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श्रीमद् देवचंद्र
भाग २ जो. विभाग २ जो.
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श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी ग्रन्थमाळा-ग्रन्थांक ५३.
ॐ अहँ महावीरदेवायनमः
Pal
श्रीमद् देवचन्द्र भाग २ बीजो.
50cmo
-~~~~ ~ ~
संशोधक, योगनिष्ट शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरि.
VOCTOWARA
प्रगटकर्ता, श्रीअध्यात्मज्ञानप्रसारकमंडळ. हा, गोमा हिमचन्द, पादरा.
hochachsionsn506
paNPAPAY
सा......प्रति-५०० (न. गांधीनगर)
वीर संवत् २४४
विक्रम संवत् १९७५.
400
amonomchchochaachonored APAPALPAPAYANYBOY,
किम्मत ३-८-०.
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आ ग्रंथ मळवार्नु ठेकाणुं:
वकील मोहनलाल हिमचंद-पादरा ( गुजरात.)
वडोदरा-शियापुरामां, लुहाणामित्र स्टीम प्रेसमां, विठ्ठलभाइ आशाराम ठक्करे
ता. १-१०-१९१९ ना रोज प्रगटकर्ता माटे छापी प्रसिद्ध कर्यु.
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निवेदन.
श्रीमद् बुद्धिसागर सू रिजी ग्रंथमाळाना ओगणपञ्चाशमा मणका तरीके श्रीमद् देवचन्द्र प्रथम भाग छपाया पछी दोढ वर्षे आ श्रीमद् देवचन्द्र बीजो भाग बहार पडे छे.श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराजना तमाम ग्रंथो एकत्र करी छपाववानी योजना जैनाचार्य श्रीमद् बुद्धिसागर सूरिजीनी प्रेरणाथी अने उपदेशयी क्यारे अने केवी रीते थई, तेमज क्या ग्रंथो क्याथी केवी रीते मळ्या ते सर्वे हकीकत श्रीमद् देवचन्द्र प्रथम भागनी प्रस्तावनामां विगतवार जणावेली होवाथी ते फरीथी अत्रे जणावेल नथी. प्रथम भागनी ५०० नकलो छपावी हती तेमांयी जैन पुस्तक भंडारो तथा साहाय्य करनार विगेरेने भेट आपवमा १५० नकलो तेमज वेचाणमां २०० नकलो मळी एकंदर ३५० नकलो खपी छे जो के मागणीओ घणीज आवे छे छतां नकलो थोडी होवाथी उपयोग प्रमाणे आपवामां आवे छे.
श्रीमद् देवचन्द्र वीजा भागनां एकंदर पृष्ट १२०० ना आशरे छे अने तेनी पण ५०० नकलो छपावी छे, ग्रंथन कद भारे थवाथी त्रणसो नकलो बे कडके बांधवामां आवी छे ते पैकी पहेला कङकामां विचारसार ग्रंथ अने बाकीना ग्रंथो बीजा कडकामां आव्या छे. बाकीनी २०० नकलो आखी बांधवामां आवशे जे पुस्तकालयो वगेरेने आपवामां उपयोगी थशे.
श्रीमद् देवचन्द्र बीजा भागमा जे जे ग्रंथो छपाया छे
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तेनी वीगतवार यादी अनुक्रमणिका उपरथी वांचको जोई शकशे. श्रीमद् देवचन्द्र प्रथम भागनी पेठे आ बीजो भाग पण जैनो तेमज जैनेतरोने अत्यंत उपयोगी थई पडे तेम छे. युरोपीय विग्रहना समयमां आ ग्रंथ छपाववामां आवेलो होवाथी सख्त मोघवारीना लीघे कागळो-छपामणी - बंधाई वगेरेनो एटलो बधो खर्च थयो छे के एक नकलनी पडतर कीं. रु. ६-०-० ना आशरे थाय छे तेमज कद वधी जवाथी बे कडके बांधेल छे छतां तेनी कींमत मात्र रु. ३-८-० राखी छे. बे कडका साथेज आपवामां आवशे.
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( ४ )
श्रीमद् देवचन्द्र प्रथम भाग तथा बीजा भागमां मदद करनार जैन ग्रहस्थोनां नाम नीचे प्रमाणे :
""
६.५०१ शा. म्होल्लाल नाथाभाई - पादरा. २०० शा. म्होल्लाल नरोतमदास - रण ( पादरा ) २०० शा. झवेरभाई भगवानदास- कावीठा ( बोरसद ) १०१ श्रीयुत श्रेष्टी अमरचंदजी बोथरा बालुवर (मुर्शिदाबाद) ३१ श्रीयुत श्रेष्ठी बुधसिंहजी बोथरा " जगतपतिसिंहजी दुगड," हरखचंदजी नाहटा
""
६१
५१
२५
गुलाबचंदजी भूरा
17
""
१८६ शा. हीरालाल छोटालाल-पादरा
२५० बाइ रतन शा. चुनीलाल कहानदासनी विधवा इटोला
( वडोदरा )
""
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""
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"
32
27
"7
"3
17
१०१ वकील. मोहनलाल हीमचंद - पादरा २५ सौ. बाइ जमनां. वकील मोहनलाल हीमचंदनां पत्नी,
"
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१०० शा. लक्ष्मीचंद लालचंद-वडु ( पादरा ) १०० बाइ चंचल शा. दामोदर कल्याणदासनी विधवा , ८९ बेन मणी शा. प्रेमचंद दलसुखभाइनी भाणेज. पादरा ८० शा. केशवलाल लालचंद वडोदरा-मामानी पोळ ७५ शा. केशवलाल नरोतमदास बडु ( पादरा )
बाइ आधार शा. गोरधनभाइ हीराचंदनी विधवा अंगु
नरोतमदास हीराचंदनी बिल (डभोइ)
५० शा. रतनचंद लाधाजी. कावीठा ( बोरसद ) ४१ शा. भाइलाल चुनीलाल. पादरा २५ वकील नंदलाल लल्लुभाइ. पादरा २५ बाइ सांकळी ते शा. मणीलाल चुनीलालनी विधवा. पादरा २० एक गृहस्थ तरफथी पादरा १० शा. बीकमलाल व्रजलाल राजली ( डभोइ ) ३५ शा. मुलजी पीतांबरदास मुजपुर ( पादरा) ५ बाइ रुक्ष्मणी शा. दलसुखभाइ प्राणजीवनदासनी दीकरी
पादरा ५ बाइ डाही ते शा. छोटालाल छगनलालनी विधवा. पादरा २०० बाइ आदीत शा. मथुरभइ ईश्वरदासनी विधवा. मुजपुर
१६ शा. माणेकलाल वरजीवनदास. पादरा १५० गाम वेजलपुरना जैनशाळाना ज्ञान खातेथी हा. शा.
छगनलाल लक्ष्मीदास ७५ दाहोदना शा. हेमचंद हरजीवनदास. ५० शेठ वीरचंदमाइ कृष्णाजी. माणसावाळा १२५ गाम गंभीराना ज्ञानखातेथी ७५ शा. खचंद आशाराम. गंभीरा
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५१ शा. हीराचंद केशवजी गंभीरा २५ शा. अंबालाल आशाराम २५ शा. माणेकलाल केशवजी १० शा. जेचंद केशवजी ११ शा. प्रेमचंद दलसुखभाइ पादरा १० शा. नगीनलाल मोतीलाल ,, १० शा. हीरालाल ललुभाइ । १० बाइ परसन ते वकील दलपतभाइ ललुभाइनी विधवा पत्नी,, १० बाइ समरत ते शा. कस्तुर दीपचंदनां सौ. पत्नी , ३३२०
उपर प्रमाणे बन्ने भाग छपावामां मदद आपनाराओनो उपकार मानवामां आवे छे.
श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराजना ग्रंथोथी जैन कोमने अत्यंत लाभ थयो छे, थाय छे अने भविष्यमा थशे.
श्रीमद् जैनाचार्य बुद्धिसागर सूरिजीए श्रीमद्नां पुस्तको सुधारवामां-प्रस्तावनी लखवामां-तेमज बने भागनु काम पुरु थतां सुधी दरेक प्रसंगे उपयोगी सूचनाओ आपवामां जे आत्मभोग आपेलो छे ते उपकारनो बदलो कोई रीते वळी शके तेम नथी एटलुज नहीं पण आ कार्य तेओश्रीना खास उपदेश अने प्रेरणाथीज उपस्थित थयुं होवाथी आ कार्यथी जैन समाजने तथा मने पोताने जे लाभ थयो छे ते सर्वना निमितभूत तेओश्रीज छे तेथी तेओश्रीनो जेटलो उपकार मानीए वेटलो ओछो छे.
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श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराजनां पुस्तको मेळवी आपवामां जे जे मुनि महाराजाओए तथा अन्य ग्रहस्थोए मदद करेली छे तेमज जे जे ग्रहस्थोए द्रव्य स्हाय करी छे तेमनो अने मारा सहाव्यायी बंधु माणेकलाल वरजीवनदास, मंगलभाइ लक्ष्मीचंद (वड़) प्रेमचंद दलसुखभाइ तथा भाइलाल चुनीलाल वगेरे जेमणे आ कार्यमा घणी मदद करी छे ते सर्वनो प्रथम भागमां उपकार मानवामां आवेलो छ तेमज आ बीजो भाग छपावी पूर्ण करती वखते पण फरीथी उपकार मानवामां आवे छे.
___श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराजना ग्रंथो बहार पाडनार अमो तेमज आ कार्यना मुख्य उत्पादक श्रीमद् बुद्धिसागर सूरिजी महाराज ए सर्वे मोटा भागे तपगच्छना छैए छतां श्रीमद्ना गुणानुरागथी तेमना ग्रंथो छपाववामां अहोभाग्य मानीए छीए तेज प्रमाणे खरतर गच्छना मुनिराजो तथा श्रावको श्री तपागच्छना मुनिओ उपर गुणानुरागी बनी तेमना बनावेला उत्तम ग्रंथो बहार पाडी बन्ने गच्छवाळा परस्पर सहकार्यथी प्रयत्न करशे तो जैन कोमने घणो लाभ
थशे.
___सं १९७५ ना वैशाख सुदि ६ ना दीवसे पादरामां श्री शांतिनाथजी महाराजना देराशरना ध्वजा दंडारोपण महोत्सवना वरघोडामां जैनाचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी महाराजना उपदेशथीं श्री कल्पसूत्र, महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराजना ग्रंथो तथा श्रीमद् देवचन्द्र भाग पहेलो तथा श्री आनंदघनपद भावार्थ संग्रह ए ग्रंथोने लेइ बहुमान पुर्वक खास
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( ८ )
एक हाथी उपर बेसवानो चढावो बोलतां वडना शा. मणीलाल लक्ष्मीचंदे भारे रकमनो चढावो बोली श्रीमद् देवन्चद्र पहेलो भाग लेइ हाथीपर बेठेला. आ उपरथी श्रीमद्ना ग्रंथो प्रत्येनो अपूर्व भक्तिभाव जगाइ आवे छे. जैन कोममां पूर्वा चार्योंना ग्रंथो खरेखर आगमोनी पेठे मनाय छे. श्रीमद्ना बन्ने भागो छपावीने बहार पडवाथी अमोने घणोज आनंद थयो छे. आ ग्रंथोमां शुद्धि कर्या छतां जे भुलो रही गएली जणाशे ते बीजी आवृतिमां सुधारी लेवामां आवशे.
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श्री अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडळ तरफथी घणां पुस्तको पडतर किंमते अने केटलांक पडतरयी पण ओछी किंमते बहार पाडवामां आवे छे. माटे आ संस्थानी कदर करनार सखी ग्रहस्थ मंडळ तरफथी पुस्तको छपाववामां सहाय करशे तो मंडळ वधारे उत्साहयी एथी पण वधारे उपयोगी कार्य बजावशे.
मु० पादरा- आश्विन शुकल २ सं. १९७५
बीजी आवृत्ति छंपावता पहेलां आ ग्रंथो संबंधी जे जे महाशय योग्य सूचनाओ करशे तो बीजा प्रसंगे ते उपर पूरतु ध्यान आपवामां आवशे.
इत्येवं ॐ अर्ह शान्तिः ३
} वकील मोहनलाल हीमचंद
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विषय १ अध्यात्म गीता.
२ द्रव्य प्रकाश.
( १७ )
श्रीमद् देवचंद्र भाग २.
विभाग बीजो.
अनुक्रमणिका.
१ प्रथम चार अजीवद्वार.
२ बीजुं पुद्गलद्वार. ३ त्रीजं जीवद्वार.
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३ वर्तमान चोवीशी बाळावबोध.
१ श्री रुषभजिन स्तवन जेमां प्रीतिनी
रीत बतावी छे.
२ श्री अजितनाथ स्तवन जेमां कारण कार्य भावनी साधनता बतावी छे.
.
३ श्री संभवजिन स्तवन जेमां मोक्षनुं कारण क्यारे ने केवी रीते नीपजे ते दर्शाव्युं छे.
४ श्री अभिनंदनजिन स्तवन जेमां छ द्रव्य निश्चयनययी कोइ कोइथी मळतां नयी ते बतावेल छे.
५ श्री सुमतिजिन स्तवनमा सामान्य विशेष धर्मनं तथा सप्तभंगीनं स्वरूप वर्णव्युं छे.
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पृष्ट
४३९-४७७
४८१-५४५
४८१
४९७
५०४
५४७
५५४
५६६
५७५
५८३
५४७
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( १८ )
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६ श्री पद्मप्रभजिन स्तवनमां नयना भेदवडे प्रभुदर्शन जणान्युं छे. ७ श्री सुपार्श्वजिन स्तवनमां ज्ञानदर्शन चारित्रादि जुदा जुदा गुणनुं लक्षणादि वर्णन छे.
८ श्री चंद्रप्रभुना स्तवन मध्ये चार निक्षेपा तथा सात नयवडे उत्सर्ग अपवाद सेवनाना भेद वर्णव्या छे
९ श्री सुविधिनाथ जिन स्तवनमा आत्मसमाधि आदि गुण तथा ते प्रगट करवानी रीति बतावी छे.
१० श्री शीतलनाथ जिन स्तवन मध्ये सिद्धना गुणोनी अनंतता तथा द्रव्यनं अल्प बहुत्व तथा द्रव्यपूजा भावपूजानी अगत्य वर्णवी छे.
११ श्री श्रेयांसजिन स्तवनमां करण क्रियाने कार्यरूप त्रिभंगीए ज्ञानादि गुणो परिणमे छे तेनुं वर्णन छे.
१२ श्री वासुपूज्य जिन स्तवनमां द्रव्यपूजा भावपूजानुं चारे निक्षेपें वर्णन करी प्रशस्त भावपूजा तथा प्रशस्त रागनां लक्षण बताव्यां छे.
१३ श्री विमळनाथजीना स्तवनमां अस्तिता नास्तितानी अनंततानां लक्षण बतावेल छे.
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५९९
६०६
६१८
६३४
६४३
६५६
६६६
६७६
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(१९) १४ श्री अनंतनाथजीना स्तवनमा प्रभु
दर्शनथी साधक जीवना आत्मगुणनी
पुष्टि थाय छे विगेरे कथन छे. ६८२ १५ श्री धर्मनाथजी स्तवनमा सामान्य स्व
भाव तथा विशेष स्वभावना भेद विस्तास्थी वर्णव्या छे.
६८७ १६ श्री शांतिनाथजीना स्तवनमा सातनये
प्रभु स्थापनानुं वर्णन तथा स्थापना ते मोक्षy निमित्त कारण सातनये छे ते समजाव्युं छे.
६९९ १७ श्री कुंथुनाथजीना स्तवनमा प्रभु देश
नाना वर्णन प्रसंगे अर्पितानर्पित नयन तथा सप्तभंगीतुं सकलादेशि
विकला देशि भांगा सहित वर्णन छे. ७०९ १८ श्री अरनाथ जिन स्तवनमा उपा
दान, असाधारण, निमित तथा अपेक्षा कारण, स्वरूप तथा ते कारणता प्रगट करवी ए कर्ताने वश छे विगेरे वर्णन छे.
७२० १९ श्री मल्लिजिन स्तवनमा छ कारकनी
साधकता बाधकता तथा शुद्धतानुं वि
स्तारथी वर्णन छे. २० श्री मुनिसुव्रत जिनस्तवनमा पुष्ट तथा
अपुष्ट निमित्तनुं स्वरूप तेमज पुष्ट निमित्तवडे सिद्धतारूप कार्य निपजा
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( २० )
ववा प्रसंगे छ कारक केवी रीते होय तेनुं वर्णन छे.
२१ श्री नमिनाथ जिन स्तवनमा प्रभु सेवाने मेघनी उपमा घटावी छे.
२२ श्री नेमिनाथ जिन स्तवनमा राजिम - तीए प्रभु प्रत्येनो कामरुप अशुद्ध राग टाली प्रशस्त राग कय तेनुं वर्णन छे.
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२३ पार्श्वजिन स्तवनमा परिणति तथा प्रवृतिनी एकता दर्शावी पछी शुद्धता, एकता, तीक्ष्णताना अर्थ कया छे. २४ श्री महावीर जिन स्तवनमा संसार पार पामवा विनती करी छे.
२५ कलशरुप स्तवनमां जिन स्तुतिनुं फळ तथा कर्तानी गुरुपरंपरा वर्णवी छे.
४ वीस विहरमान जिन स्तवन. ५ अतीत जिन चोवीशी.
६ स्नात्रपूजा.
७ नवपदपूजा.
८ एकवीश प्रकारी पूजा. ९ अष्ट प्रकारी पूजा.
१० वीर जिन निर्वाण टाळो.
११ श्री पद्मनाभ जिन स्तवन.
१२ श्री सीमंधर खामि विनती स्तवन.
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७४४
७५३
७५९
७६५
७७४
७८०
७८७-८०६
८०९-८४९
८५१-८६८
८६८-८७२
८७३-८८३
८८४-८९१
८९३-९०९
९१०
९११
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१३
१४
१५
१६
श्री सिद्धाचलजीनां स्तवनो.
१९ ध्रुवपद स्तवन.
२० समवसरण स्त०
२१ कुंभस्थापना स्त०
१७ दीवाळीनुं स्तवन.
१८ नवानगर आदि जिन स्व०
२२ सहस्त्रकूट स्त २३ अजितनाथ जिन होरी.
२४ ज्ञान बहुमान नमस्कार. २५ सिद्धाचल स्तुति. २६ विसस्थानक
""
३२ टंढण मुनिनी ३३ समकितनी
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२७ गिरनार
""
२८ वडी साधु वंदना. २९ साधुनी पंचभावना (टबार्थ )
(१) श्रुतभावना.
( २ ) तप
(३) सत्व
""
( २१ )
33
( ४ ) एकत्व " ( ५ ) तत्त्व ३० अष्टप्रवचन मातानी सझायो
27
३१ प्रभंजनानी सझाय.
"
2)
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९१३
९१९
९२१
९२२
९२१
९२३
९२४
९२५
९२६
९२७
९२९ - ९५०
९५१ - ९९२
९५३
९५९
९६३
९७४
९८१
९९३ - १०२१
१०२२
१०२८
१०३१
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(२२)
३४ गजसुकुमालनी , ३५ पंचेंद्रिय विषय त्याग पद ३६ आत्म पद. ३७ मुनि गुणस्वाध्याय. ३८ साधु पद स्वाध्याय. ३९ साधु पद स्वाध्याय टबो. ४० श्री बाढजिन स्त० टबो. ४२ ) ४३ । कागळो ३.
१०३६ १०३६ १०३७ १०३७ १०३९
१०७३- ८०
४५ श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिकृत श्री महावीर
प्रभु जन्मगीत, पारणं.
१०८१
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अथ श्रीमद् पाठक देवचंद्रकृत ॥अध्यात्मगीता प्रारंभः ॥
राग ॥ ढाल भमरगीतानि ॥ प्रणमिए विश्व हित जैन वाणि । महानंद तर सिंचवाअमृत पाणी । महा मोहपुर भेदवा वज्रपाणी । गहन भवफंद छेदन कृपाणी ॥१॥
अर्थः--विश्व कहेतां जे जगत् तेने हित के० कल्याणनी करनारी एहवी जैन के० श्री वीतरागनी वाणी जे तेने प्रणमी के० नमस्कार का छाए, वली जिनवाणी कहेवी छे ? महा आनंदरूप तरु के० वृक्ष तेहने सिंचवा अमृत रुपी पाणीज होइने तेहवीज छे. वली जिनवाणी कहेवी छे ? मोहोटो एहवो मोहराजा तेनुं पुर के० नगर तेने भेदवा के० भागवाने वज्र सरीखी एहवी. वली ते वाणी केवी छे गहन के० अतिकठण भव जे संसार तेनो फंद के बंधन तेने छेदवाने कृपाणी के० तखारनी धारा सरीखी ॥ १ ॥
॥ चाल. ॥ द्रव्य अनंत प्रकाशक भासक तत्त्व स्वरूप। आतम तत्त्व विबोधक शोधक
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अध्यात्मगीता.
नय निक्षेप प्रमाणे जाणे वस्तु समस्त । त्रिकरण जोगे प्रणमुं जैनागम सुप्रशस्त ॥२॥ __ अर्थः--वली जिनवाणी कहेवी छे ? घणा पुद्गलादिक संबंधी जे द्रव्य तेने प्रगट करी देखाडवावाली एहवी, वली तव जे आत्मतत्त्व जे आत्मानुं स्वरूप तेने बोध के० समजाववावाली, वली चिद्रप के० चेतनरूप एहवं जे आत्मस्वरूप तेने शोधक के० प्रगट करी देखाडे एहवी, वली जिनवाणी कहेवी छे ? नय के० नैगमादिक सात नय तथा नामादि च्यार निक्षेपा तथा प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणे करी समस्त वस्तु पदार्थनी जाणपणानी करणहारी छे, अन्यमतिनां शास्त्र छे ते अप्रशस्त छे, अने जिनमतना आगम छे ते प्रशंसनीय छे, एहवो जिनागम तेहने त्रिकरण योगे करी मनोवाकाययोगे करी प्रणमु छ ? नमस्कार करुं छं इति भावः ॥ २ ॥
जिणे आतमा शुद्धताये पिछाण्यो । तिणे लोक अलोकनो भाव जाण्यो ॥ आत्म रमणि मुनि जग विदीता। उपदिसी तिणे अध्यात्म गीता ॥३॥
अर्थः--हवे सर्व द्रव्यनो ज्ञायक जे जीव द्रव्य सर्वद्रव्य मध्ये ते आत्मद्रव्यनो लक्षण कहीये, माटे प्रथम आत्मद्रव्यना जाणने साधक कहिये ते कहे छे. ते जिणे आतमा के० जे जिव समकित प्रमुखे आत्मा छे ते शुद्धता छे. मूल सत्तास्वरूप पिछाण्यो के० ओलख्यो तेणे लोक तथा अलोकनो भाव सर्व
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अध्यात्मगीता.
जाण्यो जे आचारांग सूत्रे कथं छे “जे एगंजाणइसे सर्वजाणइ " ते आत्म के० आत्मस्वरूपमेंज रमे एहवा मुनि जगत्मांहि प्रसिद्ध छे, तेणे अध्यात्मगीतानो उपदेश कर्यो छे पण करता कहे के हुं नथी करतो इतिभावः ॥ ३ ॥
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द्रव्य सर्वना भावनो जाणग पासग एह । ज्ञाता कर्त्ता भोक्ता रमता परिणति गेह || ग्राहक रक्षक व्यापक धारक धर्म समूह | दान लाभ बल भोग उपभोगतणो जे व्यूह || ४ |
|
३
४४१
०
अर्थ:-- द्रव्य सर्वना के० धर्मास्तिकायादिक पट द्रव्यना गुणपर्याय तथा औदयिकादिक भावना भिन्न २ करी जाण्या छे, तथा दीठा छे एहवो आत्मा छे, ज्ञाता के० स्वपरनो स्वरूप जाणे छे जाने करीने कर्त्ता के शुभाशुभ विभाव दशानो कर्ता नथी अने पोताना ज्ञानादि अनंतगुणरूप लक्ष्मी तेहनो कर्त्ता छे अने पोताना ज्ञानादि अनंतगुणरूप जे पर्याय तेहनो भोक्ता छे, रमतापरिके ० स्वपरिणतिरूप जे घर तेहने विषे सदाकाल रमे ज्ञाता तथा कर्ता तथा भोक्ता तथा रमता इत्यादिक परिणतिना गेह के० घर छे, ग्राहक के० ज्ञानादि गुणधर्म समूह तेहने ग्रहे ते भणी ग्राहक ते धर्मनो राखणहार तथा स्वधर्मने विषे व्यापी रह्यो छे, स्वपरिणतिने घरे ते धारक एटले ग्राहक, रक्षक, व्यापक, धारक, स्वधर्मनो समूहनो छे, एहिज आत्म दान लाभ के० दानादिक पांच लब्धिना समूह प्रगट्या छे, दानलब्धि ते दानांतराय कर्मक्षय
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४४२
अव्यात्मगीता:
गये दान पोताना ज्ञानादि अनंतगुणने विषे दीये छे ते दानलब्धि, १ लाभांतरायक्षयगये पोताना स्वरूपनो लाभ थयो ते लाभलब्धि २ भोगांतराय कर्म क्षय थाय त्यारे पोताना ज्ञानादि अनंतगुणना पर्याय तेहने समये समये उपभोग करे छे ते उपभोगलब्धि ४ वीर्यातराय कर्म क्षय गये पोताना अनंताज्ञानादिकने विषे अनंतो बीर्य फोरवे छे ते वीर्यांतरायलब्धि ५ तथा जिहां आत्मा ज्ञान दर्शन रूपगुण बेमयिज कहे छे, तिहांतो वीर्यादिक गुण सिद्धमां नयी कहेता अने जिहां अनंतगुणी व्याख्या करे तिहां कहे छे एटले असंख्यात प्रदेशी, अरूपी, अखंड ज्ञानदर्शन गुणमयी उपयोग लक्षण कर्त्ता, भोक्ता सहज परिणामे जीवद्रव्य जाणवो. जीवभाव द्रव्य प्राणे करीने सदा जीवे ते जीव, चेते-जाणे तेमाटे चेतन कहिये, तथा नवा नवा पर्यायने पमाडे माटे आत्मा कहे छे इत्यादिक अनेक नाम छे. ॥ ४॥
संग्रहे एक आया खाण्यो । नैगमे अंशथी जे प्रमाण्यो । दुविध व्यवहार नय वस्तु वीहचे । अशुद्ध वलि शुद्ध भासन प्रपंचे ॥ ५ ॥
अर्थः- साते नये करी जीवनो स्वरूप ओलखावे छे. संग्रहे एक आत्मा वखाण्यो, संग्रहनयना मतवालो सत्तानो ग्रहण करे छे एटले ए सर्वे जीव चेतना समूदाय जोतेथके एक सरीखा छे, ए संग्रहनयनोमत. नैगमनयना मतवाला एक अंश ग्रीने सर्व वस्तुनो प्रमाण करे एटले जीवना आठ रुचक
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अध्यात्मगीता.
४४३
प्रदेश कमै लेपाता नथी सदा उघाडा छे, तेणे करी आत्मा सिद्ध समान जाणवो. व्यवहारनय मते बे प्रकारे जीव कहे छे, अशुद्ध ते अष्ट कर्माश्रित संसारी जीव, अने शुद्ध ते अष्टकर्म रहित सिद्ध, एवं बे प्रकारे व्हेंचे, एक सकळ कर्म क्षय करी लोकाग्रे बिराजमान ते सिद्ध, बीजा संसारी तेहना बे भेदएक सयोगी बीजा अयोगी इत्यादिक जे भेद ते व्यवहारनयना मतवालो ते वस्तुना गुण पर्यायथी प्रवर्त्तिने ग्रहे छे, ते प्रवत्ति बे प्रकारनी - जे द्रव्यना गुणनी शुद्धता जेथी निपजे ते प्रवृत्ति वे साधन शुद्ध व्यवहार १ अने जे प्रवृत्ति करतां द्रव्यधर्मनी अशुद्धता नीपजे ते प्रवृत्तिने अशुद्ध व्यवहार कहीये २१५
अशुद्धपणे पणसय तेसठी भेद प्रमाण । उदय विभेदे द्रव्यना भेद अनंत कहाण ॥ शुद्धपणे चेतनता प्रगटे जीवविभिन्न । क्षयोपशमिक असंख्य क्षायिक एक अनुन्न ॥६॥
अर्थः- अशुद्ध व्यवहारनयने मते जीवना पांचसे त्रेशठ भेदनो प्रमाण जाणवो. अशुद्ध औदयिक भावने योगे करी जोतां तो जीवद्रव्यना भेद अनंता कह्या छे, अने शुक्रव्यवहारनय मते जीवनी चेतनता नीपजे अने विभिन्न ते अभेदात्मपणे जाणवी. पुद्गलयी जीव जूदो जाणे जेहने घणो क्षयोपशम तेने अधिक कहिये जेहने वणो क्षयोपशम तेहने ओछो कहिये ते चेतना प्रगटी क्षयोपशमभावे अथवा क्षायिकभावे प्रगटे. क्षयोपशमिक समकितना असंख्याता भेद छे. क्षायिकभावनो एक भेद छे बीजो भेद नहीं ॥ ६ ॥
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४४४
अध्यात्मगीता.
नामथी जीव चेतन प्रबुद्ध । क्षेत्रथी असंख्य प्रदेशी विशुद्ध । द्रव्ये स्वगुण पर्याय पिंड। नित्य एकत्व सहजे अखंड ॥ ७॥
अर्थः-नामथी जीवने चेतन कहिये. चेतनालक्षणो जीवः चेतना ते ज्ञानदर्शन चारित्र तप उपयोग वीर्य लक्षण इत्यादि तथा बीजो अर्थ, नाम निक्षेपे जीव अथवा चेतन अथवा प्रबुद्ध कहिये, ए जीवनां त्रण नाम कहीये, क्षेत्रथी जीवनो स्वक्षेत्ररूप असंख्य प्रदेशात्मक अने विशुद्ध ते अत्यंत निर्मल छे, द्रव्यथी निज द्रव्य पोताना गुण ज्ञानादि स्वपर्याय तेहनाज पिंड समुदायरूप छे ते द्रव्य कहीये, अने नित्य ते सदैव शाश्वतो छे, केणे कर्यो नथी अने एकत्व ते निश्चय नयमते जीव सदाकाळ पोताना स्वरूपमा एकत्वपणे छे, सहज अखंड ते खंडाय नहि, अछेदी अभेदी छे. ॥ ७ ॥ ऋजुसुये विकल्प परिणामे जीव स्वभाव । वर्तमान परिणितमय व्यक्ते ग्राहक भाव ॥ शब्दनये निज सत्ता जोतो इहतो धर्म। शुद्ध अरूपो चेतन अणग्रहतो नव कर्म ॥९॥
अर्थः--ऋजुसुत्रनयने मते जीव विकल्परूप पारिणामिक भाव ग्रहे छे, एटले वर्तमान समये जीवने जेवो उपयोग होय तेवो प्रगट कही बोलावे, अजमूत्र नयमतवाळो यथाकश्चित्
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अध्यात्मगीता.
४४५
श्राद्धः सामायिके स्थितोऽपिमनोभावाद्गृहेगतस्तदाकेनाऽपिपृष्टंश्राद्धः कुत्रगतः एवं पृष्टे सत्यपिअधुना भणितं ममस्वामी गृहेगतः एम कडं अने-शब्दनयमते पोतानी आत्मसत्ताने जोतो ज्ञानदर्शन चारित्रादिक अनंतो धर्म पोतानी आत्मसत्ताने विषे रह्यो छे, तेहने प्रगट करवा इहतो-वांछतो थको शुद्ध निर्मल अरूपी पुद्गलादि विभावदशा रहित चेतना लक्षणो पोताना क्षयोपशमयी स्वगुणने साधकपणे प्रवर्ततो ते शब्दनयजीव कहीए, इहां जेटली आत्मप्रवृत्ति नवाकर्मने न ग्रहे अबंधक थाय तेटलो जीवपणो गवेखे एटले एहवा जीवने जे समये उपयोग होय ते समये नवा कर्मनो ग्रहवो न करे ॥८॥
इणिपरे शुद्ध सिद्धात्म रूपी। मुक्त परशक्ति व्यक्त अरूपी ॥ समकिति देश यति सर्वविरति । धरे साध्यरूपे सदा तत्त्व प्रीति ॥ ९॥
अर्थः--एणिरिते शुद्ध सिद्धात्मरूपी शुद्ध जे सिद्ध भगवान् ते सरीखो निज आत्मा ध्यावतो आत्माभावे विचरतो आत्मस्वरूपी छे. ए मुक्त के० परपुद्गलादिक विभावथी मूकाणो छे पर के० उत्कृष्टशक्ति के० आत्म सामर्थता व्यक्त के० प्रगटपणे तेणे अरूपीभावना साधक समकिति, देशविरति तथा सर्व विरति ते जीवने साध्यपणे तत्त्वनी प्रीत वाल्हाश छे, एहवा जीवतेहने शब्दनये जीव कहीये० पोतानो आत्मतत्त्व निरावरण करवारूप जे वेद्यो छे तेहने विषेज तेहनी प्रीति लागे, परपरिणतिने विषे नहि. ॥ ९॥
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४४६
अध्यात्मगीता.
समभिरूढ नये निरावरणि ज्ञानादिक गुण मुख्य। क्षायिक अनंत चतुष्टयी भोगी मुग्ध अलक्ष्य ॥ एवंभूते निरमल सकल स्वधर्म प्रकाश । पूरण पर्याय प्रगटे पूरण शक्ति विलास ॥१०॥
अर्थः-सममिरूढनयमते शुक्रध्यानरूप असियेकरी घाती कर्मने क्षये निरावर्णपणे ज्ञानादि अनंतगुण रूप लक्ष्मी प्रगटे एटले मुख्य लक्ष्मी प्रगटे अने क्षायिकभावे अनंत चतुष्टय प्रगट्या अनंतज्ञान १ अनंतदर्शन २ अनंतचारित्र ३ अनंत वीर्य ४ तेहना भोगी तेरमे चौदमे गुणठाणे केवली भगवान् जाणवा. तेहनो जाणपणो भोला अजाण जीव न जाणे, एवं मूतनयमते कर्म मळ रहित निर्मल सकलसंपूर्ण पोतानो ज्ञानादिक स्वधर्म आत्मसत्ताने विषे प्रकाश करे प्रगट करे छे एवो धर्मनो प्रकाश प्रगट्यो एटले एक एक प्रदेशे अनंता जे पर्याय ते संपूर्ण प्रगट्या छे सकल गुणना पर्याय पोताने कार्य करवे प्रवर्त छे तेवारे पूर्ण पर्याय प्रगटे छे ते संपूर्ण शक्तिनो विलास भोगववो प्रगटे. इत्यर्थ. सादि अनंत भांगे करी एवंमूतनये सिद्धनुं स्वरूप वखाण्यु. ॥ १०॥
एम नय भंग संगे सनूरो। साधना सिद्धतारूप पूरो । साधक भाव त्यां लगी अधूरो। साध्य सिद्धे नहि हेतु शूरो ॥ ११ ॥
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अध्यात्मगीता.
Y
अर्थः--इम नैगमादि सप्तनयनुं रूप भंगने संगे करी दीपतो छे. साधकता जे चोथा गुणठाणाथी मांडी अयोगी लगे चडी सिद्ध भाव करे छे पूरो छे. शुद्ध व्यवहारनयने मते चोथा गुणठाणाथी मांडी यावत् तेरमा गुणठाणालगे साधकभाव छे. निश्चयनयमते कार्य सिद्ध निपजे तिवारे जीवने पूरो कहिये. ज्यां त्यां साधकभाव छे तिहां लगण अधूरो छे. साधकभाव शब्दनय समभिरूढ नयमते देशविरति सर्वविरतिरूप साधकभावे त्यांलगे जीवने अधूरो कहीये अने जेवारे साध्य जे कार्य सिद्ध नीपन्यो तेवारे पछी हेतु के कारण साधकपणानो प्रवर्तन ते शूरो के बलवंत नहिं एटले कार्य सिद्धे कारणनो बल नहि ॥ ११ ॥
०
०
काळ अनादि अतीत अनंते जे पररक्त । संगांगि परिणामे वर्त्ते मोहासक्त ॥ पुद्गल भोगे रिज्यो धारे पुद्गल खंध । परकर्त्ता परिणामे बांधे कर्मना बंध ॥ १२ ॥
अर्थः--जेवारे एवो आत्मा छे तेवारे संसार किम धाय ? ते कहे छे. जे आत्मा अनादिकाल अतीत के० गयो छे अतीतकाळ अनंतां पुल परावर्त्त थयां परभाव जे पौगलिक सुखने तेहना खंधना गुण वर्णादिक तेहने विषे रक्त के० रागीपणो शाथी थयो ? ते कहे छे. संगांगी के० पुद्गले दीधा अंग तेनो जीवे कर्यो संग एटले अंगी के० पुद्गल जे परभाव तेनो संग मीलवो अने आत्मा तेहने अंगी करी तेहनो संग करे एटले तेहना संगने परिणामे करी वर्त्तता मोहमां आसक्त
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૪૪૮
अध्यात्मगीता.
थयो तेवारे जीवने इयो बिगाड थयो ? ते कहे छे. जीव पुगलने भोगे रीइयो थको पुद्गलना खंधने धरवानी इच्छा उपजे एटले पुगलने भोगे रीज्यो इष्टता पाम्यो थको पुद्गलना खंधने धारेराखे, पुद्गलनुं ग्रहण करे छे अने परनो कर्ता पोते थाय छे त्यारे कर्मना बंध पोते बांधे छे ।। १२ ।।
वंधक वीर्यकरणे उदरे ।
विपाकि प्रकृति भोगवे दल विखेरे ॥ कर्म उदयागता स्वगुण रोके । गुण विना जीव भवोभव ढोके ॥ १३ ॥
अर्थ- जे कर्म बंधपणे प्रवर्ततो जे वीर्यने बंधक वीर्य कहीए. ते बंधक वीर्यकरणे सत्तागतकर्मने उदये जीव नवीन कर्मबंध बांधे, शेणे करीने १ करण जे इंद्रिय तेहनो वीर्य जे पराक्रम तेहनी प्रेरणाए करी शुभाशुभ प्रकृतिरूप विपाकनां दलियां सत्ताये रह्यां ते उदय आध्ये भोगवीने विखेरे ते खेखे अने तेहने विषे रागद्वेष परिणामरूप मननी चिक्कणताइं नवां कर्म बांधे छे, ते कर्म ज्यारे उदय आवे त्यारे आत्माना स्वगुण रोके आवरे गुण ढंकाणा एटले जीव गुण विना थयो त्यारे जीव, भव च्यारगतिमांहे रझलतो फिरे छे एटले रागद्वेषे प्रणम्यो जीव निर्गुण थको च्यारगति मध्ये अनादिकालनो आत्मा भव भ्रमण करे छे. ।। १३ ।।
आतम गुण आवरणे न ग्रहे आतम धर्म । ग्राहक शक्तिप्रयोगे जोडे पुद्गल शर्म ॥
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अध्यात्मगीता.
५४९
परलाभे परभोगने योगे पर कार। एह अनादि प्रवर्त्त वाधे पर विस्तार ॥ १४ ॥
अर्थः--आत्मगुण ते ज्ञानादिगुण ते कर्मरूप आवरणे अवराणा तेवारे आत्मानो धर्म ज्ञानादि कीहांथी ग्रही शके ? ज्ञानादिगुण न आदरे अने ग्राहक शक्ति छे तेवारे शुं ग्रहे ? पुद्गल खंधना सर्व शेष पुद्गल जोड्या मांड्या प्रयोगे करी एटले पुद्गलनो भोगी थयो त्यारे ते शुभाशुभ पुद्गलना खंध मेळा कर्या ते पर पुद्गलने लाभे लाभपणो मान्यो १ अने शुभाशुभपर पुगलनो दान देइने दान मान्यो २ शुभाशुभ पुद्गलनो भोग मिले भोग मान्यो ३ अने शुभाशुभ परपुद्गलनो उपभोग मिले उपभोग मान्यो ४ एम दानादिक च्यार लब्धिने वली वीर्य शक्ति फोरवी तेहने योगे करी परनो कर्ता थयो. कोइ पूछे के ए जीवपर कर्त्तापणो किस्ये काले पाम्यो ? तिहां कहे छे ए अनादिनी प्रवृत्ति छे, एहवी रीते अनादिकाळनी जीवने अवळी प्रवृत्ति थइ तेथी परभावनो विस्तार एम कर्मनो विस्तार पाम्यो छे तेणे करी संसार खूटतो नथी. ॥ १४ ॥
एम उपयोग वीर्यादि लब्धि । परभाव रंगी करे कर्म वृद्धि ॥ परदयादिक यदा सुह विकल्पे । तदा पुण्य कर्मतणो बंध कल्पे ॥१५॥
अर्थः--एहवी रीते वीर्यादि पांच लब्धिने विषे जीवनो अवलो उपयोग वत्यो, त्यारे पोताना स्वभावतुं वीर्यपणं टल्यु
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४५०
अध्यात्मगीता.
त्यारे जीव परभावनो रंगी थयो त्यारे ते जीव नवनवा कर्मनी वृद्धि करे, कर्मनी वृद्धि करवा मांडी जिवारे एहवी जे परदयादिक करे अनुकंपा करे एहवो जे शुभ विकल्प उपजे शुभ परिणाम तेहथी इथं धाय ? तेवारे पुण्य कर्म बंधाय तेही पण आत्मानो गुण न प्रगटे. ॥ १५ ॥
तेहीज हिंसादिक द्रव्याश्रव करतो चंचलचित्त । कटुक विपाकि चेतन मेले कर्म विचित्त ॥ आतम गुणने हणतो हिंसक भावे थाय । आतम धर्म्मनो रक्षक भाव अहिंस कहाय ॥ १६ ॥
अर्थ:-- ते जीव हिंसादिक द्रव्यास्रव करतो चित्त के० मनथी चंचल परिणामि जीवने एढवो जे हिंसादिकनो विकल्प उठ्यो, कोयने ठगवानो परिणाम उठ्यो, तेथी इयुं थाय ? पापना कडुवा विपाकनो बंध थाय, एम कडुआ कर्मनी विचित्रता बंधाय एटले अशुभ परिणामे अशुभ कर्म जीव मेलवे भेगो करे, ए द्रव्य दया द्रव्य हिंसा तेहनो फल देखाड्यो छे, जे विभाव परिणामे प्रणमीने आत्माना गुणने हणवा ते भाव हिंसा आत्मगुण जे हणाय ते भाव हिंसा छे, पर जीव हजातां तो आत्मगुण हणाता नथी ते निश्चयी हिंसा नथी. जो आत्मगुण हणाय छे परनी हिंसा थती नवी तोहि पण तेने भाव हिंसक कहीये. आत्म हिंसाथी पाप वधतु नथी - एटले आत्म धर्मने राखे छे ते भाव अहिंसक के० गुणी तथा ज्ञानादिक गुणने अनुयायी वीर्य उपयोग करतां आत्मगुण हणाय नहि ते भाव अहिंसा कहिये ॥ १६ ॥
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अध्यात्मगीता.
आत्मगुण रक्षणा तेह धर्म । स्वगुण विध्वंसणा ते अधर्म ॥
भाव अध्यात्म अनुगत प्रवृत्ति । तेहथी होय संसार छित्ति ॥ १७ ॥
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४५१
अर्थः-- आत्मगुण के० पोताना आत्माना गुण जे ज्ञानादिक तेहने शुद्ध उपयोगने विषे प्रवर्त्तिने राखवा तेहिज आत्मिक धर्म छे, स्वगुण विध्वंस के० पोताना आत्माना गुण जे ज्ञानादिक हणाय अवराय अशुद्ध उपयोगे परभाव अनुयायी प्रवर्त्ततां तेहिज अधर्म कहीए. हवे अध्यात्मना च्यार प्रकार कहे छे, नाम अध्यात्म १ स्थापना अध्यात्म २ द्रव्य अध्यात्म तेने कहिये जेहयी भाव अध्यात्म उपजे, सद्गुरु जे अध्यात्मना जाण तेहनी सेवा भक्ति विनयादिक करीने अध्यात्मना स्वरूपनी गुरुगमथी ओलखाण करे, अथवा अध्यात्म शास्त्रानो अभ्यास करे, तथा ध्याननुं स्वरूप गुरुगमयी धारीने प्रथम अभ्यास व्यवहारथी करवा मांडे इत्यादिक द्रव्य अध्यात्म ते भाव अध्यात्म प्रगट करवानुं कारण छे. ए द्रव्य अध्यात्म जाणवुं ३ हवे भाव अध्यात्म कहे छे एहवो आत्मा कुण ओलखे छे आध्यात्म ज्ञान थयुं होय ते ओलखे जे भाव अध्यात्म ते मोक्षनुं कारण छे, भाव अध्यात्म तेहने कहीये ज्ञानादिक शुद्ध उपयोगने अनुयायी सन्मुख प्रवर्त्तिं ते भाव अध्यात्म कहिये एहवो आत्मानो गुण थयो तिवारे जीवने श्यो गुण निपजे ? जे संसार समुद्रनो उछेद करे एटले संसार घटाडे तेथी थोडा काळमांहे सिद्धिवरे ॥ १७ ॥
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४५२
अध्यात्मगीता.
naha
एह प्रबोधना कारण तारण सद्गुरु संग। श्रुत उपयोगी चरण नंदि करि गुरुरंग ॥ आतम तत्वालंबि रमता आतम राम । शुद्ध स्वरूपने भोगे योगे जसु विश्राम ॥१८॥
अर्थः--एहवू जे आत्मज्ञान पूर्वे का तेहना बोधना कारण के० संसार समुद्रयी आत्मस्वरूपनो प्रतिबोध देइ ओलखाण करावीने कोण तारे भला जे सद्गुरु तेहनो संग भक्ति करतां बोधबीज जे समकीत भव्य जीवने करावीने संसार समुद्रयी तारे ते गुरुनो वर्णव करीए छीए; गुरु केवा होय ? ते कहीये छीये. भाव श्रुतज्ञानना उपयोगने विषे सदा रमे छे. चरणादि के० चारित्रने विष रमे छे. सदा आनंदपणे वर्ते छे. एवा गुरु संवाथे रंग करवो ते गुरुनी सेवा करवी जेथी अध्यात्मज्ञान पामीए, वली गुरु केवा छे ? जेम आत्मा प्रगट थाय तेहनो उद्यम छे, रमणीय ते आत्मामां रमी रह्या छ, आत्मस्वरूपने अवलंबी रमण करे छे. सदा एहवा आत्माराम आत्मस्वरूपने विषे रमे ते आत्माराम कहीये, वळी गुरु केवा छ ? जेहने शुफ़ स्वरूपना भोगनी इच्छा छ तेहनो भात्र योग जे ज्ञान दर्शन चारित्र ए त्रण ३ योग साधे छे, जसु के योगने विषे विश्रामपणे वर्ते छे एवा गुरु मीले तो अध्यात्म स्वरूप जाणीये ॥ १८ ॥
सद्गुरु योगथी बहुल जीव । कोइ वली सहजथी थइ सजीव ॥
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अध्यात्मगीता.
४५३
आत्म शक्ति करी गंठी भेदो। भेद ज्ञानी थयो आत्मवेदी ॥ १९ ॥
अर्थः--घणा जीव एवा शुझगुरुथी बोध पामे, एवी रीते सद्गुरुनी संग-सेवा थकी घणा जीवने समकितनी प्राप्ति होय, कोइ वली गुरुनी योगवाइ विना भवस्थिति पाकी हुइ तो कोइक जीव सहजथी बोध पामे एटले कोइक जीव सहजयी बोध पामे एटले कोड़क जीव सहजयी च्यार प्रत्येक बुद्धादिकनी पेरे समकित पामे गुरुना उपदेश विनाज इत्यर्थः जीव पोताना आत्मानी रागद्वेष परिणाम भावकर्मनी गांठ आत्माने पुद्गल शुं ममत्वता एकीभूत ते संठ जे अनादिनी छे. ते पोतानी शक्तिए करीने भेदे, ज्यां ग्रंथीभेद करतो त्यांतो पोतानी आत्मशक्तिए अपूर्व करण के० पहेला कदि न आव्या एवा परिणाम ते अपूर्व करणरूप पोताना वीर्योल्लासे करिने रागद्वेषनी गांठ भेदे तो समकितनी प्राप्ति पामे, गुरुना योग विनाये तेवारे इयो गुण निपजे ? ते कहे छे, भेदज्ञान जे शरीर आत्मानो भेद विवेक मिन्नता वेचणरूपज्ञान थयुं. शरीर जड ते अचेतन छे, आत्मा चेतन छे. एहयो भावथी न्यारो ओलख्यो ते भेद ज्ञान थयुं, त्यारे आत्मानी ऋद्धि हती ते जाणी तेवारे आत्मस्वरूपनो वेदीजा थयो. ॥ १९ ॥
द्रव्य गुण पर्याय अजानी थइ परतीत । जाण्यो आतम कर्ता भोक्ता गइ परभीत ॥ श्रद्धा योगे उपन्यो भासन सुनये सत्य । साध्यालंबी चतना बलगि आतम तत्व ॥२०॥
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अध्यात्मगीता.
अर्थः-आत्मस्वरूपने उपयोगे वर्ते वेवारे एक दम्पने विषे अनंतागुण छे ते मध्ये एकेका गुणमे अनंता पर्याय छे. जे जीम हता तेम परतित थइ तेवारे शुं थयुं ? आत्मा पोताना स्वभावनो कर्ता भोक्ता थयो. परभावना कादिकनी मूल मटी गइ, एटले निर्भय थयो एवी श्रद्धाने योगे प्रतीत प्रगटी त्यारे जाणपणुं पोतानुं छतु थयु, जेवारे ओलल्यो तेवारे तेहर्नु आलंबन करवा मांडयुं त्यारे चेतना वलगी आत्मतत्व जे ज्ञानादिकने विषे ॥ २० ॥
इंद्र चंद्रादि पद रोग जाण्यो। शुद्ध निज शुद्धता धन पिछाण्यो॥ आत्म धन अन्य आपे न चोरे। कोण जग दीन वळी कोण जोरे ॥२१॥
अर्थः--एबुं ज्यारे खरुं भासन थयुं त्यारे इंद्रनी पदवी चक्रवर्तिपणुं वासुदेवपणुं ए औदयिक सिद्धि इंद्रियजनित पौद्लिक सुख ए सर्व रोग जाण्या, शुक्रनिज के० शुद्ध निर्मल पोताना आत्मानो शुद्धतापणो जे ज्ञानादिक धन जे पोतानी भावऋद्धि हती ते जाणी ओळखी पोताना आत्मानी ऋद्धि जे अरूपी धन ज्ञानादिक भाव लक्ष्मी स्वगुण पर्यायरूप तो स्वाधीन छे. कोइथी आपी अपाती नयी एटले अरूपी वस्तु कोइयी आपी जाय नहि, कोइनी लेवाय नही, त्यारे मागवानुं दीनपर्ण टळ्यु अने जगतने विषे कोइ एवो दीन नयी जेहने आपे अने कोइयी आत्मानी ऋद्धि लेवाय नहीं एवो
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अध्यात्मगीता.
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कोइ जोरावर नथी जे खेंची ले, वो बोलख्यो तेवारे पोतानी ऋद्विनो भयपण टळीज गयो. ॥ २१ ॥
आतम सर्व समान विधान महा सुख कंद | सिध्धतणा साधम्र्मी सत्ताये गुणवृंद || जेह स्वजाति तेहथी कोण करे वध बंध | प्रगट्यो भाव अहिंसक जाणे शुध्ध प्रबंध ॥ २२॥
अर्थः-- आत्म के० आत्मा सर्व सरीखा छे, कोइनो न्यून्याधिक छे नहीं, निधान के निचे महासुखरूप छे, जे सुखनी किहांइ उपमा नथी ते सुख सिद्ध भगवान्ने प्रगट युं छे अने संसारी जीवने ए सुख सत्तामा रधुं छे, वीजी परे अर्थ सर्व जीव सत्ताये एक सरिखा सामान्यपणे जाणवा. निश्चय नयने मते सर्व जीव ज्ञानदर्शन चारित्ररूप निधाने करी युक्त छे. निश्चयी सब जीव सत्ताए महासुखनां कंदमूळ छे, सिद्ध के० सिद्धना जीव तथा संसारी जीव सरिखा साधर्मीपणे गणे छे, पण सत्ताये बेना गुण बराबर छे, तेवारे पोतानी बराबरीमा सकळ जीव थया, तथा बीजी रीते निश्चयनययी सर्व जीवनो धर्म सत्ताये सिद्ध समान एक सरीखो छे, जेनो सरस्वो धर्म होय तेने साधर्मी कहिये, सर्व जीव सत्ताये ज्ञानादि गुणना वृंद-समूह छे, तेबारे सर्व जीव एक जातिना थथा, कुटुंब थयुं तेवारे तेनी हिंसा किम थाथ ? तेवारे तेहने दुःख किम देवाय ? तेहनो वध बंध कुण करे ? एवी रीते कमारे दया प्रणमे वेवारे भाव अहिंसकपणं प्रगट थाय. तेवारे जिनशाशन शुद्ध स्वरूपनो प्रबंध जाण्यो, ते ज्ञाता कहिये
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४५६
अध्यात्मगीता.
।। यतः । यथाममप्रियाः प्राणास्तथा तस्यापि देहिनः इतिमत्वान कर्त्तव्यो घोरः प्राणिवधो बुधैः ॥ २२ ॥
ज्ञाननी विणता चरण तेह |
ज्ञान एकत्त्वता ध्यान गेह ॥ आत्म तादात्म्यता पूर्णभावे । तदा निर्मलानंद संपूर्ण भावे ॥ २३ ॥
अर्थ:-- एटले ज्ञान दर्शन चरित्ररूप निश्चयनय ज्ञाननी तिक्षणता के० एवं जे तिक्ष्णतापणे निर्मल आत्मज्ञानना उपयोग तेहिज चारित्र कहीये. जे पोताना आत्मस्वरूपना ज्ञानमें एकत्वपणे टके ते ध्यानरूपी घर कहीये, एहवो जे आत्मा आत्मानी आत्मताने ज्ञानादिक पूर्ण भावने पामे, तदा कहेतां तिवारे नीर्मल आनंद संपूर्ण पाहे ॥ २३ ॥
चेतन अस्तिभाव में जेह न भासे भाव । तेहथी भिन्न अरोचक रोचक आत्म स्वभाव ॥ समकित भावे भावे आतम शक्ति अनंत । कर्म नाशनो चिंतन नाणे ते मतिमंत ॥२४॥
अर्थ :-- घेतन के० आत्मानो अस्ति स्वभाव आपणी ऋद्धि आपण में रहि छे स्वभावना लाभ थकी किवारे टले नहि ते अस्ति स्वभाव कहिये. निश्चययी पोतानी आत्म सत्ताने विषे ज्ञानादिक अनंत गुण निर्मल अस्ति स्वभावे रह्या छे तेनो कोइ काले नास्तिपणो नयी, बाकी जे परभाव आ
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अध्यात्मगीता.
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त्माथी जे ऋद्धि जुदी ते पोतापणे जाणे नहि तेहथी अलगो रहे तेहनी रुचि पण राखे नहि. अरुचि भावे पौद्गलिक वस्तुनी उपाधियी अंतरंग न्यारो प्रवर्ने छे, त्यारे रुचि किहां छे ? ते कहे छे, रोचक के० पोताना आत्म स्वभावनी ऋद्धि ज्ञानादिकनी रुचि राखे जे पोतानी श्रद्धा प्रगटी छे ते समकित भावे अनंति शक्ति पोतानी जाणी छे तेहनी रुचि करे तेहने ध्यावे छे, तेना ध्यानमां लयलीन थयो थको प्रवः छे, कर्म टालवानो विकल्प कदी आवे नहीं एहवी श्रद्धा प्रगटी छे, पोतानुं स्वरूप ओलख्युं छे, तेहथी कर्म ते एनी मेले टली जाय ते कर्म टालवानी बुद्धि राखे नहि तेहने मोटी बुद्धिना धणी कहिये, कारणपणो न लावे जे माहरा कर्म किवारे टले इम कायर न थाय. ॥ २४ ॥
स्वगुण चिंतनरसे बुद्धि घाले। आत्मसत्ता भणी जे निहाले। शुद्ध स्याहाद पद जे संभाले। परघरे तेह मति केम वाले ॥२५॥
अर्थ:--तिवारे शुं चिंतवे ते कहे छे. स्वगुण के० पोताना आत्माने विषे ज्ञानादि अनंता गुण रह्या छे ते गुणनी चींतवणाने रसे करीने युक्त एटले ज्ञानादिकनो आत्मा रसीयो थाय तेहमें बुझि घाले के० प्रवर्तीवे, तेवारे शोगुण थाय ? ते कहे छे, ते जीव पोताना आत्मानी सत्ता जे ज्ञानादिक गुण भणी निहाले-देखे एटले आत्म स्वरूपने अंतरंग द्रष्टिये करी जोइ शुद्ध स्याद्वाद के० शुद्ध यथार्थ स्वादाद पदनोजे
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अध्यात्मगीता.
रुचिवंत थयो तेहने जोवे - संभाळे, अंतरंग दृष्टिये करीने परघेर के० ते परभावमां पोताना आत्मानी चित्त निम्न से बुद्धि तेहमां वाले नहि एटले परपरिणतिमां पेसे नहि त जीव पोताना स्वभावरूप घरमा बुद्धि प्रवर्त्तावे इति रहस्य. ॥ २५ ॥
पुण्य पाप बे पुद्गल दल भासे परभाव । परभावे परसंगत पामे दुष्ट विभाव ॥ ते माटे निज भोगी योगीसर सुप्रसन्न | देव नरक तृण मणि सम भासे जेहने मन्न ॥२६॥
अर्थः- पुण्य पाप कहेतां जे पुण्य पाप छे ते बे पुनलनां दलीयां छे, पाप छे ते कडवा विपाक छे अने पुण्य छे ते मीठा विपाक छे. ए बे जेने मन सरखा जाण्या छे. पुण्य पाप ए वे मुनिने मन परभाव भासे छे, आत्मिक धर्म नही, पुद्गलनां दलियां छे ते माटे परभाव भासे छे, वली एहवं विचारे जे परभाव जे विभावदशा, एना संगथी च्यार गतिमां रजलबुं थाय छे, तिणे करी पुण्य पाप बेहु दुष्ट विभाव छे, आत्मधर्म नहि, तथा बीजो अर्थ कहे छे, परभाव रूप विभावदशा ते परसंग तिणेकरीने दुष्ट विभाव जे मोहादिक पामे आत्मस्वरूप न पामे, तिणेकरी संसारमां फरतां अनेक प्रकारे कर्म विटंबना रूप दुःखविपाक भोगवे, पर संग थकी, ते माटे के० ते कारणे निज भोगी के० पोताना आत्मस्वभावना भोगमां वर्ते छे तेहने योगीश्वर सुमुनिराज कहिए, योग जे आत्मस्वभावना ज्ञानदर्शन चारित्ररूप ए ३ भावयोग तेमांहि जेनु मन प्रसन्न के० अकलुषित चिन्ने संकल्प विकल्प
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अध्यात्मगीता.
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हर्ष विवाद रहित समभावे निर्विकल्पपणे चित्त प्रसन्नपणे रहे छे तेहने मुनिराज कहिये. ते मुनिराज केवा छे ? देवताना सुखने विषे तथा नस्कना दुखने विषे सम भावे छे, तृण के० त्रणख तथा मणिरत्न ए वे सरिखा जाणे छे; ए सर्व पौगलिक विभाविक सुख दुःख जाणी समभाव चित्ते जे मुनि व छे. ए सर्व शुभाशुभ पुल छे ते विनाशिक भाव छे, माहरा गुणनो अंश नथी एहवं मुनिराज जाणे. ॥ २६ ॥
तेह समता रसी तत्व साधे | निश्चलानंद अनुभव आराधे ॥ तीव्र घनघाति निज कर्म तोडे । संधि पडिले हिने ते विछोड़े ॥ २७ ॥
अर्थः-- ते मुनिराज एवी रीते शुद्ध जाणपणे करी स्वाभाविक समभाव जे अचल समताना रसीया थाये ते पोतानुं तत्व के० ज्ञानादिक आत्मतच्च साधे के० संपूर्ण भाव निपजावे, निश्चल जे अचल आनंदने उपार्जे, कोइ दहाडे ए आनंद मटे नहीं सहवो ज आनंदमयी अनुभव अमृतरूप सदाकाल जे आत्मवर्मनो भोग आस्वादन करे, आराधे तेवारे आकरां घनघाती कम छेते आत्मगुणना घातकारी छे, ते आत्मप्रदेशयी जूदा करे कोनीपरे ? कठीआरानी परे ते कठीआराना हाथमां कुहाड़ो तिखो छे, ने लाकडं सामुं छे तेनी संधि जाणे छे, ते लाकडाने चीरतां वार लागे नहि, तिम मुनिराज एवी शुद्ध क्रियारूप जे कुहाडो तेणे जे जाणपणा सहित क्रिया करे तेणे करी कर्म जूदा थाय ॥ २७ ॥
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अध्यात्मगीता.
सम्यक् रत्न त्रयी रस राज्यो चेतन राय । ज्ञान क्रिया चक्रे चकचूरे सर्व अपाय || चक्र स्वभावथी साधे पूरण साध्य ।
करता कारण कारज एक थया निराबाध ॥२८॥
अर्थः-- सम्यक के० सम्यक्ज्ञान १ सम्यक् दर्शन २ सम्यक् चारित्र ३ ए जे ऋण रत्नत्रयी रस राच्या के० साबधाने रीझ उपनी चेतन राजानी तेवारे ज्ञान के० स्वपरनुं जाणपणुं ते आत्मिक ज्ञान, ज्ञानना बे भेद बाह्यज्ञान शास्त्र पठनरूप ते द्रव्यज्ञान १ भावज्ञान आत्मिकज्ञान क्रिया के० क्रिया बे भेदे, योगक्रिया शुभाशुभ बंधरूप आश्रवरूप उपयोग क्रिया ते २ स्वरूपने विषे रमणरूप चारित्रगुणने विषे थीरतापणे ठरताए वर्ते - आत्मवीर्य एकत्वपणे परिणमे ते क्रिया मोक्षनी आपनारी एवी ज्ञान क्रियारूप चक्रेकरी भाव शत्रु कर्मरूपने चकचूर करे, सर्व कष्ट टाळे कारक के० ए षट्कारकरूप चक्रे करी पोताना संपूर्ण कार्य प्रते साधे करे, कर्त्ता ते जीव १ कारण ते सम्यक्त्व २ कार्य ते करवो केवलज्ञानरूप ३ अपादान ते कर्मक्षयरूप ४ संप्रदान ते गुणश्रेणि वृद्धिरूप ५ अधिकरण ते आधारभूत केवलज्ञान रूप ६ कार्यमा ए छये समाय इति ॥ कर्त्ता १ कर्म्म २ चकरणं ३ संप्रदानं ४ तथैवच, अपादान ५ मधिकरण ६ सित्यादिकारकाणि षट्, कर्त्ता चेतन १ कारण ज्ञानादिगुण २ कार्य केवलज्ञानदि अनेक संप्रदाए छता आत्मस्वभावने अनुयायी थाय तेवारे संपूर्ण सिद्ध साधे निपजावे एवं त्रण्य एकटा थाय त्यारे अबाधा रहितपणे निपजे छे.
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अध्यात्मगीता.
स्वगुण आयुधथकी कर्म चूरे । असंख्यात गुणी निर्जरा तेह पूरे ॥
टळे आवरणथी गुण विकासे । साधनाशक्ति तिम तिम प्रकाशे ॥ २९ ॥
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अर्थः- स्वगुण के० पोताना ज्ञानादि गुण ते रूप जे हथीआर हाथमां आव्युं ते हथियार कर्म चूरे ते धणी समये असंख्यातगुणा कर्मनां दलियांने आत्मप्रदेशथी खेवी नाखे, तेवारे शुद्ध उपयोगथी स्वगुणे करी आत्माने पूरे भाव निर्जराए करीने एवी निर्जरा पुष्ट करे, ते धणी जिम २ असंख्यातगुणा कर्मदल खेखे तिम २ आवरण टले तेथी गुण विकसेज प्रगट करे ते गुण प्रगटे तिम साधननी शक्ति वधती जाय, पोतानुं आत्मगुण रूप कार्य साधकं तेने विषे निश्वलता रूप परिणामनी शक्ति वीर्य उल्लास बघतो जाय २ प्रकाश वधतो जाय. अभ्ररवि चित्रवत् ॥ २९ ॥
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प्रगट्या आतम धर्म थया सवि साधन रीत । बाधक भाव ग्रहणता भागी जागी नित ॥ उदय उदीरणा ते पण पूरव निर्जरा काज । अनभिसंधि बंधकतानिरस आतमराज ॥ ३० ॥
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अर्थः-- प्रगट्या आत्मधर्म के० जेवारे शक्ति जागी तेवारे प्रगट्यो के० अनंत आत्मधर्म प्रगट्यो, आत्मधर्म प्रगटे थके पांच शक्ति अनादिकाळनी पर अनुयायिपणे जे अवळी
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अध्यात्मगीता.
. ----------- - प्रणमी हती ते तिहां थकी निवारीने पोताना स्वरूप अनुयायि साधनपणे परि गमावी ते कहे छे. आत्मानी कर्तृत्व शक्तिरूप ते अनादिकाळनी परकर्त्तापणे अवळी प्रणमी हती तिहाथकी निवारीने पोताना स्वरूप कर्तारूप साधनपणे प्रणमावी, अने आत्मानी भोक्तृत्वरूप शक्ति अनादिकाळनी पर पुद्गलादि विभाव दशाना भोगने विषे प्रणमी हती त्यां थकी निवारीने पोताना स्वभाव भोगीपणे प्रणमावी २ अने आत्मानी रक्षकत्वरूप जे शक्ति ते अनादिकाळनी परपुद्गलादि विभावदशाना रक्षकपणे प्रणामी हती तिहां यकी निवारीने पोताना स्वभाव रक्षकपणे प्रणमावी ३ अने आत्मानी व्यापकतारूप जे शक्ति ते अनादिकाळनी पर स्वभावरूप विभावदशाने विषे व्यापी रही हती ते तिहाथी निकाळीने पोताना स्वभाव व्यापकपणे प्रणमावी ४ अने आत्मानी ग्राहकवरूप जे शक्ति ते अनादिकाळनी परग्राहकपणे परिणामी हती ते त्यां थकी निवारीने पोताना स्वभाव ग्राहकपणे परिणमावी ५ एवी रीते ए पांच शक्ति अनादिकाळनी पर अनुयायिपणे अवळी प्रणमी हती ते तिहां थकी निवारीने पोताना स्वरूप अनुजाइरूप साधनपणे प्रणमी त्यारे वाचकभाव के. नादिकाळनो पर स्वभावरूप विभावमा जीदने बाबमाबर।। ग्रहणता के० पौद्गलिक विभावमें पसीने ग्रहण करतो हतो ते हवे विभावना ग्रहणपणामां चेतना पेसती नथी ते विभावनों ग्रहणपणो हतो ते भाग्यो. परपरिणतिरूप अनित्य ग्रहण भाव बल्यो, जागी के० जाग्रत थयो स्वरूप ग्रहणरूप नित्यतापणो प्रगट्यो जाग्रतू थयो उदय के. स्थितिपाके उदय भावने योगे जे कर्म उदये आव्यां ते भोगवीने निर्जरा करे अने जीवनी सत्ताये बंधरूप
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अध्यात्मगीता.
४६३
कर्मनां पुद्गल लाग्यां छे ते खेंची उदेरी उदयआणी पूर्व कर्मने भोगवीने निर्जरे एटले उदय उदीरणा पण पूर्व कर्म निर्जराने काजे हेतु छे, अनभिसंधि के० अणउपयोग वीर्य अनमिसंधि जे अनुपयोगवीर्य अनेक कर्मग्रहण करतो हतो ते निरस के० (कर्मना कषायना रसथी आत्मा लूखो थयो, अनुपयोगे कर्मग्रहण करतो हतो तेथी लूखाशपणे अंतरंगथी न्यारो थयो तेवारे आत्मस्वरूपनो आत्मा राजा जाणवो ॥ ३० ॥
देशपति जब थयोनीति रंगी ।
तदा कुण थाय कुनय चाल संगी ॥ यदा आतमा आत्मभावे रमाव्यो । तदा बाधक भाव दूरे गमाव्यो ॥ ३१ ॥
अर्थः-- देशपति के० असंख्यात प्रदेशरूप देश तेने विषे रंगाणो एटले स्वभावमां रंग लाग्यो, तदाकुण के० तिवारे कुणथाए, कुनय के० मिध्यात्व जे माठानय अनीति मार्गनों चालनारो न थाय तेहनो संग न करे, सुनय जे समकितनो मार्ग स्वभाव धर्म तेमां रमण करे जे मार्गे पोते चाले तेहिज उपदेश दे तेनी संगकरे अने परपरिणतिरूप कुमार्गे चाले तेवानो संग न करे; यदा के० जिवारे पोतानो आत्मा आत्मभाव के० ज्ञानादिक अनंत गुण रूप आत्मभावनेविषे रमाड्यो - रमणं कराव्यो, तदा के० तिवारे अनादिकालनो बाधक भाव के० परस्वभाव रूप विभावदशारूपबाधक भावनो ग्रहणपणो हतो वे दूर गमाव्यो एटले वेगलो कर्यो. ॥ ३१ ॥
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अध्यात्मगीता.
हण्यो,'
परिणाहण्यो निर्मूल
सहेज क्षमा गुण शक्तिथी छेद्यो क्रोध सुभद्र। मादेव भाव प्रभावथा भेद्यो मान मरट्ट॥ माया आर्जव योगे लोभ ते निस्पृह भाव । मोह महा भट ध्वंसे ध्वस्यो सर्व विभाव ॥३२॥
अर्थ:--सहज के० स्वाभाविक क्षमागुण अकृत्रिम शक्ति के० आत्मवीर्यथी छेदायो के० हण्यो, मोह राजाना क्रोध सुभटने हण्यो निर्मूल कर्यो माईव के० मानरहितपणुं सुकुमाल परिणामि ते नर्माशपणं आत्मधर्मने विषे नमतो भाव ते मार्दव गुणने प्रभावे करी मान जे अहंकार सुभटनो मरट्ट जे मोटाइपणुं उन्मूली नाख्यु. माया के० कपट तेने आस्रव के० सरल परिणामी द्रव्यभाव चक्रपणा रहित ते आर्जवगुणे करी करी माया सुभटने हण्यो. निर्लोभता सर्व द्रव्यनी अभिलाषा रहित एक शुद्धात्म द्रव्यग्राही मोक्षामिलाषी पण संसारामिलाषी नही एवो निर्लोभ भाव तेणे करी मोहराजाना लोभ सुभटने हण्यो. मोह के० मोहरूप महासुभट जे सर्व अवगुणने विषे राजा मुख्य तेने ध्वंसे के० हडसेली नाखी दूर करे. सर्व विभाव दशारूप जे परस्वभाव अनादिकालना जीवने शत्रुभूत थइ लाग्या छे ते ध्वंसाणा जे नाश पाम्याज एटले समकिते मिथ्यात्वने हण्यो. शीयलशुभटे कंदर्प शुभटने हण्यो एम कहे छे. ॥ ३२ ॥
इम स्वभाविक थयो आत्मवीर । भोगवे आत्म संपद सुधीर ॥
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अध्यात्मगीता.
जेह उदयागता प्रकृति वळगी । अव्यापक थको खेरखे तेह अळगी ॥३३॥
४६५
अर्थः-- इम स्व के० एवी रीते आत्मानो वीर्य पराक्रमे करी शूरवीर थयो अनंत बलनो धणी कर्म शत्रुने जीतीने पर परिणतिथी निवर्त्यो. आत्म स्वभावे रमण करीने शूरवीर थयो भोगवे के० आत्मानी ज्ञानादिक संपदा सुधीर के० निर्भय थइ भोगवे. जे उदय आवी प्रकृति आत्माने वलगी छे, अव्यापक के० निर्लेप न्यारो थको उदय आवी कर्म प्रकृति बलगी छे तेने भोगवी खेखे अलगी करे, समभावपणे. ॥ ३३ ॥
धर्मध्यान इक तानमें ध्यावे अरिहा सिद्ध | ते परिणतिथी प्रगटी तात्त्विक सहज समृद्ध ॥ स्वस्वरूप एकत्वे तन्मय गुण पर्याय | ध्याने ध्यातां निर्मोहीने विकल्प जाय ॥३४॥
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अर्थः- धर्मध्यान के० पोतानो आत्मिक धर्म सत्तागतनेविषे अनंतो रह्यो छे, ते धर्मने ओलखी प्रसिद्ध करी तेहना ध्यानने विषे प्रवर्ते ते धर्मध्यानना शुद्ध शुक्रुध्यान रूपातीत परिणामरूप एकत्वपणे अरिहंत सिद्धना गुण ते पोताना आत्म तुल्य गणिने ते घ्यावे, नीरागता पणं ओलखीने ध्यावे, ते शुद्ध परिणतिथकी प्रगटी निपनी तत्त्व के० तद्रूपपणे जेवी सत्ताए ती व अकृत्रिम सहज स्वाभाविक समृद्धि के० ज्ञानादि लक्ष्मी प्रगटी तेवारे स्वस्वरूप के० पोताना आत्मिक स्वरूपने
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अध्यात्मगीता.
विषे एकत्व के० एकत्वपणे सन्मय उपयोगे लयलीन थाय, पोताना आत्मगुण अने आत्मपर्यायना ध्यानने विषे तेहवा ध्यानने विषे एकत्वपणे प्रवर्ते तेवारे ते जीव निर्मोही मोह रहित थयो तेवारे सर्व विकल्प दूर जाय, विकल्प मटे तिवारे शोगुण थाय ? ते कहे छे ॥ ३४ ॥
यदा निर्विकल्पी श्रयो शुद्ध ब्रह्म । तदा अनुभवे शुद्ध आनंद शर्म । भेद रत्न त्रयी तिक्ष्णताये। अभेद रत्न त्रयीमें समाये ॥३५॥
अर्थः--यदा के० जेवारे संकल्प विकल्प रहित निर्विकल्पि आत्मा थयो, तेवारे शुद्ध ब्रह्म के० शृद्ध ज्ञानमयी थयो जीव एटळे पोताना आत्मस्वरूफ्ना शुद्ध ज्ञानमयी थयो, तदा के० तेवारे अनुभवे के० भोगवे, शुद्ध निर्मल आनंदमयी सुखरूप अप्रयासीपणे भोगवे. आत्मिक सुखप्रते मेद रत्नत्रयी के. ज्ञान १ दर्शन २ चारित्र ३ ते भेदपणे ते ज्ञान ज्ञानरूपे जाणे १ दर्शनते दर्शनरूपे जाणे, श्रद्धा सदहणारूपे २ रूपे जाणे, तेथी कर्ताए भेद स्त्नत्रयीरूप तीक्षणतानी वृत्तिए करी अभेद रत्नत्रयी के० अन्योन्य सहाय विना ते अभेद, रत्नत्रयी ते सुज्ञान- जाणपणुं ज्ञाननुं श्रमान ज्ञाननी थिरता रमणता एकता १ दर्शननुं जाणपणुं श्रद्धान थिरता रमणता एकता २ चारित्रनुं जाणपणुं श्रद्धान थिरता रमणता ३ ए त्रणमी एकत्वता ते अभेद रत्नत्रयी कहीये ॥ ३५ ॥
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अध्यात्मगीता.
४६७
दर्शन ज्ञान चरण गुण सम्यग् एक एकना हेतु । स्वस्थ हेतु थया समकाळे तेह अभेदता खेतु ॥ पूर्ण स्वजाति समाधि घनघाति दल छिन्न । क्षायिका प्रगटे आतम धर्म विभिन्न ॥३६॥
अर्थ:-- दर्शन के० सम्यग्दर्शन १ सम्यग्ज्ञान २ स म्यगचारित्ररूप ३ जे गुण एटले दर्शन छे ते जीवने सामान्य उपयोग गुण ज्ञान छे, एकले दर्शन तथा ज्ञान ए बेमे विषे थिरतारूप एकाग्रता पणे उपयोगे व ते चारित्र जाणवो, माटे एत्रण परस्पर एक के एक एकना हेतु कारणरूप जाणवा. स्वस्व के० पोतपोताना एक समये हेतु थया ज्ञान १ दर्शन २ चारित्ररूप ३ रत्नत्रयी ते एकतापणे प्रणमि तेमज स्वक्षेत्र के० आत्माना असंख्याता प्रदेशरूप क्षेत्रने विषे भेद भाव रहित अभेदपणे प्रणम्या एकरूप थया तेवारे केवी थयो, घनघातिया कर्मना समूहनां दळीयां आत्मप्रदेशनेविषे लाग्यां हतां, ते छिन्न के० छेदी नाख्यां तेवारे पूर्ण के० संपूर्ण पोतानी जाति जे ज्ञानादि गुणनी समाधि ध्यान तेणे करी घनघाती कर्म छेद्यां, क्षायिकभाव के० क्षायिकभावे प्रगटे थके एटले सत्तागतने विषे अनंतो आत्मिक धर्म शक्तिपणे रह्यो हतो ते व्यक्त के० प्रगटपणे क्षायिकभावे प्रगट्यो तेवारे विभिन्न के० अभेद आत्मपणे लोकालोकना भाव जाण्या थका विचरे || ३६ ||
पछे योग रुंधि थयो ते अयोगी । भाव शैलेसता अचळ अभंगी ॥
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४६८
अध्यात्मगीता.
पंच लघु अक्षरे कार्य कारी । भवोपग्रहीकर्म संतति विडारी ॥३७॥
अर्थः--तेरमा गुणठाणाने विषे छेले समये योगविक मनवचन काया ए त्रण योग रंधीने सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती शुक्ल ध्याननो चीजो पायो ध्याता चउदमे गुणस्थानके चढे, तिहां प्रथम बादर मनोवाकाय रुंधे, पछे मुश्मयोग रुंधि अयोगी थयो. भाव के० स्वभावे शैलेसता के. मेरु पर्वतनी परे अकंप अडग अचळ थिरताभावे अडग थयो एवो स्वभाव अचळ थयो, पंचलघु के० चउदमे गुणस्थानके जीव, अ, इ, उ, ऋ, ल, ए पांच लघु अक्षररूप उच्चार करे एटलामा स्वसिद्ध कार्य निपजावे, भवोपग्रहिक-भवने आश्रयी जे अघातीकर्म पुद्गलनी श्रेणिअवशेष के० थाकतां रह्यां हतां ते विडारी, ध्यानाग्नि शुक्लध्यानना चोथा पायाने ध्याने करी कर्मक्षय करे तेवार पछी ॥ ३७॥
समश्रेणे एक समये पहोता जे लोकांत । अफुसमाण गति निर्मल चेतन भाव महांति॥ चरम विभाग विहीन प्रमाणे जसु अवगाह। आत्मप्रदेश अरूप अखंडानंद अवाह ॥३८॥
अर्थः--समश्रेणे करी एक समयने विषे चौदराज लोकने अंते लोकाग्रभागे अजरामर स्थानके जे क्षेत्रे अनंता सिक परमात्मा विराजमान वर्ते छे, ते सिद्धक्षेत्रे पोहता सिद्धपणे अफुसमाण के० आकाशझप क्षेत्रना प्रदेश प्रथम फरस्या छे
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अध्यात्मगीता.
तेहज आकाश प्रदेशनी समश्रेणीए वर्त्तता सिद्धि पाम्या, सिद्धि वर्या, कर्मरूप मल थकी रहित निर्मळ थया, तेवारे शुक्र ज्ञानादिआत्मस्वभावे क्षायिकभावे सदाकाळ शाश्वता रहे. सिद्ध क्षेत्रमें चरम के० छेल्ला शरीरनो त्रीजो भाग घटाडीने अवशेषे के० थाकता बे भागना शरीर प्रमाणे आत्मप्रदेशनो घन करी ते प्रमाणे अवगाहना करी सिम क्षेत्रने विषे बिराजमान थयां.आत्मप्रदेश के० आत्मप्रदेश अरूपी छे. अखंड अनंदमयी अबाह के० अबाधा के० पीडा रहित स्वक्षेवे व्याप्या छे, आत्मस्वभावमें रह्या छे ।। ३८ ॥
जिहां एक सिद्धात्म तिहां छे अनंता। अवन्ना अगंधा नहि फासमंता॥
आत्मगुण पूर्णतावंत संता। निराबाध अत्यंतसुखास्वादवंता ॥३९॥
अर्थः--जिहां एक सिझात्म के० जिहां एक सिझ परमात्मा छे, ते क्षेत्रने विषे अनंता सिद्ध भेळा मळीने रह्या छे, ते सिम कहेवा छे ? अवन्ना के० पांच वर्ण रहित, अगंधा के. बेगंध रहित, नही फासमंता के० आठ फरसरूप थकी पण रहित छे, वळी सिद्ध कहेवा छे ? आत्मगुण के० पोताना आत्माना गुण ज्ञानादि अनंतगुणनी पूर्णता छता भाव प्रगट्या छे, वळी निराबाध के• सर्व प्रकारे अबाधा पीडा थकी रहित सिद्ध छे, अत्यंत सुखास्वादवंता के० च्यारनी कायना देवताना इंद्रिय जनित पौद्गलिक जे सुख ते वणे काळनो भेळो करी अनंतगुणो वर्ग वर्गित करीये पण सिद्ध
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अध्यात्मगीता.
परमात्मा आत्मिक सुख अनुभवे छे, ते सुखने तुल्य एक समय मात्र पण न आवे, एहवा स्वभाविक सुखनो आस्वादन करे छे. ॥ ३९ ॥
कर्ता कारण निज परिणामिक भाव । ज्ञाता ज्ञायक भोग्यभोग्यता शुद्ध स्वभाव। ग्राहक रक्षक व्यापक तन्मयताए लोन। पूरण आत्मधर्म प्रकासरसे लयलोन ॥४०॥
अर्थः-कर्ता कहेतां सिझनो जीव १ कार्य के० पोताना ज्ञानादि अनंतगुण संपूर्ण २ अने कारण ते स्वगुण रमणता रूप ३ सिम स्वभावे परिणम्या छे, ज्ञाता के० ज्ञाने करी ज्ञेय पदार्थ जाणे छे, भोग जे भोगववा योग्य शुद्ध स्वज्ञानादि तेहनो भोक्ता छे. ग्राहक के० परस्वरूप विभावदशानो अनादिकालनो ग्रहणपणो कर्यो छे अने स्वस्वरूपथी भिन्न पुद्गलादि वस्तु अनादिकालनी तेहना रक्षकपणानी मति निवारीने स्वस्वभाव रक्षकपणे परिणम्या अने परपरिणतिने विषे अनादिकालनो व्यापकपणो हतो ते निवारीने स्वभाव व्यापकपणे परिणम्यो तेहने विषे लीनथका वर्ते छे, तन्मयपणे पूरण के० संपूर्ण आत्मधर्मनो प्रकाश थयो ते रसेकरी लयलीन छे, साक्षात्कारे मनपणे ॥ ४० ॥
द्रव्यथी एक चेतन अलेशी । क्षेत्रथी जे असंख्य प्रदेशी॥
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अध्यात्मगीता.
धर्म |
काळ
उत्पाद वळी नाश शुद्ध उपयोग गुणभाव शर्म ॥४१॥
४७१
अर्थः- द्रव्यथी के० द्रव्यथी ज्ञानादि चेतनारूप गुण सहित छे, तेमाटे सिद्ध ते द्रव्यथी के० चेतन कहीए अने कृष्णादि षट लेश्या रहित सिद्ध अलेशी छे, क्षेत्र थकी सिद्ध ते स्वक्षेत्ररूप असंख्यातप्रदेशी छे. उत्पाद के० कालयी सि
ने जाणवा देखवारूप पर्यायनो समये समये उपजवो थाय छे. जाणवा देखवारूप पूर्वपयायनो नाश थाय छे २ अने सिने ज्ञानादि अनंतगुण प्रगट्या छे ते सदाकाल ध्रुवपणे शाश्वता छे ३ अने सिने ज्ञानादि अनंतगुणरूप धर्म छे, ध्रुवपणे प्रगट्यो छे तेहने विषे उत्पाद १ व्यय २ थइ रह्यो छे. शुद्ध उपयोग के० भावथकी सिकने पोताना ज्ञानादि अनंत गुणरूप भाव प्रगट्यो छे, तद्रूप घरने विषे सदाकाल शुरू उपयोगवंत थका वर्त्ते छे, भाव सुख प्रगट्यो छे. ॥ ४१ ॥
सादि अनंत अविनाशी अप्रयासी परिणाम । उपादान गुण तेहज कारण कारज धाम ॥ शुद्ध निक्षेप चतुष्टय जुत्तो रत्तो पूर्णानंद । केवल नाणी जाणे तेहना गुणनो छंद ॥४२॥
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अर्थः-- सादि अनंत के० वळी सिद्ध कहेवा छे ? एक सिद्ध आश्री ते सादि अनंत स्थिति छे अने अनेक सिद्ध आश्री अनादि अनंत स्थिति छे अने जे सिद्धपणो निपन्यो छे तेहनो फरी विनाशपणो नयी प्रयासविना अनंतो आ
३३.
