रयोजनेनागतान् प्रज्ञापयति-जीवाजीवादीन् पदार्थान् बोधयति सम्यक्त्वं ग्राहयति शिष्यीकरोतीतियावत्, लोकेभ्यो वा तान् प्रकाशयति, 'अनंते' इत्यादी सूत्रे यावत्करणात् 'निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुणे केवलवरनाणदंसणे' त्ति दृश्यमिति, 'सदेवे'त्यादि, सह देवैः वैमानिकज्योतिष्कैर्मनुजेः- नरेरसुरैश्व-भवन पतिव्यन्तरैश्च वर्त्तत इति सदेवमनुजासुरस्तत्र लोके - त्रिलोकरूपे 'उराल'त्ति प्रधानाः कीर्त्तिः सर्वदिग्व्यापी साधुवादः वर्णः -एकदि | व्यापी शब्द:- अर्द्धदिग्व्यापी श्लोकः- तत्तत्स्थान एवं श्लाघा एषां द्वन्द्वः तत एते 'परिगुब्वंति' परिगुप्यन्ति व्याकुलीभवन्ति सततं भ्रमन्तीत्यर्थः, अथवा परिगूयन्ते-गूङ्घातोः शब्दार्थस्यात् संशब्द्यते इत्यर्थः, पाठान्तरतः परिभ्राम्यन्ति, कथमित्याह--' इति खल्वि'त्यादि, इतिः - एवंप्रकारार्थः खलुर्वाक्यालङ्कारे ततश्चैवंप्रकारो भगवान् सर्वज्ञानी सर्वदर्शी सर्वसंशयव्यवच्छेदी सर्वबोधकभाषाभाषी सर्वजगज्जीववत्सलः सर्वगुणिगणचक्रवत्तीं सर्वनरना किनाय कनिकायसेवितचरणयुग इत्यर्थः, 'महावीर' इति नाम, एतदेवावर्त्यते श्लाघाकारिणामादरख्यापनार्थमनेकत्वख्यापनार्थं चेति, 'आघवेई'त्यादि पूर्ववत् । स्वमदर्शनकाले भगवान् सरागसम्यग्दर्शनीति सरागसम्यग्दर्शनं निरूपयन्नाह - FF&Private पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~438~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७५१] दीप अनुक्रम [९६२ -९६३] श्रीस्थानाङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ५०३ ॥ Education [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५१] सविधे सरागसम्मदंसणे पनते, वं० निसग्गु १ बत्तेसरुई २ आणरुती ३ सुत ४ बीतरुतिमेव ५ । अभिगम ६ विररुती ७ किरिया ८ संखेव ९ धम्मरुती १० ॥ १ ॥ ( सू० ७५१ ) 'दसविहे 'त्यादि, सरागस्य- अनुपशान्ताक्षीणमोहस्य यत्सम्यग्दर्शनं-तत्त्वार्थश्रद्धानं तत्तथा, अथवा सरागं च तत्सम्यग्दर्शनं चेति विग्रहः सरागं सम्यग्दर्शनमस्येति वेति, 'निसग्ग' गाहा, रुचिशब्दः प्रत्येकं योज्यते, ततो निसर्गः-स्व. भावस्तेन रुचि:- तस्वाभिलापरूपाऽस्येति निसर्गरुचिर्निसर्गतो वा रुचिरिति निसर्गरुचिः, यो हि जातिस्मरणप्रतिभादिरूपया स्वमत्याऽवगतान् सद्भूतान् जीवादीन् पदार्थान् श्रद्दधाति स निसर्गरुचिरिति भावः, यदाह - “जो जिणदिट्टे भावे चउच्चिहे ( द्रव्यादिभिः सद्दहाइ सयमेव । एमेव नन्नहन्ति य निसग्गरुइत्ति नाययो ॥ १ ॥” इति [द्रव्यादिचतुर्विधान् भावान् यो जिनदृष्टान् भावेन श्रद्धत्ते एवमेवैते नान्यथेति च निसर्गरुचिर्ज्ञातव्यः सः ॥ १ ॥] तथोपदेशोगुर्वादिना कथनं तेन रुचिर्यस्येत्युपदेश रुचिः तत्पुरुषपक्षः स्वयमूह्यः सर्वत्रेति, यो हि जिनोतानेव जीवादीनर्थान् तीर्थकरशिष्यादिनोपदिष्टान् श्रद्धत्ते स उपदेशरुचिरिति भावः, यत आह- "एए चैव उ भावे उबइट्ठे जो परेण सद्दहइ । छउमत्थेण जिणेण व उवएसरुई मुणेयब्यो ॥ १ ॥” इति [यः परेण छद्मस्थेन जिनेन वोपदिष्टानेतानेव भावान् श्र द्धत्ते स उपदेशरुचिर्ज्ञातव्यः ॥ १ ॥ ] तथाऽऽज्ञा सर्वज्ञवचनात्मिका तया रुचिर्यस्य स तथा, यो हि प्रतनुरागद्वेषमिथ्याज्ञानतयाऽऽचार्यादीनामाज्ञयैव कुझहाभावाजीवादि तथेति रोचते माषतुषादिवत् स आज्ञारुचिरिति भावः, भ णितं च- "रागो दोसो मोहो अन्नाणं जस्स अवगयं होइ । आणाए रोयतो सो खलु आणारुई होइ ॥ १ ॥” इति Far Far & Fran ४ ~ 439~ १० स्थाना. उद्देशः ३ दशधा स म्यग्दर्शनं सू० ७५१ ॥ ५०३ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७५१] दीप अनुक्रम [९६२ -९६३] Education [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-], मूलं [७५१] स्थान [१०], [सम्यक्त्वावर करागद्वेष मोहाज्ञानानि यस्यापगतानि भवंति आज्ञाया रोचयन् स खलु आज्ञारुचिर्भवति ॥ १ ॥] 'सु तबीयरुईमेव 'ति इहापि रुचिशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात् सूत्रेण-आगमेन रुचिर्यस्य स सूत्ररुचिः, यो हि सूत्रागममधीयानस्तैनैवाङ्गप्रविष्टादिना सम्यक्त्वं लभते गोविन्दवाचकवत् स सूत्ररुचिरिति भावः, अभिहितं च--"जो सुत्तमहिजंतो सुरण ओगाहई उ सम्मत्तं । अंगेण बाहिरेण व सो सुत्तरुइति नायब्वो ॥ १ ॥” इति [यः सूत्रमधीयानः श्रुतेनावगाहते तु सम्यक्त्वं अंगेनांगबाह्येन वा स सूत्ररुचिरिति ज्ञातव्यः ॥ २१॥ ] तथा बीजमिव बीजं यदेकमप्यनेकार्थप्रतिबोधोत्पादकं वचस्तेन रुचिर्यस्य स बीजरुचिः, यस्य ह्येकेनापि जीवादिना पदेनावगतेनानेकेषु पदार्थेषु रुचि - रुपैति स बीजरुचिरिति भावः, गदितं च - "एगपएणे गाई पयाई जो पसरई उ सम्मत्ते । उदएब्व तिह्रबिंदू सो बीयरुइति नायब्वो ॥ १ ॥" [एकपदेनानेकानि पदानि योऽवगाहते लभते च सम्यक्त्वं उदके इव तैलविन्दुः स बीजरुचिरिति ज्ञातव्यः ॥ १॥ ] इति, 'एवे 'ति समुच्चये, तथा 'अभिगमवित्थाररुह 'त्ति इहापि प्रत्येकं रुचिशब्दः सम्बन्धनीयः, तत्राभिगमो-ज्ञानं ततो रुचिर्यस्य सोऽभिगमरुचिः, येन ह्याचारादिकं श्रुतमर्थतोऽधिगतं भवति सोऽभिगमरुचिः, अभिगमपूर्वकत्वात्तदुचेरिति भावः, गाथाsत्र - "सो होइ अभिगमरुई सुअनाणं जस्स अत्थओ दिहं । एक्कारस अंगाई पइन्नयं दिट्टिवाओ य ॥ १ ॥” इति [सोऽभिगमरुचिर्भवति येनार्थतः श्रुतज्ञानं दृष्टं एकादशांगानि प्रकीर्णकानि दृष्टिवादश्च ॥ १ ॥] तथा विस्तारो - व्यासस्ततो रुचिर्यस्य स तथेति, येन हि धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां सर्वपर्यायाः सर्वैर्नयप्रमाणैर्ज्ञाता भवन्ति स विस्ताररुचिः, ज्ञानानुसारिरुचित्वादिति, न्यगादि “दव्वाण सव्वभावा सव्वपमाणेहिं Fat Par&Private On पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~440~ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५१] श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः प्रत सूत्रांक [७५१] ॥५०४॥ जस्स उवलद्धा । सब्वाहिं नयविहीहिं वित्थाररुई मुणेयब्वो ॥१॥” इति [द्रव्याणां सर्वे पर्यायाः सर्वप्रमाणैः सर्वनय-18१०स्थाना. विधिभिर्येनोपलग्धाः विस्ताररुचितिव्यः॥१॥] तथा क्रिया-अनुष्ठानं रुचिशब्दयोगात् तत्र रुचिर्यस्य स क्रियारूचिः, उद्देशः३ इदमुक्तं भवति-दर्शनाद्याचारानुष्ठाने यस्य भावतो रुचिरस्तीति स क्रियारुचिरिति, उक्तं च-नाणेण दंसणेण य तवे चरिते संज्ञाः य समिइगुत्तीसु । जो किरियाभावरुई सो खलु किरियाई होइ ॥१॥" इति [ज्ञाने दर्शने तपसि चारित्रे च समिति-13 वेदनाः गुप्त्योः यः भावतः क्रियारुचिः स खलु क्रियारुचिर्भवति ॥१॥] तथा सझेपः-सनहस्तत्र रुचिरस्येति सङ्केपरुचिा, यो सू०७५२ह्यप्रतिपन्नकपिलादिदर्शनो जिनप्रवचनानभिज्ञश्च सङ्केपेणैव चिलातिपुत्रवदुपशमादिपदत्रयेण तत्त्वरुचिमवासोति सस ७५३ | सझेपरुचिरिति भावः, आह च-"अणभिग्गहियकुदिट्ठी संखेवरुइत्ति होइ नायब्बो। अविसारओ पवयणे अणभिग्गहिओ य सेसेसु ॥१॥" इति [अनभिगृहीतकुदृष्टिः अविशारदः प्रवचने संक्षेपरुचिरिति ज्ञातव्यः शेषेष्वनभिगृहीतः॥१॥ |तथा धर्मे-श्रुतादी रुचिर्यस्य स तथा, यो हि धर्मास्तिकायं श्रुतधर्म चारित्रधर्म च जिनो श्रद्धत्ते स धर्मरुचिरिति ज्ञेयः, यदगादि-"जो अस्थिकायधर्म सुयधम्म खलु चरित्तधर्म च । सद्दहइ जिणाभिहियं सो धम्मरुइत्ति ना|यब्वो ॥१॥ इति [योऽस्तिकायधर्म श्रुतधर्म खलु चारित्रधर्म च जिनाभिहितं श्रद्दधाति स धर्मरुचिरिति ज्ञातव्यः 2॥१॥] १०॥ अयं च सम्यग्दृष्टिदशानामपि संज्ञानां क्रमेण व्यवच्छेदं करोतीति ता आह ५०४॥ दस सण्णाभो पं० --आहारसण्णा जाव परिग्गहसण्णा ४ कोहसण्णा जाय लोभसण्णा ८ लोगसण्णा ९ ओहसण्णा १०, नेरतिताणं दस सण्णातो एवं चेब, एवं निरंतर जाच वेमाणिवाणं २४ (सू० ७५२) नेरहया ण दसवि. दीप अनुक्रम [९६२-९६३] SAHARSA CamEauratominimational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~441~ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५३] 4 प्रत सूत्रांक [७५३] धं यणं पाणुभवमाणा विहरति, तं०-सीतं १ उसिणं २ खुधं ३ पिवासं ४ कई ५ परमं ६ भयं ७ सोगं जरं ९ वाहिं १० (सू० ७५३) 'दसे त्यादि, संज्ञानं संज्ञा आभोग इत्यर्थः, मनोविज्ञानमित्यन्ये, संज्ञायते वा आहाराधी जीवोऽनयेति संज्ञा-वेद-11 नीयमोहनीयोदयाश्रया ज्ञानदर्शनावरणक्षयोपशमाश्रया च विचित्रा आहारादिप्राप्तये क्रियैवेत्यर्थः, सा चोपाधिभेदाद्भिद्यमाना दशप्रकारा भवतीति, तत्र क्षुद्वेदनीयोदयात् कवलाद्याहारार्थ पुद्गलोपादानक्रियैव संज्ञायतेऽनयेत्याहारसंज्ञा, तथा भयवेदनीयोदयागयोहान्तस्य दृष्टिबदनविकाररोमाञ्चो दादिक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति भयसंज्ञा, तथा वेदोदया-|| मैथुनाय ख्यङ्गालोकनप्रसन्नवदनसंस्तम्भितोरुवेपथुप्रभृतिलक्षणा च क्रियेव संज्ञायतेऽनयेति मैथुनसंज्ञा, तथा लोभी-| दयात् प्रधानभवकारणाभिष्वङ्गपूर्विका सञ्चित्तेतरद्रव्योपादानक्रिया च संज्ञायतेऽनयेति परिग्रहसंज्ञा, तथा क्रोधोदयातदावेशगर्भा प्ररूक्षमुखनयनदन्तच्छदचेष्टैव संज्ञायतेऽनयेति क्रोधसंज्ञा, तथा मानोदयादहकारात्मिकोत्सेकादिपरिणतिरेव संज्ञायतेऽनयेति मानसंज्ञा, तथा मायोदयेनाशुभसंक्केशादनृतसम्भाषणादिक्रियेच संज्ञायतेऽनयेति मायासंज्ञा, तथा लोभोदयालालसत्वान्वितात्सचित्तेतरद्रव्यप्रार्थनैव संज्ञायतेऽनयेति लोभसंज्ञा, तथा मतिज्ञानाद्यावरणक्षयोपशमा-113 च्छिन्दाद्यर्थगोचरा सामान्यावबोधक्रियैव संज्ञायतेऽनयेत्योघसंज्ञा, तथा तद्विशेषावबोधक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति लोक संज्ञा १०, ततश्चौघसंज्ञा दर्शनोपयोगः लोकसंज्ञा ज्ञानोपयोग इति, व्यत्ययमन्ये, अन्ये पुनरित्थमभिदधति-सामान्यप्रवृत्तिरोषसंज्ञा लोकदृष्टिलॊकसंज्ञा, एताश्च सुखप्रतिपत्तये स्पष्टरूपाः पञ्चेन्द्रियानधिकृत्योका, एकेन्द्रियादीनां तु दीप अनुक्रम [९६५] 45%EX पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~442~ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५३] श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः ॥५०५॥ प्रत सूत्रांक [७५३] प्रायो यथोक्तकियानिवन्धनकर्मोदयादिपरिणामरूपा एवावगन्तव्याः, यावच्छन्दो व्याख्याताओं, एता एवं सर्वजीवेषु-१० स्थाना. चतुर्विशतिदण्डकेन निरूपयति-निरइये त्यादि, 'एवं चेव'त्ति यथा सामान्यसूत्रे एवमेव नारकसूत्रेऽपीत्यर्थः, 'एवं नि- उद्देशः३ रन्तर'मिति यथा नारकसूत्रे संज्ञास्तथा शेषेष्वपि वैमानिकान्तेष्वित्यर्थः । अनन्तरसूत्रे वैमानिका उक्ताः, ते च सुख-1 छदारक्षेतवेदना अनुभवन्ति, तद्विपर्यस्तास्तु नारका या वेदना अनुभवन्ति ता दर्शयति-नेरइया' इत्यादि, कण्ठ्यं, नवरं वेदनां- राज्ञेयजेपीडां, तत्र शीतस्पर्शजनिता शीता तां, सा च चतुर्थ्यादिनरकपृथ्वीविति, एवमुष्णां प्रथमादिषु, क्षुध-बुभुक्षां पिपासां- याः कर्मतृष कण्डूं-खर्जु 'परसंति परतन्त्रतां भयं-भीति शोक-दैन्यं जरा-वृद्धत्वं व्याधि-ज्वरकुष्ठादिकमिति । अमुं च वेद-3विपाकदनादिकममूर्तमर्थं जिन एव जानाति न छद्मस्थो यत आह शाद्या दस ठाणाई छउमत्थे णं सवभावेणं न जाणति ण पासति, सं०-धम्मस्थिगात जाव वातं, अयं जिणे भविस्सति वा ण वा * सू०७५४भविस्सति अयं सम्बदुक्खाणमंतं करेस्सति वा ण वा करेस्सति, एताणि चेव उप्पन्ननाणदसणधरे [अरहा] जाव अयं सम्बदुक्खाणमंतं करेस्सति वा ण वा करेस्सति (सू० ७५४) दस दसाओ पं० सं०-कम्मविवागदसाओ उवासगदसामो अंतगढदसाओ अणुत्तरोववायदसाओ आवारदसाओ पण्हावागरणदसाओ बंधदसाओ दोगिद्विदसाओ दीदवसाओ संखेवित्तदसाओ । कम्मविवागदसाणं दस अज्झयणा पं० तं०-मियापुत्ते १ त गोत्तासे २, अंडे ३ सगडेति यावरे ॥५०५॥ ४ । माहणे ५ णदिसणे ६ त, सोरियत्ति ७ उदुंबरे ८॥ १॥ सहसुराहे आमलते ९ कुमारे लेकहती १० ७५५ दीप SOCIASCHACKASS अनुक्रम [९६५] CamEauratonimational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~443~ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५५] + गाथा: (०३) प्रत सूत्रांक [७५४-७५६] 4%AA%3A%ARA इति २ । वासगदसाणं दस अन्झयणा पं० सं०-आणंदे १ कामदेवे २ अ, गाहावति चूलणीपिता ३ । सुरादेवे ४ चुलसतते ५, गाहावति कुंटकोलिते ६ ॥१॥ सहालपुत्ते ७ महासतते ८, णंदिणीपिया ९ सालतियापिता १०-३ । अंतगडदसाणं पस अज्झयणा पं० त०-णमि १ मातंगे २ सोमिले ३ रामगुत्ते ४ सुदंसणे ५ पेव । जमाली ६ त भगाली सकिकमे ८ पाल्तेविय ९॥१॥ काले अंबडपुत्ते त१०, एमेते दस आहिता ४॥ अणुसरोववातियदसाणं दस अश्मयणा पं००-ईसिदासे व १ घण्णे त २, सुणक्खत्ते य ३ कातिते ४ [तिय] । सटाणे ५ सालिभरे त ६, आणंदे ७ तेतली ८ तित ॥ १॥ दसनमरे ९ अतिमुत्ते १०, एमेते दस आहिया ५॥ आधारदसाणं दस अक्षयणा पं० २०-पीस असमाहिट्ठाणा १ एगवीसं सबला २ तेत्तीसं आसावणातो ३ अढविहा गणिसंपया ४ दस चित्तसमाहिहाणा ५ पगारस भवासगपडिमातो ६ वारस मिक्खुपडिमातो ७ पज्जोसवणा कप्पो ८ तीसं मोहणिजट्ठाणा ९ आजाइहाणं १०.६ । पण्हावागरणदसाणं दस अज्झयणा पं० त०-उवमा १ संखा २ इसिभासियाई ३ आयरियभासिताई ४ महावीरभासिआई५ खोमगपसिणाई ६ कोमलपसिणाई ७ अद्दागपसिणाई ८ अंगुटुपसिणाई ९ बाहुपसिणाई १०-७ । बंधसाणं दस अझयणा पं० त०-बंधे १ व मोक्खे २ य देवद्धि ३ दसारमंडलेवित ४ आयरियविष्पडिवत्ती ५ उवमानविप्पढिवत्ती ६ भावणा ७ विमुत्ती ८ सातो ९ कम्मे १०-८ । दोगेहिदसाणं दस अज्झयणा पं० त०-वाते १ विवाते २ उववाते ३ मुक्खित्ते कसिणे ४ वायालीसं सुमिणे ५ तीसं महासुमिणा ६ धावत्तरि सम्बसुमिणा ७ हारे ८ रामे ९ गुत्ते १० एमेते दस आदित्ता ९। दीहदसाणं दस अज्झयणा पं००-चंदे १ सूरते २ सुके ३ त सिरिदेवी ४ पभावती ५ दीव गाथा: दीप अनुक्रम [९६६-९७६] व्या०८५ AmEautan FF पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~444~ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७५४-७५६] + गाथा: दीप अनुक्रम [९६६ -९७६] श्रीस्थाना ङ्गसूत्र वृत्तिः ॥ ५०६ ॥ [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-], मूलं [७५५] + गाथा: स्थान [१०], समुदोवती ६ महपुत्ती ८ मंदति त ९ मेरे संभूतविजते ८ येरे पन्छ ९ ऊसासनीसासे १०-१० । संखेवितदसार्ण दस जाणा पं० [सं० सुडिया विमाणपविभत्ती १ मडिया विमाणपविभत्ती २ अंगधूलिया ३ बमगचूलिया ४ विद्याहलिया ५ अरुणोदवाते ६ वरुणोववा ७ गरुलोववाते ८ वेलंधरोचवाते ९ वेसमणोववाते १०-११ ( सू० ७५५) दस सागरोवमकोढाकोडीओ कालो उस्सप्पिणीते दस सागरोवमकोडाकोडीओ कालो ओसंप्पिणीते (सू० ७५६ ) 'दसे त्यादि गतार्थ, नवरं द्मस्थ इह निरतिशय एव द्रष्टव्योऽन्यथाऽवधिज्ञानी परमाण्वादि जानात्येव, 'सन्धभावेणति सर्वप्रकारेण स्पर्शरसगन्धरूपज्ञानेन घटमिवेत्यर्थः, धर्मास्तिकायं यावत्करणादधर्मास्तिकायं आकाशास्ति कार्य जीवमशरीरप्रतिबद्धं परमाणुपुद्गलं शब्दं गन्धमिति, 'अयमित्यादि द्वयमधिकमिह तत्रायमिति- प्रत्यक्षज्ञानसाक्षारकृतो 'जिन' केवली भविष्यति न वा भविष्यतीति नवमं तथाऽयं 'सव्वे'त्यादि प्रकटं दशममिति । एतान्येव छद्मस्थानववोध्यानि सातिशयज्ञानादित्वाजिनो जानातीति, आह च- 'एयाई' इत्यादि, यावत्करणात् 'जिणे अरहा केवली सव्वष्णू सन्यभावेण जाणइ पासइ, संजहा-धम्मत्थिकाय मित्यादि, यावद्दशमं स्थानं, तचोक्तमेवेति । सर्वज्ञत्वादेव यान् जिनोऽतीन्द्रियार्थप्रदर्शकान् श्रुतविशेषान् प्रणीतवांस्तान् दशस्थानकानुपातिनो दर्शयन्नाह - 'दस दसे'त्याद्येकादश सूत्राणि, तत्र 'दस'त्ति दशसङ्ख्या 'दसाउ'त्ति दशाधिकाराभिधायकत्वाद्दशा इति बहुवचनान्तं खीठि शास्त्रस्याभिधानमिति, कर्मणः- अशुभस्य विपाकः फलं कर्मविपाकः तत्प्रतिपादिका दशाध्ययनात्मकत्वाद्दशाः कर्म्मविपाकदशाः, विपाकश्रुताख्यस्यैकादशाङ्गस्य प्रथम श्रुतस्कन्धः, द्वितीयश्रुतस्कन्धोऽप्यस्य दशाध्ययनात्मक एव, न चा Education intimation Für Fortal & Private १० स्थाना. उद्देशः ३ छद्मस्थेत राज्ञेयज्ञे याः कर्मविपाकदशाद्याः ~ 445~ सू० ७५५७५६ ।। ५०६ ॥ पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३] अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५६] (०३) प्रत सूत्रांक [७५४-७५६] LOC साविहाभिमतः, उत्तरत्र विवरिष्यमाणत्वादिति, तथा साधून उपासते-सेवन्त इत्युपासका:-श्रावकास्तगतक्रियाकलापप्रतिबद्धाः दशा-दशाध्ययनोपलक्षिता उपासकदशाः सप्तममङ्गमिति, तथा अन्तो-विनाशः स च कर्मणस्तत्फलभूतस्य वा संसारस्य कृतो यैस्तेऽन्तकृतः ते च तीर्थकरादयस्तेषां दशाः अन्तकृद्दशाः, इह चाष्टमाङ्गस्य प्रथमवर्गे दशाध्ययनानीतिमा तत्सङ्ख्ययोपलक्षितत्वादन्तकृद्दशा इत्यभिधानेनाष्टममनमभिहितं, तथा उत्तर-प्रधानो नास्योत्तरो विद्यत इत्यनुत्तरः उपपतनमुपपातो जन्मेत्यर्थः अनुत्तरश्चासाचुपपातश्चेत्यनुत्तरोपपातः सोऽस्ति येषां तेऽनुत्तरोपपातिकाः सर्वार्थसिख्या| दिविमानपञ्चकोपपातिन इत्यर्थस्तद्वक्तव्यताप्रतिवद्धा दशा-दशाध्ययनोपलक्षिता अनुत्तरोपपातिकदशाः नवममङ्गमिति, तथा चरणमाचारो ज्ञानादिविषयः पश्चधा आचारप्रतिपादनपरा दशा-दशाध्ययनात्मिका आचारदशा, दशाश्रुत-14 स्कन्ध इति या रूढाः, तथा प्रश्नाच-पृच्छा व्याकरणानि च-निर्वचनानि प्रश्नव्याकरणानि तत्प्रतिपादिका दशाः-दशाध्ययनामिकाः प्रश्नव्याकरणदशाः दशमममिति, तथा बन्धदशाद्विगृद्धिदशादीर्घदशासङ्गेपिकदशाश्चास्माकमप्रतीता | इति । कर्मविपाकदशानामध्ययनविभागमाह-कम्मे'त्यादि, 'मिगे'त्यादि श्लोकः सार्द्ध, मृगा-मृगग्रामाभिधाननगरराजस्य विजयनाम्नो भार्या तस्याः पुत्रो मृगापुत्रा, तत्र किल नगरे महावीरो गौतमेन समवसरणागतं जात्यन्धनर मवलोक्य पृष्टो-भदन्त ! अन्योऽपीहास्ति जात्यन्धो?, भगवांस्तं मृगापुत्रं जात्यन्धमनाकृतिमुपदिदेश, गौतमस्तु कुतू-15 #हलेन तदर्शनार्थं तदहं जगाम, मृगादेवी च वन्दित्वाऽऽगमन कारणं पप्रच्छ, गौतमस्तु स्वरपुत्रदर्शनार्थमित्युवाच, ततः सा भूमिगृहस्थं तदुद्घाटनतस्तं गौतमस्य दर्शितवती, गौतमस्तु तमतिघृणास्पदं दृष्ट्वाऽऽगत्य च भगवन्तं पप्रच्छ गाथा: 4545-45134%ॐॐ दीप अनुक्रम [९६६-९७६] E पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~446~ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७५४-७५६] + गाथा: दीप अनुक्रम [९६६ -९७६] श्रीस्थाना झसूत्र वृत्तिः ॥ ५०७ ॥ [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५६] कोऽयं जन्मान्तरेऽभवत् १, भगवानुवाच-अयं हि विजयवर्द्धमानकाभिधाने खेटे मकापीत्यभिधानो उंचोपचारादिभिोकोपतापकारी राष्ट्रकूटो बभूव, ततः षोडशरोगातङ्काभिभूतो मृतो नरकं गतः, ततः पापकर्मविपाकेन मृगापुत्रो लोष्टाकारोऽव्यकेन्द्रियो दुर्गन्धिर्जातः, ततो मृत्वा नरकं गन्ता इत्यादि तद्वक्तव्यताप्रतिपादकं प्रथममध्ययनं मृगापुत्रमुक्तमिति १, 'गोत्तासे' ति गोरखासितवानिति गोत्रासः, अयं हि हस्तिनागपुरे भीमाभिधानकूटग्राहस्योत्पलाभिधानायाः भार्यायाः पुत्रोऽभूत्, प्रसवकाले चानेन महापापसत्त्वेनाराट्या गावस्त्रासिताः, यौवने चायं गोमांसान्यनेकधा भक्षितवान् ततो नारको जातः, ततो वाणिजग्रामनगरे विजयसार्थवाहभद्रा भार्ययोरुज्झितकाभिधानः पुत्रो जातः, स च कामध्वजगणिकार्ये राज्ञा तिलशो मांसच्छेदनेन तत्खादनेन च चतुष्पथे विडम्ब्य व्यापादितो नरकं जगामेति गोत्रासवतव्यताप्रतिबद्धं द्वितीयमध्ययनं गोत्रासमुच्यते, इदमेव चोज्झितकनाम्ना विपाकश्रुते उज्झितकमुच्यते २, 'अंडे'ति पुरिमतालनगरवास्तव्यस्य कुक्कुटाद्यनेकविधाण्डकभाण्डव्यवहारिणो वाणिजकस्य निन्नकाभिधानस्य पापविपाकप्रतिपादकमण्डमिति, स च निन्नको नरकं गतस्तत उद्वृत्तोऽभग्नसेननामा पल्लीपतिर्जातः, स च पुरिमतालनगरवास्तव्येन निरन्तरं देशलूषणाति कोपितेन विश्वास्याऽऽनीय प्रत्येकं नगरचत्वरेषु तदग्रतः पितृव्यपितृव्यानीप्रभृतिकं स्वजनवर्ग विनाश्य तिलशो मांसच्छेदनरुधिरमांसभोजनादिना कदर्थयित्वा निपातित इंति, विपाकश्रुते चाभनसेन इतीदमध्ययनमुच्यते ३, 'सगडेत्ति यावरे' शकटमिति चापरमध्ययनं तत्र शाखांजन्यां नगर्यो सुभद्राख्यसार्थवाहभद्राभिधानतद्भार्ययोः पुत्रः शकटः, स च सुसेनाभिधानामात्येन सुदर्शनाभिधानगणिका व्यतिकरे सगणिको मांसच्छेदा Educatonitamational Für Fortal & Private १० स्थाना. उद्देशः ३ छद्मस्थेत राज्ञेयत्रे याः कमे | विपाकद ~ 447~ शायाः सू० ७५५७५६ ॥ ५०७ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... आगमसूत्र - [ ०३] अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५६] (०३) प्रत 4515 सूत्रांक [७५४-७५६] दिनाऽत्यन्तं कदर्थयित्वा विनाशिता, स च जन्मान्तरे छगलपुरे नगरे छनिकाभिधानः छागलिको मांसप्रिय आसी-1 दित्येतदर्थप्रतिबद्धं चतुर्थमिति ४, 'माहणे'त्ति कोशाम्ब्यां बृहस्पतिदत्तनामा आक्षणः, स चान्तःपुरव्यतिकरे उदयनेन| ४ राज्ञा तथैव कदर्थयित्वा मारितो जन्मान्तरे चासावासीत् महेश्वरदत्तनामा पुरोहितः, स च जितशत्रो राज्ञः शत्रुज-18 यार्थ ब्राह्मणादिभिहोंमं चकार, तत्र प्रतिदिनमेकैकं चातुर्वर्ण्यदारकमष्टम्यादिषु द्वौ द्वौ चतुर्मास्यां चतुरश्चतुरः पण्मास्यामष्टावष्टौ संवत्सरे पोडश २ परचक्रागमे अष्टशतं २ परचक्रं च जीयते, तदेवं मृत्वाऽसौ नरकं जगामेत्येवंब्राह्मण-I वक्तव्यतानिबद्धं पञ्चममिति ५, 'नन्दिसेणे यत्ति मथुरायां श्रीदामराजसुतो नंदिषेणो युवराजो विपाकश्रुते च नन्दिवर्द्धनः श्रूयते, स च राजद्रोहव्यतिकरे राज्ञा नगरचत्वरे तप्तस्य लोहस्य द्रवेण स्नानं तद्विधसिंहासनोपवेशनं क्षारतलभृतकलशै राज्याभिषेक च कारयित्वा कष्टमारेण परासुतां नीतो नरकमगमत् , स च जन्मान्तरे सिंहपुरनगरराजस्य सिंहरथाभिधानस्य दुर्योधननामा गुप्तिपालो बभूव अनेकविधयातनाभिर्जन कदर्थयित्वा मृतः नरकं गतवानित्येवमर्थ षष्ठमिति ६, 'सोरिय'त्ति शौरिकनगरे शौरिकदत्तो नाम मत्स्यवन्धपुत्रा, स च मत्स्यमांसप्रियो गलवि-16 लग्नमत्स्यकण्टको महाकष्टमनुभूय मृत्वा नरकं गतः, स च जन्मान्तरे नन्दिपुरनगरराजस्य मित्राभिधानस्य श्रीको नाम महानसिकोऽभूत् जीवधातरतिः मांसप्रियश्च, मृत्वा चासौ नरकं गतवानिति सप्तमं, इदं चाध्ययनं विपाकश्रुतेऽष्टममधीतं ७, 'उदुम्बरेंत्ति पाडलीषण्डे नगरे सागरदत्तसार्थवाहसुतः उदुम्बरदत्तो नाम्नाऽभूत , स च पोडशभिरॊगैरेकदाभिभूतो महाकष्टमनुभूय मृतः, स च जन्मान्तरे विजयपुरराजस्य कनकरथनाम्नो धन्वन्तरिनामा वैद्य गाथा: दीप अनुक्रम [९६६ -९७६] SamEaucator पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~448~ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७५४ -७५६] + गाथा: दीप अनुक्रम [९६६ -९७६] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृतिः ॥ ५०८ ॥ [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७५६ ] स्थान [१०], उद्देशक [-], आसीत् मांसप्रियो मांसोपदेष्टश चेतिकृत्वा नरकं गतवानित्यष्टमं ८, 'सहसुद्दाहेति सहसा अकस्मादुद्दाहः प्रकृष्टो दाहः सहसोद्दाहः सहस्राणां वा लोकस्योद्दाहः सहस्रोद्दाहः, 'आमलए'त्ति रश्रुतेर्लश्रुतिरित्यामरकः - सामस्त्येन मारिः, एवमर्थप्रतिवद्धं नवमं तत्र किल सुप्रतिष्ठे नगरे सिंहसेनो राजा श्यामाभिधान देव्यामनुरक्तस्तद्वचनादेवै कोनानि पश्च शतानि देवीनां तां मिमारयिपूणि ज्ञात्वा कुपितः सम् तम्मादणामेकोनपञ्च शतान्युपनिमन्य महत्यगारे आवासं दत्त्वा भक्तादिभिः संपूज्य विश्रब्धानि सदेवीकानि सपरिवाराणि सर्वतो द्वारबन्धनपूर्व कमग्निप्रदानेन दग्धवान् ततोsaौ राजा मृत्वा च षष्ठ्यां गत्वा रोहीतके नगरे दत्तसार्थवाहस्य दुहिता देवदत्ताभिधानाऽभवत् सा व पुष्पनन्दिना राज्ञा परिणीता स च मातुर्भक्तिपरतया तत्कृत्यानि कुर्वन्नासामास तया व भोगविघ्नकारिणीति तन्मातुर्ज्वल| लोहदण्डस्यापानप्रक्षेपात्सहसा दाहेन वधो व्यधायि राज्ञा चासौ विविधविडम्बनाभिर्विडम्थ्य विनाशितेति विपाकश्रुते देवदत्ताभिधानं नवममिति ९, तथा 'कुमारे लेच्छई इयत्ति कुमारा - राज्यार्हाः, अथवा कुमाराः प्रथमवयस्यास्तान् 'लेच्छई इय'त्ति लिप्तूंश्च वणिज आश्रित्य दशममध्ययनमितिशब्दश्च परिसमाप्ती भिन्नक्रम, अयमत्र भावार्थ:-यदुत इन्द्रपुरे नगरे पृथिवी श्रीनामगणिकाऽभूत् सा व बहून् राजकुमारवणिक्पुत्रादीन् मन्त्रचूर्णादिभिर्वशीकृत्वोदारान् भोगान् भुक्तवती षष्ठ्यां च गत्वा बर्द्धमाननगरे धनदेव सार्थवाहदुहिता अज्जूरित्यभिधाना जाता सा च विजयराजपरिणीता योनिशूलेन कृच्छ्रं जीवित्वा नरकं गतेति, अत एव विपाकश्रुते अजे इति दशममध्ययनमुच्यत इति १० ॥ उपासकदशा चिवृण्वन्नाह 'दसे त्यादि, 'आनन्द' सार्थः श्लोकः, 'आनंदे'सि आनन्दो वाणिजप्रामाभिधा Far Far & Fran १० स्थाना. उद्देशः ३ उद्मस्थेतराज्ञेयज्ञे याः कर्मविपाकदशाज्ञाः ~ 449 ~ सू० ७५५ ७५६ ॥ ५०८ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र - [ ०३] अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५६] (०३) प्रत सूत्रांक [७५४-७५६] 35555 ननगरवासी महर्द्धिको गृहपतिर्महावीरेण घोधित एकादशोपासकप्रतिमाः कृत्वोखन्नावधिज्ञानो मासिक्या संलेखनया 31 सौधर्मभगमदितिवक्तव्यताप्रतिबद्धं प्रथममध्ययनं आनन्द एवोच्यत इति १, 'कामदेवेति कामदेवश्चम्पामगरीवास्तव्यस्तथैव प्रतिबुद्धः परीक्षाकारिदेवकृतोपसर्गाविचलितप्रतिज्ञस्तधैव दिवमगमदित्येवमर्थ द्वितीयं कामदेव इति २,'गाहावह घूलणीपियत्ति चुलनीपितॄनाम्ना गृहपतिर्वाणारसीनिवासी तथैव प्रतिबुद्धः प्रतिपन्नप्रतिमो विमर्शकदेवेन मा-13 तरं त्रिखण्डीक्रियमाणां दृष्ट्वा क्षुभितश्चलितप्रतिज्ञो देवनिग्रहार्थमुद्दधाव पुनः कृतालोचनस्तथैव दिवं गत इतिवक्तव्यताप्रतिबुद्धं चुलनीपितेत्युच्यते ३, 'सुरादेवेति सुरादेवो गृहपतिर्वाराणसीनिवासी परीक्षकदेवस्य पोडश रोगातकान् भवतः शरीरे समकमुपनयामि यदि धर्म न त्यजसीतिवचनमुपश्रुत्य चलितप्रतिज्ञः पुनरालोचितप्रतिक्रान्तस्तथैव दिवं गत इतिवक्तव्यताभिधायक सुरादेव इति ४, 'चुल्लसयए'त्ति महाशतकापेक्षया लघुः शतकः चुलशतका, स चाल-18 म्भिकानगरवासी देवेनोपसर्गकारिणा द्रव्यमपहियमाणमुपलभ्य चलितप्रतिज्ञः पुनर्निरतिचारः सन् दिवमगमद् यथा तथा यत्राभिधीयते तचुलशतक इति ५, 'गाहावइ कुंडकोलिए'ति कुंडकोलिको गृहपतिः काम्पील्यवासी धर्म-18 ध्यानस्थो यथा देवस्य गोशालकमतमुद्राहयत उत्तरं ददौ दिवं च ययौ तथा यत्र अभिधीयते तत्तथेति ६, 'सद्दाल-14 पुत्तेत्ति सहालपुत्रः पोलासपुरवासी कुम्भकारजातीयो गोशालकोपासको भगवता बोधितः पुनः स्वमतमाहणोद्यतेन गोशालकेनाक्षोभितान्तःकरणः प्रतिपन्नप्रतिमश्च परीक्षकदेवेन भार्यामारणदर्शनतो भनप्रतिज्ञा पुनरपि कृतालोच-18 नस्तथैव दिवं गत इतिवकव्यताप्रतिवद्धं सद्दालपुत्र इति ७,'महासयए'त्ति महाशतकनानो गृहपते राजगृहनगरनि गाथा: दीप अनुक्रम [९६६ 45 -९७६] SamEascatendians पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~450~ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७५४-७५६] + गाथा: दीप अनुक्रम [९६६ -९७६] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृतिः ॥ ५०९ ॥ [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७५६ ] स्थान [१०], उद्देशक [-], वासिनत्रयोदशभार्यापतेरुपासकप्रतिमा कृतम तेरुत्यन्नावधिसंजाताधिगते रेवत्यभिधानस्वभार्याकृतानुकू लोपसर्गाचलमतेः संलेखना जातदिविगतेर्वतव्यतानिबद्धं महाशतक इति ८, 'नंदिणीपिय'त्ति नन्दिनीपितॄनामकस्य श्रावस्तीवास्तव्यस्य भगवता बोधितस्य संलेखनादिगतस्य वक्तव्यतानिबन्धनान्नंदिनी पितृनामकमिति ९, 'सालइयापिय'त्ति सालहकापितृनाम्नः श्रावस्तीनिवासिनो गृहमेधिनो भगवतो बोधिलाभिनोऽनन्तरं तथैव सौधर्म्मगामिनो वक्तव्यतानिबद्धं सालेपिकापितृनामकं दशममिति १० । दशाप्यमी विंशतिवर्षपर्यायाः सौधर्मे गताश्चतुः पत्योपमस्थितयो देवा जाता महाविदेहे च सेत्स्यन्तीति ॥ अथान्तकृद्दशानामध्ययन विवरणमाह- 'अंतगडे 'त्यादि, इह चाष्टौ वर्गास्तत्र प्रथमवर्गे दशाध्ययनानि तानि चामूनि - 'नमीत्यादि सार्द्ध रूपकम् एतानि च नमीत्यादिकान्यन्त कृत्साधुनामानि अन्तकृदशा| प्रथमवर्गेऽध्ययनसङ्ग्रहे नोपलभ्यन्ते यतस्तत्राभिधीयते " गोयम १ समुह २ सागर ३ गंभीरे ४ चेव होइ थिमिए ५ य । अयले ६ कंपिले ७ खलु अक्खोभ ८ पसेणई ९ विण्हू १० ॥ १ ॥” इति [ गौतमः १ समुद्रः २ सागरः ३ गंभीरः ४ चैव भवति स्तिमितश्च ५ अचलः ६ कांपील्यः ७ अक्षोभ्यः ८ प्रसेनजित् ९ विष्णुः १० ॥ १ ॥ ] ततो वाचनान्तरापेक्षाणीमानीति सम्भावयामः, न च जन्मान्तरनामापेक्षयैतानि भविष्यन्तीति वाच्यं, जन्मान्तराणां तत्रानभिधीयमानत्वादिति ॥ अधुनानुत्तरोपपातिकदशानामध्ययनविभागमाह - 'अणुप्तरो' इत्यादि, इह च त्रयो वर्गास्तत्र तृतीयवर्गे दृश्यमानाध्ययनैः कैश्चित् सह साम्यमस्ति न सर्वैः, यत इहोकम् -- 'इसिदासे' त्यादि, तत्र तु दृश्यते--" धन्ने य सुनक्खते, इसिदासे य आहिए। पेलए रामपुत्ते य, चंदिमा पोट्टिके इय ॥ १ ॥ पेढालपुत्ते अणगारे, अणगारे पोट्टिले इय। विहले दसमे बुत्ते, Education Intamation Far Far & Private On १० स्थाना. उद्देशः ३ छद्मस्त राज्ञेयज्ञे याः कर्मविपाकद शाद्याः सू० ७५५७५६ ~451~ ॥ ५०९ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५६] (०३) प्रत सूत्रांक [७५४-७५६] एमए दस आहिया ॥२॥" इति [धन्यश्च सुनक्षत्रः ऋषिदासश्चाख्यातः पेल्लको रामपुत्रश्चंद्रमाः प्रोष्ठक इति ॥१॥ पेढालपु-1 दावोऽनगारः पोट्टिलश्च विहलः दशम उक्तः एवमेते आख्याता दश ॥२॥] तदेवमिहापि वाचनान्तरापेक्षयाऽध्ययनवि-18 Mभाग उको न पुनरुपलभ्यमानवाचनापेक्षयेति, तत्र धन्यकसुनक्षत्रकथानके एवं-काकन्यां नगर्यो भद्रासार्थवाहीसुतो धन्यको नाम महावीरसमीपे धर्ममनुश्रुत्य महाविभूत्या प्रवजितः षष्ठोपवासी उज्झ्यमानलब्धाचाम्लपारणो विशिष्टतपसा क्षीणमांसशोणितो राजगृहे श्रेणिकमहाराजस्य चतुर्दशानां श्रमणसहस्राणां मध्येऽतिदुष्करकारक इति महावीरेण व्याहृतस्तेन च राज्ञा सभक्तिकं वन्दित उपबृंहितश्च कालं च कृत्वा सर्वार्थसिद्धविमान उसन्न इति, एवं सुनक्षत्रोऽपीति, कार्तिक इति हस्तिनागपुरे श्रेष्ठी इभ्यसहस्रप्रथमासनिकः श्रमणोपासको जितशत्रुराजस्याभियोगाच्च परिव्राजकस्य मासक्षपणपारणके भोजनं परिवेषितवान् तमेव निर्वेदं कृत्वा मुनिसुव्रतस्वामिसमीपे प्रव्रज्यां प्रतिपन्नवान द्वादशाङ्ग-18 धरो भूत्वा शक्रत्वेनोसन्न इत्येवं यो भगवत्यां श्रूयते सोऽन्य एव अयं पुनरन्योऽनुत्तरसुरेखूपपन्न इति, 'शालिभद्र इति यः पूर्वभवे सङ्गमनामा वत्सपालोऽभवत् , सबहुमानं च साधवे पायसमदात् , राजगृहे गोभद्रवेष्ठिनः पुत्रत्वेनो पन्नो, देवीभूतगोभद्रवेष्ठिसमुपनीतदिव्य भोजनवसनकुसुमविलेपनभूषणादिभि गाडैरङ्गनानां द्वात्रिंशता सह सप्त-18 है भूमिकरम्यहऱ्यातलगतो ललति स्म, वाणिजकोपनीतलक्षमूल्यबहुरत्नकम्बला गृहीता भद्रया शालिभद्रमात्रा वधूनां पादप्रोञ्छनीकृताश्चेतिश्रवणाज्जातकुतूहले दर्शनार्थ गृहमागते श्रेणिकमहाराजे जनन्याऽभिहितो-यथा त्वां स्वामी द्रष्टुमिच्छतीत्यवतर प्रासादशृङ्गात् स्वामिनं पश्येतिवचनश्श्रवणादस्माकमप्यन्यः स्वामीति भावयन् वैराग्यमुपजगाम 8 गाथा: दीप अनुक्रम [९६६ -९७६] ET पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~452~ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७५४-७५६] + गाथा: दीप अनुक्रम [९६६ -९७६] श्रीस्थाना असूत्रवृत्तिः ॥ ५१० ॥ Educato [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७५६] स्थान [१०], उद्देशक [-], वर्द्धमानखामिसमीपे च प्रवत्राज, विकृष्टतपसा क्षीणदेहः शिलातले पादपोपगमन विधिनाऽनुत्तरसुरेश्वनवानिति सोऽयमिह सम्भाव्यते, केवलमनुत्तरोपपातिका नाधीत इति, 'तेतलीतिय'त्ति तेतलिसुत इति यो ज्ञाताध्ययनेषु श्रूयते स नायं तस्य सिद्धिगमनश्रवणात्, तथा दशार्णभद्रो दशार्णपुरनगरवासी विश्वंभराविभुः यो भगवन्तं महावीरं दशार्णकूटनगरनिकटसमवस्तमुद्यानपालवचनादुपलभ्य यथा न केनापि वन्दितो भगवांस्तथा मया वन्दनीय इति राज्यसम्पदवलेपाद्भचितश्च चिन्तयामास ततः प्रातः सविशेषकृतस्नान विलेपनाभरणादिविभूषः प्रकल्पितप्रधानद्विपपतिपृष्ठाधिरूढो वल्गनादिविविधक्रियाकारिसदर्पसच्चतुरङ्गसैन्यसमन्वितः पुष्पमाणवसमुद्धुष्यमाणाननितगुणगणः सामन्तामात्यमन्त्रिराजदौवारिक दूतादिपरिवृतः सान्तःपुरपौरजनपरिगत आनन्दमयमिव सम्पादयम् मही| मण्डलमाखण्डल इवामरावत्या नगरान्निर्जगाम निर्गत्य च समवसरणमभिगम्य यथाविधि भगवन्तं भव्यजनमलिनवनविबोधनाभिनवभानुमन्तं महावीरं वन्दित्वोपविवेश, अवगतदशार्णभद्रभूपाभिप्रायं च तन्मानविनोदनोचतं कृताटमुखे प्रतिमुखं विहिताष्टदन्ते प्रतिदन्तं कृताष्टपुष्करिणीके प्रतिपुष्करिणि निरूपिताष्टपुष्करे प्रतिपुष्करं विरचिताष्टदले प्रतिदलं विरचितद्वात्रिंशद्बद्धनाटके वारणेन्द्रे समारूढं स्वश्रिया निखिलं गगनमण्डलमारपूरयन्तममरपतिमवलोक्य कुतोऽस्मादृशामीदृशी विभूतिः कृतोऽनेन निरवद्यो धर्म इति ततोऽहमपि तं करोमीति विभाव्य प्रवमाज, जितोऽहमधुना त्वयेति भणित्वा यमिन्द्रः प्रणिपपातेति सोऽयं दशार्णभद्रः सम्भाव्यते परमनुत्तरोपपातिकाने नाधीतः, कचित्सिद्धश्च श्रूयत इति, तथा अतिमुक्तः एवं श्रूयते अन्तकृद्दशाङ्गे -पोलासपुरे नगरे विजयस्य राज्ञः श्रीमान्या Far Far & Private पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~ 453~ १० स्थाना. उद्देशः ३ छद्मस्थेतराज्ञेयज्ञे याः कर्म विपाकदशाद्याः सू० ७५५७५६ ॥ ५१० ॥ anthray.org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५६] (०३) प्रत सूत्रांक [७५४-७५६] &+++S+GR5RCASSES देव्या अतिमुक्तको नाम पुत्रः षड्वार्षिको गौतमं गोचरगतं दृष्ट्वा एवमवादीत्-के यूयं किं वा अटथ!, ततो गौतमोवादीत्-श्रमणा वयं भिक्षार्थं च पर्यटामः, तर्हि भदन्तागच्छत तुभ्यं भिक्षां दापयामीति भणित्वा अङ्गुल्या भगवन्तं गृहीत्वा स्वगृहमानैषीत्, ततः श्रीदेवी हृष्टा भगवन्तं प्रतिलम्भयामास, अतिमुक्तकः पुनरवोचत्-यूयं क सथ', भगवानुवाच-भद्र! मम धर्माचार्याः श्रीवर्द्धमानस्वामिन उद्याने वसति तत्र वयं परिवसामा, भदन्त ! आगच्छाम्यह भवद्भिः सार्धं भगवतो महावीरस्य पादान् वन्दितुं', गौतमोऽवादीत्-यथासुखं देवानां प्रिय!, ततो गौतमेन सहागत्यातिमुक्तकः कुमारो भगवन्तं वन्दते, स धर्मं श्रुत्वा प्रतिबुद्धो गृहमागत्य पितरावब्रवीत् यथा संसारान्निधिण्णोऽहं || अनजामीत्यनुजानीतं मां युवा, तावूचतुः-बाल! त्वं किं जानासि', ततोऽतिमुक्तकोऽवादीत्-हे अम्बतात! थदेवाह । जानामि तदेव न जानामि, यदेव न जानामि तदेव जानामि, ततस्तो तमवादिष्टां-कथमेतत् १, सोऽब्रवीत्-अम्बतात! जानाम्वहं यदुत-जातेनावश्यं मर्त्तव्यं, न जानामि तु कदा वा कस्मिन् वा कथं वा कियश्चिराद्वा, तथा न जानामि कैः कर्मभिर्निरयादिषु जीवा उत्पद्यन्ते एतत्पुनर्जानामि यथा स्वयंकृतैः कर्मभिरिति, तदेवं मातापितरौ प्रतिबोध्य प्रवनाज तपः कृत्वा च सिद्ध इति, इह त्वयमनुत्तरोपपातिकेषु दशमाध्ययनतयोक्तस्तदपर एवायं भविष्यतीति, 'दस आहियसि दशाध्ययनान्याख्यातानीत्यर्थः ॥ आचारदशानामध्ययनविभागमाह-आयारे'त्यादि, असमाधिः-ज्ञाना-M दिभावप्रतिषेधोऽप्रशस्तो भाव इत्यर्थः तस्य स्थानानि-पदानि असमाधिस्थानानि चैरासेवितैरात्मपरोभयानामिह परत्र चोभयत्र वा असमाधिरुत्सद्यते तानीति भावः, तानि च विंशतिः द्रुतचारित्वादीनि तत एवावगम्यानीति, सत्यतिपादकम गाथा: दीप अनुक्रम [९६६ 5 -९७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~4544 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७५४-७५६] + गाथा: दीप अनुक्रम [९६६ -९७६] १० स्थाना. उद्देशः ३ छद्मस्थेतराज्ञे यज्ञे श्रीस्थाना- ध्ययनमसमाधिस्थानानीति प्रथमं, तथा एकविंशतिः 'शवलाः' शबलं - कर्बुरं द्रव्यतः पटादि भावतः सातिचारं चारित्रं, इह च शबलचारित्रयोगाच्छबलास्साधवस्ते च करकर्म्मप्रकारान्तरमै थुनादीन्येकविंशतिपदानि तत्रैवोकरूपाणि सेवमाना उपाधित एकविंशतिर्भवन्ति तदर्थमध्ययनं एकविंशतिशवला इत्यभिधीयते २, 'तेत्तीसमासायणाउ'त्ति ज्ञानादिगुणा आ-सामस्त्येन शात्यन्ते - अपध्यस्यन्ते यकाभिस्ता आशातना - रत्नाधिकविषया विनयरूपाः पुरतोगमनादिका - स्तत्प्रसिद्धात्रयस्त्रिंशद्भेदा यत्राभिधीयन्ते तदध्ययनमपि तथोच्यत इति ३, 'अट्ठे'त्यादि, अष्टविधा गणिसम्पत् आयाः कर्मचारश्रुतशरीरवचनादिका आचार्यगुणर्द्धिरष्टस्थान कोकरूपा यत्राभिधीयते तदध्ययनमपि तथोच्यत इति ४, 'दसे'त्यादि, दश चित्तसमाधिस्थानानि येषु सत्सु चित्तस्य प्रशस्तपरिणतिर्जायते तानि तथा, असमुत्पन्नपूर्वकधर्मचिन्तोसा| दादीनि तत्रैव प्रसिद्धान्यभिधीयन्ते यत्र तत्तथैवोच्यत इति ५, 'एक्कारेत्यादि, एकादशोपासकानां श्रावकाणां प्रतिमाः -प्रतिपत्तिविशेषाः दर्शनत्रतसामायिकादिविषयाः प्रतिपाद्यन्ते यत्र तत्तथैवोच्यत इति ६, 'बारसेत्यादि, द्वादश भिक्षूणां | प्रतिमाः-अभिग्रहा मासिकी द्विमासिकीप्रभृतयो यत्राभिधीयन्ते तत्तथोच्यते, 'पज्जो' इत्यादि, पर्याया ऋतुबद्धकाः द्रव्यक्षेत्रकालभावसम्बन्धिन उत्सृज्यन्ते - उज्यन्ते यस्यां सा निरुक्तविधिना पर्यासवना अथवा परीति-सर्वतः क्रोधादिभावेभ्यः उपशम्यते यस्यां सा पर्युपशमना अथवा परि:- सर्वथा एकक्षेत्रे जघन्यतः सप्ततिदिनानि उत्कृष्टतः षण्मासान् | वसनं निरुक्तादेव पर्युषणा तस्याः कल्पः- आचारी मर्यादेत्यर्थः पर्योसवनाकल्पः पर्युपशमनाकल्पः पर्युषणाकल्पो वेति, स च ' सकोसजोयणं विगइनवयमित्यादिकस्तत्रैव प्रसिद्धस्तदर्थ मध्ययनं स एवोच्यत इति ८, 'तीस' मित्यादि, त्रिंश सूत्र वृत्तिः ॥ ५११ ॥ [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७५६ ] स्थान [१०], उद्देशक [-], Educato Far Far & Pra Use On पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् ~455~ * विपाकदशाद्याः सू० ७५५७५६ ॥ ५११ ॥ [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७५४ -७५६] + गाथा: दीप अनुक्रम [९६६ -९७६] स्था० ८६ Education +++ [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५६ ] न्मोहनीय कर्मणो वन्धस्थानानि वन्धकारणानि 'वारिमज्झेऽवगाहित्ता, तसे पाणे विहिंस' त्यादिकानि तत्रैव प्रसिद्धानि मोहनीयस्थानानि तत्प्रतिपादकमध्ययनं तथैवोच्यत इति ९, 'आजाइट्ठाण' मिति आजननमाजातिः - सम्मूर्च्छन गर्भा पपाततो जन्म तस्याः स्थानं संसारस्तत्सनिदानस्य भवतीत्येवमर्थप्रतिपादन परमाजातिस्थानमुच्यत इति १० ॥ प्रश्नव्याकरणदशा इहोकरूपा न दृश्यन्ते दृश्यमानास्तु पञ्चाश्रवपञ्चसंवरात्मिका इति इहोकानां तूपमादीनामध्ययनानामक्षरार्थः प्रतीयमान एवेति, नवरं 'पसिणाई'ति प्रश्नविद्याः यकाभिः क्षौमकादिषु देवतावतारः क्रियत इति, तत्र क्षीमकं वस्त्रं अद्दागो- आदर्शः अङ्गुष्ठो हस्तावयवः बाहवो भुजा इति ॥ बन्धदशानामपि बन्धाद्यध्ययनानि श्रौतेनार्थेन व्याख्यातव्यानि । द्विगृद्धिदशाश्च स्वरूपतोऽप्यनवसिताः । दीर्घदशाः स्वरूपतोऽनवगता एव तदध्ययनानि तु कानिचिन्नरकावलिकाश्रुतस्कन्धे उपलभ्यन्ते, तत्र चन्द्रवतव्यताप्रतिवद्धं चन्द्रमध्ययनं तथाहि राजगृहे महावीरस्य चन्द्रो ज्योतिष्कराजो वन्दनं कृत्वा नाट्यविधिं चोपदर्श्य प्रतिगतो, गौतमश्च भगवन्तं तद्वक्तव्यतां पप्रच्छ, भगवांथोवाच श्रावस्त्यामङ्गजिनामा अयं गृहपतिरभूत् पार्श्वनाथसमीपे च प्रत्रजितो विराध्य च मनाक् श्रामण्यं चन्द्रतयोत्पन्नो महाविदेहे च सेत्स्यतीति, तथा सूरवक्तव्यताप्रतिबद्धं सूरं, सूरखकन्यता च चन्द्रवत्, नवरं सुप्रतिष्ठो नाम्ना बभूवेति, शुको प्रहस्तद्वक्तव्यता चैवं- राजगृहे भगवन्तं वन्दित्वा शुके प्रतिगते गौतमस्य तथैव भगवानुवाच- बाणारस्यां * सोमिलनामा ब्राह्मणोऽयमभवत्, पार्श्वनाथं चापृच्छत्-ते भंते! जवणिज्जं', तथा 'सरिसवया मासा कुलत्था य ते भोज्जा ? एगे भवं दुवे भव'मित्यादि, भगवता चैतेषु विभक्तेष्वाक्षिप्तः श्रावको भूत्वा पुनर्विपर्यासादारामादि लौकिकध % Far Far & Pria Use Only पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~456~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५६] (०३) प्रत श्रीस्थाना- सूत्र- सूत्रांक वृत्तिः ॥५१२॥ [७५४-७५६] र्मस्थानानि कारयित्वा दिक्प्रोक्षकतापसत्वेन प्रवज्य प्रतिषष्ठपारणकं क्रमेण पूर्वादिदिग्भ्य आनीय कन्दादिकमभ्यवज- 1१०स्थाना. हार, अन्यदाऽसौ यत्र कचन गर्नादौ पतिष्यामि तत्रैव प्राणांस्त्यक्ष्यामीत्यभिग्रह्मभिगृह्य काधमुद्रया मुखं वदा उत्त- उद्देशः३ राभिमुखः प्रतस्थौ, तत्र प्रथमदिवसेऽपराह्नसमयेऽशोकतरोरधो होमादिकर्म कृत्वोवास, तत्र देवेन केनाप्युक्ता-अहोछद्मस्थेतसोमिलबाह्मणमहर्षे! दुष्पवजितं ते, पुनर्वितीयेऽहनि तथैव सप्तपर्णस्याध उपित उक्तः, तृतीयादिषु दिनेष्वश्वत्थवटो-1 राज्ञेयज्ञेदुम्बराणामध उषितः भणितो देवेन, ततः पञ्चमदिनेऽवादीदसौ-कथं नु नाम मे दुष्प्रनजितं ?, देवोऽवोचत्-त्वं पार्श्व- याः कर्मनाथस्य भगवतः समीपेऽणुव्रतादिक श्रावकधर्म प्रतिपद्याधुना अन्यथा वर्तस इति दुष्प्रबजितं तब, ततोऽद्यापि तमे- विपाकदवाणुव्रतादिकं धर्म प्रतिपद्यस्व येन सुप्रनजितं तव भवतीत्येवमुक्तस्तथैव चकार, ततः श्रावकरवं प्रतिपाल्यानालोचित-1 शायाः प्रतिक्रान्तः कालं कृत्वा शुक्रावतंसके विमाने शुक्रत्वेनोत्पन्न इति । तथा श्रीदेवीसमाश्रयमध्ययनं श्रीदेवीति, तथाहि- सू०७५५सा राजगृहे महावीरवन्दनाय सौधर्मादाजगाम, नाव्यं दर्शयित्वा प्रतिजगाम च, गौतमस्तत्पूर्वभवं पप्रच्छ, भगवास्तं | ७५६ जगाद-राजगृहे सुदर्शनश्रेष्ठी बभूव प्रियाभिधाना च तद्भार्या तयोः सुता भूतानाम बृहत्कुमारिका पार्श्वनाथसमीपे प्रव्रजिता शरीरबकुशा जाता सातिचारा च मृत्वा दिवं गता महाविदेहे च सेत्स्यतीति । तथा प्रभावती-चेटकदुहिता* वीतभयनगरनायकोदायनमहाराजभार्या यया जिनबिम्बपूजार्थ स्नानानन्तरं चेट्या सितवसनाप्पणेऽपि विचमाद्रतवसनमुपनीतमनवसरमनयेति मन्यमानया मन्युना दर्पणेन चेटिका हता मृता च, ततो वैराग्यादनशनं प्रतिपद्य देव-II तया यया बभूवे, यया चोजयिनीराज प्रति विक्षेपेण प्रस्थितस्य ग्रीष्मे मासि पिपासाभिभूतसमस्त सैन्यस्योदायनमहारा गाथा: ॐॐॐ दीप अनुक्रम [९६६-९७६]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~457~ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७५४ -७५६] + गाथा: दीप अनुक्रम [९६६ -९७६] [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७५६ ] स्थान [१०], उद्देशक [-], | जस्य स्वच्छशीतलजलपरिपूर्णत्रिपुष्कर करणेनोपकारोऽकारीत्येवंलक्षणप्रभावतीचरितयुक्तमध्ययनं प्रभावतीति सम्भाव्यते, न चेदं निरयावलिकाश्रुतस्कन्धे दृश्यत इति पञ्चमं, तथा बहुपुत्रिकादेवी प्रतिवद्धं सैवाध्ययनमुच्यते, तथाहि| राजगृहे महावीरवन्दनार्थं सौधर्मापुत्रिकाभिधाना देवी समवततार, बन्दित्वा च प्रतिजगाम, केयमिति पृष्ठे गौतमेन भगवानवादीत्-वाराणस्यां नगर्यो भद्राभिधानस्य सार्थवाहस्य सुभद्राभिधाना भार्येयं बभूव सा च वन्ध्या | पुत्रार्थिनी भिक्षार्थमागतमार्यासंघाटकं पुत्रलाभं पप्रच्छ स च धर्ममचकथत् प्राब्राजीच्च, सा बहुजनापत्येषु प्रीत्याऽभ्यङ्गोद्वर्त्तनापरायणा सातिचारा मृत्त्वा सौधर्म्ममगमत्, ततश्युता च विभेले सन्निवेशे ब्राह्मणीत्वेनोत्पत्स्यते, ततः पितृभागिनेयभार्या भविष्यति युगलप्रसवा च सा षोडशभिर्वर्षैः द्वात्रिंशदपत्यानि जनयिष्यति, ततोऽसौ तन्निर्वेदादार्याः प्रक्ष्यति ताश्च धर्म्म कथयिष्यन्ति श्रावकत्वं च सा प्रतिपत्स्यते, कालान्तरे प्रत्रजिष्यति, सौधर्मे चेन्द्रसामानिकतयो त्पद्य महाविदेहे सेत्स्यतीति । तथा स्थविरः- सम्भूतविजयो भद्रबाहुस्वामिनो गुरुभ्राता स्थूलभद्रस्य सगडालपुत्रस्य दीक्षादाता तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धमध्ययनं स एवोच्यत इति नवमं शेषाणि त्रीण्यप्रतीतानीति । संक्षेपिकदशा अप्यनवगतस्वरूपा एव तदध्ययनानां पुनरयमर्थः - 'खुड्डिए'त्यादि, इहावलिकाप्रविष्टेतरविमानप्रविभजनं यत्राध्ययने तद्विमानप्रविभक्तिः, तच्चैकमल्पग्रन्थार्थे तथाऽन्यन्महाग्रन्थार्थमतः क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्तिर्महती विमानप्रविभक्तिरिति, अङ्गस्य - आचारादेश्चूलिका यथाऽऽचारस्यानेकविधा, इहोक्तानुकार्थसङ्ग्राहिका चूलिका, 'वग्गचूलिय'त्ति इह च वर्गः- अध्ययनादिसमूहो, यथा अन्तकृदशास्वष्टौ वर्गास्तस्य चूलिका वर्गचूलिका, 'विवाहचूलिय'त्ति व्याख्या -भगवती तस्याधूलिका Education intimational Far Far & Fran पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~458~ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७५४ -७५६] + गाथा: दीप अनुक्रम [९६६ -९७६] श्रीस्थानाज्ञसूत्र वृति: ॥ ५१३ ॥ Educato *%% [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७५६ ] स्थान [१०], उद्देशक [-], व्याख्याचूलिका, 'अरुणोपपात' इति इहारुणो नाम देवस्तत्सम्यनिबद्धो ग्रन्धस्तदुपपातहेतुररुणोपपातो, यदा तदध्ययनमु पयुक्तः सन् श्रमणः परिवर्त्तयति तदाऽसावरुणो देवः स्वसमय निबद्धत्वाच्चलितासनः सम्भ्रमेोद्धान्तलोचनः प्रयुक्तावधिस्तद्विज्ञाय हृष्टप्रहृष्टश्चलचपलकुण्डलधरो दिव्यया द्युत्या दिव्यया विभूत्या दिव्यया गत्या यत्रैवासी भगवान् श्रमणस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च भक्तिभरावनतवदनो विमुक्तवरकुसुमवृष्टिरवपतति, अवपत्य च तदा तस्य भ्रमणस्य पुरतः स्थित्वा अन्तर्हितः कृताञ्जलिक उपयुक्तः संवेगविशुज्यमानाध्यवसानः शृण्वंस्तिष्ठति, समाप्ते च भणति सुस्वाध्यायितं सुखाध्यावितमिति, वरं वृणीष्व २ इति, ततोऽसाविहलोकनिष्पिपासः समतृणमणिमुक्कालेष्टुकाञ्चनः सिद्धिवधू निर्भरानुगतचित्तः श्रवणः प्रतिभणति न मे वरेणार्थ इति, ततोऽसावरुणो देवोऽधिकतर जातसंयेगः प्रदक्षिणां कृत्वा वन्दित्वा नमस्थित्वा प्रतिगच्छति, एवं वरुणोपपातादिष्वपि भणितव्यमिति । एवंभूतं च श्रुतं कालविशेष एव भवतीति दशस्थानकावतारि तत्स्वरूपमाह-- 'दस ही' त्यादि सूत्रद्वयं सुगमं । यथोपाधिवशात् कालद्रव्यं भेदवत्तथा नारकादिजीवद्रव्याण्यपीत्याहदसविधा नेरश्या पं० [सं० अनंतरोवबन्ना परंपरोववन्ना अनंतरावगाढा परंपरावगाढा अनंतराहारगा परंपराहारगा अणंतरपज्जत्ता परंपरपज्जत्ता चरिमा अचरिमा, एवं निरंतरं जाव बेमाणिया २४ । चडत्थीते णं पंकप्पभाते पुढवीते दस निरतावाससतसहस्सा पं० १ रयणप्पभाते पुढबीते जनेणं नैरतिताणं दसवाससहस्साई ठिती पं० २ चडत्थीते णं पंकप्पभाते पुढवीते उक्कोसेणं नेरतिताणं दस सागरोवमाई ठिती पण्णचा ३ पंचमाते णं धूमप्पभावे पुढबीते जहञेणं नेरइयाणं दस सागरोबमाई ठिती पं० ४ असुरकुमाराणं जत्रेणं दसवास सहस्साई ठिती पं० एवं जाव यणियकुमाराणं १४ वाय Far Far & Prau Use On १० स्थाना. उद्देशः ३ नारकभे दाः स्थितयश्च सू० ७५७ ~459~ ॥ ५१३ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [646] दीप अनुक्रम [९७७] Educati [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-], मूलं [७५७] स्थान [१०], rajender विता कोसेणं दसवाससहस्साई ठिती पं० १५ वाणमंतरदेवाणं जहणेणं दस वाससहस्लाई ठिई पं० १६ मंभलोगे कप्पे उकोसेणं देवाणं दस सागरोवमाई ठिती पं० १७ संतते कप्पे देवाणं जण्णेणं दस सागरोवमाई ठिती पं० १८ (सू० ७५७ ) 'दसविहे 'त्यादि, सूत्राणि चतुर्विंशतिः, न विद्यते अन्तरं व्यवधानमस्येत्यनन्तरो वर्त्तमानः समयः तत्रोपपन्नका अनन्तरोपपन्नकाः येषामुत्पन्नानामेकोऽपि समयो नातिक्रान्तस्त एत इति, येषां तूत्पन्नानां व्यादयः समया जातास्ते पर| म्परोपपन्नकाः परम्परसमयेषूपपन्नत्वात् तेषामित्ययं कालविशेषोपाधिकृतो भेदः, तथा विवक्षितप्रदेशापेक्षया अनम्तरप्रदेशेष्ववगाढा-अवस्थिता अनन्तरावगाढाः अथवा प्रथमसमयावगाढा:- अनन्तरावगाढा एतद्विलक्षणाः परम्परावगाढाः, अयं क्षेत्रतो भेदः, तथा अनन्तरान्-अव्यवहितान् जीवप्रदेशैराक्रान्ततया स्पृष्टतया वा पुद्गलानाहारयन्तीत्यनन्तराहारकाः, ये तु पूर्व व्यवहितान् सतः पुद्गलान् स्वक्षेत्र मागतानाहारयन्ति ते परम्पराहारकाः, अथवा प्रथमसमयाहारका अनन्तराहारकाः इतरे वितरे, अयं तु द्रव्यकृतो भेद इति न विद्यते पर्याप्तत्वेऽन्तरं येषां ते अनन्तरास्ते च ते पर्याप्तकाश्चेत्यनन्तरपर्याप्तकाः, प्रथमसमयपर्याप्तका इत्यर्थः इतरे तु परम्परपर्याप्तकाः, अयं भावकृतो भेदः, पतेर्भावत्वादिति चरमनारकभवयुक्तत्वाश्चरमाः न पुनर्नारका भविष्यन्ति ये इति भावस्तद्विपरीता अचरमाः, अयमपि भावकृत एव भेदः, चरमाचरमत्वयोर्जीव पर्यायत्वादिति । 'एव' मित्यादि नारकवद्दशप्रकारत्वमिदं नैरन्तर्येण चतु विंशतिदण्डको तानां वैमानिकान्तानामपि योजनीयमिति । दण्डकस्यादी दशधा नारका उक्ताः अथ तदाधारान् नार Far Far & Private पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~460~ anthray org "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५७] प्रत हेतवः सूत्रांक [७५८] श्रीस्थाना- कादिस्थितिं च दशस्थानानुपाततो निरूपयन् 'चउत्थीए'त्यादिसूत्राष्टादशकमाह, सुगम चैतदिति । अनन्तरं लान्तक-||१०स्थाना, मसूत्र| देवा उक्तास्ते च लब्धभद्रा इति भद्रकारिकर्मकारणान्याह उद्देशः३ वृत्तिः दसहि ठाणेहिं जीवा आगमेसिभदत्ताए कम्मं पगरेंति, तं०-अणिदाणताते १ दिद्विसंपन्नयाए २ जोगवाहियत्ताते ३ आगमिखंतिखमणताते ४ जितिदियताते ५ अमाइलताते ६ अपासत्यताते ७ सुसामण्णताते ८ पवयणवच्छलयाते ९ पक्षण- मध्यभद्रता॥५१४॥ उडभावणताए १० (सू०७५८) 'दसही'त्यादि, आगमिष्यदू-आगामिभवान्तरे भावि भद्र-कल्याणं सुदेवत्वलक्षणमनन्तरं सुमानुषत्वप्रात्या मो-18 क्षप्राप्तिलक्षणं च येषां ते आगमिष्यमद्रास्तेषां भावः आगमिष्यद्भद्रता तस्यै आगमिष्यन्द्रताय तदर्थमित्यर्थः आगमिध्यदद्रतया वा कर्म-शुभप्रकृतिरूपं प्रकुर्वते-बन्नन्ति, तद्यथा-निदायते-लूयते ज्ञानाद्याराधनालता आनन्दरसोपेत मोक्षफला येन पशुनेव देवेन्द्रादिगुणद्धिप्रार्थनाध्यवसानेन तन्निदानं अविद्यमानं तद्यस्य सोऽनिदानस्तझावस्तत्ता तया Xहेतुभूतया निरुत्सुकतयेत्यर्थः १, रष्टिसम्पन्नतया-सम्यग्दृष्टितया २, योगवाहितया-श्रुतोपधानकारितया योगेन वा समाधिना सर्वत्रानुत्सुकत्वलक्षणेन वहतीत्येवंशीलो योगवाही तद्भावस्तत्ता तया ३, क्षान्त्या क्षमत इति क्षान्तिक्षमणः, क्षान्तिग्रहणमसमर्थताव्यवच्छेदार्थं यतोऽसमर्थोऽपि क्षमत इति क्षान्तिक्षमणस्य भावस्तत्ता तया ४, जितेन्द्रियतया-1 करणनिग्रहेण ५, 'अमाइल्लयाए'त्ति माइल्लो-मायावांस्तत्प्रतिषेधेनामायावांस्तद्भावस्तत्ता तया ६, तथा पाहिज्ञों-13॥५१४॥ नादीनां देशतः सर्वतो वा तिष्ठतीति पार्श्वस्था, उक्तं च-"सो पासत्थो दुविहो देसे सब्वे य होइ नायब्यो । सबमि || दीप 545555 अनुक्रम [९७८] Eco January पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~461~ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५८] प्रत सूत्रांक 6496-%246460 [७५८] नाणदसणचरणाणं जो उ पासत्थो ॥१॥ देसंमि उ पासत्थो सेजायरभिहडनीयपिड च । नीयं च अग्गपिंड भुंजइ | निकारणे व ॥२॥" इत्यादि, [स पार्यस्थो द्विविधो देशतः सर्वतश्च भवति ज्ञातव्यः ज्ञानदर्शनचरणानां यस्तु पार्श्वस्थः स सर्वपार्श्वस्थः ॥ १॥ देशतः पार्श्वस्थः शय्यातराभिहतनित्यपिण्डानि नियताप्रपिंडे च निष्कारणे एव भुनक्ति ॥२॥] (नियतपिण्डो यथा-मयतावदातव्यं भवता तु नित्यमेव ग्राह्यमित्येवं नियततया यो गृह्यते 'नीय'मिति नित्यः & सदा अप्रपिण्डः अप्रवृत्ते परिवेषणे आदावेव यो गृह्यत इति > पार्श्वस्थस्य भावः पार्थस्थता न साऽपार्थस्थता तया ७, तथा शोभना-पार्श्वस्थादिदोषवर्जिततया मूलोत्तरगुणसम्पन्नतया च स चासौ श्रमणश्व-साधुः सुश्रमणस्तावस्तत्ता तया ८, तथा प्रकृष्ट प्रशस्तं प्रगतं वा वचनं-आगमः प्रवचन-द्वादशाङ्गंतदाधारो वा सहस्तस्य वत्सलता-हितकारिता प्रत्यनीकत्वादिनिरासेनेति प्रवचनवत्सलता तया ९, तथा प्रवचनस्य-द्वादशाङ्गस्योद्भावनं-प्रभावनं प्रावनिकत्वधर्मकथावादादिलब्धिभिर्वर्णवादजननं प्रवचनोदावनं तदेव प्रवचनोदावनता तयेति १०॥ एतानि चागमिष्यद्भद्रताकारणानि कुर्वता आशंसाप्रयोगो न विधेय इति तत्स्वरूपमाह दसविहे आससपओगे पं० त०-इहलोगासंसप्पओगे १ परलोगासंसप्पओगे २ दुहतोलोगासंसप्पतोगे ३ जीवियाससप्पतोगे ४ मरणासंसप्पतोगे ५ कामासंसप्पतोगे ६ भोगासंसप्पतोगे ७ लाभासंसप्पतोगे ८ पूयासंसपतोगे ९ सका गसंसप्पतोगे १० (सू० ७५९) 'दसे'त्यादि, आशंसनमाशंसा-इच्छा तस्याः प्रयोगो-व्यापारणं करणं आशंसैव वा प्रयोगो-व्यापार: आशंसाप्रयोगः, दीप अनुक्रम [९७८] FF पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~462~ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७५९] श्रीस्थाना- इसूत्रवृत्तिः ॥५१५॥ प्रत सूत्रांक [७५९] KACACACKAGACC0 ७६० सूत्रे च प्राकृतत्वात् आससप्पओगेत्ति भणितं, तत्र इह-अस्मिन् प्रज्ञापकमनुष्यापेक्षया मानुषत्वपर्याये यो वर्तते लोकः१०स्थाना. -प्राणिवर्गः स इहलोकस्तद्व्यतिरिक्तस्तु परलोकः, तत्रेहलोकं प्रति आशंसाप्रयोगो यथा भवेयमहमितस्तपश्चरणाचक्र-उद्देशः ३ वादिरितीहलोकाशंसाप्रयोगः, एवमन्यत्रापि विग्रहः कार्यः १, परलोकाशंसाप्रयोगो यथा भवेयमहमितस्तपश्चरणा- आशंसा|दिन्द्र इन्द्रसामानिको वा २, द्विधालोकाशंसाप्रयोगो यथा भवेयमहमिन्द्रस्ततश्चक्रवत्ती, अथवा इहलोके-इहजन्मनि प्रयोगाः किञ्चिदाशास्ते एवं परजन्मन्युभयत्र चेति ३, पतनयं सामान्यमतोऽन्ये तद्विशेषा एव, अस्ति च सामान्यविशेषयोर्विव- धर्माश्च क्षया भेद इत्याशंसाप्रयोगाणां दशधात्वं न विरुध्यते, तथा जीवितं प्रत्याशंसा-चिरं मे जीवितं भवत्विति जीविताश- ०७५९साप्रयोगः ४, तथा मरणं प्रत्याशंसा-शीघं मे मरणमस्त्विति मरणाशंसाप्रयोगः ५, तथा कामौ-शब्दरूपे तो मनोज्ञी मे भूयास्तामिति कामाशंसाप्रयोगः ६, तथा भोगा--गन्धरसस्पर्शास्ते मनोज्ञा मे भूयासुरिति भोगाशंसाप्रयोगः ७, तथा कीर्तिश्रुतादिलाभो भूयादिति लाभाशंसाप्रयोगः ८, तथा पूजा-पुष्पादिपूजनं मे स्यादिति पूजाशंसाप्रयोगः ९, सत्कारः -प्रवरवस्त्रादिभिः पूजनं तन्मे स्यादिति सत्काराशंसाप्रयोग इति १०॥ उक्तलक्षणादयाशंसाप्रयोगात् केचिद् धर्ममाचरन्तीति धर्म सामान्येन निरूपयन्नाह दसविध धम्मे पं० २०-गामधम्मे १ नगरधम्मे २ रखधम्मे ३ पासंडवम्मे ४ कुलधम्मे ५ गणधम्मे ६ संघधम्मे ७ सुयधम्मे ८ चरित्तधम्मे ९ अस्थिकायधम्मे १० (सू०७६०) 'दसे'त्यादि, मामा-जनपदाश्रयास्तेषां तेषु वा धर्मः-समाचारो व्यवस्थेति प्रामधर्मः, स च प्रतिग्राम भिन्न इति,दि दीप अनुक्रम [९७९] File For पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~463~ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७६०] प्रत सूत्रांक [७६०] अथवा प्रामा-इन्द्रियग्रामो रूदेस्तद्धर्मो-विषयाभिलापः १, नगरधर्मों-नगराचारः, सोऽपि प्रतिनगरं प्रायो भिन्न एव15 २, राष्ट्रधर्मो-देशाचारः ३, पाखण्डधम्मे:-पाखण्डिनामाचारः ४, कुलधर्म:-उग्रादिकुलाचारः, अथवा कुलं चान्द्रादिकमार्हतानां गच्छसमूहात्मकं तस्य धर्म:-सामाचारी ५, गणधर्मो-मल्लादिगणव्यवस्था, जैनानां वा कुलसमुदायो गण:-कोटिकादिस्तद्धर्मः-तत्सामाचारी ६, सङ्घधर्मो-गोष्ठीसमाचारः आहेतानां वा गणसमुदायरूपश्चतुर्वर्णो चा सह|स्तद्धर्म:-तत्समाचारः ७, श्रुतमेव-आचारादिकं दुर्गतिप्रपतज्जीवधारणात् धर्मः श्रुतधर्मः ८, चयरिक्तीकरणाचारित्रं | तदेव धर्मश्चारित्रधर्मः ९, अस्तयः-प्रदेशास्तेषां कायो-राशिरस्तिकायः स एव धर्मो-गतिपर्याये जीवपुद्गलयोऔरणादित्यस्तिकायधर्मः १०॥ अयं च मामधर्मादिधर्मः स्थविरी कृतो भवतीति स्थविरान्निरूपयति दस घेरा पं० त०-गामधेरा १ नगरबेरा २ रदुधेरा ३ पसत्थारथेरा ४ कुलथेरा ५ गणथेरा ६ संघरा ७ जातिथेरा ८ सुअथेरा ९ परितायथेरा १० । (सू० ७६१) दस पुत्ता पं० सं०-अत्तते १ खेत्तते २ दिन्नते ३ विष्णते ४ उरसे ५ मोहरे ६ सोंडीरे ७ संबुद्धे ८ उवयातिते ९ धम्मंतेवासी १० । (सू० ७६२) 'दसे'त्यादि, स्थापयन्ति-दुर्व्यवस्थितं जनं सन्मार्ग स्थिरीकुर्वन्तीति स्थविराः, तत्र ये ग्रामनगरराष्ट्रेषु व्यवस्थाकारिणो| बुद्धिमन्त आदेयाः प्रभविष्णवस्ते तत्स्थविरा इति १-२-३ प्रशासति-शिक्षयन्ति ये ते प्रशास्तार:-धर्मोपदेशकास्ते च ते स्थिरीकरणात् स्थविराश्चेति प्रशास्तृस्थविराः ४,ये कुलस्य गणस्य सङ्गस्य च लौकिकस्य लोकोत्तरस्य च व्यवस्थाकारिणस्त-13 बङ्गश्च निग्राहकास्ते तथोच्यन्ते ५.६-७, जातिस्थविराः पष्टिवर्षप्रमाणजन्मपर्यायाः ८,श्रुतस्थविरा:-समवायायङ्गधारिणः९, दीप *CROBLEMS अनुक्रम [९८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~4644 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७६२] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः प्रत ॥५१६॥ सूत्रांक [७६२] पर्यायस्थविरा-विंशतिवर्षप्रमाणप्रत्रज्यापर्यायवन्त इति १०॥ स्थविराश्च पुत्रवदाश्रितान् परिपालयन्तीति पुत्रनिरूपणायाह||१०स्थाना. -'दस पुत्ते'त्यादि, पुनाति पितरं पाति वा पितृमर्यादामिति पुत्रः-सूनुः, तत्र आत्मनः-पितृशरीराज्जातः आत्मजः, उद्देशः ३ यथा भरतस्यादित्ययशाः १, क्षेत्रं-भार्या तस्या जातःक्षेत्रजो, यथा पण्डोः पाण्डवाः लोकरूठ्या तद्भार्यायाः कुन्त्या स्थविराः एव तेषां पुत्रत्वात् न तु पण्डोः धर्मादिभिर्जनितत्वादिति २, 'दिन्नए'त्ति दत्तकः पुत्रतया वितीणों यथा बाहुबलि- पुत्राश्च नोऽनिलवेगः श्रूयते, स च पुत्रवत्पुत्रः, एवं सर्वत्र ३, 'विण्णए'त्ति विनयितः शिक्षा ग्राहितः, 'उरसे'त्ति उपगतो- सू०७६१जातो रसा-पुत्रस्नेहलक्षणो यस्मिन्पितृस्नेहलक्षणो वा यस्यासावुपरसः उरसि वा-हृदये स्नेहावर्त्तते यः स ओरसः ५, ७६२ मुखर एव मौखरो-मुखरतया चाटुकरणतो य आत्मानं पुत्रतया अभ्युपगमयति स मौखर इति भावः ६, शोडीरो| यः शौर्यबता शूर एव रणकरणेन वशीकृतः पुत्रतया प्रतिपद्यते यथा कुवलयमालाकथायां महेन्द्रसिंहाभिधानो राजसुतः श्रूयते ७, अथवाऽऽत्मज एव गुणभेदाद्भिद्यते, तत्र 'विन्नए'त्ति विज्ञका-पण्डितोऽभयकुमारवत् , 'उरसे'त्ति | उरसा वर्तत इति ओरसो-बलवान् बाहुबलीवत् शोण्डीरः-शूर: वासुदेववत् गर्वितो वा शौण्डीर। 'शौड गर्व' इति | |वचनात् , 'संवुहे'त्ति संवर्द्धितो भोजनदानादिना अनाथपुत्रका ८, 'उवजाइय'त्ति उपयाचिते-देवताराधने भवः औ|पयाचितका, अथवा अवपात:-सेवा सा प्रयोजनमस्येत्यावपातिकः-सेवक इति हृदयं ९, तथा अन्ते-समीपे वस्तुं शी-1 लमस्येत्यन्तेवासी, धर्मार्थमन्तेवासी धर्मान्तेवासी, शिष्य इत्यर्थः १० ।। धर्मान्तेवासित्वं च छद्मस्थस्यैव न केवलिनो-४॥५१६ ॥ ऽनुत्तरज्ञानादित्वात् , कानि कियन्ति च तस्यानुत्तराणीत्याह दीप अनुक्रम [९८२] Fit Forum पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~465~ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७६३] दीप अनुक्रम [९८३] Education man [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७६३] स्थान [१०], उद्देशक [-], केवलिस्स णं दस अणुत्तरा पं० तं० अणुत्तरे णाणे अणुत्तरे दंसणे अणुत्तरे चरिते अणुत्तरे तवे अनुत्तरे वीरिते अणुतरा खंती अणुत्तरा मुत्ती अणुत्तरे अजवे अणुत्तरे मदवे अणुत्तरे लाघवे १० (सू० ७६३) समतखेत्ते णं दस कुरातो पं० सं०—पंच देवकुरातो पंच उत्तरकुरातो, तत्थ णं दस महतिमहालया महादुमा पं० तं० जंबू सुदंसणा १ घायतिरुक्खे २ महाधायतिरुक्खे ३ पउमरुक्खे ४ महापमरुक्खे ५ पंच कूडसामलीओ १०, तत्य णं दस देवा महिद्धिया जाब परिवसंति, सं० अणाढिते जंबुद्दीवाधिपती सुदंसणे पियदंसणे ( सू० ५६४ ) दसहि ठाणेहिं ओगाढं दुस्समं जाणेना, सं० – अकाले णपूर्जति गुरुसु जणो मिच्छं पडिवन्नो अमणुष्णा सहा जाव फासा १० | दसहि ठाणेहिं ओगाढं सुसमं जाणेजा तं०—अकाले न वरिसति तं चैव विपरीतं जाव मणुष्णा फासा ( सू० ७६५) सुसमसुसमाए णं समाए दसविहा रुक्खा उवभोगत्ताए हब्वमागच्छति, तं० मत्तंगता भिंगा २ तुतिंगा ३ दीव ४ जोति ५ चित्तंगा ६ । बि तरसा ७ मणियंगा ८ गेहागारा ९ अणितणा १० त ॥ १ ॥ ( सू० ७६६ ) पोंडरीते महापोंडरीते पंच गरुला वेणुदेवा १० वरिसइ काले ण परिसर असाहू इज्जति साहू 'दसे त्यादि, नास्त्युत्तरं - प्रधानतरं येभ्यस्तान्यनुत्तराणि तत्र ज्ञानावरणक्षयात् ज्ञानमनुत्तरं एवं दर्शनावरणक्षयादर्शनमोहनीयक्षयाद्वा दर्शनं, चारित्रमोहनीयक्षयाच्चारित्रं, चारित्रमोहक्षयादनन्तवीर्यत्वाच्च तपः- शुक्रुध्यानादिरूपं वीर्यान्तरायक्षयाद् वीर्य, इह च तपःक्षांतिमुक्त्यार्जवमाद्देवलाघवानि चारित्रभेदा एवेति चारित्रमोहनीयक्षयादेव भव Far Far & Private Only पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] ~466~ "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७६६] श्रीस्थाना सूत्रवृत्तिः प्रत ॥५१७॥ सूत्रांक [७६६] |न्ति, सामान्यविशेषयोश्च कथश्चिमेदाद् भेदेनोपात्तानीति । केवली च मनुष्यक्षेत्र एवं भवतीति दश स्थानकानुपाति-HIRथाना पदार्थ 'समये त्यादिकं 'पुक्खरवरदीवडपचच्छिमद्देवी'त्येतदन्तं समयक्षेत्रप्रमाणमाह, कण्ठ्यं चैतत् , नवरं 'मत्संगे'- उद्देशः३ त्यादि गाथा, मत्त-मदस्तस्याङ्गं-कारण मदिरा तद्ददतीति मत्ताइदा, चः समुच्चये, 'भिंग'त्ति भृतं-भरणं पूरणं तत्रा-31 अनुत्तराशानि-कारणानि भृताङ्गानि भाजनानि, न हि भरणक्रिया भरणीयं भाजनं विना भवतीति तत्सम्पादकत्वाद् वृक्षाः अपि| णि कुर्वाभृताङ्गाः, प्राकृतत्वाच्च भिंगा उच्यन्ते, त्रुटितानि-तूर्याणि तत्कारणत्वात् त्रुटिताङ्गाः-सूर्यदायिनः,उक्तं च-"मत्तंगेसु द्याः दुष्पय मज १ (संपजइ) भायणाणि भिंगेसु २ । तुडियंगेसु य संगततुडियाई बहुप्पगाराई ३॥१॥" [मयं मद्यांगेषु १ मादिकभुंगेषु भाजनानि २ तूर्यांगेषु च संगततूर्याणि बहुप्रकाराणि ॥१॥] "दीवजोइचित्तंगा” इति इहाङ्गशब्दः प्रत्येकम ल्पवृक्षाः भिसम्बध्यते, ततो दीप:-प्रकाशकं वस्तु तत्कारणत्वाद्दीपाश्रा, ज्योतिः-अग्निस्तत्र च सुषमसुषमायामग्नेरभावाज्योतिरिव यद्वस्तु सौम्यप्रकाशमिति भावस्तत्कारणत्वात् ज्योतिरङ्गा, तथा चित्रस्य-अनेकविधस्य विवक्षाप्राधान्याम्मास्यस्य | ७६६ कारणत्वाच्चित्राङ्गाः, तथा चित्रा-विविधा मनोज्ञा रसा-मधुरादयो येभ्यस्ते चित्ररसा भोजनाङ्गा इति भावः, उक्तं च -"दीवसिहाजोइसनामया य ४-५ एए करिति उज्जोयं । चित्तंगेसु य मल्लं ६ चित्तरसा भोयणटाए ७॥१॥" [दीपशिखाज्योतिःसनाम्नी कुरुत उद्योतमेते चित्रांगेषु माल्यं भोजनार्थ चित्ररसाः ॥१॥] मणीनां-मणिमयाभरणानां 8/ कारणत्वान्मण्यङ्गाः आभरणहेतवः, गेह-गृहं तद्वदाकारो येषां ते गेहाकाराः, 'अणियय'त्ति वस्त्रदायिनः, उक्तं च ॥ ५१७॥ "मणियंगेसु य भूसणवराई ८ भवणाई भवणरुक्लेसु ९ । आइन्नेसु य धणिय वधाई बहुप्पगाराई १०॥१॥" इति ।। दीप अनुक्रम [९८७] ACADS पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~467~ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७६६] प्रत सूत्रांक [७६६] KI मण्यंगेषु च वरभूषणानि भवनवृक्षेषु पराणि भवनानि आकीर्णेषु च बहुप्रकाराणि वस्त्राणि गाढं ॥१॥] कालाधि-15 कारादेव कालविशेषभाविकुलकरवक्तव्यतामाह जंबूदीवे २ भरहे वासे तीताते उस्सप्पिणीते दस कुलगरा तुत्था, -सयजले सयाऊ य अर्णतसेणे त अमितसेणे त । तकसेणे भीमसेणे महाभीमसेणे त सत्तमे ॥ १॥ वढरहे दसरहे सवरहे ।। जंचूदीये २ भारहे चासे आगमीसाते उस्सप्पिणीए दस कुलगरा भविस्संति, तं०-सीमकरे सीमंधरे खेभंकरे खेमंधरे विमलवाहणे संमुसी पटिसुते बढधणू दसधणू सत्तधणू । (सू०७६७) जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पबयरस पुरच्छिमेणं सीताते महानतीते उभतो कूले दस पक्खारपब्बता पं० सं०-मालवंते चित्तकूडे विचित्तकूठे बंभकूडे जाव सोमणसे । जंबुमंदरपपस्थिमे गं सीओताते महानतीते उभतो फूले दस वक्खारपब्वता पं० सं०-विज्जुप्पभे जाव गंधमातणे, एवं धायासंबपुरच्छिमदेवि बक्सारा भाणिभव्या जाव पुक्खरवर दीवद्धपचत्थिमद्धे (सू०७६८) दस कप्पा इंदाहिटिया पं० २० -सोहम्मे जावसहस्सारे पाणते अधुए, एतेसु णं दससु कप्पेसु दस इंदा पं तं०-सक्के ईसाणे आव अक्षुते, पतेसु ण दसण्ह इंदाणं दस परिजाणितविमाणा पं० २०-पालते पुष्फए जाब विमलयरे सव्वतोभरे (सू० ७६९) 'जंबुद्दीवेत्यादि सूत्रद्वयं कण्ठयं, नवरं 'तीयाए'त्ति अतीतायां 'उस्सप्पिणीए'सि उत्सपिण्यां कुलकरणशीला कुलकरा:-विशिष्टबुद्धयो लोकव्यवस्थाकारिणः पुरुषविशेषाः, 'आगमिस्साए'सि आगमिष्यन्त्यां, वर्तमाना तु अवस पिणी सा च नोक्ता, तत्र हि सप्तैव कुलकराः, कचित्पश्चदशापि दृश्यम्त इति । पुष्करा क्षेत्रस्वरूपमभिहितं प्रागतः स्था०८७॥ दीप अनुक्रम [९८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~468~ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७६९] श्रीस्थाना- सूत्रवृत्तिः प्रत ॥५१८॥ सूत्रांक [७६९] क्षेत्राधिकारादेव कल्पानाश्रित्य दशकमाह-दशे'त्यादि, सौधर्मादीनामिन्द्राधिष्ठितत्वमेतेष्विन्द्राणां निवासादानतारण-12||१०स्थानायोस्तु तदनधिष्ठितत्वं तन्निवासाभावात् , स्वामितया तु तावप्यधिष्ठितावेवेति मन्तव्यं, यावत्करणात् 'ईसाणे २ सण- उद्देशः३ कुमारे ३माहिंदे ४ बंभलोए ५ लंतगे ६ सुके ७'त्ति दृश्यमिति, यत एवैतेषु इन्द्राअधिष्ठिता अत एवैते दशेन्द्रा भवन्तीति कुलकरा: दर्शयितुमाह-एएम' इत्यादि, शक्रा-सौधर्मेन्द्रः, शेषा देवलोकसमाननामानः, शेष सुगममिति ॥ इन्द्राधिकारादेव वक्षस्कातद्विमानान्याह-एते'इत्यादि, परियानं-देशान्तरगमनं तत् प्रयोजनं येषां तानि परियानिकानि गमनप्रयोजनानी- राद्याः त्यर्थः यानं-शिविकादि तदाकाराणि विमानानि-देवाश्रया यानविमानानि न तु शाश्वतानि, नगराकाराणीत्यर्थः, पुस्त- इंद्राद्याः काम्तरे यानशब्दो न दृश्यते, 'पालए' इत्यादीनि शक्रादीनां क्रमेणावगन्तव्यानीति, यावत्करणात् 'सोमणस्से ३ सि- प्रतिमा रिवच्छे ४ नंदियावत्ते ५ कामकमे ६ पीइगमे ७ मणोरमे ८' इति द्रष्टव्यमिति, आभियोगिकाश्चैते देवा विमानीभव- जीवाश्च न्तीति । एवंविधविमानयायिनश्चन्द्राः प्रतिमादिकात् तपसो भवन्तीति दशकानुपातिनी प्रतिमा स्वरूपत आह दस दसमिता गं भिक्खुपतिमा णं एगेण रातिदियसतेणं अद्धछडेहि य मिक्खासतेहिं अहामुत्ता जाव आराधितावि भवति (सू० ७७०) दसविधा संसारसमावन्नगा जीवा पं००-पढमसमयएगिदिवा अपढमसमयएगिदिता एवं जाव अपढमसमयपंथिदिवा १ बसविधा सम्बजीवा पं० २०-पुढ विकाइया जाव वणस्सइकातिता दिया जाव पंचेंदिता अणिदिता २ अथवा दसविधा सम्बजीचा पं० तं०-पढमसमयनेरतिया अपढमसमयनेरतिता आप अपढमसम ५१८॥ यदेवा पढमसमयसिद्धा अपढमसमयसिद्धा ३ (सू०७७१) ७७१ दीप अनुक्रम [९९२] RANG CamEauratonintimational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~469~ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७७१] प्रत सूत्रांक [७७१] 'दसे'त्यादि, दश दशमानि दिनानि यस्यां सा दशदशमिका दशदशकनिष्पन्नेत्यर्थः, भिषणां प्रतिमा:-प्रतिज्ञा भिक्षुप्रतिमाः, 'एकेने त्यादि, दश दशकानि दिनानां शतं भवतीति, प्रथमे दशके दश भिक्षा द्वितीये विंशतिरेवं दशमे शतं । सर्वमीलने पञ्च शतानि पञ्चाशदधिकानि भवन्तीति, 'अहासुत्तमित्यादि, अहासुतं-सूत्रानतिक्रमेण, यावत्करणात् 'अ-18 हाअत्यं' अर्थस्य-निर्युक्त्यादेरनतिक्रमेण 'अहातचं शब्दार्थानतिक्रमेण 'अहामग्गं क्षायोपशमिकभावानतिक्रमण 'अहाकप्पं तदाचारानतिक्रमेण सम्यक्कायेन न मनोरथमात्रेण 'फासिया' विशुद्धपरिणामप्रतिपत्त्या 'पालिया' सीमां यावत्तपरिणामाहान्या 'शोधिता निरतिचारतया शोभिता वा तत्समाप्तावुचितानुष्ठानकरणतः, 'तीरिता' तीरं नीता प्रतिज्ञातकालोपर्यप्यनुष्ठानात् , कीर्तिता नामतः इदं चेदं च कर्त्तव्यमस्यां तत्कृतं मयेत्येवमिति, आराधिता सर्वपदमील-13 नात् 'भवति' जायत इति । प्रतिमाभ्यासः संसारक्षयार्थ संसारिभिः क्रियत इति संसारिणो जीवान् जीयाधिकारात सर्वजीवांश्च 'दसे'त्यादिना सूत्रत्रयेणाह, तच्च सुगम, नवरं प्रथमः समयो येषामेकेन्द्रियत्वस्य ते प्रथमसमयास्ते च ते| एकेन्द्रियाश्चेति विग्रहः, विपरीतास्त्वितरे, एवं द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रिया वाच्याः, आह च-'एवं जावेत्यादि, 'अणिदियत्ति 15 अनिन्द्रियाः सिद्धाः अपर्याप्ताः उपयोगतः केवलिनश्चेति ।। संसारिपर्यायविशेषप्रतिपादनायैवाह बाससताउस्स णं पुरिसस्स दस दसाओ पं० २०-बाला १ किड्डा २ य मंदा ३ य, बला ४ पन्ना ५ य हायणी ६ । पवंचा ७ पब्भारा ८ य, मुंमुही ९ सावणी १० तधा ।। (सू०७७२) 'वासे त्यादि, वर्षशतमायुयंत्र काले मनुष्याणां स वर्षशतायुष्कः कालस्तत्र यः पुरुषः सोऽप्युपचाराद् वर्षशतायुष्कः, 355 दीप अनुक्रम [९९४] SamEautatunity पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~470~ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७७२] प्रत ACACA+ सूत्रांक [७७२] श्रीस्थाना- मुख्यवृत्त्या वर्षशतायुषि पुरुषे गृह्यमाणे पूर्वकोट्यायुष्कपुरुषकाले वर्षशतायुषः पुरुषस्य कस्यचित्कुमारत्वेऽपि पालावि- १०स्थाना. गसूत्र दशादशकसमाप्तिः स्थात् न चैवं तत उपचार एव युक्त इति, 'दशे'ति संख्या, दसाउ'त्ति वर्षदशकप्रमाणाः कालकृता वृत्तिः 18 अवस्थाः इह च वर्षशतायुग्रहणं विशिष्टतरदशस्थानकानुरोधात् विशिष्टतरत्वं च दशस्थानकस्यैवं वर्षेदशकप्रमाणा दशा18दशादशक दशेति, अन्यथा पूर्वकोट्यायुषोऽपि बालाद्या दशावस्था भवन्त्येव, केवलं दशवर्षप्रमाणान भवन्ति, बहुवर्षा था अल्पवर्षा सू०७७२ ॥