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अखाय वि [अखात ] नहीं खुदा हुआ। 'तल [] छोटा तलाव (पाश्र) । अखिल वि [अखिल] १ सर्व, सकल, परिपूर्ण (कुमा) । २ ज्ञान आदि गुणों से पूर्ण 'अखिले श्रगिद्धे श्रणिएप्रचारी' (सूत्र १, ७) । [] (भवि) ।
fa [ अगणित ] अवगणित, अपअट्ट व [अडित] अखूट, परिपूर्ण मानित (गा ४८४ पउम ११७, १४ ) । (कुमा) । अगणित व [अगण्यमान ] जो गुरणने में न आता हो, जिसकी श्रावृत्ति न की जाती हो; 'अगरिगज्जती नासे विज्जा' (प्रासू ६६ ) । अगस्थि पुं [अगस्ति, क] १ इस नाम अगत्थिय का एक ऋषि । २ वृक्ष विशेष (दे ६, १३३: अनु) । ३ एक तारा, अठासी महाग्रहों में ५४ व महाग्रह (ठा २, ३ ) । अन्न व [ अण् ] १ जिसकी गिनती न हो सके वह (उप ७२८ टी) ।
[] नहीं सुनने लायक, श्राश्रव्य
gst देखो अक्खुडिअ (कुमा) । अखेण वि [अखेदज्ञ ] अकुशल, अनिपुण ( सूत्र १,१० ) ।
अखोड देखो अक्खोड + श्रास्फोट (पव २ टी ) ।
अखोहा स्त्री [अक्षोभr] विद्या-विशेष (उम ७, १३७) ।
अग पुं [अग] १ वृक्ष, पेड़ । २ पर्वत, पहाड़ (से, ४१); 'उच्चागयठारणलट्टसंठियं ( कष्प ) । अगर स्त्री [अगति] १ नीच गति, नरक या पशु-योनि में जन्म (ठा २, २) २ निरुपाय (अच्चु CE ) ।
अमन [ अग्रन्थिम ] १ कदली- फल, केला ( बृह १ ) । २ फल की फाँक, टुकड़ा (निचू १६) ।
aifee fo [] यौवनोन्मत्त, जवानी से उन्मत्त बना हुआ (दे १, ४० ) । अगंडूयग वि [अकण्डूयक] नहीं खुजलानेवाला ( सू २, २) ।
अगंथ वि [अग्रन्थ] १ धनरहित । २ पुंस्त्री. निर्ग्रन्थ, जैन साधु 'पावं कम्मं कुव्वमा एस महं गंथे विनाहिए ( श्राचा) । अगंधण पुं [अगन्धन] इस नाम की सर्पों की एक जाति, 'नेच्छति तयं भोत्तु कुले जाय । गंध' (दस २) ।
अ
[दे. अ] कूप, इनारा (सुर ११, ८६; उव)। तडत्रि [] नाराका किनारा (विसे)। 'दत्त पुं [ दत्त ] इस नाम का एक राजकुमार (उत्त) । ददुर पुं [°दर्दुर] कुँए का मेढक, अल्पज्ञ, वह मनुष् जो अपना घर छोड़ बाहर न गया हो (गाया १,८) ।
अग पुं [अ] कूप के पास पशुनों के जल पीने के लिए जो गर्त बनाया जाता है वह (उप २०५) ।
पाइअसहमणवो
अगड वि [ अकृत ] नहीं किया हुआ ( वव ६ ) ।
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अगणि पुं [अग्नि] प्राग (जी ६) काय पुं [काय ] श्रग्नि के जीव (भग ७, १०) । मुह [ख] देव, देवता ( श्राचू ।
(भवि) ।
अगम पुं [अगम ] १ वृक्ष, पेड़, 'दुमा य पायवा रुक्खा श्रा (? अ) गमा विडिमा तह ' (दसनि १,३५)। २ वि. स्थावर, नहीं चलने वाला (महानि ४) ।
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अगमन [अगम ] श्राकाश, गगन (भग २०, २) । अगमिय वि [अगमिक] वह शास्त्र, जिसमें एक सदृश पाठ न हो, या जिसमें गाथा वगैरह पद्य हो ; 'गाहाइ श्रगमियं खलु कालियसुयं' (विसे ४४९ ) ।
अगम्म वि [अगम्य] १ जाने के प्रयोग्य । २ स्त्री. भोगने के प्रयोग्य, भगिनी, पर स्त्री
आदि ( भविः सुर १२, ५२ ) । गामि वि [गामिन् ] पर स्त्री को भोगनेवाला, पारदारिक ( परह १, २) |
अगय न [ अगद ] श्रौषध, दवाई ( सुपा ४४७ ) ।
अगय पुं [दे] दैत्य, दानव (दे १,६ ) । अगर पुंन [अगरु ] सुगन्धि काठ - विशेष (परह २, ५) ।
अगरल वि[ अगरल ] सुविभक्त, स्पष्टः 'अग"भासाए भासेइ'
रलाए श्रममरणाए
( श्रप) ।
अगरु देखो अगर (कुमा) ।
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अखाय - अगीय अरुअवि [अगरुक ] बड़ा नहीं, छोटा, लघु (गउड) ।
अगरुलहु वि [अगुरुलघु ] जो भारी भी न हो और हलका भी न हो वह जैसे प्रकाश, परमाणु वगैरह (विसे) । नाम न ['नामन् ] कर्म- विशेष, जिससे जीवों का शरीर न भारी
हलका होता है (कम्म १,४७ ) । अगलदत्त पुं [ अगडदत्त ] एक रथिक-पुत्र (महा) ।
अगलय देखो अगर (श्रीप) । अगहण [दे] कापालिक, एक ऐसे संप्रदाय के लोग, जो माथे की खोपड़ी में ही खाने-पीने का काम करते हैं (दे १, ३१) । अहिल वि [ अग्रहिल ] जो भूतादि से प्राविष्ट न हो, अपागल ( उप ५६७ टी) ।
[ज] एक राजा, जो वास्तव में पागल न होने पर भी पागल प्रजा के आवरण से बनावटी पागल बना था ( ती २१) । अगाढ वि [ अगाध ] अथाह, बहुत गहरा 'गाढपणे वि भाविप्पा' (सूत्र १,१३ ) । अगामिय वि [अग्रामिक ] ग्रामरहित, 'अगामियाए अडवीए' ( प ) ।
अगर [अकार ] 'अ' प्रक्षर (विसे ४८४) । अगर न [ अगार ] १ गृह, घर (सम ३७) । २ पुं. गृहस्थ, गृही, संसारी (दस १ ) । स्थ वि[स्थ] गृही, (श्राचा) । धम्म पुं. ['धर्म] गृहि धर्म, श्रावक-धर्म ( प ) । अगारग वि [अकारक ] अकर्ता (अनि ३० ) । अगारि वि [ अगारिन् ] गृहस्थ, गृही (सूश्र २,६) ।
अगारी स्त्री [अगारिणी] गृहस्थ स्त्री ( वव
४) ।
अगाल देजो अयाल ( स ८२) । अगाह वि [ अगाध ] गहरा, गंभीर ( पाच ) । अगणि देखो अग्गि ( संक्षि १२ ) । अगिला स्त्री [अग्लानि] प्रखन्नता, उत्साह (ठा ५, १) ।
अगला स्त्री [दे] श्रवज्ञा, तिरस्कार ( दे १, १७ ) ।
अगीय वि[ अगीत ] शास्त्रों का पूरा ज्ञान जिसको न हो वैसा ( जैन साधु ) ( उप ८३३ टी) ।
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