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अध्यात्मगीता.
त्मिक सुख अनुभवे छे, पोताना परिणामिक भावे वर्ते छे. अप्रयासी परिणामे रह्या छे, उपादान के० स्वज्ञानादि अनंतगुण कारणरूप प्रगट्या छे अने अनेकज्ञेय पदार्थ जाणवा देखवारूप पर्यायनो उत्पाद व्यय समये थइ रह्यो छे, ते कार्य पोताना आत्मस्वरूपने विषे निवास कर्यो छे एटले ए त्रणे एकतापणे परिणमे छे. शुफ के० निर्मळ च्यार निक्षेपे करी युक्त छे सिफ एहवो नाम त्रणेकाले एकरूप शाश्वतो वर्ते छे १ अने थापना सिह ते त्रिभागे शरीर प्रमाणे क्षेत्र अवगाही रह्या छे २ द्रव्य सिफ ते सिफतादि गुणरूप छतां पर्याय वस्तुरूप प्रगट्या छे ते द्रव्य सिफ़ ३ सामर्थ्य पर्याय प्रवर्तनारूप अनंतो धर्म प्रगट्यो तेणे करी नव नवा ज्ञेयनी वर्तनारूप पर्यायनो उत्पाद व्यय समये २ अनंतो थइ रह्यो छे, तेणे सिझ अनंतो सुख भोगवे छे, ते भाव सिफ४ ए च्यार निक्षेपे करी सदा रक्त प्रवर्ते छे. आत्मिक आनंदसुख भोगवे छे, केवलनाणी के० एहवा सिफ्नो स्वरूप प्रत्यक्षपणे केवळज्ञानी जाणे देखे अने सिफ परमात्माने अनंतगुणना समूह प्रगट्या छे तेहने विषे अनंतो सुख भोगवे छे, ते केवळज्ञानी गम्य छे, पण छद्मस्थ मुनिना जाणवामां न आवे. ॥ ४२ ॥
एहवि शुद्ध सिद्धता करण इहा । इंद्रिय सुख थकी जे निरीहा ॥ पुद्गली भावना जे असंगी। ते मुनि शुद्ध परमार्थ रंगी ॥४३॥
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अध्यात्मगीता.
४७३
अर्थ -- एहवी के० जे पूर्वे वखाणी शुद्ध निर्मल सिद्धता के० सिद्ध परमात्मानी संपदा छे, तेहवी सिद्ध संपदा प्रगट करवानी जे मुनिने इहा के० वांछा छे, ते मुनि कहेवा छे? इंद्रिय के० पांच इंद्रियना देवीस विषय सुख पौगलिक तेहनी वांछा रहित व छे, वली भुनि केवा छे पौगलिक के० स्व स्वरूपथी मिन्न के० जुदा एहवा शुभाशुभविभाव दशारूप जे पौगलिकभाव तेहना संगयी रहित न्यारा जे मुनि प्रवत्तें छे, ते असंगी ते मुनिराज निर्मळ बुद्धिना धणी अने जे साध्य एक अने साधन अनेक एवी रीते सत्ता गतना धर्मने साधे ते मुनि, परमार्थ साधवाना रंगी छे ।। ४३ ॥
स्याद्वाद आतम सत्ता रुचि समकित तेह | आतम धर्मनो भासन निर्मळ ज्ञानी जेह ॥ आतम रमणी चरणी ध्यानी आतम लीन । आतम धर्म रम्यो तेणे भव्य सदा सुख पौन ॥ ४४
अर्थः-- स्याद्वाद के नित्य अनित्यादि आठ पक्षे करी अनेकांतनयरूप मार्ग ते स्याद्वादे करी आत्मसत्ता रुचिने ओलखीने प्रकट करवानी रुचि प्रवृत्ति ते मुनि, शुद्ध भासनरूप समकित भाव सहित जाणवा. आतमधर्मे के० आत्मा शुद्ध निश्चय नयेकरी जोतां तो पोतानी आत्मसत्ताने विषे ज्ञानादि अनंत गुण रूप धर्म रह्यो छे, तेहनो भासन प्रतीत प्रगटी तिवारे निर्मल ज्ञानी थयो निर्मल जाणपणुं थयुं त्यां आत्म के० ते मुनि सदाकाल स्वआत्म स्वरूप रमण करे तेहने शुद्ध चरित्रनो उपयोग वर्थ्यो, तिवारे आत्मस्वरूपना ध्यानने लीन
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४७४
अध्यात्मगीता.
पणे प्रवो , तिवारे निर्मल शुफ ध्यानी थयो जाणवो, ते आत्मधर्म कारणे हे भव्य जीवो ते आत्मधर्ममें रमो, तेणे करी सदाकाल पुष्ट सुख उपजे ॥ ४४ ॥
अहो भव्य तुम्हें ओलखो जैन धर्म । जिणे पामीयें शुद्ध अध्यात्म मर्म ॥
अल्पकाळे टळे दुष्ट कर्म । पामोयें सोय आनंद शर्म ॥ ४५ ॥
अर्थ:--अहो भव्य जीवो ! अहो देवानुप्रिय तुम ओलखो जैनधर्म, श्री वीतरागे समोसरणने विषे बेसीने भारख्यो, निश्चय आत्मिक धर्म ज्ञानादिक शुरू उपयोग लक्षण धर्म अंतरंग सत्तागते रह्यो छे, तेहनी तुमे ओलखाण करो, तेहथी सुख थाय, जिणे वस्तु स्वभाव ओलख्यायी आत्मा पामे शुद्ध अध्यात्मनो मर्म रहस्य जे आत्म स्वरूप प्रगटे तेहथी जीवने शुं गुण थाय ! जे वली थोडा कालमांहे दुष्ट दुःखदाइ ज्ञानावरणादि आठ कर्मनो नाश थइ आनंद जे पोतानो नित्यानंद परम सुख तेहनो स्थानक जिहां अनंतासिद्ध बसे छे एवो स्वस्थानरूप घर प्रते पामे. ॥ ४५ ॥
नय निक्षेप प्रमाणे जाणे जीवाऽजीव । स्वपर विवेचन करता थाये लाभ सदीव ।। निश्चय ने व्यवहारे विचरे जे मुनिराज । भवसागरना तारण निर्भय तेह जिहाज ॥४६॥
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अध्यात्मगीता.
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अर्थः-- नय के० नैगमादि सातनयनामादि च्यार निक्षेपे अने प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणे करी जीव, अजीवादि नक्तत्व षटूद्रव्यनो स्वरूप जाणे, स्वपर के० स्वजीव चेतनावत ज्ञानादिक गुण पर जे अजीव पुद्गलवंत सडण पडण विध्वंसण धर्म एवी
A
ते स्वपरनी वेंचण करतां थकां सदा स्वरूपनो लाभ हुवे, निश्चय के० निश्चय नयते आत्म स्वरूपने विषे दृष्टि राखी ओळखीने व्यवहार शुद्ध विचरे, शुद्ध क्रिया आचरणाई प्रवर्त्ते जे मुनिराज ते मुनिराज निश्चय नय व्यवहार नयनो उपदेश दे, निश्चय धर्म निर्जरा हेतु छे, बाह्य व्यवहार धर्म 'पुण्यबंधनो हेतु छे. एहवा उपदेश दइने भव समुद्री तारवाने जिहाज समान जाणवा. निर्भयपणे भयरहित जिम जिहाज आलंबी समुद्रने तरे, तिम आत्मज्ञानी मुनिराज ने आलंबी भव्य प्राणी संसारनो पार पामे ॥ ४६ ॥
वस्तु तत्त्वे रम्या ते निग्रंथ ।
तत्त्व अभ्यास तिहां साधु पंथ ॥ तिणे गीतार्थ चरणे रहिजे । शुद्ध सिद्धांत रस तो लहिजे ॥ ४७ ॥
अर्थ - - वस्तुधर्म के० आत्मधर्मने विषे रम्यांते निग्रंथ, तव के० आत्मतत्त्वना अभ्यासने विषे सदाकाळ निरंतरपणे जेहनो उपयोग वर्त्ते तिहां साधुपंथने साधुनो मार्ग कहीए, मोक्ष मार्गनो साधनारो ते साधु कहीए. द्रव्य चारित्र ते, हिंसादिक पांच आश्रवनो त्याग, पांच महाव्रत चरण सित्तरि करण सित्तरि पाळे, बेतालीस दोष रहित आहार ले, सर्व सिद्धांत
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अध्यात्मगीता.
भणे वांचे संभळावे एवाये पण आत्म स्वरूप ओळख्यो नथी. शुद्ध उपयोगे न वर्तेते द्रव्य चारित्रिया कहिए. १ भाव चारित्र ते आत्म स्वरूपमा एकत्व था, ते आत्मस्वरूपनी थिरता, आत्मस्वरूप, रमण, आत्मस्वरूप निश्चलता आत्मस्वरूप भोगी, परभाव अभोगी ते भाव चारित्र २ तेणे गीतार्थ के० आत्मस्वरूपना जाण एवा गीतार्थ मुनिना चरण कमळ सेवीए, मोक्षामिलाषी मुनिने सेव्याथी शुं नीपजे ! शुद्ध के० शुफ निर्मल यथार्थ निःसंदेहपणे सिनांत जे आगम संबंधी या जिन वाणीना ज्ञानरस प्रते चाखी जे गुरु कृपाथकी तथा आगमनो रहस्य ते इयाने कहीए ? यतः आत्माराम अनुभव भजो, तजो परतणिमाया, एह छे सार जिनवचननु, वली एह शिवछाया ? श्री परमात्माए बिगडे बेसी एहवी प्ररूपणा करी अहो भव्य जीवो ! आत्माने आराम के० रमावे एवो अनुभव भजो सेवो, एटले आत्मानो अनुभव करजो, पर के० पुद्गल परभावनो त्याग करवो एह जिनवचननुं सार छे, वळी शिव तरुनी छाया छे. संसारतापनी टाळणहारि छे. इत्यर्थ ॥ ४७ ॥ श्रुत अभ्यासी चोमासि वासी लिंबडी ठाम । शासन रागी सोभागी श्रावकनां बहु धाम ॥ खरतरगच्छ पाठक श्री दीपचंद्र सुपसाय । देवचंद्र निज हरखे गायो आतमराय ॥४८॥ . अर्थ:--सिद्धांत शास्त्रना अभ्यासी लिंबडी गामनेविषे चोमासु रहिने ए ग्रंथ रच्यो, जैन शासनना रागी सौभाग्यवंत श्रावकनां घणां घर छे, खरतरगच्छने विष दीपचंद्र नामा
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अध्यात्मगीता.
उपाध्यायजीने प्रसादे देवचंद्र नामा उपाध्याये पोताने हर्षे करी आत्म राजाने गायो, आत्मस्वरूप यथार्थ वर्णवायो.॥ ४८ ॥
आत्मगुण रमण करवा अभ्यासे । शुद्ध सत्ता रसोने उलासे ॥ देवचंद्रे रची अध्यात्मगीता।
आत्म रमणि मुनि सुप्रतिता ॥ ४९ ॥
अर्थः-भव्य जीवने आत्मगुण रमण करवा अभ्यासे ज्ञानादि गुणवडे रमण करवा स्वरूप जाणवा. अभ्यासने अर्थे शुभ आत्म सत्ता ज्ञानादि चेतननी तेहना रसिया जे अर्थिने उल्लास करवाने अर्थे देवचंद्र उपाध्याये अध्यात्मगीता रची, पोताना आत्म रमण करवाने अर्थे अने अध्यात्म ज्ञानवंत मुनिने प्रतीतकारी छे, ए ग्रंथ रचना कीधी स्वरूपने अर्थे ॥ ४० ॥ इति पाठक देवचंद्रकृत अध्यात्मगीता संपूर्णा ॥ ॥ शुभं भवतु ॥
॥ इति श्री अध्यात्मगीता देवचंद्रकृता
॥ संपूर्णा शुभं भवतु॥
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॥ ॐ नमः सिद्धं श्रीगुरुभ्योनमः ।। ॥अथद्रव्यप्रकाशभाषालिख्यते ॥
॥ दोहा ।। अज अनादि अक्षयगुणी, नित्य चेतनावान् । प्रणमु परमानंदमय, शिवसरूप भगवान् ॥ १ ॥ ॥ अथस्याद्वादभावको नमस्कार ।।
॥ संवैया इकतीसा ॥ जाकै निरखत संते थिरतासु भाव धेरै, वरे निज मोक्षपद हरे भवतावको, करमको बंध वारे मोहको विडारडारे सारे निजसकति वधारे ज्ञानदावको एकानेकरूप जानै नित्यानित्यभाव ठान आपा पर भेदकरी ग्रहे स्व सुभावको, अक्षर त्रिगुण इंद कर्मजालसो अफंद नमतहे देवचंद स्यादवादभावका. ॥ २ ॥
॥ अथअध्यात्ममाहात्म्यकथनम् ।।
॥ सवैया इकतीसा ॥ अध्यात्मभावको प्रभाव कहो कहा ताहि जाको महिमान ज्ञान जगतमे गायोहे, याहिको सभाव लहि आपा पर भेद गहि सम्यक्सुभावमहि बोधिबीज वायोहे; घातकी अघाती भेद कर्मको मूल छेदि वेद निजभावको परमभाव आयोहे, रिषभदेवाधिदेव अध्यात्मभाव सेव अमल अखंडू निज केवलको पायोहे. ॥३॥
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द्रव्यप्रकाश.
॥ अथमोहविलासकथन ॥ ॥ सवैया इकतीसा ॥
लो आरिजकुल गुरुको संजोग वलि पूरवके पुण्यबल एसो जोग लोहे, अध्यातमग्रंथसार सुणो कान धरी प्यार पीयो ताको रस निज तत्त्वशुद्ध ग्रह्येोहे; तौभी यह तैरो जीव चाहत विशेष दीव भोगकी ममत्वतासौ माचिराचि रह्योहे, जगको जीवनहार एतो सब मोहभार मोहकी मरोरमें जगत लहलह्योहे. ॥४॥ ॥ अथप्रथमद्वार ॥ ॥ सवैया इकतीसा ||
प्रथम धरमद्रव्य, दूसरो अधर्मद्रव्य, तीसरो आकाशद्रव्य, लोकालोकमानहे, चोथो कालद्रव्य एक पुद्गलद्रव्यरूपी निजनिजसत्तावंत अनंत अमानहे; पांचोह अचेतनजं चेतनासरूप लीये छो ज्ञानवान द्रव्य चेतन सुजानहे, स्यादवादभाव लीये तीनं अधिकार या ग्रंथको आरंभ कीनो ग्रंथज्ञान भानहे. ॥५॥ ॥ कलिघुताई ॥ ॥ सवैया इकतीसा ||
कोउ बाल मंदमति चित्तसो करे उकति नभके प्रदेश सब गनि देवो करसे, कोउ जन छीन तन पुरातन वयातीत वचन सो कहे एसो जुद्ध करो हरिसे; भूचर वामन सो सकति दिनु कहे एसो लंबीकर मूजा मेतो मेरुचूलापरसौ, तैसे में अल्पबुद्धि महावृद्ध ग्रंथ मड्यो पंडित हसेगे निज ज्ञानके गढ़रसौ. ॥ ६ ॥ || ग्रंथअधिकारीवर्णन || ॥ सवैया इकतीसा ॥
परम धरम जानि करम मरम भानि नरम सभाव लहि धाम सौ
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द्रव्यप्रकाश
उदासी है, आतमके विसरामी ज्ञानके अंतरजामी बाधासौ विरमिनित राधाधामवासी है; जालसौ जगतजाके माल सब मैल जैसो अमल अखंड निज ब्रह्मके विलासी है, एसे समकीत धारी शुद्ध नयके विचारी वंदतहे देवचंद ज्ञानके प्रकाशी है. ॥७॥
॥ अथ देशविरति वरणन ॥
॥सवैया इकतीसा ॥ अभक्ष्यके त्यागी हे परम रस यागी एसे परसौ निरागी जिनधर्मके विनीत हे, आत्मिक सुख लहि समतासु धीर गहि विषय कषाय मोह रससौ वितीत हे; परम धीरज धरि आत्मीक बल करि समकित यीर करि मिथ्यासौ अजीत हे, मिष्ट मित थोव भाषी सिद्धसुख अभिलाषी इकवीस गुण धारी श्रावक पुनीत है ॥८॥
॥दोहा॥ साधक शिवको साधुमुनि, ताके भेद चियार, जिनवर आचारिजप्रवर, उपाध्याय अनगार ॥ ९॥
॥ अहंतकीद्रव्यस्तवना ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ जाकी देहदुति अति सोमित अनंततेजु जाकी तन चतुराई नाही थांन ओर हे, ताही जिनराजके बचनको विलास मानो, शिवपुरा राह शुद्ध अनुभष कोर है। जाके अतिसे अमंद, वंदे देवदेवी वृंद जाको धर्मशासन परम सुख ठौर हे, जाहीके दरससेति सुखको परसौहत ऐसो जिन देवचंद विश्वसिर मौर है ॥१०॥
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४८४
द्रव्यप्रकाश
......
॥दोहा॥ दर्वितस्तवनाना थकी, करतां पुन्यप्रकाश, आतमके गुन गावतां, केवलज्ञान विलास. ॥११॥
॥ अथ भावस्तवनं ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ लोकालोक भासक अनंत ज्ञानदृष्टि जाकी वीरज अनंतसुख उषेरै कर्मकंदजू, चरण अनंतवर लोकालोक भावधर पुन्य पापसौ व्यतीत सुध सुख वृंदजू ; वेद कौन भेद तीनौ जोग कौन खेद तहां चेतन प्रकाश भयो कर्मसौ अफंदजू; ऐसे जिनराज निज ज्ञानमे बिराजमान अमल अखंड नित ध्यावे देवचंदजू . ॥ १२ ॥
॥ आचार्यस्तवनं ॥
॥ सवैया बतीसा॥ पंचाचार पाले निज ब्रह्मको संभाले भाले-टाले परभाव सब शुद्धभाव भावे हे, परमधरम गहे समता समाव वहे रहे न सराग चित्त नित्त लिव लावे हे; दुविध दयाके धार कीनो नारि परिहार परिग्रह दूर डारि नीरलोमी दावे हे; पख्याधि दूर टारे रागद्वेष मोह वारे ऐसे आचारज जिको देवचंद ध्यावे हे ॥ १३ ॥
॥ अथ उपाध्याय वरणन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ नित्य सो अनित्यरूप एकानेक कोशरूप सदसद्भाव
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द्रव्यप्रकाश
स्याद्वादको सहाय है, द्रव्य अभेद नय परजाय भेदनय सगनैगमादिनै असंख भेद पाय है; द्वादशांगी सूत्रसार पठावै सपरिवार साधे शुद्ध कारज जे मोक्षके उपाय है, पंच महावत पाले दोष सबहिको टाले पृजनीक भव्यजीको ऐसे उपाध्याय हे ॥१४॥
॥ अथ साधु स्तुति ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ आत्मारामके आरामी निज सुख वीसरामी पुन्यके अकामी पापष्टिसौ न काज हे, इंद्री सुखकी न आस रहे जगसी उदास परिग्रह हीन भी अजाचि महाराज है, मिथ्यास्या विमुख निज ज्ञान भावही के रुख मोक्ष सनमुख सिद्धसुखके समाज है, करम उदिकसेती करत हे क्रियाकर्म सत्तावीस गुणधारी ऐसे मुनिराज है ॥ १५॥
॥दोहा॥ अविरत आदि अजोग, लगी यहे सिद्धको हेत, जो गुन जहां पुरन हुवे, सोइ सिद्धको खेत. ॥१६॥ ॥अथ मिथ्यादृष्टिहेय कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ आपको न जाने परभावहिको आपा माने गहिके एकांत पक्ष माच्योहे गहलमे, भरममे परयो रहे पुन्यकर्महिको चहे वहे अहंबुद्धिभाव थंभ ज्युं महलमे; कुगतिसौ डरे सद्गतिहिकी इछा करे करनीमे थीर होके चाहे मोक्ष दीलमे, स्यादवाद भावविनु एसो जो मिथ्यात्व भाव हेयरूपी कडो ज्ञानभावके अदलमे ॥१७॥
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द्रव्यप्रकाश.
॥ अथ ग्रंथारंभको नमस्कार ॥ ॥ दोहा ॥ छहोभाव स्यादवादको, जामे अरथ विलास, समकित कारण ग्रंथ यह नामे द्रव्यप्रकाश ॥ १८ ॥
|| शिष्य प्रश्न ॥
॥ दोहा ॥
ज्ञानरूप आदेयजो, जानौ चेतन सोय, जे अजीव फुनि हेय है, उन जाने क्या होय. ॥ १९ ॥
॥ अथ गुरुउत्तरकथनं ॥
॥ सवैया वीसा ||
चेतन द्रव्य अनंत गुनाश्रित ध्येय आदेय स्वभाव धेरै आप विसारि वसे भवकीचमे आप लखे शिवभाव वरे है, इतै यह जीव पराइ कुसंगति चंचलभाव लिये विचरे है, शिष्य संदेह निवारन कारन त्याग स्वरूप वखान करे है ॥२०॥ ॥ दोहा ॥
त्यागे परको जानिके, गहै आपनो जान,
या ते दोनुं भावको, पंडित करे बखान ॥ २१ ॥
|| भेदज्ञान चरणन ॥
॥ दोहा ॥ भेदज्ञान शिवमा गहे, ज्ञानगेय इहिमांहि, ध्यान ध्येयकी शुद्धता, भेदज्ञान विनुं नाही. ॥ २२ ॥
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द्रव्यप्रकाश.
|| भेदज्ञान उभयमूल नयवरणन ॥ ॥ सवैया इकतीसा ॥
सुध नय निहचे जधारथ सरूपी सत्य व्यवहार क्रिया नय ताते विपरीत है, भेदज्ञान कारन न होय विवहारनय ज्ञानके निहास्ये याको त्याग वैही नित हे; वस्तुको पीछाने निज शुद्धिको विशुद्ध गने शुद्ध नैसरूप एसो सम्यक्को मीत है, रतन त्रितयको सामी देवको अंतरजामी एसो शुद्धनयसो हमारी थीर प्रीत है ॥ २३ ॥
॥ पुनः चंद्रायणः ॥
बाज लिंग यह नय विवहारा, तत्त्वहीन किरिया आधारा; गहण जोग नय शुद्ध कहत विवेकमे, त्यागयोग विवहार ज्ञानकी ढेकमे ।। २४ ।।
॥ शुडनय महिमा ॥ ॥ दोहा ॥
परविमुक्त यह आतमा, चिनमय चंदसमान, आदि मध्य नहि अंत तसु, द्योतक निहचे जान. ॥२५॥
|| शिष्य प्रश्न ॥ ॥ दोहा ॥
को हेय व्यवहार नय ज्ञानहीन पर गेह,
तो कह कैसे वरणयो, जिनशासन मे एह ॥ २६ ॥
૭
॥ अथ गुरुङत्तरकथन ॥ || सोरठा !!
जाणण आतम तत्त, निश्वे नय व्यवहार है, तीर्थ प्रवत्ति निमित्त तिण, दोनय जिनवर कद्या. ॥२७॥
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૪૮૮
द्रव्यप्रकाश.
॥भेदज्ञान माहातमकथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ जे ते केई भव्य जीव लीन ज्ञानमे सदैव करमके बंधको उखारे एक पलभे, ताको मूल हेत एक भेदज्ञानहीकी ढेक छेकते विवेकको विचार जोयुं दीलमे; बंधको विलासमे मगन जेऊ आलु जाम परे कर्मबंधमाहे रूले जगजालमे, तेतो भेदज्ञान वितुं निहचे पिछान्यो देव करमको गाढवाढे अज्ञानकी चालमे ।। २८ ॥
॥ अथ ज्ञानविलाम कथन ॥
॥ सवैया इकनीसा ।। आपा पर भेद लीन आतमा स्वज्ञान पीन करमके पुंजको न आने निज देसमे, वसि निज गुनास भासे आप रूप रास विराजे अखंडरूप आतम प्रदेशमे अनादि अज्ञानके वढावसि गड्योहे ज्ञानभान जैसे दबि रह्यो बढाके प्रवेशमें, तैसे ए पुराणदेव तत्त्वको पीछाने नाही करमको करतार भयो परदेशमे ॥ २९ ॥
॥ आतमाअकर्ताकथन ।।
॥ सवैया इकतीसा ॥ सहज स्वभाव अथ गुरुके वचन सेती जान्यो निज तत्व तब जाग्यो जीवराय है, भेतो परदव्य नाहि परद्रव्य मेरो नाही ऐसी बुद्ध भासि तब बंध कैसे थाय है; देखी जानी गहो तुम परम अनंत पर जाके पर आगे और पद न मुहाय है, प्रमाण
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दव्यम काश.
४८९
निक्षेप नय जाके तेज आगे अस्त ऐसो निज देव सुद्ध मोक्षको
उपाय है ।। ३० ।।
॥ अथ आत्मा मुक्तरूपवरणन ॥ ॥ दोहा ॥
बंधोदय दीरण प्रमुख, ए सब पुद्गल युक्त; इनसो पर निज तेजमय, मैंहु कर्म विमुक्त. ॥ ३१ ॥
॥ आत्माधिरभावनाकथन ॥ ॥ सबैया इकतीसा ॥
पवन के थंभसौ सुभाव थीर रहे जल तेसो ज्ञाता जीव होइ करम वियोगसौ, जे ते ज्ञान नाथके लगेहे परभाव साथ तेते परजानि दूर करे ज्ञानयोगसौ, स्वयंभू चेतनरूप अमल अनंत भूप ताको थिर ध्यान धरो त्यागना तो लोगसौ, आस्रव विनास होते संवरसरूप भयो ताको बंध राखे कौन करम अभोग सौ ॥ ३२ ॥
॥ दोहा ॥
वरणादिक परभाव ए, है सब तनके अंग;
नव नव रंग गहे फकिक, पड्युं उपाधिके संग ॥ ३३ ॥
|| आत्मफटिकदृष्टांतकथन ॥ ॥ सबैया इकतीसा ||
जैसे मणिफटिक सभाव निरमलरूप तैसै थिर चेतन सदाइ निरमल है, तौभी राग दोष मोह आपनी उपाधिसेती वस्यो हे संसार में अज्ञान सौ विकल है, तौभी तजै नांहि कब अपनो
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दत्यप्रकाश
स्वभाव द्रव्य, भूष न कहावे बहु कंचन सकल है, तम पक्ष राहू संग चंद्र राहु योग भयो चंद्र कहा तम होइ नित्य जो विमल है॥ ३४॥
॥ संसारीआत्माकथन ॥
॥कत्रित ।। पर पानति निज मानी गुन निति पर जाने गगाटिक संजोग आत्मपर भावहि टाने, रागी गेपी अहं पुहु विकला मल मिलीयो करे करमको बंध फीरे जोहल फलीयो जिम भूत छाय जुत पुरुष निज भूतभावको इक कहे त्यो जीव एह अज्ञानवसि विविध कर्म बंधन लहे ॥ ३५ ।।
॥दोहा॥ चेतन परके जोगसौ, परको करता होय, या ते परको पर लखे, तजे अकतों सोय. ।। ३६ ॥ ॥ निजउपादेय परहेयकथन ॥
॥दोहा॥ चेतन विन जे ते दरव, ते अशुद्ध परहेय, सुद्ध चेतना संजुगत, नित्य जीव आदेय. ॥ ३७ ॥ पंच द्रव्य जड हेय है, तोमी कहीये जेयः नातै वखानो प्रगट, स्याद्बाद नय लेय. ॥ ३८ ॥
॥अथव्यलक्षण ॥
॥दोहा॥ उपजे विनसे थिर रहे, यह सद्लक्षण जान; सतलक्षनकुं जो धरे, सोई द्रव्य परवान. ।। ३९ ।।
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द्रव्यप्रकाश
४९१
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॥ द्रव्यचतुष्टयसरूप ॥
॥ सवैया इकतीसा ।। धरम अधरम द्रव्य नभ काल च्यारो द्रव्य अरूपी अखंड जड भाव लीये वरते, तामे तिन अस्तिकाय काल विनु जिन कहे गहे गनधार तीन पद अनुसरतैः च्यारो निज गुणवान लछन निधान नित निज निज काज साजे मिले कौन परते, च्यारो सौ वियुक्त नित अधिपितन भवत जीव तत्त सिद्ध होय समुद्र तरते ।। ४० ॥
॥ कालद्रव्य विनुं तीन द्रव्यभाव ॥
॥सवैया इकतीसा ।। धरम अधरम नभ तीनोको इकेक खंध अकिरीय निरंतर जैनमें वखाने है, धरम अधर्म दोनुं असंख्य प्रदेशवंत लोक असमान मान अचल कहाने हे, नभ अंस है अनंत लोकालोक मानवंत गुण परजायमंत अकृत पिछाने है, एते उनसम तोमी ज्ञान वितुं ध्येय नाहि ध्येय एक जीव जो तो लोकालोक जानेहे ॥ ४१ ॥
॥अथ द्रव्यलक्षण ।
॥ दोहा॥ जोतो पुद्गल जीवको, चलन सहाई होय; आप अचल अक्रियनित्त, धर्म द्रव्य है सोय. ॥४२॥
॥ अथ शिष्य प्रश्न ॥
॥ दोहा।। शिष्य कहे सद्गुरु सुनो, यह हम मनमें भर्म जगमै पुद्गल जीवको, कैसे प्रेरे धर्मः ॥ ४३ ॥
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द्रव्यप्रकाश
॥ गुरु उत्तर कथन ॥
॥दोहा॥ जैसे जलचर जीवकुं, चलनसहाई नीर; तैसे पुद्गल जीवको, चलन सहाए वीर ॥ ४४ ॥
॥ अधर्म द्रव्य लखन ॥
॥दोहा ॥ अधर्म द्रव्य जो थिर करे, जीव पुद्गलको साहि, मध्य दीह ग्रीषम समे, ज्यु पंथी तरुछाही. ॥ ४५ ॥ ॥ आकाश द्रव्य लक्षण ॥
॥दोहा॥ जो देवें अवगाहना, सो आकाश कहेवाय, गुणपरजयजुत जा समें, पांचौ द्रव्य समाय. ॥ ४६॥ ॥ अथ सामान्य अष्ट गुण कथन ॥
॥ कवित ॥ पहिलो अस्ति सभाव वस्तु सभावता बीय गिन तीजो द्रव्य सरूप गुन चतुर्थ परमेय परमान पंचम अगुरू लघुत्व छठो सप्रदेश कहीजे, सत्तम चेतनहीन आठमो अरूप लहीजे, ए आठ द्रव्यके जाति गुन कदाकाल नाविभचरै, धर्मादि द्रव्यत्रय नीत्य ए आठौं गुन नित्यप्रत्ये धेरै ॥ ४७ ॥ गति हेतु कह्यो धर्मथित हेतु है अधर्म अवगाह दैन तो अकाशहीको गुन है तिनौ ए विशेष गुन कहै तिनौ द्रव्यहीके अब गुन तीनवीध कहिवेको मन है, द्रव्यको विशेष गुनयहै असाधारन
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द्रव्यप्रकाश.
४९३
है साधारन गुन सतपदको कहन है, अचेतन रूप विनु तदुभय गुन कह्यो गुनपर्याय द्रव्य ज्ञानयोग नहै ॥ ४८ ॥
॥ द्रव्यपाय कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ गुनके विकारपर जाय कहे जिनराज स्वभाव विभावरूप ताके दोय भेद है, सुधपरजायतो अगुरु लघुके विकार हानि वृद्धरूप जाके बारह विभेद है; अनंत असंख्य संख्य भाग हानि गुणहानि एतौ छहौ हानी छहौ वृद्धियुं अखेद है, एतौ परयाय छहौ द्रव्यको समान भाखे उरि परयाय गुन सुनन उमेद है ४९॥
॥विभावपर्याय कथन ॥
॥ दाहा॥ खंध थान गत भेद ले, कहनो वचन विलास, परपर्याय धर्मादिके, ज्युं घटमठ आकाश. ॥ ५० ॥ ॥ आकाशदुविध कथन ॥
॥ दोहा ॥ सो आकाश द्वैविध भयो, यद्यपि है एक खंध, लोक अलोकनीके सबे, कहो लक्षन संबंध. ॥ ५१ ॥ ध्रुव उत्पादन अंतजत, जहां एक आकाश, सादि अनंत अपार जड, सो अलोक परकास. ॥५२॥ जामें गुणपर्याय जूत, छहौ द्रव्यको वास, आप असंख प्रदेशधर, सोहे लोकाकाश. ॥ ५३॥
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द्रव्यप्रकाश.
॥ अथ शिष्य प्रश्न ॥ || सवैया इकतीसा ||
धोकाकाश मान अधरमताकेमान असंख्य प्रदेशी एक जीव युं अनंत है, लोकालोक नभसम पुद्गलअणु द्रव्य कालके सुछसमें वरतना अनंत है; आधार लोकाकाससो प्रदेश ते असंखराशि वास यान तुछ अरू आधेय महंत है, ताते कैसे ए समाय कहो सामी को उपाय द्रव्य रिती थिति कीतौ हम मन भ्रांति है ॥ ५४ ॥
॥ अथ गुरु उत्तर || || सवैया इकतीसा ||
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जैसे एक जलधाउं तदमित जलभृत तामे तदुचित्त सरकरा गलि जाय है, तामे लुणका करकौ गारिडारे बारडारे तामे सूइको समूह षोभे ठहराय है; जैसे एक गउंमांहि पांचौ वस्तु टहराहि जलादिक तहकीक प्रगट दीसाय है, तैसे लोकाकाशमांहि पाचौ द्रव्यमाय जाहि अवगाह गुनकी समकि कहयाय है ।। ५५ ।।
|| अन्यमति प्रश्नोत्तर कथन || ॥ सवैया इकतीसा ॥
अन्यमति पक्ष गहे है यही बात सब धरम अधर्मं द्रव्य जगमांही नाही है, परतक्ष दीसे नाही अनुमान ज्ञान नाही उपमान शब्दांही एती न कहाही हे ताते जैन कहे न अनुमान लेकै यथा इंद्री अगृहीत भाव जगमाहि होही हैं, गतिहेत सो उहेत दधिवृत घृतवत् तैसे अरूपी नित्य द्रव्य जगमांहि है. ॥ ५६ ॥
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द्रव्यप्रकाश.
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४९५
॥ अन्यमति प्रश्नोत्तर ||
॥ सवैया इकतीसा ||
कालवादीकी उकती गत थिती रीत इत कालके अधीन दीन हीन मत पीन है, बुध कहे कालगुन नव पुरातनपन दोय क्रिया एक द्रव्य कबहु न कीन है; पंचभूत वादी कहे गति वाउ भूत छति थितिरीत समसत्त प्रथवी अधीन हे, बुध कहे वायुभूमि जीव yere army बल और याको बल तौन बीन है ॥ ५७ ॥ ॥ दोहा ॥
या ते पुद्गल जीवको गति थिति हौत सदीव;
"
धर्म अधर्म दो क्रयजड, इनको ज्ञाता जीव ॥ ५८ ॥
॥ कालद्रव्य लक्षण ॥ ॥ दोहा ॥
वरतन परणति जासु नित, क्रियापरा परवान; नव जीवनको हेतु जो, कालद्रव्य सो जान. ।।५९ ॥
॥ कालद्रव्य गुणपर्याय कथन ||
॥ सवैया इकतीसा ॥
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अस्ति आदि अष्टगुन युंत अप्रदेशी नित समेकौ मीलन विनुं नाहि अस्तिकाय है, वरतना हेतुए विशेष गुन कहे जिन अगुरु लघुत्व भेद याके परयाय हे; आवली प्रमुख पर परजाय हे अनंत उतपाद व्यय ध्रुवमंत कही वाय हे, सो तो द्रव्य एक कहे समय अनंतवंत नरखे नमित वरतनाको उपाय हे ॥ ६० ॥
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४९६
द्रव्यप्रकाश
॥ शिष्य प्रश्न ।
॥ चोपाई ॥ शिष्य कहे तुम काल प्रवाना, मनुज खेतमित करो सुजाना; उत्पादादिक सब जगमाही, समैसमैमें क्युं कहवाही॥६१॥
॥ अथ गुरु उत्तर ॥
॥ सवैया इकतीसा॥ तब आचारिज एक गहि जिनमत टेक कहे एसि वात परवान पक्ष गहिकै, नरखेत समे मितकालमांही तीनो हीहि छहौ द्रव्यमांही नीत देखे ज्ञान लहीके; ताते उपदेशमाहि कहे जिन वैन एसे गहै गनधार सरधान सुध वहिकै, देख्यो युं अनंत जीन देखेगे अनंतफुनि देखत हैभी अनंतज्ञान सरदहिके ।। ६२ ।।
॥ अन्य आचारिज वचन ।।
॥ सवैया इकतीसा ॥ कहे और गुरु काल द्रव्य हे असंख्य थिर रेणुंकए लोकपरदेश परवान है, एकएक रेणुकमै अनंत प्रगट होत समय सरब समे काज परधान है। निज निज काज करे अनमिलपने सदाय ते अस्तिकायको कदापि न कहान हे, अनंत अतीत काल वेतो अनागतकाल अप्रदेशी परिणामी कालद्रव्य मान हे ॥ ६३ ॥
॥ निश्चयकालमरूप कथन ।।
॥दोहा॥ मनुज खेतमित जो कह्यो, सो व्यवहारीकाल; निहचे पांचो द्रव्यकी, कालवृत्तना चाल. ॥ ६४ ॥
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ट्रव्यप्रकाश.
४९७
कालद्रव्य उपचारहे, पंच अस्तिकी चाली; ओर कथन सत्र शास्त्रके, सो उपच्यारि भालि. ॥६५॥
॥ हेयउपादेय विवेचन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ उतपाद व्यय ध्रुवपनै जीवसम एमी अगुरुलघु वै परजायभी समान हे, अरूपी अखंड अज अनादि अनंतसंत अनमिल औरसे तीलोकके प्रवानहे; इत्यादिक गुनसोस मान तौभी ए अजान तातै ध्यानध्येयमां ध्येय ज्ञानवान् है, अनंत त्रिगुणसाथ देवचंद गुणनाथ ध्येय उपादेय ब्रह्म ज्ञानको निधान हे ॥ ६६ ॥ ॥ इति द्रव्यप्रकाशको प्रथम अधिकार ॥
॥दोहा ।। वरने च्यारो द्रव्यपर, जेह अरूप अजान; अब वरनौ संक्षेपसौ, रूपी जड परमान. ॥ १ ॥ ॥ अथ आतमाकरमयोगको दृष्टांत ।।
॥ सवैया इकतीसा ॥ जैसे नीरनिधि नीर समीरकी भीर भेती उछरे उतंग अति चंचलता विससे, डौलतनदीकोनाथ चपलकलोलसाथ रंचनसु थिर होइ आकुलता मिलसे; तैसे ए चेतनभूप अमल अडोलरूप अखंड अनंत ज्ञान सुद्धर समेवसे, सोइ जीव कर्म प्रेयों मोहके पवन धेर्यो फेर्यो फीरे ममतासो क्षोभ भाव क्रोध सौ ॥२॥
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द्रव्यप्रकाश.
॥ पुनः दृष्टांत ||
जैसे माटी जलसंग - बट दीपकादि चंग - नवनव भाव घरे मृदरूप बोइ है, तैसे कर्मजल जोग-जीव च्यारगति रोगलहेयें अखंड व चेतनत्व सोई है; ऐसो निज गुणवंत - अमल अखंड संत- ताहिको सरूप गहि सिद्धरूप जोइ है, कहे देवचंद वंदि ऐसे चिदानंद वितु मोक्षको साधक भइया और नही कोई है ॥ ३ ॥
॥ पुद्गल द्रव्य लक्षण ॥ ॥ दोहा ॥
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पूरण गलणन सभावधर, अस्तिकायमूर्त्तिक, फरसे वरण रसगंधमय, पुद्गलद्रव्य सु ठीक ॥ ४ ॥
॥ अथ पुगलगुणपर्याय कथन || ॥ सवैया इकतीसा ||
जाके मूल गुनगनि रूपी अचेतन भनि अस्तिपन आदि ae आठे ओघ गुन हे, पुरनगलनरूपी अनुकौ विसेस गुन है असाधारन के उरमाही जैन हे ||; हानिवृद्धिषटविध मूल परयाय याके द्वणुक प्रमुखखंध परजायआने है, एकवर्ण एक गंध एक रस द्वै फरस पांचो गुन याके मूल परीयैयजाने हे
॥५॥
|| पुद्गल द्रव्य सरूप ॥ ॥ दोहा ॥ अन्यसंधसौ मिलनकी, यामे सकति सदाय, याते परनासी प्रगऊ, अस्तिकाय कहेवाय. ॥ ६ ॥
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द्रव्यप्रकाश.
पुद्गल द्रव्य अनंत हे, सब नभ अंस समान, ताके खंध अनंत हे, नरदपास संठान. ।। ७॥ सो पुद्गल है दोय विध, इक अणु दूजो खंध, खंध दुविध एक जीव, विनु बीय कर्मको बंध. ॥८॥
॥ पुद्गलखंध स्वरूप ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ छुटे अनुहे अनंत तेभी खंधमे मिलत अणुके सकंध होय खंध अनु होय हे, जे ते अनुहे अनंत ते ते खंध होय नाहि ऐसी वात कहे सोतो मुरख अबोह हे; तासै कहे द्रव्य पुद्गल परावर्तकाल मिले कैसी भांति जाकी पुद्गल सोहहे, अनुगति जीवसम थीतिहे अमीतनित कही अनुवात अब खंधको प्रबोहहे ॥९॥
॥ पुद्गलपर्याय कथन ॥
॥दोहा ।। छाया आतप तेजतम, सबदबंध लघूथुल, विठुरन मिलन प्रवाहगति, इनको पुद्गलमूल. ॥ १० ॥ केइ इंद्री गम्य हे, केइ अगम्य निरधार, संखअसंख अनंतअनु, त्रिधा खंध विस्तार. ॥११॥ ज्ञानहीन जडहेय सब, उपादेय जीउ सार, अब वरनौ निज ज्ञानहित, कर्मबंध विस्तार. ॥ १२ ॥
॥ अथ कर्महेतु कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ पंचमिथ्याको अविरत बारसंच पंचविस संपराय योग पंच
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५००
द्रव्यप्रकाश -~दस हे, एतै सगवन हेतु कर्मबंधहीकै खेत ताके भेद चौ प्रकृति थितिरस देस है; प्रकृति सभावथिति कालठहरा वरस चिकणाई दल समुदाय परदेस हे, करे निजनिज काज भावकर्मके समाज मोदकको दृष्टांत च्यारोमे अवस हे ।। १३ ॥
॥ कर्म अष्टप्रकार कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ प्रथम ज्ञानावरणीय ज्ञानको अछादलेय आंखपर पट जैसे याको सब दाव हे, भेदमति आदि पंच पांच्यो निज गुण वंचे क्षायकक्षयोपशम यामे दोय भाव हे; दरसन उछेदक दरसना वरनीय प्रतिहारसम ध्रुवबंधी ठहराव हे, दंसनावरन च्यार निंद पांच परकार यामे दोय भाव मोहद्रष्टिको उपाव हे ॥ १४ ॥ वेदनीकरमभर अव्याबाव रसहर ताके दोय भेद एक साताभी असाता हे, असाताको पाप हेतु साता हेतु पुण्य होत मधुलेपयुत असिधारासी चटात हे; मोहनीके भेद दोय सनके तीन भेद जगमे कहात हे, मिथ्यामोह मिश्रमोह समकित कंखामोह तिनौइ प्रकृति निज गुनकेरे घात हे ॥१५॥
॥मिथ्यामतवरणन॥
॥ सवैया तेवीसा॥ देहसौ प्रीत प्रतीत अनीत सौ पून्यकी रीत सौ जाकी मिताई, जीव अजीव विवेककी ढेक न जानत नां कछु आप पराई; करै बहिरंग दयादि क्रियाफुनि अंतर ज्ञान भगति न पाई, चंद कहे जिनचंद कृपावसि ऐसी मिथ्यामति जाई पुलाई
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द्रव्यप्रकाश..
५०१
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॥ मिश्रष्टिवरणन॥
॥दोहा॥ वीतरागके वचनपे, नाहि राग नहि द्वेष, फलभक्षीनर अन्नज्युं, मिश्रमोहसे लेख. ।। १७ ॥
॥ सम्यकदृष्टिलक्षन ।
॥सवैया इकतीसा ॥ ज्याको तन प्रीति नांहि सातापर भिती नाहि ज्ञानरीति लीयो निज नीत माही वसेहे, निसंकादि अष्ट सिष्ट इष्ट निज गुननिष्ट अंतरंग बहिरंग संतरस लसेहे; इंद्री सुखसु विमुख सिक सुख सनमुख निज ज्ञान रूपसौ कलुष भाव नसे है, वरते धरमराग देवादिकपे सराग याते समकीत मोह राग संग हसे है ॥ १८ ॥
॥दोहा॥ मिथ्यामोह अशुद्ध दल, सुद्ध सो समकीत नाम: श्रद्धा सुचि रुचि तो सही, अति चार परनाम. ॥१९॥
॥ चारित्रमोहनीकेभेद ॥
॥चौपाई॥ चरनमोहके द्वै परकारा, तिहां कषायका बहु विस्तारा; नोकषायकी नवविध धारा, अब वरनो लछन परचारा.।।२०
॥आयुकर्मभेद ॥
॥दोहा॥ भवविपाकिगल जेलसम, अनवगाहको खेदा नरनारक तिग्ग अमर, आउकरम चौभेद. ॥ २१ ॥
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ट्रव्यप्रकाश.
॥ नामकर्मभेद ॥
॥ दोहा ।। नामकर्मके भेद बहु, वरणत बडे गरंथ; ताते वरनौ नाम कबु, जासे कछु अरथ. ॥ २२ ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ पैसठि प्रकृति पीड अठावीसहे अपीड सब मिल्यां नामभेद तिरानु कहानहे, तनपंचदशमांहि पांचको गहन कीजे वरनादी वीसमांही च्यारोइ गहनहे; तब सडसठी भेद भये बंधमांही गहे उदय उदीरनामे इनढुको मानहे, सत्ताके सरूपमांही त्रानवेकोहे उछाही देवचंद कर्ममुक्त सदा सुखथान हे. ॥२३॥
॥अथगोत्रकर्मभेद ॥
॥दोहा ।। उंच नीच दो भेदको, गोतकरम जड जान; मुंदे निजगुन अगुरुलघु, कुंभकारसम जान. ॥ २४ ॥
॥ अंतराय पांच भेद ॥
॥दोहा ॥ दान लाभ बल भोगको, वली उपभोग प्रकार इन पांचोको मुदले, अंतराय सो धार. ॥ २५ ॥ ॥ अष्टकर्म उत्कष्टधीति कथन ॥
॥दोहा॥ ज्ञानदर्शनावरण अरु, वेदनीय अंतराय, इनकि कोडाकोडी थीति, सागर तीस कहाय, ॥२६॥
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म्यप्रकाश.
सित्तरी कोडाकोडी थीति, मोहनीयके वीस; सागर कोडाकोडी थीति, नामगोतके वीस. ॥२७॥ ॥ अष्टकर्म जघन्यथीति ॥
॥दोहा ॥ पंचकर्मकी जघन्य थीति, एक महुरत होय; परमदेव अरु नरककी, सागर तेतीस जोय. ॥ २८ ॥
॥ अथ रसबंध कथन ।
॥दोहा॥ सर्वघाति उत्कृष्टरस, देस घातको मध्य गुन अवातीको हीनरस, आगममांहि प्रसिद्ध. ॥ २९ ॥ वरणगंध अरु फरस ते; रस अनंतगुण होयः कर्ममाही रस अनंत विनु, कर्म न बंधे कोय. ॥३०॥ ॥ अव प्रदेशबंध अष्ट वरगना सरूप कथन ॥ .
॥ सवैया इकतीसा ॥ उदारिक बैक्रिय आहारक तेजससौ भासा सासोस्वास मन कारमण अंतहे, एकाणुक आदि लै अभव्य जीवसौ अनंत . उदारिक अगहन गहन अनंतहे; वैकरीकी अगहन ताही सो अनंत तासो वैक्रिय गहन वरगना अनंत हे, आठोइ अनंत पुद्गलदल वृद्धमंत इनसौ विमुक्त देवचंद महासंतहे ॥३१॥
॥ अथ कर्मदल विभंजन कथन ।।
॥ सवैया इकतीसा ॥ परयो मोहकर्मपास बंधे आठ कर्मफास तब सब थोरे अशु आउके बखानीये, ताते नामगोतकर्म अणुहे अधिक ताते
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व्यप्रकाश
ज्ञानदंस आवरन अंतराय ठानीये; ताही ते अधिकमोह कर्म परमाणु होत ताहिके अधिक वेदनीयके पीछानीये, याते तुछ अणुदल वेदनी प्रगट नांहि सरस निर सरूप भोजन ज्यु जानीये. ॥ ३२ ॥
॥ दोहा ॥ सर्व घाती परमाणु अति, देसघातके हीन; वीभजै बंधसमे तुरत, सक्ति जीवकी पीन. ॥३३॥
॥ जीवमहिमा कथन ॥
॥ दोहा ॥ इत्यादिक बहु कर्मदल, इनमे लपट्यो जीव; लहे विविधविध बंधको, तौभी मृक्त सदीव. ॥ ३४।।
॥ आतममहिमा ।।
॥ सवैया इकतीसा ॥ पुद्गल हे प्रगट चेतन है गुप्तरूप अणु मुरतीक ठीक जीव मूरतीन है, पुद्गल हे अजान जीव लोकालोक जान ज्ञानादिक गुनथान थिरतामे लीन है। चिरकाल कर्मसंग रह्यो तौभी कर्ममुक्त विवहारपक्ष गहे कर्मके अधीन है, अक्षर त्रिगुणइंद देवचंद ज्ञानवंद अक्षर सभाव लीये अक्षरस पीनहे. ॥३५॥ ॥ इतिश्री द्रव्यप्रकाशको द्वितीयद्वारं संपूर्णम् ।।
॥दोहा॥ वरण्यो पुद्गल द्रव्यको, संक्षेपे अधिकार अब वरनौ संक्षेपसौ, जीवदार सुविचार. ॥ १ ।।
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॥ जीवस्वभाव कथन ॥ ॥ सयैया इकतीसा ||
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|| जीवलक्षण ॥
॥ दोहा ॥
तिहुं काल जयवंत जो. चेतनता गुणखानि, लिपै न परके लेपसौ, सोउ जीव बखानि ॥ २ ॥
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कर्मको करता न भोगता न करमको आतम धर्मवंत परम अफंद है, असंख्य प्रदेशवर चेतना रमणीवर अस्तिआदि खटपर कारगुन कंद है; परभाव भावित सदाई अपरभाव निज परभाव भवभीती अमंद है, अनंत अमोदवंत संतसत्तावंत संत सदा देवचंद है || ३ ||
॥ जीवद्रव्यके व्यार पर्याय कथन | ॥ सवैया इकतीसा ||
मूल परजाय है अगुरुलघुको विकार खट हानि वृद्धिरूप द्रव्यको सरूप है, परपरजाय नर नरकादि अवधार मति आदि परजाय व्यंजन अनूप है; स्वभाव द्रव्यव्यंजन ए परजेचर मतनुं ताते न्यून सिद्ध अवगाहना अरूप है, अनंत चतुष्क गुण व्यंजन के परजाय निजकाज करतार निजगुण भूप है ॥ ४ ॥
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॥ एक द्रव्य एक क्रिया करे यह कथन ॥ ॥ चोपाई ॥ दोय द्रव्य एक किरिया न करे, दोय किरिया इक द्रव्य भिन्न धरे; एक वस्तु एक किरिया गने, यह यथार्थ जिनराज वखाने. ॥५॥
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द्रव्यप्रकाश
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॥ शिष्यप्रश्न ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ निहचे असुद्धनय व्यायरागादिक चय ताहीको व्यापक होय कर्मसौ करतुहे, सोई. व्यवहार लई वेदक सभाव गहि गतसमय कृत क्रिया फलको गहतु हे; कृतकर्म भोगता हे नुतनको करता हे एक समे एक जीव क्रिया दौ धरतु हे, हमकुं संदेह एह कहो गुरु गुनगेह तुंहारे सिद्धांत वीचीके सो अमिमतुहे. ॥ ६ ॥
॥ अथ गुरुउत्तर कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ सुद्धपने अपने गुनको करता यह जीव जथारथ एही, ज्ञान सरूप अनुप सधे गुण रासि वधे गतरोष अनेही; भावत कर्म करे पर योग विभाव संजोग अज्ञानको गेही, ताही ते द्रव्यत कर्म उपाधि लगे जीउको किरिया द्वयकेही ॥७॥
॥दोहा॥ विदुष रागादि पर, कीने ताके रोध; द्रव्यकर्मको रोध हे, ताते निर्मल बोध. ॥८॥
॥सवैया इकतीसा ॥ ज्ञानरूप ज्ञानमांहि क्रोध भाव क्रोधमांहि ज्ञान क्रोध एकतान होय कहुँ वातमे, ज्ञानरूप आतमामे रागदोष मोह नाही वस्तुको स्वभाव भेद सुद्धताके ध्यानमे; एसो ज्ञान धरे सोतो कर्म कोन बंध करे वरे न अशुद्ध मोह जग्यो भेद ज्ञानमे, चेतनाहे जीव वस्तु कर्म पुद्गल वस्तु वस्तु गुण कृति भेद जिनके वखानमे. ॥९॥
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द्रव्यप्रकाश.
॥ संवर हेतुकथन ॥ ॥ दोहा ॥
जान्यो आतम ज्ञानसो, आतम आस्रव भेदः तब आस्रव संवर भयो, गयो कर्मको खेद. ॥१०॥
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॥ अथ ज्ञाताजीववरणन ॥ ॥ सवैया इकतीसा ॥
॥ उपदेशकथन || ॥ सवैया तेवीसा ||
५०७
काहुं एक संत जीव निज गुन गहि लीने पर गुन त्याग जोग पर जानी त्यागे है, विरम्यो विरुद्ध सेती रम्यो निज गुन रेती मोहके सुभट जेते ते ते दूर भागे हैं; रातौ निज आतमासो दूर टरयो हेतमांसो विमुख होय ज्ञान ध्यान लागे हे, ऐसे सुद्ध जीव देव करे नही कर्म देव सुखता सुधाह पाये संतरस पागे है ॥ ११ ॥
मूरख जीव धरे चित्तमे कहा जल्प विकल्प सदा दुखदाई, घ्यावहु ब्रह्म सदा अति उज्जल दूर तजो सब सोज पराई; दर्शन लाभ यहै जगमे वर जीवको काल अनंत सदाई, वदे देवचंद रहो हम सो ध्रुव अक्षर त्रय गुण प्रीति सदाई ॥ १२ ॥
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॥ रागादिकसौशिष्यप्रभ्नगुरुउत्तरकथन ॥ ॥ सवैया ॥
कोउ कहे रागादिक चेतनसो भिन्न नाहि आदि विनुं सदा काल एकही सभाव हे, कैसे अणुरागी नाही रागी कहो
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५०९
द्रव्यप्रकाश
जीवहीको या ते जीव रागादिक तादातम्यता दाव हे; संत कहे बंध्ये वितुं छुटो कहनो असत्य रागादिक एक माने मुक्तिको अभाव हे, या ते यह तहकीक कही देवचंद्रवात रागादिक पर द्रव्य कर्मको विभाव हे. ॥ १३ ॥
॥ आतमशिक्षा कथन ।
॥चौपाई ॥ सदा अनंत विकलपजल्पको धारते कहा बंधतहो कर्म नीकशी निज कार तेजो; विकल्प विनु एक नित्य निज अनुभवो, तो न करो पर बंध धरो न भव नवो. ॥ १४ ॥
॥ अथ ज्ञान महिमा ॥
॥दोहा॥ यह परमातम ज्ञान गुन, भवतरु छेदनहार; ध्येयरूप आदेय फुनि, मुनिजन मन आधार. ॥१५॥
॥शिवभवहेतु कथन ॥
॥दोहा॥ जिनवर जन सुखकर कह्यो, यह उपदेश उदार; शिव थानक निज गुन गहन, निज गुन त्याग संसार.॥१६
॥ जीवमहिमा॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ जामे इंद्री पंचनाही कर्मको प्रपंच नाहि मनको न रंच जामे तनको न अंगहे, नाहि कर्म हेतु खेद मार्गनाको भयो छेद ध्यानध्याता भेद नत वचन तरंग हे; शांत ध्रुव निरूपाधि
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द्रव्यप्रकाश
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moria छिन्न पर क्रिया व्याधि पर द्रव्य न असेस लेस न अनंग हे, ज्ञान जोतिमा समान रतन त्रितयको जान ऐसो सुध नित्य देव मेरे घट संगहे. ॥ १७ ॥
॥ भेदज्ञानमहिमा कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ ऐसे कोउ जैननर भेदज्ञान भावधरि जीवकर्म भेद कीनो हंसक्षीर नीर ज्यौ, मोहको विनास कीनो आत्मगुन गहेलीनो भीनो शुद्ध धरामांहि जैसे जयवीर ज्यौआपविषे थीर भयो आपही आनंदरूप सुद्धस्वीय ध्यानध्येय ध्याता होय धीर ज्यौ, सुद्धबुद्ध वर्यो दुनो सुनौ भयो कर्मपुर ऊनो कीनो रागदोष पायो भवतीर ज्यो ॥ १८ ॥ ॥ स्यादवादशुद्धचेतन स्वरूप कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ जामें उतपात व्यय ध्रुव धारा तीनो एक समे विची होइ रही गुणपर्ये ज्ञानमैं, एक है अनेक है कि करता अकरता ते भोगता अभोगता वखान्यो जिनशान, बुझ शिव ब्रह्मारूप मतिचेतनासरूप पुरन प्रकाश भये जिन जैन थानमैं, एसो शुअचेतन तन कितन संगतिसौ नट जैसे बाजी खेले भवके चोगानमैं ॥ १९ ॥
॥शिष्य प्रश्न ॥
॥दोहा॥ शिष्य कहे सद्गुरु सुनो, यह हम मन संदेह, जातिभेद ते क्युं भयो, जडचेतनको नेह. ॥२०॥
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NamaAmAAAAAAAAAAA
|| गुरु उत्तर ॥
॥दोहा॥ विर्षे पुद्गल मूर्छा करे, मदिरासे प्रमभावः चमकमे आकर्ष गुण, नवनव पुद्गल दाव. ॥ २१ ॥ त्यु ज्ञानावरणादि तर्नु, सक्ति जीउकी तोरस करहि विकल अज्ञानसो, फेरे भवकी दोर. ॥ २२॥
॥ शिष्य प्रश्न पुनः ॥
॥दोहा॥ हे स्वामी अणुद्रव्यमें, एति शक्ति न होय; जीव ज्ञानता मूदले, चेतनको गुन खोय. ॥ २३ ॥
॥ गुरु उत्तर कथन ॥
॥ सवैया तेवीसा ॥ कोउ पुमान पीये मदपानज होय विशुरू करे विकलाई, बुद्धिकी वृद्धि करे घृतब्रह्मीको मूर्छित जीव हुवे विखपाई, दर्शन कर्म उदै लहे नींदको जीवको जानपनो सब जाई, त्यु यह पुद्गल कर्मके खंध मीले जीउ शक्तिको लेहु दबाई. ॥२४॥
॥दोहा ।। छतो अज्ञान अनादिको, जीउको करे विकार अछती वात न होय कब, गगनकुसुम ज्युं धार. ॥२५॥
॥ शिष्य प्रश्न ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ शिष्य कहे सत्तारूप स्वभाव विभाव माने एकता प्रसंग होत द्वैतभाव नसेहे, अनुग्रह उपघात वस्तु शक्तिको प्रकास
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यमकापा.
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ताहीको विनाश दोनुं पुद्गलमे लसेहे; अनादिता कहे याको प्रसंग अनंत होत जेसे ज्ञान चेतनको योग सदा वसेहे, एते दोषवंत वानि तुम कहि कहा जानि गुरुजी हमारो चित्त संसयमांही धसे ।। २६ ।।
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॥ गुरु उत्तर कथन ॥ ॥ दोहा ॥
मिले हेतु विनसे जबे, वस्तु अनादि ज्युं सांत, कर्म भव्य पुंनसे, कनक मैल दृष्टांत. ॥। २७ ॥ आतम करे निजभावको, न करे परपरनाम, स्वस्वभाव किरीया करे, सो पावे शिव ठाम. ॥ २८ ॥ असद्भूत नीचे करे, भावकर्म ए जीव; द्रव्यकर्मको फुनिग्रहे, नयव्यवहार सदीव ॥ २९ ॥
|| शिष्य प्रश्न ॥ ॥ सर्वेया इकतीसा ॥
व्यापक अरु व्यापकको भाव इष्ट को शिष्ट करता करमकौ या नित्यहीकी रितहे, ताहीके अभाव कैसे द्रव्य कर्मपुद्गल करेगो चेतनराम तासौ जो व्यतीत हे; व्याप अरू व्यापकता तनमय गुणसंग परभावसंग ताको कहीवो अनीत हे, तदमे अभाव होत करमको करतार अनादि अनंत जीव कहीबेकी मीति हे ॥ ३० ॥
॥ गुरु उत्तर कथन ॥ ॥ सवैया इकतीसा ॥
कर्मके निमित्त कहे आतमाके परिणाम आतम परिणामको निमित्त पूर्व कर्म है, याते दुहुभावद्दीको हेतु हेतुमंत भाव
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द्रव्यप्रकाश.
लगी रह्यो परभाव मेरो एतो भर्म हे; जेसे लोह प्रमको निमित्त कह्यो चमकको चमककी शक्तिको निमित्त लोहकर्म हे, ऐसे जीव कर्मको संयोग लगी रह्यो तोमी निहचे विचारे मिन्न कर्म जीव धर्म हे ॥ ३१ ॥ ॥अथ मीमांसकमत कथन जैन उत्तर सहित॥
॥सवैसा इकतीसा ॥ मंद कहे सुखदुःख भाव सिव आदिककी करता प्रकृति एक जीव ब्रह्म न्यारो हे, करता न काहुको हे भोगता न होय काको करता दिवाको सब प्रकृतिको प्यारो हे; तासो कहे बुद्ध भैया शिव भेद दोनुं क्रिया एक करे ऐसो बोध कहा सौ विच्यारयो हे, सुखदुखकी निमित्त प्रकृति कहीसो सत्त ताको काके कारिजको कर्नाभोक्ता धारयो हे ॥३२॥
॥जिनवचन ॥
॥दोहा॥ करता भोक्ता ज्ञानको, निहचे ब्रह्म सदैव करे भोगवे कर्मको, विवहारेय जीव. ॥ ३३ ॥
॥ ब्रह्मवादीमत कथन ॥
॥सवैया इकतीसा ॥ ब्रह्मवादी कहे ब्रह्म एकहे अखंड सो तो ध्रुवज्ञान मुद्रा धरि वैकुंठमे रहे हे, ताके सब अंस ए ते दीमे जगमांहि जे ते जङज्ञाता नवनव सब वास लहेहे; पूर्ण नित्य ब्रह्म ज्योति ताकी इछा जब होत तब ताही अंसको भी वैकुंठमे गहे हे, ऐसे सुफ ब्रह्म देवचंद निजाधीन वशे ताको कर्मवसि सुखी दुःखी कोन कहेहे. ॥ ३४ ॥
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द्रव्यप्रकाश. ---- - ----
॥ताको जैनउत्तर कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ।। जैन कहे ब्रह्म रीत इछाभावसौ अतीत गतदोष मोक्षमय इछा दोष गनीये, असंख्यप्रदेशी भी अखंड त्रिलु काल सदा ताके खंड करि वेको हेतुं कौन जानीये; ताते जीव हे अनंत निज ज्ञान गुणवंत नित्यानित्य भावमंत शुद्धनै वखानीये, तामै जे विभाव वसी ते ते भववासी कहे जे ते कर्ममुक्त ते ते सिद्ध बुछ मानीये ॥ ३५ ॥
॥ अथ बौद्धमतकथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ बुद्ध कहे प्रथम समे मे जोउ जीव हुतो दुतीय समेमे सोउ जीव वस्तु नाहीहे, कर्ता हे कर्मकु जो सो तो भोगता न होय करे और लहे और मेरे मत मांही हे; जैसे जीव तैसे और वस्तु सब युही माने जाने न सरूप शुद्धबुद्ध रीति सोही है, परजै सभावको सर्वथा द्रव्य कहे रहे मद मत निज धोध धारा ढाही हे. ॥ ३६ ॥
॥जैनकथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ जैन कहे. वस्तुरीत्य नीयत दरव नय नित्य निराबाध पर जायनै अनित्य हे, समै समै नयो होय तब कैसे एसी बात जाने यह मेरो कीनो यह मेरो कृत्य हे; बालपने कीनो काम वृधपने याद आवे एकांत अनित्य पक्ष गहवै असत्य हे; ताते
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उतपात व्यय ध्रुव धारा तीनौ सदा एक समे एक वस्तु वीचि कही सत्य हे. ॥ ३७॥
॥ न्यायमति ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ ऐसे वानी सुनी मनमांही न सुहानी तब न्यायमति बोल्यो निज पक्षको पकरीके, नारी विनुं होय कैसे संतानके उपज न भोजनको करे कौउ पाक विनुं करेके उद्यमके कीये वितुं कैसे कार्यसिद्धी होत उद्यम प्रधान याते कहो और हरिके, याते करतार जीव कह्यो विश्वनाथ ऐसे वीरजको फोरि निज उद्यमको धरिके ॥ ३८ ॥
॥ताको जैन उत्तर कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ जैन कहे एतो बात कही हे एकंतनय स्यादवाद बादी ऐसी वात नाही कहे हे, चेतनको वीरज जागे भागे परभाव सब याते यह उद्यम व्यौहारमाही गहेहे; कर्म उदै उद्यम सो गुन त्रय वहेहे, कर्मको स्वामित्वपनो भेदज्ञान भाव विनुं अहं बुद्धि भाव वसि चेतनजी लहेहे ।। ३९ ।।
॥ शिवमनि कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ।। शिवमति कालवादि कालपक्ष गहे रहे, कहे सब जगवात कालमत पीन हे, कालवसि बालक सो युवा होय वृद्ध होय कालपाय वस्तु जो नवीन सोइ छीनहे: कालबसि रितु फिरे
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कालपाय फल खिरे जनममरण वात कालहीमे लीन है, याते सुखदुख रासी शिववास भववास रवि शशि उदे अस्त कालके आधीन है ॥ ४० ॥
॥ जैनउत्तर कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ जैन कहे सुनो भईया जेती कही तुम बात तेती सब साची ये एकांत नाहि गहनौ, स्वभाव नियत पूर्व कृत फुनी उद्यम सो पंचमो तो समवाय कालवसि कहनौ; पांच समवाय मिले फले तव शिवकाज समवाय मिल्यो वितुं काज नाहि सरनो, मतपक्षपात हरी स्यादवाद भाव घरी नय भंग भेद युत एसो ज्ञान धरनो ॥ ४१ ॥ ॥सर्वमत एकत्वीकरन जैनमत स्थापन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ मीमांसक कर्ममानि विवहार पक्ष गहे वेदपाठी ब्रह्म मानी दर्व नय गहतुहे, बोध छिन्न भंग कहे परजाय नय जाय मति कहे करतार उद्यम महतुहे; शिवमति कालवादी सर्व कालाधीन मानी पांचो समवाय तजि टेकमे रहतुहे,. एतै सब अंसवादी अंधगल रीति गहे स्यादवादि सर्व ए अनेकता कहतुहे ॥ ४२ ॥ ॥ अथ षट्दर्शन जैनके अंशरूप कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा॥ विवहार नय गहे प्रकृतिहे मुख्य रूप निहचे स्वभाव
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amanar.nanAmAna ne
ब्रह्म नित्य ज्ञान धाम हे, परजायनै अध्रुव सुक्षम सभाव धर उदिम सभाव लीये करतार राम हे; कालचाल हे प्रवाह पर नाम चक्रगति युं अनेक अंगपान जीव पर नाम हे, एक अंग तजि सवंग गहे सो सुबुद्धी एक अंगरंग रागि सो कुबुद्धि खाम हे ॥ ४३ ॥
॥ अथ स्याद्वादसरूप कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ आपने चतुष्कगुन हेसो नाही परगुन या ते दोनुं वात सम कथन रहतुहे, है भी नाही कह्यो जाय नाहि नाहि कह्यो जाय, कयो जाय हैहत न कह्यो सर्व नयमै कहतु हे; नित्य हे अनित्य हेकी सत्य हे असत्य हेकि अवक्तव्य वक तव्य सब अभिमतु है, एसो प्रभु चिदानंद ज्ञानादि विगुन योग देवचंद पद पाय आनंद लहतुहै ॥ ४४ ॥ ॥सविकल्पनिर्विकल्पज्ञान कथन ।
॥दोहा॥ नव नव गुनमय जीव कह्यो, यह सविकल्प ज्ञान; नास कर्म कर एकमय, निर्विकल्पको ध्यान. ॥ ४५ ॥ ॥ निर्विकल्पमहिमाध्यान कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ अनादि अज्ञान लीये रागदोष मद पीये मोह महातम सो महातम वधारयो हे, जीव लोक जीत लीयो ज्ञानगुन मुद दीयो कीयो निज राज परभावको पसारयो हे; ताको पर
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ताप तोरी कर्म दोरको मरोरी भोरी परभाव राज ज्ञानराज धारयो हे, ऐसो निर्विकल्प ध्यान ताको महिमान मान जाने देवचंद औरको कहनहारो है ॥ ४६ ॥ ॥ अथ निर्विकल्पध्यानहेतु कथन ॥
॥सवैया तेवीसा ॥ ज्ञानको गेह अछेह आनंदको फंदके कंदको छेदनहारो, वीरयशक्ति अनंतको नायक लायक क्षायक भाव उजारो घायक मोहको त्रायक सौहको सोजलीये निजबोधि पसारो, ध्यान एकत्वको हेतु हे आतम यातम तापको तालनहारो ॥४७॥
॥ अथ तनहेय कथन ॥
॥दोहा॥ जोति अनादि अनंतघर, परकरता निज मानी; भयो गेह अज्ञानको, स्वस्वरूप गुनभानि. ॥ ४८ ॥ ज्ञानदृष्टि छुटे भइ, तन परिचे तन प्रांतिः परक्रिय करता भ्रम भयो, मतवाला दृष्टांति. ॥४९॥ जैसे इंद्री भोगपरि, हे तेरो अनुराग; तैसो आतम ज्ञानसु, धरि चित यह शिवमाग. ॥५०॥ जो रूपी सोहे नही, में अरूप चिद्रुपः याते तजी परभाव सब, आतमरूप भजी अनुप. ॥५१॥ जा तनकी ममता गये, आतमतच दृढ होय; ताको जो अपनो गिने, मूढ वृद्ध हे सोय. ॥५२॥ तन ए पुद्गल पिंड जड, तुं चेतन अमलानी; एसो अमिल मिलाप सब, जुर्यो कीसि विधि आनि.॥५३॥
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द्रव्यप्रकाश.
मांस अस्थि रुधिरादिको, करे दुगंछा पेखी; तन्मय तनको निज गने, यह अज्ञानता देखी. ॥५४॥ || सवैया तेवीसा |
देहको नेह तजो तुम चातुर आतुर भाव सदाईन पांही, व्यंतरके पुरसी छिन भंगुर रूपकी सोभ सो बादर छांही; घणा (?) दिनके सबसि दुरगंधके दुषन गेह वदी इनमांही, या तनकी ममता न तजो तो ( लौ, ) आतमज्ञान जगे तुम नांही ॥ ५५ ॥
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॥ दोहा ॥
देहादिकको भिन्न गणी, गहि आतम शीवकुल; परमें निज अभिमानता, यह भव भ्रमणा मूल. ॥ ५६ ॥
|| निस्पृहताभाव कथन ॥ ॥ सवैया इकतीसा ॥
अधरम घाती शिव मारगको संवाती एसो रंच नाही पक्षपाती अध्यातम राव है, परम नरमवर भेदज्ञान भावधर हरि परदोष कर्म नासको उपाव हे; तन मन त्रिया धन योवनादि पर गिनें मोहद्रोहमै नसै न जीतवेको दाव हे, नरककी भीत नांहि सुरपद मीति नांहि भदरीति रित्यौ ऐसा निस्पृह भाव है ॥ ५७ ॥
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||ETET || स्व स्वरूपगत दृष्टिको, नाहि शक्रपद चाहि;
स्व स्वरूपगत दृष्टिको, लघुपद लहे उछाहि. ॥ ५८ ॥ परम ज्योति सुखस्वादरत, योगी जोग विरत; कुथित अन्न ज्युं राग विनुं, जा नहि विषय अनित्त ॥५९॥
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द्रव्यप्रकाशः
आतम अनुभव सुखसो, भ्रष्ट भये दूरबुद्धिः विषयन रति चितमें करे, सुकर कादम लुद्ध. ॥ ६० ॥
॥ आतम स्वरूप वरणन ॥
॥सवैया तेवीसा ॥ मुख सुवृंद अफंद अमंद आनंदको कंद सदा सुख धारी, ऐसो अनोपम आतमज्ञान सुधाधर कुंडमै जीलै अपारी; अनादि
अज्ञानके भर्म लग्यो यह कर्म कलंको मैल पखारी, संत लहे निखानको थानक दर्शनज्ञान चरित्रसे भारी ॥ ६१ ॥
॥दोहा॥ स्व स्वरूप आलंब विजें, शिवपथ और नहीज; मुक्ति स्त्री वश करनको, सोहं ध्यान सुबीज. ॥ २ ॥ जेसे पंकजदल अमल, रहे कर्मसौ भिन्न, त्यौ आतम स्व सभावमय, कर्मखेदनिर्विन ॥ ६३ ॥
॥ इंद्रिसुखहेय कथन ॥
॥सवैया इकतीसा ॥ जग इंद्री सुख जेते ते ते सब दुखरूप कबहुं न समता. हे ममता अनंत हे, जेसे पंथी मरुदेश ग्रीषम समे प्रवेश मध्य दीन नीर विनु भोजन करंत हे; कामभोग रतिमति उचित न तोपे राम पामबाज जेसे दुख राजीमे महंत हे, पन्नग ज्युं दुख देय निहचे सरूप हेय गेय योग उपादेय मागमे अकंत हे ।। ६४ ।।
॥दोहा॥ उत्तम पद ते तुं पर्यो, सो विभाव अनुभावः . तोमी वाहि मेरमें, कहाकहो गुनराव. ॥ ६५ ।।.
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द्रव्यप्रकाश.
|| सवैया तेवीसा ||
यह शरीर हे पीरको पीहरई पर आतमकी दरहेरी, बेरी करेरी परी यह ज्ञायक काई अनेरी रही नही सेरी; ज्ञान सरूपमयी भजि चेतन ए तनये मन प्रीति उधेरी, ज्ञानको मोगर लेकर आतम तोरि तुं मोह जंजीरकी जेरी ॥ ६६ ॥
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॥ शरीर कथन ॥ ॥ सवैया इकतीसा ||
मेतो तनधारी नांहि एतो तन मेरो नांही मेतो ज्ञान गुणधारी करमस्यो न्यारो हे, तो चेतना सरूप एतो जड भावरूप मेरो याको कोन नेह एह न विचारयो है: मेंतो नित्य ए अनित्य प्रगट असुचिखानि हानियान एसो देह मोको कैसे प्यारो हे, मोहके विटंब घेरयो भवकाल थित प्रेरयो ऐसो भेदज्ञान में तो चित्तमें न धारयो है ||६७ ||
॥ परहेआतमाउपादेय कथन ॥ ॥ सवैया इकतीसा ||
सुरू दृष्टि समकिती प्रकृते विरतचित्त करमको करतन कहो कह्यो जात हे, मिथ्यादृष्टि क्रूरमति पररंग राच्यो संतो पर कृत फलहीको भोगता कहात हे; निज परको विवेक करे भेदज्ञान छेक टेक डारिके अनेक यह जैन वात हे परभुक्त गुणयुक्ति भुक्ति विन्तु मुक्तियूत एसो निज चेतनको देवचंद व्यात हे ।। ६८ ।।
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द्रव्यप्रकाश.
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॥ मनसंकल्प कथन ।।
॥ दोहा ।। विकल्प जाल कल्लोल करि, चपल मनोजलफंदा चितद्रह चेतनता दूरि, ज्यु वादरमें चंद. ॥ ६९ ॥
आतमामोक्षहेतु॥
॥ सवैया तेवीमा ॥ आतम आतमभाव धरयो ध्रुव चेतनता गुनज्ञानको साई, ध्यायकव्येय अभेद चिदाकर ध्यावहुं त्याग कैसो जपराइ; चंचल भाव तजो भजि एकता चित तरंग अनंग हराई, सादिअनंत महंत अमीत सो पावहु मोक्ष प्रधान सवाई. ७०॥
॥दोहा॥ परगुण संमुख ज्ञानसो, चेतन परवश होय; निज गुण संमुखता लहे, लहे आतम गुण सोय.॥७१॥
॥ज्ञानथीरीकरण ॥
॥ दोहा ॥ चित्त प्रीति ज्यु देहपै, त्युं चेतनपै होय; तीहु काल भी कर्मको, बंधन लहे न सोय. ॥ ७२ ॥
॥ आत्मा अबंध कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ जडता सुभाव लीये मोह मद पान कीये, एसो परद्रव्य सो तो मेरो धुन नाही हे, मेतो याको नाथ नाहि मेतो नाथ
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द्रव्यप्रकाश.