५१९॥ वा स्युरिति भावः, तत्र बालस्येयमवस्था धर्मधम्मिणोरभेदाद्वाला, स्वरूपं चास्याः-"जायमेत्तस्स जंतुस्स, जा सा 8 पढमिया दसा । न तत्थ सुहदुक्खाई, पहुं जाणंति बालया ॥१॥" इति, [जातमात्रस्य जन्तीयो सा प्रथमा दशा तत्र है सुखदुःखानि न बहुजानन्ति इति वाला ॥१॥] तथा क्रीडाप्रधाना दशा क्रीडा, उक्तं च-"बिइयं च दस पत्तो, माणा कीडाहिं कीडइ । न तत्थ कामभोगेहिं, तिब्बा उप्पजए मई ॥१॥"[द्वितीयां क्रीडादशां प्राप्तो नानाक्रीडाभिः क्रीडते न तत्र कामभोगेषु तीत्रा मतिरुत्पद्यते ॥१॥] तथा मन्दो-विशिष्टबलबुद्धिकार्योपदर्शनासमर्थों भोगानुभूतावेव च समर्थों यस्यामवस्थायां सा मन्दा, उक्तं च-"तइयं च दसं पत्तो, आणुपुब्बीऍ जो नरो। समस्थो भुजिउँ भोए, जइ से अस्थि परे धुवा ॥१॥" इति, [तृतीयां मंददशां प्राप्तः आनुपूर्व्या यो नरः यदि तस्य निश्चिता भोगा: पूहे सम्ति तान् भोक्तुं समर्थः ॥१॥] भोगोपार्जने तु मन्द इति भावना, तथा यस्थामवस्थायां पुरुषस्य बलं भवति सा वळयोगात बला, उकं च-"चउत्थी य बला नाम, जं नरो दसमस्सिओ। समत्थो बलं दरिसेउं, जइ होइ निरुवइयो ॥१॥" इति, [चतुर्थी च बला नाम यां दशामानितो नरः बलं दर्शयितुं समर्थः यदि भवति निरुपद्रवः ॥१॥] तथा प्रज्ञा-2 दीप अनुक्रम [९९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~471~ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७७२] प्रत सूत्रांक [७७२] SUCCCCASEAST बुद्धिरीप्सितार्थसम्पादनविषया कुटुम्बकाभिवृद्धिविषया वा तद्योगाद्दशापि प्रज्ञा प्रकर्षेण जानातीति वा प्रज्ञा दशा तस्या एव कर्तृत्वविवक्षयेति, उक्तं च-"पंचमि च दस पत्तो, आणुपुवीरें जो नरो । इच्छियत्वं विचिंतेइ, कुटुंबं चा-2 भिकंखइ ॥१॥" इति [आनुपूा यो नरः पंचमी दशां प्राप्तः स इप्सितार्थ विचिन्तयति कुटुंब चाभिकांक्षते ॥१॥ तथा हापयति पुरुषमिन्द्रियेष्विति-इन्द्रियाणि मनाक् स्वार्थग्रहणापटूनि करोतीति हापयति प्राकृतत्वेन च हायणित्ति, आह च-"छट्ठी उ हायणी नाम, जं नरो दसमस्सिओ। विरजई य कामेसु, इंदिएसु य हाय ॥१॥" इति [षष्ठी हायनी नानी यां नरो दशामाश्रितः कामेषु विरज्यते इंद्रियाणि च हीयते ॥१॥] तथा प्रपञ्चते-व्यक्तीकरोति प्रप चयति वा-विस्तारयति खेलकासादि या सा मपञ्चा प्रपश्चयति घा-सयति आरोग्यादिति प्रपश्चा, आह च-"सत्तमि पच दस पत्तो, आणुपुब्बी जो नरो। निच्छूहइ चिक्कणं खेलं, खासई य अभिक्खणं ॥१॥” इति [सप्तमी प्रपंचा दशां प्राप्त आनुपूळ यो नरः चिकणं श्लेष्माणं निष्काशयति अभीक्ष्णं कासते ॥१॥] तथा प्राम्भारमीपदवनतमुच्यते तदेवंभूतं गात्रं यस्यां भवति सा प्राम्भारा, यतः-"संकुचियवलीचम्मो, संपत्तो अट्ठमि दस । नारीणमणभिप्पेओ, जराए परिणामिओ ॥१॥" इति, [संकुचितवलि चर्मा स्यात् सम्प्राप्तोऽष्टमी दशा नारीणामनभिप्रेतः जरया परिणामितः॥१॥] तथा मोचनं मुक् जराराक्षसीसमाक्रान्तशरीरगृहस्य जीवस्य मुचं प्रति मुख-आभिमुख्यं यस्यां सा मुशुखीति, तत्स्वरूपं चेदम्-"नवमी मुंमुही नाम, जं नरो दसमस्सिओ । जराघरे विणरसते, जीवो वसइ अकामओ ॥१॥" इति [नवमी उन्मुखीनामी यां दशां नर आश्रितः जरया गृहे विनश्यति जीवितेऽपि अकामा दीप अनुक्रम [९९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~472~ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूचांक [७७२] दीप अनुक्रम [९९६] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ५२० ॥ Education [भाग - 6] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ७७२] स्थान [१०], उद्देशक [-1. - वसति ॥ १ ॥ ] ( 'जीवे 'ति जीविते, 'जीवो'त्ति वा नरलक्षणो जीव इत्यर्थः > तथा शाययति - स्वापयति निद्रावन्तं करोति या शेते वा यस्यां सा शायनी शयनी वा तथेति समुच्चये, तत्स्वरूपमिदम् - "हीणभिन्नस्सरो दीणो, विवरीओ विचित्तओ । दुब्बलो दुक्खओ वसई, संपत्तो दसमिं दसं ॥ १ ॥” इति । [ हीनभिन्नस्वरो दीनो विपरीतो विचित्तः दुर्बलो दुःखितो वसति दशमी दशां संप्राप्तः ॥ १ ॥ ] अनन्तरं पुरुषदशा उक्ताः अथ पुरुषसमानधर्मकाणां वनस्प तीनां ताः प्रकारान्तरत आह दसविधा तणवणरसतिकारिता पं० तं०-मूले कंदे जाव पुप्फे फले बीये ( सू० ७७३ ) सम्वतोचि णं विजाहरसेडीओ दसदसजोवणाई विक्संभेणं पण्णत्ता, सव्वतोवि णं अभियोगसेढीओ दस दस जोयणाई विक्संमेणं पं० ( सू० ७७४) गेविजगविमाणाणं दस जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पण्णत्ता ( सू० ७७५) दुसहि ठाणेहिं सह तेतसा भासं कुब्जा, तं० केति तहारूवं समणं वा माहणं वा अञ्च्चासातेजा से व अशासातिते समाणे परिकुविते, तस्स तेतं निसिरेज्जा, से तं परितावेति, सेत्तं परितावेता सामेव सह तेत्तसा भासं कुजा १, केति तहारूवं समणं माहणं वा अच्चासा-' तेजा से य अभ्यासातिते समाणे देवे परिकुविए तरस तेयं निसिरेजा सेत्तं परितावेति सेत्तं २ तमेव सह तेतसा भासं कुञ्जा २, केति तहारूवं समणं वा माहणं वा अचासावेजा, से य अवासातिते समाणे परिकुविए देवे त परिकुविते, दुहतो पडिण्णा तस्स तेयं निसिरेजा ते तं परिवाविति ते तं परितावेत्ता तमेव सह तेतसा भासं कुणा ३, केति तारू समणं वा माहणं वा अधासादेजा से य अचासातिते परिकुविए तस्स तेयं निसिरेना तत्य फोडा संमुच्छंति ते फोडा Far Far & Pria Use Only १० स्थाना. उद्देशः ३ मूलादीनि श्रेणयः ग्रैवेयकं तेजोलेश्याः सू० ७७३ ७७६ ~473~ ।। ५२० ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७७६] 45 प्रत सूत्रांक [७७६] भिजति ते फोडा भिन्ना समाणा तामेव सह तेतसा भासं कुञा ४ केति तहारूवं समणं वा माहणं वा अचासातेजा से य अचासादिते देवे परिकुविए तस्स तेयं निसिरेजा, तत्थ फोडा संमुच्छंति, ते फोडा मिजंति, ते फोडा मित्रा समाणा तमेव सह तेतसा भासं कुज्जा ५, केति तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासाएजा से त अचासातिते परिकुटिए देवेवि य परिकुविए ते दुहतो पडिण्णा ते तस्स तेतं निसिरेजा, तत्थ फोडा संमुच्छति सेसं तहेव जाव भासं कुजा ६, केति तहारूवं समणं वा माहणं वा अचासातेजा से य अचासातिते परिकुषिए तस्स तेत निसिरेजा, तत्य फोडा संमुच्छंति ते फोडा मिति तत्थ पुला संमुच्छति ते पुला भिजति ते पुला भिन्ना समाणा तामेव सह तेयसा भासं कुजा ७ एते तिनि आलावगा भाणितव्वा ९, केति तहारूवं समणं वा मादणं वा अचासातेमाणे तेतं निसिरेजा से त तस्थ णो कम्मइ णो पकम्मति, अंचियं २ करेति करेत्ता आताहिणपयाहिणं करेति २ ता उई बेहास उप्पतति २ से णं ततो पडिहते पडिणियत्तति २ ता तमेव सरीरगमणुदहमाणे २ सह तेतसा भास कुजा जहा बा गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवेतेते १० (सू० ७७६) 'दसे'त्यादि, तृणवद्वनस्पतयः तृणवनस्पतयः, तृणसाधर्म्य च बादरत्वेन तेन सूक्ष्माणां न दशविधत्वमिति, मूल-जटा कन्दः-स्कन्धाधोवती यावत्करणात् 'खंधे'त्यादीनि पञ्च द्रष्टव्यानि, तत्र स्कन्धः-स्थुडमिति यातीतं स्वक-यल्कः शाला-शाखा प्रवालं-अङ्कुरः पत्रं-पर्ण पुष्प-कुसुमं फल-प्रतीतं बीज-मिंजेति । दशस्थानका|धिकार एवं इदमपरमाह-सब्वेत्यादि सूत्रद्वयं, सर्वाः-सर्वदीर्घवताव्यसम्भवाः विद्याधरश्रेणयः-विद्याधरनगरश्रे दीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~474~ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७७६] दीप अनुक्रम [१०००] श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ५२१ ॥ Educato [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [-], मूलं [ ७७६ ] स्थान [१०], णयः, दीर्घवैताळ्या हि पञ्चविंशतिर्योजनान्युच्चैस्त्वेन पश्चाशश्च मूलविष्कम्भेण तत्र दश योजनानि धरणीतलादतिक्रम्य दश योजनविष्कम्भा दक्षिणत उत्तरतश्च श्रेणयो भवन्ति, तत्र दक्षिणतः पञ्चाशन्नगराणि, उत्तरवस्तु पष्टिरिति भरतेषु, ऐरवतेषु तदेव व्यत्ययेन, विजयेषु तु पञ्चपञ्चाशत्पञ्चपञ्चाशदिति । तथा विद्याधर श्रेणीनामुपरि दश योजनान्यतिक्रम्य दशयोजनविष्कम्भा उभयत आभियोगिकदेवश्रेणयो भवन्ति, तत्राभियोगः- आज्ञा तथा चरन्तीत्याभियोगिका देवाः, शकादिसम्बन्धिनां लोकपालानां सोमयमवरुणवैश्रमणानां सम्बन्धिनो व्यन्तरा इति, तच्छ्रेणीनामुपरि पर्वतः पञ्च योजनान्युच्चतया दश विष्कम्भत इति । आभियोगिक श्रेणयो हि देवावासा इत्यधुना तद्विशेषानाह - 'गेवेज्जे 'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं प्राग्देवानामावासा उक्ताः, देवाश्व महर्द्धिका भवन्त्यतो देवानां मुनीनां च महर्द्धिकतोपवर्णनाय तेजोनिसर्गप्रकारप्रतिपादनायाह – 'दसही' त्यादि, दशभिः स्थानैः प्रकारैः सह सार्द्ध | तेजसा तेजोलेश्यया वर्तमानमनायें 'भास'न्ति भस्मेव भस्मवत् कुर्यात् विनाशयेदित्यर्थः, श्रवण इति गम्यते, तद्यथा — ' के 'ति कश्चिदनार्यकर्म्मकारी पापात्मा तथारूपं तेजोलब्धिप्राप्तं श्रमणं - तपोयुक्तं माहनं मा हनमा विनाशय इत्येवंप्ररूपणाकारिणं वाशब्दौ विशेषणसमुच्चयार्थी अत्याशातयेद् - आत्यन्तिकीमाशातनां तस्य कुर्यात्, 'से य'त्ति स च श्रमणोऽत्याशातितः- उपसर्गितः परिकुपितः सर्वथा क्रुद्धः सन् 'तस्स'ति उपसर्गकर्तुरुपरि तेजः- तेजोलेश्यारूपं निसृजेत् क्षिपेत् 'से'त्ति 'स' श्रमणः तमित्युपसर्गकारिणं परितापयति- पीडयति तं परिताप्य 'सामेवे 'ति तमेव तेजसा परितापितं दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् सहापेर्गम्यमानत्वात् तेजसापि तेजोलेश्यायुक्तमपीत्यर्थः बलवत्त्वात् साधुतेजस | Far Far & Fran १० स्थाना. उद्देशः श् मूलादीनि श्रेणयः ग्रैवेयकं तेजोलेश्याः सू० ७७३१७७६ ~475~ ॥ ५२१ ॥ antray.com पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र - [ ०३] अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७७६] दीप अनुक्रम [१०००] Educat [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-] मूलं [ ७७६ ] इति 'भासं कुञ्ज'त्ति प्रसिद्धमित्येकं शेषाणि नवापि सुगमानि, नवरं 'से य अवासाइयत्ति स च मुनिरत्याशातितस्तदनन्तरमेव च तत्पक्षपाती देवः परिकुपितः सन् तं भस्म कुर्यादिति द्वितीयमुभावपि परिकुपित 'ते दुइओ' सि तौ द्वौ मुनिदेवी 'पडिन'त्ति उपसर्गकारिणो भस्मकरणं प्रति प्रतिज्ञायोगात् प्रतिज्ञो-कृतप्रतिज्ञो हन्तव्योऽयमित्यभ्युपगतावितियावदिति तृतीयं चतुर्थे श्रमणस्तेजोनिसर्ग कुर्यात्, पञ्चमे देवः पठे उभाविति, केवलमयं विशेषः 'तो' ति उपसर्गकारिणि 'स्फोटा:' स्फोटकाः समुत्पद्येरन् अग्निदग्धे इव, ते च स्फोटकाः भिद्यन्ते - स्फुटम्ति, ततस्ते भिन्नाः सन्तस्तमेवोपसर्गकारिणं सह तेजसा तेजोलेश्यावन्तमपि श्रमणदेवतेज सोर्बलवत्त्वात् तेजसो पहननीयस्याद् भस्म कुर्युःनिपातयेयुरिति, सप्तमाष्टमनवमेध्वपि तथैव, नवरं तत्र स्फोटाः सम्मूर्च्छन्ति भिद्यन्ते च ततस्तत्र पुलाः- पुलाफिका लघुतरस्फोटिकाः सम्मूर्च्छन्ति ततो भिद्यन्ते, ते च पुलाः भिन्नाः सन्तस्तमेवोपसर्गकारिणं सदैव तेजसा भस्म कुर्युरित्येतानि नव स्थानानि साधुदेव कोपाश्रयाणि दशमं तु वीतरागाश्रयं तत्र 'अचासाएमाणे'त्ति उपसर्ग कुर्वन् गोशालकवतेजो निसृजेत्, 'से य तस्थ'ति तच्च तेजस्तत्र श्रमणे निसृष्टं महावीर इव नो क्रमते ईषत् नो प्रक्रमते प्रकर्षेण न प्रभवतीत्यर्थः केवलं 'अंचिअंचियं'ति उत्पतनिपतां पार्श्वतः करोति, ततश्चादक्षिणतः पार्श्वात् प्रदक्षिणा पार्श्वभ्रमणमादक्षिणप्रदक्षिणा तां करोति, ततचोर्द्धम् उपरि दिशि 'बेहासं'ति विहाय आकाशमित्यर्थः उत्पतति, उत्पत्य च 'से'चि तसेजः ततः श्रमणशरीरसन्निधेस्तन्माहात्म्य प्रतिहतं सत् प्रतिनिवर्त्तते प्रतिनिवृत्त्य च तदेव शरीरकमुपसर्गकारिसम्बन्धि यतस्तन्निर्गतं तमनुदहन - निसर्गानन्तरमुपतापयन् किंभूतं शरीरकं ? - सह तेजसा वर्त्तमानं तेजोलब्धिमत् भस्म कुर्यादिति, Far Fara & Pras anthray.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~476~ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) प्रत सूत्रांक [७७६] दीप अनुक्रम [१०००] श्रीस्थाना ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥ ५२२ ॥ [भाग-6] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ७७६ ] स्थान [१०], उद्देशक [-], अयमकोपस्यापि वीतरागस्य प्रभावो यत्यरतेजो न प्रभवति, अत्रार्थे दृष्टान्तमाह — 'जहा वा' यथैव गोशालकस्य-भगवच्छिष्याभासस्य मङ्गल्यभिधानमपुत्रस्य, मङ्खश्च चित्रफलकप्रधानो भिक्षुकविशेषः, 'तवेतेए'ति तपोजनितत्वात्तपः किं तत् ? - तेजस्तेजोलेश्येति, तत्र किलेकदा भगवान् महावीरः श्रावस्त्यां विहरति स्म गोशालकश्च तत्र च गौतमो गोचरगतो बहुजनशब्दमश्रीषीत् यथा इह श्रावस्त्यां द्वौ जिनौ सर्वज्ञौ - महावीरो गोशालकश्चेति श्रुत्वा भगवदन्तिकमागत्य गोशालकोत्थानं पृष्टवान्, भगवांश्चोवाच-यथा अयं शरवणग्रामे गोबहुलब्राह्मणगोशालायां जातो मलिनान्नो मङ्गस्य सुभद्राभिधानतद्भार्यायाश्च पुत्रः पडू वर्षाणि यावच्छास्थेन मया सार्द्ध विहृतोऽस्मत एव बहुश्रुतीभूत इति नायें जिनो न च सर्वशः, इदं च भगवद्वचनमनुश्रुत्य बहुजनो नगर्याः त्रिकचतुष्कादिषु परस्परस्य कथयामास-गोशालको मलिपुत्रो न जिनो न सर्वज्ञः, इदं च ठोकवचनमनुश्रुत्य गोशालकः कुपितः आनन्दाभिधानं च भगवदन्तेवासिनं गोचरगतमपश्यत् तमवादीच्च भो आनन्द ! एहि तावदेकमौपम्यं निशामय, यथा केचन वणिजोऽर्थार्थिनो विविधपण्यभृतशकटा देशान्तरं गच्छन्तो महाटवीं प्रविष्टाः पिपासितास्तत्र जलं गवेषयन्तश्चत्वारि वल्मीकशिखराणि शालवृक्षस्यान्तरद्राक्षुः क्षिप्रं चैकं विचिक्षिपुस्ततोऽतिविपुलम मलजलमवापुः, तत्पयो यावत्पिपासमापीतवन्तः पयःपात्राणि च पयसा परिपूरयामासुः, अपायसम्भाविना वृद्धेन निवार्यमाणा अप्यतिलोभाद् द्वितीयतृतीयशिखरे त्रिभिदुः, तयोः क्रमेण सुवर्ण च रत्नानि च समासादयामासुः पुनस्तथैव चतुर्थ भिन्दानाः घोरविषमतिकायमअनपुञ्जतेजसमति चञ्चलजिह्वायुगलमनाकलितकोपप्रसर महीश्वरं सङ्घट्टितवन्तः, ततोऽसौ कोपाद्वल्मीकशिखरमारुह्य Far Portal & Private On १० स्थाना. उद्देशः श् मूलादीनि श्रेणयः ग्रैवेयकं तेजोलेश्याः सू० ७७३७६७ ~ 477 ~ ॥ परर ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देशः ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७७६] 928 प्रत ॐ45453 सूत्रांक [७७६] मार्तण्डमण्डलमवलोक्य निर्निमेषया दृष्ट्या समन्तादवलोकयंस्तान् भस्मसाच्चकार, तन्निवारकवृद्धवाणिजकं तु न्यायदशीत्यनुकम्पया वनदेवता स्वस्थानं सनहारेति, एवं त्वदीयधर्माचार्यमात्मसम्पदाऽपरितुष्टमस्मदवर्णवादविधायिनमहं| स्वकीयेन तपस्तेजसाऽद्यैव भस्मसात्करिष्यामीत्येप प्रचलितोऽहं, त्वं तु तस्येममर्थमावेदय, भवन्तं च वृद्धवाणिजमिव | न्यायवादित्यादक्षिष्यामीति श्रुत्वाऽसावानन्दमुनि तो भगवदन्तिकमुपागत्य तत्सर्वमावेदयत्, भगवताच्यसाबभिहिता-एष आगच्छति गोशालकस्ततः साधवः शीघमितोऽपसरन्तु प्रेरणां च तस्मै कश्चिदपि मा दादिति गौतमादीनां निवेदयेति. तथैव कृते गोशालक आगत्य भगवन्तमभि समभिदधौ-सुष्टु आयुष्मन् काश्यप! साधु आयुष्मन् काश्यपाल मामेवं वदसि-गोशालको मङ्गलिपुत्रोऽयमित्यादि, योऽसौ गोशालकस्तवान्तेवासी स देवभूयं गतः अहं वन्य एव त|च्छरीरकं परीषहसहनसमर्थमास्थाय वत्तें इत्यादिकं कल्पितं वस्तूग्राहयन् तत्प्रेरणाप्रवृत्तयोद्धयोः साध्योः सर्वानुभू-I |तिसुनक्षत्रनामोस्तेजसा तेन दग्धयोर्भगवताभिहितो-हे गौशालक ! कश्चिच्चौरो प्रामेयकैः प्रारभ्यमाणस्तथाविधं दुर्गमलभमानोऽङ्गल्या तृणेन शूकेन वाऽऽत्मानमावृण्वन्नावृतः किं भवति?, अनावृत एवासी, वमप्येवमन्यथाजल्पनेनात्मानमाच्छादयन् किमाच्छादितो भवसि ?, स एव त्वं गोशालको यो मया बहुश्रुतीकृतस्तदेवं मा वोचः, एवं भगवतः समभावतया यथावत् अवाणस्य तपस्तेजोऽसौ कोपान्निससर्ज, उच्चावचाक्रोशैश्चाक्रोशयामास, तत्तेजश्च भगवत्यप्रभवत् | तं प्रदक्षिणीकृत्य गोशालकशरीरमेव परितापयदनुप्रविवेश, तेन च दग्धशरीरोऽसौ दर्शितानेकविधविक्रियः सप्तमरात्री कालमकार्षीदिति । महावीरस्य भगवतो नमन्निखिलनरनाकिनिकायनायकस्यापि जघन्यतोऽपि कोटीसञ्जयभक्तिभरनि SASSASSASS दीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~478~ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७७६] प्रत सूत्रांक [७७६] श्रीस्थाना- रामरषट्पदपटल जुष्टपादपास्यापि विविधऋद्धिमतरविनेयसहस्रपरिवृतस्यापि स्वप्रभावप्रशमितयोजनश तमध्यगतवैरमा-६१० स्थाना. सूत्र- रिविड़रदुर्भिक्षाद्युपद्रवस्याप्ययमनुत्तरपुण्यसम्भारस्यापि यद्गोशालकेन मनुष्यमात्रेणापि चिरपरिचितेनापि शिष्यकल्पेना- देशः३ वृत्तिः प्युपसर्गः क्रियते तदाश्चर्यमित्याश्चर्याधिकारादिदमाह आश्चर्यदस अच्छेरगा पं० --उपसग १ गम्भहरणं २ इत्थीतित्थं ३ अभाविया परिसा ४ । कणस्स अवरकका ५ उत्तरणं दशकं ॥५२३॥ चंदसूराणं ६॥१॥हरिवंसकुलुप्पत्ती ७ चमरुप्पातो त ८ अट्ठसयसिद्धा ९ । अस्संजतेसु पूना १०, पसवि अर्ण सू०७७७ तेण कालेण ॥ २ ॥ (सू० ७७७) 'दसे'त्यादि आ-विस्मयतश्चर्यन्ते-अवगम्यन्त इत्याश्चर्याणि-अद्भुतानि, इह च सकारः कारस्करादित्वादिति, 'उव- सग्गे'त्यादि गाथाद्वयं, उपसृज्यते क्षिप्यते च्याव्यते प्राणी धर्मादेभिरित्युपसर्गा-देवादिकृतोपद्रवाः, तेच भगवतो म हावीरस्थ छद्मस्थकाले केवलिकाले च नरामरतिर्यकृता अभूवन, इदं च किल न कदाचिद्भूतपूर्व, तीर्थकरा हि अनुसदारपुण्यसम्भारतया नोपसर्गभाजनमपि तु सकलनरामरतिरश्चां सत्कारादिस्थानमेवेत्यनन्तकालभाज्ययमों लोकेऽहुत-18 भूत इति १, तथा गर्भस्य-उदरसत्त्वस्य हरण-उदरान्तरसङ्क्रामणं गर्भहरणं एतदपि तीर्थकरापेक्षयाऽभूतपूर्व समगवतो महावीरस्य जातं, पुरन्दरादिष्टेन हरिणेगमेषिदेवेन देवानन्दाभिधानब्राह्मण्युदरात्रिशलाभिधानाया राजपच्या उदरे सङ्क्रमणाद्, एतदृष्यनन्तकालभावित्वादाश्चर्यमेवेति ३, तथा स्त्री-योपित्तस्यास्तीर्थकरत्वेनोत्पन्नायाः तीर्थ-द्वादशाङ्गं सहो । वा स्त्रीतीर्थं, तीर्थ हि पुरुषसिंहाः पुरुषवरगन्धहस्तिनत्रिभुवनेऽप्यव्याहतप्रभुभावाः प्रवर्तयन्ति, इह त्ववसर्पिण्यां मि दीप अनुक्रम E पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~479~ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७७७] ASE प्रत सूत्रांक [७७७] बिलामपरीपतेः कुम्भकमहाराजस्य दुहिता मल्यभिधाना एकोनविंशतितमतीर्थकर स्थानोत्पन्ना तीर्थं प्रवर्तितवती-151 त्यनन्तकालजातस्यादस्य भाषस्याबवतेति ३, तथा अभव्या-अयोग्या चारित्रधर्मस्य पर्षत्-तीर्थकरसमवसरणश्रोत| लोका, भूयते हि भगवतो बईमावस्य जम्भिकग्रामनगराद्धहिरुत्पन्न केवलस्य तदनन्तरं मिलितचतुर्विधदेवनिकायविरचितसमवसरणस्य भक्तिकुतूहलाकृष्टसमायातानेकनरामसविशिष्टतिरश्चां स्वस्वभाषानुसारिणाऽतिमनोहारिणा महाध्व| मिना कल्पपरिपालमान धर्मकथा बभूच, यतो न केनापि तत्र विरतिः प्रतिपन्ना, न चैतत्तीर्थकृतः कस्यापि भूतपूर्वमितीदमाश्चर्वमिति ४, तथा कृष्ण-नवमवासुदेवस्य अवरकका राजधानी गतिविषया जातेत्यप्यजातपूर्वत्वादाश्चर्य, भूयते हि पाण्डवभार्या द्रोपवीधातकीखण्डभरतक्षेत्रापरकङ्काराजधानीनिवासिपद्मराजेन देवसामर्थे नापहृता, द्वारका-15 बत्तीधास्तव्यश्च कृष्णो वासुदेवो नारदावुपलब्धतळ्यतिकरः समाराधितसुस्थिताभिधानलवणसमुद्राधिपतिर्देवः पञ्चभिः। पाण्डवैः सह बिपोजमलमप्रमाण जलधिमतिक्रम्य पनराज रणविमर्देन विजित्य द्रौपदीमानीतवान् , तत्र च कपिलवास-1 देवो मुनिसुव्रतजिनात् कृष्णवासुदेवागमनवासामुपलभ्य सबहुमानं कृष्णदर्शनार्थमागतः, कृष्णश्च तदा समुद्रमुलक्ष्यति स्म, तक्तस्तेन पाश्चजम्बः पूरिता कृष्णेनापि तथैव ततः परस्परशशब्दश्रवणमजायतेति ५, तथा भगवतो महावीरस्य करनार्थमयतणमानाशात् समयसत्यभूम्यां चन्द्रसूर्ययोः शाश्वतविमानोपेतयोर्वभूवेदमप्याश्चर्यमेवेति ६ तथा हरे-पुरुषहै। विशेषस्य बंका-पुत्रपौमाधिपरम्परा हरिवंशस्ताक्षणं यत्कुलं तस्योत्पत्तिः हरिवंशकुलोत्पत्तिः कुल ह्यनेकधा अतो हरिवंशेन 8 विशिष्यते, पामेति मते हिमालयापेक्षया यत्तूत्तीय हरिवल्यं मिथुनकक्षेत्रं ततः केनापि पूर्वविरोधिना| दीप अनुक्रम [१००३] या SamEaucatunitammational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~480~ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७७७] श्रीस्थाना वृत्तिः प्रत ॥५२४॥ सूत्रांक [७७७] व्यन्तरसुरेण मिथुनकमेकं भरतक्षेत्रे क्षिप्त, तच्च पुण्यानुभावाद्राज्यं प्राप्तं, ततो हरिवर्षजातहरिनाम्रो पुरुषायो वंशः स|१०स्थाना. तथेति ७, तथा चमरस्य-असुरकुमारराजस्योसतन-ऊर्ध्वगमनं चमरोसातः, सोऽप्याकस्मिकत्वादाश्चर्यमिति, श्रूयते हि उद्देशः३ चमरचञ्चाराजधानीनिवासी चमरेन्द्रोऽभिनवोत्पन्नः सर्वमवधिनाऽऽलोकयामास, ततः स्वशीर्षोपरि सौधर्मव्यव- आश्चर्यस्थितं शक्रं ददर्श, ततो मत्सराध्मातः शक्रतिरस्काराहितमतिरिहागत्य भगवन्तं महावीर छद्मस्थावस्थमेकरात्रिकी प्र- दशकं |तिमा प्रतिपन्नं सुंसुमारनगरोद्यानवतिनं सबहुमानं प्रणम्य भगवस्त्वत्पादपङ्कजवनं मे शरणमरिपराजितस्येति विकल्प्य सू०७७७ विरचितघोररूपो लक्षयोजनमानशरीरः परिघर प्रहरणं परितो भ्रमयन् गर्जनास्फोटयन् देवांस्त्रासयन्नुत्पपात, सौधमावतंसकविमानवेदिकायां पादन्यासं कृत्वा शक्रमाक्रोशयामास, शक्रोऽपि कोपाजाज्वल्यमानस्फारस्फुरत्स्फुलिङ्गशतसमाकुलं कुलिशं तं प्रति मुमोच, स च भयात् प्रतिनिवृत्त्य भगवत्पादौ शरणं प्रपेदे, शक्कोऽप्यवधिज्ञानावगततळ्यतिकरस्तीर्थकराशातनाभयात् शीघमागत्य वज्रमुपसंजहार, बभाण च मुक्तोऽस्यहो भगवतः प्रसादात् नास्ति मत्तस्ते भयमिति ८, तथाऽष्टाभिरधिकं शतमष्टशतं अष्टशतं च ते सिद्धाश्च-निर्वृताः अष्टशतसिद्धाः, इदमप्यनन्तकालजातमि-17 त्याश्चर्यमिति ९, तथा असंयता:-असंयमवन्त आरम्भपरिग्रहप्रसक्ता अब्रह्मचारिणः तेषु पूजा-सत्कारः, सर्वदा हि किल| संयता एव पूजाहाँ, अस्यां स्ववसर्पिण्या विपरीतं जातमित्याश्चर्य, अत एवाह-दशाप्येतानि अनन्तेन कालेन-अनन्तकालात् संवृत्तानि अस्यामवसर्पिण्यामिति । अनन्तरसूत्रे चमरोत्पात उक्तः स च रत्नप्रभाया: सजात इति रमप्रभा-IPI वक्तव्यतामाह दीप अनुक्रम [१००३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~481~ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७७८] प्रत सूत्रांक [७७८] 64595%2555555* इमीसे थे रवणप्पभाते पुढचीए रयणे कंडे दस जोअणसयाई बाहलेणं पन्नत्ते, इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए वतरे कंडे दस जोयणसताई बाहलेणं पण्णते, एवं बेरुलिते १ लोहितक्खे २ मसारगले ३ हंसगन्भे ४ पुलते ५ सोगंधिते ६ जोतिरसे अंजणे ८ अंजणपुलते ९ रतते १० जातरूवे ११ अंके १२ फलिहे १३ रिहे १४ जहा रयणे तहा सो लसविधा भाणितन्वा (सू०७७८) 'इमीसे 'मित्यादि, येयं रजुरायामविष्कम्भाभ्यामशीतिसहस्राधिक योजनलक्षं बाहल्यतः उपरि मध्येऽधस्ताच यस्याः खरकाण्डपङ्कबहुलकाण्डजलबहुलकाण्डाभिधानाः क्रमेण षोडशचतुरशीत्यशीतियोजनसहस्रबाहल्या विभागाः| सन्ति, 'इमीसे'त्ति एतस्याः प्रत्यक्षासन्नायाः रत्नानां प्रभा यस्यां रक्षा प्रभाति-शोभते या सा रत्नप्रभा तस्याः पृथिकाव्या-भूमेयत्तत् खरकाण्डं तत्षोडशविधरलात्मकत्वात् षोडशविध, तत्र यः प्रथमो भागो रत्नकाण्डं नाम तद्दशयोजन शतानि बाहल्येन, सहस्रमेकं स्थूलतयेत्यर्थः, एवमन्यानि पञ्चदशापि सूत्राणि घाच्यानि, नवरं प्रथम सामान्यरलात्मकं | *शेषाणि तद्विशेषमयानि, चतुर्दशानामतिदेशमाह-एवं'मित्यादि, 'पूर्व मिति पूर्वाभिलापेन सर्वाणि वाच्यानि, 'वेरु लिय'त्ति वैडूर्यकाण्डं, एवं लोहिताक्षकाण्डं मसारगल काण्ड हंसगर्भकाण्डमेवं सर्वाणि, नवरं रजतं-रूप्यं जातरूप| सुवर्णमेते अपि रने एवेति ॥रलप्रभाप्रस्तावात् तदायद्वीपादिवक्तव्यता सूत्रचतुष्टयेनाह सब्वेविण दीवसमुरा दसजोयणसताई जम्वेहेणं पण्णत्ता । सब्जेवि णं महादहा दस जोवणाई उव्वेहेणं पण्णत्ता । सन्वेवि णं सलिलकुंडा दसजोषणाई उल्वेहेणं पण्णचा । सियासीओया णं महानदीओ मुहमूले दस दस जोयणाई उम्मेहेणं पण्णचाओ दीप अनुक्रम [१००४] SamEaucatunim पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~482~ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७७९] प्रत सूत्रांक [७७९] श्रीस्थाना (सू०७७९) कत्तियाणक्खत्ते सम्बवाहिरातो मंडलातो दसमे मंडले चार परति, अणुराधानक्खत्ते सम्वम्भंतरातो मं- १०स्थाना. सूत्र हलातो इसमे मंडले चार चरति (सू०७८०) दस णक्खत्ता णाणस्स विद्धिकरा पण्णत्ता, सं०-मिगसिरमहा पुस्सो उद्देशः ३ वृत्तिः तिनि य पुम्बाई मूलमत्सेसा । हत्थो चित्ता य तहा इस बुद्धिकराई णाणस्स ॥ १॥ (सू० ७८१) काण्डानि ॥ ५२५॥ 'सब्वेवादि सुगम, नवरमुद्वेधः उंडतंति भणिय होइ, द्वीपानां चंडत्तणाभावेऽवि अधोदिशि सहनं यावद्वीपव्यफ-| द्वीपायु से देशो, जंबूद्वीपे तु पश्चिमविदेहे जगतीप्रत्यासत्तौ उंडत्तमपि अस्थिति ॥ महाइदाः हिमवदादिषु पद्मादयः, 'सलिलकुं ति सलिलाना-गङ्गादिनदीनां कुण्डाजि-प्रपातकुण्डानि प्रभवकुण्डानि च सलिलाकुण्डानीति, 'मुहमूले ति समुद्र- क्षत्रमण्डप्रवेशे । द्वीपसमुद्राधिकारात् तद्वनिक्षत्रसूत्रत्रवमाह-कत्तिए'त्यादि, इह किल सूर्यस्य चतुरशीत्यधिक मण्डलशतंद्र ले ज्ञानभवति पन्द्रय पञ्चदश नक्षत्राणां त्वष्टी, मण्डलं च मार्ग उच्यते, तच्च यथास्वं सूर्यादिविमानतुल्पविष्कम्भ, तत्र नक्षत्राणि जम्बूद्वीपस्वासीत्यधिके योजनसते पञ्चषष्टिः सूर्यस्य मण्डलानि भवन्ति, चन्द्रस्य पच, नक्षत्राणां हे, तथा लवणसमुद्र सू०७७२इत्रीणि विशदधिकामि योजनशताब्यवगाय एकोनविंशत्यधिकं तूर्वल मण्डलशतं भवति, पन्द्रस्य दश, नक्षत्राणां च पटू, एतेषां च सर्वावं सुमेरो पात्वारिंशति योजनानां सहस्रेषु त्रिंशदधिकेषु च त्रिषु शतेषु भवति, सर्वाभ्यन्तरं च । चतुश्चत्वारिंशति सहामेषु अष्टामुक विंशत्यधिक मतेषु भवतीति, एवं च कृत्तिकानक्षत्रं सर्ववाह्यात् 'मण्डलाउ'त्ति चन्द्रमण्डलाइसमेन्द्रमण्डले सोमबन्तरात् पप इत्यर्थः 'चारं चरइति भ्रमणमाचरति, अनुराधानक्षत्रं सर्वोम्य ॥५२५॥ न्तराद पम्द्रस्य मण्डलाच दशमे घामण्डले सर्वनाशाखा इलार्थ पारं परतीति व्याख्यातमेवेति । 