चेतनाको ज्ञानादि अभंगरंग जाके संग याही हे; अंतरंग बहिरंग अंग परसंग भंगि इंद्रीकी उमंग तजी जामे परछाहि हे, होय जो चेतन एसो जैसो तो सभाव तेसो तोए कर्मबंध पुंज तोकुन कहाही हे. ॥ ७३ ॥
॥आतमासक्रिय कथन ॥
|| दोहा ॥ निक्रिय लोहक्रिया लहे, अयस्कांत मणि योग; त्यु निःक्रिय सक्रिय हुवे, जीव कर्मके रोग. ॥७४॥
॥ परमात्मासरूप कथन ॥
सवेया इकतीसा ।। शुद्धबुद्ध चिदानंद निरद्वंद भी मुकुंद अफंद अमोदकंद अनादि अनंत हे, निरमल परब्रह्म पूरन परम ज्योति परम अगम अकीरिय महासंत हे; अविनासी अज परमात्मा सुजान जिन निरंजन अमलान सिद्ध भगवंत है, एसो जीव कर्मसंग संग लग्यो ज्ञानमूलि कस्तुरमृग ज्युं भुवनमे रटत हे. ॥७५॥ ॥ आत्मज्ञान लाभहेतु कथन ॥
॥ चोपाई ॥ करमकरमकी रजसो न्यारा, जे ध्याहि चेतनकि धारा; लहे नित्यपद तेह अनंत, स्यादवादयुत संत महंत. ॥७६॥
॥दोहा॥ ज्ञानदृष्टि चारित्रमय, एक शुद्ध निरदोष; स्वसरूप एकत्र भजि, करहि करमको सोष. ।।७७॥
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॥ शिष्य प्रश्न ॥
॥ दोहा ।। एक द्रव्यमे तीन गुण, कैसे रहे एकत्र; यह इम मन संदेह है, कहो गुरु परमपवित्र. ॥८॥
॥अथ गुरु उत्तर कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ।। जैसे पीत स्निग्धगुरु तीन गुन भेद विनुं निरंतर आदि लेके कंचनमे रहो है, दहन पचन फुनि तपन ए तिन गुण अगनिमे एकसमें जिनवर कहे हे; शीतल प्रतल वलि निरमल जलविचि तीनो गुण एकसमे स्वभावसे वहे हे, तैसे जीव द्रव्यमांहि ज्ञानादि त्रिगुन रहे निहचेसु भाबसे अभेद रूप गहेहे ॥ ७९ ॥
॥ज्ञानगुन भेदाभेद कथन ॥
॥ चोपाई ॥ जो विचारीये नय विवहारा, तो ज्ञानादि जीवसु न्यारा; राहूसीस जैसे यह लीजे, हेअ भेदपे भेद कहीजे. ॥८॥
॥भेदज्ञान महिमा कथन ॥
॥सवैया इकतीसा ॥ कामभोग लालची दे सब जीव वशी कीने भीने मोहरसमे निरंतर विकल है, ताकी छाक दूरहरि आप पर भेद करि ऐसो भेद ज्ञानगुन अदोष अमल है; धारावाही रीत लीये ताको घरेसो सुबुद्धि करमके मोरनको कारन सबलहै, अकल सकल विनुं सकल जगत परि रहे सिद्धटैक जैसे तोयमे कमलहे ॥८१ ॥
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॥ आत्मबुद्धि उपादेय कथन ॥ ॥ दोहा ॥
आत्मबुद्धि शिवको करे, देहबुद्धि संसार,
ता ते तनधी त्यागकें, करि निजगुनसो प्यार. ॥ ८२ ॥ पुण्य पाप दोनुं प्रकृति, है पुगलको खंधः इनपर आतमबुद्धि जौ, इह करमको बंध ॥ ८३ ॥ || शिष्य प्रश्न || ॥ सवैया इकतीसा ||
दुष्टभाव पापहेतु सुष्टभाव पुण्यहेतु याते दोउं कर्ममांहि हेतुभेद मानीये, पाप उदै हे असाता पुण्य उदे होय साता याते क्षार मिष्टरूप स्वादभेद ठानीये; पापतो कुगति देय पुण्य सदगति देय गतिभेद परतक्ष फलभेद जानिये, पापतो लगे अनिष्ट पुण्य सबहीको इष्ट संकिलेस सोधि सुभानुभेद आनीये ॥ ८४ ॥ ॥ अथ गुरु उत्तर कथन ॥ ॥ सवैया इकतीसा ||
गुरु कहे पाप पुण्य दोनुं कर्म जालरूप हेतु रस गतिफल भेद नाहि लेखीये; कंपरोग पापभोग पुण्यहे अकररोग दोनं दूखखानि विनासिकरूप देखीये; पापसो अरुचिभाव पुण्यसेती प्रीतिदाव मिथ्यादृष्टि जीवकुं ए कुमति विशेषीये, दोनुं जडभावरूप दोनुंकुं अज्ञानरूप इनहीसो न्यारो सोइ समकिती देखीये ।। ८५ ।।
॥ मिथ्यामति वरणन || ॥ सवैया इकतीसा ||
पापसु विमुख अरु पुण्यहिके सनमुख सुगतिसु रुचिधरे
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कुगतिसं डरेहै, करतामे कारजको कीनोमें कारज एसो अहंबुद्धि मातो विपरीति धरेहै; आपको न पहिचाने ठाने भ्रमभाव मन तन धन निजगुन कर्मको करेहे, कपटको आसन अज्ञानको विकासन हे ऐसो मिथ्यामति भवसागरमे परेहै ॥८६॥
॥ पुनः मिथ्यामति कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ आपको न जाने चित परहिको माने वित ठाने भ्रमभाव रत करम कहरमे, चित्तमाही धरे वांक सुखहीकी कांक्ष राखे डोलतनिसांकरां कूमत्तज्यूं सहरमे; हानि थान मलखानि जाने न गिलानि आनि राचे तामे अतिविष वेदज्यु जहरमे, उलट अटत नित लोटन कबूतरज्युं सुलटत नाहिकब मिथ्याकी लहरमे ॥ ८७॥
॥ पुनः मिथ्यादृष्टि कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ करगत जीवनज्यो जीवन घटत नीत बिन छीन छीन तन मन भी बढतु हे, कालकी न वात जाने करे बहुकाल तात तात मात भ्रात संग सातकुं वदतु हे धरम मरम विनु भरमके घर परयो ज्ञान विन क्रियारत पुन्यको रटतुहे, इतनेभी मुरख पुरुष निज रूख नाहि सुख मुखभयो नित दुःखमे अटतुहे ।। ८८ ॥
॥ पुन: मिय्थामति कथन ॥
॥ सवैया तेचीसा ॥ ग्रंथ पढे न बढे कछ ज्ञान, अज्ञानमे लीनज्युं पाथरसे,
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द्रव्यप्रकाश
मौन रहे ग्रहे जोग जुगतिसहि बंधबंधनहे खरसे; आसन मंडि आशा सब छंडि पवनके साधकहै हरसे, इति करतुति करे विनु ज्ञान जे मूढमिथ्यातमति नरसे. ॥ ८९ ॥
॥ मिथ्यामति कथन ।।
॥ दोहा ॥ मिथ्या मति अपराधीनी, परगुन चाहे आप; ज्यु ज्युं परसंपति वढे, त्युं त्युं होय संताप. ।। ९० ॥ ॥ परवस्तु हेय आत्मा उपादेय ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ वचन जुगति चित्त तनदुति मनथिति हित अनहित रति अरतिकी रति है, अंतेउर पुरचर असन वसन वनवस्तु गन अनजहा नयनकी गतिहे; पुण्य पाप आदि देय गेय चेय हेय सब संयोग वियोग थिति जामे नित्य प्रतिहै, अक्षर त्रिगुन साथ देवचंद गुननाथ उपादेयरूप एक आतमा अमितहै।।९१
॥ पुण्य पाप हेय कथन ॥
॥ सबैया इकतीसा ॥ पुण्य पाप पुद्गल मलहे अखिल दल खलगुलढल मान व्यक्ति भेद धरेहे, याते पुन्य पाप रोध कीने निज बोध सोधि व्याधकी समाधि राग रोष (दो ) जरेहे; इंधन अभाव जेसे अगनि उद्योत नांहि बीजके अभाव जेसे वृक्षवृद्धि टरेहे, तेसे भाव कर्म नास ज्ञानचेतना प्रकाश परम अनंतपद देवचंद वरेहे. ॥ ९२ ।।
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॥ आतमशिक्षा कथन ॥
। सवैया तेवीया । करम उपाधि अनादिके बंधन प्रीति लगी तुम्ह चापरसौ, रागरूं रोसको रंग लग्यो जीउ नीलको रंगज्युं कापरसो; पारकी संपत्ति आपनी थापि के थापन ढाचनको तरसौ, भयो तुम ब्रह्मकरमके कारक मूरख रास लगे परसौ. ॥ ९३ ॥
॥ बंधविधि कथन ॥
॥दोहा॥ बंधे अपनी लालसौ, कुलीया वरतीरपंच; त्यु असुद्ध निज भावसो, बंधे आतम खंच. ॥ ९४ ।। ॥मिथ्यामति गुरुउत्तर कथन ।
॥ सवैया इकतीसा ॥ ईश्वरकी रत इन आतमा कहत नित ज्ञान रित मत रत मदमत वारेहे, ईश्वरकी इछा करि नर फिरे बहुपरि नरग सरग तिरजग योनि धारे है; एते परि जैन कहे आतमा अक्रिय संत अरूपी दिगादिवत् अलिपत सारे है, कुगति सुगति याते आनि कोउ नाहि देत निजकृत कर्मफल भोगते बिचारेहै ॥१५॥
॥ अज्ञानमहिमा कथन ॥
॥दोहा॥ मै अज्ञान वीरजसो, त्रिविध कर्मकी आथ; करता भोगता ताहिको, सात धातु मल साथ. ॥९६॥
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|| आत्माएक क्रिया कथन || ॥ सवैया इकतीसा ॥
एक एक कारजके करतार हे अनेक एक एक करताके कारीज अनेक है, ऐसे कहे जीव करतार होय परहीको पर करतार चिदानंदको भी एकहे, एक करतार एक कारजको तहकी स्यादवाद मतमांहि इदै थिर टेकहे ॥ ९७ ॥ ॥ दोहा ॥ चेतन दुरगतिमे परे, पुरस्कृत संबंध
ज्युं विष्टामृत कूपमें, परे मत्त जन अंध ।। ९८ ।। || पूर्वज्ञानबल वर्णन || || संवैया इकतीसा |
आमाको ज्ञान ध्यान मुक्तिको है निदान आत्मज्ञान विनुं शिव कबहु न जानीये, दान दया तप जप उपसम यम दम ज्ञान विनुं एति क्रिया तुछ फल मानिये; याते दोनुं व्याप्ति जानि आतमा एकंत आनि मन तन वा निरोधी सिद्धसोधी आनिये, यहै निरखान थान यहे हे केवलज्ञान आनकर कुतिवानि दोषमे वखानीये ॥ ९९ ॥
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॥ अथ आत्ममहिमा | ॥ सवैया इकतीसा ॥
धरम अधरम द्रव्य एक असंख्यातदेश उपचार काल नभ अनंत प्रदेश है, जीवहे अनंत ताते पुद्गलहे अनंत द्रव्य द्रव्यमे अनंत गुणको प्रवेश है; गुण गुणमे अनंत परजाय परिणति ज्ञाता सब भावको परम गेय देश है, अनादि अनंत निर द्वंद्व महानंदकंद महोदयी एसो मेरो आत्मा हमेस है ॥ १०० ॥
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॥ परमात्ममहिमा कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ नवतच्चे के विकल्प तीनुयोगके संकल्प तामै रहे नित्य बैं निरागी असपृष्टहे, ज्ञानावरणादिक अड कर्ममाही रह्यो तौभी चेतनाको मूप निज रूपही मै निष्टहै; सुमतीसु थाह साही कुमतिको अंस नाही निज वित्त रत परसौ न लष्ट पष्ट है, परम अखंड ज्योति नित्य संत हे अमित देवचंद तत्त्वपर जिनजीको इष्ट है ॥ १०१ ॥
॥ आत्मा अनेकरूप कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ नित्य हेकि अनित्य हैकि एकहै अनेक हैकि सदसदभाववान कै तेन उपायो है, मूषमसुं मूषम है थूलसु अतीवथूल अरूपी अगंध जिन ग्रंथनमै गायो है, लोकालोक तीन काल उतपात धुव नास जाकी ज्ञानजोतिमांहि जगत समायौ है, ऐसो परमातम आतम महातम धारी परम आनंदकंद देवचंद पायो हे ॥१०२॥
॥ दोहा ।। पूर्वकृत निज कर्मफल, गृहै भोगवै जीव; तौभी ज्ञान विराग बल, बंधन विना सदीव. ॥१०३॥
॥ शिष्य प्रश्न ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ काम भोग भोगतेभी अबंधक को ज्ञाता एतो वात हम मनमांहि न सुहानीहे, श्रावकमुनिस एते क्रिया. करे सब
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४०.
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त्यप्रकाश
जेति तेति फल वीजें वीनू काजकी कहांनि है; दान दया तप जप दम उपसम भाव तजैगे कठीन वात जेते जग प्रानी हे, रहेगे प्रमादरत निरबंध अंध जेसे ज्ञान मत बंधके अबंध मति ठानी हे ।। १०४ ॥
॥ अथ गुरुउत्तर वचन ।।
॥ सवैया इकतीसा ।। जैसे विषवेद नर विषको विकार जाने करि ताको उपचार विष अपहरै है, सोइ आप विष भखे तोमि कछु नाहि लखे मूरछा न पावे सो तौ लोक विष हरै है; जैसे नाग मंत्रधर नागसे गहावे अंग आपनिःसंग रहे नागहीसो लरेहै, तैसे ज्ञानपूर्व कर्म जोग भोग भोगवे पै म्ह अलिपत ताने बंध नाही वरे है॥ १०५ ॥
॥ पुनः गुरुवचन ॥
॥ सवैया इकतीसा ।। जैसे कही दावानल जलै अतिही चपल झाले पुर वन जामै गिरिकूट जलै है, तब कोउ मंत्रवादी मंत्रकी सकतीसेती,
अग्निशक्ति बंध राखे तब ताप टले है। सोतो मंत्रधर वर तामे कूदकुंदपरे फीरेधीरे इतउत तोभी नाही बलै है, तैसे ज्ञाता बोधशक्ति बंधशक्ति रोधकिनी भोगवे भोग तोभी कर्ममै न लिहें है. ॥ १०६॥
॥शिष्य प्रश्न ॥
॥ सवैया इनीसा । शिष्य कहे स्वामी तुम कही एति वात साचि तोमि हम
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मनमांहि संदेहतो रह्यो है, मूढ़ जैसे भोगरीत समकिती भोगवे हे तोभी तुम चैनमे अबंध रीत वहै है; जैसे कोउ मत्तनर मद्दपे आरति नाहि रति साही वाही कहै गंध नाही गहे है, तेसे ज्ञाता द्रव्य भोगवे पै राग वितुं अमिना कर्मको तो बंध नाहि लहे है.।। १०७ ॥
॥ जिनमत कथन ॥
॥दोहा॥ सर्व भाव निज रूप गत, यह जिनवरकी वानि; ताते कर्ता कर्मको, वृथा किलेस वखानि. ॥१०॥
॥ मूढमति कथन ॥
॥ चोपाई ॥ सर्वभाव निजभाव निहारि, परकारजको कोय न धारे, ताते मूह अहंधी राच्यो, सदा रहे परगुण माच्यो. ॥१०९॥
___॥ हेयोपादेय कथन ॥
॥ सवैया तेवीसा ॥ करमके भरम परयो यह चेतन एतन मन प्रीति वधारे, ज्ञानमयी कर तुति करि जब देहकी प्रीति अनीति उतारे, राग निवारिके द्वेषकु ढारिके निर्मम भाव सदा उर धारे, ज्ञान निधान स्वरूपको जानके आत्मरति मुनि आत्मनिहारे.११०
॥ आत्मकर्मक्षयहेतु कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ ऐसें भेदज्ञान धरि आपा पर भेद करि परिहर परभाव
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५३२
द्रव्यप्रकाश
तांपे प्रीति टारीकें, अखंड अनंत ज्ञानवंत निज आतमामें चित्त थीर आंनी जीव औरकुं विसारिके; ज्ञान जोर कर्मकोरी, भोरी माया डोरी तोरी मोरीकें मनोरी निज ज्ञानकु पसारिके, भानिको विकार आनी पायो निरखान थान जाको महिमान असमान सम धारिके ।। १११ ।।
॥ आतमासिद्धसम कथन ॥ ॥ दोहा ॥
अष्ट कर्म वन दाहिके, भये सिद्ध जिनचंद; ता सम जो आपा लखे, ताको वंदे चंद ।। ११२ ।।
|| मोक्षपरंपरा कथन ॥ ॥ सवैया इकतीसा ॥
प्रथम ग्रंथि भेदीकरी उपसम भाव धरि क्षायक अंकुर भयो मिथ्या डर गयो हैं, उनेकी ने है कषाय ज्ञान गुन दोनु पाय बढ्यो गुनथान ध्यान श्रेणिथान आयो है; सूक्ष्मसंपरायचीन छीन मोह लयलीन छीन कीन कर्मतीन केवलको पायो हैं, ज्ञानादि त्रिगुन राय देवचंद पद पाय ध्यान ध्याता ध्येयभेद मूरते गवायो हैं. ॥ ११३ ॥
|| पुनः मोक्षपरंपरा कथन ॥ ॥ सवैया इकतीसा ||
सूक्ष्मक्रिय छिन्नक्रिय ध्यानक्रिय ज्ञान पीय लिय निखान पद आपनीजो आधि है, अष्ट कष्ट नष्टभये इष्ट अष्ट गुन गहे वहे महानंदको अनादिको जे साथ है; जामे लोकरीति नाहि हार जीति भीति नाहि मीत प्रीत नीत नांहि ज्ञानको समाध
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है, अजोगी अभोगी योगी अवेदि अछेदवेदी अलेसी अभेदी यैसो देवचंदनाथ हे. ॥ ११४ ।।
॥ आत्मशुद्धता कथन ॥
॥ सवैया इकतोसा ।। पीछे कर्मके प्रपंच रंच न अरुचि संच वंचक सभाव पंच सुद्धरूप भयो हैं, परभात्र सागरमें भ्रमजके वेगवेग बुडो चिरकालको सभाव सोउ तस्योहे; दीप्त करके प्रकरता करी दलित तम अष्ट करम मल दलि बट गुन वरयो हैं, ऐसो जो परम जोति सदा काल जयवंत तमतम खंडवैकुं रविसम धरयो हैं.
॥ आत्मगुण वरणन ॥
॥ सवैया इकतीसा ।। करतार भोगतार एसे जे विकार भार अपहार करि वर थिरभाव लयो हे, गुन घन काती च्यार ताको बंध तोरिडारि अमंद आनंद कंद मोदवृंद वरयो है। शुफ सांत है अनंत अहत्तविचित्त वृत्ति परज्योति सत्य नित्य सत्यरूप रह्यो हैं, सब ज्ञेयमे ज्ञेय करि हेय हरि शुद्ध बुझ ब्रह्म मेरो सदाकाल कह्यो हैं. ।। ११६ ॥
॥ आतमरूप ।।
॥ सवैया तेवीसा ।। मुक्तिको माग सुवाग विरागको दर्शन ज्ञान चरित्र त्रयी है, तन्मय आतम आतमवेदिके मोह उछेदन रीति लयी है। आतमज्ञान कलाकलिवै जसुनिर्मल संवर बुद्धि भयी है, सोनरको कछ कर्म करे सोतो पूर्वकर्म उदीकमयी हैं.॥११७॥
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॥ सवैया इकतीसा ॥ करताहुं भोगताहुं निरंतर कारजको एसो अगन्यान जेतो कालमौकी रह्यौ है, तो काल सुद्ध अनुभव न लहतु विनुं अज्ञानि जन मन भमनकुं गयौ हैं। अब सर्वज्ञ जिन वचन अमृत पीन अति रसवंत संत संत रस लह्यौ हैं, चिरकाल पान करि सुधितस ध्रुति वरि अजर अमर परब्रह्म पद लह्यौ हैं ॥ ११८ ॥
॥ पुनः सवैया तेवीसा ॥ आतमरूपके जानपने विनुं चेतनयौ करतार कहिजे, ताहीके जानपने जिन ज्ञानमे यामैं अकारक भाव लहिजै; याहिते रागरुद्वेष उदैकृतमोवित नांहि चितैयुं धरिज, मिन्न रह्यो निज लेखे जु मानव सो नव अभवमांहि न खीजे. ११९
॥ पुनः आत्मस्वरूप ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ जांलगी अविद्या जन्य दृढतम अंधतम ताहिमे तिमित भयो निज जोति हरिके, तां लगि विभाव एष राग द्वेष रेषपरि आतमीक बुद्धि भयी एकभाव वरिक, अब चिरकाल गिर नदीकै उपल जैसे भेदज्ञान गुन लह्यो तिकरन करिकै, तब पररीति हर आप पूर्णब्रह्मसेती विच्युति विकृति ध्रुव भयो गुनवीरके ॥ १२० ॥
॥ आतमाहंकार कथन ॥ अडिलमें अज्ञानमें सुप्तरह्यौ परध्यानमें जाग्यो जान्यौ तत्व तोहि गुनमानमें, ज्युं दरिद्र लही द्रव्य अधृति चित्तमें करै तैसे असत ज्ञानपाइ ज्ञानसुख जन वरे ॥ १२१ ॥
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॥ आतममहिमा कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ गहन अतीव जीव विशदहें अनहद पर असपृष्ट स्पष्ट निरंतर सिष्ट है, प्रकटित आत्मभूत विभूति अनंत सांत परकी विभूतिसेति प्रीति जाकी नष्ट हे; जाहिको सवाद स्यादवादके प्रमोद होत अगणित महाभोग संपदा प्रविष्ट हे, बुझिके निधान निरवान थान पामिवेको सावधान होत नित जैसो ब्रह्म इष्ट हे ॥ १२२ ॥
॥ पुनः आत्ममहिमा कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ।। महावृत तप ताप यम नियमादि जाप प्राणायाम योगके अभ्यासा प्रबल हे, क्षुधा तृषा शीत क्षीति सोवनादी परिसह अनुलोम प्रतिलोषमाहि नाहि चल हे; इत्यादिक क्रिया गुन जाकै जानपने दिनु नाथहीन सैना जैसें अति निरबल हैं, जाके जाने देखे सब जानो देख्यो जगद्रव्य ऐसौ परब्रह्म मेरो ध्यानसु सफल है ॥ १२३ ॥
॥चिदानंद उपादेय कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ सतत अनंत तेजपुंजसो विराजमान दलित अज्ञान मल अचल अमल है, सोई तत्त्व गहो भैया रहे भवकीच वीच तोभी यातै मिन्न जैसे पंकमे कमल है; इंद्र चंद्र चक्रवर्ति पद सुखको सवाद जाके सुधा स्वाद आगे मानु क्षार जल है, ऐसे परमातमामें सोहु सोऽहं ध्यानगम अगम परब्रह्म ध्यानमे सकल है ।। १२४ ॥
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व्यप्रकाश
॥ अशुद्धजीव कथन बहिरात्मीकि निंदा ॥
॥सबैया वेदीला ग्रंथ भने सब सासनके अभिमान धरै विचरै जगजेते, आपको पंडित मुख्य कहायकरै नित्य वाद विवाद अचेते; आतम बुद्धि तजे न शरीरसौं क्या पदिके गुनके समजेते, पाठ पढ्यो गुन कारन नां कछ रामहिराम जपत ज्युं तोते. १२५॥
॥ जिनधर्मप्राप्ति कथन ॥
॥ सवैया तेवीमा । में बहुकाल अज्ञानकी चालमै आपके रूपको भाव भुलानो, सो निजरूप लह्यो सुलहो अब मै सबमै भवसासु लजानो; चेतनवंत सदा अतिउज्जल संत अनंतसुज्ञानी मिलानो, ज्ञानको बीज अखीज निरंजन सज्जन श्रीजिनधर्म पीछानो. १२६
॥ आत्मपाट स्तुति कथन ।।
॥सवैया तेवीसा ॥ आतमसु मथि आतमज्ञानको भानु उद्योत ज्युं जोति बठे हैं, वासको काठघटात ज्युं आपमे आपसु ज्युं दवदावकठे हैं। याहिते आतम मग्नमती विरति सुव्रति शिवभाग चढेहैं, आत्मज्ञान विना सरनौन न साधकआतमपाठ पढे है. ॥१२७
॥ चोपाई ॥ जेसे रजु सरप भ्रम माने, त्युं अजान मिथ्यामति ठाने; देहबुद्धिको आत्म विचारे, याते भव भ्रमहेतु पसारे. ॥१२८।।
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द्रव्यप्रकाश. -.. -...---- ॥ अज्ञानविलास कथन ॥
॥ सवैया तेवीसा ॥ मे बहु वेर अज्ञानके फेरमें औरकीओरति हेरनधायो, वध्यो भवलोह विमोहकी निंदमे ज्ञायक दृष्टिको तेज दबायो; आतम बुद्धि भइ परपै डरपै अरपै निज मित कहायो, चंद कहे गुणचंद लहै विनु काल अनंत भमंत गमायो.॥१२९॥
॥ज्ञानजागृतदशा ॥
॥ सवैया इकतीसा ।। याहीके पीछान्यो अतिअतिसे चेतनसत्ति जागे जामे तिनलोक अलोक समाने है, याहिके सरूप जान्यो जाने खट भाव सब एते खट भावके पिछानकु कहाने है; अतिहीनि सतिमति शास्त्रके विचित्तताइ जाके जानपने विनुं श्रमरूप ठानेहे, जैसे कन वितुं तुस खंडनहे निकारन तैसे ज्ञान वितुं सब काज निफलाने है. ॥ १३० ॥
॥ पुनः ॥ जाके अनुभवसेती भागे भवभीत निज परतीत सो अनित नित २ जागी है, जैसे भानके उद्योत सब जग ज्योति होत भासे घट पट भाव अंधकार भागे है। तैसे जाके तेज आगे राग द्वेष ग्रंथी भागे लागे न करम नव शिव जाके आगे है, परम आनंदकंद देवचंद सुखकर धरमी व्रती मुनीस जाके ध्यान लागे है.
॥ दोहा॥ आतम आतमध्यान गत, न भजे और उपाय; जैसे पावक काठ विन, सहने उपशम थाय. ॥१३१॥
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ઉરૂદ
द्रव्यप्रकाश.
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॥ पुनः आत्मगुन कथन ॥
॥छप्पय ॥ परम सुखी श्रीथान नाहि को दुजो याते, निरभय पद ए मुख्य और सब जनकी बाते, यहे संतरस जान मोष मारगभी एही, कर्मवृक्षके छेदय है फरसीज अवेही, इह ज्ञानवान भगवान वर ज्ञानादिक गुन वय वहै, यह भजो रमो जानो इहे सर्वमां इह दुरगम इहे. ॥ १३२ ।।
॥ अथ चेतनगुन कथन ॥
॥सवैया तेवीसा ॥ ज्ञान अज्ञानके हेतु भए तुम आपतही भमते भवमाही, कारक बुद्धि भई परसो तरसो चित्तमें सुख संपती पाही; आपको जानीके ध्यानमे आनिके सुद्ध मुनि निखानको जाही, आपको त्रायक आपही चेतन चेतनता गुनज्ञानको चाही.॥१३३ भोग संजोगजु भोगके गेह ते नेह तेयाभव तै विरचे जे, भावही आतम आतमते वर आतमज्ञान कला अरचे जे; मोहकी जेलको छेलके ते नर या भवके सुख नां परचेते, सम्यक ध्यानहियो निज आनिके कर्मको भर्म सही खरचेते.१३४ रोग विना जन तिक्त कसाय ज्युं ओषधस्युं चित्त प्रीति उतारे, आतुरता विनुं चातुर ते नर देहकी सार करे दिनसारे; दर्शन मोह विना चिन मुरति चेतन चेतनसुख संभारे, भोग संयोगको जोगकरे नही साधु सदा चित्त ज्ञानको धारे.१३५
॥ पुनः चेतनगुन कथन ॥
॥सवैया तेवीसा ॥ अंतर तत्त्व विलोकी कीया जीम भानुं उदै सब वस्तु प्रकाशे, रहे जगमै जग रीति धरे नहीं आप गुने करी उज्जल भासै;
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द्रव्यप्रकाश.
५३९
मोहकी निंदमें घूमित चेतन देखत स्वप्ना भवादि उलासै, आपमे आप समाय रहे ध्रुव शुद्ध निरंजन भाव अभ्यासै. ॥१३६॥
॥ ज्ञानविलास कथन ॥
॥ सवैया तेवीसा ॥ ज्ञान विलास अभ्यास कीया विनुं कर्मको भर्म सदीउ वधार, इंद्रीय पंच प्रपंच करै चित या रस प्यार अपार संभार, फीरै भवमैं नव वेस करै नित भावीत कर्म उपाधि ले लारें, सो निज थान वसे जब देव ए हर्ष प्रकर्षकि नैन वधारै. ॥१३॥
॥ पुनः परमात्म वरणन ॥
॥सवैया इकतीसा ॥ ज्याकी ज्ञानज्योतिहीसं फुरत परम रस सरस यरस विनु जामे रस एनहे, लोकालोक लोकनकुं अमल विमल तेज योगादिक क्रिया विनुं ज्याकी आराधन है। मूलसे दलित अतिमोह गलके पटल अखिल विज्ञानवंत संत गुन घन है, एसौ देवचंद इदं त्रिगुण आनंदकंद ताहीसौ प्रतिति प्रीति थीर मेरे मन है ॥ १३८ ॥
॥ सम्यक्आत्मवर्णनं ॥
॥ संवैया इकतीसा ॥ जाके उर अंतरमें राग दोष मोह नांहि आपमे समाय रहैं आपही अनंत है, और द्रव्यसु न प्यार समें सार ध्यान धार धरीके संभार सार संत रस संत है; टंक सौ उकेरयो जैसो रतन अभंग जोति तैसो परब्रह्म निज ज्ञानसो महंत है, निरद्वंद है अबंध चेतनाको खंध संत अमलान ज्ञानगुन सनमंधवंत हैं ॥ १३९ ॥
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५४०
द्रव्यप्रकाश.
॥ आत्माअबंध कथन ॥
॥ दोहा ॥ जे थीर आतम ध्यानमे, आतम ज्ञानविलीन जे निजगुन थिरता लहै, गहे न कर्म नवीन. ॥१४०॥ नव नव भव तरु छेदको, यह शीत शास्त्र उदार, ध्यान पवित्र मुनिसको, रहै ध्येय गुन धार. ॥१४१॥ दुरगम पद पथ अगम ए, लहि ऐसो निज योग; वृथा बाह्य करनी करे, दंडे तीनो योग. ।। १४२ ॥
॥ करनी सरूप कथन ॥
॥दोहा॥ करनी निज गुनक तरनी, धरनी दोष अथांहिः दुखमै या भवसमुद्रकी, तरनी वरनी नाही. ॥१४३।।
॥ सवैया तेवीसा ॥ या करनी वरनी परनितमे मोह महीपतिकी तरनी है, या करनी धरनी तलकी फीरनी करनी परनी सरनी है; या करनी हरनी गुनकी अरनीटर संवरकी टरनी है। या करनी करे निच सभावको कोह महादवकी अरनी है॥१४४
॥दोहा ।। करनी करता करमकी, इनमे चेतन दीन; जब चेतन समता मिले, तबे लहे सुखपीन. ॥१४५।।
॥ परमात्मास्तुति ॥
___ सवैया इकतीसा ।। परम निधान हैकि निखान थान हैकि असमान ज्ञानवान
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द्रव्यप्रकाश.
५४१
सदा अमलान है, खंध निरधुंध निरबंध कर्म हीन पीन छीनमसकीनभाव भावसो अदीन है; चितमे चेतन खान दरसन भासमान अनुभव ज्ञान जान अनगुन हीन है, अक्षर त्रिगुण इंद देवचंद महानंद परम अमृत संतपद लय लीनहे. ॥१४६॥ ॥ कुंडलीयो ||
ऐसो चेतन ब्रह्मवर, समता नारि वियोग, चित्त थिरता न लहे कहूं, पावहि बहुविधि सोग, पावहि बहुविधि सोग जन्म मरण निखेद, अति भव भवभ्रमण भमंत, जह रज्जु विरह चित्त, क्षणभंगुर गुन हीन ग्रह्यो आत्म करण तन, निज प्रिय विनु बहु भर्म ब्रह्मवर एसो चेतन ॥ १४७ ॥
|| आत्म समता वियोग ॥ || सर्वेया वीसा ||
मित्त विहीनमें दीन भयो अति मोचीत सौथिरता न लहे है, यह जगमे दीन राति निरंतर अंतरते थिरता न गहे है; आतम मीतके सुख वियोग दुख परयो सुखकु ज चहे हैं, सो सुख तो निज ज्ञानके आगम जो कबहु परकुं न वहे है . १४८
॥ पुनः आत्माके विशुद्धगुन कथन ॥ || सवैया तेवीसा ||
आथिरता थिरता समतालही औरके ठोरतो नाहि रुलेगे, चित्त प्रवृतिको अति निवृत्तमे या गुन ज्ञानमे ठीक धूलेगे; ज्यां लगे चेतनता भुजमे थिरता लगिया गुन त्रय न मुलेगे, देवकहे निजदेवकी सेव सो या भवदेवको दूर ठिलेगे. ।। १४९ ॥
६१
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द्रव्यप्रकाश.
॥ चेतनता समताप्रीति कथन ॥
॥दोहा ।। चेतन चेतनता सहित, परम धरम गुनथान; पावे वर निरवान पद, समता प्रीति निधान. ॥१५०॥ ॥ अथ कवि निज लघुताइ कथन ।।
॥ सवैया तेवीसा ॥ मे जिनआगमते जो उलंपिके जो कछु वात विरुद्ध वखानी, सो तुम सोधिके भाखहु पंडित पंडित जाहीकी मोह नीसांनी; गहो गुनमी सुनिके तुम सज्जन शास्त्रको अर्थसु तत्त्व पीछानी, बोधिसु बोधक ग्रंथ गहो बुधडारिके संपति एह विरानी. १५१
॥ अथ पूर्व कविसरके गुन ॥
॥सवैया इकतीसा ॥ पाठक सुपाठहीके निवारन आठहीके हंसराज राजपति नामे हंसराजहे, ताके कीनेहेसलस शत अडवीस ज्युत ज्ञानहीके जान अरुदंसनके राज है। तत्त्वके पीछान जान ताहिको निधान मान विमल अमल सब ग्रंथ शिर ताज है, आपा पर भेद कर परब्रह्मभाव भर सुफ सरधान धर नरताके काज है. ॥ १५२ ॥
॥ दोहा ॥ हिंदु धर्मवीकानयर, कीनीसुख चौमास; तिहां ए निज ज्ञानमे, कीनो ग्रंथ अभ्यास. ॥१५३।। ॥ अथ कवीसरके गुरुके नाम कथन ॥
॥सवैया इकतीसा ।। वर्तमान काल थीत आगम सकल वीत जगमे प्रधान
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द्रव्यप्रकाश.
५४३
ज्ञान वान सब कहे हैं, जिनवर धर्मपरि जाकी परतीति थिर और मत वात चितमाहि नाहि गहै है: जिनदत्तसुरीवर कही जो क्रियाप्रवर खरतर खरतर सुद्ध रीति वहै है; पुण्यके प्रधान ध्यान सागर सुमतिहीके साघुरंग साधुरंग राजसारलहे है ॥ १५४ ॥ ॥ दोहा ॥
सब पाठक सिरसेहरो, राजसार गुनवान;
विचरे आरीजदेशमै भवि जन छत्र समान. ।। १५५ ।। ॥ सवैया इकतीसा ॥
ताके शीश है विनीत परमीतसौ वितीत सावरीत नीत धारी गुन अभिराम है, आत्मज्ञान धर्मधर वाचक सिधंतवर अतिउपसंत चित्त ज्ञान धर्मनाम है; ताके शिष्य राजहंस राजहंस मानसर सुप्रधान उद्यमादि गुन गन धाम है, अंतेवासी देवचंद कीनो ए गरंथ वर अपनो चेतन राम खेलिवैकुं ठाम है ॥ १५६ ॥
॥ दोहा ॥
कीनो यहां सहाय अति, दुर्गदास शुभचित्त; समजावन निज मित्तको, कीनौ ग्रंथ पवित्त. ॥१५७॥
॥ अथ शास्त्रके श्रोता तिनके नाम ॥
॥ सवैया इकतीसा ||
आतम सभाव मिठु मल्लको पहारी दिठो भेरुदास उदास मुलचंद जान हैं, ज्ञानलेख राजवर पारस स्वभाव घर सोमजीव
परि जाकी सरधान है; ज्ञानादि त्रिगुनमंत अध्यातम ध्यानमंत मुलतान थांन वासी श्रावक सुजान है, ताकी धर्म
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५४४
द्रव्यप्रकाश
प्रीति मन आनिकै गरंथ कीनो गुनपरजाय धर जामे द्रव्यज्ञान है ॥ १५८ ॥
॥दोहा॥ अध्यातमसेली सरस, जे मांनत सौ जैन; ते वाचेंगें ग्रंथ यह, ज्ञानामुत रस लैन. ॥ १५९ ॥ गुन लच्छन पहिचानिकें, हेयवस्तु करि हेय; चिदानंद चितमय अगम, शुद्ध ब्रह्म आदेय. ॥१६॥ परमात्म नय सुद्ध धरि, शिवमारग एहीज; यह मोहमैं नव भमें, यहै ग्रंथको बीज. ॥१६१॥
॥ संवत् कथन ॥
। दोहा।। विक्रम संवतमान यह, भय लेझ्याके भेद; सुद्ध संयम अनुमोदिकै, करि आश्रवको छेद (१७६७)॥१६२॥ ता दिन या पोथी रची, वव्यों अधिक संतोष सुभ वासर पूरन थई, प्रथम जिनेसर मोष. ॥१६३।।
॥ अथ ग्रंश भहिमा ॥
॥ मवैया इकतीसा ॥ गुनको निधान हैकि मानो निरवान है कि साची जिनवान यामे अधिक उदार है, मानी मद भंजन है मिथ्या मतिभंजन है ज्ञानदृष्टि अंजन शिलाका सुखकारहे; रामको रमनहै कि दुष्टकोदमन हैकि परकोवमन है अपार पारावार है, संतको सवाद हैकि शुद्धि स्यादवाद यामे औरको विषादनाहि ज्ञानि उरहार है. ।। १६४ ।।
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द्रव्यप्रकाशः
॥ दोहा ॥
स्यादवादयुत द्रव्य षद, जहां वखाने ठीक; नामे द्रव्य प्रकासयौ, ज्ञानग्रंथ तहकीक ॥। १६५ ॥
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॥ पुनः ग्रंथमहिमा ॥ ॥ सयैया इकतीसा ||
परस प्रतीत नाहि पुण्य पाप भीति नांहि रागदोष रिति नांहि आतम विलास है, सावकको सिद्धि है कि बुज्जवै कु बुद्धि है की राजवैको रिद्धिज्ञान भानको विकास है; सजन सुहाय दुज चंद ज्युं चढाव है कि उपसमभाव या अधिक उल्लास है, अन्यमतसौं अफेद वंदतदें देवचंद ऐसे जैन आगमें द्रव्य प्रकाश है ॥ ६६ ॥ ॥ दोहा ॥
69
५४५
ज्ञान ध्यान सुखधान यह, यह मुगतिको पंथ जीवद्वार नभय है ( नव यह है) पुग्न भयो गरंथ. ॥१६७॥
॥ इति श्री देवचंद्रमुनि विरचिते द्रव्यप्रकाश (व्रज) भाषाग्रंथे तृतीयं जीवद्वारं समाप्तम् ॥
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॥ ॐ श्रीवर्द्धमानाय नमः ॥ श्रीगोतमाय नमः।
____ अथ श्रीदेवचंद्रजीकृत श्रीआदिनाथप्रमुख चोवीश तीर्थकरनी स्तवनागीत, चोवीशीनो बालावबोध
सहित प्रारंभ करिये छैये.
__ तत्र प्रथम पीठिका. ए संसारी जीव, देवतत्व, गुरुतत्त्व, धर्मतत्त्वनी भूलें अनादिनो संसारचक्रमांहे भमी रह्यो छे, शरीर इंद्रियसुख परिग्रह तेने हितकारी मान्या छे, अने पोतातुं आत्मस्वरूप, अनंतानंदमय विसारी मूक्युं छे, ते संभारतोज नथी, पण संज्ञी पंचेंद्रियपणुं पामीने, जो पोतानो शुद्धधर्म तथा शुद्ध धर्मनां कारण सेवे नहीं, तो आत्मा, स्यात् संपदा केम पामे ? तेमाटे उपकारी, जगत् हितकारी, श्रीवीतराग, परमात्मा, परमपुरुषोत्तम, एषा श्रीअरिहंतनी स्तवना तथा सेवना करवी, पण राग विना प्रभुनी सेवना थाय नहीं, ते कारणथी प्रथम श्रीरुषभदेवजीनी स्तवना करतां श्रीवीतराग उपर प्रीति करवी, ते रीत कहे छे. प्रथम धर्मनां चार आचरण कहां छे. १ प्रीति, २ भक्ति, ३ वचन, ४ असंग. तेमां प्रथम प्रौतिन लक्षण, षोडशकटीकाथी जाणवू. " यत्रानुष्ठातुः आदरप्रयत्नातिशयोस्ति प्रीतिश्च अभिरुचिरुपाहित उदयोयस्याः सा तथा भवति कर्तुः अनुष्टातुः शेषाणां
कारण सेवेमाने, जोत संभारतो
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५४८
दे० चो० बा०
त्यागेन च तत्काले यच करोति तदेकमात्र निष्ठतया तत्प्रीत्यनुटशनं ज्ञेयमिति. " जिहां आचरण करवावालानुं अति आदर सहित उद्यमनुं अतिशयपणं होय, ते प्रीति जाणवी, ते प्रीतिना विलास विना चाले नहीं, माटे तेहना रुचि अभिलाषी जीवें बीजां सर्वे कार्य तजीने तेहज करवं तथा तिहांज एक निष्ठा प्रतीति करवी, तेने प्रीतिजनुष्ठान जाणवुं ॥ इति भावार्थः ॥ ते प्रीति संसारी भावी सर्व जीवोने छे, पण ते पलटावीने गुणीथी करवी, ते कहे छे.
॥ अथ प्रथम श्रीऋपभजिन स्तवन ॥
|| निडी वेरण हुई रही ॥ ए देशी ||
ऋषभ जिणंदशुं प्रीतडी, किम कीजें हो कहो चतुर विचार ॥ प्रभुजी जइ अलगा वश्या,
तिहां किर्णे नवि हो कोइ वचन उच्चार ॥ ऋ० ॥ १९ ॥ अर्थः- श्रीनाभिकुलचरनी भार्या, श्रीमरुदेवी स्वामिनीनी कुक्षिनेविषे उत्पन्न थईने जेणे अटार कोडा कोडी सागरोपम सुधी, निर्वाण मार्गनुं विन हतुं ते निवार्य, एवा श्री ऋषभदेव प्रथम तीर्थकर, रागद्वेष रहितताथी जिन कहियें, तथा उपकारसंपदा, अने अतिशय संपदायकरि विराजमानताथी जिणंद कहियें. तेनाथी प्रीतिविलास करवानो अर्थी भव्य जीव, मोक्षामिलाषी विचारे हे जे, नीरागी ऋषभ पुरुषोत्तम साथै शी रीतें प्रीति कीजें ? ए वीतरागथी प्रीति, माहारा आत्मायें पहेलां
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प्रथम श्रीऋषभजिन स्तवन.
किवारे अनुभवी नथी, ते. परमेश्वरथी प्रीतिनो अर्थी प्रीतिनी चाल अजाणतो पूछे छे, जे हे चतुर डाह्या ज्ञानी आचार्यादिक पुरुषो! अथवा पोतानो आत्मा ते जातें चतुर छे, तेहने पूछे छे, के ते प्रीतिनो विचार कहो जे नजीक होय, तेथी प्रीति बने, पण प्रभुजी तो सर्व रीतें अलगा रह्या छे. प्रथम द्रव्यथी हुँ अशुद्धपरिणतिविभागकर्मानुयायी, पुद्गलभावभोगी, तेथी अशुद्ध द्रव्य छु, अने श्रीभगवान् तो शुद्धपरिणामी, सकल निरावरणस्वभावी, निःकर्मा, अनंत अक्षयज्ञानादिस्वगुणभोगी, तेथी शुद्गव्य छे. बीजु क्षेत्रेकरी हुं संसार क्षेत्री, शरीरावगाही छु, अने श्रीऋषभमभु तो लोकांतक्षेत्र रह्या छे, अशरीरी, स्वप्रदेशावगाही छे, तेयी क्षेत्रे करी मिन्न छैयें, तेमज त्री काले पण भिन्न छैये. अने भावी हुँ रागी, द्वेषी, तथा अढार पापस्थानकें भर्यों छु, अने श्रीदेवाधिदेव तो नीरागी, सर्वपापस्थानरहित छे, माटे श्रीप्रभुजी, हमणां तो सर्व रीतें मुझथी वेगला वसे छे. वली अलगाने पण वचनादिके मलिये, पण श्रीऋषभदेव सिद्ध थया, तिहां सिद्ध अवस्थामां कोई वचननु उच्चार नथी, त्यारे प्रीति केम कराय ? ॥ इति गाथार्थः॥१॥
कागल पण पहोंचे नहीं, नवि पहोंचे हो तिहां को परधान ॥ जे पहोंचे ते तुम समो, नवि भांखे हो कोईनु(नो)व्यवधान॥RO२॥
अर्थः-तथा एक बीजो पण प्रीति करवानो उपाय छ, जे कागल वडे प्रीति थाय छे, पण सिद्धने विषे कागल पण
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१५०
दे०. चो० बां०
पहोंचे नहीं. तथा कागल नहीं पहोंचे तो कोई माणस मूकीर्ये, पण तिहां सिद्धावस्थाने विषे कोई प्रधान पण पहोंचे नहीं; के जेनी सार्थे विनति कहावियें. वहां कोई जीवने संशय उपजे के रत्नत्रयी आराधीने अनेक जीव मोझें जाय छे, तो कोई न पहोंचे एम केम कहो छो ? ते उपर कहे छे, जे तिहां सिद्धावस्थाने विषे जे पहोंचे ते तुम समो, तुम जेवो प्रभुतामय, वीतराग, अयोगी, असंगी, सकलज्ञायक, पण वचनरहित, एटले अर्थात् ते पण परमपूज्य ते कोइनुं व्यवधान कहेतां आंतरो भेद कहे नहीं, माटे प्रीतिना त्रण उपाय मांहेलो कोई उपाय दीसतो नथी, तेमाटे श्रीयुगादिदेव साथै प्रीति केम करिये १ ॥ इति ॥ २॥
प्रीति करे ते रागीया,
जिनवरजी हो तुमें तो वीतराग ॥
प्रीतडी जेह अरागीथी,
भेलवी ते हो लोकोत्तर माग ॥ ऋ० ||३||
अर्थः-- हवे वली कहे छे के संसारी जीव मुझ सरीखा तथा सम्यग्दृष्टि प्रमुख पण जे श्रीसर्वज्ञ बैलोकीतिलकथी प्रीति करवा चाहे तेतो रागी राग सहित छे, अने हे जिनवरजी ! तुमें तो वीतराग छो, रागरहित छो, रागीने अनेक रीतें रीझवीये, पण जे पोतें रागी नहीं, ते केम रीझ पामे १ इहां कोई जीव कहेशे जे तेवारें वीतरागयी प्रीति न करवी १ तिहां कहे छे. जे अरागी राग रहित तेहथी जे प्रीति भेलववी, तेसो लोकोत्तर मार्ग छे, एटले एम जाणवुं जे रागीयी रागी
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प्रथम श्रीऋषभजिन स्तवन.
थाय ते मले, पण कोई रागांश जे मध्ये नथी तेहथी प्रीति करवी, ते लोकोत्तर मार्ग जाणवो, एटले अरागीथी राग करवो, ते अति आश्चर्य जाणQ ॥ इति तृतीय गाथार्थः ॥ ३ ॥
प्रीति अनादिनी विष भरी, ते रीतें हो करवा मुझ भाव ॥ करवी निर्विष प्रीतडी, किण भातें हो कहो बने बनाव ॥ऋ०॥४॥
अर्थः--हवे संसारी जीव मध्ये प्रीतिनी परिणति अनादिनी छे, परंतु ते पुगलना वर्ग, गंध, रस, स्पर्श, मनोज्ञसंयोग उपर इष्टता छे. ते प्रीति अप्रशस्त छे, नवा कर्मना बंधन कारण छे, तेथी ए अनादिनी प्रीति, विष भरी छे, जेम ऐश्वर्यादिक देखीने पुद्गल अशुद्धता उपर जे इष्टता ते राग, विषमय छे, ते राग. स्वजन, कुटुंब, परिग्रह उपर छे, ते रीतें प्रभुजी तुम उपर राग करवानो मारो भाव छे, पण ते राग कामनो नहीं. ममकार कुलाचारें जे अरिहंत उपर राग, ते मोक्षमार्गमां नहीं. इयामाटे जे ममकारें कोण राग करतो नयी ? ए राग, संसारहेतु छे । उक्तं च ॥ जो अपसत्यो रागो, पढइ संसारभमण परिवाडी ॥ पियाइसु सयणाइसु, इतृत्तं पुग्गलाईसु ॥१॥ अने इतथी जे राग करवो ते प्रशस्त करवो तेनुं लक्षण कहे छे. नागाईसु गुणेसु, अरिहंताईसु धम्मरूवेसु ॥ धम्मोवगरणसाहम्मी एसु, धम्मत्थं जो य गुणरागो ॥ २ ॥ सो सुपसत्थो रागो, धम्म संयोगकारणो गुणदो ॥ पढ़मं कायबो सो, पत्तगुणे खबई तं सवं ॥३॥ ते माटे
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५५२
दे० चो० वा०
अरिहंत उपर राग करवो, ते निर्विष करवो, जेमां विषयामिलाषपणुं नहीं, वर्णादिकनी रीझ नहीं, तथा इहलोक, परलोक, इंद्रियसुखाभिलाष नहीं, प्रभुना ज्ञानादिक गुण छे ते मने आपे, एवी अभिलाषा नहीं. एक अरूपी, अज, अविनाशी, अकृत्रिम, शुद्धज्ञानादिक गुण सकल व्यक्त थया, स्वरूपभोगी, स्वरूपरमणी, स्वरूपाश्रित, एवा गुणनो राग, एकलो गुण प्रकट करवा वास्ते करवो ते राग, निर्विष जाणवो, ते निर्विष प्रीति करवानी मुझमां तो शक्ति नथी, ते माटे हवे ए बनाव केम बने ? हे उपकारी पुरुषो! ते तमे हो ॥ इति चतुर्थगाथार्थः ॥ ४ ॥ प्रीति अनंती पत्की,
जे तोडे हो ते जोडे एह ॥ परम पुरुषथी रागता,
एकत्वता हो दाखी गुण गेह ॥ ऋ० ॥ ५ ॥
अर्थ:- हवे चतुर पुरुष, उपाय कहे छे, प्रीति कहेतां राग अनंतो परथकी एटले पुद्गलभावथी अथवा शरीरी जीवथी छे, ते सर्व जे जीव तोडे कहेतां टाले, ते जीव ए गुणी अरिहंतादिकथी प्रीति जोडे, एटले सर्व परभावयी राग तजे, ते गुणीराग करी शके. तिहां कोई पूछशे जे गुणी अरिहंतादिकथी गुणें मले, पण राग तो पापस्थानक छे, ते शामाटे करिये १ तिहां कड़े ले जे, परम पुरुष, वीतरागथी रागता कहेतां रागीपं ते पण गुणनुं घर कथं छे, अने श्रीअरिहंतादिकथी गुणें एकत्वव्यानें मलवं, ते पण गुणनुं गेह कथं छे, तेमाटे प्रथम श्रीअरिहंत उपर राग करतो, तेहीज वीतरागतानुं कारण छे ॥ इति पंचमगाथार्थः ॥ ५ ॥
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प्रथम श्रीऋषभजिन स्तवन.
५५३
NAAMA
प्रभुजीने अवलंबता, निज प्रभुता हो प्रगटे गुणरास ॥ देवचंद्रनो सेवना, आपे मुज हो अविचल सुखवास ॥रु०॥६॥
अर्थः--ए रीते प्रभुजीने अवलंबतां कहेता आश्रयतां पोतानी प्रभुता' अनंतगुणपर्यायरूप प्रगटे, निरावरण थाए, गुणनो राशि समूह, सर्व व्यक्त थाय, तेमाटे देव जे चार निकायना देवता अथवा नरदेवादिकमांहे चंद्रमा समान श्रीअरिहंत देव, तेहनी सेवना भक्ति, द्रव्यथी तथा भावथी करवी, ते आपे कहेतां दे, मुने अविचल सुख, अव्यावाच सुख, तेहनो वास कहेतां रहेवू, एटले भावार्थ ए जे, श्रीपरमात्मा, परमपुरुषोत्तम अरिहंतनी सेवना असंयम आस्रवत्याग, संयम संवररूपपरिणमन, ते सेक्ना कहियें ॥ उक्तं च ॥ आणाकारी भत्तो, आणा छेईओ सो अभत्तोत्ति ॥ इति ॥ तथा अरिहंत प्रभु पोतें तो पोतानी सेवनाना अर्थी नथी, पण सर्व जीवोने स्वहित करवा वास्ते एहीज करवू छे, अने अरिहंत आज्ञा ते कोईनो हुकम मनाववो नथी, पण श्रीअरिहंत देवें केवल ज्ञाने दीडं, जे सर्व जीवोने पोतानां ज्ञान, दर्शन, चारित्र, ते परमानंदहेतु छे, तेमाटे जे रीतें ज्ञान, दर्शन, चारित्र नीपजे, ते मार्ग उपदेश्यो, ते प्रमाणे वर्तवू. ते अरिहंतनी सेवना करतां निश्चय मोक्षपद, सर्व उत्तम जीव पामे, माटे प्रमुजीनी सेवा, ते अविचल सुख आपे, ते कारणे सर्व भव्य जीवें सकल संसार कार्य तजी सर्व परभावथी निस्पृही
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३० चो० बा०
थईने, एक परमोपकारी, तत्त्वोपदेशी, धर्मनायक, श्री अरिहंत देवनी सेवना करवी ॥ ६ ॥ इति श्रीरुषभजिनस्तवनं समाप्तम् ||
॥ अथ द्वितीय श्रीअजितजिनस्तवनं ॥ || देखो गति दैवनी रे ॥ ए देशी ॥
ज्ञानादिक गुणसंपदा रे, तुज अनंत अपार ॥ ते सांभलतां ऊपनी रे, रुचि तेणें पार उतार ॥ अजित जिन तारजो रे, तारजो दीन दयाल ॥ अजित जिन तारजो रे ॥ १ ॥
अर्थः- वे श्री अजितनाथ स्वामीनी स्तवना करे छे. कारण कार्यभावनी साधनता देखाडे छे, जे कारण मले, ते कार्य नीपजे, ते कारणना बे भेद छे. एक निमित्त कारण, बीजुं उपादान कारण, पण उपादान कारणनी कारणता निमित्त मल्यां प्रगटे, ते निमित्त कारणनी पुष्टतायें थाय, अने मोक्षनुं निमित्त कारण, श्रीदेवतत्त्व छे, ते कारणे कार्य निपजे, ते परिपाटी देखाडे छे, सकल पंचास्तिकाय गुणपर्यायादि विशेष धर्म, प्रत्यक्ष भासन, त्रिकालावबोध, ते केवल ज्ञान तथा सकल सायान्यग्राहक ते केवल दर्शन अने स्वरूप एकत्व ते परम चारित्र, वली अरूपी अव्याबाध प्रमुख गुणनी संपदा, हे प्रभुजी ! तु कतां तुमारे अनंत छे, अपार छे, जेथकी सर्व द्रव्ययी, सव द्रव्यना प्रदेश अनंत गुणा, सर्व प्रदेशयी एक नयना गुण अनंतगुणा, सर्व गुणयी अस्ति नास्तिरूप स्वपर्याय अनंत गुणा, अस्तिपर्याय ते पण वस्तुनो स्वधर्म
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द्वितीय श्री अजितजिन स्तवनं.
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छे. तथा नास्तिपर्याय ते पण वस्तुनो स्वधर्म छे, श्री विशेषावश्यकमांहे श्रुतज्ञानाधिकारें कयुं छे.
॥ एवं उक्ते सति परः प्राह || जइ ते परपज्जाया, न तस्स अह तस्स न परपज्जाया ॥ जं तं भिय संबद्धा, तो परपज्जाय ववसो || १ || इह स्त्रपर्यायाणामेव तात्पर्यायता युक्ता ये चामी परपर्यायारते यदि वटादीनां तर्हि नाक्षरस्य तथाक्षरस्य ते तर्हि न घटादीनां ततश्च यदि परस्य पर्यायास्तर्हि तस्य कथं ? तस्य चेत्परस्य कथमिति विरोध स्तदयुक्तमभिप्रायापरिज्ञानाद्यस्मात् कारणात् तस्मिनकारे काराद्यक्षरे घटादिपर्या या अस्तित्वेनासंबद्धास्ततस्तेषां परपर्यायव्यपदेशोअन्यथा व्यावृत्तेन रूपेण तेऽपि संबद्धाएवेत्यतरतेषामपि व्यावृत्तरूपतया पारमार्थिकण्व पर्यायत्वं न विरुद्ध्यते अस्तित्वेन तु घटादिपर्याया घटादिष्वेव प्रतिचा इत्यक्षरस्य ते परपया व्यपदेश्यते इति भावः । द्विविधं हि वस्तुनः स्वरूपं, अस्तित्वं नास्तित्वं च ततो ये यत्रास्तित्वेन प्रतित्रास्ते तस्य स्वपर्याया उच्यंते, येतु यत्र नास्तित्वेन संचारते तस्य परपर्यायाः प्रतिपाद्यंते ॥ इति निमित्त भेदख्यापनपरावेच स्वपरशब्दौ नत्येषां तत्र सर्वया संबंधनिराकरणपरै । वत्सहावं पइतंपि सपरपझायभेयओ भिन्नं । तं जेग जीवभाव, मिना इत उपडायाया ॥ १ ॥ वस्तुस्वभावं प्रति यथावस्थितं वस्तुस्वरूपमाश्रित्य तदपि केवलज्ञानं अकाराद्यक्षरवत् स्वपरपर्यायभेदतो मिन्नमेव || ननु यथोक्तनीत्या स्वपर्यायान्त्रितमेवेति भावः । कृतः ? इत्याह ॥ येन कारणेन तत्केवलज्ञानं जीवभावप्रतिनियतोजीवपर्यायो न घटादिस्वरूपं, तत्रापि घटादयस्तत्स्वभावाः किंतु ततो
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दे० चो० बा०
मिन्ना इति ते ज्ञायमाना अपि ते कथं तस्य स्वपर्यायाभवेयुः ? सर्वसंकरैकत्वादिप्रसंगात्तस्मादमूर्त्तत्वचेतनत्वसर्ववे तृत्वाप्रतिपाती च निरावरणत्वादयः केवलज्ञानस्यस्वपर्यायावटादिपर्यायास्तु व्यावृत्तिमाश्रित्य परपर्यायाः । अन्ये तु व्याचक्षते ॥ सर्वद्रव्यगतान् सर्वानपि पर्यायान् केवलं ज्ञानं जानाति येन च स्वभावेनैक पर्यायं जानाति न तेनैवापरमपि किंतु स्वभावभेदेनान्यथा सर्व द्रव्यपर्यायैकत्वप्रसंगस्तस्मात् सर्व द्रव्यपर्यायराशितुल्याः स्वभावभेदलक्षण केवलज्ञानस्य स्वपर्यायाः सर्व द्रव्यपर्यायास्तु परपर्यायाः इत्येवं स्वपर्यायाः परपर्यायाचो भयेऽपि परस्परं तुल्याः केवलस्येति ॥ इत्यादि अधिकार सर्व माहाभाव्यथी जाणजो. ते अस्ति पर्याय ते जीवद्रव्यना सर्वथी अनंतगुणा छे, ते सर्व प्रभुजी तुमारा निरावरण थया, ते अनंतगुणमयी परमानंदसंपदा तमारी आगममांथी सांभलतां मुझने पण ए रुचि उपनी, जे एहवी सिद्धता माहरे प्रगटे, एहवो अभिलाष उपनो तेथी कहुं छं के हे परमपुरुष ! मुझ अनाथ दीन कर्मवशे भवभमताने भवसमुदयी पार उतार, संसारथी पार उतारवानी विनति तुम विना बीजा कोण आगल कहुं ? जे भवपार पाम्या ते आगल भवपार पामवानी विनति करूं ? ते भणी स्वामी ! मुझने संसार निस्तार करो. ए वि - नति जे जीव, भवथी उद्विग्न मोक्षाभिलाषी थयो, ते आतुर थइने कहे छे के हे अजित जिन ! मुने तारजो, संसारथी पार उतारजो. तारजो हे प्रभुजी तुमें दीनदयाल छो. हे स्वामी ! परमभावकरुणाना करणहार हो ॥ इति प्रथमगाथार्थः ॥ १ ॥ जे जे कारण जेहनुं रे, सामग्रीसंयोग ॥ मलतां कारज नीपजे रे, करतातणे प्रयोग ॥ अ०॥२॥
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द्वितीय श्रीअजितजिन स्तवनम्.
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अर्थः--हवे जे कार्यन जे कारण छे, ते कारण तथा सामग्री ए बेनो संयोग मलतां कार्य नीपजे, जेम घटरूप कार्य, तेहने दंड, चक्र, चीवर, निमित्त कारण छे, तथा मृत्तिका उपादान कारण छे, अने कुंभकार कर्त्ता छे, जे कार्य अभेद तेहनो तेहवो, कर्ता पण अभेद, जे कार्य कर्तायी मिन्न, तेनो कर्ता पण भिन्न; एटले घटकार्य ते परवस्तु छे, तेहनो कर्ता कुंभकार पण भिन्न छे, अने सिद्धतारूप कार्य आत्मायी अभिन्न छे, तो तेहनो कर्ता आत्मा पण अमिन्न छे.
हवे आत्मा कर्त्ताने सकलस्वधर्मव्यक्त रूप जे सिद्धता, ते कार्य, तेहने देव श्री अरिहंत देवाधि देव तथा गुरुनिZथादिक ते निमित्त कारण मल्यां, अने सामग्री कर्म भूमि साधर्मिकादिक संयोग मल्यां मोक्षरूप कार्य नीपजे, माटे माहरु मोक्षरूप कार्य तेना निमित्तकारण श्री वीतराग तुमें छो, तेथी तमने आश्रयतां मोक्षरूप कार्य नीपजे, पण कारण सर्व मल्यां, अने कर्त्ता जे आत्मा ते जो तेम प्रयोगसाधननो व्यापार न करे, तो कार्य निपजे नहीं, केमके अरिहंतादिकना निमित्त पामीने पण अनेक जीव आत्मा साध्यावलंबी तथा साधनपरिणति थया विना मोक्षकार्य निपजाव्या विना हजी संसारमां भमता दीसे छे, तेमाटे कर्त्ता जे आत्मा ते जो मोक्षसाधनरूप प्रयोग कहेतां व्यापार करे, तो सिद्धतारूप कार्य नीपजे ॥ इति ॥ द्वितीयगाथार्थः ॥ २ ॥ कार्य सिद्धि कर्ता वसु रे, लहि कारण संयोग। निजपदकारक प्रभु मल्या रे, होए निमित्तह भोग ॥
अ०॥३॥
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दे० चो० बा. -~~~rrrrr-~-~~~ ~-~~-~
अर्थः--माटे कार्यसिद्धतानी निष्पत्ति ते कर्तीने हाथ छे, जेम दंडरूप कारण तेने जो कर्त्ता घटरूप कार्य करवाने प्रवतवे तो घटरूप कार्य करे, अने तेज दंड जो घटध्वंसने प्रवर्तावे तो घटध्वंस करे, ते माटे निमित्तनी प्रवृत्ति ते कर्ता जे कार्य करवाने प्रवर्त्तावे ते कार्य करे, माटे कार्यनी सिद्धि ते कर्त्ताने हाथ छे, पण कारणनिमित्तादिक तेनो संयोग मल्यां कार्य निपजे, ए पद्धति छे. माटे कोई संसारी आत्मा निज कहेतां पोतानुं आत्मिक पद परमानंद महोदयरूप तेहनो कारक कहेतां करवावंत तेने मोक्षना पुष्टकारण प्रभुजी श्री अरिहंत मल्यां थकां अवश्य निमत्तनो भोग थाय, एटले जे जीव संसारथी उभग्यो मोक्षाभिलाषी थयो, ते मोक्षना निमित्त श्री तीर्थकर देव पामीने, हर्षनो भोग आस्वादन पामे घणो विलास उपजे कार्योथी कारणनी पुष्टता वांछे, ए नीति छे इति ॥३॥ अजकुलगत केसरी लहे रे, निजपद सिंह निहाल॥ तिम प्रभुभक्ने भवि लहे रे, आतमशक्ति संभाल ॥
अ० ॥४॥ अर्थः---ते उपर दृशांत कहे छे. जेम कोई केसरी सिंह जन्मकालथी बकराना टोलानां बध्यों छे तो ते एम जाणे जे बकरानो टोलो तेज माहेर कुयुब छे, त्यां किवार बीजो सिंह आवे, तेवारें बकरा सर्व नासे, अने पोते पण नासे, एम करतां किवार सिंहनो आकार देखीने पोता सामु जुए, त्यारे ते पोतानो समान आकार जोईने विचारे जे एहनने मारूं तो तुल्यपणुं दीसे छे, ने हुं पण सिंह छु, पछी निर्भय थाय.
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द्वितीय श्रीअजितजिन स्तवनं.
ए रीतें अज केतां बकरानां कुल केतां टोलामां हे गत केतां रह्यो जे सिंह, ते सिंहपणुं भूली गयो, ते बीजा सिंहने देखीने पोतानुं सिंहपणुं संभारे, तिम केहतां ते रीतें प्रभुनी भक्ति करतां भव्यजीव लहे, कहेतां पामे. पोतानी आत्मशक्तिनी संभाल कहेतां ओलखाण पामे, जे वीतराग देव देखीने तेनी भक्ति करतां तथा सेवतां थकां उपजे जे वस्तुस्वरूपसत्ताधर्मे हुं पण वीतराग निःकर्मा शुद्धस्वरूपी छु, ए पण पहेलां संसारी जीवद्रव्य हता, पछी सिद्ध थया, तेम हुँ पण प्रथमथी संसारी छु, पण जो साधुं, तो सिद्धरूप थाउं. ए सर्व ओलखाण, प्रभुसेवना करतां निपजे ॥ ४ ॥ इति चतुर्थ गाथार्थः ।। कारण पद कर्त्तापणे रे, करी आरोप अभेद ॥ निज पदअर्थी प्रभुथकी रे, करे अनेक उमेद ॥१०५॥
अर्थः--तेवारें कोई कहेशे जे अरिहंत देव तो अन्य जीवना मोअकर्ता नथी, तो अरिहंतदेव पासें मोक्ष मागो छो? तेने उत्तर कहे छे, के कारणपद जे अरिहंतादिक ते अतिपुष्टालंबन छे, माटे जे कारण तेनेज अभेदक पणे आरोप करीने निज कहेतां पोतार्नु पद जे शुफ सिझता, तेहनो अर्थी जे भव्य जीव, ते प्रभु श्रीतीर्थकर देवयी अनेक सभ्यक्त्वादिक गुणनी उमेद कहेतां आशा करे, जे हे प्रभुजी! मुउने मोक्षनां कारण तथा मोक्ष तमें आपो. एटले निमित्त कारणने कर्त्तापणे आरोप करी स्तुति करी ॥ ५ ॥ अहवा परमातम प्रभु रे, परमानंद स्वरूप ॥ स्याद्वादसत्ता रसी रे, अमल अखंड अनूप ॥अ०६॥
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दे० चो० बा०
अर्थ:-- हवे जे निमित्त पामीने उपादान समरे, पलटण पामे, ते रीत कहे छे, अथवा प्रभु परमात्मा तेहनुं स्वरूप कहे छे. आत्मा त्रण प्रकारना छे, एक बहिरात्मा, बीजो अंतरात्मा, बीजो परमात्मा. तिहां जे शरीरादिक औदायिक भावकर्मजनितने आत्मपणे गणे, ते बहिरात्मा कहियें, अने जे शरीरादिक औदयिकभावथी आत्मा असंख्यात प्रदेशी, चेतनालक्षणज्ञानादि अनंतगुण पर्याय सहित अरूपी भिन्न एटले आत्मा अरूपी, शरीर रूपी, आत्मा सहज अकृत्रिम, शरीर संयोगी कृत्रिम, तेमाटे कर्मयोगें शरीरादिमध्ये रह्यो, पण भिन्न छे, एहवो मेदज्ञानवंत, समकित गुणठाणाथी मांडी क्षीणमोह गुणाना चरम समय पर्यंत अंतरात्मा जाणवो, तथा ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनी, अंतराय, ए चार कर्म क्षय गयां, केवलज्ञानी ते सयोगी अने अयोगी केवली तथा अष्टकर्ममुक्त सिद्धात्मा, ते परमात्मा जाणवो, एटले श्री अजितनाथ अरिहंत एवंभूतनयें परमात्मा छे, प्रभु छे, सर्व सिद्ध वस्तुगतें पोताना गुणपर्यायरूप संपदाना प्रभु छे, कोई द्रव्य, अन्यद्रव्यनुं स्वामी होयज नहीं, ज्यां सुधी जे द्रव्यना चिंतनमांहे पण परद्रव्यनुं स्वामिपणं छे, त्यां सुधी ते द्रव्य शुद्ध नहीं, माटे श्री अजित अरिहंत पोताना स्वभावना प्रभु छे, अने उत्तम जीव पोताने कर्मवश पड्या मोहें मुज्या जाणी, पोताने रंक समान गणे, अने अमोही स्वाधीन या तेहने प्रभु कहे, अने अमोहीने अवलंब्यां पोतें स्वसंपदाना धणी थाय माटे जेहना कारणपणायी पोतानुं प्रभुत्वं पामीयें, तेहने प्रभु कहीयं, स्तवीयें, जगतमांहे पुगलना मंयोगें जे सुख कहेवाय छे, तेतो आरोपमात्र छे, एटले जातें सुख नयी
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द्वितीय श्री अजितजिन स्तवनं.
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॥ उक्तं च विशेषावश्यके || जत्तोचिय पञ्चक्खं, सोम्म सुहं नत्थि दुःखमेवेकं ॥ तप्पडियार विभत्तं, तो पुन्नफलंति दुक्खंति ॥ १ ॥ हे सौम्य ! 'प्रभासज्ञानावलोकनेन' ए सर्व दृश्यमान ते सुख नथी, जे कांइ ए संसारमाहे, स्रग्चंदन अंगना संयोगयी उपनां जे सुख, ते सर्व दुःखज छे, विषययी उत्सुकताथी उपनी जे अरति तेहनी ए प्रतिकार के. एटले दुःख तेनेज तवना अजाणपणायी, सुखदुःखरूप भेदें वेहेंच्युं छे, पण जातें एक ज दुःखरूप हे || यथा || लोक || औत्सुक्य मात्रमवसादयति प्रतिष्ठा, क्लिश्नातिलब्धपरिपालनवृत्तिरेव ॥ नातिश्रमापगमनाय यथा श्रमाय, राज्यं स्वहस्तवृत दंडमिवातपत्रम् ॥ १ ॥ जे पुण्यफल ते सर्व तच्चयी दुःखरूप छे ॥ उक्तं च ॥ विसयसुदं दुःखं चिय, दुक्खपडिआरओ तिगच्छव || तं सुहमुवचाराओ, न उयारो विगा तत्थं ॥ | १ || विषयसुख ते तवयी दुःखज छे. जेम रोगीने क्वाथपान छेदन दंभनादि चिकित्सानी परं हित भासे छे. पण दुःखपं छतुं छे, मात्र उपचारें सुख भासे छे, अने जे उपचार ते तथ्य पारमार्थिक सुख नहीं, सुख ते मुक्त आत्माने निरुपचरित स्वाभाविक निःप्रतिकाररूप आत्मिक आनंद छे, तेज सुख छे, तथा शातानो उदय, ते पण दुःख, अशातानो उदय ते पण दुख, कारणके शाता ते कर्म छे, अने कर्मनो विपाक ते गुण रोधक छे, स्वगुणनो रोध तेहने सुख कोण कहे ? ॥ उक्तं च ॥ सायासायं दुक्खं, तविरहंम्मि य सुदं जओ तेणं ॥ देहिंदिय सुदुक्खं, सुक्खं देहिंदियाभावो || इति ॥ तेमाटे संसार सर्व दुःखरूप छे, अने सर्व परभावना संगथी रहित, स्वाभाविक जे आनंदः तेने परमानंद कहीयें, ते परमानंद, श्री अजितना
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५६२
दे० चो० बा०
थर्नु स्वरूप छे, जीवादि षट् द्रव्य छे, तेमध्ये पंचास्तिकाय ते परमार्थे द्रव्य छे, तथा छठो काल ते उपचारद्रव्य छे. ए चर्चा, तत्वार्थ, विशेषावश्यक तथा धर्मसंग्रहणी मध्येयी जोवी. तेमध्ये एक एक द्रव्यने विषे अनंता गुण, अनंता पर्याय छे, ते अनेकता जाणवी, अने एक द्रव्यने विषे एक समये स्यानित्यं स्यादनित्यं, स्यात् एकं, स्यात् अनेकं, स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् मिन्नं, स्यात् अभिन्नं, स्यात् वक्तव्यं, स्यात् अवक्तव्यं. ए सर्व स्वभाव, समकाले वर्त्तता पामीयें छीये, एटला धर्म समकाले जेमांहें वरते, ते धर्मनी अनंत प्रवृत्तिने स्याद्रावाद कहिये ।। स्यात् इति पदं अनेकांतोद्योतकं एहवी स्याद्वादमयी जे आत्मानी गुणपर्यायरूप सत्ता छे, तेना रसी कहेतां रसीया छो, एटले स्याद्रादमयी आत्मसत्ता, तेहना भोगी छो, तथा अमल कहेतां कर्ममल रहित छो, अखंड कहेतां किवारें खंड न पामो, अनुप कहेतां जेहनी उपमा नयी, एहवा प्रभु देखीने माहारे लाभ थयो ॥ ६ ॥ आरोपित सुख भ्रम टल्यो रे, भास्यो अव्यावाध ॥ समस्यो अभिलाषीपणोरे, का साधन साध्य ॥अ०७
अर्थः--एहवा प्रभुजी आत्मानंद भोगी, आत्मस्वरूप रमणी, तत्त्वविलासी, तेमनें जोइने माहरे अनादि काल- इंद्रियसखने विषे जे सुखनुं भासन ते आरोपितसुखभ्रम हतो, ते टल्यो, अने अव्याबाध, आत्मिकआनंद सुख ते भास्यु. जिहां सुधि विषय सुख उपर सुखबुद्धि हती, तिहां सुधि विषय सुखनो अभिलाष हतो, ते हवे तो सर्व विषय रहित, अव्याचाच सुखी श्री प्रभुजी दीटा, तेथी ते भव्य जीवने पण
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द्वितीय श्रीअजितजिन स्तवनं.
सुख, ते अव्याबाध छे. एहवो निर्धार थयो, तेबारे अभिलाष पण अव्याबाध सुखनो थयो, माटे अभिलाषीपणुं समर्यु, तेवारे स्वरूपानुयायी थयो, एटला काल सुधी विषय सुखने अभिलाषे, आत्मा विषयसुखनो कर्ता हतो, ते जिवारे एहने अव्याबाध सुखनो अभिलाष थयो, तेवार कर्त्ता पण तेहवांज मेलवे, अने साध्य पण तेहीज होय, एटले आज सुधि साध्य विषयसुख- हाँ, तेयी साधन पण विषयसुखनां मेलवतो हतो, हवे प्रभु श्री अजितनाथ निर्विकारी दीठा, तेवारे ते अव्याबाध सुख साध्य थयो, एटले साध्य साधन समयुं ॥ ७ ॥ ग्राहकता स्वामित्वता रे, व्यापक भोक्ताभा ॥ कारणता कारजदशारे,सकल ग्रयु निज भाव॥अ०८॥ __अर्थः-एटला काल सुधि ए जीव विषयसुखनो ग्राहक हतो, हवे शुफ अव्याबाध सुखी परमेश्वर देखीने ए जीव, अन्याबाध सुखनो ग्राहक थयो, एटला काल सुधि भूलनो वाह्यो विषयसुखनां हेतु जे धन, स्त्री, वस्त्र, आहारादिक परभाव, तेनु स्वामिपणुं करतो हतो, हवे ज्ञानादिक अनंत गुण संपदाना स्वामी श्री देवाधिदेव देखीने ए जीवने पण अनंत, ज्ञानादिक स्वसंपदानुं स्वामिपणुं थयुं एटले ग्राहकभाव तथा स्वामित्वभाव समर्यो. एटला काल सुधि ए आत्मा विषयादिक परभावमध्ये व्यापक हतो, ते हवे आत्मानंद मन्ये तथा तेना साधनमध्ये व्यापक थयो, तथा अनादि काल सुधी परभावनो भोक्ता हतो, हवे परमप्रभु स्वभावभोगी देखीने, ए पण स्वभावनो भोक्ता थयो, एटले व्यापकता तथा भोक्तापणं समयु. एटला काल सुधि भुलें पड्यो ए आत्मा, सं
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दे० चो० बा०
सारमा आठ कर्मरूप उपाधिन उपादान कारण हतो, हवे शुद्ध स्वरूपी, निःकर्मा, तत्त्वदेव देखीने पोताना शुद्ध स्वरूपy उपादान कारण थयो, एटला काल सुधि ए आत्मा आठ कर्म रूप कार्यनो कर्ता हतो, हवे परमदेवनी श्रमा पामीने संवर निर्जरा रूप कार्यनो कर्ता थयो; माटे हे परमेश्वर ! हे जगदाधार ! हे दीनबंधो ! तुमारे अनुयायी मारी चेतना प्रवर्ती तेथी कारण तथा कार्य इत्यादि बीजी पण अनंती आत्मशक्ति, ते सर्व समरवा लागी, एटले सर्व आत्मानी शक्ते आत्मभाव ग्रह्यो, अने परभाव तजवा मांड्यो॥८॥ इति अष्टम गाथार्थः ।। श्रद्धा भासन रमणता रे, दानादिक परिणाम ॥ सकल थया सत्ता रसी रे, जिनवर दरिसण पाम
॥अ०॥९॥ अर्थः---एटला काल सुधि उदैक पुण्य प्रकृति तेनो विपाक जे शातावेदनी प्रमुख गुणरोधक तत्त्वविमुख तेना स्वाद, जीवने मीटा लागता हता, तेथी ते पुण्यना उदयने सुख मानतो हतो, ते हये एवी श्रद्धा थइ जे अव्याबाध निःकर्म पद, तेहीज मारु साध्य छे, तथा जे वस्तुनी यथार्थतानुं ज्ञान थयु. ते भासन केतां जाणपणं ते पण समयं, अने रमण जे पुद्गलना वर्णादिकमां हवं, ते सर्वस्वरूपy रमण थयु, तथा १ दान, २ लाभ, ३ भोग, ४ उपभोग, ५ वीर्य. ए पांचनो क्षयोपशम ते, एटला काल सुधि दान पुद्गलनो हतो, लाभ पण पुद्गलनो मानतो हतो, तथा भोगपणण पुद्गलनो, उपभोग पण संसारमा पुद्गलनो हतो, अने वीर्य पण बालवीर्य, ते पुद्गल
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द्वितीय श्रीअजितजिन स्तवनं.
ग्रहण बंधन प्रमुख आठ करणपणे प्रवर्ततो हतो, ते सर्व सत्तापणे पोताना जीवद्रव्यना मूलधर्म ज्ञानादि अनंत गुणपर्याय रूप तेना रसीया थया, एटले पुद्गलानुयायिता तजीने, शुद्ध स्वरूपानुयायी थया, एटले स्वसत्ता ते माहारो धर्म, एहवी श्रद्धा थइ, अने स्वगुण जे पोतानो भावनिक्षेपो ते सार छे, एहq भासन थयुं, तथा रमण ते, आत्मधर्म क्षमादिकमां थयु, अने सहकाररूप ते दानगुण, गुणप्राग्भाव रूप ते लाभ, भोग स्वगुणनो थयो, उपभोग स्वपर्यायनो, वीर्य ते पंडित वीर्य थइने, संवर हेतु निर्जरारूप थयो. ते सर्व हे वीतरागदेव ! हे जिनवर ! तमाहं दर्शन पामीने एटले प्रभु दीठे माहारा एटला गुण समर्या ।। ९॥ इति नवम गाथार्थः ।। तेणे नियामक माहणो रे, वैद्य गोप आधार ॥ देवचंद्र सुख सागरु रे, भाव धर्म दातार ॥अ०॥१०॥
अर्थः-तेमाटे हे प्रभु ! तमे संसारसमुद्रनो पार पमाडनार एबुं जे चारित्रधर्मरूप झहाज, तेने चलाववाने निर्यामक समान छो. तथा तत्वधर्म पणे पोतें परिणम्या, तेथी द्रव्यहिंसा तथा भावहिंसाथी रहित छो, अने परम अहिंसक धर्मना उपदेशक छो माटे माहण छो, तथा आत्मअशुझता रूप भावरोग तेनी सम्यक्ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप भावचिकित्सा, तेने देखाडवाना वैद्य छो, तथा भावी ज्ञानादिगुण अने द्रव्यथी छकाय रूप जीवनी रक्षा करवाने परम गोप छो, वली भवअटवीमाहे भमता प्राणीयोने हे प्रभु तमे आधार छो, सर्व देवमांहे चंद्रमा समान पोताना सुखना सागर एहवा हे श्री अजितनाथ परमेश्वर, तमे भावधर्म जे जीवद्रव्यने विषे व्या
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दे० चो० बा०
पकपणे रह्यो जे सम्यक् ज्ञान, सम्यक दर्शन, सम्यक् चारिवरूप भावधर्म तेना दातार छो. एटले हे प्रभु ! तुम दीठां भावधर्म सांभरे, तमे भावधर्मना उपदेशक छो, सर्व जीवने भावधर्मना दातार छो ॥१०॥ इति श्री अजितजिनस्तवनम् ॥
॥अथ तृतीय श्रीसंभवजिन स्तवन प्रारंभः॥
॥धणरा ढोला ॥ ए देशी ॥ श्रीसंभव जिनराजजी रे, ताहरूं अकल स्वरूप ॥ जिन स्वपरप्रकाशक दिनमणि रे, समतारसनो भूप ॥जि०॥१॥ पूजो पूजो रे भविकजिन पूजो, हारे प्रभु पूज्यां परमानंद ॥ जि०॥
अर्थः--हवे श्रीसंभवनाथ जिन कहेतां श्रुतकेवली, अवविज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी प्रमुखमांहे राजा समान, एवा हे संभव प्रभु ! ताहरूं कहेतां तमारुं अकल कहेतां कोइयी कलाय नहीं एहवं स्वरूप छे, एहवा जिनवरने पूजो. अहो भव्यो! तमे एहवा परम पूज्य परमेश्वरने पूजो; वली प्रभु केहवा छे ? . जे स्व केतां पोतानो धर्म अने पर केतां धर्मास्तिकायादिकनो धर्म, तेने प्रकाशवाने दिनमणि केहेतां सूर्य जेवा छे, तथा समता जे सर्वने विषे राग द्वेष रहीतपणं, तेहना भुप केतां
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तृतीय श्रीसंभवजिन स्तवनं.
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राजा छे, एहवा तत्त्वप्रकाशक अरिहंतने पूजो, वारंवार पूजो, भविक केतां मोक्ष योग्य मोक्षरुचि जीव, तमे पूजो, ए स्वरूप-. भोगी, निर्मलानंदमयी, अज, अविनाशी, अक्षय, अणाहारी, अशरीरी, अनंतज्ञानमयी, अनंतदर्शनमयी, शुद्धस्वरूपी, देवतवने पूज्यां परमानंद थाय. जे पुद्गलयोगथी सुख उपजे, ते उपचारसुख माटे ते परमानंद नहीं, अने जे आत्मानुं सहज अविनाशी, अप्रयासी, स्वरूपनुं सुख अव्याबाधरूप तेने परमानंद कही यें, ते सुख, अरिहंत देवने पूज्यां पामी जें. यद्यपि अरिहंत देव, कोइ अन्य जीवना अव्याबाधादि गुणना कर्ता नथी, पण जे भव्यजीव, पोतानुं शुद्धपारिणामिक परमसिद्धता स्वरूप साध्य करीने वीतराग परमात्माने सेवे, अवलंबे, ते नियमा पोतानुं तत्त्व प्रगट करे, नियामिक कारण माटे, एहथी स्वरूप प्रगट थाय एमज धारवू ॥ १ ॥इति प्रथम गाथार्थः॥
अविसंवाद निमित्त छो रे, जगत जंतु सुखकाज ॥ जि०॥ हेतु सत्य बहुमानथी रे, जिन सेव्यां शिवराज ॥ जि०॥२॥
अर्थः-वली हे प्रभुजी ! तमें अविसंवादि केतां विसंवाद जे निर्धार नहीं ते, अने तमें निश्चय निर्धार कार्यने करो, माटे अविसंवादनिमित्त कारण छो ॥ निमित्त लक्षणं ॥ कार्यमिन्नत्वे सति कर्तृत्वव्यापारवत्त्वे सति हेतुर्निमित्तमिति ॥ माटे हे प्रभु ! तुमें जगत्ना जीव तेना आत्मिक सुखरूप कार्य निपजाववाने प्रधान निमित्त छोजी, माटे हेतु केहेतां कारण ते.
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दे० चो० बा०
सत्य केहेतां साधुं तेने बहुमान केहेतां माहामोटमपणे सेवतां जे मुज सरिखो मोहवश पड्यो, तृष्णायें ग्रस्यो, पुद्गलनो रागी, असंयममयी, मिथ्यात्वें मूल्यो भाव, ते निरावार, अशरण एहवो हूं, तेने श्रीतीर्थंकर देव, परमतत्वमय, त्रैलोक्योपकारी, जेना नामयी परम कल्याण थाय, एहवा परमेश्वरनो योग मल्यो, माटे मारे ए वेला, ए घडी, धन्य एम असंख्यात प्रदेशें निःकर्मा, निःसंगी, स्वरूपभोगी देवतत्त्वनुं बहुमान करतो थको जे जिन केतां वीतरागने सेवे, ते जीव, परम कल्याणमयी पोतें थाय. इहां सत्यपद बेने जोडवं, हेतु सत्य ते अरिहंत देव आपणा मोक्षरूप कार्यना हेतु छे, तेनुं सत्य केहेतां साधुं बहुमान कर, एटले इहलोक, परलोक, इंद्रियसुखनी आशंसा टालीने अद्भुत वर्ण, गंध, संस्थानातिशय, वचनातिशय, प्रातिहार्य प्रमुख सर्व शुद्ध बहुमान कारण माटे चमान करवा योग्य छे, ते द्रव्यबहुमान पण जे अरिहंतना शुद्ध ज्ञानादि गुण अनंतानं सकल पुद्गलातीतपणानुं परम अरूपी अनींटिय पणानुं बहुमान ते सत्यबहुमान कहिए. एटले जिनशासनमध्ये १ नाम, २ थापना, ३ द्रव्य, ए ऋण निक्षेपा ते कारण छे. अने चोथो भावनिक्षेपो, ते कार्यवस्तु छे, माटे जिहां सुधी प्रभुना अतिशयादिकना योग विकल्प तिहां सुधी द्रव्यबहुमान छे, अने जे दर्शनगुणे प्रभुतानुं भासन पाथी तत्त्वप्राग्भावनुं जे बहुमान, ते भावबहुमान कहिए. अने नामादिक ऋण निक्षेपा ते भावना कर्त्ता छे, अथवा भावाभिलाषी छे, तो ते पण सत्यबहुमान जाणं. ते सत्यवहुमानवी जे जिनसेवना तेज प्रभुनी आज्ञायें परभाव त्याग स्वभाव ग्रहण करतां शिवनिरुपद्रव जे सिद्धपणं, ते राज पामीयें. एटले सांसारिक शिव
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तृतीय श्रीसंभवजिन स्तवनं.