'विद्धिकराईति दीप अनुक्रम [१००५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~4834 Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७८१] ACCSC प्रत सूत्रांक [७८१] एतनक्षत्रयुक्त चन्द्रमसि सति ज्ञानस्थ-श्रुतज्ञानस्योद्देशादियदि क्रियते तदा ज्ञानं समृद्धिमुपयाति-अभिप्रेमाचीवसे शूयते व्याख्यायते पार्षते वेति, भवति च कालविशेषस्तथाषिधकार्येषु कारणं, क्षयोपशमादिहेतुत्वासस्य, यदाह-"उदयक्सयलमोचसमोवसमा जंच कम्मुणो भणिया । दव्यं खेसं कालं भवं च भावं च संपप्प ॥१॥" इति, [उदयक्षयक्षयोपशमोपशमा बच कर्मणो भणिताः । द्रव्यं क्षेत्रं कालं भवं च भावं च संप्राप्य ॥१॥] तद्यथा 'मिगसिर'गाहा कण्ठ्या । द्वीपसमुद्राधिकारादेव दीपचारिजीववक्तव्यतां सूत्रद्वयेनाह बसप्पपथलयरपंचिपियतिरिक्वजोणिताणं बस जातिकुलकोडिजोणिपमुहसतसहस्सा पण्णता, उरपरिसप्पयलयरपंचिवियतिरिक्सजोणिताणं वस जातिकुलकोडिनोणिपमुहसतसहस्सा पण्णत्ता (सू०७८२) 'चउप्पये त्वादि, चत्वारि पदानि-पादा येषां ते चतुष्पदास्ते च ते स्थले परन्तीति स्थलचरावेति चतुष्पदस्खलचरास्ते च ते पोन्द्रियाति विमहा, पुनस्तिर्यग्योनिकाश्चेति कर्मधारयः, तेषां 'वशे'ति दशैव, 'जाती' पश्चेम्ब्रियजाती दीयानि कुसकोटीना-जातिविशेषलक्षणानां [तानां] योनिप्रमुखाणि-उत्पत्तिस्थानद्वारकाणि शतसहस्राणि-लक्षाणि तानि तथा प्रशसानि सक्दिा, सन्न योनिर्वथा गोमयो दीन्द्रियाणामुत्पत्तिस्थानं, कुलानि तत्रैकत्रापि बीन्द्रियाणां कृम्याद्यजानेकाकारामि प्रतीतानीति, तथा उरा-पला परिसप्पैन्ति-सञ्चरन्तीत्युरम्परिसास्ते च ते स्थल परावेत्यादि तथैव ॥13 द्राजीवविध दाखामकमभिधासाधुनाऽजीवस्वरूपपुद्गल विषयं तदाह जीया सहाणनिवत्तिता पोन्गले पानकमत्ताए चिणिंसु वा ३, तंजहा-पटनसमयएगिदियनिव्वत्तिए जाव फासि BALEKAR दीप + अनुक्रम [१००८] Eco Fit Forum पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~484~ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७८३] श्रीस्थाना नसूत्र वृत्तिः प्रत पुगलाः ॥५२६॥ सूत्रांक [७८३] 545454545555 वियनिव्वचिते, 'एवं चिण उवधिण बंध उदीर येय तह णिजरा चेव' । दसपतेसिवा खंधा अणता पण्णत्ता दसपतेसो. १०स्थाना. गाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता दससमतठितीता पोग्गला अणंता पण्णत्ता दसगुणकालगा पोगाला अर्णता पण्णता, उद्देशः३ एवं वन्नेहिं गंधेहि रसेहिं फासेहिं दसगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता । (सू०७८३) सम्म च ठाण मिति दसम ४ कुलकोबः ठाणं सम्म १०, दसम अजायणं सम्मत्तं १० । इति श्रीस्थानाङ्गं तृतीयाङ्गं समाप्त ॥ (पन्धान ३७००) 'जीवाण'मित्यादि, अथवा जातियोनिकुलादिविशेषा जीवाणां कर्मणश्चयोपचयादिभ्यो भवन्तीति त्रिकालभा- सू०७८२| विनो दशस्थानकानुपातेन कर्मणश्चयादीनाह-'जीवा 'मित्यादि, जीवा-जीवनधर्माणो न सिद्धा इति भावः, ण-13 ७८३ मिति वाक्यालङ्कारे दशभिः स्थानः प्रथमसमयैकेन्द्रियत्वादिभिः पर्यायैः हेतुभिर्ये निर्तिता-बन्धयोग्यतया निष्पादि-IKI | तास्ते तथा दशभिः स्थाननिर्वृत्तिर्वा येषां ते तथा तान् पुद्गलान्-कर्मवर्गणारूपान् पाप-घातिकर्म सर्वमेव वा कर्म तच्च तक्रियमाणत्वात् कर्म च पापकर्म तद्भावस्तत्ता तया पापकर्मतया 'चिणिंसुत्ति चितवन्तो गृहीतवन्तः | चिन्वन्ति-गृहन्ति चेष्यन्ति-गृहीष्यन्त्यनेनात्मना त्रिकालान्वयित्वमाह, सर्वथा अनन्वयित्वेऽकृताभ्यागमकृतविप्रणाशप्रसङ्गादिति, वाशब्दा विकल्पार्थाः, तद्यथा-प्रथमः समयो येषामेकेन्द्रियत्वस्य ते तथा ते च ते एकेन्द्रियाश्चेति प्र| थमसमयैकेन्द्रियास्तैः सद्भिर्ये निर्वर्तिताः-कर्मतयाऽऽपादिता अविशेषतो गृहीतास्ते तथा तान, एतद्विपरीतैरप्रथम-18 समयैकेन्द्रियनिर्वह्निता ये ते तथा तान्, एवं द्विभेदता द्वित्रिचतुष्पश्चेन्द्रियाणां प्रत्येकं वाच्येति, एतदेवातिदेशेनाह ॥५२६ ॥ -जावे'त्यादि, यथा चितवन्त इत्यादि कालत्रयनिर्देशेन सूत्रमुक्तमेवमुपचितवन्त इत्यादीन्यपि पश्च वक्तव्यानीत्येत दीप अनुक्रम [१०१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अत्र मूल-संपादने एका स्खलना जाता, स्थान- समीपे यत् उद्देश: ३ लिखितं तत् मुद्रण-दोष:, दशमे स्थाने न किंचित् उद्देशकः वर्तते ~485~ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७८३] प्रत सूत्रांक [७८३] | देवाह-एवं चिणे'त्यादि, इह चैवमक्षरघटना-चिणत्ति-यथा चयनं कालत्रयविशेषितमुक्तमेवमुपचयो बन्ध उदीरणा है वेदना निर्जरा च वाच्याः, 'चेव'त्ति समुच्चये नवरं चयनादीनामयं विशेषः-चयनं नाम कषायादिपरिणतस्य कर्मपुद्ग लोपादानमात्र, उपचयनं गृहीतानां ज्ञानावरणादिभावेन निषेचनं बन्धनं-निकाचनं उदीरणा करणत उदये प्रवेशनं || ४ वेदन-अनुभवन निर्जरा-जीवप्रदेशेभ्यः परिशटनमिति । पुद्गलाधिकार एवेदमाह-दसे'त्यादि सूत्रवृन्दं सुगम च, नवरं दश प्रदेशा येषां ते तथा त एव दशप्रदेशिका-दशाणुकाः स्कन्धाः-समुच्चया इति द्रव्यतः पुद्गलचिन्ता, तथा दशसु |प्रदेशेष्वाकाशस्थावगाढा-आश्रिता दशप्रदेशावगाढा इति क्षेत्रतः तथा दश समयान स्थितिर्येषां ते तथेति कालतः तथा ॥ दशगुणः-एकगुणकालापेक्षया दशाभ्यस्तः कालो-वर्णविशेषो येषां ते दशगुणकालकाः एवमन्यैश्चतुर्भिवणेद्वाभ्यां गन्धा भ्यां पञ्चभी रसैरष्टाभिः स्पर्शः विशेषिताः पुद्गलाः अनन्ता बाच्या, अत एवाह-एवं'मित्यादि, 'जाव दसगुणलुक्खा पोग्गला अर्णता पत्नसेत्यनेन भावतः पुद्गलचिन्तायां विंशतितम आलापको दर्शितः । इह चानन्तशब्दोपादानेन वृ. | धादिशब्देनेवान्तमङ्गलमभिहितं, अयं चानन्तशब्द इह सर्वाध्ययनानामन्ते पठित इति सर्वेष्वप्यन्तमङ्गलतया बोद्धव्य | इति ।। तदेवं निगमितमनुगमद्वारांशभूतं सूत्रस्पर्शकनियुक्तिद्वारं, शेषद्वाराणि तु सर्वाध्ययनेषु प्रथमाध्ययनवदनुगमनीया नीति ॥ इति श्रीमदभयदेवसूरिविरचिते स्थानाख्यतृतीयाङ्गविवरणे दशस्थानकाख्यं दशममध्ययनं समाप्त-IN ४ मिति । ग्रंधाग्रं १७१४॥श्रीः। तत्समाप्तौ च समाप्तं स्थानाङ्गविवरणं, तथा च यदादावभिहितं स्थानाङ्गस्य महानिधानस्ये योन्मुद्रणमिवानुयोगः प्रारभ्यत इति तच्चन्द्रकुलीनप्रवचनप्रणीताप्रतिवद्धविहारहारिचरितश्रीवर्धमानाभिधानमुनिपति दीप अनुक्रम १०१० पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~486~ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०३) [भाग-6] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [१०], उद्देशक [-], मूलं [७८३] [१०स्थाना श्रीस्थान सूत्रवृत्तिः प्रत ॥ ५२७॥ सूत्रांक BASICANERAL [७८३] पादोपसेविनः प्रमाणादिव्युत्पादनप्रवणप्रकरणप्रबन्धप्रणायिनः प्रबुद्धप्रतिबन्धप्रवक्तृप्रवीणाप्रतिहतप्रवचनार्थप्रधानवा-12 प्रसरस्थ सुवि हिसमुनिजनमुख्यस्य श्रीजिनेश्वराचार्यस्य तदनुजस्य च व्याकरणादिशाखकः श्रीबुद्धिसागराचार्यस्य चरणकमलचचरीककल्पेन श्रीमदभयदेवसूरिनाम्ना मया महावीरजिनराजसन्तानवर्तिना महाराजवंशजन्मनेव संवि-1 प्रशस्तिः प्रमुनिवर्गश्रीमदजितसिंहाचार्यान्तेवासियशोदेवगणिनामधेयसाधोरुत्तरसाधकस्येव विद्याक्रियाप्रधानस्य साहाय्येन समर्थितं । तदेवं सिद्धमहानिधानस्येव समापिताधिकृतानुयोगस्य मम मङ्गलार्थ पूण्यपूजा-नमो भगवते वर्तमानतीर्घ-18 नाथाय श्रीमन्महावीराय नमः प्रतिपन्थिसार्थप्रमथनाय श्रीपार्श्वनाथाय नमः प्रवचनप्रबोधिकायै श्रीप्रवचनदेवतायै नमः प्रस्तुतानुयोगशोधिकायै श्रीद्रोणाचार्यप्रमुखपण्डितपर्षदे नमश्चतुर्वर्णाय श्रीश्रमणसङ्घभट्टारकायेति । एवं च निज-2 वंशवत्सलराजसन्तानिकस्येव ममासमानमिममायासमतिसफलतां नयन्तो राजवंश्या इव वर्द्धमानजिनसन्तानवर्तिनः स्वीकुर्वन्तु यथोचितमितोऽर्थजातमनुतिष्ठन्तु सुचितपुरुषार्थसिद्धिमुपयुञ्जताश योग्येभ्योऽन्येभ्य इति । किं च सत्सम्प्रदायाहीनत्वात् , सहस्व वियोगतः । सर्वस्वपरशास्त्राणामहष्टेरस्मृतेश्च मे ॥१॥ वाचनानामनेकत्वात्, पुस्तकानामशुद्धितः। सूत्राणामतिगाम्भीर्यान्मतभेदाच कुत्रचित् ॥ २॥ शूणानि सम्भवन्तीह, केवलं सुविवेकिभिः । सिद्धान्तानुगतो योऽर्थः, सोऽस्माद् माह्यो न चेतरः॥३॥ शोध्यं चैतजिने भकैर्मामवभिर्दयापरैः। संसारकारणाद् घोरादपसिद्धान्तदेशनात् ॥ ४॥ कार्यो न चाक्षमाऽस्मासु, यतोऽस्माभिरनामहै। एतद् गमनिकामात्रमुपकारीति पर्थितम् ॥ ५॥ दीप अक्क्य अनुक्रम १०१० ॥५२७ अत्र दशमं स्थानं CamEauratomitimational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: भाग स्थानांगसूत्र स्थान ५ से १० मूलं एवं अभयदेवसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ता: मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब 6 | किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) | ~487 Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग 01 02 03 04 05 06 07 08 09 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 सवृत्तिक- आगम- सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- १,२ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन 3 से ९ श्रुतस्कन्ध- २ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन १ से १३ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ स्थान- १ से ४ स्थान- ५ से १० संपूर्ण आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ भाग-२ | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, | आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, | आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. भाग-१ शतक- १ से ६ भाग-२ शतक- ७ से ११ भाग-३ शतक- १२ से २० भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण आगम-७,८,९, १० उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. | आगम- ११, १२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति. | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग - १ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३- अतर्गत ] सूत्र- १ से १३८ | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग - २ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३- अतर्गत ] सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती - १० संपूर्ण आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद १ से ५ आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. पद- ६ से २२ आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. ~ 488 ~ कुलपृष्ठ ३१४ ५८६ ४९८ ३९२ ५९४ ४९४ ३३८ ५९२ ५५२ ५१४ ३८४ ५२२ ५३८ ३८४ ३१४ ४८० ४८८ ४२६ ५१४ ३३६ ६१० Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलपृष्ठ भाग 22 ६१४ ३७६ 23 24 ४२६ 25 ३४४ ३१२ 26 27 ३३० 28 ४६६ ४४२ 29 30 सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगमा८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार-५ से ७. | आगम १९ थी ३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा, तंदुलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविद्या, देवेन्द्रस्तव मूलं एवं छाया | आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बुहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति- १ से १२१ | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१ आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन-१ से ४ अपूर्ण] | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन- ४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण) आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन-६ से २१ आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. | कल्प(बारसा)सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति. | ४६४ ४८२ ४६६ ૨૮ ५६० 40 ३९४ ~489~ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नम: भाग-6 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च __ "स्थानाङ्गसूत्र" [मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः] किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “स्थान" [स्थान-५ से १०] मूलं एवं वृत्तिः” नामेण परिसमाप्त: "सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" श्रेणि, भाग- 6 ~490~ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SURTEE आगर आजम आय आगाम आजम आजमग आगम आगम आजम enval aaOTA अवागम आजम OWNER आजम आजार RIGH आगम आगम राजम आजम आजम के आजम आजम आगम आगम आ आजम आज जम आगम आगम वाचना शताब्दी वर्ष Start LatSTTE आद्यास Me ~ 491~ आगम आजस आगम CATCERT आजम आजम आजम काम STOTR अनम आवस 377312 आजम आजाद SEVER BUTTH अजम आगआगआस आजम Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजम आगम आजम सुधाम आजम आगम नमो नमो निम्मलदंसणस्स सवृत्तिक- आगम- सुत्ताणि मूल संशोधक आजम आगल आजम STATZE अभिनव संकलनकर्ता ~492~ Super STORE BICOK BUGTH जम पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आगम प्रत- प्राप्ति और पेज- सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 / 9825306275 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता श्री आगम मंदिर पालिताणा SIA SHEORIEO LORIEORIEOElasorealisosalsohisoutsa ~493~ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गम अगम मूल सशाधकाजाम राजमा आजम आजमगुल सशविकास पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आजम आगम आगम आगम आगम आगम - 03 'स्थान' मूलं एवं वृत्ति: [2] आजम आज अभिनव-संकलनकर्ता आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आगम आगम आगम आगम कायम आज ~494~