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ते उपचारी अल्पकाली अने मान्यतारूप छे, माटे जे निःकर्मा
अविनाशी शिव
पणे सर्वस्वरूप प्राग्भार, ते निरुपचरित, कहिएं ॥ २ ॥ इति द्वितीय गाथायें | उपादान आतम सहीरे, पुष्टावन देव ॥जिना उपादान कारणपणे रे. प्रगट करे प्रभु सेव ॥जि० ॥३॥
अर्थ :-- हवे आत्मनिष्पत्तिविषे तो उपादान कारण मूल छे, तोपण निमित्त कारण विशेष है, ते देखावे छे. जे कारण तेज कार्यपणे अमेदं परिणमे ते उपादान कारण जागावं, अने जे कर्त्ताना व्यापारे कार्यने निपजाववानुं सहकारी थाय, तेने निमित्तकारण कहियें. ए निमित्तकारण ते कार्ययी भिन्न होय. इहां कोई पृछे जे उपादान कारणमां तवा निमित्तकारणमा जे कारण धर्म छे, ते वस्तुमां छतो पर्याय छे के अछतो उपजे हे ? तेने उत्तर कहे छे. जो कारण पर्याय वस्तुव होय तो सिद्ध भगवान्मां पण उपदान कारण पाम्यो जोइयें ? तेतो नथी देखातं, केम जे सिद्धमां कारणपणं होय तो कांहीं कार्यपण निपजायुं जोइयें ते कार्य तो संपूर्ण निपनुं छे. तथा निगोदावस्थाविषे पण उपादान कारण मानवुं पड़े, ते पण संभवसुं नयी, केम जे निगोदावस्यामां उपाशन कारण मानियें, तो आत्मसिद्धिरूप कार्य पण थवं जोइयें. ते केम ? जे कारण, ते नियमा कार्य करे, अने कारणकाल, कार्यकाल, ते नियमा अभेद छे, ते विशेषावश्यकमां मतिज्ञानाधिकारी जोइ लेजो. तेमाटे कारणपर्याय ते उत्पन्न छे, ते कार्य संपूर्ण थये कारणतानो अभाव छे, अने जेनी सादि होय तेनोज अंत थाय, माटे कारणपर्याय ते सादि सांन छे, इहां कोई कहे
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दे० चो० बा०
जे उत्पन्नपर्याय ते केबारें उपनो ? त्यां कहे छे, के जेवारें कर्ता कार्यरुचि थाय, ते मारे कारणता उपजे, एटले भव्य तथा अभव्य सर्व जीव संपूर्ण सिद्धतानां उपादान छे, पण सर्वे सिद्धता निपजावता नथी, श्या माटे ? जे कारणपणुं नथी, जो कारणपणुं प्रगटे, तो कार्य निपजे, माटे सर्व आत्मा पोत पोताना गुणप्रागभावरूप सिद्धता कार्यना उपादान अवश्य छे, पण श्री जिनवरदेव शुद्धतचा अवलंबने कारणता निपजावे, माटे पुष्ट कहेनां नियामकी मोटें आलंबन अरिहंत देव छे, जेमाटे सालंबन विना आत्मा अनादि दोषयी निवृत्तिने तत्त्वने आश्री शके नहिं, माटे अरिहंत देवनो तीर्थकर नामकर्मनो विपाक, तेहथी उपनां समवसर गादि जे आश्चर्य, तेने आलंब्यां संसारी जीव पोतानो आत्मधर्म नजीक करे, तो जगत् जी. वना आधार श्री तीर्थकरनी स्वरूप संपदाने आलंब्यां थकां आत्मधर्म अवश्य निपजे, माटे अरिहंत देव, ते भव्य जीवने पोतानी शुद्धसत्ता प्रागभावे करतां मुख्य आलंबन छे, हवे श्री वीतरागदेव पुष्टआलंबन केवी रीतें छे ? तेनुं कारण कहे छे, जे आत्माने विषे उपादानपणुं अनादिनुं छे पण ते आत्मसिद्धतारूष कार्यने करतुं नथी, शा माटे ? जे उपादान कारणपणुं थयुं नयी, ते श्री जिनवर वीतरागनी जे सेवना, ते उपादान कारणपणुं प्रगट करे छे, एटले अरिहंत देवनी द्रव्य भावथी भक्ति करतां संसारी आत्मा मोक्षनो साधक थाय, तेमाटे श्रीजगद्दयाल, कमरोगना भाववैद्य, मिथ्यात्वरूप अंधकार टालवाने सूर्यसमान, ममकाररहित, एवा गुणी प्रभुने सेवतां आत्मा मोक्षरूप कार्य निपजाववाचें कारणपणुं प्रगट करे, तेथी प्रभुजी पुष्टालंबन जाणवा ॥ ३ ॥ इति तृतीयगा० ॥
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तृतीय श्रीसंभवजिन स्तवनं.
कार्यगुण कारणपण रे, कारण कार्य अनूप ॥जि०॥ सकल सिद्धता ताहरी रे, माहरे साधन रूपाजि॥४॥ __ अर्थः- हवे अनादि मिथ्यादृष्टि जीवने शरीर, इंद्रिय, वि. षय, कषायरूप कार्य करतां अनंतो काल गयो, ते जेबारें सम्यग्दृष्टि गुण प्रगट्यो, तेबारे रत्नत्रयी जे सम्पर दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र, ते पोतानुं कार्य जाण्यु. पछी श्रीअरिहंत सेवना आगमश्रवणादि कारण सेवीने रत्नत्रयीनो क्षयोपशम प्रगट कर्यो, एटले यथार्थ तत्त्वश्रद्धान, तत्त्वभासन तत्त्वरमण, परभावतत्व त्यागरूप भेदरत्नत्रयी जेटली प्रगटी, ते पहेलां कार्यगुणें थपी, पछी तेज, क्षायिक अभेद रत्नत्रयीरूप स्वकार्य करवाने कारणपणे प्र वे, तेवार जे कार्यपणे हतुं, ते कारणरूप थाय, पछी तेहीज कारणरूप, भेद रखत्रयी ते क्षायिक भावरूप कार्यरूपें परिगने, माटे जे कारण, तेहीज कार्य थाय. ए उपादान कारण कार्यरूप पति कही, हवे निमित्तपणे कहे छे. हे प्रभुजी ! तमारुं शुक्र स्वरूप तेहीज तमारो कार्यगुण छे, पण ते भव्य मोझरुचि जीवने कारणपणे छे, केमके जे उपादानने तारा शुद्ध गुण तेने कारणपणे अवलंबी तमारा जेवी सत्ता प्रगट करवी, ते कार्य छ, एटले जे कारण तेहीज करवाने संकल्पें कार्य छ, माटे हे प्रभुजी, 'तुमारी सकल केतां संपूर्णसिद्धः। सकल प्रदेशे निरावरणमा सर्वस्वधर्म प्रागभावता ते माहरे साधनरूप छे, ए.ले तुमारी शुद्धतानुं जे साधन छ, तेने जेबारें माहरो आत्मा परम प्रभुतारूप संपदाने अवलंबे, तेवरे पर त्यानी थइ , स्व पावलंबी थाय, तेवारें माहारी तित. तिजे, मा. तमारी सि
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दे० चो० बां०
द्धता निपजे, माटे तमारी सिद्धता ते माहारे साधनरूप छे; तेथी हुं जे माहरूं स्वरूप प्रगट करूं, ते उपकार तमारो छे, तेथी माहारे तो आधार, त्राण, शरण, सर्व हे देव ! तमेज छो ॥ ४ ॥ इति चतुर्थ गाथार्थः ॥
एकवार प्रभुवंदना रे, आगम रीतें थाय ॥ कारणसत्यें कार्यनी रे, सिद्धि प्रतीत कराय ॥ जि० ५॥
अर्थः-- माटे श्रीअरिहंत अनंतज्ञानी, अनंतदर्शनी, शुद्धचारित्री, अविकारी, अकषायी, स्वरूपभोगी, स्वरूपरमणी, स्वरूपविलासी, त्रैलोक्यपूज्य, त्रैलोक्यउपकारी, चालता भावसूर्य, कर्मरोगना महांवैद्य, परमेश्वर, परमोपकारी, तेने एकवार पण जे रीतें आगम कहेतां सिद्धांतमां कथं छे, ते रीतें जो वंदन थाय, एटले अनुष्टान वर्जीने गुणबहुमानें अद्भुतता, आश्चर्यता, तंदू विरहकातरतायें जो थाय, तो माह मोक्षरूप कार्य निपजे, एहवी प्रतीत कराय, शा माटे ? जे कारणसत्तें कहेतां छते कारणें अथवा कारण सत्यें कार्यनी सिद्धि एटले निष्पत्तिनी प्रतीत कराय, अने कार्य पण निपजे, एटले श्रीप्रभु परमात्माने विधिएं वंदना करतां उपादान जे आत्मा, ते गुणानुयायी थयो, तो निमित्त तथा उपादान बेढ कारण साचां मल्याथकी कार्य पण साधुं निपजे, जेम स्त्री, धन, विषयादिक अशुद्ध निमित्त मले तेवारें आत्मा अशुद्ध उपादानी थाय. तेथी संसार अशुद्धतारूप कार्य निपजे छे, तो श्रीवीतराग शुद्ध निमित्त मलेथी उपादान जे आत्मा ते शुद्धपरिणामी थाय. तेथी, शुद्ध सिद्धतारूप कार्य निपजेजी, अनादिकाल संसारमां
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तृतीय श्रीसंभवजिन स्तवनं.
भमतां न आव्युं एहवं अरिहंता बहुमान ते जो एकवार आवे, तो कार्य निपजवानी प्रतीति थाय ॥५॥ इति पंचम गाथार्थः॥ प्रभुपणे प्रभु ओलखी रे,अमल विमल गुणगेह॥जि०॥ साध्यष्टि साधकपणे रे, वंदे धन्य नर तेह ॥जि०॥६॥ .. अर्थ:--हवं शुद्धसत्ता परिणामिपणे संसार तथा परजीवनी सिद्धिना अकर्ता अने सेव्यां सिद्धि प्राटे, वली अमल कहेतां राग द्वेषादि आवरणादि मलथी शून्य, विमल कहेतां भाव उज्ज्वलतावंत, गुणगेह कहेतां ज्ञानादि गुगना घर, एवी रीते प्रभुन जे रूप छे, तेने ओलखीने साध्यदृष्टि एटले पोतानो आत्मा परमानंद रूप छे, तेनी सर्व संपदा प्रगटाववा रूप साध्य नजरमा राखीने एटले तत्त्वकार्य आलंबनी थइने साधकपणे कहेता पोत साधक थइने, जे पोताना ज्ञानादिक गुण क्षयोपशभी छे, ते सर्व गुण निर्मल करवारूप कार्य करवापणे प्रवर्त्तावतां ने शुद्धानंदी, परमज्ञानी, निर्मोही देवने वांदे, नमस्कार करे, ते नर धन्य, कृतपुण्य जाणवा ॥ उक्तं च ॥ जे पुण तिलोयन हो, भत्तिम्भर पूरिएण हीययेण ॥ वंदति न मंसंति, ते धन्ना ते कयस्था य ॥ ६॥ इति षष्ठगाथार्थः ॥ जन्म कृतारथ तेहनो रे, दिवस सफल पण तास॥ जगत शरण जिन चरणनें रे, वंदे धरीय उल्लासाजि०७
अर्थः--ते जीवनो जन्म कृतार्थ जाणवो, वली ते दिवस पण तेहवोज सफल जाणवो. जगन्ना जीव, मोहें मुंज्याने, भव अटवीमध्ये पड्याने, मिथ्यात्वे लुटाताने, परमशरण त्राण
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दे० चो० बा
आधारभूत एहवा श्रीजिन कहेतां वीतरागना चरणने जे उल्लास कहेतां हर्ष धरीने वंदे, कहेता बांदे, तेनो जन्म कृतार्थ॥७॥ निज सत्ता निज भावथों रे, गुण अनंतनुं ठाण ॥ देवचंद्र जिनराजजीरे, शुद्ध सिद्ध सुखखाणजि०८ ___ अर्यः--ते प्रमु निज कहेता पोतानी सत्ता अनंतगुण पर्याय रूप ते निज भावथी कहेतां पोताने भाव स्वभावेयी थया छे. एहवा जे गुणज्ञानादिक अनंत तेनुं ठाण कहेतां ठेकाणुं छे. सर्व देवमां चंद्रमा समान जिनराज, ते कहेवा छे? शुद्ध सिद्ध कहेतां निष्पन्न गुणनी खाण छे ॥ ८ ॥ इति संभवजिनस्तवनं ॥ ३ ॥ ॥अथ चतुर्थ श्रीअभिनंदनजिनस्तवनम् ॥
॥ ब्रह्मचर्यपद पूजीयें ॥ प देशी ।। क्युं जाणुं क्युं बनी आवशे, अभिनंदन रस रीति हो मित्त ॥ पुद्गल अनुभव त्यागथो, करवी जसु पश्तोत हो मित्त ॥ क्यु०॥१॥
अर्थ:--हवे श्रीअभिनंदन प्रभुनी स्तुति कहे छे. कोइ भव्य जीवने श्रीवीतरागदेवथी एकत्वपणे मलवानुं मन थयु, पण प्रभुजीने मलवानी शक्ति पोतामां अग देखतो विचारे छे, जे एहवा परमोत्कृट देवतावनी केम मिलाय ? तेनो विर
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चतुर्थ श्रीअभिनंदनजिन स्तवनं.
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हवंत थको बोले छे. जे ए प्रभुजीयी शुं जाणीयें केम बनी आवशे ? ते परम वल्लभयी मलवानुं मन छे, पण मलवु दुर्लभ देखीने बोले छे, जे हे प्रभु! श्रीअभिनंदन देव ! तुमयी माहरे शुं जाणीयें केम बनी आवशे ? अभिनंदन क तां संवर राजाना पुत्र, सिद्वार्थ राणीनी कुक्षियें उत्पन्न, गर्भे आव्याथी जिहां सुधी गर्भे रह्या, तिहां सुधी नित्य इंद्रे आवीने मुखपृच्छा पूछी, तेथी अभिनंदन एवं नाम ययुं, अथवा अति समरत पणे आनंदमयी तेथी अभिनंदन नाम थाप्युं, ते प्रभुथी रस कहेतां रसीली एकत्वता रीति केम बने ? पुद्गलना वर्ण, गंध, रस, फरसनो अनुभव कहेतां भोगवनुं, तेहना त्यागथी करवी, जेहनी प्रतीत एटले सर्व पुद्गलनो अनादिनो अशुद्धभोग तजीने जेवारें जे वर्त्ते. तेवारें तेने प्रभुथी मलि शकवानी प्रतीति थाय, पण पुद्गलभोगीने ते शुद्ध तस्वीथी एकत्वता न थाय, जे स्वरूपभोगी थयो, तेहने ए रसरीत बनी, ए॥ प्रतीत थाय, माटे पोताना आत्माने कहे छे, जे हे मित्र ! ए कार्य केम बनशे १ ते तुं विचारी जो ॥ १ ॥ इति प्रथमगाथार्थः ॥
परमातम परमेसरू, वस्तुगते ते अलिप्त हो मित्त ॥ द्रव्ये द्रव्य मले नाहें, भावे ते अन्य अव्याप्त हो मित्त ॥ क्युं० ॥ २ ॥
अर्थः-- प्रभु तो निःकर्मा केवली परमात्मा छे, तथा परम कहेतां उत्कृष्टश ईश्वर छे, एटले असंख्यात प्रदेशें पारिणामिकपणे रह्या जे अनंता गुणपर्याय, तेहना ईश्वर अथवा
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दे० चौ. बा.
.....nneinri.nnnnormanoranmanner
सर्व प्रकारे स्वाधीन, निर्दोषी तेथी परमेश्वर वली केहवा छ? जे वस्तुगतें कहेतां मूलवस्तुधमै अलिप्त छे, एटले सर्व जीवद्रव्य शुद्धसंग्रहनये अलिप्त छे, पण कोइ अन्यद्रव्य तथा रागादि अशुभ परिणतिथी लेपाय नहीं, अने अभिनंदन प्रभु तो सर्वनये विशुफ थया छे, टंकोत्कर्णन्यायें प्राग्भावधर्मी थया छे, ते सर्व रीते परथी अलिप्त छे, एटले जे लेपाय, ते मले, पण जे लेपाय नहीं, ते केम मले ? हवे छ द्रव्य छे, तेनां नाम कहे छे. १ असंख्यात प्रदेशी, लोकप्रमाण, अरूपी अक्रिय, अचल, अचेतन,चेतन तथा जीव अने पुद्गल ए बे द्रव्य, गतिपरिणामी छे तेने गतिनो सहायी थाय, ते धर्मास्तिकाय द्रव्य जाणवू. २ असंख्यातप्रदेशी, लोकप्रमाण, अरूपी, अचेतन, अक्रिय, स्थितिपरिणामी, एटले जे जीवपुद्गलने स्थिर रहेवानुं सहाय आपे, ते अधर्मास्तिकाय, ३ अनंतप्रदेशी, लोकालोकप्रमाण, अरूपी, अचेतन, अक्रिय, अने सर्व द्रव्यना पोते अवगाहक परिणामी, तेने अवगाहनानुं हेतु, ते आकास्तिकाय द्रव्य, ४ पुद्गलपरमाणु, अनंतारूपी, अचेतन, सक्रिय, पूर्णगलनधर्ममयी, १ वर्ण, २ गंध, ३ रस, ४ स्पर्शयुक्त, एक एक परमाणु, एहवा अनंत परमाणु ते सर्वलोकमांहे जाणवा, पण लोकथी बाहेर नहीं, ते पुद्गलास्तिकायद्रव्य, ५ चेतनालक्षण, १ ज्ञान, २ दर्शन, ३ चारित्र, ४ तप, ५ वीर्य, ६ उपयोग, लक्षण तथा अरूपी, स्वभावतुं कर्ता, असंख्यात प्रदेशी, एहवू एक जीवद्रव्य, तेहवा अनंता जीव, ने जीवास्तिकायद्रव्य कहिये, ए पांच द्व्यने प्रदेशनो संबंध छे, माटे अस्तिकाय कहिये. ६ तथा छठं अप्रदेशी, अरूपी, वर्तनालक्षण, निश्चयनयथी पंचास्तिकायनी वर्त्तनारूप अने व्यवहारें उपचारथी ज्योतिश्च
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चतुर्थ श्रीअभिनंदनजिन स्तवनं.
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कने चारे ओलखाय, ते कालद्रव्य, ए छ द्रव्यनां नाम कह्यां. मां १ धर्मास्तिकाय, २ अधर्मास्तिकाय, ३ आकाशास्तिकाय, ४ काल, ए चार द्रव्य, अपरिणामी कोइथी मिले नहीं, अने १ जीव, २ पुद्गल, ए बे द्रव्य परिणामी, एटले अन्यद्रव्ययी मिले, तेमांहे पुद्गलद्रव्य मांहोमांहे खंधपणं पामे, अने परानुयायी हेतुपणे परिणम्यो जे जीव, तेने प्रदेशें कर्मपणे वलगे, पण एक जीवधी बीजो जीव मले नहीं अने पुद्गल तो संसारी जीवथी मले, पण माहारा अभिनंदन परमेश्वर तो सिद्ध थया छे, मिथ्यात्वादिक हेतुयी मुक्त थया छे, तेने पुद्गल लागी शके नहीं, ए स्वरूप छे, माटे द्रव्यथी द्रव्य मले नहीं, एटले शुद्ध जीव ते अशुद्ध जीवथी मले नहीं. बीजं पण मूलनयें कोइ द्रव्य कोइ द्रव्यथी मले नहीं, ते द्रव्यें तो मलबुं नथी, तथापि कदाचित भावें मले तोपण भाव कहेतां वस्तुनी मूलपरिणति प्रवृत्तिरूप तेथी अन्यजीव तथा अन्य पुद्गलनुं अव्याप्तपणुं छे, एटले व्यापे नहीं, जे परव्यापकता ते उपाधियी छे, अने प्रभु श्रीअभिनंदन देवनो भावधर्म ते परम निर्मल थयो छे, सर्वस्वभावने अनुयायी थयो छे, एटले कर्त्ता, भोक्ता, ग्राहकता, व्यापकता, आधारता, रमणता, अवस्थानता, इत्यादिक सर्व स्वरूपपणे निपनां छे, ते केम अन्यद्रव्यने आपे १ तेथी प्रभुजीनां १ द्रव्य, २ क्षेत्र, ३ काल, ४ भाव, सर्व शुद्धधर्मी छे, ए द्रव्यादि चारनुं स्वरूप लखे छे | गाथा ॥ दबं गुणसमुदाओ, खित्तं ओगाह वट्टणा कालो || गुणपज्जाय पवति, भावो निअ वत्थुधम्मो सो ॥ १ ॥ इति आगमवचनात् ॥ गुणपर्यायनो समुदाय ते द्रव्य तथा प्रदेशावगाहना ते क्षेत्र, अने उत्पाद, व्ययनी वर्त्तना, ते काल, तथा क्रयना पोत
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५७८.
दे चो०. बा०
पोताना गुणपर्यायनी प्रवर्त्ति ते भाव, एम द्रव्यादि चारनी परिणति ते वस्तुधर्म छे, माटे ते प्रभु केम मले ? ॥२॥ इति द्वितीय गाथार्थः ।। शुद्ध सरूप सनातनो, निर्मल जे निःसंग हो मित्त ॥ आत्म विभूतें परिणम्यो, न करे ते परसंग होमित्त ॥
॥ क्यु०॥३॥ __ अर्थः-वली श्रीवीतरागदेव कहेवा छे ? शुद्ध कहेतां सर्वदोषरहित, एहवू स्वरूप जेहनुं सनातनो कहेतां नित्य छे, यद्यपि पर्यायें अनित्य छे, पण इहां कूटस्थ नित्यतायें नित्य छे, निर्मल ज्ञानावरणादि मल रहित, वली निस्संग केहेतां सर्व संग रहित, जेहनो असंख्यातप्रदेशमध्ये द्रव्यथी कोइ परमाणु मात्र रह्यो नयी, अने भावथी जेहनी परिणतिमाहे रागी द्वेषीपणे कांइ अन्य भाव नथी, एहवो निस्संग छे ते परमेश्वर, वली आत्मविभूति कहेता पोतानी शुनस्याद्वादरूप, अनंत, अज, अविनाशी, अखंड, स्वधर्मे परिणम्यो छे, एहवो जे परमेश्वर ते पर-केहेतां बीजा न्यनो संग एटले संबंध करे नहीं, एटले सत्तायें जीवद्रव्य परसंगी नथी, विभावें परसंगी थयो छे, पण जे सम्यक् रत्नत्रयी रूप साधनपणे परिणमीने शुद्धरूपे थया ते कोई रीतें परनो संग करे नहीं, तो एहवा प्रभुथी केम मलाशे ? माटे हे प्रभु ! तुमने मल्या विना मुझने सुख केम थाशे ? ॥३॥ इति तृतीय गाथार्थः ।। पण जाणुं आगम बले, मिलq तुम प्रभु साथ हो मित्त॥ प्रभु तो स्वसंपत्तिमयी, शुद्ध स्वरूपनो नाथ हो मित्त॥
क्युं ॥४॥
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चतुर्थ श्रीअमिनंदनजिन स्तवनं.
अर्थः-एम विचारतां उपयोग आव्यो ते कहे छे, पणजाणुं आगमबले केहेतां जे आगममां हें कह्यं ते गुरुमुखें सांभल्यु, तेना बलथकी जाणुं छु, जे हे भव्यजीव ! प्रभुश्री वीतराग साथे आपणे मलq छे, जेहने गरज होय, ते मले, एटले पोतानी संपदा प्रगट करवानो रुचिवंत मले, प्रभु तो स्व कहेता पोतानी संपत्ति जे स्वक्षेत्र असंख्यात स्व प्रदेशविषे व्यापकपणे रह्या जे अनंतज्ञानादिक गुण, ते संपदामयी छे, शुद्ध स्वरूपनो नाथ कहेतां धणी छे, माटे निष्पन्नपरमानंदभोगी शुद्ध स्वरूपी ते कोइथी मले नहीं ॥४॥ इति चतुर्थ गाथार्थः ॥ परपरिणामिकता अछे, जे तुझ पुद्गलयोग हो मित्त॥ जड चल जगनी एंठनो, न घटे तुझने भोग हो मित्त ॥
क्युं० ॥५॥ अर्थः-हवे कोई पुछशे जे सर्वद्रव्यमांहे परथी मलवानी शक्ति नथी, तो साधक जीवद्रव्य पण, वस्तुधर्मे शुद्ध छे, तेने प्रभुथी मल, ते पण तेनी सत्तामां तो नथी, तो हवे केवी रीतें मिले ? त्यां कहे छे. जे अनादि अतीतकाल ए संसारी जीवनुं आत्मिक सुख सर्व अवराणुं अने भोगधर्म, क्षयोपशमी छे, ते काईक भोगव्यो जोइयें, ते स्वरूपने अण पामवे, पुद्गलना वर्ण, गंध, रस, फरस, जे अभोग्य छे, तेने भोगवतो थको परभोगी थयो, परपरिणामी थयो, ए परपरिणामिकतानी चाल ते अनादिनी टेव छे, एटले कर्त्ता परनो, भोक्ता परनो, रमण परने विषे, ग्राहक परनो, एम सर्व, पर
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५८०
दे० चो० बाल
A
-AN
ANANAVAN
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-
NAM
भावमयी थयो छे. इहां कोई पूछशे जे शुद्ध द्रव्यधर्मी, ते परपरिणामी केम थाय ? तेने कहे छे. जे पुद्गलना योगें पुद्गलावलंबी चेतना थइ, एटले कहे छे जे हे जीव ! पुद्गलने योगें जे तारी परपरिणामिकता ते अनादिनी अशुद्धता विजातीयपणे छे, दोषरूप छे, अने आत्माने सर्व अघटित छे, केम जे पुद्गल ते जड छे, तथा चल कहेतां विनाशी छे जगत्नी एंठ छे, ते पुद्गल द्रव्य द्रव्ये ध्रुव छे, अने पर्यायें अध्रुव छे, वर्णादिक, खंधादिक पर्याय सर्व पलटे छे, अने सर्व संसारी एकेका जीवे एकेको पुद्गलपरमाणु, तेने शरीरपणे, भाषापणे, मनपणे, आहारपणे, अनंती वार लइ लइने मूक्यो छे, ते माटे ए पुद्गल ते सर्व, जीवोनी एंठ छे अने जीवद्रव्य ते स्वरूपभोगी छे, माटे हे चेतन ! तुने ए पुद्गलनो भोग घटतो नथी, केम जे हंस केवारे कचरामां चांच घाले नहीं ॥५॥ इति पंचम गाथार्थः ॥ शुद्धनिमित्ती प्रभु ग्रहो, करी अशुद्ध पर हेय हो मित्त॥ आत्मालंबी गुण लयी, सहु साधकनो ध्येय हो मित्त।
क्यु ०॥६॥ ... अर्थः-माटे परभोगीपणं अशुद्ध निमित्त जे पुद्गलादिक, तेने तजीने शुद्ध, निःकर्मा, पूर्णानंदरूप प्रभुने अवलंबो, एटले ए आत्माने विष परानुयायितापणुं छे, ते टालवाने माटे प्रथम अशुद्धालंबन तजीने अरिहंतालंबनी थर्बु, तेथी शुझानिमित्ती जे निमित्त नियामकी कारण छे, ते प्रभुने भजो, सेवो, पण सर्व परवस्तु अशुभ ते हेय कहेतां तजवारूप करीने एटले
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चतुर्थ श्रीअमिनंदनजिन स्तवनं.
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सर्व परभाव त्याग करीने प्रभुने भजो. ते प्रभु केहेवा छे ? जे आत्मालंबी केहेतां सर्वपणे पोतानी आत्माने अवलंब्या छे, एटले पोताना आत्माने विषेज तन्मय थया छे, तथा गुणलयी कहेतां गुणने विषे लय कहेतां विश्राम जेहनो के वली श्रीवीतरागतत्व केहेवू छे ? सर्वमोक्षने निपजावनारा साधक एहवा जे सम्यग्दृष्टि, देशविरति, सर्व विरति, श्रेणिना वासी, ध्यानारूढ जीवो तेने ध्येय छे, एटले सर्व आत्माने श्री सिझ परमात्मा ध्येय छे. ध्यान बे प्रकारनुं छे, एक सालंबन, बीजं निरालंबन. तेमां जे अरिहंतसिजनुं तत्त्व स्वरूप अवलंबीने ध्यान कर, ते सालंबन ध्यान छे तेणे श्रीअमिनंदन प्रभु सर्वने ध्यायवा योग्य छे ॥ ६॥ इति का गाथार्थः ॥ जिम जिनवर आलंबनें, वधे सधे एकतान हो मित्त॥ तेमतेम आत्मालंबनी, ग्रहे स्वरूप निदान हो मित्त॥
क्यु०॥७॥ ___ अर्थः-इम करतां जेम जेम साधक जे आपणो जीव, ते श्रीजिनवरदेवनी तत्त्वप्रभुताने आलंबने वधे, केहेतां सर्वक्षयोपशमी चेतना वीर्य रमण अरिहंतनी शुभतामां तन्मयपणे थाय, एकतान केहेतां एकत्वपणुं सधे निपजे, एटले सकलपरभावथी टलीने एक निष्पन्न परमात्माने स्वरूपें चेतना व्याप्त थाय, तेम तेम ए साधक जीव, पोतानो आत्मा कार्यरूप तेहेनें स्वरूपनें आलंबे, उपादानस्मरण चिंतन ध्यानरूप थाय, तेवारे एक स्वरूपनुं निदान कहेतां मूलकारण ग्रहे, अंगीकार करे ॥ इति ॥ ७ ॥
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दे० चौ० बा०
स्वस्वरूप एकत्वता, साधे पूर्णानंद हो मित ॥ रमे भोगवे आतमा, रत्नत्रयी गुणवृंद हो मिन्त ॥ क्युं० ॥ ८ ॥
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अर्थः-- ते जेवारे स्वस्वरूप एकाग्रता ज्ञान, दर्शन, चारिरूप ग्रहे, तेवारे परिणामिक परमतच्चने विषे एकत्वता शुद्धस्वरूपरमण, शुद्धस्वरूपभोगी थाय, तेथी सधे कहेतां निपजे, पूर्णानंद कहेतां संपूर्ण, आत्यंतिक, एकांतिक, अनंतातिशय, अबाधक, केवलनिराबाध, स्वाधीन आत्मसुख निपजे, पछी ए आत्मा पोतानी रत्नत्रयी आदिक गुणवृंदने विषे रमे, तेहनेज भोगवे, तन्मय, तद्विलासी, स्वभावआनंदी थको रहे, सादि अनंतोकाल, स्वपरिणामिक प्रगटपणे वर्ते ॥ ८ ॥ इति अष्टम गाथार्थः ॥
अभिनंदन अवलंबनें, परमानंद विलास हो मित्त ॥ देवचंद्र प्रभु सेवना, करी अनुभव अभ्यास हो मित्त ॥ क्युं० ॥ ९ ॥
अर्थः- ए रीतें श्रीअभिनंदन प्रभुने अवलंबनें परमानंदनो विलास थाय, सर्वदेवमांहे चंद्रमा समान जे अरिहंत देव, तेहनी सेवना, अथवा स्तुतिकर्त्तानुं नाम पण देवचंद्र तेमाटे पोताने संबोधन हे देवचंद्रप्रभु ! तमारी सेवना करे, पण अनुभवना अभ्यासयी एटले अनुभवयुक्त करे. एहीज आत्मा निपजाववानुं परम कारण छे, माटे एहने सेवो, आदरो ॥ ९ ॥ इति ॥
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पंचम श्रीसुमतिजिन स्तवनं.
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॥ अथ पंचम श्री सुमतिजिन स्तवनं ॥
॥ कडखानी देशी ॥
अहो श्री सुमतिजिन शुद्धता ताहरी, स्वगुण पर्याय परिणामरामी ॥ नित्यता एकता अस्तिता इतर युत, भोग्यभोगी थको प्रभु अकामी ॥ अ० ॥१॥
!
अर्थ :- अहो इति आश्चर्ये, हे श्री सुमतिजिन ! पांचमा परमेश्वर । ताहरी शुद्धता आश्चर्य रूप छे, ते शुद्धता कहेवी छे ९ स्व केतां पोताना गुण ज्ञानादिक तथा पर्याय ते १ द्रव्यापर्याय, २ गुणपर्याय, ३ द्रव्यव्यंजनपर्याय, ४ गुणव्यंजनपर्याय, ५ स्वभावपर्याय. त्यां सहभाविकधर्म ते गुण कहियें, अने क्रमभावि ते पर्याय कहियें, तथा श्री उत्तराध्ययन सूत्रे || गाथा || गुणाणामासओ दवं, एगदवसिया गुणा || लरकणं पद्यवाणं तु, उभओ निस्सिया भवे ॥ १ ॥ एहवी स्वगुणपर्यायरूप संपदामध्ये रमी रह्या छो, परभावथी निवर्त्तीने पोताने धर्मे रम्या छो. वली ते शुद्धता केहवी छे ? जे नित्यता, तद्भावाव्ययं नित्यं ते नित्यता, तथा एकता, तथा अस्तिता, इतर कहेतां बीजा भेद अनित्यता, अनेकता, नास्तिता, एटला धर्ममयी छे. जे नित्य तेहीज अनित्य, जे एक तेहीज अनेक, जे अस्ति, तेहीज नास्ति, माटे आश्चर्य रूप छे, वली केहवो छे ? भोग्य जे पोताना गुण पर्याय, तेहनो भोगी छे, तो पण अकामी एटले स्वरूपनो भोगी पण कामना ( वांछना )
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दे० चो० बा०
विना भोगवे छे, माटे अकामी छे, एटले स्वक्षेत्रयी वेगलो जे पुद्गलना वर्ण, गंध, रस, फरसनो भोग, ते वांछवो पडे, तेने कामना कहियें, पण तेनो भोगी आत्मा नथी, आत्मा तो ज्ञानादिक गुण जे स्वक्षेत्रव्यापकपणे प्रगटभोग तेहनो भोगी छे, ते भोगवतां कामना न जोइयें, माटे कामना विना भोगी छे, ए अचरज जाणवुं ॥ १ ॥ इति प्रथम गाथार्थः ॥
ऊपजे व्यय लहे तहवि तेहवो रहे, गुण प्रमुख बहुलता तहवि पिंडी ॥ आत्मभावें रहे अपरता नवि ग्रहे, लोक प्रदेश मित पण अखंडी ॥ अ० ॥२॥
अर्थः- हवे नित्यतादिक धर्म कहि समजावे छे. सर्वद्रव्य छ छे, तेमध्ये काल ते उपचार द्रव्य छे, तथा धर्मास्तिकायादि पांच द्रव्य अस्तिकाय छे, तेमां १ धर्मास्तिकाय, २ अधर्मास्तिकाय, ३ आकाशास्तिकाय. ए ऋण एकेक द्रव्य छे, जीव अनंता द्रव्य छे, पुद्गल अनंता द्रव्य छे, द्रव्यनुं अगुरुलघुपर्यायनुं षद्गुण हानि वृद्धिरूप चक्र एकटुं जलावर्त्तनी परें वर्त्ते, ते एकद्रव्य, जेनुं चक्र भिन्न पड्युं ते भिन्नद्रव्य, ते सर्व द्रव्य, उत्पाद, व्यय, ध्रुवयुक्त छे, तेमाटे नित्यानित्य छे ॥ उक्तं च विशेषावश्यकभाष्ये ॥ तं जइ जीवो नासो, तं नासो होउ सबसो नत्थि ॥ जं सो उप्पायन्वय, ध्रुव धम्माणंत पज्जाओ ॥ १ ॥ पुनः ॥ सबंवि य पइसमयं उप्पज्जइ नासएय निचं च ॥ एवं चेव य सुहदुःख बंध मोक्खाइ सम्भावो || २ || इहां युक्तिनो समूह, माहाभाष्यथी जाणजो एम जीवनो
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पंचम श्री सुमतिजिन स्तवनं.
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नित्यानित्य स्वभाव छे, ते कहे छे, अभिनवपर्याय उपजे छे, पूर्वपर्यांय व्यय थाय छे, यथा एक प्रदेशें अगुरुलघुपर्याय अनंत गुणो छे, बीजे प्रदेशें तेथी अनंतभागहीन छे, त्रीजे प्रदेशें असंख्यात गुण वधतो छे, चोथे प्रदेशें संख्यात गुण वृद्धि छे, एम असंख्यात विभाग छे, ते प्रतिसमयं परावर्तरूप छे, ते जिहां अनंतगुण तिहां असंख्यात गुण थाय, तेथी जे प्रदेशें अनंत गुणपणं टल्युं, ते व्यय थयो, अने असंख्यातपणानुं उपजवं थयुं, ते उत्पाद थयो, नथा अगुरुलघु सतपणे रह्यो, ते ध्रुव जाणवो, तथा ज्ञेयनुं जाणवुं, ए ज्ञाननो धर्म छे, ते ज्ञेयने पलटवे जो ज्ञान नित्य होय, तो जणाय नहीं. जेमाटे विवक्षित समयने विषे केवलज्ञान अनंता अतीत धर्म थया, तेने जाणे, वर्तमानें अनंता धर्म छे तेने जाणे, तथा अनागत अनंता थाशे ते पण जाणे; यद्यपि थया छे थशे ए धर्म, ज्ञेयना छे, पण ते सर्वने जाणवानो धर्म, ज्ञानमांहे छे. अने परज्ञेयने जाणंगपणे ज्ञान परानुयायी थातुं नयी " विषयभेदात् विषयिणोऽपि भेदः ज्ञेयभेदात् ज्ञानभेदः, पुनः ज्ञानं यावंतोहि ज्ञेयस्य पर्यायास्तावंतस्तदेवभासकत्वेनास्याप्नेष्टव्याइति बृहद्भाष्ये " तथा जे ज्ञान वर्त्तमानपणे जाणतो, तेहने अतीतपणे जाणे, अने जे अनागत तेहने वर्त्तमानपणे जाणे, ए ज्ञानना पर्याय भासनवेत्तादिक ते सर्व एवी रीतें पलटे, तेथी पूर्वपर्यायनो व्यय, उत्तरपर्यायनो उत्पाद, अने ज्ञानपणे ध्रुव, एम दर्शन, चारित्र, सर्व गुण जाणवा, माटे हे श्रीसुमतिनाथ प्रभु ! तमारी शुद्धता केहवी छे ? जे समय उपजे, ते समयेंज व्यय पामे छे, अने तहवि कहेतां तो पण तेहवो रहे केतां मूलधर्म न मूके, एटले उपजे, विणसे, ते अनित्यता, अने ध्रुव रहे,
"
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दे० चो० बा०
. ते नित्यता. ए बे स्वभाव का तथा एक आत्माने विषे ज्ञानगुण, दर्शनगुण, चारित्रगुण, वीर्यगुण, दानगुण, लाभगुण, भोगगुण, अरूपीगुण, अगुरुलघुगुण, अव्याबाधगुण. इत्यादिक अनंता गुण छे, ते सर्व गुण भिन्न भिन्न छे, तेथी अनेकता छे, तथा ते सर्वगुण समुदायरूप छे, पण केवारें भिन्नक्षेत्री न थाय, ते अनंत गुणपर्यायनो एकपिंड एहवो आत्मा छे, माटे एकरूपनो, वली प्रभुजी तमे केहवा छो ? जे स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभावपणे अस्ति छो, ते अस्तिभाव कोइ वारे टलतो नथी, तेणें हे प्रभु! तमें आत्मभावें रहो छो, पण कोइ वारे अपर केतां वीजा द्रव्यनो भाव केतां धर्म लेता नयी, माटे स्यात् अस्तिपणे छो, पोताना धर्में रहो छो, पर द्रव्यनो धर्म स्यात्नास्तिपणे छे, ते कोइवारें ते में (तेमां) ते पणे परिणमता नयी, माटे स्यात् अस्ति नास्तिरूप छो. हवे इहां सप्तभंगी उपजे, ते कहे छे. १ स्वद्रव्य ते पोताना गुण अने पर्यायनो समुदाय तथा स्वक्षेत्र, ते पोतानो अगरुलघु स्वभाव, विभागीकृत असंख्यातप्रदेशे, स्वकाल ते उत्पाद व्ययरूप प्रवर्त्तना स्वभाव ते अनंता ज्ञानना पर्याय, अनंता दर्शनना पर्याय, अनंता चारित्रना पर्याय, अनंता अगरुलघु पर्याय, तेणें स्यात् अस्ति ए पहेलो भांगो थयो २ परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल, परभावपणे स्यात् नास्ति ए बीजो भांगो. ३ तथा अस्ति, नास्ति, ए बे वस्तुधर्मे रह्या छे, माटे स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, ए त्रीजो भांगो वो ४ एहवो धर्म एक वस्तनां एक समये छे, अथवा वस्तुमध्ये अनंता धर्म, वचनें गोचर नहीं एहवा अवक्तव्य छे, तेथी स्यात् कथंचित्पणे अवक्तव्यं ए चोथो भांगो थयो. ५ ते अवक्तव्यपं अस्ति
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पंचम श्रीसुमतिजिम स्तवनं.
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धर्मनुं पण छे, माटे स्यातअस्ति अवक्तव्यं ए पांवो भांगो थयो. ६ ते अवक्तव्यपणुं नास्तिधर्मनुं पण छे, ते नाटे स्यात्नास्ति अवक्तव्यं ए छठो भांगो. ७ एहयो वरतुन समुदाय पर्यायपणे स्यात्अस्ति नास्ति युगपत् अवक्तव्यं ए पदार्थ धर्म छे, ए सातमो भांगो थयो. ए सामान्य सप्तभंगी कही, तेमज नित्य तथा अनित्यनी सप्तभंगी, एक अनेकनी सप्तभंगी, वक्तव्य तथा अवक्तव्यनी सप्तभंगी तथा गुणपर्यायनी सप्तभंगी, तथा द्रव्यास्तिक पर्यायास्तिकनी सप्तभंगी, एम अनंथी सप्तभंगी वस्तुधर्मे छे, ते सप्तभंगीये सर्व पदार्थ पोताना स्वभावनें पलटता नथी, ते कारणे हे प्रभुजी ! तुमें अस्तिनास्तिपणे छो, स्वधर्मपणे रहो छो, परधर्म ग्रहण करता नथी. वली हे प्रभु ! तमें केहेवा छो? तोके चउद राजलोकना जेटला आकाशप्रदेश छे, तेटला तमारा आत्मप्रदेश छे, पण ते असंख्यातप्रदेश- जे स्वरूप, षद्गुण हानिवृफिरूप, अगुरूलघुपर्यायनो तरतमयोग, विभागपणे रहे. शृंखलाअवयवनी परें ज्ञानादि गुणोनुं अवस्थान क्षेत्र, क्षयोपशम काले कार्याभ्यासें तरतमता, तेहतुं स्वरूप कम्मपयडी विष योगस्थान अधिकारें तथा बृहत्कल्पभाष्यमध्ये संयमश्रेणिअधिकारयी जाणजो, तथा क्षायिकभावें सर्वगुणनी सामान्यता, परंतु अगुरुलघुपर्यायन तारतम्य सदा छे, तेथी प्रदेशधर्म छे, अथवा सर्वगुण पर्याय तुल्यविभागे असंख्यातप्रदेशपणे वेहेचाय पण कोइ वारें जूदा खंडाता नथी, माटे अखंडरूप छो, एटले असंख्याता प्रदेशरूप अवयवता छे, पण भिन्न थाय नहीं, वे आश्चर्य जाणवू॥२॥ ॥ इति द्वितीय गाथार्थः ॥
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दे. चोक बार
कार्यकारणपणे प्रणमे तहवो ध्रुव, कार्यभेदें करे पण अभेदी॥ कर्तृता परिणमे नव्यता नवि रमे, सकल वेत्ता थको पण अवेदी ॥३॥
अर्थः--वली उत्पादव्यरूप धर्म कहे छे. जीवद्रव्यने विषे जेटला गुण छे, ते सर्व पोतानुं कार्य करे छे, अने उपादानरूप कारण तेहीज कार्य थाय छे. इहां कोई कहेशे जे पूर्वकाले कारण, पश्चात्काले कार्य, एतो जमालीनो मत छे, जो कारणकाल, कार्यकाल भिन्न होय, तो कारणकाल विनाशे तदनंतर कार्यकाले कारण विना कार्योत्पत्ति थाय, अने कारण विना कार्म मानतां अनेक दोष थाय, तेवारें घटें पट कार्य थाय, पटें घटकार्य थाय, माटे कारण विना कार्य नथी, एटले कारणभाव, तथा कार्यभाव, ए बे एक सममें छे, ए जैननी श्रद्धा छे, श्रीविशेषावश्यकमध्ये घणुं वखाण्युं छे, जो बाह्य उत्पन्न कारण कार्यविषे एक कालता छे, तो सहज अकृत्रिम कारण कार्यता एकसमयेंज होय, तेमाटे जीवनो केवलज्ञानगुण, ते विशेषभाव सर्व जाणे छे, तिहां सर्वनुं जाणवू, ते कार्य छे, अने ज्ञानगुण, जाणवा रीतें प्रवत्र्ते, ते कारण छे, तेहज समये कारण कार्यपणे परिणमे छे. अने ज्ञानगुण पणे सदा ध्रुव छे, तेम केवल दर्शनादि गुण अनंता छे, ते सर्व ए रीतें परिणमे छे, कारणता व्यय, तिहांज कार्यता उत्पाद, कार्यताव्यय, तिहांज कारणता उत्पाद, इम सर्व द्रव्यने विषे, उत्पादव्यय धर्म छे. इहां कोइ कहे छे जे उत्पादव्यय स्वतः
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पंचम श्रीसुमतिजिन स्तवनं.
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नथी, परप्रत्ययी छे, एम कहे छे तेनी मूल छे, जे परप्रत्ययी धर्म, ते लक्षण न थाय, लक्षण ते स्वधर्मनुज थाय, तिहां श्रीश्वेतांबर गणी तत्त्वार्थटीकाकारनी साख लखे छे ॥ अथ ये व्याचक्ष्यते व्ययोत्पादौ न स्वतो व्योमः किंतु परप्रत्ययाज्जायेतेऽवगाहकसन्निधानायत्तापुत्पादव्ययाविति तेषां कथमलोकाकाशेऽवगाहकाभावात् अर्द्ध वैशसं च सतोलक्षणं लक्षणस्य साध्याऽव्यापितं चेष्यते स्थित्युत्पादव्ययत्रयमिति. अत्रोच्यते य एवं महात्मानस्तर्कयंति स्वबुद्धिबलेन पदार्थस्वरूपं तेऽत्र निपुणतरमनुयोक्तव्याः कथमेतत् वयं तु विस्रसापरिणामेन सर्ववस्तूनामुत्पादादित्रयमिच्छामः प्रयोगपरिणत्या जीवपुद्गलानामित्थं तावदस्मदर्शनमविरूझासिधांतसद्भावं अस्मदुक्तार्थानुगुणमेव च भाष्यकारेणाप्युच्यते ॥ ए वचन जोइ श्रका यथार्थ करवी, माटे हे प्रभुजी ! तमारा गुण, कार्यपणे परिणमे छे, तेथी तेथी उत्पाद व्यय छे, अने गुणनो अभाव थतो नथी, ते ध्रुवधर्म छे, तेथी स्यानित्यं, स्यात्अनित्यं, ए स्वरूप छे, ते अचरिज जेहबुं छे. कालनी अपेक्षाये परपणो कहे तेहनें कहीयें जे कालतो पंचास्तिकायथी भिन्न नयी ते माटे परपणो इयाने कहो छो. वली जीवद्रव्यमध्ये जेटला गुण छे, ते सर्व मिन्नपणे पोता, कार्य करे छे, दर्शन ते देखवारूप कार्य करे छे, समकेत ते निर्धारकार्य करे छे, चारित्र ते थिरतारूप कार्य करे छे, अमूर्त्तगुण, अरूपीपणे कार्य करे छे, एम सर्व गुण पोताना कार्यना कत्ती छे, एवो कार्यभेदे कहेतां जुदा जुदा पणे करे, ते वस्तुमां अनेकता स्वभाव छे, तेथी भेद स्वभाव छे, पण ते कार्यधर्मनुं कारण कोइ द्रव्य तथा क्षेत्रे जु, थतुं नथी, तेथी अभेदरूप छे. जेम सुवर्णमध्ये पीतता, गुरुता, स्निग्धता
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दे० चो० बा०
ए कार्यभेदें ऋण धर्म पामीयें छैयें, परंतु केवारें भिन्न थाता नथी, तिम जीवना अनंतगुण भिन्न भिन्न कार्य करे छे, परंतु वस्तुधर्मे भिन्न नथी. कार्य तो सर्व भेदें कहेतां भिन्नपणे करे छे, पण अभेदी कहेतां भेदरहित छे. वली प्रतिसमय कर्तृतापणे छे, एटले पंचास्तिकायमध्ये चार अस्तिकाय ते अकर्त्ता छे, अने एक जीवास्तिकाय स्वतंत्रकर्त्ता छे, ते स्वाधीनपणे कारणावलंबी थइ कार्यने निपजावे, ते कर्त्ता, तथा जेम परकार्य घट, तेनो कर्त्ता कुंभकार तेम ज्ञानादि कार्यनो कर्त्ता जीव छे, माटे कर्तृतापणे परिणमे छे. पण कांइ नव्यपणे नथी रमतो, एटले जे प्रतिसमये पर्यायने करे, पण कांइ नवो नथी करतो, अस्तिधर्म छे, तेमज रहे छे, वली सकल कहेतां सर्व द्रव्य छ तेहना गुणपर्याय स्वभाव, तेना उत्पादरूप, व्ययरूप, ध्रुवरूप, अतीत अनागत वर्त्तमानकाल सर्व त्रणे कालना वेत्ता कतेतां जाण छो, ए सर्वने जाणो छो, पण अवेदी कहेतां पुरुष, स्त्री, नपुंसक रूप वेद रहित छो, माटे वेत्ता थका पण वचनवर्मे अवेदी छो, ए अचरिज जाणं || ३ || इति तृतीय गाथार्थः ॥
शुद्धता बुद्धता देवपरमात्मता, सहज निज भावभोगी अयोगी ॥ स्वपर उपयोगी तादात्म्यसत्ता रसी, शक्ति प्रयुंजतो न प्रयोगी ॥ अ० ॥ ४ ॥
अर्थः-- वली शुद्धता ते सकलपुद्गलरूप संकरता रहित, बुद्धता कहेतां केवल ज्ञानदर्शनरूप संपूर्णबोवरूप छो, देव
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पंचम श्रीसुमतिजिन स्तवनं.
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कहेतां पोतानुं स्वरूप तेणें दिव्यति कहेतां रमणशील ते देव कहियें, परमात्मता कहेतां पोतानो आत्मा ज्ञानावर्णादिकर्मथी रहित छे, माटे परमात्मापणं संपूर्ण भोगवो छो, परमात्मनिष्पन्न जे आत्मा, ते भाव पाम्या छो, वली सहज कहेतां स्वभावना अकृत्रिम एवा निज कहेतां पोताना भाव ते ज्ञानादिक अनंतधर्म तेहना भोगी केहेतां भोग आस्वादनवंत छो, वली कहेवा छो ? के अयोगी कहेतां मन वचन कायारूप योग तेथी रहित छो, अने क्षयोपशमी वीर्य, तेहने चलनपणे वर्त्ते, ते योग कहियें, तिहां भाषवर्गणा, शरीरवर्गणा, तथा मनोवर्गणा, ते जिहां अवष्टंभहेतु छे, ते द्रव्ययोग कहियें, अने जे अवष्टंभ ग्राहक वीर्यपरिणाम ते पहेलो परिणमन, बीजो अवलंबन, बीजो ग्रहणरूप, ए ऋण शक्तिने भावयोग कहि यें, एहवुं जे योगपरिणमन, तेथी रहित हो, कारण के योग जे छे ते आश्रव छे, अने सिद्ध आत्मा तो संपूर्ण संवरमयी छे, वली प्रभुजी तमें केहेवा हो ? जे ख कहेतां पोतानं आत्मतत्त्व तेहना उपयोगी कहेनां जाण तथा पर आत्मा ते बीजा अनंता जीव तथा सर्व पुद्गल, तथा धर्म, अधर्म, आकाश अने काल, ते सर्वना जाण छो एटले स्व तथा पर ए बेना जाण पण तादात्म्य कहेतां तन्मयपणे रह्यो जे पोतानो सत्ताधर्म, तेहना रसी कहेतां रसीया हो, आस्वादी हो, एटले जाणंग स्व पर बेना छो, पण भोगी एक आत्मधर्मनाज छो, इहां कोइ कहेशे जे जागंग के तो भोगी बेना केम नथी ? तेने ह धर्म नयी, माटे आत्मा परभावनो भोगा नयी स्वभोगीज छे, परक्षेत्र रह्यो जे धर्म, ते भोगवाय नहीं, स्वक्षेत्री धर्म भोगवाय. वली प्रभु तमारी
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दे० चो० बा.
अनंती शक्ति छे, ते सकर्मा जीवनी सर्व शक्ति दबाणी छे, अने तमें साध्य साधक भाव करीने सर्व कर्मपडलने दलवे करीने सर्व शक्ति प्रगट करी छे अने ते सर्व शक्तिनी भिन्न भिन्न प्रवृत्ति छे, ते सर्व शक्तिने प्रयुंजता छो एटले सर्व कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञायकत्व, पारिणामिकत्व, ग्राहकत्व, आधारत्वादि शक्ति प्रवर्ते छे, पण कोई शक्ति अण प्रवर्ती रहेती नथी, तथापि न प्रयोगी कहेतां शक्ति प्रवर्तावतां कोई जातिनो प्रयोग कहेतां प्रयास उद्यम विकल्प करखो पडतो नथी, एटले सर्व शक्ति सहेजें प्रवः छे ॥४॥ इति चतुर्थगाथार्थः ।।
वस्तु निज परिणतें सर्व परिणामिको, एटले कोई प्रभुता न पामे ॥ करे जाणे रमे अनुभवे ते प्रभु, तत्त्वसामित्व शुचि तत्व धामें ॥ अ० ॥५॥
अर्थः--हवे १ नित्य, २ अनित्य, ३ एक, ४ अनेक, ५ अस्ति, ६ नास्ति, ७ भेद, ८ अभेद. इत्यादिक, अनंतधर्म प्रभुमा छे ते माटे परमेश्वरपणुं छे तेनी ऊलखाण करवाने कहे छे. जे नित्यानित्यादिक धर्म तो सर्व द्रव्यमां छे. एटले वस्तु केतां जीवादि पदार्थ ते निज परिणति ये केतां पोतानी स्याद्वाद परिणति ये सर्व केतां समस्त द्रव्य परिणामिकी केतां परिणामी छे. एटले नित्यानित्यादिक धर्मपणे सर्व द्रव्य परिणामी छे, पण तेथी कोइ परमेश्वरपणुं न पामे, सर्व द्रव्य साधारणधर्मी माटे एमां शी अधिकाइ ? एटले केतां
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पंचम श्रीसुमतिजिन स्तवनं.
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एथी, कोइ केतां हरेक द्रव्य, ते प्रभुता केतां मोटाइपणुं, न पामे केतां पामे नहीं, तो केम पामे ? ते कहे छे. करे केतां पोताना धर्मने कर्तीपणे करे, एटले बीजा अजीवादि पांच द्रव्य ते सर्व उत्पाद व्यय ध्रुवपणे परिणमे छे, पण ते कर्ता नथी, अने जीवद्रव्य ते कर्ता छे, ते शा माटे ? जे बीजा सर्व द्रव्यना धर्म प्रतिप्रदेशे छे, अने ते प्रदेश प्रदेशे प्रवत्त छे, पण एक प्रदेशने बीजा प्रदेशनुं सहाय एम एकहुँ प्रवर्तन नथी, अने जीवद्रव्यने प्रदेश प्रदेशे धर्म अनंता छे, अने ते ते प्रदेशे रह्या प्रवृत्ति करे छे, पण ते सर्व प्रदेशे समुदाय मलीने एकठी प्रवृत्ति छे, माटे जीवद्रव्य कर्ता छे, तेथी स्वस्वधर्मने करे छे, ए कैपिणुं ते ईश्वरता छे, तथा अजीवद्रव्यमध्ये पण अनंता गुण अनंता पर्याय छे, पण ते द्रव्य पोताना गुणने जाणता नथी, अने आत्मा ज्ञानादिक अनंता आत्मगुण तथा अनंता परद्रव्य तेथी अनंतगुणा परगुण, ते सर्वने जाणे छे, माटे जाणपणुं ते असाधारण धर्म छे, तथा स्वचारित्रगुणे करी आत्मा पोताना गुणनेविषे रमे छे, अने अजीवद्रव्य ते स्वधर्मे रमी शकता नथी, तथा आत्मा स्वभाव धर्मने भोगवे छे, तेथी स्वरूपानुभवी छे, माटे जे कर्ता होय ते भोक्ता होय, पण जे कर्ता नथी, ते भोक्ता नथी, तेथी अनुभवधर्म, ते आत्माने विषेज छे, माटे जे कर्ता ते ज्ञाता जे चारित्री, जे भोक्ता, ते प्रभु केतां तेने परमेश्वर जाणवो, एटले दर्शनांतरी परमेश्वरने अकर्ता कहे छे ते पण मिथ्या छे, अथवा परभावना कर्ता कहे ते पण मिथ्या, केम जे परमेश्वर निःकर्मा ते स्वभावना का स्वभावना भोक्ता छे. हवे एम केहेतां संसारी तथा सिद्ध सर्व परमेश्वरपणुं पामे ? ते उपर
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दे. चो० वा.
कहे छे. तत्त्व केतां वस्तुनो मूलधर्म, स्वामित्व केहेतां तेनुं स्वामिपणुं ते परमेश्वर पणुं शुचि कहेतां पवित्र कर्म रहित निर्मल तत्त्व सिद्धतानुं धाम कहेतां घर ते निष्पन्न सिद्धावस्था तेज परमेश्वर पणुं छे, बाकी सर्वसंसारी जीव, सत्तायें परमगुणी छे, पण जेना गुण प्रगट श्रया, ते पूज्य जाणवा. माटे श्रीयशोविजयजी उपाध्याय का छे ॥ गाथा ॥ जे जे अंश रे निरुपाधिकपणुं, ते ते कहीये रे धर्म ॥ सम्यगदृष्टि रे गुगाठाणा थकी, जाव लहे शिवशर्म ॥१॥ माटे जे परम पूज्य ते सिद्ध छे ॥ ५ ॥ इति पंचम गाथार्थः ।।
जीव नवि पुग्गली नैवपुग्गल कदा, पुग्गलाधार नाहीं तास रंगी ॥ परतणो ईश नहिं अपर ऐश्वर्यता, वस्तुधर्मे कदा न परसंगी ॥ अ०॥६॥
अर्थः---हवे जीवनो जे मूल धर्म छे, ते श्रीसुमतिनाथ अरिहंतने निपज्यो छे, ते कहे छे. जे जीव नवि पुग्गली कहेतां जीव ते कोइ वारें पुद्गली नथी अनंतो काल संसारावस्थायें पुद्गलथी एकठो रह्यो, पण केवारें पुद्गलरूप थयो नहीं, तथा जीव ते पुद्गलनो आधार नथी, कारण जे क्षेत्रीद्रव्य तो आकाश छे, धर्म, अधर्म, जीव, पुद्गल, ए सर्व आकाशद्रव्य मध्ये रह्यां छे, पण जीवना प्रदेशे पुद्गलनु रहेg, ते जीवनी भावअशुफताथी थयुं छे, केम जे सर्व संसारी जीवोने भोग तथा उपभोग गुणनो सदाकाल क्षयोपशम पामी ये पण स्वभोगनी प्रगटता नथी, तेथी परभोगी थयो छे, वीर्यातरायनो
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पंचम श्रीसुमतिजिन स्तवनं.
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क्षयोपशम पामी ये ते वीर्य पण परानुयायी थयुं, तथा कर्ता, ग्राहकता, व्यापकता, भोक्तापणुं सदा निरावरण छे, अने कार्य, ग्राह्य, व्याप्य, भोग, आवरणां छे, तेथी पुद्गलग्राह्य, पुद्गलानुयायी प्रवृत्ति ते कार्य, पुद्गलभोगपणे तेहना वर्णादिकमां व्यापक थयो, पुद्गलने ग्रहे छ, पछी जेने भोगव्यो, तेनीज होश उपजे, एटले पुद्गलनो रुचि ते फरी पुद्गलने ग्रहे, तथा भोगवे,तेयी आत्मप्रदेशे पुद्गल रहा छ, आत्मप्रदेश ते स्वगुणपर्यायनुं क्षेत्र छे, पण परपुद्गलद्रव्यनुं क्षेत्र नथी, तथा मूलवस्तुधर्म पुद्गलनो रंगी नयी, स्वधर्मना आस्वादन विना ए पुद्गलनो रंगी थयो छे, पण वस्तुरीतें विचारतां एने पुद्गलथी इयो संबंध छे ? वली आत्मा परभावनो स्वामी नथी, परभावे एनी ऐश्वर्यता कहेतां ठकुराई नथी, एटले वस्तुध कदा कहेतां कोइ वेला परवस्तुनो संगी नथी, जीवद्रव्यनो सत्ताधर्म एहवो छे, माटे माहारो सुमतिनाथ परमेश्वर शुद्धदेव, ते पुद्गलनो आधार तथा रागी केम होय ? सर्व युद्गलातीत छे ॥ ६ ॥
संग्रहे नहीं आपे नहीं परभणी,
नवि करे आदरे न पर राखे ॥ . शुद्धस्याद्वाद निजभाव भोगी जिके,
तेह परभावने केम चाखे ॥ १० ॥७॥
अर्थः--चली सुमतिनाय परमात्मा केहेवा छे ? जे परभणी कहेतां परवस्तु भणी माहारापणे संग्रहे नहीं, ते परवस्तु कोइ बीजाने आपे नहीं, परखरतुने करे नहां, परवस्तुने आदरे नहीं, परवस्तुने परिग्रह धनपणे राखे नहीं, ए शुद्रव्य
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दे० चो० बा०
नो धर्म छे, तथा शुद्ध कहेतां निर्दोष स्याद्वाद कहेतां अनंतधर्मात्मक निज कहेता पोतानो, भाव कहेतां धर्म, अनंत ज्ञान दर्शनाधिक, तेहना जे भोगी आस्वादी एटले स्वभोग्यना जे भोगी थया, ते परभाव जे रागद्वेषादिक अथवा पुद्गलवर्णादिक, तेहने निष्पन्नपरमात्मा केम चाखे कहेतां आस्वादे ? माटे परमात्मा ते परभावने चाखे नहीं, स्वरूपभोगीज होय ॥७॥ इति
ताहरी शुद्धता भास आश्चर्यथी, उपजे रुचि तेणें तत्त्व ईहे ॥ रंगी थयो दोषथी उभग्यो, दोषत्यागे ढले तत्त्व लोहे ॥ अ०॥ ८॥
अर्थः--हवे साधन धर्म कहे छे. तिहां श्रीसुमतिनाथ पोतें मुक्त थइ कृत कृत्य थया, ते परजीवनी मुक्तिना कर्ता नहीं, तो शा वास्ते स्तवो छो ? नमो छो ? त्यां कहे छे, जे ताहेरी कहेतां हे प्रभु ! तुमारी शुद्धता, निःकर्मता, अनंतगुण प्रगटता, तेहनुं जेवारे भासन कहेतां जाणपणुं थाय, ते जेम जेम गुणनी घोषणा करे, तेम तेम गुणर्नु भासन थाय, तेथी आश्चर्यता उपजे, जे अहो प्रभुनुं ज्ञान ! त्रण लोकगत षद्रव्य त्रण काल परावृत्ति सहित एक समये जाणे, तेमज अहो प्रभुनुं दर्शन ! अहो प्रभुनु चारित्र ! सकल पुद्गल अभोगी ! अहो परमानंद ! इत्यादिक आश्चर्यथी आश्चर्य उपजे, तेथी पोताने तेहवी परमात्मा दशा निपजाववानी रुचि उपजे, ईहा उपजे. पछी ते मोक्षरुचि जीव विचारे जे केबारें माहारो
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पंचम श्रीसुमतिजिन स्तवनं.
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आत्मा कर्मरहित थाय ? केवारे माहारो शुफ पारिणामिकभाव प्रगटे ? केवारें माहरा गुण हुँ भोगवू ? अने अनंता जीवोनी एंठ जे पुद्गल तेने तजी पोतानो धर्म हुं केवारें भोगवीश ? एहवी रुचि उपजे पछी ते रुचिवंत जीव तत्त्वनी ईहा करतां काल गमाडे, ते जेम जेम तत्त्वनी ईहा करे, तेम तेम तत्वनो रंग प्रगटे, जेम जेम तत्त्वनो रंगी थाय, तेम तेम राग, द्वेष, अढार पापस्थानादि दोषथी उभगे, कहेतां निवृत्ते, तेम ढले केहेतां ते पणे परिणमे, तत्त्व लीहे, कहेतां तत्त्व मार्गे एटले स्वभावपरिणामी थाय. ए सर्व कार्य प्रभुप्रत्ये अवलंब्यां थाय ॥८॥
शुद्धमार्गे वध्यो साध्यसाधन सध्यो, खामिप्रतिछंदें सत्ता आराधे ॥ आत्मनिष्पत्ति तेम साधना नवि टके, वस्तु उत्सर्ग आतम समाधे ॥ अ० ॥९॥
अर्थः-ए रीत पारिणामिकपणे समर्यो ए आत्मा, शुद्ध मोक्षसाधनमार्गे वध्यो, साध्य जे पोतानो परमात्मभाव, तेहना साधननो उपाय सध्यो थको स्वामी जे श्रीसुमति जिन, तेहने प्रतिछंदें केहेतां तेहना जेवी पोतानी सत्ता छे तेने आराधे, कहेतां निपजावे, प्रभुजी जेवी सत्ता प्रगट करे, निःकर्मा निर्मल शुद्धानंद पद भोगवे, पछी आत्मा जेम जेम निष्पत्ति केहेतां निपजे तेम तेम साधना केहेतां कारणपणुं टके नहीं, एटले जेम कार्य निपजे, तेम कारणता टले, कार्यान्वयी कारण छे, कारण कांइ वस्तुधर्म नथी, जे वस्तु कार्यने सन्मुख थाय,
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दे० चो० बा०
ते कारणपणे परिणमे, जेम कार्य निपजे, तेम तेनी कारणता ध्वंस पामे, एम आत्मसि साधना नवि टके, जेवारें वस्तु कहेतां जीवपदार्थ, उत्सर्गरीते संपूर्ण आत्मा पोतानी समाधि परमानंद पाने, तेबारे कारणता रहे नहीं, सिद्धपणे वस्तुनो मूलधर्म प्रगटे, तेबारे साधनपणु रहे नहीं ॥ ९ ॥ इति नवम गाथार्थः ॥.
माहरी शुद्ध सत्तातणी पूर्णता, तेहनो हेतु प्रभु तुंही साचो ॥ देवचंदें स्तव्यो मुनि गणें अनुभव्यो, तत्त्वभक्ते भविक सकल राचो ॥ अ० १०॥
अर्थः---माटे हे प्रभुजी ! माहरी शुद्ध निर्मल आत्मसत्ता, तेहनी पूर्णता कहेतां संपूर्णता तेहनो हेतु केहेतां निमित्त कारण हे प्रभु तुंहीज साचो छो, तमारा जेवा शुद्धदेवतुं निमित्त पाम्या विना माहारो निर्मल मोक्ष केम निपजे ? सर्व जीवनी एहीज परिणति छे, जे निमित्तावलंबी थइ, उपादानावलंबी थाय, देव जे चार निकायना, तेहमां चंद्रमासमान वडेरा तेणें स्तव्यो, तथा मुनि जे निग्रंथ मोक्षाभिलाषी तेणे अनुभव्यो, तेहना गुणवें आस्वादन कयु, एहवो जे अरिहंत देव, तेनी तत्त्वरूप जे अक्ति, एटले वस्तुगत गुणनी बहुमानता, तेना उपर सर्व आत्मार्थी जीवो तमें राचो, मग्न थाओ ॥१०॥ इति दशम गाथार्थः॥ इति श्रीसुमतिजिन स्तवनं ॥
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पष्ट श्रीपद्मप्रभजिन स्तवनं.
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॥अथ षष्ठ श्री पदाप्रमजिन स्तवनं ॥ ॥ हुं तुज आगल शी काटुं के रियाल ॥ए देशी॥
श्रोपद्मप्रभ जिन गुणनिधि रे लाल, जगतारक जगदोश रे॥ वालेसर ॥ जिन उपगारथकी लहे रे लाल, भविजन सिद्धि जगीश रे ॥ वा० १ ॥ तुज दरिसण मुज वाल्हो रे लाल, दरिसण शुद्ध पवित्त रे ॥ चा०॥ दरिसण शब्द नये करे रे लाल, संग्रह एवंभूत रे ॥वा०॥तु० २॥ए आंकणी॥
अर्थः--हवे श्री पद्मप्रभजीना निमित्त कारणनी कारणता यथार्थरूपें स्तवे छे. श्रीपद्मप्रभ गुणना निधान छे, जगतारक कहेतां जगत्ने विषे मोक्षार्थी जीव तेहना तारक छे, गुणाधिक छे, तेमाटे जगतना ईश कहेतां स्वामी वडेरा छे, जिन उपगारथी लहे कहेतां पामे, भव्यजीव सिद्धि कहेतां मोक्षरूप जगीश कहेतां संपदा पामे, हे प्रभु ! ताहरा दर्शनमां कारण, रूप ताहरी मुद्रानुं जे देखg, ते उत्कृष्ट कारणरूपें ताहारुं दर्शन कहेतां शासन, उपादान कारणपणे दर्शन केतां सम्यक्त्व ते मुजने वाल्हो केतां इष्ट छे, हे प्रभु ! ताहरूं दर्शन जे सम्यक्त्वतत्त्वरुचिरूप ते शुद्ध छे, पवित्र छ, जो आत्माने
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दे० चो० बा०
स्वरूप निर्धार, स्वरूप रुचिरूप प्रगट्यो, तो आत्मा मोहमल्लथी रहित थाय, माटे परम पवित्र छे ॥ उक्तं च ॥ सम्मतेणं मुद्धो, सच्चसु किच्चो हवइ सिवहेऊ ॥ संवरखुड्ढी तह निजरा य, धम्ममूलं च सम्मतं ॥ १ ॥ मूलं दारं पइठाणं,
आहारो भायणं निहि ॥ दुसुकं साविधम्मस्स, सम्मत्तं परिकित्तियं ॥२॥ वली दर्शन कहेतां हे प्रभुजी ! ताहरूं देखg अथवा शुद्धश्रद्धा ते जे जीव, शब्दनयें करे, ते जीवनो जे सर्वजीवसंग्रहनये सिद्ध समान छे, ते जेवारे पोताना सर्व आवरणक्षय करी संपूर्णसिफ थाय, तेवारें एवंभूतनय सिफ कहिये. ते माटे संग्रह ते एवंभूत थाय, इहां नयन स्वरूप संक्षेप कहिये छैयें. “ सत्ताग्राही संग्रहः " वस्तुनी सत्ताने ग्रहे, ते संग्रहनय कहिये. अने वस्तुना नामपदनो जे अर्थ, तेपणे परिणम्यो, वेद्य संवेद्यपदें भावनिक्षेपें ते शब्दनय कहिये. वली सकलपर्यायपरिणामिकतारूप प्रगटपणे संपूर्ण वस्तु, ते एवंभूत नय कहिये. एटले ताहरूं दर्शन जे देखg, ते अंतरंग अरिहंतना स्वरूपभासन आस्वादन सहित प्रभुतानुं अवलोकन ते शब्दनयें प्रभुनुं देखवू थयुं. १ योगनी चपलता, तथा उपयोग अन्यकार्यनो, मात्र एकलं चक्षुइंद्रिये करी प्रभुमुद्रानुं जोवं, ते नैगमनये प्रभु दीठा. ३ वंदन, नमन, आशातना वर्जनपणे जे प्रभुमुद्रा तथा प्रभुना शरीरनुं देखवू, ते व्यवहारनये प्रमु दीठा. ४ योग तथा विकल्परूप उपयोग प्रभुना गुणनो, अने सर्वइंद्रियें प्रभुने जोवे, स्तवे, एकाग्र करे, चपलता मटावे, तथा हर्ष सहित प्रशस्तरागनी मुख्यतायें जोवे स्तवे, ते शजुसूत्रनये प्रभु दीठा. ५ अंतरंग परिणाम परिणति चेतनानुं आकर्षण तथा श्रीवीतरागनी वीतरागताये योग
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षष्ट श्री पद्मप्रभजिन स्तवनं.
བཀའ་ཅ བཀའག པང་པ་འ
सर्व प्रभुमुद्रा, तथा प्रभु, शरीर तिहां वलगा अंतरंग आत्मसत्ता प्रगट करवारूप साध्यरुचि थयो थको प्रभुतानुं तत्वसंपदारूप अवलोकन ते शब्दनये प्रभुजी दीटा. ए रीतें श्री प्रभुजीने देखे, ते नियमा स्वसत्ता प्रगट वारे, माटे ए निमित्त कारणरूप प्रभुदर्शन जाणवू. एम सम्यक्त्वना पण नय करीने शब्दनये जे शुद्ध श्रद्धारूप समकित ते संसारी जीवनी सत्ता प्राग्भावन कारण छे ॥ १ ॥ २ ॥
वीजें वृक्ष अनंतता रे लाल, पसरे भूजल योग रे ॥ वा० ॥ तिम मूळ आतम संपदा रे लाल, प्रगटे प्रभु संयोग रे॥ वा०॥ तु०॥३॥
अर्थः--हवे कारणकार्य भाव कहे छे. जेम बीज होय तेमां अनंता वृक्ष उपजवानी छती छे, पण भू कहेतां माटीमां नाखे, तथा जल कहेतां पाणी साँचे, एवो संयोग मले, तेवारें ऊगे, एटले माटी तथा पाणीना संयोगें वधे, ए रीत छे, जेम उपादानधर्म ते निमित्तकारण विना प्रगटे नहीं. ए रीतें माहारी आत्मसंपदा यद्यपि सत्तारूपें छती छे पण जेवारें प्रभु श्रीवीतराग देव शुद्धस्वरूपीनो योग मले, तेवारे प्रगटे ते आलंयी तत्त्वने आलंबने वर्ते, तो ते निपजे, एम महारे आत्माविषे सत्ता सर्व छे पण श्री अरिहंतरूप निमित्त मले, तेवारें सिद्धि नीपजे ॥३॥ इति तृतीय गाथार्थः।।
जगतजंतु कारज रुचि रे लाल,
साधे उदयें भाण रे ॥ वा० ॥ . 76
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दे० चौ० बा०
चिदानंद सुविलासता रे लाल, वाधे जिनवर जाण रे ॥ वा०॥ तु०॥४॥
अर्थः---सर्व जगत्वासी जीव आहार, विषय, परिग्रह मेलववारूप कार्यना रुचि कहेतां अभिलाषी छे, एटले पोत पोताना कार्य करवा रूप परिणाम सर्व जीवोने छे, पण सूर्य उधोतरूप निमित्त पाम्या बिना कार्य करी शके नहीं. सूर्य उद्योतरूप निमित्तकारण पामे, तेवारें सर्वलोक कार्य करवा लागे, ए रीत प्रगट देखाय छे, तेम माहारी आत्मा चिद् कहेतां ज्ञान, आनंद कहेतां अव्याबाधसुख अथवा सकलज्ञेय ज्ञायकता रूप जे ज्ञान तेहनो जे आनंद, तेने चिदानंद कहिये, तेनी सुविलासता कहेतां शुद्धपणे विलास एटले भोगवq, ते आत्मानंद भोगीपणुं ते यद्यपि सत्तानेविषे छतुं छे, तो पण जेवारें श्रीजिनराजनो वर कहेतां प्रधान अनुष्ठानदोष, तथा एकांत दोष, तथा अर्थापत्तिदोष रहित ध्यान करिये, तेवारें आत्मानंद प्रगटे, उपादान छे पण हे प्रभु ! तमारा जेवु निमित्त मले प्रगट थाय. माटे माहारे प्रभुसमान उपकारी कोइ नहीं, ते कारणे हे परमेश्वर ! ताहरू दर्शन मने व्हालुं छे, जे अनंता भव भमतां न पाम्यो ते जो मले, तो माहरूं अंतगर्नु अनंतुं अनंतुं अनंता काल- दरिद्र जाय । उक्तं च ॥ नूनं न मोहतिमिरावृतलोचनेन, पूर्व विभो सकृदपि प्रविलोकितोऽसि ॥ मर्माविधो विधुरयंति हि मामनाः प्रोद्यतप्रबंधगतयः कथमन्यते ॥ १ ॥ एटले प्रभुनुं दर्शन दुर्लभ छे, ते तेहनी प्राप्तिना अर्थी जे जीव, तेने इष्ट होय ॥४॥
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षष्ठ श्री पद्मप्रभजिन स्तवनं.
६०३
लब्धि सिद्ध मंत्राक्षरे रे लाल, उपजे साधक संग रे ॥ वा०॥ सहज अध्यातम तत्वता रे लाल, प्रगटे तत्वीरंग रे ॥ वा०॥तु०॥५॥
अर्थः--बली दृष्टांत कहे छे. जेम आकाशगमन प्रमुख लब्धियो तेनी जे सिद्धि ते विद्याशक्ति मंत्राक्षरमां छे, पण ते तेहवो उत्तर साधक मले, तेवारें नीपजे, तेम सहज स्वभावरूप जे अध्यात्म कहेतां आत्माथी तन्मयपणे रही, जे स्याद्वादरूप ज्ञानदर्शनादिक आत्मिकपरिणतिरूप तत्त्वता, ते यद्यपि वस्तुधर्मे आत्माने विषे छती छे, पण जेवारें निष्पतत्त्वी शुद्ध निर्मल, निरावरण, आत्मस्वरूपभोगी, आत्मरमणी, आत्माश्रयी, असंख्यात प्रदेश पुद्गलसंश्लेषरहित, एवा शुद्धदेवने आलंबनें एक रंग करे, तेवारे ज्ञानावरणादि कर्मथी रहित निरावरणरूप प्रगट भावनुं छतापणुं नीपजे ॥५॥
लोह धातु कांचन हुवे रे लाल, पारस फरसन पामि रे ॥ वा०॥ प्रगटे अध्यातमदशा रे लाल, व्यक्तगुणी गुणग्राम रे ॥ वा०॥तु०॥६॥
अर्थः--बीजो दृष्टांत कहे छे. लोहधातुमध्ये कांचन कहेता सुवर्ण थवानी सत्ता छे, तोपण पारस. पाषाय प्रमुख बाह्य निमित्त पामीने पोतानुं सोनापणुं लहे छे .म. भव्य जीवनी पण शुद्ध आत्मिकदशा यद्यपि सत्तारूपे छे, पण व्यक्त
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६०४
दे० चां० बा०
कहेतां प्रगट कर्मावरण रहित जे गुणी अरिहंत तेहना गुणग्राम करतां, स्मरण करतां, आपणो आत्मा गुणानुयायी थइ, संपूर्ण गुणीपणुं पामे, तेवारे सत्ता प्रगटे. इहां कोई पूछशे जे निमित्त विनाज सिद्धपणुं केम न पामे ? तेने उत्तर कहे छे. जे आत्मा अनादिनो पुद्गलरूप परनिमित्त पामीने बंधपद्धति करे छे, ते जो पुद्गलरूप परनिमित्त मूके, तो मुक्त थाय, ते पुगलरूप परनिमित्त तो अरिहंतरूप शुद्ध निमित्तने अवलंब्या विना टले नहीं. माटे श्री वीतरागदेवरूप शुद्ध निमित्त पामेथी, आपणुं तत्व प्रगटे ॥ ६ ॥
आत्मसिद्धि कारज भणी रे लाल, सहज नियामक हेतु रे ॥ वा० ॥ नामादिक जिनराजनां रे लाल,
भवसागरमहासेतु रे ॥ वा० तु. ॥७॥ अर्थः--तेमाटे आत्मसिद्धिरूप जे कार्य, ते करवाने सहज अकृत्रिम नियामक केतां निर्धार, हेतु केतां कारण जे श्रीवीतराग देव तेने पामीने निश्चे भव्य जीवने मोक्ष नीपजे, ए निर्धार थयो. नामादि केतां नामनिक्षेपादि ते अरिहंत एहवं नाम तेने श्रवणे, उच्चारणे, स्मरण करी पण अनेक जीव गुणावलंबी थइ समकित प्रमुख गुण पामीने सिद्ध थया. तथा श्रीअरिहंतनी स्थापना जे मुद्रा समतानी समुद्र, विषयविकार रहित, अतिशयसंपन्न, एवी जिनथापना देखी योग थंभे गुणीने अवलंचे स्वगुणावलंबी थइ अनेक जीव सिद्धि पाम्या, तथा श्रीपरम प्रभुनो द्रव्य निक्षेपो ते विचारतां शरीरधारी
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षष्ठ श्री पद्मप्रभजिन स्तवनं .
६०५
जिनराज, तेहना विवहार उपदेश समवसरण देखी अद्भुतताने अवलंबी, गुणावलंबी थइ अनेक जीव स्वधर्मसंपदा वरी सिद्धि पाम्या तथा अरिहंतनो भावनिक्षेपो ते अरिहंत द्रव्यना गुण जे केवलज्ञानादि तथा पर्याय ते अगुरुलघुतादि तेहनी अनंत परिणतिनुं जे भासन, श्रद्धान तथा रमण केतां पोतानुं तच्च तेने अवलंबतां अनेक जीव मोक्षरूप लक्ष्मी पाम्या; माटे ए श्री अरिहंतना जे नामादि चार निक्षेपा छे, ते भवरूप महा समुद्रमध्ये सेतु केतां मोहोटी पाज समान छे. माटे प्रभुना नामादि चार निक्षेपाने अवलंबीने आत्मसिद्धि करवी ॥ ७ ॥ इति सप्तम गाथार्थः ॥
स्थंभन इंद्रिय योगनो रे लाल, रक्तवर्ण गुण राय रे ॥ वा० ॥ देवचंद्र वृंदे स्तव्यो रे लाल, आप अवर्ण अकाय रे || वा० ॥ तु०॥८॥
अर्थ:-- वली श्रीपद्मप्रश्न स्वाभीनुं रक्तवर्ण शरीर ते सामा जीवना इंद्रिय तथा योगनुं स्थंभन छे, एटले इंद्रियो वर्णादिकने अवलंबीने रहे भाटे प्रभुजी राते वर्णे छे, गुणगांभीर्यादिक तेहना राजा छे, देव जे धर्म देव ते साधु, नरदेव ते चक्रवर्ती, भावदेव ते भवनपति प्रमुख, तेहमां चंद्रमा समान, वली इंद्र गणधरादिक तेहना वृंद कहेतां समूह, तेणे स्तव्या, पण प्रभु केहवा छे ? अवर्ण छे, अगंध, अफरस, एहवा अकाय छे. शरीर रहित छे, एटले भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्मरहित छे. सकल पुलातीत छे, एहवा श्रीमद्मप्रभ देव
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६०६
दे० चो० बा०
NAARNanAna
ते मने आधारभूत छे, परमशरण छे, एना निमित्तें परमपद नीपजे ॥ ८ ॥ इति अष्टम गाथार्थः ।। इति षष्ट पद्मप्रभजिन स्तवनं संपूर्ण ।। ॥अथ सप्तम श्री सुपार्श्वजिन स्तवनं ॥
हवे श्रीसुपार्श्व प्रभुने सहजधर्मरूप तत्त्व संपदापणे स्तवे छे. जगत्ना जीव पुद्गलानंदी छे, ते नवा पुद्गलने लेवे करी आनंद पामे छे, पण ते पुद्गलसंयोगजन्यसुख, तथा दुःख, ते आत्महित नहीं विभाव छे माटे, अने जे आत्मानुं सहज सुख ते आत्मधर्म छे, ए रीतें आगममध्ये उपदेश छे, ते कहे छे जे आत्माना अनंता गुण छे, ते गुणगुणतुं सुख जुदुं जुएं छे, अने एक अव्याबाध सुखरूप आत्मधर्म जूदो छे, एक एहवी व्याख्या छे तथा आत्माना ज्ञान दर्शनरूप गुण, ते मूलगुण छे, अने वीर्यादिक सर्व ते गुणनी प्रवृत्तिरूप धर्म छे. एक एवी पण व्याख्या छे. अने १ ज्ञान, २ दर्शन, ३ चारित्र, ४ दान, ५ लाभ, ६ भोग, ७ उपभोग. इत्यादिक अनंतगुण आत्माने विषे छे, तथा विशेषावश्यकमांहे कयुं छे.
क्षायिक सम्यक्त्व केवलज्ञान केवलदर्शन सिद्धत्वानि पुनः सिझावस्थायामपि भवंति । अन्ये तु दानादिलब्धिपञ्चकं चारिसिमस्यापीच्छंति तदावरणस्य तत्राप्यभावात् आवरणाऽभावेपि च तदसत्त्वे क्षीणमोहादिष्वपि तदसत्त्वप्रसंगात् ततस्तन्मते चारित्रादीनां सिद्धावस्थायामपि सद्भावःपुनस्तत्त्वार्थे पुनरप्यादिग्रहणं कुर्वन् ज्ञापयति ॥ अत्राऽनन्तधर्मात्मकतयाऽशक्याः प्र. स्तारयितुं सर्वे धर्माः प्रतिपदमप्रवचनजेन तु पुंसा यथा संभ
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सप्तम श्री सुपार्श्वजिन स्तवनं.
वमायोजनीयाः क्रियावत्त्वं पर्यायोपयोगिता प्रदेशाष्टकनिश्चलता एवं प्रकाराः सन्ति भुयांसः । अपि समुच्चये । एवं प्रकारा अनादिपारिणामिका भवन्ति जीवस्य भावाः । इहां जीवने विषे अनंता धर्म जुदा जुदा कह्या, तथा रत्नाकरावतारिकामध्ये सप्तभंग्यधिकारे । नन्वेकस्मिन् जीवादी प्रतिवस्तुन्यनंतधर्मात्मकत्वेनानंतधर्मवत्त्वमेव । स्याद्वादरत्नाकरे । एकत्र वस्तुन्ये कैकधर्मपर्यायानुयोगवशादविरोधेन व्यस्तयोः समस्तयोश्चविधिनिषेधयोः स्यात्कारांकितः सप्तधा वाक्प्रयोगः सप्तभंगीति । नन्वेकस्मिन् जीवादिवस्तुन्यनंताविधीयमाननिषिध्यमानानानाधर्माः स्याद्वादीनां भवेयुः । वाच्येयता यत्तत्वा द्वाचकेयतायाः ततोविरुद्धैव सप्तभंगीति ब्रुवाणं निरस्यति । एकत्र वस्तुनि विधीयमाननिषिध्यमानानंतधर्माऽभ्युपगमेनानंतभंगी प्रशांतैव सप्तभंगीति न चेतसि निधेयमिति अत्र हेतुमाह ॥ विधिनिषेधप्रकारापेक्षया प्रतिपर्यायवस्तुन्यनतानामपि सप्तभंगीनामेव संभवादिति तथाप्येकैकपर्यायमाश्रित्य विधिनिषेधविकल्पाभ्यां न्यस्तसमस्ताभ्यां सप्तैव भंग्यः संभवंति न पुनरनंतास्तत्कथमनंतभंगीप्रसंगादिसंगतत्वं सप्तभंग्याः समुद्भाव्यते कुतस्तथैव भंगाः संभवंतीत्यवाहुः । प्रतिपर्यायं प्रतिपद्य तु पर्यनुयोगानां सप्तानामेव संभवादिति अनंतधर्मापेक्षा सप्तभंगीनामानंत्यं यदा याति तद्धिमतमेव ।।
एटले वस्तुविषे धर्म अनंता छे. इहां कोइ कहे जे धर्म तथा गुणवस्तु जुदी छे, ते अजाण छे, केमके नाम भेद अंशभेदपणुं तो शब्दादिक नय सर्व माने छे, घटकुंभादिकने विषे एक वस्तुना स्वमयीपर्यायमां पण नामभेदें भेद कहे छे, ए रीतें गुणशब्द तथा धर्मशब्दनो भेदार्थ छे, पण विशेष रीतें
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दे० चा० बा.
गुण अने धर्म ए बेहु एकज छे, श्रीविशेषावश्यके “ जह सो विसेस धम्मो, चेयण तह मया किरिया " इहां चेतनागुणने धर्म कही बोलाव्यो छे.
वली भाष्यने विषे । आह ननु गुणस्वभावयो)दएव तद्भेदनिबंधनधर्मभेदाभावात् ।। इत्यादि ।। हवे भेद गुणना भांखीजें, तिहां अस्तिकता लहि ये जी ॥ ए पाठ द्रव्यगुणपर्यायना रासमां यशोविजयजी उपाध्यायें पण अस्तिकता धर्मने गुण कही बोलाव्यो छे. वली सिद्धांतमां पण उपयोगादिक अव्याबाध तथा अवन्नेआदिक अनेक गुण कह्या छे, तथा तत्त्वार्थमा मुक्त आत्मा निष्क्रियः तथा क्षायिकसम्यक्त्ववीर्यसिद्धत्वदर्शनज्ञानैरात्यंतिकैः संयुक्तोनिद्वेनापि सुखेन तथाऽस्तिकायत्वगुणवत्त्वानादित्वासंख्येयप्रदेशवत्त्वनित्यत्वादयः सत्येव जीवस्य.
यद्यपि भगवती मत्रमा सिद्धने अवीर्या तथा अचारित्रीया कह्या छे. ततो करणरूप चलवीर्यनी अपेक्षायें कह्या, पण तेहीज श्रीअनुयोग द्वारमा क्षायिकलब्धि अधिकार तथा पन्नवणासूत्रमा वीर्य ते जीवलक्षण छे. एम कर्तुं छे. तथा चारित्र प्रवृतिरूपनी ना छे, पण स्थिरतारूपचारित्र ते तो जीवनुं स्वलक्षण छे, ते उत्तराध्ययनना अठ्यावीशमा अध्ययनथी जोवू, तथा वसुदेवहिंडमध्ये, वली श्रीपालचरितमध्ये सिमस्तुति अधिकारें का छे ।। गाथा । जे गंत गुणा दुगुणा, इगतिस गुणा य अहव अट्ट गुणा ॥ सिफाणंत चउक्का, ते सिमा दितु मे सिद्धिं ॥ १ ॥ तथा बृहत्कल्पभाष्ये ॥ दवेण जीवदव्वं, संखातीतपदे समोगाढं।।काले अणाइणिहणा, भावेणाणाइया णता।।१।।
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सप्तम श्री सुपार्श्वजिन स्तवनं.
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एम द्रव्यार्णव तथा आप्तमीमांसादिक अनेक ग्रंथोमां कहां छे, माटे आत्मानी जेवारे भेदव्याख्या करिये, तेवारे गुण अनंता, एक एक गुणने विषे अविभाग अनंता, एक एक अविभागने विषे अनंता पर्याय, ए कम्मपयडीने विषे व्याख्या देखाय छे, अने तेज अविभाग तथा पर्यायनुं एकपणं पण श्रीभगवतीनी टीकामा देखाय है, अने संक्षेप्त व्याख्यायें गुणपर्याय हुने एक पर्यायास्तिक कही बोलाव्या के. एम मतिविभ्रम टालीने श्रद्धा राखवी. इहां श्रीअरिहंत द्रव्यने विशेषे ओलखावचा निमित्तें गुणगुणनी जुदी जदी व्याख्या जणाववा माटे तथा पोतानी सत्तानी रुचि प्रगट करना माने गुणगुणनो जुदो जुदो धर्म कही स्तवना करिये छैयें. ए प्रशस्ति यइ.
॥ हो सुंदर तप सरिधुं जग कोइ नहीं | ए देशी ॥
श्री सुपास आनंदमें,
गुण अनंतनो कंद हो । जिन जी ॥
ज्ञानानंदें पूरणो,
पवित्र चारित्रानंद हो ॥ जि० ॥ श्री० ॥ १ ॥
अर्थः- श्री सुपार्श्वप्रभु आनंदमयी छे. शुद्ध आनंद ते एने विषे छे, जेमांहे परनो मेल नथी, स्वरूप सुख छे, वली सुपार्श्वप्रभु के हवाले ? के गुण जे सहभावी श्रिता गुणाः ' एटले द्रव्य जे समुदाय तेहने गुण, पण तेमां अन्य गुणपएं नहीं, गुणमध्ये ॥ सव्वे सपज्जावा गुग्गा इति कल्पभाग्यवचनात् ॥ तथा अपज्जावे
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अथवा 'द्रव्याआश्रि रह्या ते तो पर्याय छे.
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दे० चो० बा.
जाणणा नत्थि इति आवश्यकनियुक्तिवचनात्॥ माटे गुणने विषे पर्याय छे, पण गुणने विषे अन्य गुण नथी, श्रीनयचक्रमां कहे छे, जे गुणने विषे अन्यगुण पणुं होय तो गुण ते द्रव्यपणुं पामे, तेमाटे गुण ते निर्गुण छे, एटले सुपास प्रभुरूप द्रव्य छे, ते ज्ञानादिक अनंत गुणनो कंद छे एटले मूल छे. तिहां ज्ञान जे आत्मानो विशेषावबोधरूप सकल विशेष धर्म गुणपर्याय, तेहनी अनंती परिणति तेहनो ज्ञायक नित्यानित्यादिक
अनंत धर्मनु ज्ञायकत्व, वेत्तृत्व, अगुरुलघुत्व, अनंतपर्यायनो पिंड, ते ज्ञानगुण ते लोकालोक सकल प्रत्यक्षरूप सर्वप्रदेशनिरावरणरूप तेहने आनंदें करी पावनो कहेतां पवित्र छ, पूर्ण छे. वली कषाय तथा पुद्गल फल आशारूप दोषरहित एवं स्वरूप स्थिरतारूप जे चारित्र, अनंतपर्यायात्मक, अकषायता, अवेदता, असंगता, परमक्षमा, परममार्दव, परमनिर्लोभतारूप, स्वरूप एकत्वरूप पास प्रभु ! ताहारे विषे छे, एटले चारित्रानंदमयी छो, ते माटे पवित्र निर्मल छो ॥ १ ॥ इति प्रथम गाथार्थः ॥
संरक्षण विण नाथ छो, द्रव्य विना धनवंत हो ॥ जि० ॥ कर्ता पद किरिया विना, संत अजेय अनंत हो ॥ जि. ॥ श्री० ॥२॥
अर्थः--वली हे प्रभु ! तमें संरक्षण विना नाथ कहेतां धणी छो, एटले कोई अन्य जीवनी तथा अन्यद्रव्यनी रखवाली करता नथी, केम जे संरक्षण पणुं करवू, ए तमारो
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सप्तम श्री सुपार्श्वजिन स्तवनं. ६११ धर्म नथी, माटे कोईना तमें रक्षक नथी, पण शरण त्राण आधाररूप छो, मोक्षना हेतु छो, तेथी नाथ छो. वली द्रव्य जे धन, कंचन, परिजन, गण, मंदिरादि, सर्व परिग्रह रहित छो, तो पण ज्ञानादि स्वगुण पर्यायरूप अनंतुं धन, श्रीप्रभुनी पासे छे, माटे धनवंत छो, बली हे प्रभु ! तमारे विषे कर्ता पद, कहेतां कर्त्तापणुं छे, पण गमन परिसर्पणादिक क्रिया विना कर्त्ता छो, एटले बीजाने कर्त्तापणुं ते क्रियाथकी होय छे, अने तमे तो अक्रिय छतां गमन परिसर्पणादिक क्रिया विना' पण कर्त्ता छो. मुक्तआत्मानिःक्रिय. एम तत्त्वार्थटीकामां कडं छे. वली हे प्रभुजी ! तमें संत छो, उत्तम छो, तप्तपरिणाम रहित छो, अजेय कहेतां रागद्वेष परीसह वैरीएं करी अजेय छो, वली कोई काले विणसो नहीं, माटे अनंत छो, अथवा अनंतपर्याय माटे अनंत छो ॥२॥ इति द्वितीय गाथार्थः॥
अगम अगोचर अमर तुं, अन्वय ऋद्धि समूह हो ॥ जि०॥ वर्ण गंध रस फरस विणु, निजभोक्ता गुणव्यूह हो ॥ जि० ॥३॥
अर्थः-वली हे प्रभु ! तमारुं स्वरूप तुच्छ ज्ञानी जाणी शके नहीं, माटे अगम छो. वली हे प्रभु ! तमें इंद्रियगोचर छो. वली आयुःकर्मना क्षयथकी प्राणवियोग थाय, तेने मरण कहिये, ते तमें प्राण तथा मरण रहित छो, माटे हे प्रभु ! तमें अमर छो, वली हे प्रभु ! तमें अन्वय कहेतां जे सह
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दे० चो० बा० जना व्यापक पोताना ज्ञायकादिक गुण, तेनी प्रवृति सहित जे ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्यादिक गुण, अन्वयी गुण कहिये, तेहीज ऋद्धि कहेतां संपदा तेहना समह छो, अने कषायादि दोषने टलवे करी जे अकषायादिक गुण उपना, ते व्यतिरेक गुण कहिये, तथा सति सद्भावो एटले जे छते पामिये, ते अन्वयी गुण कहिये, तेहना समह छो. वली वर्ण, गंध, रस, फरस, ते पुद्गलधर्म छे, तेथी तमें रहित छो, अने निज कहेतां पोतानो जे स्वरूपधर्म, तेहना भोक्ता छो, गुणना व्यूह कहेतां समूह छो ॥ ३ ॥ इति ॥
अक्षय दान आचिंतना, लाभ अयत्ने भोग हो ॥ जिन०॥ वीर्य शक्ति अप्रयासता, शुद्ध स्वगुण उपभोग हो॥जि०॥श्री०॥४॥
अर्थः--वली हे प्रभुजी ! तमारा अनंता गुणनी प्रवृत्ति केवी रीतें छे ? ते कहे छे. वीर्यगुण ते सर्वगुणने सहकार दिये छे, तेम ज्ञान गुणना उपयोग विना वीर्य फूरी शके नहीं, तेथी वीर्यने सहाय ज्ञानगुणनुं छे, तथा ज्ञानमां रमण ते चारित्रनुं सहाय छे, अने पररमण न करे, ते चारित्रने ज्ञान, सहाय छे. गुम एक गुणने अनंत गुणनुं सहाय छे. हवे जे गुण सहाय दिये छे, ते तो आत्माना गुणमां दानधर्म छे, एम हे ममुजी : तम प्रतिसमय अनंल स्वगुणसहायरूप दान ते अनंत यो छो, पणा केवारे क्षय पामो नहीं. वीजा जगत्मां दानना आपनार केटले काले श्रद जाय अने
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सप्तम श्री सुपार्श्वजिन स्तवनं. तमें सादि अनंत काल स्वाधीन पणे . स्वगुणरूप पात्रने अनंतुं दान अक्षयपणे द्यो छो, पण केवारें क्षीण न थाओ माटे अक्षय थका दान आपो छो. एहवो दानगुण तमारे विषे छे, अने जे गुणनी सहायरूप शक्तिनी प्राप्ति, ते लाभ छे, बीजाने जे चिंतवे, ते लाभ थाय ते पण निधीर नहीं, अने हे प्रभुजी ! तमारे विष चित्तना विकल्परूप जे लाभार्थीपणुं ते नथी, तोपण लाभ अनंतो छे, माटे अणचिंत्या लाभना धणी छो, एहवो लाभगुण छे. वली हे प्रभुजी! तमें पोताना पर्यायने प्रतिसमयें भोगवो छो, पण प्रयास विना भोगवो छो, माटे तमें यत्नविना प्रयत्नविना भोगमयी छो, जीवना सर्व गुणनी जे प्रवृत्ति तेनुं सहाय जे वीर्य, ते अनंतुं अन्यसहाय विना फुरी रह्यं छे, पण ते वीर्यनी फुरणा, विना प्रयासें एटले उद्यम विना वीर्य फुरे छ, वली शुद्ध स्वगुण केतां स्वाभाविक जे स्वगुण तेहनो उपभोग छे, ए पांच अंतरायनी प्रकृतिना क्षय थयाथी पांच गुण प्रगट्या छ, एटले हे प्रमुजी ! तमने स्वरूपनुं दान, स्वरूपनो लाभ, स्वपर्यायनो भोग, स्वगुणनो उपभोग, स्वसर्वपरिणति सहकार शक्ति, ते वीर्य, ए रीतें धर्म प्रगट थया छे ॥४॥इति॥
एकांतिक आत्यंतिको, सहज अकृत स्वाधीन हो ॥ जि०॥ निरुपचरित निद्व सुख,
अन्य अहेतुक पीन हो ॥ जि० ॥श्री०॥५॥
अर्थः-वली हे प्रभुजी ! तमने जे सुख प्रगट्यां छे, ते सुख केहवां छे ? जे एकांतिक केतां एकलं सुख, जे
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दे० चो० बा० पाछो दुःख पामे नहीं, वली आत्यंतिको केतां जेथी बीजं वधारे सुख कोइ नथी, एटले सर्वथी अधिक ते पण सहज केतां स्वभावनुं अकृत केतां अणकीवू पण कोइनुं करेलुं नहीं, वली ते पोताने स्वाधीन पोताने वश पण पराधीन नहीं. वली निरुपचरित केतां जे उपचाररूप नहीं, अछता आरोपने उपचार कहिये, ते ए सुखमां कांइ उपचारपणुं नथी, संसारमा शातावेदनी, सुख, ते उपचरित सुख छ, केमके शातामध्ये सुखधर्म नथी, पण अज्ञान भूलें, संसारी आत्मा, सुख मानें छे, पण वडेरा एने सुख कहेता नथी, जे संसाराभिनंदी मोहें मूढ परमार्थने अजाणता विषयगृद्ध थका इंद्रियदेहजनित विषयसुखने सुख माने छे, ते जातें सुख नहीं ॥ यतः ॥ विसयसुहं दुखं चिय, दुःख पडियारओ तिगच्छंब्य ॥ तं सुहमुवयाराओ, न उवयारो विणा तच्चं ॥१॥ इति विशेषावश्यके ॥ तथा शातानो उदय, ते पण स्वधर्मरोधक छे, अने पुद्गल कर्मनो विपाक छे माटे ते सुख नहीं ॥ सायासायं दुःखं, तविरहंमि य सुहं जउत्तेणं ।। देहिदियेसु दुख्खं, सुखं देहिंदिया भावो ॥ इति ॥१॥ एम औदयिक सुख, ते सुख नहीं, अने जे सिद्धनिरुपम अनंत आत्मस्वभाव प्रागभाव भोक्तापणे तेज सुख जाणवू. वली निद्र कहेतां जेमांहे अन्य जीव तथा अजीव द्रव्यनो संयोग नहीं, एटले परवस्तुनो भेल नथी. कदापि परवस्तुनुं कारण पामीने उपर्नु होय ? तिहां कहे छे. जे ते सिद्धसुख कहेQ छे, के अन्य केतां बीजां द्रव्यतुं हेतुपणुं जेमां नथी. वली पीन केतां पुष्ट छे, प्रबल छे, माटे श्रीसुपार्श्वजिननुं जे आत्मिक सुख ते महानंद छे. ॥ ५ ॥ इति पंचम० ॥
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सप्तम श्री सुपार्श्वजिन स्तवनं. एक प्रदेशे ताहरे, अव्याबाध समाय हो ॥ जि० ॥ तसु पर्याय अविभागता, सर्वाकाश न माय हो ॥ जि० ॥श्री०॥६॥
अर्थः--वली हे प्रभु ! तमारा आत्माना एक प्रदेशने विषे अनंत गुण, अनंत पर्याय छे, तेमाहे हे प्रभुजी ! ताहारे एक प्रदेशे जे अव्याबाध गुण समाइ रह्यो छे, ते अनंतो छे, ते अव्याबाध सुखना पर्याय तेना अविभाग ते केवलीनी प्रज्ञायें जेहना एक खंडना बे खंड न थाय, तेने अविभाग कहिये, ते अविभाग लोक तथा अलोकाकाशना एकेका प्रदेशे एकेको सुखनो अविभाग राखिये, तोपण सर्वाकाश कहेतां लोक अलोक रूप सर्व आकाशमां समाय नहीं, एटले आकाशना प्रदेशथी पण तमारे एक प्रदेशे रघु जे अन्याबाध सुख, तेना अविभाग अनंत गुणा छे ।। यतः ॥ खित्ताओ भावधम्मा अणंतगुणा ॥ इति ॥ सदा क्षेत्रधर्मथी भावधर्म अनंत गुणा छे ॥ ६ ॥ इति ॥
एम अनंत गुणनो धणी, गुण गुणनो आनंद हो ॥ जि० ॥ भोग रमण आस्वादयुत, प्रभु तुं परमानंद हो ॥ जि० ॥श्री०॥७॥
अर्थः-एम केतां ए रीतें हे प्रभुजी ! तमें अनंत गुणना धणी छो, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, अव्याबाध, अमू
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. दे० चौ० बा०
.tw तता, अगुरुलघु, दान, लाभ, भोग, उपभोग, कर्ता, भोक्ता, पारिणामिकता, अचल, अविनाशी, अनंत, अज, अनाश्रयी, अशरीरी, अणाहारी, अयोगी, अलेशी, अवेदी, अकषायी, असंख्यप्रदेशी, अचल, अक्रिय, शुद्धसत्ताप्रागभावरूप, नित्य, अनित्य. एक, अनेक, सत्, असत्, भेद, अभेद, भव्यत्व, अभव्यत्व, सामान्य, विशेष, इत्यादि अनंत गुण पर्यायरूप धर्मना धणी छो. ते गुणनो जुदो जुदो आनंद छे, तिहां दृष्टांत कहे छे. जेम संसारी जीवने धनन सुख भिन्न छे, रूपनुं सुख भिन्न, भोजन- मुग्व भिन्न, देखवानं मुख भिन्न, स्थानक सुख भिन्न छे, तेम सिद्ध आत्माने पण गुण गुणन सुख भिन्न भिन्न ले, तेथी अनंतो अनंत रीत आनंद छे, एटला सर्व गुणनो आनंद ले, ते सर्वनो भोग पण छे, केम के भोगव्या विना आनंद थतो नथी, एटले अनंता गुणना आनंदनो भोग अनंतो छे, तेमज ते सर्व गुणने विषे अनंत रमण पण छे, तेम अनंतो आस्वाद पण छे, केम के अनंता गुणने आस्वादीने भोगी थयो थको आनंदने विलसे छे, माटे अनंतो आस्वाद पण छे, तेथी हे प्रभु ! तमें परमानंद छो. इहां गुणगुणीनो अभेद उपचार बोलाव्यो, जे परमानंदमयी तेहीज परमानंद, एहवा परम देव छो ॥७॥ इति सप्तम गाथार्यः ॥
अव्यावाध रुचि थर्ड, साधे अव्याबाध हो ॥ जि०॥ देवचंद्र पद ते लहे, परमानंद समाध हो ॥ जि० ॥श्री०॥८॥
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सप्तम श्रीसुपार्श्वजिन स्तवनं.
अर्थः--एहवू परमानंदरूप अव्याबाध सुख श्रीपरमात्मप्रभुने विषे छे, ते में निर्धार करयो, तेबारे जाण्युं के जेवू अव्याबाध सुख श्री सुपार्श्व प्रभुने विषे छे, एहबुज सुख माहारे विषे पण छे, एहवू जाणपणुं प्रगटयु, तेथी भव्य जीवने उपयोग आव्यो, जे हुँ पण ज्ञानादि अनंत गुणी छ, हवे माहारो शुद्धानंद भोग केवारे प्रगटे ? एहवा उपयोगें जे जीव ज्येष्ठ महिनामां जेम बपैयो तृषातुर थइने वरसादने अमिला वरते, तेनी परे जे जीव, अव्याबाध सुखनो रुचि अभिलाषी थइने पुद्गलसंयोगजन्य जे सुख तेतो विषभक्षण समान आत्मस्वरूपनां घातक जाणीने तेथी उभग्यो थको एक आत्मानंद केवारे प्रगटे ? एवो थको वर्ते, पछी तेहना साधक जे मुनिराज तेनां चरण सेवतां उदासीन थइने साधे, केतां निपजावे, आत्मिक अन्याबाध सुख प्रत्ये. एटले उत्तम जीव स्याद्वाद आगम श्रवण करी, पांच आश्रवथी विरमी शुद्धसंयमी थइ, देहनिस्पृही थको मोक्षने साधे ।। उक्तं च ॥ यतः ।। पंचासव विरत्ता, विसय विजुत्ता समाहि संपत्ता ॥ राग दोस विमुत्ता, मुणिणो साहंति परमत्थं ॥ १ ॥ आउस्स खीणमाण, सुप्पाणवियोगेवि जे समाहिपया ॥ सावय दड्ढवयावि हु, मुणिणो साहंति परमत्थं ।। २ ।। एहवा मुनिराज त्रिकाल विषयना अवांछक, तत्त्वगवेषी, तत्त्वरसिया, तत्त्वानंदरुचि, पोतार्नु तत्त्व, अनादिन कर्मसंगें दवाणं ते प्रगट करवा माटे सकल पुद्गलभावथी विरक्त थइने जे आत्मा निजावे छे ते जीव, निमित्तावलंबनी थइ स्वरूपावलंबन करतां स्वरूपमध्ये एकत्व पामीने क्षपकश्रेणि आरोहण करी धनघाति कर्म खपावीने सयोगी केवली थइ, पछी शैलेशीकरण करी निःकर्मा थइने
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दे० चो० बा०
देव जे धर्मदेव मुनिराज, तेमांहे चंद्रमा समान एहवू अरिहंत पद तेने ते जीव पामे, जेमां परमानंदनी समाधि छे, अने सकर्मारूप अवस्था ते महाव्याधि छे, माटे निरावरण निःकर्मा-' वस्था ते परम समाधिरूप छे, ते अवस्था श्रीसुपार्श्व परमात्माने अवलंबतां जीव पामे, माटे श्रीसुपार्श्व प्रभुनी सदा सेवना करवी. एहीज आधार, बाण, शरण ले ।। ८ ॥
॥अथ अष्टम श्री चंद्रप्रभजिनस्तवनं ॥ ॥ श्री श्रेयांस जिन अंतरजामी ॥ ए देशी ॥ श्रीचंद्रप्रभ जिनपद सेवा, हेवायें जे हलिया जी ॥ आतमगुण अनुभवथी मलिया, ते भवभयथी टलिया जी श्री०॥१॥
अर्थः-हवे श्रीचंद्रप्रभ भगवान्नी स्तवना कहे छे, अने सेवना पण ओलखावे छे, ते श्रीचंद्रप्रभनामा आठमा प्रभुनी पद केतां चरणनी सेवा अथवा अरिहंत पदनी सेवना, तेहनी छे हेवा केतां चाल रीत, तेहमां जे हलिया केतां तेवी टेवें पड्या छे, तेहने प्रभुसेवन विना काल जाय नहीं, जेहने असंख्यात प्रदेशे श्रीप्रभु परमात्मा परमपूज्यनु आराध्यपणुं छे, ते जीव आत्मा चेतनालक्षण असंख्यात प्रदेशे स्वधर्मना कर्ता, स्वधर्मना भोक्ता, पोताना गुण ज्ञानदर्शनादिक, तेहनो अनुभव केतां भोगववं, तेहथी मल्या छे, एटले आत्मगुणभोगी
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अष्टम श्रीचंद्रप्रभजिन स्तवनं.
६१९
थया छे, तेज जीव भव केतां चार गतिरूप संसार तेहनो जे भय, जन्म मरण स्वरूपरोधक कर्माधीनतारूप, तेहथी टल्या छे, एटले यथार्थ रीतें जे परमात्माने सेवे, ते अवश्य असंसारी थाय. तेमाटे टुलवा योग्य थया ते टल्या. ए न्यायें, हर्षनुं वचन छे, जो कारण मले, तो कार्य नीपजे. तेम उत्तम जीव अरिहंत सेवन परिणम्या प्रभु मल्याना हर्षे संसार समुने गोपदसमान माने छे ॥ १ ॥ इति प्रथम० ॥
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द्रव्यसेव वंदन नमनादिक, अर्चन वली गुणग्रामो जी ॥ भाव अभेद थावानी ईहा, परभावें निःकामो जी ॥ श्री० ॥२॥
अर्थ:-- ते सेवना चार प्रकारनी छे. १ नामसेवना, २ स्थापनासेवना, ३ द्रव्यसेवना, ४ भावसेवना. तेमां नाम तथा स्थापना, ए बे सेवना तो सुगम छे, अने द्रव्य निक्षेपाना बे भेद छे. एक आगमयी द्रव्यनिक्षेपो, अने बीजो नोआगमयी द्रव्यनिक्षेपो, तिहां जे आगमयी द्रव्यनिक्षेपो, तेतो जे सेवनापदनो अर्थ विधि जाणे, पण ते कालें ते अर्थनो उपयोग नथी, ते आगमयी द्रव्यनिक्षेपो कहियें । अणुवओगो दवं । इति अनुयोगद्वावचनात् " हवे बीजो नोआगमथी द्रव्यनिक्षेपो, तेहना वली त्रण भेद छे. एक ज़शरीर, बीजुं भव्यशरीर, त्रीजुं तद्व्यतिरिक्त शरीर. तिहां जे जे सेवना भावरूपें परिणम्या हता, पण प्राणमुक्त थया, तेहनां शरीर, ते ज्ञशरीर द्रव्यनिक्षेपे छे, ए पहेलो भेद तथा जे जीव हमणां तो सेवना
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६२०
दे० चो० बा०
पणे परिणम्या नथी, पण अनागतकाले भावसेवनापणे परिणमशे, ते भव्यशरीर द्रव्यनिक्षेपो कहियें, ए सर्व द्रव्यनिक्षेपो ते नैगमनयने मतें छे, ते बीजो भेद. तथा जे सेवनानी प्रवृत्ति अंतरंग भावसेवनाने कारणपणे वरते ते तद्व्यतिरिक्त द्रव्यनिक्षेपे सेवना कहि ये. ए बीजो भेद कह्यो.
तेमांहे जे योगनी वंदन नमनादिक प्रवृत्ति, ते व्यवहारनये द्रव्यसेवना. अने जे अंतरंग विकल्पं बहुमानादिक, ते ऋजमूत्रनये द्रव्यसेवना. ए रीतें द्रव्यसेवनानुं स्वरूप का, एटले जे अरिहंतना चार निक्षेपरूप कारण दृष्टिगोचर, श्रवणगोचर, स्मरणगोचरपणुं पामीने जे जीव, वंदन, करजोडन, नमन, मस्तक नमाववं, इत्यादिक अभ्युत्थान अंजलि, आधिनतादिकरण, चंदन पुष्पादिके करीने अर्चन, वली गुणग्राम जे मुखथी मधुर ध्वनिये गुण कहेवा, ते द्रव्यसेवा जाणवी, अने जे आत्मा संसार पराङ्मुख अरिहंतना गुणनुं अत्यंत बहुमान, असंख्यात प्रदेशें अरिहंतनी अरिहंततानी आश्चर्यता, अद्भुतता, तथा अरिहंतनिमित्तना विरहें अक्षमता, अने अरिहंत ईहारूप परिणाम तेथी अभेदपणे थवानी भावपणे निपजाववानी ईहा, ते द्रव्यसेवा लेखे छे, परंतु भावरुचिपणा विना द्रव्यप्रवृत्ति ते बाललीला समान छे, तेमाटे इहां कह्यो जे भाव तेथी अभेद थवानी ईहा सहित जे सेवा ते द्रव्यसेवा जाणवी, * द्रव्यप्रवृत्ति विना एकला भावधर्मने पण तचार्थटीकामां आचाय साधन का छे. तथा सम्मतिग्रंथे । चरण करण प्पहाणा, ससमय परसमय मुक्कवावारा ॥ चरणकरणरस सारं, नित्थय य
* एकली द्रव्यप्रवृत्ति मारि संयमकल्प छ,
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अष्टम श्रीचंद्रप्रभजिन स्तवनं. ६२१ .......................... .. ... .. .. सुझं न याणंति ॥ १॥ नाणाहिओवरतरं, हीणोवि दु पवयणं पभावंतो ॥ नयदुक्करं करतो, सुहुवि अप्पागमो पुरिसो ॥२॥ इत्यादिक वचनें भावधर्म ते मुख्य छे. द्रव्य विना भाव ते गुणकारि छे, पण भाव साध्यरुचि विना एकलं द्रव्य ते कामर्नु नथी, ए परंपरा छे, वली परभाव जे आत्मधर्मथी अन्य पुण्यबंध शुभकमनो विपाक तेहनी कामना अभिलाषा विना जे द्रव्यसेवना, ते कामनी जाणवी. ॥२॥ इति द्वितीय गाथार्थः ॥ भावसेव अपवादें नैगम, प्रभुगुणने संकल्प जी॥ संग्रह सत्ता तुल्यारोपें, भेदाभेद विकल्पं जी ॥
श्री० ॥३॥ अर्थः---हवे भावनिक्षेपाना बे भेद छे, ते कहे छे. एक आगम भावनिक्षेपो, बीजो नोआगम भावनिक्षेपो. तिहां भावसेवनाना पदना अर्थने जाणतो थको तेवा उपयोगें प्रवृत्ते, ते पुरुषने आगमथी भावसेवना कहिएं, ए आधाराधेयनो अभेद ग्रही, निक्षेपो कयो, तथा जे जीव भावसेवनायें परिणम्या, तेहनी भक्ति, साधना, परिणति, ते नोआगमयी भावसेवना कहिये. इहां मूल वस्तुध विचारतां आत्मद्रव्यने विष सेव्यसेवक भाव नथी, सत्तायें सर्व द्रव्य समान छे, अने कोइ द्रव्य कोईनो धर्म लेतां देतां नथी, पण जे संसारी जीव ते ते अनादिनो अढार पापस्थानके परिणम्यो, विभावभावित थको कर्ममयी थईने संसारी पुद्गलनो भिखारी, तत्त्वनो चुक्यो, मोहने बंदीखाने दुःखमयी थयो छे, ते जेवारे स्वरूपने पामे, तेवारे सिद्ध परमेश्वर थाय. तेतो श्री अरिहंत निःकर्मा तत्त्व
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दे० चो० बा०
भोगीने पूज्यपणे अविलंबतां नीपजे, माटे स्वकार्य करवाने जे परमात्मा निष्पन्न सिद्ध तेहने निमित्त कारणपणे अवलंबीने अंतरंगपरिणतिथी सेवे, ते जिहां सुधी एनी शुद्धसत्ता संपूर्ण पदें न थाय, तिहां सुधी ए सेवक अने संपूर्ण शुझानंदमयी थया, ते सेव्य जाणवा, ए निमित्तावलंबी सेवा, ते अपवाद सेवा, अने ते सेवा करतां पोतानुं साध्य निपजावQ, ते उत्सर्ग सेवा कहिये ॥ उक्तं च ॥ उक्कोसो उस्सग्गो, जस्स संपुण ममलसम्भावो ॥ अववाओ तस्साहण, तन्वुढिकरो अणेगविहो । इति ॥ १ ॥
जे जेहनो उत्कृष्टो संपूर्ण निर्मल निर्दोष स्वभाव थयो, जेथी आगल बीजी अवस्था काहिं नहीं, ते उत्सर्ग कहिये, अने ए उत्सर्गने निपजाववा माटे कारणरूप जे मार्ग अंगीकार करवो, ते अपवाद कहिये. इहां सेवा मध्ये जे आत्मसाधन थयुं, ते उत्कृष्ट अने ते आत्मसाधन निपजाववाने जे कारण अविलंब्यां जोइए, ते सर्व अपवादें जाणवू. तेमां अरिहंतनी सेवना ते आत्मसाधनतुं कारण छे, तेयी ए अपवाद सेवना छे, ते सात नये करी सात भेदें छे, ते सात नयन संक्षेपें स्वरूप बतावे छे.
१ अनेके गमाः संकल्पारोपांशाश्रयाद्या यत्र स नैगमः । जिहां अनेक नामादिक गमा ग्रहवाये तथा संकल्पे, आरोपे, अने अशेपण वस्तुने माने, ते नेगमनय कहिये.
२ संगृह्णाति वस्तुसत्तात्मकं सामान्यं स संग्रहः । जे सर्वने संग्रहे, सर्वनुं ग्रहण करे, वस्तुनी छती सामान्यपणे ग्रहे, ते संग्रहनय कहिये.
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अष्टम श्रीचंद्रप्रभजिन स्तवनं.
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--
३ संग्रहगृहीतं अर्थविशेषेण विभजतीति व्यवहारः। संग्रहनये ग्रह्य जे सामान्य, तेहने अंश अंशभेदें जूदु जूवेहेंचे, ते व्यवहारनय कहिये.
४ ऋजु अतीतानागतवक्रत्वपरिहारेण ऋजु सरलं वर्तमानं सूत्रयतीति ऋजुसूत्रः । जे ऋजु सरल वर्तमान अवस्थाने आहे, अतीत अनागतनी वक्रत्वताने लेखे नहि, ते ऋजु मूत्रनय कहिये.
५ शब्दार्थरूपं तद्धर्मरूपपरिणतिः इति शब्दः। प्रकृति प्रत्ययादिक व्याकरण व्युत्पत्तिए सिद्ध थयेलो शब्द, तेहमां जे पर्यायार्थ बोले, ते पणे परिणमे, वस्तुने वस्तु माने. तत्वार्थवृत्तौ शब्दवशादर्थप्रतिपत्तिरिति शब्दनयश्च शब्दानुरूपं अर्थमिच्छति । ते शब्दनय कहिये.
६ सम्यक् प्रकारेणार्थपर्यायवचनपर्यायतः सकलभिन्न वचन भिन्नभिन्नार्थत्वेन तत्समुदाययुक्ते ग्राहक इति समभिरूढनयः । जे वस्तुना विद्यमान पर्याय तथा जे नामना यावत् वचनपर्याय छे, ते सर्व शब्द मिन्न छे. यथा घट कुंभ इत्यादि. जे शब्दें भिन्न तेहनो अर्थ पण तद्भावरूपपणे भिन्न छे, ते सर्व वचनपर्यायरूपपरिणमती वस्तुने वस्तुपणे ग्रहे, ते सममिरूढनय कहिये.
७ सर्व अर्थपर्यायें स्वक्रियाकार्यपूर्णत्वेन एवं यथार्थतया भूतः एवंभूतः ॥ सर्व अर्थपर्याय अनंता ते स्वधर्मे संपूर्ण पोतानी क्रिया कार्यपूर्ण जे वस्तुनो धर्म छे, ते तेम संपूर्णपणे थयो, ते एवंभूत नय कहिये.
इहां श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणे १ नैगम, २ संग्रह, ३
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दे० चो० वा०
N
व्यवहार, ४ ऋजुसूत्र. ए चार नयने द्रव्यार्थिकपणे द्रव्यनिक्षेपे मान्या छे, अने शब्दादिक ऋण नयने पर्यायार्थिकपणे भावनिक्षेप मान्या छे, तथा ऋजुमूत्रादिक चार नयने भावपणे कद्या छे, तेनो आशय कहे छे जे वस्तुनी अवस्था त्रण छे, १ प्रवृत्ति, २ संकल्प, ३ परिणति, ए त्रण भेद छे. तेमां जे योगव्यापार संकल्प, ते चेतनाना योग सहित मनना विकल्प, तेने श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमण प्रवृत्तिधर्म कहे छे, तथा संकपधर्मने उदेक मिश्रपणा माटे द्रव्य निक्षेपें कहे छे, मात्र एक परिणति धर्मने भावनिक्षेपो को छे.
अने सिद्धसेनदिवाकरें विकल्प ते चेतना माटे भावनय गवेष्यो छे, अने प्रवृत्तिंनी सीम, व्यवहारनय छे, अने संकल्प ते ऋजुमुत्रनय छे, तथा एक वचनपर्यायरूप परिणति ते शब्दनय छे, अने सकल वचन पर्यायरूप परिणति ते समभिरूढनय छे, तथा वचन पर्याय अर्थ पर्याय रूप संपूर्ण ते एवंभूत नय छे, माटे ए शब्दादिक ऋण ते विशुक्रनय छे, भावधर्ममध्ये मुख्यभावने उत्तर उत्तर सूक्ष्मताना ग्राहक छे, ए रीतें नयनो अधिकार संक्षेपें कह्यो हवे ए साते नये करी अपवाद भावसेवनाना सात भेद कहे छे.
१ श्री अरिहंतरूप स्वजाति अन्यद्रव्य तेहना स्वरूपने चितववे जे चेतनानो अंश प्रभुना गुणने अनुयायी संकल्प पहेला केवारे न थयो हतो, ते संकल्पविषयादिकयी निवारीने प्रभुगुणे जोड्यो, ए निमित्तावलंबीपणा माटे अपवाद अंतरंग परिणाम ते भावसेवना संकल्परूप एक गमे माटे नैगमनये अपवाद भावसेवना जाणवी. आत्मसिद्धि नीपजाववानुं कारण छे.
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अष्टम श्रीचंद्रप्रभजिन स्तवनं.
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२ श्री अरिहंतदेवनी निष्पन्न असंख्यात प्रदेशे निरावरण सर्व स्वशक्तिने चिंतववे पोतानी सत्ता पण तेहवी विचारे, उभयनो तुल्यारोप करे, अने अणनिपनानो पश्चात्ताप करे, निपनानुं परमात्मधर्मर्नु बहु मान करे, तथा भेद कहेतां द्रव्यथी क्षेत्रयी, कालथी, भावथी, श्रीप्रभुजी तथा माहरु द्रव्य मिन्न छे, अने सत्तासाधर्मे अभेद छ, एहवा सापेक्षपणे जे बहुमान युक्त सत्ता प्रगट करवानी रुविवंत एवो विकल्प ते संग्रहनये अपवाद भावसेवना कहियें ॥३॥ इति गाथार्थः
व्यवहार बहुमान ज्ञान निज, चरणे जिनगुण रमणा जी ॥ प्रभुगुण आलंवी परिणामें,
ऋजुपद ध्यान स्मरणा जी ॥ श्री० ॥४॥
३ अर्थः-पोताना क्षयोपशमभावि जे ज्ञान, दर्शन, वीर्य, तेमध्ये प्रतिसमये भासन श्रीअरिहंतनी शुद्ध स्वरूप संपदा, केवल ज्ञानादिक. अने उपकारसंपदा जे देशना धर्मकथन, ते शुफउपकारीपणुं छे. तथा चोत्रीश अतिशय, पांत्रीश वचनातिशय, आठ प्रातिहार्यरूप संपदा, तिहांज उपयोग राखे, अने केवारे श्रीप्रभुजीनी प्रभुता विसारे नहीं. बहुमानमध्ये श्रीवीतराग ते सर्वयी अधिक मोटापणे सद्दहे, वीर्य ते जिनभक्तिने विषे फोर वे, तथा चणा कहेतां नारित्रने श्रीअरिहंतना गुणने विष रमण एकत्व तन्मयतापणुं पामीने रहे, इहां जे क्षायोपशमी आत्मागुणनी प्रवृत्ति भासनादिक. ते सर्व श्रीअरिहंत अनुयायी थइ, ते माटे ए व्यवहारनयें अपवाद भावसेवना कहिये.
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दे० चो' बा०
४ प्रभु श्रीपरमात्मा अयोगी अलेशी, तेना गुणने अवलंबीने आदरीने परिणाम जे अंतरंग आत्मव्यनी क्षयोपशमी परिणति सामान्यचक्रभावरूप, तेमध्ये तन्मयपणे जे नहीं वीसरे एवा स्मरणपणे तदुपयोगें रहे, ते जिहां सुधी धर्मव्यानरूपं आलंबी साधे, तिहां सुधी, रुजूसूत्रनयें अपवादभावसेवना कहियें. ए पण आत्मसाधनरूप उत्सर्गभावसेवा तेनुं कारणपणुं छे, तेथी ए अपवादसेवा कही ॥४॥ इति चतुर्थ गाथार्थः ।।
शब्दें शुक्ल ध्यानारोहण, समभिरूढ गुणदशमे जी ॥ वीय शुक्ल अविकल्प एकत्वे, एवंभूत ते अममे जी ॥ श्री० ॥ ५ ॥ ५ अर्थ:-हवे श्रीप्रभुरूप शुफद्रव्यने आलंबीने जे जीव भावमुनितचरुचि थइ दर्शन, ज्ञान, चारित्र, ए रत्नत्रयीमयी परिणमीने जे प्रथक्त्ववितर्क सप्रविचाररूप शुक्ल च्यानपणे परिणम्यो, तेवारें ए जीव शब्दनये भावसेवनावंत थयो, एटले रुजुसूत्रनयमां तो प्रशस्तउदैक सहित अरिहंत गुणनी इष्टतादिक परिणामने सहकारें हतो, अने जिहां शब्दनय थयो, तिहां प्रशस्तालंबननुं कार्य पडे नहीं. साधक जे भव्यजीव, तेहना गुण ते सर्वप्रभुगुणथी एकत्व थइ स्वरूप एकत्वता पाम्या शुहाव्याननी शुभताने परिणम्या, तेवारे शब्दनय, अपवादभाव सेवना कहिथे. इहां पा निमित्तपूर्वक मंडाण छे, तेमाटे अपवादे भावसेवना कही, अथवा साधनपणा माटे अपवाद कहि बोलाव्यो.
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अष्टम श्रीचंद्रप्रभजिन स्तवनं.
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६ जेवारें साधक जीव दशमे सूक्ष्मसंपराय गुणठाणे चढ्यो शुक्लव्यानना प्रथम पायाने अंतें आव्यो, परमनिर्मलभाव वर्यो, ते वेलाए जेटली आत्मगुणनी साधना करता योगवीर्यनी सहायें साधकता थाय, ते सर्व अपवादें छे, अने उत्सर्गमार्गे तो योगधर्म पण आत्माने तजवा योग्य छे, ते पण तेकाले साधनारूप छे, तेमाटे इहां कारणिक ग्रहो, पण स्वरूपमध्यें नहीं. अने जेटलं कारणरूप लहियें, ते सर्व अपवाद छे, माटे दशमे गुणठाणे समभिरूदनये अपवाद भावसेवना छे, ए पण साधकनां आसन छे.
७ जेवारें शुक्कुध्यानने बीजे पाये एकत्ववितर्क अप्रविचाररूपें चड्यो भावमुनि निर्विकल्प समाधि वरयो, स्वरूप - कत्वें परिणम्यो, तेवारें साधनानुं पूर्णपणं थयुं. ते माटे एवंभूतनय सेवना यह तो कोइ पूछे जे अयोगी गुणठाणा सभी साधना छे, तो इहां क्षीणमोहगुणठाणे सेवनानो एवंभूत केम कहो छो ? तेने उत्तर कहे छे जे अयोगी सुधी तो उत्सर्गसाधना छे, अने इहां तो अपवादसाधनानो अधिकार छे, तेथी अपवादसाधना इहां पूरी थइ. वली कोइ पूछे जे अमम निर्मोह अवस्थामां शं अपवादपणु छे ? तेहने उत्तर. जे शुक्र व्याननो वीजो पायो पण हजी सचेतनानुं एक आत्मधर्मे राखवं, ते प्रयोग छे. हजी सयोगवीर्य उदेकानुगतनुं सहाय छे, तथा श्रुतज्ञाननुं आलंबन छे, अने क्षयोपशमी श्रत ते उत्कृष्ट उत्सर्गे मूल आत्मिक वस्तुधर्मे नथी अने तेहं आलंबन छे, तिहां सुत्री अपवाद छे. ते माटे निर्मोही बारमे गुणस्थानके एवंभूतनयें अपवादें भावसेवा जाणवी एं
दी
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दे० चो० बा.
अपवाद भाव सेवनाना सात नये करी सात भेद कह्या ॥५॥ इति पंचम ।।
उत्सर्गे समकितगुण प्रगट्यो, नैगमप्रभुता अंशे जी ॥ संग्रह आतम सत्तालंबो, मुनिपद भाव प्रशंसें जी ॥ श्री०॥६॥
अर्थः-हवे उत्सर्गमार्गे भावसेवनाना सातनये करी सात भेद कहे छे. इहां जेटलं आत्मधर्मरूप स्वकार्य नीपजे छे, ते उत्सर्गसेवा कहियें, एटले करवा योग्य जे कार्य ते उत्कृष्ट करवं, पण तेमां जेटली ऊणता होय, तेमाटे नयफलाववा जोइये, ते फलावी देखाडे छे.
१ जेवारे आत्मानो शंकादिपांच अतिचार रहित क्षायिक आत्मिक तत्व निर्धाररूप शुद्धसमकितरूप गुण प्रगट्यो, तेवारें ए साधकआत्मानो एक अंशे प्रभुतानो गुण प्रगट्यो, तेथी आत्मानुं एक अंशे कार्य थयुं, तेमाटे नैगमनय उत्सर्ग भावसेवा थइ. इहां कोइ पूछशे जे गुण निपन्यो तेने सेवा केम कहो छो ? तेने उत्तर जे, तन्मयपणे, थइ रेहवू एज सेवनानो अर्थ छे. ते इहां तन्मयपणं थयुं छे, अथवा जो पण गुण तो प्रगट्यो पण हजी आत्माना अनंता गुणनो साधक छे माटे एने सेवना कही छे. जेटलु उपादानकारणपणुं तेटलं उत्सर्गसाधन छे, तेनाटे एने उत्सर्गभावसेवा गवेषी छे, उक्तं च ॥ आप्तमीमांसायाम् ।। उबयाणं उस्सग्गो । निमि
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अष्टम श्रीचंद्रप्रभजिन स्तवनं.
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तमववाय सुद्धदेवोत्ति ॥ ए टीकामध्ये छे, तेयी उपादाननिपत्ति ते उत्सर्गसेवा जाणवी. इहां आत्माना अनंत गुण छे, तेमांथी एक समकित गुण प्रगट्यो, ते आत्मानो एक अंश प्रगट्यो, तेथीज ए नैगमनये उत्सर्गभावसेवा थइ, अने एहीज उत्सर्ग आत्मगुणप्रभुता पण प्रगटी.
२ जेवारे ते भावमुनिये यद्यपि पोतानी आत्मसत्ता आवरी छे, तो पण जे छती हती तेने निर्धार करीने भासनगत करी, ते हवे स्वसत्तालंबी शुद्ध धर्ममयी थयो, तेहीज आत्मसत्ताभासन रमण, एकत्वसत्तासन्मुख थको रहे, एटले ए जीव आज सुधी स्वसत्तालंबी थयो हतो नहीं, ते थयो. एटलं उपादान समयु, माटे संग्रहनय उत्सर्गभाव सेवा कहिये.
३ जेवारे ते साधक जीव, अप्रमत्त मुनिराज अवस्था पामीने उपादान कारणता सर्वस्वरूपालंबी करी, ते अवस्था आत्मानी परिणामप्रवृत्ति ग्राहकता, व्यापकता, भोक्तृता, कर्तृता आदिक सर्व स्वरूपं वलगी, तेबारे अंतरंग वस्तुगत जे व्यवहार, ते वस्तुस्वरूपें थयो, ते व्यवहारनय उत्सर्ग भावसेवना कहिये. ए मुनिपदनो जे भाव, तेहने प्रशंसे कहेतां वखाणे
ऋजुसूत्रे जे श्रेणिपदस्थे, आत्मशक्ति प्रकासे जी॥ यथाख्यात पद शब्दस्वरू, शुद्धधर्म उल्लासें जी॥
श्री० ॥७॥ ४ अर्थ:--जे आत्मा क्षपकश्रेणिपर्दै रह्यो थको पोतानी
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दे० चो० बा०
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आत्मिक शक्ति प्रकासे केतां प्रगट करे, तेने ऋजुसूत्रनय उत्सर्ग भावसेवना कहिये.
५ जेवारें आत्माने यथाख्यात क्षायिकचारित्र प्रगट थयुं, तेबारे जे चारित्र सहकारी आत्मशक्ति प्रगटे, शुद्ध अकषायी, असंगी, निस्पृहरूप शुद्ध धर्म उल्लास पामे, चारित्र सहकारी जे वीर्यादिक तेपण जे कषायानुयायी फरता हता, ते सर्व आत्मरमणी थया, ए धर्म जेटलो उल्लास पामे, ते सर्वशब्दनये उत्सर्गे भावसेवना जाणवी. इहां स्वरूपरमणी असहायी थयो, ते जेटलं अन्य असहायीपणुं नीपन्युं, तेटलं उत्सर्गसेवन जाणवू ।। ७ ।। इति
भाव सयोगी अयोगीशैलेंसे, अंतिम दुग नय जाणो जी ॥ साधनताए निजगुण व्यक्ति, तेह तेवना वखाणो जी ॥ श्री० ॥८॥
६ अर्थः--जेवार ए आत्मायें सर्व घनघातिकर्म क्षय करीने अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र, अनंत वीर्य, ए चार मोटां अनंतक प्रगट कयौ, ए चार गुणने संकर तथा सहकारें जे बीजा वक्तव्य तथा अवक्तव्य अनंता स्वधर्मीगुण प्रगट थया, आत्मिक आनंदी थया, तेवारे समभिरूढनयें उत्सर्ग भावसेवा थई.
७ जे काले शैलेशीकरण करे, आत्मप्रदेशनो घन करे, अयोगीकेवलीपणुं थाय, तेवारें एवंभूतनये उत्सर्ग भावसेवना
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अष्टम श्रीचंद्रमभजिन स्तवनं.
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जाणवी. इहां कोई पूछशे जे एवंभूत मोक्षने विषे केम कहेता नथी ? तेने उत्तर. जे मुक्त आत्मा तो सिद्ध छे, तेने नवू काई नीपजाव नथी, अने अयोगीने तो सिद्धता निपजाववी छे, माटे जेटलं कार्य अधुरूं, तेटलुं साधन कहीयें. अने जे साधना ते सेवा छे, माटे साधनानो अंत अयोमीकेवली गुणठाणे छे, एटले साधनानो एवंभूत अयोगीकेवली छे, तेथी उत्सर्ग भावसाधना ते अयोगीकेवली गुणठाणे कही, अने सिद्धनो एवंभूत ते मुक्त आत्मा छे. ए रीतें साधना ओलखावी. ए उत्सर्ग सेवनाना सात नय कह्या.
हवे एर्नु स्वरूप बतावे छे, जे ए साधनता कहेतां साधना करतां जे निजगुण केतां पोताना आत्माना गुण तेनू ध्यक्ति केतां प्रगटपणूं, तेह सेवना कहेतां आत्मसेवना, व. खाणो केतां कहीं, एटले जेटली साधना तेटली अपवादसेवा, जाणवी, ॐने ते साधना क तां करतां जेटली जेटली नवी आत्मशक्ति प्रगटवागे कारणता सहित जे आत्मशक्ति प्रगटे, ते उत्सर्गभावसेवा जाणवी, अने शुद्धनिष्पन्न सिद्ध अवस्था ते साध्य छ, अने जे प्रगटशुद्ध आत्मधर्मपणे आत्मसंपूर्णताने कारणपणे थती सेवा, ते उत्सर्गभावसाधना आणवी. जे उत्सर्गभावसाधना ते कार्य छे, अने निमित्तालंबी अपवाद भावसेवा ते कारण छे, शेष सर्व द्रव्यसेवनानुं कारण छे. ए रीते कारण कार्यभाव जोड्यो ॥ ८॥ इति अष्टम गाथार्थः ।।
कारणभाव तेह अपवादें, कार्यरूप उत्सर्गे जी ॥
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दे० चो० बा०
आभाव ते भावद्रव्य पद, बाह्यप्रवृत्ति निःसमें जी ॥ श्री० ॥९॥
अर्थः--इहां जेटलो कारणभाव, ते सर्व अपवादे जाणवो, अने जेटलं कार्य जे स्वगुनिष्पत्ति, तेटलो उत्सर्ग जाणवो. ए उत्सर्ग तथा अपवादनां लक्षण तथा फलावणी सर्व बृहकल्पभाध्यमांथी तथा तेनी टीकाथी विस्तारपणे जोइ लेजो, अने जेटलं बाह्यप्रवर्तन ते व्यनिक्षेपो जाणवो. एहवी श्री चंद्गप्रभस्वामीनी सेवायें जे हलिया, ते आत्मधर्म संपूर्ण वरे ॥ ९॥ इति नवम गाथार्थः ॥
कारणभाव परंपर सेवन, प्रगटे कारजमावो जी ॥ कारज सिद्धे कारणता व्यय,
शुचि परिणामिक भावो जी ॥ श्री० ॥१०॥ __ अर्थः--हवे कारणभाव जे श्री अरिहंतदेव तेहनी परंपराये द्रव्यभावना करतां थकां भावसेवा प्रगटे, अने भावसेवाथी उत्सर्ग धर्म प्रगटे, अने उत्सर्ग धर्म प्रगट्यो, तेवारें पोतानुं कार्य शुद्धस्वरूप अनुभवरूप अगटे, अने कार्य जे शुफ सिद्धतारूप ते सधे केतां नीपजे, ते कार्य नीपने कारणता जे हती तेहनो व्यय केतां नाश थाय, केमके कार्यनी ऊंणतायें कारणता छे, परंतु कार्य नीने कारणधर्म रहे नहीं, तेवारें शुं रहे ? ते कहे छे. जे शुचि केतां पवित्र भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म रूप हेतुसद्भावरूप मल रहित जे आत्मानो
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अष्टम श्री चंद्रप्रभजिन स्तवनं.
पारिणामिक भाव छ, जेपणे एर्नु मूल लक्षण छे, स्वव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभावरूप तेपणुं रहे, परमानंद अविनाशी अवस्था वरे ॥ १० ॥ इति ॥
परमगुणी सेवन तन्मयता, निश्चय ध्याने ध्या। जो ॥ शुद्धातम अनुभव आस्वादि, देवचंद्र पद पावे जी ॥ श्री० ॥ ११ ॥
अर्थः--ए रीतें परम केतां उत्कृष्ट गुणी जे श्री अरिहंत शुद्धदेव तेहनी सेवा अति दुर्लभ छे, ते पामीने तेहमांहे तन्मय थईने जे जीव निश्चय केतां निर्धारे, अथवा निश्चय केतां पोताने स्वरूपध्याने एकत्वता रूपे जे ध्यावे, ते जीव, शुद्ध निष्कलंक जे आत्मा चिदानंद घन, तेहनो जे अनुभव केतां यथार्थ ज्ञान वेद्य संवेद्य पद सहित तेहने आस्वादिने देव जे निग्रंथ अथवा भुवनपति प्रमुख चार निकायना, तेहमां चंद्रमा समान भाव उद्योत समता शीतलतानां कारण जे अरिहंत ते रूप पदस्थानक ते प्रत्ये पामे, एटले अहो भव्य जीवो ! जो तमें पोताना आत्मसुखना इच्छक थया छो, अने शुझानंदने विलसो, एवी अभिलाषा तमने छे, तो श्रीचंद्रप्रभस्वामी शुद्धदेव, अशरणना शरण, जगदाधार, जगत्जीवना परोपकारी, मोह तिमिरनो ध्वंस करवाने भावसूर्य जेहवा, कर्मरोगना परम वैद्य, महा माहण, महा गोप, महानिर्यामक, महासार्थवाह, सम्यक्हृष्टि जीवना जीवनप्राण, देशविरतिने तो महामंत्रनी परें जपवा योग्य, साधु निग्रंथ जेहनी आज्ञायें चाले छे, उपाध्या80
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दे० चो० बा.
यना हृदयरूप सरोवरना हंस, आचार्यजीना नाथ, गणधरना साक्षात् मोक्षहेतु अने स्याद्वादधर्मना उपदेशक, एहवा श्री अरिहंतदेव तेती सेवा करो, एहज आधार छे, ए श्रीचंद्रप्रभनी सेवा जिहां सुधि तमारी संपूर्ण सिद्धता न थाय, तिहां सुधि अखंड रहेजओ, एहीज सार छे ॥ ११ ॥
॥अथ नवम श्री सुविधिनाथजिन स्तवनं। धारा महेला उपर जरुखे वीजली हो लाल ॥जरुखे ॥ए देशी दीठो सुविधि जिणंद,समाधिरसें भर्यो होलाल॥स०॥ भास्यो आत्मस्वरूप, अनादिनोवोसो होलाल॥अ० सकल विभाव उपाधि, थकी मन ओसर्यो होलालाथ० सत्तासाधन मार्ग, भणी ए संचर्यो होलालाभ०॥१॥ - अर्थः--हवे श्री सुविधिनाथपरमात्मानी स्तुति करे छे. कोइक भव्य जीव अनादिकालनो मिथ्यात्व, असंयम, कषाययोग रूप द्रव्यभाव हेतुपणे परिणम्यो, एकेंद्रिय सूक्ष्म, बादर, तथा बेंद्री, तेंद्री, चौरिंद्री, पंचेंद्रीपणे अनंता भव सुधी भवचक्रमां फरतो अनेक कुदेवनी वासनायें वासित थको कुदेवने देव ए मानतो अगवा दे जे जीवी पर ग तेहने कर्तृत्व प्रमुख दोष मानतो थो कोइ काले श्रीवीतराग प्रभुनी प्रभुता दीठी नहीं, ते केवाकं भवस्थितिनो परिपाक करी, कोइक पुण्यना उदये श्रीसुविधिनाथ परमेश्वरनी मुना दीठी, ते पण अरूपी अनंतगुण प्रभुतापणे श्रधान भासन गोचर थई. ते
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नवम श्री चंद्रप्रभजिन स्तवनं.,
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श्री अरिहंतनी प्रभुता देखीने उल्लसितचित्तें ते भव्य जीव श्री वीतरागनी उपकारता पाम्यो, तेवारे ते प्रीतें हर्वथी बोले छे, जे दीठो केतां भासनपणे प्रतीत सहित सुविधिनाथ प्रभुजी दीठो, पण ते केहवो दीठो १ जे समाधि केतां आत्मगुणनुं विपरीतप्रवर्तन ते उपाधि, अथवा विषय कषायने अनुयायि जे प्रवर्तन, ते पण उपाधि, तथा जे तप्त उद्धत वक्रता परिणामादिक, सर्वविभाव ते पण उपाधि तेने निवृत्ते सकलगुण स्वरूप परिणामी थये जे आत्मगुणनी वस्तुगतें स्थिरता ते समाधि तेहनो ग्स, तेणे करी भरयो केतां संपूर्ण एटले परमसमाधिमयी श्रीसुविधिनाथ दीठो, ते दीठाथी एक मोटो लाभ थयो, ते शुं लाभ थयो ? तोके भास्यो केतां जाणपणामां आव्यो, पोताना आत्मानुं स्वरूप ते शुद्धचिदानंदलक्षण जाण्यु, जे अनादि अतीत कालनो विसरयो भूली गयो हतो, वे श्रीप्रभु दीठां भास्युं तेथी सकल केतां सर्व जे विभाव दोष आत्मिक अशुद्धतारूप जे उपाधि तेहथकी मन केतां चित्त ओसरयो केतां पाछो हट्यो, जे ए विभाव परिणति हुँ नहीं तथा विभाव परिणतिनो डुं क पा नहीं, ए ने करवू भोगवईं परिणमवू घटे पण नहीं, ते जे ली है. शमी आत्मपरि ति ते सर्व राग द्वेष अयायी नि: । लागी, अने सत्ता केतां जे अनंत गरूप आजाना .. तेहना साधननी रीत केतां चाल (मा.) ते सम्म ज्ञा, तम्या दर्शन, सम्यगचारित्ररूप जे आत्मिक काय, ते नागे भणी ए भव्यजीव परि गम्यो, एटले जेयी आत्मसता प्रमट याय, ते मार्ग भणी ए आत्मा संचस्यो केतां प्रवत्यः ॥ १ ॥ इति प्रथम गाथार्थः ॥
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दे० चौ. बा. mmmmm तुम प्रभु जाणगरीति,सर्वजग देखता होलाल॥स०॥ निजसत्तायें शुद्ध, सहुने लेखता हो लाल ॥स०॥ परपरिणति अद्वेष, पणे उवेखता हो लाल ॥१०॥ भोग्यपणे निजशक्ति, अनंत गवेखता हो लाल
॥ अ०॥२॥
अर्थः-वली हे प्रभुजी ! तुमें जगत्पडात्मक तेने केवलज्ञान, तथा केवलदर्शने करी देखो छो, पण जाणंग रीतें एटले राग द्वेष रहित जे एक आत्मानो जाणंग गुण छे, तेथी सर्वभाव जाणो छो, परंतु तेमां शुभपरिणामी वस्तुना ग्राहक नथी, अने अशुभपरिणामी वस्तुना द्वेषी नथी, यथार्थ रीतें जगत्ना जाण छो, कापणं, भोक्तापर्धू, ग्राहकपणुं स्वामिपणुं एटलां वानां टालीने अहंबुद्धि रहित सर्वभावना जाणंग छो, वली हे प्रभुजी ! तुमें केहवा छो ? जे सर्वद्रव्यने पोताना सत्ताधर्मे शुद्ध, निर्दोष, निःसंग लेखो छो, एटले पंचास्तिकायमां त्रण अस्तिकाय तो परसंग विना छे, अने पुद्गलनु संयोगीपणुं ते भेदसंघातधर्म छे, पण कर्त्तापणे नथी, जातें स्वसत्ताने लोपतो नथी, अने जीवने यद्यपि अनादि विभाव छे, परंतु सत्तारूपें मूलधर्मेज छे, ते प्रभुजी ! तुमें जीवपणुं मूलसत्तायेंज लेखवो छो, तेमां परपरिणति भावअशुद्धता, ज्ञानावरणादि कर्म, कामक्रोधादिक सर्वने अद्वेषपणे आत्मधर्मथी मिन्न माटे उवेखो छो तेनो आदर करता नयी द्वेषे जे तजे, तेने त्याग न कहिये, समता माटे त्याग वर्णव्यो छे, केम के समता सामायिक छे, द्वेषीपणुं तो परपरिणति छे. वली हे प्रभु !
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नवम श्री चंद्रमभजिन स्तवनं.
तुमें भोगपणे पोतानो भोग भोगवो छो, निजशक्ति जे अनंतगुणपर्याय रूप, परमचैतन्यरूप, परमानंदरूप, सहजसुखरूप, एवी जे अनंती तत्त्वविलासता तेने भोग्यपणे गणो छो, स्वधर्मनेज भोग्य जाणो छो, माटे हे सुविधि परमेश्वर ! तमें परमात्मतारूप परम धर्मना भोगी छो जी ॥२॥ इति द्वितीय गाथार्थः ॥ दानादिकनिज भाव, हताजे परवशाहोलालह०॥ ते निजसन्मुख भाव, ग्रहो लही तुज दशा हो लालाग्र० प्रभुनो अद्भुत योग, सरूपतणी रसा हो लालस०॥ भासे वासे तास, जास गुण तुज जिसा हो लाल
॥ जा० ॥३॥ अर्थः-दानादिक आत्मधर्म जे क्षयोपशमी छे, ते सर्व परानुयायी छे, पुद्गलानुयायी छे, ते अनादिना परवश थई रह्या छे, ते सर्व, हे प्रभु ! ताहरी शुद्ध वीतराग दशा लही केतां पामीने ते क्षयोपशमीभाव सर्व आत्म सत्तानो सन्मुख पणो ग्रहे, आत्मावलंबनी थाय, एटले अरिहंतावलंबनी थया पछी एहीज सर्वगुण ते स्वस्वरूपावलंबनी थाय, गुणावलंबनी थाय अने हे प्रभुजी ! ताहरी योग केतां रत्नत्रयीना स्वरूपनी रसा केतां भूमिका ते अद्भुत छे. निर्विकार, निःसहाय निःप्रयत्न, निर्मल, निरंतर, सकलावबोधक जाणपणुं ते ज्ञान अने यथार्थ सर्वसापेक्ष अदूषितपणे सकल पदार्थने निर्धार करतो ते दर्शन तथा नीराग, निश्चल, निरामय, तत्त्वैकत्वरूप थिरतापारणाम ते चारित्र धर्म, ए रत्नत्रयी ते अनंत स्वभाव
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दे० चो० बा०
अनंत पर्याय उत्पाद, व्यय, ध्रुव, भेदाभेद, अस्ति नास्तिरूप स्वरूपने ठीधे वर्ते छे, एहवी रत्नत्रयी, हे परमेश्वर ! ताहारे विषे परिणमी छे, तेनी प्रतीत ते वासना तथा ओलखाण ते भासन ते तेहने थाय, जेहने तुज केतां तुमारा जेवा गुण प्रगट्या होय, एटले हे नाथ ! हे सर्वज्ञ ! हे त्रैलोक्यदीपक ! ताहरी रत्नत्रयी ते तुझ समान गुणी होय, तेहनाज भासनमां आवे ॥ ३ ॥
मोहादिकनी घूमि, अनादिनी उतरे हो लाल ॥ अ० ॥ अमल अखंड अलिप्त, स्वभावज सांभरे हो लाल ॥ स्व० तत्त्वरमणशुचि ध्यान, भणी जे आदरे हो लाल ॥ भ० ॥ ते समतारस धाम स्वामिमुद्रा वरे हो लाल ॥ स्वा०॥४॥
अर्थ: - हे प्रभु! ताहरी मुद्रा ते परम समतानुं धाम छे, एवी बीजी कोइनी न होय, केम के एहवी सकल परभाव रहित परिणति, तो जेणें एम कहां होय, तेनेज निपजे, ते कहे छे, मोह जे मुंजता परिणाम, तेहनी धूमि जे स्वरूप अग्राहकता, परभावग्राहकता, परभावरम गनारू विभावता ते अनादि कालनी आत्माने विषे छे,
इहां प्रश्न. जे ए विभावता अनादिनी छे, ते आत्मानो स्वपरिणाम छे किंवा परपरिणाम छे ? जो स्वपरिणाम छे, तो विभाव शा वास्ते कहो छो ? अने जो परपरिणाम के तो अनादि केम कहियें ? तेहने उत्तर. जे आदि केतां पहेलो जीव अने पछी कर्म कहियें तो पेहला सिद्ध पछी कर्म लागे, अथवा पेहलां कर्म अने पछी जीव, एम कहियें तो कर्त्ता
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नवम श्री चंद्रप्रभजिन स्तवनं.
६३९
AAIVAAAAAINA
विना कर्म केम संभवे ? ए पक्ष उपजे, ते माटे अनादि सहजातसंयोग छे. तिहां कोई पूछे जे उभय संघोग एकठो कहो, तो कारण कार्यनो संबंध केम रहे ? तेहने उत्तर जे, उपादान धर्मे एक समयमा एकठीज कार्यकारणता छे, जेम सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानने छ, तेनी पेरें इहां पण श्री विशेपावश्यकथी जाणवू,
यदुक्तं ॥ गाथा ॥ नव कम्मस्स य पुव्वं, कत्तुरभावे समुप्भवो जुत्तो ॥ निकारणओ सोविय, तह जुगवयुपत्ति भावे य ॥ १ ॥ इत्यादि गाथाथी जाणवो. कोइ पूछशे जे अनादिनो मलेलो तेनो वियोग केम थाय ? तेहने कहियें ॥ गाथा ॥ जह चेह कंचणोबल, संयोगो णाइ संतय गओवि ॥ वुच्छझई सोवाय, तह जोगो जीव कम्माणं ॥१॥ इति पूज्यवाक्यात्. एटले ए विभावपरिणाम यद्यपि अन दिनो छे, पण प्रकृतिक छे, स्वरूप नथी, माटे एनो वियोग ते कीधो थाय. तेवारें कोइ कहेशे जे ., विभावनुं कर्तापणुं केम छे ? तेने कहे छे. जे आ मा स्वरूपकर्ता तेहने स्वरूपआवर्णे परभावसंयोगें परकर्तीपणुं थयुं छे, ते विभावमोहनी धूमि उतरे, मिथ्यात्वनी भुल टले, तेवारें अमल केतां रागद्वेष रहित अखंड केतां केवारें खंडाय नहीं, अलिप्त केतां परसंगना परहित एहवो पोतानो सहजस्व गाव सांभरे, भासन गोचरमां आवे, यद्यपि करें लेगा छे, तो पण सभा आलेत छे, निरामय छे, कर्मसंनय छे पण कर्मथी न्यारो छे, निःसंग छे, एहवो आत्मा जेवारें जोलखाणनां आवे, पछी तेहज साधक आत्मा पोतानुं तव जे शुशनिश्चयनयथी वस्तुस्वभाव तेहमां रमे, अनादि पौद्गलिक अशुद्धवर्णादिरमण तजिने, पोताना
ikilllillliiilikasi
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दे० चो० बा०
ज्ञानादि अनंतगुणमां रमे, एहज तत्व चारित्रता प्रगटे, पछी शुचि केतां पवित्र निर्मल ध्यानते प्रथम अरिहंतादि गुणीना गुण स्वरूपमां तन्मयता रूपधर्मध्यान ध्यायीने पोताना अनंता पर्यायनी परिणति प्रागभाव अनुभवैकत्व सत्तागत तिरोभावनुं भासन एकत्व शुक्लध्यान भणी जे पुरुष आदरे, केतां अंगीकार करे, ते पुरुष सर्व विभाव क्षय करीने परम समतारसना धाम एहवा स्वामी श्री जिनेंद्र देव, तेहनी मुद्रा पामे, एटले वीतरागावस्था पामे, निर्मल पूर्णानंदी थाय ॥४॥
प्रभु छो त्रिभुवन नाथ, दास हुं ताहरो लाल ॥ दास० ॥ करुणानिधि अभिलाप, अछे मुझ ए खरो हो लाल । अ० आतमवस्तु स्वभाव, सदा मुझ सांभरो हो लाल ॥स०॥ भासन वासन एह, चरण ध्यानें धरो हो लाल ॥ च० ॥५॥
अर्थ:-- हवे प्रभुथी विनति करी पोतानो मनोरथ कहे छे, हे प्रभु! तमें त्रिभुवनना नाथ छो, सम्यग्दर्शनादि गुण पमाडवाना तथा रखवालवाना परम कारण छो, अने हुं तमारो दास छं, इहां श्री वीतरागनुं दासपणुं तो समकिती, देशविरति, तथा सर्वविरतिने विषे छे, पण इहां तो भद्रकपणानुं उपचार वचन छे, माटे हे करुणानिधि ! हे करुणाना समुद्र ! मुझने ए
खरो अभिलाष छे, ते कहुं छु, जे माहरो आत्मानो वस्तुस्वभाव “ सेण दीहेण हस्सेण वद्वेण तंसेण चौरंसेण परिमंडलेण किण्हेण नीलेण लोहीएण हालिद्देण सुक्किलेण सुरहिण दुरहिणा तित्तेण कडुएण कसाएण अंबिलेण महुरेण गुरुएण लहुएण सीएण उण्हेण णिण्हेण लख्खेण काऊण रुहेण संघेण इत्यीण
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नवम श्री सुविधिनाथजिन स्तवनं.
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पुरिसेण अभहापरिणेसणे उवमाणविज्झति अरूवी सत्ता अपयस्स पयं नत्थी सेणं सद्देणं रूवेणं गंधेणं फासेणं इति आचारांगोक्तं " तथा शुस्वसत्ता स्वरूपी, अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, अनंत स्वरूपकर्ता, स्वरूपभोक्ता, स्वरूपपरिणामी, असंख्यप्रदेशी, प्रतिप्रदेशे अनंतपर्यायी नित्यानित्यादि अनंतस्वभावी, स्वकीयकारकचक्रपरिणामीरूप माहारो स्वभाव, ते सदा निरंतर मने सांभरो, भासनमां रहो, वासना, प्रतीत, भासन, ज्ञान, चरण, तेमाहे रमणध्यान तेहज स्वभावमां तन्मयता धरो. ए मनोरथ सदा माहरो छे, साधकमा साधक रीतें सिद्धावस्थायें सिद्धरीते सदा रहेजो ए अभिलाष छे ॥ ५ ॥ इति ॥ प्रभुमुद्रानो योग, प्रमु प्रभुता लखे हो लाल ॥०॥ द्रव्यतणेसाधर्म्य स्वसंपत्ति ओलखे होलाल॥स्व०॥
ओलखतां बहुमान,सहित रुचि पण वधे होलाल॥स. रुचि अनुयायी वीर्य, चरणधारा सधे हो लाल
॥च०॥६॥ अर्थः--इहां कोई पूछे जे तुं ताहरा आत्मधर्मनो रुचिवंत थयो, तेवारें प्रभुजीनुं शुं काम छे ? तेने उत्तर जे, आत्मस्वभाव विसरी, परभावरंगी थइ, ए माहारो आत्मा शरीरसंगी, व्यासंगी, अनंगी, कुलिंगी, तथा लिंगीपणे ममतालिंगी थइ रह्यो छे. स्वसत्ता धर्म विसरी गयो छे, ते हवे अनंतज्ञानी, परम अमोही, प्रभुनी मुद्रा, थापनानिक्षेपरूप तेहनो योग मले, तेवारें अनंतगुण रूप, सकल ज्ञायक, शुद्धात्मरूप एवी श्रीप्रभुनी प्रभुता तेने लखे, केतां ओलखे, ते ओलख्या
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दे० चो० बा०
पछी जीवद्रव्यपणाना साधमें केतां सरखापणे जे सिद्ध थया, ते पण जीव अने हुं पण जीव माटें सत्तायें सरिखा छैयें. गुणपर्याय स्वभावें तुल्य छैयें. तो जेवी संपदा श्री सुविधिनाथ परमेश्वरने प्रगट थई छे, तेटलीज संपदा माहरी सत्तामां पण छे, तेथी हुं पण ते परमेश्वर जेटली संपदानो धणी छं, एम ओलख्या पछी ते संपदा उपर बहुमान आवे, तेथी ते संपदानी रुचि प्रगटे, जे एहवी संपदा माहारे केवारें नीपजशे ? अने जेनी रुचि होय, तेहनो उद्यम थाय, तेवारें वीर्यगुणनुं स्फुरण ते पण रुचिने अनुयायी छे, अने जे दिशें वीर्य स्फुरे, तेहमांज रमण थाय. एटले तेहनुंज नीपजवानुं आचरण थाय, एटले प्रभु दीठे प्रभुनी प्रभुता भासे, ते प्रभुता पोतामां जाणे पछी ते प्रगट करवानी रुचि उपजे, तेथी रुचिनुं वीर्य तथा चारित्र जे रमण, ते पण ते दिशें सधे, तेवारें ते सिद्धता प्रगटे, तेथी जिनमुद्रानो योग ते बधुं साधन छे, ए मार्ग को ॥ ६ ॥ इति षष्ठ गाथार्थः ॥ क्षायोपशमिक गुण सर्व, थया तुज गुणरसी हो लालाथ० सत्ता साधन शक्ति, व्यक्तता उल्लसी हो लाल ॥ व्य०॥ हवे संपूरण सिद्धि, तणी शीवार छे हो लाल ॥ त० ॥ देवचंद्र जिनराज, जगत्र आधार छे हो लाल
!" ज० ॥ ७ ॥
अर्थः-पछी क्षायोपशमिगुण चेतना वीर्य, दानादि सर्व, जेवारें तुझ केतां तारा गुणना रसी थया, तेवारें ते निष्पन्नगुण रसी चेतना थवायी अनंतगुणरूप सत्ता तेहनुं साधन
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दशम श्री शीतलनाथजिन स्तवनं.
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निपजाववानी आत्मशक्ति ढंकाणी हती, ते व्यक्त केतां प्रगटपणे उल्लसी केतां उल्लास पामी हवे निमित्त कारण मले उपादान कारण प्रगटे, आत्मा तत्वरुचि, ताविक, तत्त्वालंबी थाय, तो संपूर्ण अविनाशी सिद्धता निपजतां शी वार छे ? एटले पुष्टकारणें नियमा कार्य निपजे, तेमाटे देवचंद्र स्तुति कर्त्ता, अथवा सर्वदेवमांहे चंद्रमा समान ते जिनराज, श्रीवीतराग, ते सर्वजीवना आधार छे, एटले जिनमुद्राने आलंबनें अनंत जीव सिद्धि वरचा, तेथी अरिहंतालंबने सिद्धता निपजे, ए नियामक छे, वास्ते अरिहंतस्मरण, वंदन, नमन, स्तवन, ध्यान करो. हे भव्य जीवो! तमने एहीज आधार छे ॥ ७ ॥ इति श्री सुविधिजिनस्त० ॥
॥ अथ दशम श्रीशीतलनाथजिन स्तवनं ॥
|| आदर जीव क्षमागुण आदर || ए देशी ॥
शीतल जिनपति प्रभुता प्रभुनी, मुझथी कहीय न जाय जी ॥ अनंतता निर्मलता पूर्णता, ज्ञान विना न जणाय जी || शी० ॥ १ ॥
अर्थ:-- हवे दशमा परमेश्वर श्रीशितलनाथजीनी स्तनना करे छे. श्री शीतलनाथनी अनंत अविनश्वर आत्मिक प्रभुता ते प्रत्यक्ष तो केवलीने गम्य छे, अने सम्य दृष्टि रुचिने तो श्रद्धामां छे, ते कहे छे. हे शीतल जिनपति! तुमने
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दे० चौ. बा.
AAAAAAnamne
AAAAAAAMANNARAM
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कषाय, तृष्णा, नोकषाय, तापरहित परम वीतरागता, निस्पृहता, परम परभाव अभोग्यता रूप, शीतलता प्रगटी छे अने पति केतां क्षीणमोही प्रमुखना पति तेनी प्रभुता ठकुराइ अनंत सहज संपदातेमुज अल्पज्ञानीथी तो कही न जाय, केम जे सिद्धना अभिलाप्य, अनभिलाप्य, सर्वपर्याय निरावरण प्रगट थया छे, तेमां अनमिलाप्य पर्याय श्रीकेवली जाणे, पण वचनें अगोचर छे, माटे कहि शके नहीं, अने अमिलाप्य पर्याय अनंता छे, ते पण वचननो क्रम प्रवर्तन छे माटे. मित आउखें कहेवाय नहीं. तिहां अनंता जीवद्रव्य, ते एकेका गव्यना प्रदेश असंख्याता छे, ते वली एकेका प्रदेशे ज्ञानादि गुण अनंता छे, ते वली एकेका गुणना पर्याय अनंता छे तेमध्ये स्वभाव अनंता छ । उक्तं च ॥ जीवापुग्गल समया, दव्वपएसा य पज्जवा चेव ॥ थोवाणंताणता विसेसमहिया दुवेणंता ॥ १ इति तथा निर्मलता ते ए सर्व पर्याय निरावरण, निःसंग निःस्सहाय छे. अने पूर्णता केतां सर्व शक्ति प्रगटभावे पूर्ण छे, ते सर्व केवल ज्ञान विना जणाय नहीं ॥ १ ॥ इति प्रथम गाथार्थः॥
चरम जलधि जल मिणे अंजलि, गति झींपे अतिवाय जी ॥ सर्व आकाश ओलंघे चरणे, पण प्रभुता न गणाय जी ॥ शी० ॥२॥
अर्थः-त्या दृष्टांत, जेम चरम केतां छेल्लो जेनी साधिक तीन रज्जु, बाह्य परिधि छे, एहवो जलधि केतां स्वयंभूरमण समुद्र तेहतुं प्रबल जल, तेने कोइ अंजलिये मापी
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दशम श्री शीतलनाथजिन स्तवनं.
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शके अथवा कोई एहवो पण होय जे अत्यंत प्रलय काल ना मोहोटा वायरानी गर्ने चाले, तथा कोइ अनंता लोकालोक मली सर्व आकाश तेने चरणे केतां पगे करी ओलंघे एहवो तो कोइ होय नहीं, परंतु दृष्टांत मात्र दीधो छे, जे एहवा शक्तिमंतथी पण निष्पन्न श्रीसिद्धपरमेश्वरनी जे प्रभुता ते क्षायोपशम शक्तिवालायी गणी जाय नहीं, अने श्रीवीतराग सर्वज्ञनी प्रभुता संपूर्ण ज्ञानी जाणे. परंतु ते पण वचनयोगें कहि शके नहीं, तेमाटे अनंत छे ॥ २ ॥ इति द्वितीय गाथार्थः ॥
सर्वद्रव्य प्रदेश अनंता, तेहथी गुणपर्याय जी ॥ तास वर्गथी अनंत गुणुं प्रभु, केवल ज्ञान कहाय जी ॥ शी० ॥३॥ अर्थः-हवे ते अनंतता कहे छे. सर्व जीवद्रव्य तथा अजीवद्रव्य अनंता छे, तेथी सर्वद्रव्यना प्रदेश अनंता छ, तेमां आकाश प्रदेशनी अनंतता अति मोटी छे, तेहथी वली गुणनी अनंतता घणीज मोटी छे, तेहथी वली पर्याय अनंत गुणा छे, ए अधिकार अल्प बहुत्वपदथी जोइ लेजो, यद्यपि पर्याय जे छे, ते मूलधर्मे गुणथी भिन्न नथी, वस्तुमां पर्याय परिपाटी छे, ते पर्यायनो समूह मली एक कार्य करे, ते प्रवृत्तिने गुण कहे छे, परंतु पर्यायनीज प्रवृत्ति छे, अने द्रव्य ते आधार छे, परंतु संज्ञा, संख्या, लक्षण, कार्गमेदें पर्यायथी गुण भिन्न छे, ते माटे गुणनी मिन्न व्याख्या उत्तराध्ययनादि
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दे० चो० बा० ~ सूत्रे छ । उक्तं च ॥ दव्वाणय गुणाणय, पज्जावाण नाणेणं ।। नाणे नाणेहिं दंसियं ॥ इति पुनः गुणाणामासओ दव्वं, एगदव्वस्सिया गुणा ॥ लरकणं पज्जवाणंतु, उभओ निस्सिया भवे ॥ १ ॥ इत्यादिकथी भिन्न व्याख्या छ, तिहां पनवणासूत्रे कां छे. ए सेणं भंते जीवाणं पुग्गलाणं सव्वदव्वाणं सव्वपएसाणं सव्वपज्जवाणय कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्लावा विसेसाहिया वा सव्व थोवा जीवा पुग्गला अणंतगुणा अद्धा समया अणंतगुणा सव्वदव्वा विसेसाहिया सव्वपएसा अणंतगुणा सव्वपज्जवा अणंतगुणा ॥ इति गणधरवाक्यात् एटले श्रीप्रभुजीनो केवलज्ञानगुण तेनी अनंतता ते आवी रीते छे के छ द्रव्यना गुण पर्याय सर्व अस्तिपणे रह्या छे, ते सर्वने जाणे, तथा तेनी परस्परनी अपेक्षायें नास्तिपणुं अनंतुं रद्यु छे, ते सर्वने पण श्रीप्रभुनो केवलज्ञानगुण जाणे, तथा ए सर्वथी अनंत गुणा वली बीजा भाव होय, तो तेने पण जाणे, एम अनंती शक्ति छे, तेम दर्शननी पण तेटलीज शक्ति छे, तेमाटे द्रव्यना प्रदेश पर्याय तेना वर्ग करिये, तेहने वली अनंतगुणो गुणाकार करियें एटलं हे प्रभु ! हे परमेश्वरजी ! तमाएं केवलज्ञान कहेवाय छे. ते श्री भगवती सूत्रं ॥ अमियं नाणं केवलिस्स ॥ एम का छे ॥३॥ इति तृतीय गाथार्थः ॥
केवल दर्शन एम अनंतुं, ग्रहे सामान्य स्वभाव जी। स्वपर अलसी चरण अनंतुं, समरण संवर भार जी ॥ शो० ॥ ४ ॥
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दशम श्री शीतलनाथजिन स्तवनं.
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m-mana
___अर्थ:--एटला सर्व भाव ते सर्व सामान्य युक्त छे, ते सर्व केवलज्ञानगम्य छ, अथवा सामान्याश्रयी छे, जे विशेष ते सामान्य विना नहीं, अने सामान्य ते विशेष विना नहीं. सर्व पदार्थ सामान्यविशेष रूप छे ॥ न सामन्न तओ नत्थि, विसेसो खपुष्कं वा ॥ तथाच ॥ संमतौ ॥ दवं पज्जव विउअं, दव विउत्ता पज्जवा नत्थि ॥ उप्पायठिइ भंगा, हवइ दविय लख्खणं एवं ॥ १ ॥ इति ॥ तेमाटे सर्व द्रव्यनेविषे सामान्य धर्म अनंता छे, ते सर्व केवल दर्शनगुणें देखे छे. तेथी पण अनंत गुणा सामान्य धर्मने देखी शके एवी शक्ति छे, तेथी एटला पर्यायमय केवल दर्शन गुण छे.
। उक्तं च विशेषावश्यके ॥ यावंतोहि ज्ञेयस्य पर्याया स्तावंतस्तदवभासकत्वेन ज्ञानस्याप्येष्टव्याः ॥ तथा भगवत्यंगे । अर्णता दंसणपज्जवा इति ॥ वास्ते केवल दर्शन पण अनंतुं छे, ए दर्शन, सर्व पदार्थना अस्तित्व सत्व वस्तुत्व प्रमेयत्वादि सामान्य द्रव्यास्तिकने देखे छे. एम चारित्र गुण ते पण अनंतपर्यायी छे, पोताना आत्माना सर्व पर्याय ते सर्वस्व धर्म छे तथा पोताथी मिन्न अनंता जीव द्रव्य तथा सर्व अजीव द्रव्य तेहना धर्म ते परधर्म छे, एटले सर्वस्वधर्ममा रमण, परधर्ममां अरमण, ए सर्व पर्याय चारित्रना छे, एटले स्वरूपरमण, परभावनिवृत्ति, ए चारित्रनी परिणति छे, अने अनादिमुं जे पररमणीयपणुं भूलथी थयु हतुं, ते निवारीने स्वशक्ति चेतनावीर्यादिकनी परिणति, ते परभावथी रोकीने स्वरूप विषे राखवी ए संवरभाव ते चारित्रनी अनंतता छे. ते संयमश्रेणी श्री ध्यवहारभाष्ये कही छे. जे सर्व जीवथी अनंतगुणा चारित्रना
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दे. चो० बा०
उचाडा विभागनी एकवर्गणा करिये, तेवी असंख्याती वर्गणायें एक स्पर्द्धक थाय. तेवा असंख्यात स्पर्द्धके एक संयमस्थानक थाय. ते सर्व जघन्य संयमस्थान ते वली असंख्य घट्गुणरीतें असंख्यषद्गुण करतां सर्वोत्कृष्ट असंख्यातमु संयमस्थान थाय. ए चारित्रनी अविभागनी अनंतता देखाडी, ते सर्व चारित्रगुण हे प्रभु ! तमारो निरावरण छे, तेमाटे चारित्र अनंतुं छे ॥ इति॥ द्रव्य क्षेत्र ने काल भाव गुण,राजनीति ए चारजी। त्रास विना जड चेतन प्रभुनी, कोइ न लोपे कारजी॥
शी०॥५॥ अर्थः--एम वीर्यादिक गुणनी स्वधर्मं अनंतता जाणवी, एवी अनंत स्वगुण संपदामयी छो, वली हे नाथ ! हे परमेश्वर ! तमें जगत्मां जीव तथा अजीव तेहना जे गुण, स्वभाव, पर्याय, ते सर्व १ द्रव्य, २ क्षेत्र, ३ काल, ४ भाव, ए रीतें चार परिणमनपणे छे, अने तमारा ज्ञानादिक गुण, ते पण द्रव्यादिक चार परिणमने परिणमे छे, अने सर्व स्वपररूपधर्मनुं जाणपणुं करे छे, ते पण चार प्रकारे परिच्छेदन करे छे. ते चार प्रकार कहे छे. १ समुदाय, ते द्रव्यधर्म जाणवो. २ आधारता ते क्षेत्रधर्म जाणवो. ३ वर्तना उत्पादव्ययरूपभाव, ते कालधर्म जाणवो, निश्चं विचारतां तो काल द्रव्य मिन्न नथी, केमके पंचास्तिकायनी वर्तना ते कालधर्म छे, ए तत्त्वार्थ तथा धर्मसंग्रहणी अने विशेषावश्यकमध्ये घणी चर्चा छे. अनपेक्षित द्रव्यास्तिकनयें एहने द्रव्य कयुं छे, परंतु जातें द्रव्यास्तिकपर्णी एमां नथी, तेथी द्रव्यनी वर्तना ते काल, ४ तथा द्रव्यनो
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दशम श्री शीतलनाथजिन स्तवनं. मूलधर्म ते भाव, ए रीतें सर्वपरिणमन छे, ए श्री वीतराग निष्पन्नतत्त्वी प्रभुनी राजनीति चार प्रकारनी छे, वली श्रीप्रभुनी आज्ञा सर्व द्रव्य माने छे, एटले स्तवनापदें आरोप माटे कहे छे. जे अन्य राजानी आणा कोईक माने. कोइ न माने. पण हे प्रभु ! जे रीतें तमो तमारा ज्ञानमां जाणो छो ते रीतें तमाएं ज्ञान परिणमे छे, ते रीतें सर्व द्रव्य परिणमे छे, जे रीतें तमें प्ररूपणा करो छो, ते. रीतें सर्व द्रव्यनी परिणति छे, माटे तमें कोइने कहेता नथी, तथा कोइने त्रास करता नथी, भय पमाडता नथी, परंतु ते तमारा ज्ञाननी परिणति लोपी चालता नथी, आज्ञा लोपता नथी, एहवी सहज आणा सम्यग्दृष्टि, देशविरति, सर्वविरतिने दृष्ट छे, माटे निःप्रयास अखंड आणा छ । इति ॥ ५॥
शुद्धाशय थिर प्रभु उपयोगें, जे समरे तुझ नाम जी॥ अव्याबाध अनंतु पामे, परम अमृतसुख धाम जी॥ शी० ॥६॥
अर्थः-हवे प्रभुसेवार्नु फल कहे छे.जे साधक जीव, शुद्ध निर्वृषण आशय करीने क्षुद्रादिक आठ दोषने टालीने एटले क्षुद्रादिक दोष रहित जे करे,ते कार्यनो साधक थाय श्रीहरिभद्रसूरिये कां छे ॥श्लोक। क्षुद्रो लोभरतिर्दीनो, मत्सरी भयवान् शठः ॥ अज्ञो भवामिनंदी च, निष्फलारंभसाधकः ॥ १ ॥ तथा दग्धादिक दोष रहित तथा विषअनुष्ठान जे इह लोक फलनी आशा, अने गरलानुष्ठान जे परभवें इंद्रियसुखनी वांछा, वली अन्योऽन्य
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दे० चो० बा०
अनुष्ठान ते साध्य शून्यसापेक्षता विना जे करवू, इत्यादि दोष टाली जिन आज्ञा प्रमाणे, विधि सहित, प्रीति, भक्ति, वचन असंगरीतें. तद्हेतु तथा अमृत अनुष्ठानें. तिहां तद्हेतु ते, जे एक तेहीज साधन साचुं करवाने अर्थे मोक्ष निपजाववा माटे. अने अमृत ते त्रिकरण योगनी एकता हर्षसहित तन्मयपणे निरामय साधन. ए रीतें थिर थईने शंकादि चपलता रहित श्रीप्रभुजीना स्वजाति स्वभाविकगुणें करी उपयोग प्रभु गुणें जोडीने जे भव्यजीव आत्मार्थी थइने श्रीशीतलनाथ परमसमतामयी प्रभुनुं ध्यान करवाने तेहy नाम समरे केतां संभारे, ते जीव अनुक्रमें गुणीने आलंबने आत्मोपादानी थईने निष्कर्मा थाय, तेवारे ते अनंतुं अव्याबाध सुख, परसंग रहित आध्यात्मिक सुख पामे. ते सुख केहq छ ? तो के परम उत्कृष्ट अमृत अविनाशी सहज ज्ञानानंदादिक अनंत सुखनुं धाम छ । उक्तं च ॥ सिव मयल मरुय मणंत मख्खय मव्वाबाह, मप्पुणरावित्ति सिगइ नामधेयं ठाणं संपत्ताणं ॥ तथा संमतिग्रंथे ॥ अह सुइय सयल जगसिहर मरुव निरुवम सहाव सिदिसुहं ।। अनिहण मव्वाबाहं तिरियणसारं अणुहवंति ॥ १ ॥ एहवां सुख पामे ॥ ६ ॥ इति षष्ठ गाथार्थः ॥
आणा ईश्वरता निर्भयता, निर्वाछकतारूप जी ॥ भावस्वाधीन ते अव्यय रीतें, एम अनंतगुण भूप जो ॥ शो० ॥ ७॥ अर्थः तथा प्रभुताना लिंग आणादिक छे, ते कहे छे.
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दशम श्री शीतलनाथजिन स्तवनं. ६५१
wwwwwwwwwwwwwwws बाजानी आज्ञा तो स्वार्थ तथा भयथी कोइ माने, अने प्रभु श्रीअरिहंतनी आज्ञा तो सहेजें कोइ द्रव्य लोपतुं नथी, तथा जे लौकिक प्रभुताना धणी, तेतो पौगलिक मानोपेत संपदाना धणी छे, अने श्रीतीर्थकर तो जगदुपकारी अनंत सहज संपदाना ईश्वर छे, तेथी ईश्वरता अद्भुत छे. बीजा राजादिक तो मात्र पोताना सेवकोथीज भय पामे नहीं, परंतु परचक्र तथा मरणादि भय सहित छे. अने माहारो परमेश्वर निर्मलानंद कारण शुद्ध देव तो सर्वकाल सर्वभय रहित छे, स्व अखंड अविनाशी संपदा परमनिर्भयतावंत छ, तथा जगत्मां इंद्र, चंद्र, चक्रवर्ति, ते तृष्णाने उदय इच्छादोषमयी छे, इच्छाथी संपदा अपूर्ण छे, अने श्रीवीतराग तो स्वसंपदापूर्ण प्रागभावना भोगी छे, 'तथी समस्त परसंपदाने अवांछे, माटे निर्वच्छकतामयी छे. वली श्रीप्रभु परमात्मा तेहना जे भाव केतां भावधर्म शुद्धचिदानंदादिक, ते सर्वस्वाधीन छे. पराधीन नथी. वली ते अव्यय केतां अविनाशीपणे ध्वंसहित छे. ए रीते अनंतगुण जे पूर्व कह्या तेना राजा छे ॥इति सप्तम गाथार्थः॥
अव्यावाध सुख निर्मल ते तो, करणज्ञाने न जणाय जी॥ तेहज एहनो जाणंग भोक्ता, जे तुम समगुण रायजो ॥ शी० ॥८॥
अर्थः-हे प्रभुजी ! जे अध्यात्राध अतींद्रिय सुख ते अनंतुं स्वभोगीपणे तमे भोगवो छो, ते अव्याबाव सुखनु ज्ञान केतां जाणपणुं ते करण केतां इंद्रियोने आधीन जे
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'देश चो० बा.
मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान छे, तेणें करी जणाय नहीं, तथा अवधि मनःपर्यवज्ञान ते यद्यपि इंद्रियोने आधीन नथी, तो पण ते रूपीभावना जाणंग छे, पण जीवस्वरूपने जाणी शके नहीं, जे माटें क्षयोपशमज्ञाने अव्याबाधनुं स्वरूप जाण्युं न जाय, पण जे जीव तुझ समान गुणना राय केतां स्वामी थया, तेहज परमात्मा, ए अव्याबाध गुणनुं स्वरूप जाणे, तथा भोगवे, बीजाने प्रगट नथी, केम के आत्मधर्म अतींद्रिय छे माटे तेहना मोगी सिद्ध भगवंत छे, बीजाथी ए भोगवाय नहीं ॥८॥ इति ॥
एम अनंत दानादिक निजगुण, वचनातीत पंडूर जी॥ वासन भासन भावें दुर्लभ, प्रापति तो अति दूर जी ॥ शी० ॥९॥
अर्थः-एम अनंतादानादिक केतां दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, सिद्धत्व प्रमुखगुण, हे प्रभुजी ! ताहरे प्रगट छे, ते वचनने गम्य नथी, पंडूर केतां मोहोटा छे, एहवा आत्मगुणनी वासन केतां श्रद्धा, भासन केतां जाणपणुं, ते पाम, दुर्लभ छे, तो प्रगटपणे एहवी सिद्धता पामवी सिद्धतानी प्राप्ति थवी तेतो घणीज वेगली छे ॥ इति नवम गाथार्थः ॥
सकल प्रत्यक्षपणे त्रिभुवनगुरु, जाणुं तुझ गुण ग्राम जो॥
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दशम श्री शीतलनाथजिन स्तवनं. ६५३. वीजुं काहिं न मागुं स्वामी, एहि करो मुज काम जी ॥ शी०॥१०॥ अर्थः-हे त्रिभुवनगुरो ! ताहरी गुणसंपदा अनंती ते सर्व हुं प्रत्यक्षपणे जाणुं एहीज मागु छु, एहीज इच्छा छ, माहरे एहीज काम छे, जे ताहरी संपदा ते केवलीने प्रत्यक्ष छे, माटे केवल ज्ञान मागु छु. परंतु हे प्रभुजी ! हूं बीजुं काहिं पण मागतो नथी ॥ १० ॥ इति दशम गागार्थः ॥
एम अनंत प्रभुता सईहती, अर्चे जे प्रभु रूप जी ॥ देवचंद्र प्रभुता ते पामे, परमानंद स्वरूप जी ॥ शो- ११।।
अर्थः-एम अनंती प्रभुनी प्रभुता, परमात्मता, सर्वप्रदेश निरावणता अनंत पर्याय, निरावरणता सकलज्ञानादि गुण निरावरणता, तेने सईहतां समकित गुण प्रगटे, ते प्रभुना गुणनी बहु मान सहित प्रतीत करतां जे जीव श्रीशीतलनाथ प्रभुना योगें प्रभुने अर्च, ते प्रभुने अर्चवानो अधिकार श्रीरायप्पसेणी सूत्रमध्ये कयुं छे.
॥ अत्थेगइया वंदणवत्तियाए पृयणवत्तियाए सक्कारवत्तियाए सम्माणवत्तियाए सुअं मुणिरसामो वागरणं पुच्छिस्सामो अच्छे गइया जिणभत्तिए मोत्ति अत्थेगइया जीय मेयंति ॥ ए आलावानी टीकामां अर्थ कयौँ छे, तथा प्रभुजीनो योग न मळे तो प्रभुनी स्थापना ते पण प्रभु समान छे. जे
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. चौ. बौ
AAAAAAAAAAAAAAAAAAI
श्रीअरिहंतने वांदवानुं फल सूत्रं कर्तुं छे ॥ हियाए सुहाए निस्सेसाए अणुगामियत्ताए ॥ अने जिनप्रतिमाने वांदवानुं फल पण एहीज आलावे कयुं छे, तथा साधुने अधिकारें महावत पालवानुं फल पण एहीज कह्यु, एम सूत्रे अनेक अधिकार कह्या छे, तेमाटे प्रभुना रूपने पूजवानो मोटो लाभ छे, कोइ द्रव्यहिंसा देखीने भय पामे, तेणें उपयोग देवो जे सूत्रे परजीवनी दयानुं फल शातावेदनी कही छे, अने आपणो आत्मा ज्ञानादिकगुणे जोडीये, तो भावदया थाय ते मोक्षहेतु छे, अने भावहिंसा ते हिंसा छ, तथा द्रव्यहिंसा ते भावहिंसानुं कारण छे, परंतु हिंसा नहीं. इहां श्रीभाष्यकारचं वचन लखे छे॥
एवमहिंसा भावो, जीव घणंति नयतजिओमिहियं ।। सत्थोवहय मजीवं, नयजीव घणंतितो हिंसा ॥ १॥ नन्वेवं सति लोकस्यातीव पृथिव्यादिजीव घनत्वात् हिंसाऽभावः संयतैरपि अहिंसावंतमिति निर्वाहयितुमशक्यमिति, माटे पांच थावर बादरनी बहुलतायें साधुने पण आहार, विहार, वंदन, विनय, वैया वच्चादिक करतां, अहिंसावत केम रहे ? त्यां कहे छे. जीवाकुले लोके अवश्यमेव जीवघातः संभाव्यते जीवांश्च घ्नन् कथंहिंसको न स्यादिति ? उत्तर. नय घायत्ति हिंसो, घायतोत्ति नित्थिय महिंसो ॥ नविरलजीवमहिसो, नय जीव घणंति तो हिंसो ॥ १॥ अहणंतोवि हु हिंसो, दुकृतणुओ मओ अहिमरोव्व ॥ बाहिंतो नवि हिंसो, सुझत्तणुओ जहा विज्जो ॥२॥ नहि घातक इत्येतावता हिंस्रः नवा घ्नन्नपि निश्चयमतेन हिंस्रः, नापि विरलजीवमित्येतावन्मात्रेणाहिंस्रः पुनः ।। असुभो जो परिणामो, सा हिंसा सोओ बायरनिमित्तं ॥ कोवि अवेखि
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दशम श्री शीतलनाथजिन स्तवनं.
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ज्जनवा, ज्जंम्हाणे गित्तिया वज्जं ॥ १ ॥ असुभ परिणाम हेऊ, जीवाबाहो तितो मया हिंसा ।। जस्स उ नसो निमित्तं, संतोविन तस्स सा हिंसा || २ || जीव वधो अशुभपरिणाम हेतुः तदा हिंसा यदि अशुभपरिणामहेतुर्न तदा हिंसा न इति ॥ सद्दादओ रइफला, नविय मोहस्स भावमुद्राओ ॥ जह तह जीवाभावो न सुझमणसोविहिंसाए ॥ इति ॥
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आगमप्रमाणे द्रव्यहिंसा ते कारणरूप छे, ते विषयकषाया अर्थाने हिंसा छे, परंतु जिन गुणनुं बहुमान करनारने जिनपूजा कालें पुष्पादिकनी हिंसा ते हिंसानुं कारण नथी, श्रीभगवती सूत्रे पण क्रियाने अधिकारें एमज कां छे, वनस्पति हणवाना पच्चक्खाणीने पृथ्वी खोदतां थकां वनस्पति हणाय तो पञ्चक्खाण भांगे नहीं, तो जिनपूजाएं जिनस्वरूप अवलंबन करता गुण निर्मल करे, गुणीने स्मरणें अनेक गुणी थया छे, डेमा : अनुमोदवा योग्य जिनभक्ति, रायप्पसेणीसूत्रे सूर्या में नाटक कर्य परंतु गौतमादिक श्रमणगण दी ते सज्जाय जेटलो लाभ हतो, तो ते स्थानकें बेठा रह्या, तेथी जिनभक्ति ते मोक्षसाधन छे, एम जे प्राणी जिनना रूपने अर्चे, पूजे, ते सर्वदेवमां चंद्रमा समान श्री अरिहंत देव तेहनी प्रभुता पूर्णानंदमय संपदा पामे, एवं परमानंदनुं कारण श्रीशीतलनाथ प्रभुनुं सेवन छे, ते सर्वजीव करो, अने स्तुतिकर्त्ता पण देवचंद्र छे, तेणें पोतानुं नाम पण सूचव्युं, ए शीतल प्रभु अनंत गुणी छे, परंतु भद्रकपणायें जे जे गुण जाण्या, ते ते गुणनी स्तवना करवी ॥ ११ ॥ इति शीत ||
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दे० चो० वा०
॥ अथ एकादश श्री श्रेयांसजिनस्तवनं ॥
॥ प्राणी वाणी जिनतणी, तुझें धारो चित्त मझार रे ॥ ए देशी ॥
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श्री श्रेयांस प्रभुतणो,
अति अद्भुत सहजानंद रे ॥ गुण एक विधत्रिक परिणम्यां, एम गुण अनंतनो वृंद रे ॥ मुनि चंदजिणंद अमंद दिणंद परें, नित्य दीपतो सुखकंद रे ॥१॥
अर्थः-- श्री श्रेयांस प्रभु परमेश्वर निष्पन्न निरावरण स्वस्वरूपभोगीनो अति केतां अत्यंत उत्कृष्ट अद्भुत केतां आश्चर्यकारी सहजानंद केतां अकृत्रिम सहज स्वभावनो आनंद छे. श्रीश्रेयांसप्रभुजी ते जीवद्रव्य छे, साधनरत्नत्रयी परिणमीने सिद्ध भया छे, ते सिद्धपणे असंख्यात प्रदेशी छे, अनंतगुणी छे, अनंतपर्यायी छे, ते प्रभुनो एक एक गुण ते ऋण ऋण परिणतिरूप छे, सर्वद्रव्यनुं अर्थ क्रियाकारीपणं ते गुणपरिगतिथी छे, तेमध्यें असाधारणपणं विशेषगुणनी मुख्यतायें छे, अने साधारण गुणनी परिणति पण कर्त्ताद्रव्य कर्त्ताने हाथ छे, कर्त्ता करे तो प्रवृत्ते, कर्त्ता न करे, तो न प्रवृत्ते पांच अकर्त्ता द्रव्यनी गुणपरिणति सदा परिणमे छे, ए रीत छे, अने जीव द्रव्यनी गुणपरिणति, सिद्ध अवस्थायें सदा प्रवर्त्ते छे, पण कारक चक्रना वर्त्तनयी प्रवृत्ते छे, तेमाटे आत्मद्रव्यना ज्ञाना
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एकादश श्री श्रेयांसजिन स्तवनं
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दिक जे गुण छे, ते त्रिविधे परिणमे छे.
ए रीतें त्रिविधता तेहीज गुणमां छे, तिहां उपादानपणे
फल साध्य ते कार्य
करण जाणवुं,
ते करण, कार्य, अने क्रिया, ए ऋण परिणामनो कर्त्ता ते प्रकृष्ट कारण ते करण अने तथा ते करवारूप प्रवृत्ति ते क्रिया, कर्त्तानो व्यापार ते सिअवस्थायें अभेदरूप छे, जेम ज्ञानगुण ते अने ते ज्ञानगुणथी जे ज्ञेय पदार्थोनुं ज्ञान थाय ते एनं साध्य फल छे माटे ए कार्य जाणवुं तथा ते कार्य जाणवाने जे ज्ञाननी स्फुरणा एटले प्रवृत्ति ते क्रिया जाणवी, ए त्रणे अभेद छे, ए त्रिविधपरिणामें परिणम्या, एवा अनंतगुणना वृंद छे, ए श्रीश्रेयांस प्रभुना सर्वगुण व्यक्तपणे स्वकार्यताने करे छे ॥ उक्तं च विशेषावश्यके ॥ जं कज्ज कारणाई, पज्जाया वत्पुणो जओ तेण || अन्त्रेणन्त्रेण मया, तो कारण कज्ज भयज्ज ॥ १ ॥ इति वचनात् ॥
ते गुणनी आत्मा छे,
ते करणनुं
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एम कारण कार्य क्रियानी अभेदता पण छे, तथा भेदता पण छे, कालें अभेदता छे, सत्व, प्रमेयत्वें अभेदता छे, अने संज्ञा संख्या लक्षणे भेदता छे, माटे एवी व्याख्या छे || मुनिचंद केतां मुनि जे त्रिकाल अविषयी तत्त्वरमणी तेमांहे चंद्रमा समान अथवा मुनिचंद जिणंद ते जिन सामान्यकेवलीमां चंद्रमा समान, वली अमंद केतां देदीप्यमान दिणंद केतां सूर्य तेनी परें दीपतुं छे, तेज जेनुं तथा सुखकंद केतां सुखनो समूह छे जेने एहवा श्री श्रेयांस प्रभु तेहना सर्व गुण व्यक्तपणे स्वकार्यने करे छे ॥ १ ॥
वे आत्माना अनंता गुण छे, तेमां हें मुख्य गुण ते
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दे० चो० बा०
उपयोग छे ।। सव्वाओ लदिओसागारोवउत्तस्स उववज्जइ तो अणगारो वउत्तस्स इति ॥ ते उपयोगमा प्रथम ज्ञानगुण छे. माटे प्रथम ज्ञानगुणनी त्रिविधता कहे छे । इति ॥
निजज्ञानें करी ज्ञेयनो, ज्ञायकज्ञातापद ईश रे ॥ देखे निजदर्शन करी, निज दृश्यसामान्य जगीश रे॥ मु० ॥२॥
अर्थः--लोकालोकमां जे वर्तमान छे, तथा अतीतकालें इतुं, अने आगमीककाले थाशे, ते सर्व पोताना भावप्रमेयत्वपणा माटे ते ज्ञेय छ, एटले जाणवा योग्य छ, तेहतुं जाणवू ते आत्माना असंख्यातप्रदेश निष्ठित ज्ञानगुण छे, ते ज्ञान; आत्मानो स्वधर्म छे, सर्वविशेषनो जाणंग छे, तेथी निज केतां पोताना ज्ञानगुणे करीने जाणे एटले ज्ञान ते जाणवारूप कार्य- कारण थयुं, उपादानकारण कार्यता एक समय छे, अने ते जाणवारूप कार्यनी प्रवृत्ति, ते वीर्यने सहकारें क्रिया थाय छ, जो गुणनी प्रवृत्ति विना जाणवा रूप कार्य मानीयें, तो दर्शनोपयोग काले ज्ञानगुण, निरावरणपणुं छतुं छे, पण क्रिया विना उपयोग नथी, तेमाटे कारणभूत ज्ञाने करी सर्वहेपने जाणो छो, पोताना ज्ञानगुणें करी सर्वज्ञेयना ज्ञायक केतां जाणनार छो, तेथी हे प्रमु ! तमें जाणंगपणा माटे ज्ञातापदना ईश छो, स्वामी छो, ज्ञानमयी छो, सर्व जाण छो, तेथी ज्ञाता छो.
हवे दर्शनगुणनी विविधता कहे छे. हे प्रभुजी ! तमें
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एकादश श्रीश्रेयांसजिन स्तवनं.
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पोताना दर्शनगुणें करीने निज केतां पोताना दृश्य केतां देखवा योग्य जे सर्व अस्तिकायनी सामान्यता, अस्तित्वं, वस्तुत्वं, द्रव्यत्वं, प्रमेयत्वादि, नित्यत्वाऽनित्यत्वादि, सामान्यपणे जे जगीश केतां संपदा एटले आत्माने विषे अनंती सत्त्व द्रव्यत्वादि सामान्यसंपदा छे, तेने दर्शनगुणें देखे, ते “ दर्शनेन दृश्यभावानां दर्शनं करोति आत्मा " इहां आत्मा ते देखणहारो दर्शनगुणे करणभूतें देखवा योग्य जे पदार्थ, ते सर्वने देखे छे, एटले देखq ते कार्य, दर्शनगुण ते कारण, दर्शनगुणनी प्रवृत्ति ते क्रिया, देखणहारो आत्मा ते कर्ता, ए दर्शनगुणनुं त्रिविध परिणमन जाणQ ॥ २ ॥ इति द्वितीय गाथार्थः ॥
निजरम्ये रमण करो, प्रभु चारित्रे रमता राम रे ॥ भोग्य अनंतने भोगवो, भोगे तेणें भोक्ता स्वाम रे ॥ मु०॥३॥
अर्थ:--हवे चारित्रगुणनी त्रिविध परिणति कहे छे. हे प्रभुजी ! हे परमेश्वर ! हे परमानंद पूर्णानंदी ! ताहरो अनंत आत्मधर्म ते तमने रम्य छे, रमवा योग्य छे, ते शुद्धात्मपंरिणतिरूप निजरम्यविषे तमें रमण करो छो. चारित्रगुणे करीने एटले चारित्र गुण करणे स्वरम्यने विषे जे रमण ते रूपकार्य अने चरणगुण प्रवृत्तिरूप क्रिया तेने करो छो, तेमाटे हे प्रभुजी ! तमें रमता राम छो, पोताना स्वरूपमां रमता छो, वेयी स्वरूपरमणी स्वरूपानुभवी स्वरूपविश्रामी छोजी ।।
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दे० चो० बा.
हवे भोगगुणनी विविधता कहे छे. भोग्य कहेतां भोगववा योग्य जे प्रगट आत्मस्वरूप अनंतज्ञानादि गुण, तेहने तमें भोगगुणे करी भोगवो छो, ते केम ? जे भोगांतराय कर्मनो क्षय तमने प्रगट थयो, ते भोगगुण तेणें करीने तमें पोतानी भोग्ययोग्य जे अनंतात्म संपदा तेहने भोगवो छो, माटे हे स्वामिन् ! तमें भोक्ता छो, जे बीजाजीव क्षयोपशम भोगी पुद्गलादि अशुभ परिणतिने भोगवे छे, तेतो अशुद्धभोक्ता छे, अने तमे शुद्ध भोक्ता छो, एटले भोगगुण करणे करीने निजभोक्तापणारूप कार्यने करो छो. भोगगुणनी प्रवृत्ति, ते क्रियाने करवे करीने छे. अत्ता सहावभोई, ते असहावाओ अत्तपरिणामा ॥ इति वाक्यात् ।। माटे भोक्तागुणना स्वामी छो ॥३॥ इति तृतीय।।
देय दान नीत दोजते, अतिदाता प्रभु स्वयमेव रे ॥ पात्र तुमें निज शक्तिना,
ग्राहक व्यापकमय देव रे ॥ मु०॥४॥ . अर्थ:--हवे दानगुण, जे दानांतराय कर्मना क्षययी प्रगट्यो छे, माटे ते दान गुण तथा लाभगुणनी त्रिविधपरिणति कहे छे. इहां दान ते सिद्धतामां स्वगुणना प्रवर्तनने स्वकीय क्षायिक वीर्यनी सहकारतानुं देवं ते दान अने सहकारतानी प्राप्ति जे गुणने थई ते लाभ, ए रीतें दान तथा लाभ प्रवृत छे, देय कहेतां देवा योग्य जे गुण तेहने सहकार ते दान, ते दान नित्य केतां सदा दीजते थके हे परमेश्वर ! तुमें अति दाता छो, अनंतगुणने सहकाररूप अनंतुं दान दीयो छो, स्वयमेव कहेतां पोताथीज
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एकादश श्रीश्रेयांसजिन स्तवनं.
१
पोताने आपो छो, एटले दानगुण ते करण, अने दानगुणनी प्रवृत्ति ते क्रिया तथा सहकाररूप दान दीवु ते कार्य, ए सर्वनो स्वामी आत्मा ते दाता छे, आत्माने ए शुद्ध दान छे, तथा शुभ लाभ छ, अने जे परभावनुं देवू तथा लेवू तेतो विभाव छे, ते आत्माने घटतो नथी, बली हे स्वामी ! तुमें निज कहेतां पोतानी शक्ति अनंतगुणपर्यायरूप तेहना पात्र केतां आधार छो, तथा ते आत्मशक्तिना ग्राहक तुमें छो, अने ए आत्मशक्तिना व्यापक तन्मयतारूप अवस्थावंत पण तमेज छो ॥४॥ इति चतुर्थ गाथार्थः ॥
परिणामी कारज तणो, कर्ता गुण करणे नाथ रे ॥
अक्रिय अक्षय स्थितिमयी, निकलंक अनंती आथ रे ॥ मु०॥५॥
अर्थ:--वली हे देव ! हे परमेश्वर ! तमारा अनेक अमिलाप्य तथा अनमिलाप्य गुण सर्व प्राग्भाव थया, तेहनी त्रण परिणति कहे छे. पारिणामिकपणे जे अव्याबाधादिक अनंतु कार्य, तेहना कर्त्ता छो, गुणरूपकरणे करीने एटले गुण ते करण अने ते करणनुं जे फल ते कार्य, तथा गुणनी प्रवृत्ति ते क्रिया, ए करण, कार्य, क्रियाना कर्ता हे नाथ ! तमें छो, जे तुमारूं सर्व पारिणामिकपणुं तेहना तुमेज कर्ता छो, बीजा द्रव्यमां कापणुं नथी. वली हे प्रभुजी ! तमें अक्रिय छो. क्रिया ते चलयोगीपणे छे, अने सिफ तो अचल छे तेथी अक्रिय छो, वली हे प्रभुजी ! तमें अक्षय स्थितिमयी छो,
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दे० चौ० बा०
जे आउखानी स्थिति तेतो सयोगीभावनी छे, अने श्रीसिद्धभगवंत तेतो सहजगुणी छे, तेथी अविनाशी स्थिति तुमारी छे. वली निकलंक केतां सर्व कर्मकलंक रहित छो, तथा निरावरणी एवी जे अनंती आथ केतां संपदा तेना तमें धणी छो ॥ ५ ॥ इति पंचम गाथार्थः ||
परिणामिक सत्तातणो, आविर्भाव विलास निवास रे ॥
सहज अकृत्रिम अपराश्रयी, निर्विकल्पने निःप्रयास रे ॥ मु० ॥ ६ ॥
अर्थ :-- हवे कदाचित् कोई कहेशे जे कोई गुण अधुरो हशे ? माटे तेने पूर्णता कही देखाडे छे. परिणामिकपणं ते सत्ता कहेतां छती तेहनो आविर्भाव कहेतां प्रगटपणं एटले प्रागभाव ते अनंतगुणपर्याय निरावरण सकल पुद्गलसंग रहित थवे संपूर्णसत्ता तिरोभावी हती, ते प्रगट थइ छे, ते प्राग्भावी सत्ताना विलासना अनुभवनो हे प्रभुजी । तुं निवास केतां घर छो. स्वगुणभोगी छो, स्वस्वभावना अनुभवी छो, वळी हें प्रभु ! तुमें सहज केतां स्वभावनो जे मूलधर्म तेना अकृत्रिम ते पण अपराश्रयी केतां परवस्तुना आधार विना ते वळी निर्विकल्प केतां मनोचिंतना विना, ते वली निःप्रयास केतां प्रयास उद्यम विना जे आत्मधर्म, तेहनो अनुभव ते तमें भोगवो छो ॥ ६ ॥
प्रभु प्रभुता संभारतां, गातां करतां गुणग्राम
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रे ॥
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एकादश श्री श्रेयांसजिन स्तवनं.
सेवक साधनता वरे, निजसंवर परिणति पाम रे ॥ मु० ॥ ७ ॥
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१२१
अर्थः- एहवा प्रभुनी सेवनानुं जे फल थाय, ते कहे छे. प्रभु जे श्री श्रेयांसनाथनिष्पन्नतत्त्वी, निरामयी, निरावरणी, तेहनी प्रभुता अनंतज्ञानमयी, सर्व संवरी अनंतानंदरूप परमेश्वरता, असहायता, सर्वशक्ति निरावरणता, अनंतपर्याय स्वकीयकार्य कर्त्तापणारूप निःकर्मता, निःसंगता, प्रभुत्व, विभुत्व, ग्राहकत्व, व्यापकत्व, आधारत्व, कारकत्व, कारणत्व, कार्यत्व, इत्यादि प्रभुता एक एक प्रदेशें अनंतगुण पर्याय प्राग्भाव परिणमन रूप स्वरूपसंपदाने संभारतां, चित्तमां स्मरण करतां, तथा गातां, केनां, स्वरयोगें गावतां गुणनो ग्राम समूह करतां थकां सेवक तवरुचि आत्मसिद्धतानो अर्थी ते निष्पन्न पर वरन बहुमानयी जीव अनादिनो बाधक, स्वरूपपराङ्मुख थइ रह्य छे, ते जीव साधनता ते आत्मस्वरूप निरावरण करवा रूप साधन अवस्था, उत्सर्ग अपवाद समकिती मांडी अयोगी चर्म समयरूप गुणस्थानारोहण, दोषत्याग, गुणप्रागभाव अधिक गुणनी रुचि, पूर्ण तच्वनी ईहारूप साधनापं पामे, ते निज कहेतां पोतानी संवरपरिणतिने पामी करीने एटले प्रभुगुणउपयोगें वर्त्ततो थको चेतना गुणीना गुणने अनुयायी थाय, तेवारें स्वरूपईहारूप दर्शनगुण परिणमे, तेथी पोतानी संवरपरिणतिने पामे, ते जीव तवताने साधे, अने साध्यरसीनी जे साधकता ते परमानंदनुं कारण छे ॥ ७॥ इति सप्तम गाथार्थः ॥
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दे० चो० बा०
प्रगटतत्त्वता ध्यावतां, निजतत्त्वनो ध्याता थाय रे ॥ तत्त्वरमण एकाग्रता, पूरणतत्त्वे एह समाय रे ॥ मु० ॥ ८॥
अर्थः--तेहीज भावना कहे छे. के आत्माने पोतानी जे संपदा तेतो कर्म आवृत्त छे, ते भासनमां आववी दुर्लभ छे. अने निष्पन्न परमेश्वरनी तत्त्वता तो प्रगट छे, ते श्रुतोपयोगें भासनमां आवे, ते माटे प्रगटतत्त्वी जे श्रीअरिहंत सिझ, निरावरण आत्मसंपदा तेने ध्यावतां थकां, जीव पोतानी सत्तागत द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक तत्त्वतानो ध्याता थाय छे, द्रव्यत्व तुल्यता माटे. इति ॥ एम स्वतत्त्वने ध्यावतो तत्त्वरमण तथा तत्त्वनी अनुभूति करे, तत्त्व जे स्वगुणपर्यायरूप ते मध्ये एकाग्रता तन्मयता थाय, तेवारे ए सेवक जे श्रेयांस प्रभुनो गुणावलंबी, तेहज पूर्णतवरूप तत्त्वी थई, पूनिंदनिरावरण स्वस्वभावनी पूर्णताने पामे, पोतानी पूर्णप्रागभावी तत्त्वतामां सिझ बुझ थाय. एहज मोक्षनो उपाय छे. इहाँ भावना कहे छे, के अनादि मिथ्यात्व असंयम कषाययोगहेतुपरिणति गृहीतकर्मविपाक क्वाथ्यमान विसंस्थूलात्मशक्तिमंतने अनेकांत शुद्धात्मस्वरूपनुं श्रवण करवू ते पण दुर्लभ छे, ते जीवने श्रीजिनसेवनथी, जिननुं स्वरूप ओलखाय. तेथी स्वरूपरुचि उपजे. पछी स्वधर्मपणा माटे रुचिवंत जीव ते उद्यमें वर्त्ततो आत्मधर्म निपजावें, अनुक्रमें निर्विकल्प समाधि भजी, शुझात्म पूर्णता पामे. एहीज मोक्षमार्ग छे ।। ८॥ इति अष्टम गाथार्थः ॥
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एकादश श्री श्रेयांसजिन स्तवन.
प्रभु दीठे मुझ सांभरे, परमातम पूर्णानंद रे॥ देवचंद्र जिनराजना, नित्य वंदो पय अरविंद रे । मु०॥९॥
अर्थः–ते माटे प्रभु दीठे एटले प्रभुनो स्थापनानिक्षेपो दीठे मुने सांभरे केतां स्मरणमां आवे, शु स्मरणमां आवे ? तो के परमात्मा, सिद्ध, भगवान् , अचल, असंगी, अभोगी, अयोगी, तेहनो पूर्ण अनंतपर्यायी त्रिकाल अविनाशी आनंद केतां गुणानंदादिक ते सांभरे, अने जे प्रभु स्वरूपाश्रित चेतना करवी, तेहज पोतानो आत्मा साधवानो परम उपाय छे, ते माटे देव जे निग्रंथादिक तेमां चंद्रमासमान जे जिनराज वीतराग श्री श्रेयांस परमेश्वर, तेना पदरूप अरविंद केतां कमल तेने नित्य वंदो, सदा प्रणमो, तथा स्तुतिकर्तानुं नाम पण देवचंद्र छे. ते पोताने पण कहे छे, जे श्री अरिहंतना चरण नित्य सेवो, अरिहंतसेवन तेहज संसार महासमुद्ग मोहावर्त्त अज्ञानांधकार मिथ्यात्वकर्दममग्न जीवने निस्तार पार करवानो पुष्ट उपाय छे, अरिहंत प्रतिमाने आलंबने अनंत जीव पूर्णानंदी थया, वली जे यथार्थ ओलखाणे पुद्गलाशंसा रहितपणे श्री अरिहंतनु सेवन करशे, ते परमसुख पामशे. एहज शरण त्राण आधार छे ॥ ९ ॥ इति एकादश श्री श्रेयांसजिन स्तवनं संपूर्ण ॥ ११ ॥
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दे० चो० बा०
॥ अथ द्वादश श्रीवासुपूज्यजिन स्तवनं ॥
हवे प्रभुसेवन जे पूजना तेहना द्रव्यभाव ओलखाववारूप बारमा प्रभु श्री वासुपूज्यजी तेनि स्तुति करीयें छैयें. तिहां निक्षेपा चार लखी यें छैयें. १ नाम, २ स्थापना, ३ द्रव्य, ४ भाव. तिहां नामनिक्षेपानुं लक्षण गाथायी कहे छे. पज्जायाणभिधेयं, ठियमणत्थे पयत्थ निव्विरकं । जा इच्छियं च नाम, जाव दव्वं च पायेणं ॥ १ ॥ तथा थापनालक्षणं ॥ गाथा ॥ जं पुण तयत्थ सुन्नं, तयमिप्पाएण तारिसा - गारं ।। कीर इव निरागारं इत्तर मियरं च साठवणा || २ || द्रव्य लक्षणं || गाथा || दव्वए दुवएदो ख्वयवो, विगारो गुणाणं संदावो || दव्वं भवं भावस्स, भुयभावं च जं जोगं ॥ ३ ॥ अथवा यच कारणं तत् द्रव्यं ॥ मूतस्य भाविनो वा, भावस्य हि कारणं तु यल्लोके तत् द्रव्यं, इत्यादि ॥ भावलक्षणं हरिभद्रपूज्यैः ॥ भावो विवक्षितक्रियानुमूतियुक्तो हि विधिः समाख्यातः सर्वज्ञैरिंद्रादिवद्वंदनादिक्रियानुभवात् ॥ इति ||
ए रीतें चार निक्षेपा छे, तथा कोइक नामादि निक्षेपा उपचारें माने छे, तेहने कहिये जे भिन्न वस्तुने नामादिक करिए, ते भिन्न छे, परंतु पोत पोतानी वस्तुनां नामादि चारे ते वस्तुमांज छे, तेमाटे कथं छे, श्रीजिनभद्रपूज्यैः || इह भावोच्चि वत्थु, तयत्भ सुन्नेहिं किंच सेसेहिं ॥ नामा - दओ विभावा, जं तेवि दु वत्थुपज्जाया ॥ इचि ॥ यद्यस्मात् तेsपि नामादयो वस्तुनः पर्याया धर्मा स्तथा प्रविष्टइंद्रवस्तुन्युच्चरिते नामादयोपि भावविशेषाः ॥ एवं वली कथं छे.
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द्वादश श्रीवासुपूज्यजिन स्तवनं.
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भावनिक्षेपाने अंते तदेवं भिन्नवस्तुषु विशेषतश्चित्यमानानां नामादीनां प्रधानेतरभावोदर्शितः सामान्यतः पुनश्चिंत्यमानानां सर्ववस्तुषु प्रत्येकं चतुर्णामप्यमीषां सद्भावः प्राप्यतएवेति दर्शयन्नाह ॥ अहवा वत्थुमिहाणां, नाम ठवणाय जो तयागारो॥ कारणयासेदव्वं, कज्जय वन्नं तयं भावो ॥१॥ ए गाथायें चार निक्षेपा एक वस्तुमां कह्या, तथा वळी नामादि नयनें परस्पर विवादे मिथ्यात्वीपणुं पूज्य का छे ॥ एवं विवयंति नया, मिच्छामिनिवेसओ परोप्परओ ॥ इतिवचनात् ॥ वली पूज्यनुज वचन छे जे, नामाइभेयसदत्थ, बुझिपरिणामभावओ निययं ॥ जं वत्थुअस्थिलोए, च उपज्जायं भयं सव्वं ॥ १ ॥ इति ए रीतें नामादिक चारे निक्षेप ते वस्तुना स्वपर्याय छे, एम श्रमा करवी, ए निक्षेपार्नु स्वरूप विस्तार श्रीविशेषावश्य कमां कहुं छे. तिहाथी ए गाथा लखी छे. ॥ इति प्रशस्तिः।। ॥ पंथडो निहालं रे बीजा जिन तणो रे ॥ए देषी ॥
पूजना तो कीजें रे बारमा जिनतणी रे, जसु प्रगट्यो पूज्य स्वभाव ॥ परकृतपूजा रे जे इच्छे नहीं रे, साधक कारज दाद ॥ पू० ॥ १ ॥
अर्थः--हवे बारमा श्री वासुपूज्य स्वामीनी स्तवना करे छे. हे भव्य जीवो ! तमारे जो आत्माने सुखी करवानुं मन छे, तो बारमा जिन वीतराग श्रीवासपूज्य पुरुषोत्तमनी पूजना कीजें, एटले सकलगुणनिरावरण, परमचारित्री, परमज्ञानी,
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दे० चौ० बा०
अयोगी, अभोगी, अलेशी, अभेदी, असहायी, अकषायी, अरूपी, शुद्धस्वरूपी जे सिद्ध, सकलपरभाव अभोगी, पुद्गलोपचाररहित एहवो पूज्यस्वभाव जेहनो प्रगट्यो छे, तेहनी पूजा कीजें, जे भक्तिना रागी नहां, अने अभक्तिना द्वेषी नहीं, एहवा सर्वज्ञ तेहीज पूजवा योग्य छ । उक्तं च आप्तमीमांसायां ॥ देवागमनभोयान, चामरादिविभूतयः ॥ मायाविष्वपि दृश्यंते, अत स्त्वमसि नो महान् ॥१॥ सूक्ष्मांतरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचित् यथा ॥ अनु मे तत्त्वतोज्ञान, मिति सर्वज्ञशंसितम् ।। १ ।। अइसय पाडिहेरा, सव्व कम्म उदयसंभूआ ॥ तेणं न विम्हओ मे, विम्हओ वीयरागतें ॥ १ ॥
वली प्रभुर्नु पूज्यपणुं कहे छे. जे परकृत देवता मनुष्य गुणरागी थका अनेक प्रकारनी भक्ति, पूजा करे छे, परंतु परमेश्वर, कोइनी पूजा इच्छता वांछता नयी, इच्छादोष रहित छे, माटे परभावना संग, तथा परकृतपूजाने वांछता नथी, ते पूज्य जाणवा. अने साधक जे मोक्षना अर्थी, मार्गानुसारी, समकिती, देशविरति, संवेगपक्षी मुनिराज, तेहर्नु कार्य, जे संपूर्णसिद्धता, तेहना दाव केतां उपाय छे, तेहीज निमित्त योगें अनंत सिद्ध नित्यना, माटे पोतें पूजाना अवांछक, अने पूजे तेहने परमानंद पूर्णता निपजे ॥ १ ॥ इति
द्रव्यथो पूजा रे कारण भावनुं रे, भाव प्रशस्तने शुद्ध ॥ परम इष्ट वल्लभ त्रिभुवन धणी रे, वासुपूज्य स्वयं बुद्ध ॥ पू० ॥ २ ॥
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द्वादश श्रीवासुपूज्यजिन स्तवनं.
MAMMAR
अर्थः-ते. पूजाना बे भेद छ, एक द्रव्यपूजा, बीजी भावपूजा, तिहां न्हवण विलेपनादिक जे बाह्य उपचार, योग समारवाने करिये, ते द्रव्य पूजा जाणवी. तिहां अढार पापस्थानक छे, ते सर्व आत्माने दुःखहेतु छे, ते सर्व पलटाववाने पूजामा प्रशस्त राग करिये, ते आत्माने तज्जातीय तजवा योग्य जे कर्म ते कर्म निर्जखानी नीति छे, माटे जिनपूजा ते संवर छे, तेथी अवश्य करवा योग्य छे, तेमां बाह्यथी जे फूल, केसर प्रमुखनी पूजा ते द्रव्यरूप छे, ते भावपूजा जे गुणगुणी एकत्वता रूप तेहनुं कारण छे, माटे द्रव्यनिक्षेपो ते तेहुनेज कहि ये, के जे भावनुं कारण होय. हवे भावनिक्षेपे पूजा ते बै प्रकारनी छे. प्रथम प्रशस्तभावनिक्षेपें पूजन, बीजें शुद्धभावनिक्षेपे पूजन तेहमां भाव ते आत्मानी परिणति, अने प्रशस्त ते गुणी ऊपर राग जाणवो ॥ उक्तं च ॥ गाथा ॥ अरिहंते सुयरागो, रागो सुमुणीसु पवयणेसु य ॥ ए सुपसत्थो रागो, इति वचनात् ॥ तथा चउसरणपयन्नामां कह्यु छ ॥ सुकयाण राय समुप्पन्न, पुन्न पुलयं कुरु करालो ॥ इति वचनात् ॥ हवे प्रशस्तनुं स्वरूप लिखे छे. तेमां जे विषय परिग्रह उपर राग छ, तेथी तो कर्मबंध उपजे, अने अनुकंपा ते शातावेदनीनी हेतु छे, वेतो सर्वनिर्गुणी जीव उपर पण छे, तथा गुणी उपर अनुकंपा करवी, ते निंदवा गरहवा योग्य छ । उक्तं च आवश्यके ॥ सुहिएमु अ दुहिएमु अ,जा मे असंजएसु अणुकंपा ॥ रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि ॥१॥ इति वाक्यात् ॥ तथा जे अरिहंतादि पंच परमेष्ठी अने आगम, साधर्मिक उपर पक्षपात विना गुणीपणा माटे जे राग, ते प्रशस्त राग जाणवो. ते यद्यपि पुण्यबंधनो हेतु छ, तथापि
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दे० चौ. बा.
བའམ་གཙག་འགལ་འབཀགཀལ་སའ་ལ་བག་འགག་ལ་བསམསལ་བས छता आत्मगुणने स्थिर थवानो तथा नवा प्रगट करवानो हेतु छे. पुण्यानुबंधी पुण्यनो हेतु छे, ए श्री हरिभद्र पूज्ये पंच वस्तुग्रंथमां का छे । गाथा ॥ नाणाइ गुणरुइ खल, तारसीय गुणसंपयं संपत्तो ॥ धन्नो गुणसंपत्तो, पसत्थरागं तिहिं कुणई ॥१॥ गुणरुइ मूलं एयं, तेणं गुणवुड्ढिहेउअं भणियं ।। जह इलाइपुत्तो, पसत्थरागेण गुणपत्तो ॥ २॥ इति वचनात् ॥ इहां कोइ पूछे जे, श्री गौतमस्वामीने त्रिभुवन दयाल, त्रिशलानंदन, श्रीवीर परमात्मा उपर राग हतो, ते केवलज्ञानने रोधक केम थयो ? तेहने उत्तर कहे छे. जे श्रीगौतमनो प्रशस्त राग, क्षयोपशम रत्नत्रयीनो तो दीपक हतो, पण श्रीवीर विद्यमान छतां, रागनी मंदता थइ नहाँ, केमके छते कारणे राग टलवो दुःकर छे, पण जेवारे कारण मटयुं तेथी रागनी अवस्था अटकी, तेवारें श्रेणी थई, तेम प्रशस्त राग सर्व जीवोने क्षयोपशमी रत्न त्रयीनो विरोधी नथी, क्षायकतानी ईहायुक्त, क्षायकताने नजीक करे, परंतु क्षायकरत्नत्रयी थवा दीये नहीं ॥ उक्तं च श्रीसंविज्ञमुख्यैः श्रीजिनेश्वर सूरिपूज्यैः संवेगरंगशालायां ॥ सिके रत्तो तग्गुण, ईहाए लप्भए गुणे सव्वे ॥ तेणं अरिहंताई, सुगुण सुरागं समाहिओ ॥१॥ ते माटे प्रशस्त भावपूजा ते पण साधकतामां छे. हवे शुद्ध भावपूजा ते, जे आत्मानुं सामान्य चक्र, विशेषचक्र, क्षयोपशमी चेतनावीर्य, ते सर्व, श्रीअरिहंत परमात्माना सायकसिद्धत्वादिगुणानुयायी प्रवृत्ते, ते शुभ भावपूजा जाणवी, एटले गुणरागी थईने गुणबहुमानी थ_. पछी स्वस्वरूपमां तन्मयथये थके स्वरूपपूर्णता निपजे, ए मोक्षनो मार्ग छे. हवे प्रशस्त भावपूजानुं स्वरूप कहे छे. श्री अरिहंत वासुपूज्य स्वामी, स्वयं केतां पोताथी बुद्ध थया, एहवा त्रिभु
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द्वादश श्रीवासुपूज्यजिन स्तवनं.
वननाथ ते परम केतां अत्यंत इष्ट केतां रलियामणा वल्लभ केतां वाल्हा लागे, ते प्रशस्तरागरूप भाव प्रजा जाणवी ॥२॥ इति द्वितीय गाथार्थः ॥
अतिशय महिमा रे अति उपगारता रे, निर्मल प्रभु गुणराग-॥ सुरमणि सुरघट सुरतरु तुच्छ ते रे, जिनरागी महाभाग ॥ पू० ॥ ३॥
अर्थः-वली प्रशस्तरागीपणुं ओलखावे छे. जे श्री अरिहंत अतिशयना महिमा उपर अद्भुतता आश्चर्यता तथा आठ प्रातिहार्यनी विस्मयता इत्यादि देखीने अथवा सांभलिने जे राग उपजे, ते सर्व प्रशस्तराग जाणवो, तथा जगत्ना जीवोने महामोहांधकार निवावारूप धर्मदेशना देईने विसरी गएलो जे आत्मधर्म, तेने देखाडे सर्व संदेह टाले ए उपगार, भावआजीविकाना दातार, तरवयी भूले पड्या जीवोने तत्त्वना देखाडनार, एहq उपकारीपणं श्रीअरिहंतनुं छे, ते उपकारीपणा उपर जे इष्टता, तथा निर्मल कर्म आवरणे रहित केवल ज्ञान, केवल दर्शन, वीतरागता, असंगता, स्वरूप भोगी प्रमुख गुण उपर राग ते पण प्रशस्त राग कहि ये. वली सुरमणि केतां कामकुंभ तथा सुरतरु केतां कल्पवृक्ष ते सर्व तुच्छ भासे, केमके एतो इहलोकसुखना हेतु, तथा भावअशुद्धताना वधारवा वाला छे, तेहने असार जाणीने तुच्छ गणे, अने श्रीअरिहंतनो राग ते परंपरायें आत्मसुखनो हेतु छे, आत्माना गुणनी वृद्धि करवानुं पुष्ट निमित्त छे, ते माटे श्री जिनराज, परमदयाल,
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दे० चो० बा०
स्वगुणभोगी, माहागोप, परमोपकारी, माहारी तत्त्व संपादना उपदेशक, ते उपर जे जीवने साची ओलखाणे राग प्रगटे, ते जीव महाभाग्यवान् , तथा पवित्र जाणवा, जे जीव कामराग, दृष्टिराग, स्नेहरागनी भीड टालीने, श्रीपुरुषोत्तम, परमानंदी श्रीवासुपूज्य प्रभु उपर रागी थयो, तेने धन्य छे. ते महंत जीव, मोहोटा भाग्यनो धणी जाणवो, ए सर्व प्रशस्त रागभाव पूंजा कही ।। इति तृतीयगाथार्थः ॥ ३ ॥
दर्शन ज्ञानादिकगुण आत्मना रे, प्रभु प्रभुता लयलीन ॥ शुद्ध स्वरूपी रूपें तन्मयोरे, तसु आस्वादन पौन ॥ पू० ॥ ४ ॥
अर्थः-हवे भावपूजा कहे छे, तिहां जे आत्माना क्षयोपशमभावी दर्शनाण, तथा ज्ञानादिगुण, ते सर्व प्रभनी प्रभुतायी लयलीन श्रया छे, बहुमान श्रीअरिहंत छ, भासन पण अरिहंत गुणनी अनंततानुं छे, रमण श्री अरिहंत गुणना स्वरूप भासननुं छे. अनुभव पण अरिहंत गुणना भासननो छे, एम जेटली आत्मशक्ति प्रगटी छे, ते सर्वअरिहंत गुणने अनुयायी करीने, तन्मयतारूप करे, ते शुद्धभाव पूजा जाणवी ते आवी रीते:--स नो निरधारभासननें आस्वादन, ते आनंदतायें मग्न रहे, शुद्धस्वरूपी परमात्मा तेहनस्वरूप जे जे वस्तुधर्म, तेमध्ये तन्मयी थईने, तेना आस्वादने अनुभवें, पीन केतां पुष्ट रहे, ते भावथी भक्ति जाणवी, तथा वंदन नमनादिकते योग भक्ति जाणवी तथा प्रभु उपर इष्टता ते
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द्वादश श्री वासुपूज्यजिन स्तवनं.
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राग भक्ति जाणवी. तथा हुं सहुथी मोटो माहरे अरिहंत परमेश्वर जेवो धणी छे, हुं मोक्षना मार्गने पाम्यो, अने पोताना आत्मगुणने प्रभुनी प्रभुताने अनुयायीपणे वर्तावे, एहवो लीन थको रहे, तेहने तत्वभक्तिवंत कहिएं. एहवा समकिति, देशविरति, सर्वविरति, जेणे पोतानी मूलपरिणति प्रभुताथी मेलवी छे. आत्मपरिणतिरूपउत्संगें प्रमुनी प्रभुताने रमावी रह्या छे, महानुभाव छे, ते शुद्धभावपूजा जाणवी ॥४॥ इति चतुर्थ गाथार्थ ॥
शुद्धतत्व रस रंगी चेतना रे, पामे आत्मस्वभाव ॥
आत्मालंबी निजगुण साधतोरे, प्रगटे पूज्यस्वभाव ॥ पृ०॥५॥
अर्थः-एम शुद्धनिर्मल तत्त्वी श्रीअरिहंतदेव सिद्ध भगवान् तेहनारसें रंगाणी थकी तेहना गुणनी भोगी जेवारे चेतना थयी, अन्य विकल्प टाली अनुभवभावना सहित प्रभुस्वरूपे रसीली थइ तेवारे ते चेतना पोताना आत्मस्वभावने पामे, आत्मस्वभावरुचि, आत्मस्वभावोपयोगी, आत्मस्वभावरमणी, आत्मानुभवी थयो, एटले उपादानावलंबी अवस्था पामे; अने जेवारें ए भव्यजीव आत्मावलंबी थाय, तेवारें पोताना गुणने साधतो निपजावतो, सम्यक् दर्शनादिक गुणने प्रगट करतो, गुणस्थान क्रमें दोषनी हाणी गुणपाग्भाव स्वरूपएकत्व स्वरूपानुभवी थतो थको तल्लीनताने निपजाववे पोतानो अनादिकालनो सत्तागतपूज्य स्वभावने प्रगट
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दे० चो. बा. करे, एटले पहेलां हुं परमपूज्य अनंतगुणी छु, ए निर्धास्रूप सम्यक् दर्शन प्रगटे, स्याद्वादसत्तार्नु भासन थाये, पछी जे सत्ता प्रगटी, तेहनो रमण अनुभवरूप चारित्रगुण प्रगटे, पछी निरावरण केवलज्ञान नीपजे, ए परमपूज्य श्रीअरिहंतने पूजवाथी पोतानो पूज्यस्वभाव प्रगटे ॥ ५ ॥
आप अकर्ता सेवाथी हवे रे, सेवक पूरणसिद्धि ॥ निजधन न दिए पण आश्रित लहे रे, अक्षय अक्षर ऋद्धि ॥ पू०॥६॥
अर्थः-श्री वीतराग पोते परजीवना मोक्षना अकर्ती छे, केम जे परकर्त्तापणुं जीवद्रव्यनो धर्म नथी, तेमाटे पोते परजीवनी सिजिना अकर्ता छे, पण श्रीप्रभुजीनी सेवायी सेवक जे भक्त, तेहने हुवे केतां थाय शुं थाय तो के संपूर्ण सिमता निपजे, निज केतां पोतानो धन जे अनंत ज्ञानादिकगुण ते प्रभु कोइ बीजाने आपता नथी, एटले कोई पोतानो गुण बीजाने आपे नहीं, अने ते गुण पण पोताना द्रव्यने मुकी बीजामां वर्ते नहीं, अने कोइ द्रव्य कोइ द्रन्यनो गुण ग्रहे पण नहीं, सर्व द्रव्य पोते पोतानी सत्ताना स्वामी छे, तेमाटे अरिहंत पोते काइ आपताज नथी परंतु जे अरिहंतने आश्रित सेवे, ते निचे अक्षय केतां जेहनो क्षय न थाय तथा जे विनाश न पामे, तथा अक्षर केतां खरवु जरवू जेहमां नथी एवी अविनाशी अक्षर अनंत आत्मसंपदा पूर्णानंदादिक शुद्धि लहे केतां पामे, माटे जिन
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द्वादश श्री वासुपूज्यजिन स्तवनं.
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भक्ति तेहीज सिद्धता नीपजववानो पूर्ण उपाय छे ॥ ६ ॥ इति षष्ठ गाथार्थः ॥
जिनवर पूजा रे ते निजपूजना रे, प्रगटे अन्वयशक्ति ॥ परमानंद विलासी अनुभवे रे, देवचंद्र पद व्यक्ति ॥ पू० ॥ ७॥ अर्थः-जे जिनराजनी पूजा भक्ति करवी ते पोताना आत्मानी पूजना करवी छे, आत्मगुण वधारवा छे, आत्मसंपदानी पुष्टि करवी छे, केमजे जिनसेवनाथकी पोताना अन्वयी गुण जे सहजज्ञानानंदिक अनंतशक्ति ते पोषे, प्रगटे, निरावरण थाय ते जीवपरमानंदनो विलासी थई, अनुभवे केतां भोगवे, सर्वदेवमां चंद्रमा समान जे पद परमात्मता, पूर्णता, निरावरणता, निरामयता, तत्त्वभोगता, स्वरूपानंदतारूप, वेहनी व्यक्ति केतां प्रगटता जे कर्मावर्णे अनादिनी आवृत छे, ते कर्मक्षय थये अक्रिय, अनवच्छिनता, शक्ति प्रगटे, शुद्ध थाये, तेमाटे निष्पन्न जिननी भक्ति ते परमात्मता रूप आत्मसिद्धतानुं कारण छे, तेमाटे हे मोक्षार्थी जीवो तमे श्रीवीतराग अरिहंतनीपूजना ते विधि सहित निरमिलाये तत्वसाध्यतायें करो, एहज उत्तम उपाय छे ।। इति श्रीवासपूज्यजिन० ॥
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चौ. बा
॥अथ त्रयोदश श्री विमलजिन स्तवनं ॥
॥ दासअरदास सीपरे करे जी ए देशी॥ विमल जिन विमलता ताहरी जी, अवर बीजे न कहाय ॥ लघु नदी जिम तिम लंघीयें जी, स्वयंभुरमण न तराय ॥ वि० ॥१॥
अर्थः-हवे श्री विमलनाथ प्रभुजीनी स्तुति कहे छे हे विमलजिन ! हे परमेश्वर ! ताहरी विमलता केतां तमारी निर्मलता केहेवी छे ? जे समस्तद्रव्यकर्म भावकर्मपरानुजायीतादि दोष रहित पणे छ एहवी निर्मलता ते अवर केतां बीजा कोइ छंद्रस्थ जीवे न कहाय केतां कहि शकाय नहीं, सिद्धस्वरूपस्य अनंतत्वात् वाचःक्रमपरिणतत्वात् आयुष्याल्पत्वात् , तेनवक्तुंनशक्यते केन इतिभाष्यवचनात, तेमाटे कहेवाय नहीं तेना उपर दृष्टांत कहे छे. जेम लघु नदी केतां नान्ही नदी तेने जेम तेम लंघीयें, केतां उतरि थे, पण असंख्याता कोडी जोजननो स्वयंभुरमण नामा समुद्र, ते कोइ पामर जनथी तों जाय नहीं, अने प्रभुना गुण तो स्वयंभू रमण समुद्रथी पण अनंतगुणा छे, ते सर्व वचने कह्यो जाय नहीं ॥१॥
सयल पुटवी गिरि जल तरु जी, कोइ तोले एक हथ्थ ॥
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त्रयोदश श्री विमलजिन स्तवनं.
तेह पण तुझा गुणगण भणी जी, भाखवा नहीं समरथ ॥ वि० ॥ २ ॥
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सर्व पुद्गल नभ धर्मना जी, तेम अधर्म प्रदेश ॥
अर्थः-- तथा सयल केतां सर्व पृथ्वी, गिरि ते पर्वत, जल ते पाणी, तरु ते वनस्पति, ए सर्वने कोइ एक हाथें तोले केतां उपाडे एहवो बलवंत पण ते बाल वीर्यवंत होय तेथी तेपण प्रभुजी ! ताहरा गुणना गण केतां समूह तेने भाखवा केतां केहवाने समर्थ नहीं, कारण तेहमां बालवीर्यनी शक्ति छे, अने तमारुं निर्मल स्वरूप ते केवलज्ञानी क्षायकवीर्यवंतने गम्य छे, तेने पण सर्ववचनें गोचर थायज नहीं, तो बालवीर्यवती केम केहेवाय ! इति द्वितीय गाथार्थः ॥ २ ॥
तास गुण धर्म पझव सहुजी, तुझ गुण एकतणो लेश ॥ वि० ॥ ३ ॥
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अर्थ :-- सर्व पुगल द्रव्य तथा नभ केतां आकाश द्रव्य, धर्म केतां धर्मास्तिकाय द्रव्य, तेमज अधर्मास्तिकायना प्रदेश, एटले ए पंचास्तिकायना प्रदेश अनंता तेहना गुण अनंता ते गुणधर्म नित्यत्वादि ते पण अनंता तेहना पर्याय वली तेहथी अनंतगुणा छे, ते सर्व मळी पण हे प्रभुजी ! ताहरो एक गुण जे केवलज्ञानरूप तेहनो लेशमात्र छे, केम जे ए सर्व पंचास्तिकायना भाव वर्तमान काले छे, अने केवली तो ए सर्वना अतीत, अनागत, अने वर्तमान, ए त्रणे कालना पर्याय उत्पाद,
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है चौ० बी०
व्यय, ध्रुवरूप सहने एक समयमां जाणे, तथा एथी अनंतगुणा बीजा धर्मने पण एक समयमां जाणे, ते माटे केवलज्ञाननी शक्ति अनंतगुणी छे ॥ उक्तं च ॥ विशेषावश्यके ॥ ये हि केवलंस्य निःशेषज्ञेयगता विषयमूता पर्यायास्ते ज्ञानाद्वैतवादिनयमतेन ज्ञानरूपत्वादर्थापत्यैव स्वपर्यायाः प्रोक्ता नतु परपर्यायापेक्षया इत्यविशेषकेवलत्वविरोधो नाशंकनीय इति । इति ॥ ३॥
एम निजभाव अनंतनी जी, अस्तिता केटली थाय ॥ नास्तिता स्वपरपद अस्तिताजी, तुझ सम काल समाय ॥ वि०॥४॥
अर्थः--ए रीतें जेम केवलज्ञानगुण अनंतपर्यायी छे, तेम जे केवल दर्शनादिक निज केतां पोताना भाव गुण पर्याय अनंता छ, तेहनी अनंतता केटली थाय छे जे स्वद्रव्य खेत्र काल भाव रूप अस्तिपणुं ते अनंतुं छे,तेम परपर्याय जे बीजा जीवद्रव्य तथा पुद्गलादि अजीव द्रव्य तेहना प्रदेश तेहना स्वभाव तेहना गुण पर्यायनी जे अनंतता ते सर्वतुं नास्तिपणुं तमारामां छे, ते पण अनंतुं छे, ते तस्ससपज्जाया, सेसा परपज्जवा सव्वे ॥ इतिश्री पूज्यपादाः तथा च हेम मुरिः ये यस्य समवेता स्ते तस्य स्व पर्यायाः प्रोड्यंते, अस्तित्वेन संबद्धास्ते च अनंता येच घटादिगता श्वास्य पर्यायास्तेभ्यो व्यावृत्तित्वेन नास्तित्वे नसंबद्धा इति ॥ ए नास्तिपर्याय ते पण द्रव्यनिष्ठित छे, ते स्वपदें केतां पोताने पर्दे ज्ञानगुणना
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त्रयोदश श्री विमलजिन स्तवनं.
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अमूर्तत्व, चेतनत्व, सर्ववेतृत्वाप्रतिपातित्व निरावरणत्वादयः केवल ज्ञानस्यपर्यायाः एम केवल ज्ञानना स्वपर्याय अस्तिरूप अनंता छे, हवे केवल दर्शनादि अनंत गुणना जे पर्याय छे, ते सर्व केवलज्ञानमां नास्तिपणे रह्या छे, ते जेम केवल ज्ञान अस्तिनास्तिपणे छे तेमज केवल दर्शन तथा चारित्र मुख, अरूपता, अगुरुलघुता, परमदानादि अनंतगुण, ते सर्व पो ताना एक द्रव्य निश्रित अनंतगुणनी नास्तिताने लीधाथका रह्या छे, तेमज बीजा जीवद्रव्य तथा पुद्गलादिक अजीवद्रव्य ते सर्वना गुणपर्यायनी पण नास्तिताने लीधायका रह्या छे, एम स्वपदें नास्तिता तथा परपदेपण नास्तिता छे, ते सर्वनास्तितापं ते द्रव्यामांहेज अस्तितापणे रह्यो छे, नास्तिधर्मनी अस्तिता ते द्रव्यमांज छे, तिहां भावना कहे छे. जे जीवने विषे ज्ञानादिक गुणनी अस्तिता तेम वर्णादिकनी नास्तिता छे. ते वर्णादिकपणुं जीवमां नयी पण तेनी नास्तिता जीवां रही छे, एम तत्त्वार्थमां कयुं छे ॥ " यदि परनास्तिताजी - वादिषु न स्यात् तदा जीवादीनां परत्वपरिणतिः स्यात् इति" माटे जीवमां अस्तिपणुं तथा नास्तिपणुं ते बेहु अस्तिपणे रह्या छे, उक्तं च विशेषावश्यके.
" द्विविधं हि वस्तुः स्वरूपं अस्तित्वं च नास्तित्वं च ततो ये यत्रास्तित्वेन प्रतिबद्धा स्ते तस्य स्वपर्यायाः येतु नास्तित्वेन संबद्धास्ते तस्य परपर्यायाः प्रतिपाद्यंते इति निमितभेदख्यापनपरावेव स्वपरशब्दौ नत्वेकेषां तत्र सर्वथा संबंध निराकरणपरी अतौ अस्तित्वेन संबद्धा इति परपर्याया उच्यंते न पुनः सर्वथा ते तत्र न संबद्धाः नास्तित्वेन तत्र संबद्धा इति वचनात् "
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दे० चौ० बा०
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. ते माटे नास्तिपणानो वस्तुथी संबंधज छे, ते स्वपद केतां स्वद्रव्यना गुणांतरनी विवक्षितगुणमां नास्तिता तथा परपद केतां परद्रव्यना गुणनी नास्तिता ए नास्तिता सर्व वस्तुधर्मे पारिणामिक भावे रही छे, ते सर्व निराधीपणे हे श्रीविमल प्रभु ! तमारी परिणामिकतामध्ये तथा कर्तृतामध्ये भोर्तृतामध्ये समकाले केतां प्रतिसमये समाये छे, एटली अनंतता तमारे विषे छे, हे प्रभुजी तमारी निर्मलता ते समकेति जीवने श्रधागोचर छे, तथा पूर्वधरने परोक्षभासन गोचर छे, अने केवलीने प्रत्यक्ष छे, ए रीतें अमिलाप्य तथा अनभिलाप्यनी अनंतता छे, ते बीजा कोइथी कहाय नहीं, माटे हे नाथ ताहरूं ज्ञान, दर्शन, सुखधर्मनी अनंतता ते जे भव्यजीवने स्याद्वादोपेत भासन प्रतीत गोचर थइ, ते जीवने धन्य छे, तो हे प्रभुजी ! तमारी शी वात कई ! तमे तो महापूज्य छो, महोटा छो ॥
ताहरा शुद्धस्वभावने जी, आदरे धरी बहुमान ॥ तेहने तेहिज नीपजे जी, ए कोई अद्भुत तान ॥ वि० ॥ ५॥
अर्थः हे प्रभुजी ताहरो जे शुद्ध निर्दोष स्वभाव, अ. नंतानंदादि रूप अक्रिया, अक्षय, तेहने जे आदरे केतां अंगीकार करे, वंदन, सेवन, स्मरण, ध्यानादिकपणे आदरे, वली बहुमान केतां अत्यादरपणे जे ग्रहे, ते साध्यार्थी सेवकनो तेहवोज पोतानो स्वभाव शुद्ध थाय, निःकर्मता नीपजे, प्र
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त्रयोदश श्री विमलजिन स्तवनं.
भुना दीहवो स्वभाव निर्मल थाय, माटे हे प्रभो! ए कोइ अद्भुततान केतां तत छे जे अरिहंत प्रभुनुं शुद्धस्वरूप चिंतवतां ध्यान करतां, पोतानुं स्वरूप नीपजे, एहिज आश्चर्य छे॥५॥ इति पंचम गाथार्थः ॥
तुम प्रभु तुम तारक विभूजी, तुम समो अवर न कोय ॥ तुम दरिसणथकी हु तोजी, शुद्ध आलंबन होय ॥ वि ॥ ६ ॥
अर्थः-माटे हे श्रीविमलनाथ ! माहरा प्रभु अधिपति तुमेज छो, वली मुजने संसारमांथी तारखा वाला परमनिर्यामक परमसामर्थवंत तुमे छो, हे देव ! हे कृपासिवु ! हे ज्ञानभानु तुम समान माहरे बीजो कोइ नथी त्रिभुवन मांहे तमेज दयाळ छो, हे जगत्वत्सल !! ताहरो दर्शन केतां देखवू अथवा दर्शन ते समकित तेने पामे थके हुं तो, संसार समुद्रने ओलंगी पार थयो, ईहां कारण पामे थके भक्तिना हरषे उपचार वचन कडं, एम शुद्ध निर्मल स्वरूपनो आलंबी थयो थको हे नाथ ! ताहरा स्वरूपने अवलंबे, में माहारु स्वरूप ओलख्युं, ते ओलख्यायी स्वरूप रुचिउपनी, पछी स्वरूपविश्रामी अनुभवध्यानी थये तर्यो ए भावी कार्यनो वर्तमानारोप नैगमनयर्नु वचन छे ॥ ६ ॥ इति षष्ठ गाथार्थः ॥
प्रभुतणी विमलता ओलखी जी, जे करे थिरमन सेव ॥
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६८२
दे० चो० बा.
देवचंद्र पद ते लहे जी, विमल आनंद स्वयमेव ॥ वि० ॥७॥ अर्थः---ए रीतें प्रभुजीनी विमलता केतां निर्मलता तेने ओलखीने जे प्राणी थिरमन केतां द्रढमने सेवा भक्ति करे, ते समकिति, देशविरति सर्वविरति जीव, सर्वदेवमां चंद्रमा समान पद परमात्मपद लहे केतां पामे, अनादि संततिसंयोगी भावकर्म उपाधिनो क्षय करीने, निर्मल सिद्ध बुद्ध आत्मतत्वनी पूर्णता ते पामे, इहां स्तुतिकर्तार्नु नाम पण देवचंद्र छे, ते सूचव्यु ए पद कहेवू छे जे मध्ये विमल केतां निर्मल आनंद ते स्वयमेव केतां पोतेज छे, ते पोतानो आनंद पोते भोगवे एहवा अनंत धर्म प्राग्भाव रूप श्रीविमलनाथनी सेवना करो, मोक्षार्थी जीवने श्रीअरिहंत सेवना तेहिज मोडं कारण छे, अनादिनी प्रांति टालवानुं पुष्टनिमित्त छे, ॥ ७ ॥ इति त्रयोदशम श्री विमल जिन स्तवनं संपूर्ण । ॥अथ चतुर्दश श्री अनंत जिन स्तवनं ॥
॥ दीठी हो प्रभु दीठी जग गुरु तुज ॥ ए देशी ॥ मूरति हो प्रभु मूरति अनंत जिणंद, ताहरी हो प्रभु ताहरी मुझ नयणे वसी जी ॥ समता हो प्रभु समता रसनो कंद, सहेजें हो प्रभु सहेजें अनुभव रस लसी जो ॥१॥
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चतुर्दश श्री अनंतजिन स्तवनं.
६८३
__ अर्थः-हवे चौदमा प्रभु श्री अनंतनाथजीनी स्तवना करे छे, हे अनंतनाथजिणंद ताहरी केतां तुमारी मूरति केतां मुद्रा एटले आकार ते माहारा नयणे केतां नेत्रने विषे वसी छे ! ते मुद्रा कहेवी छे तो के समता जे राग द्वेष रहितपणु ते रूप जे रस तेनो कंद छे. वली सहजे प्रयास विना अनुभव स्वभोगीपणुं ज्ञान तेहना रसथी लीन छे तन्मय छे ॥ १ ॥ भवदव हो प्रभु भवदव तापित जीव, तेहने हो प्रभु तेहने अमृतघन समी जी। मिथ्याविष हो प्रभु मिथ्या विषनीखीव, हरवा हो प्रभु हरवा जांगुली मनरमी जी ॥२॥
अर्थः--वली भवजे चारगतिरूप संसार, ते रूप दव केतां दावानलना तापे करीने बली रहेला आकुलित जीवोने परम शीतलता करवाने ताहारी मूरति ते अमृतना मेह समान छे, एटले संसारनो ताप तमार। दर्शनथी मटे छे, माटे. वली मिथ्यात्वरूपविष तेहनी खीव केतां धूमि-मूर्छा वेहने हरवाने जांगुली केतां गारुडीना मंत्र समान ताहरी मूर्ति छे ॥२॥ इति० ॥ भाव हो प्रभु भावचिंतामणि एह, आतम हो प्रभु आतम संपत्ति आपवा जी ॥ एहिज हो प्रभु एहिज शिवसुख गेह, तत्त्व हो प्रभु तत्वालंबन थाषवा जी ॥३॥
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६८४
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दे० चो० बा०
अर्थः--वली हे प्रभु ! तुमारी मुद्रा भावचिंतामणि रत्नसमान छे, एटले चिंतामणि रत्न ते इंद्रियसुखनो हेतु छे, ते तो द्रव्य चिंतामणि छे, अने श्रीवीतरागनी मूद्रा ते मोक्षसुखनी हेतु छे, माटे भाव चिंतामणि समान छे, आत्मानी पोतानी अनंतज्ञानादिक संपत्ति आपयाने भाव चिंतामणि रत्न समान छे, माटे एहिज शिव सुखनुं घर छे, तत्त्व जे वस्तुनो मूलधर्म छे, ते स्वरूप आलंबवाने तुमारी मूर्ति श्रेष्ठ कारण छे, ॥ २ इति ।। जाए हो प्रभु जाए आश्रव चाल, दोठे हो प्रभु दीठे संवर वधे जी ॥ रल हो प्रभु रत्नत्रयो गुणमाल,
अध्यातम हो प्रभु अध्यातम साधन सधे जो॥४ __ अर्थः--बली जाय केतां नाश पामे आश्रव केतां नवां कर्म लेवानी चाल नाश पामे, तथा प्रभुजीनी मूर्ति दीठे, संवरनी वृफि थाय, आत्मधर्मरमणरूपता वधे, वली रत्नत्रयी केतां सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप जे गुणनीमाला केतां निर्मल श्रेणि ते जेहमां छे, एहवो अध्यात्मआत्मस्वरूप, तेहy साधन केतां नीपजाववानो उपाय ते सधे केतां नीपजे ॥ ४ ॥ मीठी हो प्रभु मीठो सूरत तुझ, दोटो हो प्रभु दोठी रुचि बहुमानथी जी। तुझ गुण हो प्रभु तुझगुण भासन युक्त, से हो प्रभु सेवे तसु भव भय नथी जी ॥५॥
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पंचदश श्री धर्मनाथजिन स्तवनं .
६८५
अर्थः- हे प्रभुजी ताहरी सूरत केतां थापना जे आकाररूप सुंदर मुद्रा दीठी ते घणीज मीठी केतां मिष्ट लागी पण केवी दीठी जे रुचि मोक्षाभिलाषयुक्त तथा बहुमान संयुक्त अत्यंत हरषे दीठी, जे आज हुं धन्य कृतपुण्य जेम वसुदेव हिंडमध्ये कां छे. कोविद्दु पुन्नविओ, वविओ पुब्वं च भव सहस्सेहिं | तेणं जिणवरदंसण, लंभोमयंच जे लखो ॥१॥ तेथी अहो वीतरागता ! अहोज्ञानता ! अहो उपकारता ! अद्भुतता ! आश्चर्यता जे हुं रंक दीन मोहेंमग्न असंयमीने ए प्रभु मुद्रानो योग बन्यो, ते घणीज मोटी वात थई एहवा बहुमाने दीठी, एहवी अरिहंतमुद्रा ते अरिहंतना केवल ज्ञानादिक गुण जे अनंत चतुष्टय तेहना भासन उपयोग युक्त जे जीव सेवे, पर्युपासना द्रव्य तथा भावयी करे तेने भव केतां संसारनो भय नथी, जे अरिहंतनी भक्ति करे ते संसार भ्रमण करे नहीं ॥ उक्तं च || इक्को वि नमुक्कारो, जिणवर वसहस्स वद्धमाणस्स || संसारसागराओ, तारेइ नरं व नारि वा ॥ १ ॥ इति वचनात् ||५|| इति पंचम गाथार्थः ॥
नामे हो प्रभु नामे अद्भुत रंग, ठवणा हो प्रभुठवणा दीठे उल्लसे जी ॥ गुण आस्वाद हो प्रभु गुण आस्वाद अभंग, तन्मय हो प्रभु तन्मयतायें जे धसे जी ॥ ६ ॥
अर्थः-- वली हे प्रभु तमारूं नाम सांभलवायी अद्भुत केतां विस्मयभूत रंग उपजे, वली हे देव! ताहरी परमोपकारी थापना दीठायी उल्लास थाय छे. माटे थापना परमो -
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दे. चो० बा०
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पकारी छे, जे दीठे पोतानुं स्वरूपपणुं सांभरे वली थापनाने निमित्ते गुण जे अनंत चतुष्टयादिक, परम निर्मल यथार्थोपदेशादिक वचनातिशय अशोक वृक्ष, इंद्रध्वजादिक देखीने अभंग गुणनुं आस्वादन थाय ते गुण आस्वादन केवो छ तो के अभंग छे ते कोने नीपजे के जे जीव, तन्मयतापणे श्रीप्रभुना गुणथी धसे, तेहने नीपजे तेनेज इत्यादिक वातोनो आनंद थाय ।। इति षष्ठ गाथार्थः ॥६॥ गुण अनंत हो प्रभु गुण अनंतनो वृंद, नाथ हो प्रभु नाथ अनंतने आदरे जी॥ देवचंद्र हो प्रभुदेवचंद्रने आणंद, परम हो प्रभु परम महोदय ते वरे जी ॥७॥
अर्थः-एम ज्ञानादिक अनंत गुणना बंद केतां समूह एहवा नाथ केतां श्री अनंतनाथ स्वामी तेने जे आदरे, उपादेय करे, ते प्राणी देवचंद्र जे स्तुति कर्ता अथवा देवचंद्र ते चोसठ इंद्र तेहने आनंद केतां परमानंदमयी एवो जे परममहोदयवंत मोक्षरूप स्थानक ते भक्तिवंत जीव वरे केतां पामे ए नियामक छे. ए प्रभुजीने सेवतां कर्म क्लेशयी रहित थाय ॥ ७ ॥ इति चतुर्दश श्री अनंत जिन स्तवनं संपूरणम् ॥ १४ ॥
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पंचदश श्री धर्मनाथजिन स्तवनं. ६८७ ॥ अथ पंचदश श्री धर्मनाथजिन स्तवनं ।
॥ सफल संसार अवतार ए हुं गणुं ए देशी ॥ धर्म जगनाथनो धर्म शुचि गाईऐं, आपणो आतमा तेहवो भावियें ॥ जाति जसु एकता तेह पलटे नहीं, सुद्ध गुणपज्जवा वस्तु सत्तामयी ॥१॥
अर्थः--हवे श्रीधर्मनाथ भगवाननी स्तुति करे छे अने आत्मद्रव्यने साधकता बावकतानो उपयोग आणे छे. तिहां धर्म एहवे नामें पन्नरमा तीर्थकर जगदुपकारी परमतत्त्वी जगत्ना नाथ, तेहने परमहितकारी धर्म प्रगट्यो छे, ते आत्म स्वभावी धर्म छे. ॥ उक्तं च ॥ संग्रहण्यां ॥ जो पुण आय सहावो, धम्मोपगिरस इत्यादि अथवा उभयरकयहेऊ इत्यादि पुनः भावधर्माधिकारे ॥जीवाणं भावधम्मो, कम्माभावेण जोखलु सहावो ।।इत्यादि।। कम्मविम्मुक्कसरूवो, आणिदियत्ता अत्थिज्जभेजाओ ॥ रूवादि विरहतो वा, अणाइ परिणाम भावाओ ॥१॥ इत्यादिधमस्य स्वरूपं उक्तं ॥
एहवो श्रीधर्मनाथ स्वामीनो धर्म शुचि केतां पवित्र निरावरण परानुयायीपणारहित तेने गाइये, वारंवार संभारीये, तत्त्वप्रगटरूप ते स्तवियें, अने पोतानो आत्मापण तेहवोज भावीयें, केतां विचारीयें, एटले जेहवो धर्म नाथस्वामीनो धर्म छे, तेहवोज अमारो आत्मानो धर्म छे. तथा च सिद्धप्रा
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६८८
दे० चो० बा०
मृतटीकायां ॥ जारिस सिद्धसहावो, तारिसभावो हु सङ्घ जीवाणं || तेणं सिद्धंतरूड, कायद्या भवजीवेहिं ॥ १ ॥ तथा च तत्त्वाथेटीकायां ॥ जीवोजीवत्वावस्थः सिद्धः इति ते माटे सिद्धपणं ते जीवनी पोतानी अवस्था छे, ईहां कोइ पूछे जे सिद्ध तथा संसारी सकर्मा, समोही, मिथ्यात्वी, असंयमीने तुल्य केम कहो छो. तेहने कहे छे. जे वस्तुनी जाती एकता पणे छे, ते किवारें पलटे नहीं. माटे जीव द्रव्यनुं, एहिज धर्म छे जे अनादिनो कर्मावर्त्त थयो तो पण पलटे नहीं, स्वजाति मुके नहीं, तो मारी तथा श्रीधर्मनाथ स्वामीनी जीवनीजाति एक हैं, श्रीठाणांगमा कां छे, एगेआया इत्यादि ते माटे यद्यपि अत्यंत मोहतीत्र अबोधमा पढ्यो, तो पण जीवत्वं संग्रह नये तेवोज छे जे शुद्ध निर्मल गुणपर्यायमयी वस्तुनी सत्ता छे, केमके सर्व पदार्थ गुणपर्याय संयुक्त छे, उक्तंच तत्त्वार्थे " गुणपर्यायवद् द्रव्यं ॥ इति ॥ " दवं पज्जवविऊअं, दबविउत्ता य पज्जवा नत्थि ॥ उप्पाय ठिइभंगाई, दवीय लख्खणं एयं ॥ १ ॥ इति संमतितः गाथा || उप्पज्जेति चयंति, परिणमंति गुणाण दवाए || दबंप्पज्जवाय गुणा, न गुणप्पज्जवादवा ॥ १ ॥ अपज्जवे जाणणा नत्थी, तथा आवश्यक नियुक्तौ ॥ गुणाणामासओदवं || एगदवसिया गुणा ॥ लख्खणं पज्जवाणं तु, उभओ निस्सिया भवे ॥ १ ॥ इति उत्तराध्य - यने ॥ ते माटे जीवादिक वस्तुनी सत्ता, शुद्धगुणपर्यायमयी छे, यद्यपि जीव अशुद्धपरिणामी छे, अने ज्ञानादिक गुणसर्व, कर्मे आवर्त्त छे, तो पण सत्तायें शुद्ध छे, निरामय छे. माटे आपणो आत्मस्वरूप, ते श्रीधर्मनाथस्वामी समान विचारो एहज तत्त्वावलंबनी थवानो मार्ग ले ॥ १ ॥ इति प्रथम० ॥
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पंचदश श्री धर्मनाथजिन स्तवनं. नित्य निरवयव वली एक अक्रियपणे, सर्वगत तेह सामान्यभावे भणे ॥ तेहथी इतर सावयवविशेषता, व्यक्तिभेदे पडे जेहनी भेदता ॥२॥
अर्थः-हवे सामान्य विना वस्तुनी छती आधारसा नहीं, अने विशेषविना कार्य नहीं, पर्यायप्रवृत्ति नहीं, ते माटे पंचास्तिकाय ते सामान्यस्वभाव अने विशेषस्वभावमयी छे, तिहां सामान्य स्वभावनुं लक्षण कहे छे. जे नित्य अविनाशी तथा नित्य होय, पण आकाशनी परें निरवयव होय, ते माटे कयो जे निरवयव जेहने विभाग अंश नथी, ते पण एकज पण जेमां बेपणो नहीं स्वजातिमां द्विधाभाव नहीं ते एक, पण जाणवारूप अथवा परस्पररूप क्रिया करे नहीं, तेथी अक्रिय, ते पण कोइपर्यायमां व्यापे, कोई पर्यायमां न व्यापे, तेहवा नहीं पण सर्व पर्यायमां व्यापेज ए लक्षण जेहमां छे, तेहने सर्वज्ञ देवें सामान्यस्वभाव कह्यो छे. ए सामान्यलक्षण श्रीविशेषावश्यकें कडं छे. एगं निच्चं निरवयव, मक्कियं सबग्गं च सामन्नं ॥ ए गाथाना व्याख्यानयी जाणवो. तिहां भावना जे नित्यपणुं सामान्य धर्म छे ते पदार्थमां नित्यपणुं सदा छे, ते नित्यपणाने पर्यायप्रदेशरूप अवयव नयी, ते नित्यपणुं सर्व एकज छे, अने जाणवादिक कोई क्रिया करतो नथी, तेथी अक्रिय छे, ते नित्यपणुं प्रदेशमां, गुणमां, पर्यायमां, सर्वमां व्यापक छे, तेथी सर्वगत छे, एटला लक्षणने पहोंचे, ते माटे नित्यपणुं ते सामान्य छे, एम अनित्यत्वादिक पण सर्व सा
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दे० चो० बा०
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मान्य स्वभावमां जाणवू. हवे विशेष स्वभावनुं लक्षण कहे छे. ते सामान्ययी इतर केतां बीजा जे सावयव केतां सप्रदेशी अविभागपर्याय संयुक्त अनेक अनिय सावयव, सक्रिय, ते विशेष स्वभाव जाणवो, पण व्यक्ति जे पदार्थ तथा गुणांतर तेहना भेदे जेहनी भेदता केतां जुदापणुं पडे, एटले सर्वव्यक्तिने विषे विशेषपणुं जुहूं जुईं छे. माटे विशेषनी सर्वत्र जुदायी छे, ते विशेष स्वभावमां ज्ञानादिकगृणना भेद जाणवा. ए सामान्यविशेषतुं लक्षण कयु. ए सामान्यविशेषसत्तामयी द्रव्य छे. ॥ एकता पिंडने नित्य अविनाशता, अस्ति निज रुद्धिथी कार्यगत भेदता, भावश्रुत गम्य अभिलाप्य अनंतता,
भव्यपर्यायनी जे परावर्तिता ॥ ३ ॥ . अर्थः--ए सर्व धर्मनाथ प्रभुनो धर्म छे. हवे सामान्यस्वभावनां लक्षण कहे छे. १ प्रथम एकता केतां एक स्वभाव ते जे पिंड केतां पिंडपणुं ते द्रव्यना सर्वप्रदेश, गुण, पर्याय, तेहनो समुदाय ते एक पिंडरूप छे, पण, भिन्नरूप वर्ततो नथी, तेने एकस्वभाव कहिये.
२ बीजो नित्य अविनाशता केतां अभंगुरतापणं ध्रुवपणुं तद्भावाव्ययं नित्यं इतितत्वार्थवचनात्, ते द्रव्यमां बीजो नित्यस्वभाव कहिये.
३ चीजो सर्वद्रव्यपोताने स्वभावेंछता छे, पण कोई काले
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पंचदश श्री धर्मनाथजिन स्तवनं.
पोतानी ऋद्धिने मूकता नथी, ते द्रव्यमां पोतानी ऋद्धिथी बीजो अस्तिस्वभाव कहिये.
४ चोथो भेदस्वभाव ते कार्यगत छे, एटले जे ज्ञानादिक गुण ते सर्व पोता पोताना कार्यने करे छे. परंतु एकगुण ते बीजा गुणना कार्यने करतो नथी, ज्ञान ते जाणवारूप कार्यने करे छे, दर्शन, ते देखवारूप कार्यने करे छे, तथा चारित्र ते रमणतारूप कार्यने करे छे, भोगगुण ते भोग्यने करे छे, इत्यादिक कार्यना भेदें द्रव्यमां चोथो भेदस्वभावपणुं छे.
५ पांचमो अभिलाप्य स्वभाव छे, ते वचनयी कहि शकाय तेहवा पण आत्मद्रव्यमां अनंता धर्म छे, जे भाव श्रुतज्ञाने करी जणाय माटे श्रुतज्ञाननी शक्तिपण अमिलाप्य भाव सीम छे, ते पांचमो स्वभाव छे.
६ छठ्ठो सर्व द्रव्यमा पर्यायनी परावर्तिता केतां पलटणता छे, ते भव्य स्वभावकहिये. ए छ स्वभाव, द्रव्यमां, गुणमां, पर्यायमां छे, माटे ए छने सामान्यस्वभाव कहियें ॥३॥ ॥ इति तृतीय गाथार्थः ॥
क्षेत्र गुणभाव अविभाग अनेकता, नाशउत्पाद अनित्य परनास्तिता ॥ क्षेत्र व्याप्यत्व अभेद अवक्तव्यता, वस्तुते रूपथी नियत अभव्यता ॥ ४ ॥
अर्थः---वली सामान्य स्वभाव कहे छे. त्यां पेहेलो अनेक स्वभाव ते जे क्षेत्रना अविभाग प्रदेश तेथी पदार्थ अनेक स्वभावी
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दे० चो० बा०
छे, तथा गुणाविभाग जे एकएकगुणना अनंता अविभाग छ, जेम चारित्रना अविभाग संयमश्रेणीमां कह्या, वीर्यना अविभाग योगस्थान अधिकारें कम्मपयडीमां का छे, तेमाटे गुणाविभागपणे पण अनेक स्वभाव छे. एक एक द्रव्यमां अनंतागुण छे, ते वली एकेका गुणमां अनंता गुणाविभाग छ, ते अनेक स्वभावता छ, तथा भावाविभागे जे पर्याय धर्म ते ज्ञानादिक गुणना अनंता पर्यायनी सूक्ष्मता गहन छे, ते पण अनेक स्वभाव छे, एटले क्षेत्रे तथा गुणें अने पर्यायें सर्व रीतें द्रव्यमां अनेकता छे.
२ बीजो नाश केतां व्यय तथा उत्पाद केतां उत्पाद ए परिणति ते सर्व द्रव्यमां अनित्य केतां अनित्यस्वभाव छे.
३ त्रीजो पर केतां आपणथी बीजा जे द्रव्य तेहना धर्म ते अन्यद्रव्यमां नथी एटले एक द्रव्यना जे धर्म ते बीजा द्रव्यमां न पामी, ते द्रव्यमां नास्तिता केतां नास्तिस्वभाव छे.
४ चोथो आत्माना सर्व गुणपर्याय ते मिन्नमिन्नकार्य करे छे, परंतु क्षेत्र केतां भाजन ते सर्वनो आत्मा छे, माटे गुणपर्यायनी अनंतता छे, पण कोई मूलद्रव्यने तजी शकतो नथी, एकक्षेत्रे एकाधारपणे व्याप्यत्व केतां अवगाही रह्या छे ते द्रव्यमां अभेदता केतां अभेदस्वभाव छे.
५ पांचमो वली वस्तुने स्वरूपें केवल ज्ञानगम्यपणे वचने अगोचर अनंतधर्मात्मक पणे द्रव्यनुं अनमिलाप्यपणुं ते अवक्तव्यस्वभाव छ, उक्तं च ॥ श्रीविशेषावश्यके ।। अमिलाप्य भावेभ्यः अनमिलाप्या अनंतगुणा इति ॥
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पंचदश श्री धर्मनाथजिन स्तवनं.
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६ छटो अनेक पर्यायनोपरावर्त छे, पण वस्तुना मूलरूपथी पलटे नहीं, ते रूज रहे छे, ए नियतपणा माटे व. स्तुमां अभव्यस्वभाव छे.
ए सर्व खभाव सम्मतितर्क तथा धर्मसंग्रहणीना व्याख्यानथी जोवा, ए सामान्यस्वभाव छे ते पदार्थनो द्रव्यास्तिकमूलधर्म छे, एहवा परिणमनपणाथकी सर्व पदार्थ स्याद्वादि कहेवाय छे, जे समय एक ते समये अनेक, जे समये नित्य ते समय अनित्य, जे समये अस्ति, ते समय नास्ति, जे समय मिन्न ते समय अभिन्न, जे समय वक्तव्य, ते समये अवक्तव्य, जे समयें भव्य ते समये अभव्य इत्यादिक एम वली एक अनेक नित्यानित्यादिक एक एक स्वभावनी सप्तभंगी थायें. तेवा अनंता स्वभावें अनंतीसप्तभंगीयो द्रव्यनेविषे थाय, ते स्याद्वादरत्नाकरावतारिकामां कडं छे. जे " नित्यानित्याद्यनंतस्वभावभेदतः प्रतिधर्मे भिन्नाभिन्ना सप्तभंगी एवमनंताः सप्तभंग्यो भवंति इति॥" तथा च श्रीजिनवल्लभसूरिवाक्यं ।। बहुविह नयभंग, वत्युणिचं अणिचं ॥ सदसदनमिलाप्पा, लाप्पमेगं अगं ॥१॥ इति ॥ ए स्वभाव महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी स्वकृतद्रव्यगुणपर्यायना रासमध्ये समा छे, तिहांयी जोई लेवा ॥ ४ ॥ इति चतुर्थ गाथार्थः ॥ धर्म प्रागभावता सकल गुण शुद्धता, भोग्यता कर्तृता रमण परिणामता ॥ शुद्ध स्वप्रदेशता तत्त्वचैतन्यता, व्याप्य व्यापक तथा ग्राह्य ग्राहकता ॥५॥
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दे० चो० बा० अर्थः--हवे विशेष स्वभाव कहे छे. द्रव्यनो धर्म जे ज्ञानादिक तेहनी प्राग्भावता केतां प्रगटपणुं ते आविर्भावधर्म, बीजो ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि, सर्व गुणनी शुद्धतायें सर्व स्वगुणतुं भोगीपणुं ते भोग्यता धर्म तथा कर्तृता केतां कर्तापणुं सर्व प्रदेशकार्यानुगत समुदायप्रवृत्ति कार्योत्पादकं कर्तृत्वं ते धर्मास्तिकायादि द्रव्यने प्रदेशे प्रदेशे चलनादिसहायरूप कार्यनो थावो, ते भिन्नभिन्न प्रदेशने आश्रयें छे. अने जीवद्रव्यनुं जाणवा देखवारूप कार्य, ते सर्व, असंख्यप्रदेशना मलवायी छे, ते माटे जीव द्रव्यने विषे कर्त्तापणुं विशेष स्वभाव छे. वली रमण जे कोईकने विषे रमवु तथा परिणामिकता जे परिणामिकपणुं ते शुद्ध स्वप्रदेशीपणुं ते पण विशेष स्वभाव छे, तथा तत्त्व केतां वस्तुमां मुलधर्मे जे चैतन्यता ते पण विशेष स्वभाव छे, व्याप्य व्यापकपणुं तथा ग्राह्य ग्राहकपणं तथा आधाराधेयपणुं संरक्षणपणुं स्वस्वामिभावादिक ए सर्व विशेष स्वभाव जाणवा. ए रीतें सामान्य स्वभाव तथा विशेष स्वभाव, ते सर्व श्रीधर्मनाथ परमेश्वरना निर्दोष थया, तेहमां पण सामान्यस्वभाव तो निर्दोष सदा हता, परंतु पर संयोगे विशेष स्वभावनो द्विधाभाव थयो हतो, ते हेश्री धर्मनाथ प्रभुजी तुमे स्वरूपालंबनी थई करणगुणे जे ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अने वीर्य, तेहने स्वरूपथी एकत्व करी, स्वरूप प्राग्भाव करी, स्वरूप कर्या छे, माटे निरामय थया छो॥५॥ ॥ इति पंचम गाथार्थः ॥ संग परिहारथी स्वामि निजपद लद्यु, शुद्धआत्मिक आनंदपद संग्रा ॥
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पंचदश श्री धर्मनाथजिन स्तवनं. ६९५ जहवि पर भावथी हुं भवोदधि वस्यो, परतणो संग संसारताये ग्रस्यो ॥६॥
अर्थः--हवे एहवी अनंत गुण निर्मलता प्रभुजीने जे रीतें नीपनी, ते रीत कहे छे, हे देव, हे परमेश्वर ! तुमे पुद्गलादिकनो संग सर्वथा परिहार केतां त्याग कर्यो, तेहथी निज केतां पोतार्नु परमपद अव्याबाधानंदरूप चिद्रूपावस्थानरूप लयं. केतां पाम्यो माटे तमे शुद्ध केतां निर्मल आत्मिक केंतां जे आत्म द्रव्यनो आनंद अव्याबाधादिकते संग्रह्यु केतां लाधो अने हे प्रभुजी! जहवि केतां जो पण ढुं परभावथी केतां परभाव निमित्त पामीने परभावरूप परणमीने, वर्तमान परानुयायी भवोदधि केतां भवसमुद्ने विषे वस्यो छु, भवनिवासी थयो छु, तेथी पुद्गलादिकने संगे संसारता भावथी नवं नवं अध्यवसायीपणं पामीने द्रव्ययी चारगतिरूप संसारमा संसरखापणे करीने ए माहारो आत्मा ग्रस्यो के. एटले ए संसारे मुझने ग्रास करी लीधो छे, माटे हे देव ! तुमे असंगी, हुं संगी, तुमे मुक्त, हुं बद्ध, तुमे अकर्मा, हुं कर्माश्रित तुमे स्वरूपभोगी, हुं पुद्गलभोगी, तुमे स्वगुणपरिणामि, ९ पुद्गलाश्रित रागद्वेष परिणामि, तेथी हे प्रभु ! माहारे तो माहरी भूलथी कोइक नQ जे सत्तामा कर्त्तापणामां, परिणामिकतामां न हतो ते नीपनो, ए अशुद्धक"पणुं में कर्यु, तेहथी स्वगुण आवरी ने पुद्गलनो ग्राहक थयो, ते पुद्गलने लेवायी माहरो आत्मा पुद्गलभोगी थयो, एटले ताहरे माहरे अंतर पडी गयो, तेथी हुँ संसारी छं अने तमे सिद्ध ध्येय छो, इति षष्ठ गाथार्थः ॥ ६ ॥
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६९६
दे० चो० बा०
तहवी सत्तागुणे जीव ए निर्मलो, अन्यसंश्लेष जिम फिटक नवि सामलो॥ जे परोपाधिथी दुष्टपरिणति ग्रहो, भाव तादात्म्यमां माहरूं ते नही ॥ ७ ॥
अर्थः--तोपण सत्तागुणे द्रव्यास्तिक संग्रह नये ए माहरो जीव निर्मल छे, निष्कलंक छे, असंगी छे, अरूपी छे, कोण दृष्टांते ? जेम श्यामादिक पुटसंयोगे फटिक रत्ननो दल श्याम दीठामां आवे छे परंतु फटिक कांइ श्याम थयो नथी, पण अपरीक्षक लोक तेने श्याम जाणे छे, पण जाते जेहवो हतो तेहवोज छे, तेम कर्मसंगे आत्मा अशुद्धरूप देखाय छे, परंतु तत्त्वज्ञानी एने जाते निर्मलज जाणे छे, तेम श्रद्धावंत पण निर्मल जाणे छे अने जे परउपाधियी दुष्टपरिणति कर्मकर्ता पणारूप ग्रहीने तादात्म्यभावमां तादात्म्यसंबंधे करी छे, ते सर्व उपाधिकभाव माहरो नथी, संयोगे संबंध मल्यो छे, परंतु समवायसंबंधे नथी जे विभाव ते तदुत्पत्तिसंबंध छे परंतु तादात्म्यसंबंधे नथी, एम भावq ॥ इति सप्तम गाथार्थः ॥ ७ ॥ तिणे परमात्मप्रभु भक्ति रंगी थइ, शुद्धकारण रसे तत्व परिणति मयो ॥ आत्मग्राहकथये तजे पर ग्रह्णता, तत्त्वभोगी थये टले परभोग्यता ॥ ८ ॥ अर्थः--माटे ए विभावपरिणति ते माहरो मूलधर्म नथी,
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पंचदश श्री धर्मनाथजिन स्तवनं.
६९५
तेथी एने निवारी यें, तो जाये तेवारे ए माहरो आत्मा स्वरूपावस्थित थाय, एम विचारी तेहनो उपाय चिंतवे छे. जे ए संसारी आत्मा परानुगत थइ रह्यो छे, तेहने जो हमणां स्वरूपथी जोडीएं, तो टकी शके नही, अने परविजातियी जोड्यो थको बंधने वधारे छे, माटे परस्वजाति जीव जे अमोही, शुद्धज्ञानी तेथी जोडीयें, तो स्वजाति स्वरूप रंगी थाय. पछी अरिहंतनुं स्वरूप तथा आपणा आत्मानुं स्वरूप तुल्य छे, तेथी तेहना स्वरूपें रसिक थाय, तो पछी कर्मे आवर्यों पण, आत्मस्वरूपनी रुचि उपजे, ते रुचिथी पोताना स्वरूपने सर्दहे, जाणे, रमे, उद्यम करे, परभाव तजे ए अनुक्रमथी संपूर्ण स्वरूप पामे, तेमाटे परमात्मा प्रभु श्रीधर्मनाथजीना भक्तिनो रंगी थइने शुद्ध कारणने रसे आत्मा तत्त्वपरिणतिमां मग्न थाय, पोता, आत्मस्वरूप जोवे, ध्यावे, संभारे तथा तेहनेज प्रगट करवाना यत्न करे, एवी रीते जेवारे आत्मानो ग्राहक थाय, तेवार अनादिनी परग्राहकता तजे, केम जे आत्मस्वरूपनो ग्राहक थयो, ते परभावने ग्रहे नहीं, जेटली आत्मपरिणति आत्मधर्मे ग्राहक थइ ते कर्मादिक न ले तेने संवरपरिणति कहियें, वलीतत्त्वभोगी थये, परभोगीपणुं टले, तेवारें आत्माने भोगवे ॥८॥ शुद्ध निःप्रयास निजभाव भोगी यदा, आत्मक्षेत्रे नही अन्य रक्षण तदा । एक असहाय निस्संग निद्वता, शक्ति उत्सर्गनी होय सहु व्यक्तता ॥ ९॥ 88
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दे० चो० बा०
. अर्थः-जेवारें शुद्ध पुगल संगरहित निःप्रयास निजभाव केतां आत्मभावनो भोगी थयो, तेवारें आत्मप्रदेशे अन्य केतां पुद्गलकर्म तथा रागादिकनुं रक्षण केतां राखवो नथी, एटले स्वरूप ग्राहक चेतनानुं वीर्य थाये, तेवारे पुद्गल कर्म आत्मप्रदेशे संबंधीपणे रहे नहीं, सर्व पुद्गलखरीने आत्मा निःकर्मा थाय, तेवारे एक सर्वसंग रहित, असहायी, निद्वंद्व उत्सर्गनी शक्ति सहित व्यक्तता केतां प्रगटता निरावरणपणं पामे ।। ॥ इति नवम गाथार्थः ॥ ९ ॥ तेणें मुझ आतमा तुझथकी नीपजे, माहरी संपदा सकल मुझ संपजे॥ तेणें मन मंदिरे धर्म प्रभु ध्याइयें, परमदेवचंद्र निज सिद्धि सुख पाइयें ॥ १०॥
अर्थः तेथी हे देव हे श्रीवीतराग ! तुमारे निमित्ते माहारो तत्त्व नीपजे, बीजो कोई उपाय देखातो नथी, माहरा आत्मानुं सिद्धपणुं ते ताहारा स्वरूपने अवलंबे नीपजे, माहरो अनंतगुणपर्यायरूप स्वकर्तीपणुं स्वभोक्तापणुं स्वरूप ऐश्वर्य सर्व जे मोहाधीन कर्मावृत्त छे, ते मुने संपजे, एटले हुँ माहारी अरूपी सत्तागत तत्त्वसंपदानो धणी तथा भोगी, अविनाशीपणे थाऊं, ए प्रभुजीनो परम उपकार जाणं, ते कारणे मनमंदिरने विषे श्रीधर्मनाथ प्रभुने ध्याइएं, क्षण एक बीजी उपाधिचिंतविएं नहीं, ए प्रभुना गुण तथा उपगारनुं बहुमाने ध्यान करिये, नवा साधकने एहिज आधार छे, तेवारे परम उत्कृष्ट देव जे स्वरूपरमणी मुनि तेहमां चंद्रमा समान जे
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षोडश श्री शांतिजिन स्तवनं. ६९९
.------- परमात्मपदरूप निज केतां पोतानुं सिद्धि केतां निष्पन्नसुख, अव्याबाधादिक तेने पाइये केतां पामियें, एहीज मोक्षनो उपाय छे, तेमाटे श्रीअरिहंतनु सेवन निरनुष्ठानपणे करवू ॥१०॥ ॥ इति श्री धर्मजिन स्तवनं संपूर्णम् ॥
॥अथ पोडश श्री शांतिजिन स्तवनं ॥ ॥ आंखडीये में आज सेजो दीठो रे ॥ए देशी॥
जगतदिवाकर जगतकृपानिधि, वाहाला मारा समवसरणमां बेठारे ॥ चउमुख चउविह धर्म प्रकाशे, ते में नयणे दीठा रे ॥ भविक जन हरखो रे ॥ निरखी शांति जिणंद ॥ भ०॥ उपशम रसनो कंद ॥ नहीं इण सरखो रे ॥ ए आंकणी ॥१॥
अर्थः--हवे सोलमा जिन श्रीशांतिनाथ प्रभुनी स्तवना कहे छे. ते प्रभु केहवा छे ? जगत्ने विषे दिवाकर केतां सूर्यनी परें ज्ञानेकरी उद्योतना करनार तथा कृपाना निधि एहवा प्रभुते मुझने परमवल्लभ छे. समवसरणमां बिराजमान थका चार मुखे करी चार प्रकारना धर्मने प्रकाशे केतां उपदेश करता थका, एवा तीर्थकर देव श्रीशांतिनाथ प्रभु ते में
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दे० चो० बा०
नयणे केतां आगम श्रवण रूप चक्षुए दीठा, माटे हे भविक जीवो ! तुमें जिणंद केतां सामान्यकेवलीमां इंद्रसमान एहवा श्रीशांतिप्रभुने निरखीने हरखवंत थाओ. उपशम जे परमक्षमा तद्रूप जे रस तेनु ए कंद छे, एना तुल्य बीजो कोइ नयी, ए प्रभु परम शांतरसमयी छे. ॥ इति प्रथम गाथार्थः ॥१॥
प्रातिहार्य अतिशय शोभा ॥ वा० ॥ ते तो कहिय न जावे रे ॥ घूकबालकथी रविकरभरखें, वर्णन केणी परे थावे रे ॥ भ० ॥२॥
अर्थः--वली प्रभुनी जे आठ प्रातिहार्यनी तथा चोत्रीश अतिशयनी शोभा ते मुज सरिखा व्यामोहि जीवथी कहीं जाय नहीं. दृष्टांत-जेम चूकबालकथी केतां वडना बालकथी रविकर केतां सूर्यना किरणोनो भर केतां समूह तेहनुं वर्णन केवी रीतें थाय ? अर्थात् नहींज थाय, तेम मुज सरखाथी पण प्रातिहार्यादिकनी शोभा कही जाये नहीं. इति ॥२॥
वाणी गुण पांत्रीश अनोपम ॥ वा०॥ अविसंवाद सरूपे रे ॥ भवदुःखवारण शिवसुखकारण, सुधो धर्म प्ररूपे रे ॥ भ० ॥ ३ ॥
अर्थः-वली प्रभुनी जे वाणी तेहने विषे उपमा रहित पांत्रीश गुण रह्या छे, ते वाणी विसंवादपणाथी रहित अविसंवाद
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षोडश श्री शांतिजिन स्तवनं.
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स्वरूपमयी छे, ते वाणीयें करीनें भव्यजीवोना भव केतां संसारना दुःख निवारखाने अर्थे अने शिव केतां मोक्षसुखना
लकारणने अर्थ सूवो केतां यथार्थ धर्मनी प्ररूपणा श्रीप्र भुजी समवसरणमा करे छे । इति तृतीय गाथार्थः ||३||
दक्षिण पश्चिम उत्तर दिसिमुख ॥ वा० ॥ ठवणा जिन उपगारी रे ॥
तसु आलंबन लहिय अनेके, तिहां थया समकित धारी रे ॥ भ० ॥४॥
अर्थः-- ते समवसरणमां पूर्वदिशि सन्मुखना बारणें तो श्री तीर्थकर पोते मलगेरूपें बेसे, अने दक्षिण पश्चिम तथा उत्तरदिशिने चारणे श्री अरिहंतना प्रतिमाबिंब बेसे, ते प्रतिमारूप ठेवणा जिन केतां थापना जिनछे ते उपगारी छे, तेहनुं पण आलंबन पामीने अनेक जन तिहां समवसरणने विषे समकेत धारी थया, एटले त्रतना लेनार ते पूर्वदिशिना बारणे
से, अने बीजी परिषदामध्यें जिनसेवनथी समकितनो लाभ छे, तेथी ए धन्यता छे ते थापनानिक्षेपानो उपगार छे ॥ इति चतुर्थ गाथार्थः ॥ ४ ॥
षट् नयकारज रूपें ठवणा ॥ वा० ॥ सग नयकारण ठाणी रे ॥
निमित्त समान थापना जिनजी, ए आगमनी वाणी रे ॥ भ० ॥ ५ ॥
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दे०
चो.
बा.
अर्थः-हवे वलीविशेष थापनानुं उपगारीपणुं तथा सत्यपणुं कहे छे, ते मध्ये श्रीअरिहंत तथा सिद्धजी पण आपणा आत्मना निमित्त कारण छे, अने श्रीजिनप्रतिमा ते पण आपणा तत्त्वसाधनहुँ निमित्त कारण छे, तेहमां थापना जिनने विष अरिहंतसिद्धपणुं छ नये छे, इहां कोई पूछे जे अरिहंत थया अथवा सिद्ध थया तेहनी थापना छे, तो सात नय मूकीने, छ नय केम कहो छो ? तेहने उत्तर कहे छे जे मूल तो थापनानिक्षेपामध्ये थापना ते त्रण नये छे " नाम स्थापनाद्रव्यनिक्षेपत्रयंनेगमादिनयवर्ति इति ॥ 7 अत उच्यते ॥ हवे इहां नामादि एकेक निक्षेपाना चार चार भेद थाय छ । उक्तं च भाष्ये ॥ नामादि प्रत्येकंचतूरूपं इति ॥१॥ तेथी प्रथम ए स्थान एहवं नाम स्थापनामांछे ते स्थापनानो नाम निक्षेपो छे, बीजो ए स्थापना ग्रहण हेतु थाय छे, ते स्थापनानो स्थापना निक्षेपो जाणवो. बीजो समुदायता अनुपयोगता ते स्थापनानो द्रव्य निक्षेपो जाणवो. चोथो आगारोमिप्पाओ ए धर्मने कारणिक थाये, ते थापनानो भाव निक्षेपो छे. एम थापना चार निक्षेपे छे, अथवा नत्थिनएहिं विहुणं, सुत्तोअत्थोयजिणमए किंचि ।। आसन्झओ सोयारं, नयेनयविसारओ बूआ ॥१॥ इति तेथी श्रीअरिहंत तथा सिजीनी स्थापना छे, ते माटे तेहना नय कहेछे.
१ जे स्थापना दिठे अरिहंत सिफ्नो संकल्प स्थापनामां थाय छ, अथवा असंगादि तदाकारता रूप अंश ए स्थापनामां छे, ते नैगमनय थापना.
२ अरिहंत तथा सिझना सर्वगुणनो संग्रह बुझि धरीने
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षोडश श्री शांतिजिन स्तवनं.
थापना करी छे, तेमाटे ए संग्रहनय अरिहंत सिद्धरूप स्थापना छे.
३ अरिहंतना आकारने वंदन नमनादि सर्व व्यवहार श्री अरिहंतनो थाय छे, तेहन कारणपणू ए थापनामां छे, ते व्यवहारनय थापना कहि ये.
४ ए प्रतिमारूप थापना देखी, सर्व भव्यने बुद्धिनो विकल्प एहवो उपजे छे, के ए श्रीअरिहंतजी छे ते विकल्पेंज स्थापना करी छे. ते ऋजुमूत्रनय स्थापना छे.
५ अरिहंतसिद्ध एहवो शब्द “ इदंप्रकृतिप्रत्ययसिद्धं " इहां प्रवृत्ते छे, ते शब्दनय स्थापना जाणवी.
६ अरिहंतना पर्याय वीतराग सर्वज्ञ तीर्थकर तारक जिन पारंगत जिन पारंगत इत्यादिक सर्व पर्यायनी प्रवृत्ति पण स्थापना मव्ये छे, ते समभिरूढनय स्थापना थइ परंतु केवलज्ञान केवलद , गला, उपदेशकता ते धर्म, स्थापनामां नयी माटे एवं नयन धर्म, ते ए स्थापनामां नथी, तेथी ए ठवणा केतां थापना ते कार्य केतां निष्पन्नता, अरिहंत, सिद्धतारूप ते घट केतां छ नये छे, एक एवंभूतनये नथी. केमके एवंभूतनय ते श्रीअरिहंत सिद्धने विषेज छे. तेमाटे कार्यपणे अरिहंत मध्ये पण छ नय छे. इहां स्थापना निक्षेपमां श्री विशेषावश्यके आदिना त्रण नय कह्या छे, अने इहां छ नय कह्या ते उपचार भावनायें कह्या छे. सममिरूढनुं लक्षण, वचनपर्यायवर्ति छे, ते लक्षण इहां पोहोचे छे, तेमाटे ए छ नय कह्या.
हवे ए श्री जिनप्रतिमारूप स्थापना ते समकिति, देश
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दे० चो० बा०
विरति, सर्वविरतिने मोक्षसाधननुं निमित्त कारण छे, ते निमित्त कारण सात नये छे, ते कारणनो धर्म कर्त्ताने वश छे. ते निमित्तकारणपं सात नयें छे, ते कहे छे.
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१ पहेलो संसारानुयायी जीवने ए जिनप्रतिमा दीठे अरिहंतनुं स्मरण थाय छे, अथवा जिनवंदने जीवनी सन्मुखता थाय छे. तेवारें सन्मुखतानो जे निमित्त ते नैगमनय निमित्त कारणपशुं छे.
२ जिन प्रतिमा दीठे सर्व गुणनो संग्रह थाय छे, साधकतानि चेतनादि सर्वनो संग्रह ते तत्त्वनी अद्भुतताने सन्मुख थाय छे, ते संग्रहनय निमित्त.
३ वंदन नमनादिक साधकव्यवहारनुं निमित्त ते व्यवहारनय निमित्त.
४ तत्त्वईहारूप उपयोग समवानो निमित्त ते ऋजुमूत्रनय निमित्त.
५ संपूर्ण अरिहंतपणाना उपयोगें जे उपादान ए निमित्तं तत्त्वसाधने परिणम्यो, ते शब्दनय, थापनानो निमित्त छे, समकिती प्रमुखने एहवो छे.
६ अनेक रीतें चेतनाना वीर्यनी परिणति, सर्वसाधनताने सन्मुख थइ ते सममिरूढनय स्थापनानुं निमित्त कारणपर्ण जाणवुं.
७ ए स्थापनानुं कारण पामी, तत्त्वरुचि तत्त्वरमणी थइने जे शुद्ध शुक्लध्यानमां परिणमे ते संपूर्ण निमित्त कारणता पामीने, उपादाननी पूर्ण कारणता नीपनी, ते एवंभूतनय निमित्त
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षोडश श्री शांतिजिन स्तवनं .
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कारणपणं छे, एटले निमित्त कारणनो ए धर्म छे, जे उपादाने कारणपणे पाडे, अने उपादान कारण ते कार्यपणे नीपजे. ए रीत छे.
तेथी जिनप्रतिमा ते मोक्षनुं निमित्त कारण छे, ते निमित्त सात नये छे. तेहमां शग्यंभवादिकने शब्दनय सीम, कारण धयुं, ज पुण्यरुचिने व्यवहारनय सीम, निमित्त कारणपं श्राय तथा मार्गानुसारी समकेतिनी आठ दृष्टि जे योगदृष्टि समुच्चयमां कही छे, तेमांनी आदिनी चार दृष्टि वालाने ऋजुनय सीम, निमित्त कारणपशुं थाय छे अने पुण्याढ्यादिकने ए जिनप्रतिमा संपूर्ण एवंभूतनये कारणरूप थइ देखाय छे. तेवारें इहां भावनायें ए थयुं जे थापनाने विषे संपूर्ण सात नयरूप निमित्त कारणता छे पछी कार्यनो कर्ता जिहां सुधी एहने नीपजावे, तेटलो नीपजे, तेथी ए स्थापना ते सगनय केतां साते नये करी कारणठाणी केतां निमित्त कारणपणानुं स्थानक छे, ते थापना श्रीअरिहंत पदना मूल तो द्रव्य अने भाव ए वे निक्षेपावंत छे, परंतु निमित्त कारणना चार निक्षेपा सातनय संयुक्त छे. उक्तं च ॥ निमित्तस्यापि सप्तप्रकारत्वनय प्रकारेण निमित्तस्य द्वैविध्यं द्रव्यभावात् ॥ तथोपादानस्यापि सप्तप्रकारत्वं नयोपदेशात्. " नो अभिहाणमणयं " इति वचनात् ॥ नत्थिनएहिं विदुणं, सुत्तं अत्योय जिणमए किंचि ॥ आसज्जउ सोयारं, नये नयविसारओ बूआ ॥ १ ॥ इति | माटे निमित्तपणे स्थापना केतां जिनप्रतिमा अने जिनजी केतां श्रीअरिहंत बेहु समान केतां तुल्यत्व छे. एटले विचरता अरिहंत तथा तेमनी स्थापना जे मूर्ति, ते बेहु समान केतां बरोबर छे, तेथी विचरता अरिहंत
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दे० चो० बा०
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तथा तेहनी स्थापना ए बे साधक जीवने निमित्त कारण छे, पण उपादान नथी सर्वमा निमित्तता ले, ए आगम केतां सिद्धांतनी बाणी छे, जे अरिहंतने नांद्यान नथा अरिहंतनी प्रतिमाने बांदवानं फल सिद्धांतकां सर का छे, माटे समान छे ॥ इति पंचम गाथार्थः ।।५।।
साधक नोन निक्षेपा मुख्य ।। बा० ॥ जेविण भाव न लहिये रे ॥ उपगारी दुग भाग्ये भांख्या, भाववंदकनो अहिये रे ॥ भ०॥६॥
अर्थः--अने, १ नाम, २ स्थापना, ३ द्रव्य ए त्रण निक्षेपा ते भावना कारण छे. उक्तं च भाष्ये ॥ अहवा नामठवणा, दवाई भावमंगलं आए ॥ पाएण भावमंगल, परिणामनिमित्त भावाओ ॥ १ ॥ माट ए ऋण निक्षेपा साधक केतां कारण छे, ए त्रण निक्षेपा विना भावनिक्षेपो थायज नहीं, अने नाम तथा स्थापना ए बे निक्षेपा भाष्यने विषे उपगारी कया छे, ते कहे छे, जे व्यनिक्षेपो छे, ते पिंडरूप छे, माटे ग्रहवाय नहीं, अने भावनिक्षेपो तो अरूपी छे, ते आद्यना नाम तथा स्थापना के निक्षेपा विना ग्रहवाये सेवाये, नहीं. तेमाटे आदिना निक्षता ते उपकारी छे, उक्तं च ॥ वासनामं, य समा || वत्थु नाणा विहाना, होजा भाबोधिवासो । १ ॥ अन्शुरना लरकणस, ववहा गड बाजो ॥ मिहा माहिमानो, बुद्धिस्दो अकिरियाय ॥ २ ॥ इति वाचात् नाम्नःप्रधानत्वं
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षोडश श्री शांतिजिन स्तवनं.
॥
|| गाथा || आगारोभिप्पाओ बुद्धिकिरियाफलं च पाएणं || जह विसइ ठवणाए, न तहा नामे न दबिंदो ॥ १ आगारोच्चियमई, सवत्थुकिरियामिहागाई || आगारमयं सवं, जमणागारा तया नत्थि ॥ २ ॥ इत्यादि तेमाटे नाम तथा थापना ए वे निक्षेप उपगारी छे, अने मोक्षसाधवामां संवर निर्जरा करवाने तो बंदकनो भाव जे छे ते ग्रहवो, केम जे श्री अरिहंतनो भावनिक्षेपो तो श्री अरिहंतने विषेज छे, ते जो परजीवने तारे तो कोइ जीवन संसारमां रहें पडेनहीं, तेतो थातो नयी, परंतु आपणो भाव अरिहंतालंबनी थाए, तो मोक्षमार्ग लहियें, तेमाटे प्रभुनी थापना तथा नामना निमित्त पण साधकनो भाव समरे, तेथी नाम तथा थापना ए बेज उपगारी छे, बलीसमवसरणमां बिराजमान श्री अरिहंत तेनुं पण नाम तथा आकार, सर्व जीवने उपगारी थाय छे, तेहीज छद्मस्थने ग्राह्य छे, अवलंबियें तेमाटे नाम तथा थापना प्रमाण छे, निमित्तालंबी रूपी ग्राहकने श्रीजिन थापना ते पुष्ट निमित्त छे || इति षष्ठ गाथार्थः ॥ ६ ॥
ठवणा समोसरणे जिनसेंति ॥ वा० ॥ जो अभेदता वाधी रे ॥
ए आत्माना स्वस्वभावगुण, व्यक्तयाग्यता साधी रे ॥ भ० ॥ ७॥
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अर्थः- ते माटे टवणा समोसरणें एटले मूलगो समोसरण तो श्री जिनराज विचरता हता ते कालें तो उ माहरो जीव, कोई गत्यंतरां हतो, ते हृमणां जा भवमां समोसर
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. दे० चो० बा०
merememmmmmmmmmmmmmm णनी थापना करी, तिहां जिनमुद्रा देखीने, जिनराजना गुणावलंबी चेतना करी पछी ते सेवना करतां प्रभुजी सिद्धावस्थारूप परम अनंतगुणीना स्वरूपयी जे माहरी चेतनानी अभेदता एकत्वपरिणामता ते वाधि केतां वधी, तेवारें ए आत्माने एहवो अनुमान सध्यो, जे तत्वीदेवथी अभेदपणुं बहुमानपणे भल्युं तो एम जाणु छ जे ए माहारो आत्म स्वस्वभाव अनंत ज्ञानादिपूर्णानंद गुणनी व्यक्त केतां प्रगटतानुं थर्बु तेहनी योग्यता साधि, एम अनुमाने निरधारी, एटले ए जीव सदा सर्वदा विषयरंगी हतो, ते तत्त्वी प्रभु निर्विषयीने रंगें रम्यो, तो कोइक अवसरे स्वरूपरमणी थाशे एहवं अनुमान थयुं जो कारणथी अभेद थयो, तो कारज नीपजाबशे ए पलटवापणं अनंते काले न थयुं हतुं ते थयुं, तो ए द्रव्यमां पलटवानी योग्यता छे, अनादिनी चालथी पलटवु ए भव्यतापणाना लिंगर्नु अनुमान तो थाय छे, एटले भव्यपणं जणाय छे, ए भक्तिनी बहुलतायें हर्षनें वचन छे ॥७॥
भलुं थयु में प्रभुगुण गाया ॥ वा०॥ रसनानो फल लीधो रे ॥ देवचंद्र कहे माहारा मननो, सकल मनोरथ सीधो रे ॥ भ० ॥८॥
अर्थः-माटे हे प्रभु !!! आज मुजने भलं केतां अत्यंत रूडं थयुं, जे में प्रभु श्रीसोलमा शांतिनाथ परमात्मा परम शांतरसमयी तेना गुणनी स्तवना करी, तेथी में माहरी रसना केतां रसेंद्रि जे जिव्हा तेनुं रुडुंफल लीवू एटले रसनानुं
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सप्तदश श्री कुंजिन स्तवनं.
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सार्थकपणं थयुं एहवा हर्षसहित देवचंद्रनामा मुनि कहे छे, जे माहारा मननो जे मनोरथ हतो, ते सकल केतां संपूर्ण - पणे सीधो केतां सिद्ध थयो ॥ ८ ॥ इति षोडश श्री शांतिजिन स्तवनं संपूर्ण ||
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॥ अथ सप्तदश श्री कुंथुजिन स्तवनं ॥
॥ चरम जिणेसरू ॥ ए देशी ॥
समवसरण बेसी करी रे, बारह परषद मांहे ॥
वस्तुस्वरूप प्रकाशता रे, करुणा कर जगनाहोरे, कुंथु जिने सरु ॥१॥ निर्मल तुज मुख वाणी रे,
जे श्रवणें सुणे, तेहिज गुणमणिखाणी रे, ॥ कुं० ॥ २ ॥ ए आंकणी ॥
अर्थः- हवे सत्तरमा श्रीकुंथुनाथजीनी स्तवना करे छे, जे श्रीकुंथुनाथजी समवसरणमां त्रिगडे बेसीने बारह वर्षदा मध्यें वस्तु जे छ द्रव्य तेहनां मूलस्वरूपने प्रकाशता, एटले जीवस्वरूपने जीवपणे, अजीवस्वरूपने अजीवपणे, उपादानकारणने उपादानपणे निमित्तकारणने निमित्तपणे, शुद्धकार्यने शुद्धकार्यपणे, उपदेश देता तथा द्रव्ययी शुभपरिणति ते कारणरूप तथा भावी शुभपरिणति ते कार्यरूप अने भाव साधन परिणति ते कारणरूप तथा भावसिद्ध परिणति ते कार्यरूप उपादेय तेहिज
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दे० चो० बा.
करवो. तेहनी रुचिएं रेहेबुं एहज साधन छे, एहवो उपदेशकरता तथा करुणाकर केतां कृपाना करणहार जगत्रयना नाथ, एहवा श्रीकुंथुनाथ स्वामी, तेहना मुखनी निर्मल वाणी, उपदेशध्वनि, ते जे प्राणी श्रवणे सुणे, तेहिज प्राणी, गुणरूपमणि रत्ननी खाण छे, एहवा कुंथुनाथस्वामीने नमो॥इति॥२॥
गुणपर्याय अनंतता रे, वलिय स्वभाव अगाह ।। नयगम भंग निक्षेपना रे, हेयादेय प्रवाहो रे ॥ कुं० ॥ ३ ॥
अर्थः-गुण ते जे वस्तुना सहभावि धर्म " द्रव्यार्थतयानिर्गुणागुणा इतितत्त्वार्थे उक्तत्वात् " ते तथा कमभावि उभयाश्रित ते पर्याय, अने द्रव्य, गुण, पर्याय, ए सर्वमा वर्ते, तेने स्वभाव कहीयें एटले गुणनी अनंतता, तथा पर्यायनी अनंतता, अने स्वभावनी अनंतता, ए सर्व अगाह केतां अगाध छे, जे अवगाहवाने दोहेली छे. वली नय केतां अनेक धर्मात्मक वस्तुने विषे एकधर्मावलंबन ते नय कहिये । उक्तं च तत्त्वार्थे । अनेकधर्मकदंबकोपेतस्य वस्तुनः एकेन धर्मिण उन्नयनं अवधारणात्मकं नित्यएव अनित्यएव एवंविधनयव्यपदेशमास्कंदति ॥ एहवा मूल नय सात, अने उत्तर नयसात सय पछी विस्तार बहुल ते, तथा गमा गम्यते इति गमाः अंशभेदेन अन्यधर्मअभेदेन वस्तुनिरूपणात्मकंवाक्यं गमात्मकं च्यते तथा भंगाः तथा स्याद्वादोपदेशा अस्तित्वादयः भंगःस्या दादसापेक्षः स्यात् ए अस्तिप्रमुख तथा निक्षेपानामादिक ते अनेक प्रवाह
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सप्तदश श्री कुंथुजिन स्तवनं. ७११ अनेक भातिना वस्तुधर्मे, उपचारधर्मे कारणधर्मे स्वरूपें उपदेशे, ते वली हेर धर्मना, नय निक्षेपा भांगा ते हेयरूप कहेता अने उपादेय धर्मना नय निक्षेपा, ते उपादेयरूप प्ररूपता, एहवी श्रीकुंथुनाथजीनी देशना छे, वली एक द्रव्यमां गुण अनंता, पर्याय अनंता, स्वभाव अनंता, उपदेशे, इहां भावना जे गुणपर्यायने आवरण छे, स्वभावने आवरण नथी, अस्तित्व नित्यत्वादिक जे छ ते मध्ये विशेषस्वभाव बिगडे पण सामान्यस्वभाव बिगडे नहीं, तथा सर्वधर्म नय तथा भंगा अने निक्षेप सहित उपदेशे छे, एहवी श्रीकुंथुजिननी देशना छे॥ ॥३॥ इति तृतीय गाथार्थः ॥
कुंथुनाथ प्रभुदेशना रे, साधन साधक सिद्ध ॥ गौण मुख्यता वचनमा रे, ज्ञान ते सकल समृद्धो रे ॥ कुं० ॥४॥
अर्थः--वली श्रीकुंथुनाथ प्रभुनी देशना केहेवी छे. जे मध्ये साधन केतां रत्नत्रयी पूर्ण अभेदतारूप निपजाववाना उपाय ते जिनमुद्रासेवन मुनिवंदन अनुकंपादिकथी लही शुक्लध्यान पर्यंत कह्या छे, तथा मार्गानुसारीथी लही क्षीणमोही पर्यंत अपवादें अने उत्सर्गे अयोगी लगें साधक जीव जाणवा, तेहतुं तारतम्य योग कहे छे, पहेलो मार्गानुसारी ते समकेतने साधे, अने समकेति ते विरतिने साधे, विरति ते शुक्लध्यानने साधे, तथा शुक्लध्यानी क्षायिकगुणने साधे, क्षायकगुणी सिद्धने साधे, ए साधकनो क्रम छे, ते सर्व प्रभु देशनामां कहे, तथा
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दे० चो० बा०
सिद्धपणं संपूर्ण निष्पन्ननिरावरणतापं कहे. वली कुंथुनाथजीनी देशनामां वचन जे बोलाय ते, अनंता गौणधर्म राखीने जे वचनमां ग्राह्य ते धर्मने मुख्य करी कहे, एटले एक वस्तुमां अनंता धर्म एकसमयमां परिणमे छे, ते सर्व एकसमयमा जाणे, परंतु वचनेकरी जे धर्म मुख्य करी कहेवाय तेने मुख्य करी कहे, बीजा सर्व ज्ञानमां गौणपणे जाणे, एम वचनमां गौणपं तथा मुख्यपणं छे, पण श्रीकुंथुनाथ स्वामीनुं केवल ज्ञान ते सकल ज्ञेयने जाणवे करी समृद्धिमान् छे, एटले ज्ञानमां एक हमणा जाणे बीजा पछी जाणशे एम नयी, सर्व भावने ते समज जाणे छे, तेथी ज्ञानमां गौणता मुख्यता नयी, अने वचननुं धर्मक्रम प्रवर्त्तन छे, ते एक कह्या पछी बीजो कहेवाय, माटे वचनमां गौणता अने मुख्यता छे । इति चतुर्थ गाथार्थः ४ ॥
वस्तु अनंत स्वभाव छे रे,
अनंत कथक तसु नाम ॥ ग्राहक अवसर बोधथी रे, कहेवे अर्पित कामो रे ॥ कुं० ॥ ५ ॥
अर्थः-- वस्तु जे जीवादिद्रव्य ते अनंतस्वभावमयी छे, सर्व वस्तु अनंतता युक्त छे, तथा वस्तुनो जीव अथवा पुद्गल एहबुं जे नाम छे, ते पण अनंतताने कहेतो छे, एटले जीव एवो शब्द उच्चार करतां जीवना अनंता धर्म छे, ते सर्व बोलाणा एम सर्व स्थानके समजवो माटे जे वस्तुनुं नाम ते ते वस्तुना सर्व धर्मनो ग्राहक छे, तेथीज नामनिक्षेपामां संग्रह तथा व्यवहार एबेहु नय मुख्य छे, अने नैगम कारण छे, ए रीत छे, परंतु ग्राहक
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सप्तदश श्रीकुंथुजिन स्तवनं. जे श्रोता तेहनो जेहवो अवसर होये, तथा श्रोतानो जेहवो बोध केतां जाणपणं होये, तेहवो वचनमां अर्पित करीने उपदेशे, एटले ज्ञान तो सर्वने एक समयमां जाणे छे, परंतु उपदेशकाले केवली भगवान् जेहवा श्रोता होय, तेटलो कहे, तेथी केहेवामां अर्पित नय आगल करवानो काम पडे छे, ते अर्पित तथा अनर्पितनुं स्वरूप तत्त्वार्थमां का छे, “अनेक धर्माच धर्मीतवप्रयोजनवशात्कदाचित् कश्चिद्धर्मोवचनेनार्पिते विवक्षिते तत्अर्पिते संन्नपि वचनविवक्षिते प्रयोजनाभावात् तत् अनर्पितं इति " जे धर्मीपदार्थ, तेहना अनेक धर्म छे, तेहने विषे अवसरे जे धर्म, कहेवानुं प्रयोजन उपजे, ते अवसरे ते धर्मने वचनने विषे अर्पित करीएं, विवक्षा करीने ग्रहियें, ते अर्पित जाणवो, अने जे धर्म सत् केतां छतो छे तो पण प्रयोजन विना तेने गवेषे नहीं, श्रद्धामां अपेक्षामा छे ते अनर्पित कहिये, छद्मस्थy ज्ञान, तथा बोलबो. ते अर्पित अनपित बे मल्याज शुद्ध थाये, अने केवलीनुं ज्ञान तो सर्व एक समय छे, परंतु वचन ते अर्पित अनर्पित मल्या शुद्ध छे ॥ इति पंचम गाथार्थः ॥ ५॥
शेष अनर्पित धर्मने रे, सापेक्ष श्रद्धा बोध ॥ उभय रहित भासन होवे रे, .. प्रगटे केवल बोधो रे ॥ कुं० ॥६॥
अर्थः-जे वचन बोलवाथी शेष रह्या, ते अनर्पित धर्म रह्या, तेहने सापेक्ष श्रझा, समयक्सहहणा, राखवी, बोधज्ञान पण राखवं ए छद्मस्थ समकिती, देशविरति, क्षीणमोहिपर्यंत
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दे० चो० बा०
एम जाणवू अने उभय केतां ए अर्पित अनर्पित बेहुयी रहित जे भासन होवे ते बोध केतां केवलीनुं ज्ञान ते सर्वनो ज्ञायक समकाले छे, तेथी तेहमां आर्पित अनर्पितपणुं नथी, वचनमां अर्पितानर्पित छे, परंतु जाणवामां नयी ॥इति॥६॥
छति परिणति गुणवतना रे, भासन भोग आणंद ॥ समकाले प्रभु ताहरे रे, रम्यरमण गुणवृंदो रे ॥ कुं० ॥ ७ ॥
अर्थः--वली हे प्रभुजी तमारामां ज्ञाननी, दर्शननी, चारित्रनी, वीर्यनी, सुखनी अरूपतानी, इत्यादिक अनंता तमारा गुणरूप धर्म, तेहनी छती छे, तेमज अनंत पर्यायनी पण छती छे, ते स्वद्रव्यादिकपणे सदा सर्वदा छती छे, तेम स्वभाव गुणपर्यायनी परिणति परिणामिकता द्रव्यने विषे परिणमवं, ते उत्पाद, व्यय, ध्रुवपणे तथा षट्गुण हानि वृद्धिपणे परिणमे छे, तथा तेहिज ज्ञानादि गुणपर्यायनी वर्तना, ते जे स्वस्वकार्यनो करवापणुं ते ज्ञाने जाणे, दर्शने देखे, चारित्रे रमे, कापणाथी करे, भोक्तापणाथी भोगवे, एम सर्वगुण पोतपोतानी वर्तनाए वर्त्तता पोतपोताना कार्यने करे छे ते वतना जाणवी, ए सर्व हे प्रभुजी तमारामां छे अने ते सर्वगुणपर्यायनुं भासन केतां जाणवू ते तमारामां छे. ते सर्वगुणने भोगवो छो ते अनन्तागुणना भोगनो आनंद हे प्रभुजी तमारामां छे, एटले अनंतगुणपर्यायनी छति परिणति अने वर्त्तना तथा भासन भोग अने आनंद ते समकालें केतां एक समयमा ए सर्व परिणमन छे, माटे एहवा अनंता परमानंदना भोगी छो, महा
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सप्तदश श्रीकुंथुजिन स्तवनं.
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सुखी छो. वली हे प्रभु हे सर्वज्ञ ! हे सर्वानंदमयी ! हे नाथ ! हे सुधोपगारी ! तुमे केहेवा छो ? जे रम्य केतां रमवा योग्य जे अनंतात्मस्वरूप तेहमां रमण केतां रमवुं ते गुणना तुमे वृंद केतां समूह छो ॥ ७ ॥ इति सप्तम गाथार्थः ॥
निजभावें सीय अस्तिता रे, पर नास्तित्व स्वभाव ॥ अस्तिपणे ते नास्तिता रे,
सीय ते उभय स्वभावो रे ॥ कुं० ॥ ८ ॥
अर्थः - - हवे सप्तभंगीरूपें प्रभुता कहे छे. तिहां कोइक तो सप्तभंगी एकला पर्यायास्तिक नयनीज कहे छे, तेतो घटे नहीं, द्रव्यास्तिक पर्यायास्तिक नय द्वयमात्र वस्तु छे, तिहां स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति स्यात् अवक्तव्यं, ए ऋण भांगा सकलादेशी छे, ते द्रव्यास्तिकनयी छे, " एवं एते त्रयः सकलादेशा भाष्यानुसारिणः एवं संग्रहव्यवहारानुसारिणः आत्मद्रव्ये विकलादेशाश्चत्वारः पर्यायनयाश्रया इति तत्त्वार्थे " शेष चार ते विकलादेशी छे, तेहनो परमार्थ एम छे जे स्यात् अस्ति ए भांगामां अस्तिपणुं बधुं अर्पित छे, बीजो नास्तिधर्म, अवक्तव्यधर्म, ते स्यातपणामां आव्यो, एटले स्यात्अस्ति कह्याथी बधुं द्रव्य ग्रहवाय छे तेमज स्यात् नास्ति तथा स्यात्अवक्तव्यं ए भांगामां पण बधुं द्रव्य ग्रहवाय छे, अने १ स्यात् अस्ति नास्ति, २ स्यात् अस्ति अवक्तव्यं, ३ स्यात् नास्ति अवक्तव्यं, ४ स्यात् अस्ति नास्ति युगपत् अवक्तव्यं, ए चार भंगा ते वस्तुना अंशने एटले पर्यायने ग्रहण करे छे. तेहनो
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दे० चो० बा.
भावार्थ ए छे जे प्रथम स्यात् अस्ति स्यात् नास्ति ए चोथो भंग छे, तेमां अवक्तव्यं ए धर्म नाव्यो, तो कोई कहेशे जे स्यात्पदे अवक्तव्यं धर्म लहीशुं तेने उत्तर जे स्यात्पद ते अस्ति तथा नास्ति ए धर्मनी अनेकांततानो ग्राहक छे, परंतु अवक्तव्यनो ग्राहक नथी अने स्यात् अस्ति अवक्तव्यं ए पांचमो भंगो छ, तेहमां वस्तुनो अस्तिधर्म एकसमयी छे, ते वचनमां कह्या थका उपयोगमा लावतां असंख्याता समय लागे छे, तेमाटे ए अस्तिपणुं अनेकांतपणे छे, परंतु वचने गोचर नथी. एमज स्यात् नास्ति अवक्तव्यं, ए छठ्ठो भंगो पण भाववो, तथा स्यात् अस्ति नास्ति युगपत् अवक्तव्यं, ए भंगामा स्यात् केतां अनेकांते अस्ति केहेतां असंख्याता समय लागे, नास्ति केहेतां पण असंख्याता समय लागे, तेमाटे अवक्तव्यं छे, भेला छे, पण जे रीतें वस्तुमां परिणमे छे, ते रीते केहवाता ना, तेथी ए चार भंगामां सर्व धर्मनुं ग्रहण न थयुं तेमाटे ए चार भंगा विकलादेशी छे, पण सकलादेशी नथी. हवे ए साते भंगानुं स्वरूप कहे छे.
१ ए आत्मा वर्तमान समय ज्ञान दर्शनादि स्वपर्यायनी परिणतिपणे अस्ति छे, एटले अतीतपर्याय तो विनष्ट छे, अनागतपर्याय अनुत्पन्न छे, माटे वर्तमानपर्याय ग्रहण कर्यो, इहां स्यात् ते नास्ति अवक्तव्यं धर्मनो अनर्पिततानो द्योतक छे, ए रीतें स्यात् अस्ति ए पहेलो भंगो थयो.
२ तथा स्यात् ते कथंचितपणे गतिस्थितिअवगाहोपकारी वर्णादि अचेतनादि परद्रव्यधर्म तथा पोताना अतीत अनागत पर्याय ते, सांप्रतिक वर्त्तवापणे नथी, ए नास्ति भंगो द्रव्यने
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सप्तदश श्रीकुंथुजिन स्तवनं.
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द्रव्यपणे राखवारूप छे, नहीं तो कोइ काले जीव ते अजीवताने पामे, ए स्यात् नास्ति बीजो भंगो थयो.
३ तथा अस्तिधर्म पण वचने अगोचर छे, अने नास्तिधर्म पण वचने अगोचर छे, ते वचनगोचर धर्मथी वचन अगोचरधर्म अनंतगुणा छे, ते माटे स्यात्कथंचितपणे द्रव्यमां अवक्तव्यपणं छे, एटले उभय नय युगपत् अर्पण करतां सर्वपदार्थ अवक्तव्यपणे छे, माटे ए वण भंगा सकलादेशी ते द्रव्यास्तिक नयपणे जाणवा, ए त्रणे भंगामां संग्रह तथा व्यवहारनयनी प्रवृत्ति छे, ए स्यात् अवक्तव्यनामा बीजो भांगो थयो.
४ तथा चोथो भंग स्यात् अस्तिनास्ति छे, ते समुच्चयाश्रयी स्वद्रव्यार्थ पर्यायार्थना अस्तितापणे तथा तेहिज मिन्नोपयोगपणे ते अतीत अनागत परिणामिकपणे नास्तिता छ, ए बे धर्म पोतानाज गवेष्या छे. - ५ तथा जे विवक्षित वचनगोचर द्रव्यार्थ मुख्य आत्मधर्मने अपेक्षाय अस्ति छे, तेहिज आत्मद्रव्यनो सामान्यविशेषद्वयनी मिन्नप्रवृत्ति धर्म समकाले अंगीकार करतां स्यात्अस्ति अव्यक्तव्यं ए पांचमो भंगो थयो.
६ छठ्ठो स्यात्नास्तिअव्यक्तव्यं ए एमज पांचमांनी परें भाववो, ए पर्यायनी मूक्ष्मता अनंतताग्रहीने कर्यो ए छठ्ठो भंग थयो.
७ सातमो स्यात्अस्ति स्यात्नास्ति युगपत् अवक्तव्यं नामे भंगो छे, ते कोइकद्रव्यार्थविशेष आश्री अस्तिपर्याय विशेषआश्री जे नास्ति तेहीज स्वदेशे मिन्नपणे अवक्तव्यं ए सर्वपर्याय ते नयनी प्रवृत्ति छे ए सातमो भंग.
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दे० चो० बा०
ए सप्तभंगी ते नित्य अनित्य भेद अभेदादिक धर्मनी तथा ज्ञान दर्शनादिक गुणनी सप्तभंगी थाय ते भावे छे. ज्ञान जे छे ते ज्ञायक परिच्छेदकादि स्वपर्यायें अस्ति छ, दर्शनचारिवादि स्वव्यपर्यायें तथा जडतादि परपर्या ये नास्ति छे, एम अनंती सप्तभंगी संभवे, ते बुद्धिवंते भाववी, तथा तत्त्वार्थ वृत्तिने विष बली सम्मतिवृत्तिने विषे विस्तारथी कही छे, अने स्याद्वादरत्नाकरे एहनुं स्वरूप तथा उपपत्ति, प्रवृत्ति, परिणति, नय सर्व वखाण्या छे. तिहांथी जोइ लेजो. हवे गाथानो अर्थ लखे छे.
निज केतां पोताने भावे, स्वव्य, स्वक्षत्र, स्वकाल, स्वभावपणे सीय केतां स्यात् कथंचितपणे अस्ति छे, अने तेहीज द्रव्य, परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल, परभावपणे नास्ति छे, ते नास्तिपणुं द्रव्यमां अस्ति केतां छतापणे रह्यो छे, वली सीय केतां स्यात् कथंचित् उभय केतां अवक्तव्य स्वभाव एटले आदि भांगो तथा अंतनो भांगो संभारतां साते भंगा केहेवाणा, एहवी स्याद्वादपरिणति ते हे परमेश्वर तुमे प्रत्यक्ष ज्ञाने सर्वद्रव्यनी जाणीने उपदेश कर्यो, एहवी ताहरी वाणी छे, ए रीत शुफ अनंतता, अनेकता, सत्त्वता, साधकतायुक्त श्री अरिहंतनो उपदेश छे ॥ ८॥
अस्तिस्वभाव जे आपणो रे, रुचि वैराग्यसमेत ॥ प्रभु सन्मुख वंदन करी रे, मागीश आतम हेतो रे ॥ कुं० ॥९॥
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सप्तदश श्रीकुंथुजिन स्तवनं.
अर्थः हवे पोतानो मनोरथ कहे छे. एहवो जे अस्तिस्वभाव अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अव्याबाध, पूर्णानंदतारूप, जे माहरो सत्तागत स्यावाद उपयोगें ग्रह्यो तेहनी रुचि पीपासा करीने, वैराग्य जे संसारथी उदासीपणुं ए संसारीभाव विभावोपाधि माहरे अघटती छे, तेहने केवारे सर्वथी तजु, एम विषभक्षण तथा तप्तलोह पदधृति समान जाणीने उदासीन थयो, मोक्षामिलाषी केवलज्ञानानंदने अभिलारे हे प्रभुजी !!! ताहरा सन्मुख उभो रहीने वंदना करीने मागु छु, जे हे तारक ! मुजने तार ! तार ! भवभ्रमणाथी उगार, ए संसारजनित दुःख मुझथी हवे खमातो नथी, जे माहरो अनंतो स्वाधीन आनंद ते पराधीन थयो, अने हुं पुद्गलग्राही थयो तेथी तत्त्वभोगी छु, पण तत्त्वने जाणी शकतो नयी, औदयिकभावरूप अशुद्धपर्यायनी श्रेणिमां पडी रह्यो छु, अने हवे हे नाथ !!! ताहरे शरणे आव्यो हं, माटे मुजने माहरो अस्तिस्वभाव प्रगटे एहवो आत्मानो हित समकेत दर्शनयुक्त, चारित्रनो प्रसाद करो, एहवो हुँ जेवारे मागीश तेहीज दिन धन्य मानीश एहवो मनोरथ करवो ॥ ९॥ इति नवम गाथार्थः ।।
अस्ति स्वभावरुचि थयी रे, ध्यातो अस्तिस्वभाव ॥ देवचंद्र पद ते लहे रे, परमानंद जमावो रे ॥ कुं० ॥१०॥
अर्थः--माटे अहो भव्यजीवो तुमें जो सर्व जीव मु.
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दे० चो० बा०
खना अथीं छो तो जे सत्तागत अस्तिधर्म, तेहना रुचि अभिलाषी थायीने जे अस्तिस्वभावनी अनंतता तेहनेज ध्याता ध्यान करतां थकां सर्व देवमां चंद्रमासमान जे सिद्धपरमात्मपद ते लहे केतां पामे, अशरीरता, निर्मलानंदता, निःसंगतारूप परमानंद स्वाधीन आत्यंतिक अव्यावाथ सुख तेहनोज जेहमां जमाव छे, सवन केतां एकीपणं छे, एहवं पद श्री प्रभुनी सेवाथी पामे, तेमाटे तत्त्वस्वरूपी, अरूपी, ज्ञानस्वरूपी, एहवा श्रीकुंथुनाथना चरणनुं सेवन करो, हे भव्यजीवो ! एहीज परम सुखनो हेतु छे. ॥ १० ॥ इति कुंथुनाथ० ॥ ॥ अथ अष्टादश श्रीअरनाथजिनस्तवनं ॥
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॥ रामचंदके बाग चांपो मोरी रह्यो री ॥ ए देशी ॥ प्रणमो श्रीअरनाथ, शिवपुर साथ खरोरी ॥ त्रिभुवन जन आधार, भवनिस्तार करोरी ॥ १ ॥
अर्थ:-- हवे अढारमा श्रीअरनाथ जिननी स्तवना कारणता पणे करे छे. प्रणमो केतां वारंवार नमस्कार करो, श्रीअरनाथ स्वामीने, एहीज अमोही परमेश्वर वांदवा योग्य छे, शिव केतां निरुपद्रव जे सिद्धता, तेहीज उपमायें पुर केतां नगर तिहां पोहोचाडवाने खरो साथ छे, तेथी सार्थवाहनी उपमा श्री अरिहंतनेज छे, जे निःस्वार्थे भवअटवीमांथी पार करीने मोक्षनगरने विषे परमानंदपर्दे पहोचाडे एहवा कारणपणे श्री अरिहंतजी छे, वली त्रण भुवनना जनने आधार छे, मिथ्यात्व असंयम व्यथायें पीडितने आधार ओटंभारूप छे. वली चारगतिरूप भव
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अष्टादश श्री अरनाथजिन स्तवनं.
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केतां संसार तेहमांयी द्रव्ये तथा भावे निस्तारना करणहार छे ।। इति प्रथम गाथार्थः ॥ कर्ता कारण योग, कारज सिद्धिलहे री ॥ कारण चार अनूप, कार्यार्थी तेह ग्रहे री ॥२॥
अर्थ-हवे मोक्षकार्य निपजाववा माटे कारण कार्यनी नीति कहे छे. सर्व कार्य छे, ते कंन्ना कीधा थाय छे, तेमां मिन्नकार्यनो कर्ता पण भिन्न, जेम घटनो कर्ता कुंभकार मिन्न छे, अने अमिन्नकार्यनो कर्त्ता पण अभिन्न छे, जेम ज्ञाननो को आत्मा छे, तेम संपूर्ण सिद्धत्वनो कर्त्ता पण आत्माज छे, ते कर्ता जेवारें कारणनी योगवायी पामे, तेवारें कार्यनी सिद्धि नीपजाववापणुं लहे, एटले एकलो कर्ता ते. कारण सामग्री विना कार्य करी शके नहीं, कारण सामग्री मलेज, कार्य नीपजावे ते कारणना चार भेद छे, जे कार्य नीपजाववानो अर्थी थाय, ते चार कारणने ग्रहे. इहां घणा शास्त्रोमां तो कारणना बे भेद कह्या छे, एक उपादान कारण, बीजो निमित्त कारण, अने विशेषावश्यकने विषे समवायिकारण, असमवायिकारण ए नाम कह्यां छे, तथा आप्तमीमांसामां कारण त्रण कह्यां छे, " समवाय्यसमवायि निमित्तभेदात् " तेमां समवायि कारण ते उपादान कारण अने असमवायि कारण ते नामांतर असाधारण कारण कहेवाय छे, तथा निमित्त कारणना बे भेद करी यें तेमां एक तो निमित्त कारण बीजं अपेक्षा कारण ते तत्त्वार्थ टीकामां वखाण्युं छे, तथा अपेक्षाकारणं पूर्वमित्यनेन उच्यते यथा घटस्योत्पत्तावपेक्षाकारणं व्योमादि उपेक्षते इति उपेक्षा " तेमाटे
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दे० चो० बा०
manand
यद्यपि कारण, बेमां चारे अंतर्भूत छे, तोपण विस्ताररुचिने मिन्नोपयोगी करवाने चार कारण कयां छे. एक उपादान बीजें असाधारण, बीजुं निमित्त, चोथो अपेक्षा ए चारे कारण जेवारें कार्यरुचि कर्ता ग्रहे, अने जेवारे ए चार कारणने कार्यरुचि कर्ता प्रवर्त्तावे, तेवारे ते कारण समजवां, पण कर्ताना प्रयोजन विना कारणता नहीं. एम भावना करवी ॥ इति ॥२॥ जे कारण ते कार्य, थाये पूर्ण पदे री ॥ उपादान ते हेतु, माटी घट ते वदे री ॥३॥
अर्थः--हवे प्रथम उपादान कारणतुं स्वरूप कहे छे. जे कर्ताना कार्यने सन्मुख थाय तथा जे कारण तेहीज पूर्णपदें केतां पूर्णता ना अवसरें कार्यरूप थाय तेने उपादान हेतुकेतां कारण कहीये. ॥ उक्तंच महाभाष्ये ॥ तहवकारणं तं, तवोपडस्सेहजेण तम्मइया ॥ विवरीय मन्नकारण, मिच्छंवोमादओ तस्स ॥१॥ ए गाथाने व्याख्याने यदात्मकं कार्यं दृश्यते तदिह तद्रव्यकारणं उपादानकारणं यथा तंतवः पटस्य इति एटले जेम तंतु हता ते कर्त्ताने प्रयोगें पट थया, ते उपादान कारण जेम घटरूप कार्य तेहने माटी ते उपादान कारण छ, पछी माटी तेहज घटपणुं पामी, एटले कारण तेहीज कार्यपणुं पाम्यो, इहां कारण कार्यनुं एक समयरूप जे व्याख्यान छे, ते पण उपादान कारणनुं छे. एम महाभाष्ये मतिज्ञानाधिकारें जमालि निन्हवना अधिकारें कर्तुं छे. इहां कोइ पुछे जे कारण ते कार्य थाये एम कहो छो तो कारण कार्य- एकपणुं थाशे ? तेहने उत्तर जे अभिधान, फल, लक्षण, संख्या, संस्थानादिकनो भेद छे, तेथी मिन्न जाणवू. जेम प्रथम
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अष्टादश श्री अरनाथजिन स्तवनं.
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माटी एहवु नाम हतुं पछी घटनाम थयु, माटी ते मृदुता, द्रव्यताधर्मवंत हती, घट ते जलाहरण धर्मवंत छे, माटे मिन्नता छे, ए प्रथम उपादान कारण बताव्युं. इति तृतीयगाथार्थः॥३॥ उपादानथी भिन्न, जे विणु कार्य न थाये ॥ न हुवे कारजरूप, कर्त्ताने व्यवसायें ॥४॥ कारण तेह निमित्त, चक्रादिक घटभावें ॥ कार्य तथा समवाय, कारण नियतने दावें ॥५॥ __ अर्थः-हवे निमित्त कारणचें लक्षण कहे छे. जे कारण उपादान कारणथी भिन्न केतां जुदुं छे, अने तेना मल्या विना कार्य थाय नहीं, वली तेहने विषे जे कारणपणुं ते कर्त्ताने व्यवसायें केतां कर्त्ताने उद्यमे छे. ते निमित्त कारण कहिये, जेम घटभावें घटकार्य छे तेहने चक, चीवर, दंडादिक ते निमित्त कारण छे. अने माटी उपादान कारण छे. ते उपादान कारणथी निमित्तकारण जे चक्र चीवरदंडादिक छे ते सर्व भिन्न छे, अने ए निमित्त मल्या विना माटीनो घट थाय नहीं, तेमज ते चक्रादिक कदापि कोइकाले कार्यपणुं पामे नहीं, अने ए चक्रादिकने जेवारे कर्ता जे कुंभकार ते घट करवारूप व्यापार प्रवृत्तावे, तेवार एने कारण कहियें, नहीं तो कारणतापणुं कहेवाय नहीं, ते पण समवायिकारण केतां उपादानकारण तेहने नियतनेदावे केतां कर्ता जेवारे उपादान कारणने कार्यरूपें करतो होये, तेवारे जे उपगरण कामे लगाडवा, ते सर्व निमित्तकारण कहिये, अने तेज उपगरण जेवारे कर्ता कार्यने करतो न होय, नेवारे तेहने कारण कहियें नहीं, कारणतुं
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दे० चो० बा०:
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स्वरूप एहज छे. जे कार्यने करे, ते कार्यानंतर अथवा प्र.. थम अप्रयुक्तकाले जे दंडादिकने कारण कहे छे, ते आरोप मात्र नैगमनयमते जाणवो, परंतु स्वरूपें नयी., तेमाटे कार्यनो जे कर्ता, ते उपादान कारणने कार्यरूप करतां तेहमां जे जे उपगरण प्रवर्तीवे, ते ते निमित्तकारण जाणवू एटले जे जे कार्यनी नियत जे नियामिकी छे ते ते कार्यनां निमित्त जाणवां, जेम घटकार्यने चक्रादिक अने पटकायेने तुरीव्योमादिक एम सर्वत्र जाणवू ए निमित्तकारण कयु॥इतिचतुर्थपंचम।।४॥५॥ वस्तु अभेद स्वरूप, कार्यपणुं न ग्रहेरो॥ ते असाधारण हेतु, कुंभे थास लहेरी ॥६॥
अर्थः--हवे असाधारण कारणनुं स्वरूप कहे छे. ते वस्तु जे उपादान कारण तेहयी अभेदस्वरूपें छे, अने कार्यपणं पामतो नथी, एटले कार्य नीपने ते रहेतो नथी, जेम घटकार्य नीपज्यु तोपण तेमांहे माटीपणुं रघु छे, तेनी परे ते रहेतो नथी, ते असाधारण हेतु केतां कारण कहीयें, जेम घटरूप कार्य करतां स्थास कोश कुसलाकार थाये छे, ते मृपिंडरूप कारणथी अभेद छे, परंतु घटरूपकार्य नीपने ते रहेतां नथी, तेमाटे ए सर्व असाधारण कारण जाणवां, उक्तं च "प्रमाणनिश्चयेन उपादानस्य कार्यत्वाप्राप्तस्य अवांतरावस्था असाधारणं इति" ॥ इति षष्ठगाथार्थः ।। ६ ॥ जेहनो नवि व्यापार, भिन्न नियत बहुभावी ॥ भूमी काल आकाश, घट कारण सद्भावी ॥७॥
अर्थः--हवे अपेक्षाकारण कहे छे, जे कारणनो व्यापार
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प्रवर्त्तन नथी, तथा कर्त्ताने पण ते मेलववानो प्रयास करवो पडतो नथी, अने कार्ययी भिन्न केतां जुदो छ, तथा नियत केतां नियमा निश्च ते जोइये, अने बहुभावी केतां अनेक बीजा सर्व कार्यमां भावी छे, ए री ते कारणीक छे, ते अपेक्षाकारण कही ये, जेम भूमी तथा काल तथा आकाश ए विना कोई बटादि कार्य थतुं नथी, अने भूमी प्रमुख जेम घटनुं कारण छे, तेम अन्य बीजा कार्योनुं पण कारण छे, पण घटनु कारणपण पण छतुं छे, वली कर्ता जेम उपादान तथा निमित्त कारणनो व्यापार करे छे, तेम एनुं प्रवर्तन करतो नथी ॥७॥ एह अपेक्षा हेतु, आगम माहे कह्यो री ॥ कारणपद उत्पन्न, कार्य थये न लह्यो री ॥८॥
अर्थ:----तेथी ए अपेक्षा हेतु केता कारण आगममा तथा तत्त्वार्थादिक ग्रंथोमां का छे. “ यथा घटस्योत्पत्तौ अपेक्षाकारण व्योमादि अपेक्षते तेन विना तदभावाभावात् ॥ निर्व्यापारभपेक्षाकारण मितितत्त्वार्थवृत्तौ ॥ तथा विशेषावश्यकेआव३यके अवधिज्ञानाधिकारे " इहां द्वारभूत शिलातलादि द्रव्यानुत्पद्यमानस्यावधिः सहकारकारणानि भवंति अत्र सहकारकारणंगवेपं इति " ए चार कारणनुं स्वरूप कह्यु, हवे कारणपद केतां जेहमांहे कारणपण ते छतो मूलगो धर्म नथी, पण उत्पन्न छ, अने ते जेवारे कर्त्ता ते कार्यनो अर्थी थइने जे उपकरण तथा मलपिंड ते रूपें कार्यपणे प्रवर्त्तावे, तेवारे ते तेह- कारण कही ये एटले जेम काठमां दंडादिक अनेक पदार्थना छतापणानी योग्यता छे, पण कोई कर्ता, दंडन कारण उत्पन्न करे,
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दे० चो० बा०
AIRAANIAnu-AmAvavnavana
कोइ पुतलीनुं कारण उत्पन्न करे, तेमज दंडादिकने कोइ घटध्वंसपणे प्रवृर्त्तावे, तो घटध्वंस करे तथा कर्ता जो दंडादिकने घट करवापणे प्रवर्तीवे तो तेहD कारण थाय, माटे जे कारणपणुं छे ते कर्त्तानुं कर्यु थाय छे. श्रीविशेषावश्यकें कर्तुं छे, “ये कारकाः कर्तुराधीना इति कारणं कार्योत्पादकं तेन कार्योत्पत्तौ कारणत्वं नचकार्याकरणे" ते माटे कारणपणुं ते उत्पन्न छे. हवे कोई केहेशे जे वस्तुमां कोई कार्यना कारण तो छता छे, तो उत्पन्न छ, एम शावास्ते कहो छो ? तेहने उत्तर जे विवक्षित कार्यनी कारणता उत्पन्न छ, अथवा जे कार्यता जे काले ते कार्यता कर्त्ताना प्रयोगनी छे, तेमाटे उत्पन्नज छे, पण कार्य निपज्या पछी तेमध्ये कारणपणुं न पामी ये, जेम अनादि मिथ्यात्वी जीव यद्यपि सत्तावंत छे, तेमज अभव्य जीव पण सत्तावन्त छे परंतु तेहर्नु उपादान सिद्धताना कार्यनुं करणहार नथी, तेथी कार्य नीपजतुं नथी. जेवारे कोइक जीवनुं उपादान अरिहंतादिक निमित्त पामीने, कारणतापणे परिणमे, ते कार्य करे, माटे ते उत्पन्न छे, अने ते कार्य सिद्ध थया पछी ते कारण रहे नहीं, जो सिद्धतामां साधकतानी छती मानी ये तो, सिद्धावस्थायें पण साधकपणुं रघु मानवू पडे ते सिद्धावस्थामां साधकपणुं तो नथी माटे कार्य नीपजे, कारणता रहे नहीं, तथा निमित्त जे दंडादिक ते पण कर्ता भिन्न कार्यना व्यवसाय कारणता करे, तो ते मिन्न कार्य थाये, परंतु तेज कार्यनी ते कारणता रहे नहीं, एम धार ॥८॥ कर्ता आतमद्रव्य, कार्यसिद्धिपणो री ॥ निजसत्तागत धर्म, ते उपादान गणो री ॥९॥
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अर्थः--हवे सिद्धतारूप कार्यना चार कारण देखाडे छे. सिद्धतारूप कार्य ते आत्मानुं अभेदस्वरूप छे, माटे एहनो कर्ता आत्मा द्रव्य पोतेज छे, अने सिद्धपणुं ते आत्मानु कार्य छे, जे आत्मा सिद्धताने परमानंदपणे जाणे. तथा एहीज माहरूं हमणां करवान कार्य छे, ए कार्य करवानी रुचि विना अनंतो काल संसारमा भम्यो स्वरूपभ्रष्ट थयो, माहामोहें ग्रह्यो. हवे में माहरो मूलधर्म श्रद्धाभासन गोचर कर्यो तेथी ए कार्य करवू एम निर्धार करी तदनुगत चेतनावीर्ये करीने स्वस्वरूप करवानो कर्ता थयो, तो सिद्धताना कार्यने निपजावे, ते आवी रीतें जे प्रथम तो अंशेक" थाय, पछी गुणवृद्धि थवे, संपूर्ण कापणुं पामीने कार्य नीपजावे. हवे ए सिद्धतारूप कार्यनो उपादान कारण कहे छे, जे पोताना सत्तागत ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्यादिक, अनंतगुण छे, तेहिज पोतानुं सत्तागत धर्म ते सिद्रिरूप थाय छे, माटे तेहीज उपादान कारण जाणवू. उपादान ते वस्तुनो मल धर्म अरूपी सत्ता तेहीज सिद्ध थाय छे, ए सिद्रतारूप कार्य- उपादान कारण देखाड्युं ॥९॥ इति नवम गाथार्थः ॥ योग समाधिविधान, असाधारण तेह वदे रो॥ विधि आचरणा भक्ति, जिणें निज कार्य सधेरी॥१०॥
अर्थः--हवे सिद्धतारूप कार्यतुं असाधारण कारण केहे छे. मन, वचन अने कायाना योग तेहने द्रव्यथी तथा भावथी स्वगुणरमणमां अरागी, अद्वेषीपणे प्रवर्त्ताव, ते आत्मसमाधि कहीये तेनो जे विधान केतां करवो एटले चोथा
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दे० चो० बा०
Annanoharyana
गुणठाणथी मांडीने सिद्धपर्यंत जे गुणनी वृद्धि करवी, एटले अभिनव गुणनुं कारणपणुं ते सर्व ज्ञान, दर्शन, चारित्र, श्रेणिगत ध्यान परिणाम, क्षयोपशमीभाव, विधिसहित आचरणा, तथा भक्ति, अने गुणीनुं बहुमान, जेथी पोताना कार्यनी सिद्धि निपजे.. ते ज्ञानक्रियारूप साधक अवस्थानी तरतमता ए सर्व असाधारण कारण कहे. ए असाधारण कारण ते आत्मगुणरूप उपादाननी भिन्न भिन्न ऊणताथकानी अवस्था छे, सदा पूर्व पर्याय उत्तरपर्यायतुं कारण छे, ते समयेंज क्रियाकाल निष्टाकालनो अभेद छे. ए असाधारण कारण कह्यो. ॥१०॥ इति॥ नरगति पढम संघयण, तेह अपेक्षा जाणो ॥ निमित्ताश्रित उपादान, तेहने लेखे आणो ॥११॥
अर्थः-हवे सिद्धतारूप कार्यन अपेक्षा तथा निमित्त ए बे कारण कहे छे. नर केतां मनुष्यनी गति, पढम केतां पहेलं संघयण वज्ररुषभनाराच, पंचेद्रिपणुं इत्यादि सिद्धतारूप कार्यनुं अपेक्षा कारण जाणो. इहां कर्तानो व्यापार नथी, पण ए निश्चें जोइयें. ए पाम्या विना मोक्षरूप कार्यनी साधना थाय महाँ, तेमाटे अपेक्षा कारण कहीयें, पण ए मनुष्य गत्यादिक सर्व जे जीवन उपादान परिणमन, धर्मार्थी थइने निमित्त जे देव गुरु सिद्धांत तेहने जेणे आश्रयो, तो तेहनी मनुष्य गत्यादिक लेखे केतां कारणपणे आणजो, अने जेणे निमितने आश्रयो नथी. तेहनी मनुष्यगत्यादिक कारणपणामां गणशो नहीं, ते हजी अनादिनी चालमां छे, पलटण करतो नथी. सेमाटे ए अपेक्षा तथा निमित्त ए बे कारण कह्यां ॥११॥इति।।
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अष्टादश श्री अरनाथजिन स्तवनं.
निमित्त हेतु जिनराज, समता अमृत खाणी ॥ प्रभुअवलंबन सिद्धि, नियमा एह वाणी ॥१२॥
अर्थः-हवे आत्माने सिद्धतारूप कार्य करतां निमित्त कारण श्रीजिनराज वीतराग छे, ते वीतराग सर्वज्ञ केहवा छे, समतारूप अमृतनी खाण छे, इष्प अनिष्टता रहित समताना धणी छे, शुद्ध चरित्र परिणाम तेहीज अमृत छे, तेहनी खाण छे, एहवा प्रभु परमेश्वर परम दयाल, परमात्मा, शुद्धतत्वरूप भोगी, पूर्णानंदी, चिदानंद जे श्रीअरनाथ प्रभु तेहने अवलंबवे पोतानो भासन प्रभुना ते गुण जाणवाने जोडी एम अनंता गुण ते सर्वगुणना भासननी रीझ तथा ते उपर बहुमान एहवे आलंबने रहे, तेथी नियमा सिद्ध निवारण थाय एम आगममां वखाण्यो छे, एहीज मोक्षनो उपाय छे. ए निमित्तकारण का ॥ १२ ॥ इति ॥ पुष्ट हेतु अरनाथ, तेहने गुणथी हलीयें ॥ रीझ भक्ति वहुमान, भोगध्यानथो मलोयें ॥१३॥ __ अर्थः-माटे पुष्टकेतां नियामक हेतुकेतां कारण ते जिनराज श्री अरनाथ प्रभु तेहना गुण जे केवल ज्ञान, अनंतानंदरूप तेहथी हलीयें केतां आपणो आत्मा तेदिसे जोडीयें, प्रगटगुणीना गुणथी आपणी चेतना जोडवी, रीझ केतां रागनीमग्नता, भक्तिकेतां सेवना, बहुमान, आदर, मोटाइ, भोगकेतां आस्वादन, 'व्यानकेतां चित्तनी एकाग्रता, ए श्री अरनाथ प्रभुना गुणनी करीने श्रीप्रभुथी एकत्वपणे 92
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दे० चो० बा०
मलियें, साधकने शुरूदेव तत्त्वने अवलंबं ते प्रधान छे ॥ इति त्रयोदशगाथार्थः ॥ १३ ॥
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मोटाने उत्संग, वेठाने सी चिंता ॥ तिम प्रभु चरण पसाय, सेवक थया निचिंता ॥१४॥
अर्थः- तथा लौकिक दृष्टांत कहे छे. जे मोहोटाने उत्संगे केतां खोलामां बेठो तेहने कोइ चिंतां नहीं, ते निचिंत थयो, तेम सेवक पण प्रभुजी निरामय देव तेहना चरणने सेववे, चिंतारहित थयो, जे परमोत्तम, सर्वगुणभोगी, निरालंबी, चिन्मयी, अनंत दान, लाभ, भोग, उपयोग' वीर्यमयी, श्रीजिनेश्वर निःकर्म देवतत्त्व, परभावना अकर्ता, परभाव अभोगी, परानुयायीता रहित, एहवो देव जो आदर्यो छे, तो मोहनुं श जोर छे ? संसार कोने छे ? कर्मनी बीक कोने छे ? जो परमोत्तम धणी में माहरे माथे कर्यो छे जेहना ध्यानथी माहारो मोक्ष नीपजे, ते देवनो योग मिल्यो छे. ते माटे चिंता नथी ॥ उक्तं च श्रीजिनवल्लभपूज्यैः ॥ पसरेइ तीयलोए, तावमोहंधयारंभमइ जई ॥ सिन्नमताव मिच्छत्तं सिन्ने फुरइ फुडफुरंताणं ॥ १ ॥ तंनाणंस पूरो, पयडपजीयसंतीज्झाणसुरो ॥ १४ ॥ इति चतुर्दश गाथार्थः ॥
अर प्रभु प्रभुता रंग, अंतर शक्ति विकासी ॥ देवचंद्रने आणंद, अक्षय भोग विलासी ॥ १५ ॥ इति ।
अर्थः- माटे श्री अरनाथ प्रभु अदारमा परमेश्वर जेणें तत्त्वरुचि थइने तत्त्वाभिलाषि तत्त्वसाधक तत्त्वयानी थइने
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अष्टादश श्री अरनाथजिन स्तवनं.
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तत्त्वप्रगट कर्य, ते प्रभुनी प्रभुता, शुद्धज्ञायकता, शुद्धरमणता, शुद्धानुभवता, अपौगलिकता, असंगता, अयोगिता, सकल प्रदेश निरावरणता, प्रागूभावी शुझसत्ताभोग्यता, तेहने रंगें जे रंगाणा छे, ते साधक सम्यग्दृष्टि, देशविरति, सर्वविरतिनी अंतरंग शक्ति तत्त्वप्राग्भाव करवानी साधक कारकता, साधक कर्तापणुं, परमसंवर पूर्वक परम सकामनिर्जरा रूप शक्ति, विकस्वर थवे, प्रगट थवे, ते शक्तियी सर्वकर्म विगम थवे, सर्व आत्मिक धर्मने प्रगटवे करी, परमात्मा देवमांहे चंद्रमा समान श्रीनिष्पन्न परमेश्वर तेहनो जे आनंद, अव्याबाध, शिव, अचल, अरुज, अविनाशी, तेहy जे अक्षय स्वरूप, तेहनो भोग केतां अनुभव तेनो विलासी आत्मा थाय, एटले स्वसंपदा तत्त्वता आत्मशुद्धपरिणति, तेहने सादि अनंतो काल भोगवे, अथवा देवचंद्र जे स्तुति कर्ता ते अक्षय आनंदना भोगनो विलासी थाय, माटे स्वरूपसिद्ध, अरूपी, चिद्रूप, श्रीपरमेश्वर, तेहने सेवो, ध्यावो, नमो, गावो, तेहना गुण संभारो, एहीज मोक्ष साधननुं पुष्ट निमित्त छे, ए निमित्तें उपादानकारणरूप थइने असाधारण कारणताएं चडतो मनुष्यगत्यादि अपेक्षा कारणपणे करी तत्त्वानंद रूप कार्यने करशे, ते माटे उपादानादिक त्रणे कारणनी कारणता निमित्तने अवलंबें प्रगटे, तेथी निर्दोषपणे आशंसादि दोष वर्जिने शुद्धनिमित्त ने सेवे, ते सेवनथी कर्त्तापणुं समरे अने कर्त्तापणुं समरेथी स्वकार्य करे, माटे श्रीअरनाथजीनी भक्ति ते परमाधार छे ॥ १५ ॥ इति श्री अरजिनस्तवनं ॥ १६ ॥
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दे० चो० बा०
॥ अथ एकोनविंशति श्रीमल्लिनाथ जिन स्तवनं ॥
देखी कामिनी दोइ के, कामें व्यापियो रे केका० ॥ ए देशी ॥ मल्लिनाथ जगनाथ, चरणयुग ध्याईयें रे ॥ च० ॥ शुद्धातम प्राग्भाव, परम पद पाईयें रे ॥ ५० ॥ साधक कारक षट्क, करे गुण साधना रे ॥क० ॥ तेहीज शुद्धसरूप, थाय निरावाधना रे || था०॥१॥
अर्थः- हवे ओगणीशमा श्री मल्लिनाथ परमेश्वरनीस्त - वना करे छे. तिहां कारकशक्ति पलटवाथी सिद्धता निपजे छे, ते पलटवानो उपाय श्री अरिहंतनी सेवना छे, ते रूप स्तुति करे छे. श्री मल्लिनाथ, परमेश्वर, परमज्ञानी, ते जग केतां लोकना नाथ मोहनो भय एटले अंतरंग भावरिपुथी छोडाववाना परम कारण छे, तेहनां चरणयुग केतां पदकमलनं जोड़े तेहने ध्यायीयें, वारंवार संभारियें, एहवा प्रभुने ध्यायवाथी ध्याताने शुं नीपजे ? ते कहे छे. शुद्ध जे आत्मानो परमात्मभाव अनंतगुण निर्मलतारूप तेहनो जे प्रागभाव केतां प्रगटपणुं निर्मल शुद्धतारूप परमपद निर्मल पद ते पामीयें, एटले पोतानी आत्मता निर्मलपणं भजे, ते आत्मसिद्धिरूप कार्य करवाने छ कारक छे. तिहां सर्व कार्यमा कारक प्रवृत्तिनी कारणता छे, कारकचक विना कार्यनी निष्पत्ति नथी. जेम १ कुंभकार ते कर्त्ता, २ घट ते कार्य, ३ मृत्पिंड चक्रा
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एकोनविंशति श्री मल्लिनाथजिन स्तवन.
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दिक कारण, ४ माटीना पिंडने, नवा पर्यायनी प्राप्ति ते संप्रदान, ५ पिंड स्थासादि पर्यायनो व्यय ते अपादान, ६ घटादि पर्यायर्नु आधारपणुं ते आधार, एम घटरूप कार्यमां षट् कारक छे, तेमज आत्माने अनादि कालनां ए छ कारक बाधक रूपें परिणम्यां छे, ते देखाडे छे.
१ आत्मा परविभाव रागादि ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मनो कर्ता थयो छे.
२ भावकर्म द्रव्यकर्मने जे आत्मा करे, ते कार्य नामा बीचं कारक.
३ अशुद्धविभाव परिणतिरूप भावाश्रव अने प्राणातिपातादि द्रव्याश्रव, ए बे कारणथी कर्म बंधाये, माटे ए करण नामा त्रीजु कारक.
४ अशुद्धतानो तथा द्रव्यकर्मनो लाभ ते संप्रदान नामा चोथु कारक.
५ स्वरूपरोध, क्षयोपशमनी हानि, तथा परानुययायिता ते अपादान.
६ अनंती अशुद्ध विभावता, तथा ज्ञानावर्णादि कर्मने राखवा रूप जे शक्ति ते आधार नामाछठं कारक जाणवू ते.
ए रीतें ए छ कारकनुं चक्र अनादिनु अशुद्धपणे बाधकतापणे आत्माने परिणमी रा छ, ते जेवारे साधक आत्मा, पोतानो स्वधर्म नीपजाववा पणे परिणमावे, तेवारें ए छए कारक साधक पणे प्रवृत्त्या गुणनी आत्म धर्मनी साधना करे. ए रीते ए छ कारक साधक पणे परिणम्या कार्य नीपजे शुद्ध स्वरूप थाय. ए स्वरूपपरिणामिकता रूप स्वकार्य कारण
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पणुं कोने परिणभे ? ते कहे छे. जे निराबाध, श्रीसिद्धभगवंत तेहनां छ कारक, ते शुभपणे प्रवृत्त छे, अने बाधक जीवोना बाधकपणे परिणमे छे, तथा समकेत गुणठाणाथी मांडीने अयोगी गुणठाणा पर्यंत, साधकपणे परिणमे छे, तथा सिद्ध भगवंतना शुफस्वरूपरू परिणभे छे, कारक ते आत्मानामा जे कर्त्तारूप, द्रव्य तेहनी ए परिणति छ, उक्तं च श्री विशेषावश्यके.
कारण व्याख्यानावसरे ॥ गाथा ॥ छविह कत्ता इ, कारण कम्मं च तत्तो य ॥ संपयाणा वायाण, तह नासंमिहाणाय इति ॥ १ ॥ गाथार्थः ॥ तथा च कारणं षोढा ॥ यथा ।। कारण महवा छद्धा, तत्थ संतंतोत्ति कारणं कत्ता ॥ वझ पसाहगतमं कारणम्मिओ पिंडदंडाइ ॥ १ ॥ कम्म किरिया कारण, इत्यादि गाथाथी जाणवू ।। होइ पसत्थं मोरकस्स कारणं. इह यन्मोक्षस्य कारणहेतु तत् प्रशस्तभावकारणं उच्यते॥ इति वचनात्. ___ माटे साधकपणे कारक परिणम्या तो सिद्धता कार्यने करे, ते माटे निराबाध जे सिद्ध निरावरण अव्याबाध सुख तेमां तेहनो कर्त्तादिक शुद्ध पारिणामिक भाव शुद्ध पणे थाय, स्वस्वरूप कर्तृत्वपणे परिणमे ॥१॥ इति ॥ कर्ता आतम द्रव्य, कार्य निज सिद्धता का०॥ उपादान परिणाम, प्रयुक्त ते करणता रे॥प्र०॥ आतम संपद दान, तेह संप्रदानता रे ॥ ते०॥ दाता पात्रने देय, त्रिभाव अभेदता रे ॥त्रि०॥२॥
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एकोनविंशति श्री मल्लिनाथजिन स्तवनं.
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अर्थः-१ पहेलु कर्ता नामा कारक कहे छे. तिहां का आत्मा द्रव्य ते आत्मशुद्धता निपजाववा रूप कार्ये प्रवर्तन पाम्यु, पोतानुं कर्ता छे.
३ जे आत्मा पोतानी सिद्धता सर्वगुण पूर्णता सर्वस्वभाव स्वरूपास्थानता ते कार्यनामा बीजुं कारक जाणवू, ते कार्य परिणतिचक्रने प्रवर्त्तवा रूप क्रियायें नीपजे, ते क्रियानुं प्रवविवू ते कार्य ते कार्यने कारकता, नीपजाववा कालेज छे, नीपना पछी कार्यमां कारकता नथी, उक्तं च भाष्ये ॥ तस्मात् बुद्धयद्धयावसितं कार्य अप्यात्मकारणमेष्टव्यं इति॥
३ उपादानपरिणाम आत्मा स्वगुणनी परिणति, सम्यम्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप रत्नत्रयीनी जे परिणति, तत्त्वनिर्धार, तत्त्वरुचि, तत्त्वज्ञान, तत्त्वरमणादिक रूप स्वगुण अहिंसकता बंधहेतु अपरिणमन · रूप, स्वरूप यथार्थभासनरूप, परभाव अग्रहणरूप, परमार तारूप, स्वरूपग्रहण, स्वरूप भोगी, परभाव अरक्षणरूप, जाप एकत्वरूप तत्त्वाराधन, चेतनास्वरूप प्रगटतानुयायी बीर्य, ते उपादान कारण अने द्रव्ययोग समारखा रूप अरिहंतालंबनादि, यथार्थ आगमश्रवणादि ते निमित्त कारण तेहनुं प्रयुजq आत्मकार्य करवा पणे आत्मानो प्रयोग करवो, ए उत्कृष्ट कारण माटे करणनामा त्रीजु कारक जाणवू, " साधकतमं कारणं करणं " इति वाक्यात् आत्मसिद्धिरूप कार्यर्नु उत्कृष्ट कारण अने आत्मशक्तिस्वरूपानुयायी तथा शुद्धदेव प्रमुख ते करण नामा कारक कहिये.
४ आत्मानी संपदा जे ज्ञानपर्याय, दर्शनपर्याय, चारिअपर्याय, तेहनुं दान आत्माने आत्मगुण प्रगट करवारूप देवू,
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दे० चो० बा०
तेहथी जे जे आत्मधर्म निपजता जाय, ते संप्रदान कहियें ॥ उक्तं च ॥ गाथा ॥ देओ स जस्स तं सं पयाणमिह तंपि कारणं तस्स || हो इतद्दत्थित्ताओ, न कीरइ तं विणा जंसो ॥ इति माटे जे आत्माना अस्तिधर्मनुं धनुं ते संप्रदानकारक जाणवुं. इहां दाता आत्मा तथा पात्र. पण आत्मा अने आत्माने देय केतां देवा योग्य ते पण आत्मधर्म, ए त्रणे भावनी अभेदता छे, एटले गुणनुं प्रगट करनुं ते देय अने आत्मा दाता तथा आत्मगुणने प्रगट करे ते दातापणं अने गुणनुं पात्र पण आत्मा एटले दान, दाता अने ग्राहक, अने त्रणें अभेद छे ॥ २॥
स्वपर विवेचन करण, तेह अपादानथी रे ॥ ते ०|| सकल पर्याय आधार, संबंध आस्थानथी रे ॥ सं०॥ बाधक कारक भाव, अनादि निवारवो रे ॥ अ० ॥ साधकता अवलंबी, तेह समारवो रे ॥ ते ॥ ३ ॥
अर्थः-५ जे आत्माथी समवायें रह्या तेहने स्वधर्म आत्मधर्म कहियें. अने तेहथी विपरीत जे मोहादिक कर्म अशुद्ध प्रवृत्ति ते परभाव कहि यें, तेहनुं विवेचन कर, भिन्न कर, अशुद्धतानो उच्छेद करवो, दोषनो त्याग करवो, एटले जे दोषविश्लेष करवो, अर्थात् अनादिसंसार कर्त्तापं तथा भोक्ताते तजीने जे आत्मस्वरूप कर्त्तापणुं भोक्तापं तेहीज प्रगट करवुं, ते पांचमुं अपादानकारक कहियें.
६ सकल केतां समस्त सर्वपर्याय तेहनो आधार ते आत्मा छे, आत्माने आत्मपर्यायथी स्वस्वामित्वसंबंध छे, व्याप्य व्यापक
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एकोनविंशति श्री मल्लिनाथजिन स्तवनं.
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संबंध छे. ग्राह्यग्राहक संबंध छे, आधाराधेय संबंध छे, ए सर्वन आस्थान केतां ते कारणरूप क्षेत्र ते आत्मा छे, ते आस्थनता माटे आत्मा आधार छे, ए आधारनामा छ, कारक जाणवू. ए छ कारक साधकपणाना कया. हवे ए साधकपणुं केम पामे ? ते कहे छे. बाधक जे परभाव तेहने अनुयायी अशुद्ध कर्तादि कारकपणुं मिथ्यात्व, असंयम, कषाय रूप भाव अशुद्धतारूप सामान्य चक्र अशुद्ध साध्यानुगत अशुद्धकापणुं तेहने निवारवू, ते चक्र रोकीने स्वरूपानुगत करवू, तेमाटे ए अनादिनी भूल टालवी. जिहां सुधी कर्ता परभावकारक छे, तिहां सुधी कांइ साधकता नथी, जिहां सुधी कर्ता अशुद्धकार्यानुयायी सामान्य चक्र छे, तिहां सुवी शुफसाधकतानो अंश पण उपन्यो नथी, श्रीपज्य का छे, जे आत्मा तत्त्वकर्ता पणे थया विना सर्वशुभ प्रवर्तन ते बालचापल्य छे, तेमाटे कारकचक्र बाधकताथी वारीने, साधकताने अवलंबीने ते कारकचक्रने समार स्वरूपानुयायी करवू अने पोताना आत्माने एम कहेवू जे हे चेतन ! तुं परभावनो कर्ता तथा भोक्ता अने ग्राहक नहीं, तुंतो संपूर्णानंदनो शुद्धविलासी छो, अने तुं जे परभावमा रमी रह्यो छो, तथा परभावनो भोगी थइ रह्यो छो ? ए तुजने घटे नहीं, ताहरु कार्य, तो अनंत गुण पारिणामिकरूप स्वरूपकर्ता स्वरूपभोक्तापणुं छे, तेमाटे हे चैतन्यहंस ! हवे तुं यथार्थ जिनवाणीरूप अमृत पान करीने, अनादिविभाव विष वारीने पोतानुं तत्त्व संभारी स्वपर विवेचनकारी थइने पोतानो जे सहजानंद तेहने कर. एहीज ताहरु कार्य छे, तुं तेहनुं उपादान कारण शक्तिमंत छो, तेहनो लेवावालो छो, तुं ताहरी गुणसंपदा ताहरे प्रदेशे प्रगट करवा
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दे० चो० बा०
रूप दाननो संप्रदानी छे, माटे हे चेतन ! ए अनादि अशुद्ध परिणामने तुंहीज त्याग करीश, अने ताहरी सत्तानो आधार पण तुहीज छो, माटे तुहीज ताहरा तत्त्वने कर, ताहरूं तत्त्व तुं नीपजाविश. एम पोते पोताना आत्माने कहिने, साधकपणुं आदरवं ते आदरतां कारक समरे, कारकने समरवेथी अनुक्रमें आत्मानुं स्वकार्य नीपजे, पछी एहीज आत्मा सिद्ध थाय; माटे एहीज साधननो मार्ग छे, साधन कीधे कार्यनी सिद्धि थाय, ए क्रम छे ॥ ३ ॥ इति तृतीय गाथार्थः ॥ शुद्धपणे पर्याय, प्रवर्तन कार्यमें रे॥प्र०॥ कादिक परिणाम, ते आता धर्ममें रे ॥ ते०॥ चेतन चेतन भाव, करे समवेतमें रे ॥ क० ॥ सादि अनंतो काल, रहे निजखेतमें रे ॥२०॥४॥
अर्थः--पहेलो शुद्धपणे निष्पन्न आत्माना ज्ञानादिक पर्यायनुं जाणवा देखवा रूप कार्य- प्रवर्तन, उत्पाद व्ययरूप परिणमन, ते कार्यनो कर्ती आत्मा छे, बीजें आत्मगुणर्नु परिणमन ते कार्य, वीजें आत्मगुणज्ञानादिक ते करण, चो, आत्मगुगनो लाभ ते संप्रदान, पांचमुं परभाव त्यागपरिणति ते अपादान, छड़े अनंतगुणतुं राखवू, ते आधार, ए छ कार-- कर्नु चक्र ते सिद्धावस्थाने विषे सदा स्वाधीनपणे फरि रह्यं छे, तेहथी शुद्धनिष्पन्नपणे जे स्वपर्यायन प्रवर्तन, तेहो कर्त्तादिक छ कारक तेहनं जे परिणमन ते आत्मधर्ममांहेज छे, एटले सिद्धपणे जे कर्तादिक छ कारक ते स्वरूपमध्येज छे. चेतन केतां आत्मा ते पोतानो चेतनभाव केतां आत्मभावकरे, सम
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एकोनविंशति श्री मल्लिनाथजिन स्तवनं. ७३९
वेतमें केतां समवाय संबंधमां छे, एटले आत्मा आत्मभावनो कर्ता छे, ए समवायसंबं मूलपणे सादि अनंता कालपर्यंत निजखेतमें केतां पोताना असंख्याता प्रदेशरूप क्षेत्रमध्ये आत्मधर्ममां निष्पन्न सिद्धतापणे रहे, सिद्धिनी आदि छे, परंतु अंत नथी, माटे सादि अनंतो काल स्वक्षेत्र स्वस्वरूपमा आत्मा रहे ॥ ४ ॥ इति चतुर्थ गाथार्थः परकर्तृव स्वभाव, करे तां लगे करे रे ॥ क० ॥ शुद्ध कार्थ रुचि भास, थये नवि आदरे रे ॥थ०॥ शुद्धात्म निज कार्य, रुचे कारक फिरे रे ॥रु०॥ तेहिज मूल स्वभाव, ग्रहे निज पढ़ वर २ ॥१०॥५॥
अर्थः-पर केतां जे भावकर्म, द्रव्यकर्म अने नोकर्म, तेहने कापणाने स्वभावें करे, तिहां सीम तेहनेज करे, एटले ए परकर्त्तापणं अनादिकालथी करे छे, जिहां सुधी परनो रागी, परनो भोगी, तिहां सुधि परकर्त्तापणुं ए आत्मा करे, पण जेवारे शुद्ध, निर्मल, निरावरण, स्वगुण प्रगट करवा रूप, कार्यनी रुचि थाय, तेवार परकर्त्तापणुं आदरे नहीं, शुफ आत्मस्वरूप, स्याद्वाद रीतें परमानंदपणे भासन तथा रुचि तेहीज कारक पलटाववानां बीज छे, ते माटे जे सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, ते मोक्षनुं मूल छे, शुद्धात्मअनंतज्ञान, दर्शन, अव्याबाध सुखमयी, अरूपी, सहजानंदरूप आत्मधर्म सत्ताप्राग्भाव, सकल परभावव्यतिरेकी, अरागी, अद्वेषी, असंगी, अयोगी, अलेशी, अकषायी, असहायी, एहयुं शुद्धानंदरूप स्वकार्य, तेहनी रुचि थये थके कारक चक्र फिरे, जिहां
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दे० चो० बा०
"
पछी जेहनी जेहने कर्त्ताधर्म स्वकार्यने
सीम परपौगलिक सुखनी रुचि छे, तिहां सीम परनो कर्त्ता छे, तेहथी सर्वकारकनुं चक्र ते रूपेंज परिणमे छे, अने जे अवसरे भेदज्ञान धाराथी, आत्मा परविभंजन करीने पोतानुं आत्मस्वरूप एक उच्छरंग धर्मे जाण्युं, तेहनेज हित मान्युं, dart a आत्मिक धर्मनीज रुचि उपजे रुचि उपजे, ते तेहीज कार्य करे, तेवारें करे, सर्व कारकचक्र स्वकार्याश्रित थाय तेवारें तेहीज पोतानो अचल, अखंड, अविनाशी, निःप्रयासी स्वरूपपरिणमन रूप जे मूलस्वभाव स्वधर्म तेहने ग्रहण करे, केम जे ए कारक मूलधर्मने ग्रहे छे, तेहथी निज केतां पोताना परमात्म, पूर्णब्रह्म, पूर्णानंद पदनेवरे, पामे, कृतकृत्य, अक्रिय, अकंप, अनंत, चिच्छक्ति, अरूपी, अव्याबाधसुखी, एहीज आत्मा थाय ॥ इति ॥ ५ ॥
कारण कारजरूप, अछे कारक दशा रे ॥ अ० ॥ वस्तु प्रगट पर्याय, एह मनमें वस्या रे ॥ ए० ॥ पण शुद्धस्वरूप ध्यान, चेतनता ग्रहे रे ॥ ते० ॥ तव निजसाधक भाव, संकल कारक लहे रे ॥ स०॥६॥
अर्थः- एछ कारक ते कारण तथा कार्यरूप छे, कार्यने निपजावत्रा रूप छे, माटे कारणनाज भेद छे, सर्वकार्य कर्त्ताने आधीन छे, कर्त्ता जे कार्य करे, ते कारणादि विना थाय नहीं, माटे वस्तु केतां आत्म पदार्थ, तेहनां ए छ कारक ते प्रगट निरावरण पर्याय छे, एम मनमां वस्युं जे कर्त्तापणुं तेने आवरण नथी, कर्त्तापणुं विशेष स्वभाव छे, अने विशेष
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एकोनविंशति श्री मल्लिनाथजिन स्तवनं. ७४१
गुणने तथा पर्यायने आवरण छे, परंतु स्वभावने आवरण नथी, स्वभाव तेहना कारणभूत गुण चेतना तथा वीर्य तेने अवराये कर्त्तापणानी प्रवृत्ति मंद पडे, परंतु कर्तापणुं मूलगुं अवराय नहीं, ते चेतनावीर्य विपरीत परिणमवे, परभाव कर्त्तापणे प्रवर्यो, तेहथी पोतार्नु स्वरूप अवरायीज गरे, ते अवराणुं तेहथी स्वस्वभावने करी शके नहीं, अने अक्षरनो अनंतमो भाग, चेतना अने योगस्थानरूप वीर्य, क्षयोपशमी रह्यो, परंतु ते अनादिनी चालथी परभावानुयायीज छे, तेहयी स्वरूपकर्तापणुं तो थयुं नहीं, तेवारे कर्तपणे परभावने करयो, आश्रवबंधरूप कार्यनो कर्ता थयो, एटले अशुद्धकार्य कयु, परंतु अवराणुं नहीं, तेहथी कापणुं अनावृत थके कारक पण अवराणां नहीं, जो कारकनुं चक्र अवराय, तो आश्रवभाव बंधपद्धति कोण करे ? तेहनो आदाता अभिनवपर्यायनो त्यागी पूर्वपर्यायनो आधार, अशुद्धतानो कोण थाय ? माटे कारक निरावरण छे, परंतु विकारी थयां, तेहथी मूलस्वरूपथी चूक्यां एम थयु. हवे एनुं पलटणपणुं पण आत्मा करे, तो थाय, ते कहे छे. जे चेतन केतां चेतना जेवारें साकार अनाकारने यथार्थ भासन करीने पोताना शुद्धस्वभावने ग्रहे, भासनप्रति रुचिर्नु आचरणपणुं अंगीकार करे, तेवारें एहीज सकल केतां छए कारक निज केतां पोतानो साधकभाव जे कर्मविदारण स्वरूप प्रगट करवारूप भाव, तेने लहे केतां पामे, एटले एहीज कारक ते १ स्वधर्मकर्ता ते कर्ता, २ स्वधर्मपरिणमन ते कार्य, ३ स्वधर्मानुयायी गुणपरिणति, चेतनावीर्य शक्ति, ते करण, ४ साधनगुणशक्तिनुं प्रगटवू, ते संप्रदान, ५ पूर्वपर्यायतुं निवर्त्तन ते अपादान, ६ स्वगुणर्नु
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दे० चो० बा०
आधारीपणुं ते आधार. एम षट्कारक साधकपणुं पामीने सिकता परमोत्तमतानो उच्छरंग समाधि सकल निर्मलता निपजावे. ॥इहां स्वधर्भ अवलंबवानी भावना लखे छ ।गाथा॥ अहम्मिको खलु सुझो, निम्ममओ नाण सण समग्गो ॥ तम्मिठिओ तच्चित्तो, सवे एए खयंनेमि ॥१॥ अहं आत्मा ज्ञानादि अनंत गुणपर्याय रूप, अनंतस्वधर्ममयी तथा द्रव्यपणे, अखंडपणे, समुदायपणे एक छं. वली निश्चयनयथी शुद्ध छ, यद्यपि अनादि परभावमां लुब्ध, स्वभाव भ्रष्ट थको अशुद्ध थयो, तो पण जातिथी मूलथी मूलधर्मे अनंतज्ञानादि गुणमय, शुद्ध, निष्कलंक, निरामय, निःसंग, लिदोषी छ. सर्व ममकार परभाव माहरापणाथी रहित छं, ज्ञान सकलभासन, परिच्छेदनरूप, दर्शन सामान्योपयोग तेहिज मयी छु, एहवा भासन रमण, परिणमनरूप, रह्यो थको सर्व परोपाधिने क्षय करुं छु, इम स्वशुद्धस्वरूपने ग्रही, सर्व परभाव भेद करी, निर्मलानंद निपजाववो ॥ ६ ॥ इति ॥ माहरु पूर्णानंद, प्रगट करवा भणी रे ॥५०॥ पुष्टालंबन रूप, सेव प्रभुजी तणी रे ॥ से०॥ देवचंद्र जिनचंद्र, भक्ति मनमें धरो रे ॥भ०॥ अव्यावाध अनंत, अक्षय पद आदरो रे ॥१०॥७॥
अर्थः--एहवा बाधकता परिणम्यो, महारं कर्तादिक कारकपरिणाम ते श्रीअरिहंत परमज्ञाता, स्वरूपरमणी, स्वरूपविश्रामी, स्वरूपानंदी, तहनुं स्वरूप जोतां, ध्यातां, गातां, ते अशुद्ध कापणुं पलटे, ते पलटवाथी कारक पण पलटे, कारक पलटवायी कार्यशुद्भसिद्धत्तारूप, अनंत स्वस्वरूपसंपदा
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एकोनविंशति श्री मल्लिनाथजिन स्तवनं .
रूप नीपजे, तेवारें भव्य जीवने पोतानी तव नीपजाववारूप शक्ति, ते श्रीअरिहंतजीनी सेवनाथी थाय, तेमाटेज निर्धार कर्यो छे, जे हे प्रभुजी माहारो जे पूर्णानंद, पूर्ण अव्याबाध सुख ते प्रगट करवाने पुष्टालंबन केनां पुष्ट नियामकी आलंबन केतां आधार ते श्रीप्रभुजी भव्य जीवना आधार, मुनिजनना प्राणाधार, आचार्य उपाध्यायजीना परम दयाल, भावचिंतामणि समान, समकिती जीवना ध्येय, ध्याताने प्रतिच्छंदरूप, अनंत गुणाकर निर्मल ज्ञानानंदना पात्र, एहवा श्रीजिनराज, महाराज, सुखसमाज, तेहनी सेवना तेहीज पुष्टालंबन छे, तेमाटे सर्व देवेंद्रादिक तेमध्यें चंद्रमा समान, एहवा जे जिनचंद्र श्रीवीतराग अरिहा, तेहनी भक्ति, सेवना आज्ञा मानवा रूप, तदनुयायीपणुं तेहीज त्राण शरण छे, एहवी भक्ति मनमां धरो, स्थिर राखो, अथ स्तुतिकर्तानुं संबोधन हे देवचंद्र ! श्रीजिनचंद्रनी भक्ति केतां चरणसेवना ते मनमां धरो, तो अन्याबाध, जिहां परभावनी पीडा नहीं, परमानंद - रूप, जेहना अनंत गुण ते गण्या जाय नहीं, अक्षय केतां जेहनो छेद नहीं, विनाश नहीं, एहवं जे परमात्मरूप पद ते आदरो, एटले पामो, माटे ए आत्मबाधकता तजी साधकतामा रमे, सिद्ध थाये, एहीज प्रभुसेवनानुं फल छे, माटे हे सिद्धरुचि जीवो! तमे श्रीमल्लिनाथ परमपुरुषोत्तम परमेश्वर, निःकारण, जगद्रत्सल, तेहनें गाओ, स्तवो, रांभारी ध्यावो, प्रथमयी साधक जीवने एहीज आधार छे, एहीज जीवन छे ॥ ७ ॥ इति मल्लिनाथजिन स्तवनं ॥
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दे० चो० मा ॥अथ विंशतितम श्रीमुनिसुव्रतजिनस्तवनं। ॥ओलंगडी ओलंगडीसुहेली हो, श्री श्रेयांसनी रे॥ए देशी॥
ओलंगडी ओलंगडी तो कीजें, श्री मुनिसुव्रत स्वामीनी रे ॥ जेहथी निज पद सिद्धि ॥ केवल ज्ञानादिक गुण उल्लसे रे, लहिएं सहेज समृद्धि ॥ ओ० ॥ १ ॥ अर्थ:--हवे श्रीमुनिव्रत परमेश्वर अद्भुत स्वरूप परमात्मा, अहिंसकनी स्तवना करे छे, मुनि जे निग्रंथ तेहना सुव्रत केतां भला व्रत एहवा श्रीमुनिसुव्रत प्रभु तेहनी ओलंग केतां सेवा एटले गुणग्राम करिये जेहथी निजपद केतां पोतानुं पद जे परमानंद पद तेहनी सिद्धि केतां निम्पत्ति थाये, वली केवल ज्ञानादिक गुण उल्लसे केतां प्रगटे, ज्ञानामृतरसनो भोगी थाय, तथा सहज अकृत्रिम रवरूपसमृद्धि पामे, ए प्रभु सेवान फल छे ॥ १ ॥ इति ॥
उपादान उपादान निज परिगति वस्तुनो रे, पण कारण निमित्त आधीन ॥ पुष्ट अपुष्ट दुविध ते उपदिश्यो रे, ग्राहक विधि आधीन ॥ ओ० ॥ २ ॥
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विंशतितम श्री मुनिसुव्रतजिन स्तवनं
७४५
- अर्थः- हवे इहां आत्मसाधना करवामध्ये उपादान ते निज केतां पातानी परिणति ते वस्तुनो मूलधर्म छे, एटले जे आत्मसत्ता छती छे, ते उपादान कारण छे, पण ते निमित्त कारणने आधीन छे, निमित्त सेवन कर्ता उपादान कारण समरे, ते निमित्त कारणना बे भेद छे. एक पुष्ट निमित्त बीजें अपुष्ट निमित्त, तेने ग्राहक जे कार्यनो कर्ता, ते जे विधे कार्य थाय, ते विवे कार्य ग्रही प्रवर्त्तावे, तो ते निमित्त कारण कार्यनो हेतु थाय, पण अविधे ग्रहण करे, तो निमित्त कारण कार्य करे नहीं, जेम कुंभकार चक्रने फेरवे, तो माटीना पिंडने घटपणे पमाडे, अने नहीं फेरवे तो न पमाडे. एटले श्रीअरिहंतजी मोक्षना निमित्त कारण तो छे, परंतु जे रीतें आगममध्ये कयुं छे, तेविधे आशातना टाली, पुद्गलाशंसा रहित केवलज्ञानादि गुणनी ओलखाण सहित जो सेवे, तो मोक्षनो निमित्त कारण थाय, पण अविधे सेवना, ते कामनी नहीं, मारे ग्राहकने विधि सहित कारण ग्रहवृं, तो ते कार्यने करे ॥२॥ इति द्वितीय गाथार्थः ।।
साध्य साध्य धर्म जेमाहे होवे रे, ते निमित्त अतिपुष्ट ॥ पुष्पमांहे तिलवासक वासना रे, ते नवि प्रध्वंसक दुष्ट ॥ ओ०॥३॥
अर्थः--हवे पुष्टनिमित्तनुं स्वरूप कहे छे. साध्य केतां करवा योग्य, जे कार्यधर्म, ते जे कारणमां होय, ते तेनुं पुष्ट कारण कहीये, ते पुष्ट कारण विधिये कार्य करवाने अर्थे ग्रह्यो
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दे० चो० बा०
थको कार्यने करे, पण ते कार्यनो ध्वंसक न थाय, तेहनो दृष्टांत कहे छे. जेम तेलने सुगंधवासना करवारूप कार्य, तेनुं कारण पुष्प छे, परंतु वासना करवी ते साध्य छे, ते वासना फूलमध्ये छे, अने ते फूल ते तेल तथा तेलनी वासनाना ध्वंसक नथी, तेमाटे ते पुष्टनिमित्त छे ॥ उक्तं च विशेषावश्यके ॥ कार्यस्य आसन्ननिमित्तं इति तदेव पुष्टं, दूरतरं कारणनैमित्तिकं तत् अपुष्टं ॥ इति ॥ तथा च श्रीसिद्धसेनपूज्यैः ॥ पुष्टहेतुर्जिनेंद्रीय, मोद्भवा ॥ इति ॥ तेहथी श्रीअरिहंतदेव ते मोक्षरूप कार्यना पुष्ट निमित्त छे, जे माटे साम्य जे निरावरण, परमात्मपद ते श्री अरिहंतने विषे छे, माटेज श्री अरिहंत ते पुष्ट निमित्त छे, जो विधियें सेवन थाय, तो एथी मोक्षकार्य निपजे ॥ ३ ॥ इति ॥
दंड दंड निमित्त अपुष्ट घडातणो रे, नवि घटता तसु मांह ॥
साधक साधक प्रध्वंसकता अछे रे, तिणें नहीं नियत प्रवाह || ओ० ॥ ४॥
अर्थः- हवे अपुष्टनिमित्त देखाडे छे, जेम दंड ते घडानुं अपुष्ट निमित्त छे, कारण के जेम फूलमांहे सुगंधवासना छे. तेम घटता केतां वटपणं ते दंडमांहे नथी, कर्त्ताने प्रेरवे कारण छे, ए दंड वटनं साधक निपजाववानुं कारण पण छे, अने घटनुं प्रध्वंस करवानुं कारण पण छे, जो घट ध्वंसकर्ता तेही दंडने घट ध्वंस करवाने प्रवर्त्तावे तो घट ध्वंस करवानुं कारण पण तेहीज दंड थाय, माटे ए नियत प्रवाह केतां निथी एक चालनो नथी, जे निवें घट करे, ए धर्म एहमां
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विंशतितम श्री मुनिसुव्रतजिन स्तवनं
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नथी, अने श्री अरिहंत परमात्मानुं सेवन ते निश्चे सिद्धतार्नु कारण छे, एहने सिद्धिकार्यनी रु, जे सेवे, तेहने नियमा सिद्धि निपजे ॥ ४ ॥ इति ।।
षट् कारक षट् कारक ते कारण कार्यनुं रे, जे कारण स्वाधीन ॥ ते कर्त्ता ते कर्ता सहुकारक ते वसु रे, कर्म ते कारण पीन ॥ ओ०॥५॥
अर्थः--हवे कारणनी पुष्टता कहेवा निमित्ते कारक कहे छे. १ कर्ता, २ कर्म, ( कार्य ) ३ करण, ४ संप्रदान, ५ अपादान, ६ अधिकरण. ए छ कारक छे, ते हरेक कार्य, निपजाववानां कारण छे. जिहां कर्ता क्रिया करे, तिहां अनुक्तपणे (सहजपणे) ए छ कारक जाणवां, इहां आत्मा पोतानुं सिद्धतारूप कार्य तेने करवा रूप क्रिया करे, तेवारें ए छ कारक सर्व होय, तिहां कर्ता जे आत्मा तेहनुं सिद्धिरूप कार्य अभेद छे, ते माटे तेनां कारक पण अभेद छे, अने मिन्नकार्यनो कर्त्ता मिन्न होय, तेबारे कारक पण भिन्न होय, ए नीति छे, परंतु निमित्त कारण तो सर्वकार्योमा मिन्नज होय, माटे सिद्धरूप कार्यनुं निमित्त कारण श्रीअरिहंत छे,. तेहने कारक उपादानपणे सर्व पहोंचे छे, ए नीति छे.
हवे छ कारकमां प्रथम कर्ता नामें कारक छे, तेहनु लक्षण कहे छे. जे कार्य निपजवान स्वाधीन कारण एटले सर्वकारक तेहने आधीन होय ते कर्ता कारक कहीये. स्वतंत्रः कर्ता, इति वचनात् ॥ कारणमहवा छद्रा, तत्थसंततोत्ति कारणं
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दे०
चो.
बा.
कत्ता ॥ श्रीभाष्यसुधांबुधिवाक्यं ॥ सर्वकारक ते कर्तीने वशे छे, आधीन छे. हवे बीजुं कर्मनामा कारक, ते जे कारणे पुष्ट थाये अने कयु थाय, ते कर्मकारक कहीयें ॥ उक्तं च ॥ कम्मं किरियाकरण इति ॥
कार्य कार्य संकल्पे कारकदशा रे, छत्ती सत्ता सद्भाव ॥ अथवा तुल्य धर्मने जोयवे रे, साध्यारोपण दाव ॥ ओ० ॥६॥
अर्थः-इहां कोई पूछशे जे कर्म तो कार्य छे, पण कारण नथी, तेहने उत्तर कहे छे. जे कर्त्ताने पहेलां तो कार्यनो संकल्प थाय छे, ते वखतें ते कर्ता पहेला संकल्प कार्यने विचारे, ते वार पछी कार्य करे, ते माटे कारण कहियें ॥ उक्तं च विशेषावश्यके ॥ सर्वोऽपि बुद्धौ संकल्प कार्य करोति इति ॥ व्यवहारस्ततो बुद्धावद्धयवसितस्य कुंभस्य चिकीर्षितो मृण्मयः कुंभस्तछुट्यालंबनतया कारणं भवति ।। अथवा स्थासादि काल ते घट कार्य- कारण छे, अने कर्त्ताने तो स्थासादि कार्य छ, अथवा जे कार्य निपजाववानुं मृत्तिकादिक मूल उपादान, तेहमां जे कार्यनी छति सत्तायें योग्यतापणे रही छे, ते कार्यपणुं सत्तागत ते प्रागभावी कार्य- कारण छे ॥ उक्तं च ॥ अथवा भव्यो योग्यः स्वरूपलाभस्येति शक्यउत्पादयितुमतः सुकरत्वात्कार्य मप्यात्मनः कारणमिष्यते अवश्यं च कर्मणः कारणत्वमेष्टव्यं । इति ॥ सत् भाव नजीकपणे जे कारण उपादान निमित्त ते सर्व नजीक करे, कार्यने अ ते कारणनुं सत् भाव
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विंशतितम श्री मुनिसुव्रतजिन स्तवनं
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छतांपणुं ते कार्य बुद्धिये मेलवे, ते माटे कार्यनें कारण कहे अथवा तुल्य धर्मनुं जोवं, जे मुजने एहy कार्य निपजावq छे, जेम कोइ आत्मा मोक्ष पूर्णानंद करवाने उद्यमी थयो, ते सिद्धरूपनिष्पन्न तत्वने जोवे, अने विचारे जे मने माहरूं एहवू तत्त्व निपजावतुं छे, एम संकल्प करवो, ते तुल्य धर्म जोइ कार्यनो उद्यम घणो थाय, ते माटे कार्यने पण कारण कहेवू ॥ उक्तं च श्री पूज्यैः किं बहुना ॥ यथा यथायुक्तितो घटते तथा सुधायाः कर्मणः कारणत्वं वाच्यमन्यथा कर्मणो कारणत्वे करोति इति कारणमिति षण्णां कारकत्वादुपपत्तिरेव स्यादिति ॥ ए रीतें कर्मने विषे कारणपणुं मानयु, एमज कारकता छे, साध्यनु आरोपण करवू एहज कर्मने कारकपणुं जाणवू ॥ ६ ॥ इति षष्ट गाथार्थः ।।
अतिशय अतिशय कारण कारक करणते रे, निमित्त अने उपादान । संप्रदान संप्रदान कारण पद भव नथी रे, कारण व्यय अपादान ॥ ओ०॥७॥
अर्थ:--अतिशय उत्कृष्टपणे जे कारण ते कारणनामा त्रीजु कारक कहिये, तेहना बे भेद छे. एक निमित्त कारण बीजं उपादान कारण, तिहां उपादान ते आत्मानो सत्ता धर्म निमित्त कारण श्रीअरिहंतादिक अने कारण पदनु भवन थयु एटले उपादान अधिक अधिक कारणता पामे, ते कारणपर्यायनो लाभ. ते संप्रदानपणुं जाणवू, जे उपादान कारणमां नवो नवो कारण पर्याय पामे, ते चोथु संप्रदानकारक कहिये, अथवा
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दे० चो० बा०
कार्यना नवा नवा पर्यायर्नु प्रगट थवू, ते संप्रदान कहिये. एटले कार्यपदनुं भवन ते संप्रदान कहिये, अने पाछला कारण पर्यायनो व्यय केतां विनाश ते अपादान पांच, कारक कहिये, जीर्ण कारणपर्यायनो नाश नव्य कारणतानुं निपजवू, ते रीतें कार्यनी निष्पत्ति छे ।। ७ ।। इति सप्तम गाथार्थः ।।
भवन भवन व्यय विणु कारज नवि होवे रे, जिम दृषदें न घटत्व ॥ शुद्धाधारशुद्धाधार स्वगुणनो द्रव्य छ रे,
सत्ताधार सुतत्व ॥ ओ० ॥८॥ अर्थः-कोइ कहेशे जे संप्रदान तथा अपादान तेहमां शी कारणता छ ? तेहने उत्तर कहे छे.जे भवन केतां नवा पर्याय थवू, व्यय केतां पूर्वपर्यायनो नाश, ए थया विना कार्य निपजे नहीं, जेम माटीनो पिंड, ते पिंडपर्यायनो व्यय स्थासपर्यायनुं भवन तथा स्थासपर्यायनो व्यय, कोशपयांयतुं भवन, कोशपर्यायनो व्यय, कुशल पर्यायनुं भवन, कुशल पर्यायनो व्यय, कपाल पर्यायन भवन, कपाल पर्यायनो व्यय, घटपर्याय भवन, ए रीतें कार्यनी उत्पत्ति छ, तेम सिद्धताने नीपजाववाने विषे पण मिथ्यात्वपर्यायनो व्यय, सम्यक् पर्यायन्नु भवन. तेहना साधकपर्यायनो जीर्णनो व्यय, नवानो उत्पाद, ए रीतें कार्यनी निष्पत्ति छे, परंतु भवन तथा व्यय विना कार्य थाय नहीं, जेम दृषदनेविषे घटपणुं न थाय, यद्यपि कर्ता चक्रादिक व्यापार करे, तो पण दृषद ( पाषाणनो ) घट न थाय, श्यामाटे जे दृषद (पाषाणनो)
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विंशतितम श्री मुनिसुव्रतजिन स्तवनं ७५१ विषे स्थासादि घटपर्यायनुं भवन व्ययपणुं नथी, ते माटे निपजे नहीं,
हवे छठें आधारकारक कहे छे. स्वगुण जे ज्ञानादिक तेहनो शुद्ध आधार द्रव्यपदार्थ छे, एटले जीव, द्रव्या, ज्ञान, चारित्र, वीर्य, दान, लाभ, भोग, उपभोग, अव्यात्राध, अमूर्त्तता, अगुरुलघुता, अखंडता, निर्मलता, कर्तृता, पारिणामिकतादि मूलगुण, सर्वनो आधार जीवद्रव्य छे, एम धर्मास्तिकायादि सर्व द्रव्य पोतपोताना गुणना आधार छे, तेहथी धर्मास्तिकायने आधार नामें कारक कहो ? एम कोई पूछे, तेहने उत्तर. जे धर्मास्तिकायने गुणाधारीपणुं छे, परंतु कर्तृत्वपणुं नयी, ते माटे कारकपणुं न गवेष्यु, शुद्धतत्त्वने सत्तानो आधार छ, सत्ता ते आत्मानो मूलधर्म जे निरामय, तेहनो आधार सुतस्वछे ॥८॥ इति अष्टम गाथार्थः ॥
आतम आतम कर्त्ता कार्य सिद्धता रे, तसु साधन जिनराज ॥ प्रभु दीठे प्रभु दीठे कारज रुचि उपजे रे, प्रगटे आत्मसमाज ॥ ओ० ॥९॥
अर्थः--हवे उपनय कहे छे. आत्मा स्वरूपरुचि, भवो. द्विग्न, मोक्षामिलाषी, सम्यक्दर्शन गुण प्रगटे, जे स्वरूपर्नु कर्तीपणुं विरतिपणुं तत्त्व ध्यान, तत्त्वतन्मयतादिकने करवे कर्त्ता छे, एटले तत्त्वार्थी आत्मा, कर्ता, कार्यसिद्धता, सकलगुणप्रगटतापणुं, निःकर्मावस्था, तेहतुं साधन निमित्त कारण श्रीजिनराज सर्वज्ञ छे, जे कारणे प्रभु श्रीपरमात्मा दीठे यथार्थ भासन
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दे० चो० बा०
थाय, कार्यनी स्वसत्ता प्रागभावभोगीपणानी रुचि उपजे, ते रुचि संपूर्णसिद्धतार्नु मुख्य कारण के, ते रुचि वधती साधनभाव, ध्यानावस्यावलंबीने पूर्णानंदता निपजावे, आत्मानो समाज केतां साम्राज्य प्रगटे, तेहथी मोक्षनो कर्त्ता आत्मा खरो पण मोक्षनी रुचि विनानुं कर्त्तापणुं प्रगटे नहीं, अने ते रुचि श्रीअरिहंतदेवने दीटे निपजे, माटे श्रीअरिहंतनुं दर्शन, ते रुचिन कारण छे, अने रुचि ते मोक्ष- कारण छे. एवी री ते मोक्षरूप कार्यनुं मूलकारण श्रीअरिहंतज छे, ते माटे माहारे मोक्ष निपजे, ए उपकार तत्वहितना करनार, श्रीअरिहंतनो जा" ।। ९ ।। इति ।।
वंदन वंदन नमन सेवन वली पूजना रे, स्मरण स्तवन वली ध्यान । देवचंद्र देवचंद्र कीजें जगदीशनुं रे, प्रगटे पूर्ण निधान ॥ ओ० ॥ १० ॥
अर्थः--तेमाटे वंदन केतां कर जोडन, नमन केतां शीश नमाववारूप, सेवना ते आज्ञा मानवारूप, वली पूजना ते पुष्पादिकनी, तथा स्मरण ते वारंवार गुणनुं संभारवू, स्तवन वचनें करी गुणतुं कथन, हथी करवू, तथा च्यान ते प्रभुगुणे चित्तनी एकाग्रतानं करवू, एटला सर्व उपाय छे, ते सर्व देवचंद्र स्तुति कर्ता ते पोनाने कहे छे, जे वंदनादिक कर्तव्य कीजें, श्री जगदीशजी कोष यदयालनी ते करतां सेवकने प्रगटे केतां प्रकाश पामे, पूर्ण निया, अनंतगुण, आत्मशक्ति, परमानंदरूप निधान प्रगटे. एटले श्रीजिनराज परमात्मानी
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एकविंशति श्री नमिनाथजिन स्तवनं.
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सेवा करतां पोतानी पूर्णपरमात्मता निपजे, अविनाशी धन प्रकाश पामे, ए श्री मुनिसुरत देवाधि देवनो परम उपकार छे. ॥ १० ॥ इतिश्री मुनिसुवजिनस्तवनं संपूर्ण ॥ २० ॥ ॥अथ एकविंशति श्रीनमिनाथ जिनस्तवनं ॥
॥ पीछोलारी पाल, उभा दोय राजवी रे ॥ उ० ॥ ए देशी ॥ श्रीनमि जिनवर सेव, घनाघन उनम्यो रे ॥ घ० ॥ दिठां मिथ्या रोरव, भविकचित्तथी गम्यो रे ॥ भ० ॥ शुचि आचरणारीति ते, अभ्र वधे वडां रे ॥ अ०॥ आतमपरिणति शुद्ध, ते वीज झबूकडा रे ॥ ते ० १ ॥
अर्थः- हवे एकवीशमा जिनराज परमोपकारी तेहना गुण स्तवे छे. उपगारसंपदाएं करीने श्री एकवीसमा नमिजिनवर ते नमिनाम थापना ते शामाटे जे नमणाईनो उत्कृष्टो भाव छे, तेमाटे ते श्रीनमिनाथ जिन जे अकषायी, तेमांहे वर केतां प्रधान वीतराग, परमज़ानी, परमात्मा, शुद्धस्वरूपभोगी, चिदानंदघन, निर्विकारी देवने ओलखवुं तथा तेनो योग मलवो, घणोज दुर्लभ छे ॥ उक्तं च ॥ इंदत्तं चक्कित्तं, सुरमणि कप्पदुमस्स कोडीणं ॥ लाभो सुलहो दुलहो, दंसणो तित्थनाहस्स ॥ १ ॥ तेमाटे श्रीजिनेश्वरनुं दर्शन दुःप्राप्य छे, ते संसारचक्रमां मुंजित जीव, स्वतत्त्वथी रहित दीन रंकभूतने जिनसेवना किहांथी मले ? ते कोइक पुण्यानुबंधी पुण्यना उदयथी, जीवने जिनसेवना प्रगटी, ते जीव हर्षथी कहे छे, जे श्री नमि जिनवरनुं सेवन, तेहीज घनाचन केनां मेह उन्म्यो.
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दे० चो० बा०
जेम मेह चारे दिसायी चडी आवे, तेम मनें, · वचनें, कायायें, अध्यात्मपरिणतियें श्रीनमिप्रभुनो बहुमान नमन गुणनी अद्भुतता एटले प्रभुयोग मल्यानी आश्चर्यता प्रगटी, ते मेह रूप जाणवी.
वली मेह जेवार चारे तरफथी घटा करी उंचो आवे, तेवारें लोकना मनमां दुःकालनो भय होय ते जाय, तेम इहां श्री अरिहंत सेवनारूप मेघ जेवारें प्रगटे, तेवारे अनादि कालनो मिथ्यात्व रूप जे रोख केतां दुःकाल हतो, ते भविक जीवोना चित्तथी गम्यो केतां टली गयो, ए लाभ थयो.
मेघने विषे जेम मोटां वादलां वधे, तेम ए प्रभुभक्तिरूप मेघने विषे शुचि केतां पवित्र, अविधिरहित, आशातनारहित, पुद्गल आशंसारहित, एवी भली आचरणा जीवने थाय, तेहीज अम्रपटल केतां वादलांना समूह वधे, केतां महोटा थाय, एटले रूपी वस्तुनें रूपी उपमा घटे.
मेहमां विजलीना झबकारा वणा होय, तेम इहां प्रभुसेवना करतां आपणा आत्मानी परिणति शुद्ध थाय, गुणी शुद्धतत्त्वीना सेवनने अनुयायी थाय, तेहीज विजलीना झबुका जाणवा॥१॥ ॥ इति प्रथम गाथार्थः ।। वाजे वायु सुवायु, ते पावन भावना रे ॥ते॥ इंद्रधनुष्य त्रिकयोग, ते भक्ति एकमना रे ॥ते॥ निर्मल प्रभु स्तवघोष,ज्यु(ध्व?)निघन गर्जना रेज्यु॥ तृष्णा ग्रीष्मकाल, तापनी तर्जना रे॥ता० २॥
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एकविंशति श्री नमिनाथजिन स्तवनं. ७५५ अर्थ:--मेहमां जेम वायु अनुकूल होय, तेम ए जिनभक्तिरूप मेहने विषे जिनगुणनी बहुमान सहित जे भावना भाववी तेहीज सुवायु वाय छे. ___ वर्षादमां त्रण रेखा युक्त इंद्रधनुष्य शोभाकारी होय, तेम इहां मन, वचन, कायरूप त्रण योग ते भक्तिने विषे एक मना थया, ते इंद्रधनुष्य छे.
जेम मेहमां गर्जना होय, तेम इहां निर्मल उज्ज्वल प्रभुना गुण तेमनी जे स्तवना ध्वनि शब्द तेहीज घन केतां मेहनी गर्जना जाणवी.
मेहथी ग्रीष्म उष्णकालना ताप टले, तेम इहां प्रभुसेवनथी तृष्णा पुद्गल सुखनी पीपासानो जे अंतरंग ताप होय, ते टले एटले आत्माने आत्मसुखनी ईहायें पर जे तृष्णारूप ग्रीष्म कालनो महाताप, ते मटे ।। २ ॥ शुभ लेश्यानि आलि, ते वग पंक्ति बनी रे ॥ते॥ श्रेणीसरोवर हंस, वसे शुचि गुण मुनि रे ॥३०॥ चौगति मारगबंध, भविक निज घर रह्या रे॥म०॥ चेतन समता संग, रंगमें ऊमह्या रे ॥९० ३॥ ___अर्थः-जेम मेहमां बगपंक्ति होय तेम इहां प्रशस्त शुभलेश्या जे पद्मशुक्ललेश्याना परिणाम एहवी लेश्याशुभनी उज्ज्वलता ते बगपंक्ति छे. __वर्षादमां हंसपंखी सरोवरे वसे, तेम जिनभक्तिना योगें हंसपक्षी जेहवा मुनिराज ते ध्यानारूढ थइ उपशम तथा क्षपकरूप श्रेणीय जइ वसे..
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दे० चौ.
बा.
जेम वर्षादथी चार दिशिना मार्ग बंध थाय, तेम इहां जिनभक्तिना योगें चार गतिनो मार्ग बंध थाय एटले साचा मनयी जे प्रभुसेवन करे, ते चार गतिना भ्रमणने टाले.
वर्षाकाले सर्वलोक पोतानें घरे रहे. तेम इहां पण अनादिनो उद्धत परभावामिलाषी आत्मा ते अनेक विषय विकाररूप भावमा रहेतो हतो, तेने श्रीनिःकर्मदेवने निमित्तें स्वरूपनी प्राप्ति थइ, चेतनसमताने संगे रंगे केतां रीझ करीने ऊमह्यो थको समतामां रमी रहे, स्वात्म स्वभावमां अनुभव रंगे रमी रहे ॥ ३ ॥ इति तृतीय गाथार्थः ।। सम्यग्दृष्टि मोर, तिहां हरखे घणुं रे ॥ति०॥ देखी अद्भुत रूप, परम जिनवर तणुं रे ॥प०॥ प्रभुगुणनो उपदेश, ते जलधारा वही रे ॥ते॥ धर्मरुचि चित्त भूमि, माहे निश्चल रही रे ॥मां०४॥
अर्थ:--जिनभक्तिरूप मेह देखीने सम्यग्दृष्टि तत्त्वरुचिरूप मोर तेहने अत्यंत हर्ष आनंद उपजे, श्रीतीर्थकर देवन रूप केहबुं छे ? जो अत्यंत परमोत्कृष्टरूप सर्व देवता मलीने विकुर्वे, तोपण श्रीअरिहंतना पगना अंगुठा समान रूप करी शके नहीं, एहवू परमशीतल निर्विकारी परमेश्वरचं रूप देखीने सम्यक्दृष्टि जीव वर्षाकालना मोरनी परें हर्ष आनंद पामे.
प्रभु श्रीतीर्थकर देव, तेनी भक्तिमा परिणम्या, एवा तत्त्वरुचि जीव, ते पोताना वचनें उच्चार करीने प्रभुना गुणग्राम करे, ते प्रभुगुणगानरूप मेघनी जलधारा, वहीने ते
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एकविंशति श्री नमिनाथजिन स्तवनं.
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जलधारा धर्मरुचि जीवना चित्तरूप भूमिकामहे निश्चल रहे, एटले तत्त्वरुचिवंत जीवना चित्तमां प्रभुना गुण समाइ रहे || ४ ||
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चातक श्रमण समूह, करे तब पारणो रे ॥क० ॥ अनुभव रस आस्वाद, सकल दुःख वारणो रे ॥ स०॥ अशुभाचार निवारण, तृण अंकूरता रे ॥ तृ० ॥ विरति तथा परिणाम, ते वीजनी पूरता रे ॥ ते ०५ ॥
अर्थः-- प्रभुभेवनरूप जलधारा वरसतां श्रमण निर्ग्रथ तत्वरमणी महामुनि तद्रूप जे चातक ते पारणं करे छे, एटले सम्यग्दर्शन काले तत्त्वस्वरूपें पोताना अनुभवनी पीपासा थइ हती, ते पीपासा श्रीजिनभक्तिरूप कारण पामीने आत्मस्वरूपनुं यथार्थ ज्ञान ते रूप अनुभव तेहना रसनुं आस्वादन
तां भोगववापं ते रूप पारणं करे, पण ए पारणं कहेतुं छे ? जे सकल सांसारिक विभाव जे कर्मभार उग्रता गुणावरणतादिक तेनो वारणो केतां वारणहार छे, एटले तद्रूपदुः खनुं निवारण करे छे.
हवे वर्षाकाले नीलां तृण ऊगे, तेम जिनभक्तिरूप मेहमांहे पण अशुभ आचारनुं निवारण थयुं, ए तृणना नीला अंकूर
प्रगट्या.
वर्षाकालें कर्षणी लोक धरतीमां बीज वावे, तेम इहां आश्रवथी विरमवारूप विरतिना परिणाम उपना, तेहीज बीजनी पूर्णता थइ ॥ ५ ॥
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दे० चो० बा०
पंच महाव्रत धान्य, तणां कर्षण वध्यां रे ॥०॥ साध्याभाव निज थापी, साधनतायें सध्यां रे ॥ सा० ॥ क्षायिक दरसण ज्ञान, चरणगुण उपना रे ॥ च० || आदिक बहुगुण सस्य, आतम घर नीपना रे ॥ आ० ॥६॥
अर्थः- वर्षाकालमा जे बीज वाव्यां होय, ते उगीने वधे, इहां द्रव्य तथा भावथी पांच महाव्रत " सबाओ पाणाइवायाओ वेरमणं" इत्यादिक धान्य ऊगीने उत्सर्गावलंबी महात्रत ते निरतिचार थया, तेहीज व्याननां कर्षण वृद्धि पाम्यां, पण साव्यभाव केतां सात्यपशुं निज केतां पोतानो आत्मभाव ते साध्यपणे थापीने साधन कार्य निपजाववानी शक्ति, तेपणे सध्या, एटले साधनरूप थया, भावार्थ जे आत्मानी सत्ता संपूर्ण प्रागभाव करवी एहवो साध्य धारीने, महाव्रत परिण तिरूप साधनायें परिणम्या, क्षायिकनिरावरण, संपूर्ण केवल ज्ञान, केवल दर्शन, यथाख्यात चारित्र प्रमुख गुण ऊपना प्रगट यया इत्यादिक स्वगुणनी अनंतता तेहीज सस्य केतां धान्य ते जे आत्मा जिनसेवनमयी थयो हतो, तेहना घरे नीपना, आत्मप्रदेशसर्व ज्ञान, दर्शन, चारित्रनी पूर्णता पाम्या ॥ ६ ॥
प्रभुदरसण महा मेह, तणे प्रवेशमें रे ॥०॥ परमानंद सुभक्ष थयो, मुझ देशमें रे ॥ थ० ॥ देवचंद्र जिनचंद्र, तणो अनुभव करो रे ॥०॥ सादि अनंत काल, आतमसुख अनुसरो रे || आगा७॥
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द्वाविंश श्री नेमिनाथ जिम स्तवनं.
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अर्थः-- एहवा एकवीशमा जिनेंद्र श्री नमिनाथ, परम दयालु, गुण समुद्र, जगत्रयजीवना भावभास्कर, कर्मरोगना महावैद्य, तेहनुं जे दर्शन केतां मुद्रानुं जों, अथवा शासन, अथवा दर्शन शब्दे समकित, तेहीज महावर्षाद, तेहने प्रवेशें केतां पेसवे करीने परमानंद आत्मिक आनंदरूप सुभक्ष केतां सुकाल थयो, माहारा देश केतां असंख्यात प्रदेशरूप क्षेत्रने विषे, तेमाटे देवमांहे चंद्रमा समान अथवा देवचंद्र जे स्तुतिकर्त्ता तेहनुं संबोधन हे देवचंद्र ! श्रीजिनचंद्र श्रीवीतराग, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, तेहना अनुभव गुणज्ञानादिनुं आस्वादन करो, तेहनाज गुण बहुमानमांहे लीन रहो, तो थोडा कालमां सादि केतां जेहनी आदि छे, परंतु अनंत केतां छेड़ो नथी, एहवं जे अविनाशी आत्मिक सुख, तेहने अनुसरो केतां पामो, एटले अहो भव्यजीवो! तुमें श्रीनिर्मलानंदी संपूर्णस्वरूपभोगी, एहवा श्री जिनेश्वर तेहना गुणनुं बहुमान तथा तेहनी आज्ञानुं माननुं, तेमध्ये रहो, तो संपूर्णसिद्ध अविनाशी, अक्षयआत्मिक, अनंत संपदा पामो, स्वसंपदा प्रगट करवानो ए नियमा पुष्ट उपाय छे ॥ ७ ॥ इति श्रीनमिनाथजिनस्तवनं संपूर्ण ॥ २१ ॥
॥ अथ द्वाविंश श्रीनेमिनाथजिनस्तवनं ॥
॥ पद्मप्रभजिन जइ अलगा वस्या || ए देशी ॥ नेमि जिनेसर निज कारज करें,
छांड्यो सर्व विभावो जी ॥ आतमशक्ति सकल प्रकट करी, आस्वाद्यो निज भावो जी ॥ ने० ॥ १ ॥
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दे० चो० बा०
__अर्थः- हवे बावीशमा श्रीनेमिनाथनी स्तुति करे छे. जादवकुलमां तिलक समान, महाउपगारी, एहवा श्रीनेमिनाथ जिनेश्वरें निज केतां पोतानुं कार्य कर्यु, क्यांही पण आत्माने खरडवा दीधो नहीं, छांड्यो केतां तज्यो सर्व केतां सकल चार निक्षेपें विभाव ते अंतरंग तथा बाह्य कारणथी सर्व विभाव तज्यो, आत्मानी शक्ति असंख्यात प्रदेशने विशे जे अनंतज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र, अनंत सुख, अनंत अगुरुलघु, अनंत दान, अनंत लाभ, अनंत भोग, अनंत उपभोग, अनंत वीर्य, अवर्ण, अगंध, अस्पर्श, परम असंगता, अयोगीतारूप पोतार्नु प्रभुत्व, विभुत्व, कारणत्व कार्यत्व, व्यापकत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, अस्तित्व, नास्तित्व, भेदत्व, अभेदत्व, कारकत्व, पारिणामिकत्त्व, सत्त्व, प्रमेयत्व, द्रव्यत्व, ईश्वरत्व, सिद्धत्व, अखंडत्व, अलिप्तत्वादि ते उत्सर्ग आत्मसमाधिरूप सर्वशक्ति प्रगट करी, वली ते निरावरण आत्मधर्म तेहने आस्वाद्यो, स्वरूपभोक्तृत्वपणे निजभाव केतां पोताना भावपणे श्रीनेमिनाथ प्रभुयें भोगव्यो ॥१॥
राजुलनारी रे सारी मति धरी, .. अवलंब्या अरिहंतो जी ॥ - उत्तमसंगें रे उत्तमता वधे,
सधे आनंद अनंतो जी॥ने० ॥२॥
अर्थः-वली राजीमतिस्त्रीये पण रूडी मति अंगीकार करी, सर्व परिग्रहना संगनो त्याग करीने श्रीअरिहंत देव उपर अरिहंतनो राग धरी उपगारीपणे गुणीने आहरे अवि
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दाविश श्री नेमिनाथजिन स्तवनं.
७६१.
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लंब्या एटले भर्तारपणानो अशुद्ध राग टाली देवतत्त्वने रागें आदर्या, एम विचार्यु जे उत्तमने संगे उत्तमता वधे, एटले चारित्रवंत सर्वज्ञ श्रीनेमीश्वर भगवान् ते सर्वोत्तम छे तो एना संगयी महारी पण उत्तमता एटले सिद्धता पूर्णात्मता वधे, वली सधे केतां नीपजे. आनंद केतां आत्यंतिक, ऐकांतिक, निद्व, निरामय सुख थाय, तेमाटे तेहीज करवू घटे, एम सर्व भव्य जीवोयें विचार ॥ २॥ इति द्वितीयगाथार्थः ।
धर्म अधर्म आकाश अचेतना, ते विजाति अग्राह्यो जी॥ पुद्गल ग्रहवे रे कर्मकलंकता, वाधे बाधक वाह्यो जी ॥ ने० ॥ ३ ॥
अर्थः-हवे राजीमतीये जे विचायु, ते कहे छे. सर्व. लोकमां पंचास्तिकाय छे, अने काल ते छती रूपें द्रव्य नथी, श्रीभाष्यकार तथा अनुयोगद्वारसूत्र जोतां उपचारद्रव्य छे वली पंचास्तिकायमां धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय अने आकाशास्तिकाय, ए त्रण द्रव्य अचेतन छे, तथा विजाति छे. वली जीवद्रव्यनी ए जाति नहीं, अग्राह्य छे, ते अपरिणामीपणा तथा अचलपणा माटे जीवथी ग्रहवाय नहीं, तेमाटे एहथी पण माहरे काम नहीं, तथा पुद्गल द्रव्य साथै चिरकालनो परिचय छे, तेहने जो ग्रहीये, तो पुद्गल जडद्रव्यने ग्रहवे आत्माने नवां कर्म बंधाय, अने आत्मा कलंकसहित थाय, अने बाधकमात्र, परकर्तृता, स्वगुणरोधकता, चेतनादि गुणनी विपर्यासता वाधे केतां वृद्धि पामे, ते माटे पुद्गलने लेतां
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दे० चो० बा०
अनंतो काल थयो, पण आत्महित थयुं नहीं, तेमाटे ए पुद्गलना संगथी बाह्याभीड वधे, माटे उत्तम जीव, एहने ग्रहे नहीं, एम राजुले विचार्यु, जे एने पण ग्रह नहीं, केमके एना ग्राहक तो अनंता जीव निगोदमध्ये पड्या छे ॥३॥ इति तृतीयगाथार्थः ॥
रागीसंगें रे रागदशा वधे, थाए तिणे संसारो जी ॥ नीरागीथी रे रागनुं जोडवू,
लहिएं भवनो पारो जी ॥ ने० ॥ ४ ॥
अर्थः--हवे पांच, जीवद्रव्य ते अनेक आत्मा छे, बली स्वजाति पण छे, माटे तेहने ग्रही राग करीये, परंतु एक अवगुण एहमां पण दीठो, ते कहे छे, जे संसारी जीव तो राग द्वेष संयुक्त छे, माटे तेहनो संग कीधे तो आपणने पण राग दशा वधे, अने रागदशा तो अभिनवबंधनो हेतु छे, अरिहंतदेवनां आगम जोता अने आत्मधर्म जोतां, राग तो तजवा योग्य छे, रागथी चार गतिरूप संसार थाए वधे, माटे ए पण आत्महित नहीं, ते माटे नीरागी, वीतराग, परमचारित्री, सर्वभावपरत्यागीथी, जो राग जोडीयें, तो भवनो पार पामीये, यद्यपि क्षय तो रागनोज करवो छे, पण प्रथम राग पलटाववानो ए उपाय छे, जे नीरागीथी राग जोडी यें, एटले ते नीरागी राग करे नहीं, तेथी अनुक्रमे ए आपणो राग पण क्षय पामे, तेवारे ए आत्मा वीतरागभात्र भजे ॥ ४ ॥ इति चतुर्थ गाथार्थः ॥
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द्वाविंश श्री नेमिनाथजिन स्तवनं .
अप्रशस्तता रे टाली प्रशस्तता, करतां आश्रव नासे जी ॥ संवर बाधे रे साधे निर्जरा, आतमभाव प्रकासे जी ॥ ने० ॥ ५॥
७६३
अर्थः- ते माटे कामरूप जे अप्रशस्त राग हतो, ते
टाली अरिहंतपणारूप प्रशस्त राग करवो, गुणी उपर राग ते प्रशस्त छे, ते साधनकालें कामनो छे, ते प्रशस्त राग करतां अनुक्रमें आश्रव नाश पामे, नवा कर्म लेवारूप अशुद्ध परिगति टले, वली प्रशस्तरागी जीव, ते गुणीने अवलंब्यो रहे, तेहथी स्वगुणनी एकत्वता वधे, ते स्वगुण एकत्वता परिणामथी संवरपरिणति वधे, अने पूर्वकृत कर्मनी निर्जरा परीसाटकरूप ते पण सधे केतां नीपजे, ते संवरनिर्जराने प्रगटवे आत्मानो भावधर्म, अरूपीशक्ति प्रकाश पामे, निरावरण थाय ॥ ५ ॥ इति पंचम गाथार्थः ॥
नेमिप्रभुध्यानें रे एकत्वता, निजतत्त्वें एक तानो जी ॥ शुक्लध्यानें रे साधि सुसिद्धता, लहियें मुक्ति निदानो जी ॥ ने० ॥ ६ ॥
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अर्थः- राजीमतीजी एम विचारीने श्रीने मिपरमेश्वरनेज अवलंब्यां केमके नेमिप्रभुने व्यानें एकत्वता तन्मय करने करीने निज केतां पोताना तत्वें आत्मस्वरूपें एकतान केतां
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दे० चो० बा०
एकत्वपणुं नीपजे, ते जेवारें स्वरूपें एकत्वपणुं पामे, तेवारें शुक्लध्यान प्रगटे जे स्वरूप एकत्वपं तेहीज शुक्कुध्यान छे, ते शुक्लध्यानें करी पोतानी साध्यता साधी केतां नीपजावीने तेहथी मुक्ति जे सकलकर्मरहीतपणं तेहनुं निदान केतां मूलकारण लहीयें, केतां पामीयं ॥ ६ ॥
अगम अरूपी रे अलख अगोचरु, परमातम परमीशो जी ॥
देवचंद्र जिनवरनी सेवना, करतां वाधे जगीशी जी ॥ ने० ॥ ७ ॥
अर्थ:- तेमाटे सर्व भव्य आत्मार्थी अव्यात्म सुखरुचि एहवं तव सेवे, ते कहे छे. अगम केतां जेहनुं गम्य नहीं, अथवा जेमांहे अजाण जीवयी प्रवेश थाय नहीं, वली जेहनुं रूप, गंध, वर्ण, रस, संस्थान नहीं, तेमाटे अरूपी, तथा अलख hai पुलाभिलाषी, एकांतवादी, एवा नैय्यायिक, वैदांतिक, सांख्य मैमासिक, वैशेषिक, बौद्ध, नास्तिक, तथा जे एकांत द्रव्यदयादिक पक्षग्राही एवा जैनलिंगी इत्यादिकथी लखाय नहीं, एटले ओलखाय नहीं, वली अगोचर केतां इंद्रियगोचर नहीं, अतींद्रिय पदार्थ ते अतींद्रियस्याद्वादज्ञानें सापेक्ष उपयोगें ध्याननी धारणायेंज गोचर छे, वली परमोत्कृष्ट सर्व विभाव रहित अनंत गुणप्राग्भावरूप आत्मा छे, वली परमीश केतां उत्कृष्ट अविनाशी सहज अनंतगुण पर्याय धर्मना ईश्वर छे, वली नरदेव ते चक्रवतीं भावदेव ते भुवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी, वैमानिक, ए चार निकायना देवता, तथा धर्मदेव ते
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त्रयोविंश श्री पार्श्वनाथजिन स्तवनं.
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मुनिराज,जिनकल्पी स्थविरकल्पी, परिहारबिसुद्धि, पडिमापडिवन, सूक्ष्मसंपरायी, उपशांतमोही, क्षीणमोही उपाध्याय, श्रुतधर, पूर्वधर, आचार्य, गणधर प्रमुख ते धर्मदेव, ते सर्व मध्ये चंद्रमा समान नायक, शासनना पति, मार्गदेशक, एहवा जे जिनवर तेहनी सेवना आज्ञा मानवारूप करतां थकां वाधे केतां वृद्धि पामे, साधकसंपदा, तथा सिद्धतारूप संपदा, तेहथी श्रीतीर्थकर तीर्थपतिनी सेवना ते परम प्रधान छे. द्रव्यथी वंदन नमनादिक अने भावथी गुणनुं बहुमान, आज्ञाप्रमाणता रूप सेवा करता अनंता सिद्ध थया, वली अनंता सिद्ध थशे, एहीज मोक्षसुखनो उपाय छे ॥७॥ इतिनेमिनाथजिनस्तवनं संपूर्ण ॥२२॥ ॥अथ त्रयोविंशश्रीपार्श्वनाथजिनस्तवन।
॥ कडखानी देशी॥ सहजगुण आगरो स्वामी सुखसागरो, ज्ञानवयरागर प्रभु सवायो ॥ शुद्धता एकता तीक्ष्णताभावथी, मोहरिपु जिति जय पडहवायो॥१॥
अर्थः--हवे वीसमा श्रीपार्श्वनाथ पुरषादानी परमेश्वरनी स्तुति करे छे. श्रीपार्श्वनाथ प्रभुजी कहेवा छे! सहज अकृत्रिम वस्तुना मूल धर्म ज्ञानानंदादिक तेहना आगर छे, अनंत आत्मगुण उपजाववाना धाम छे, स्वामी केतां स्वसंपदाना अधिपति छे, सुखना सागर छे, एटले जे अतींद्रिय,
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दे० चो० बा०
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स्वाधीन, निरामय, निःप्रयास, अविनाशी सुख तेना समुद्र छे, निःसंग सुखना पात्र छे, केवलज्ञानरूप वयर केतां वज्र ते हीरो तेहना आगर छे, सदा सर्वदा प्रभु तमें सवाया छो, ए श्रीपार्श्वनाथ स्वामीनी शुद्धता, ज्ञाननी यथार्थता, निर्मलता, एकता, ते चारित्रनी स्वरूप तन्मयता. तीक्ष्णता, ते वीर्यनी तीव्रता, वीर्यनी तीक्ष्णता ते धारा छे, अने चारित्रनी एकता ते पुंटलथी प्रेरणा छ, तथा ज्ञान ते प्रकाश देखाडण हार छे, ते माटे ए मलेज मोक्ष छे. कोइ कहेशे जे सम्यकदर्शन का न कयुं ? तेहने उत्तर. जे ज्ञान ते दर्शनयुक्तनेज कहे छे. एटले ज्ञानमध्ये दर्शन- एकपणुं छे, तथा तप ते वीर्यनी तीक्ष्णता कही छे, उक्तं च आवश्यकनियुक्ती ॥ नाणं पयासगं सोहगो उ तवो संयमो उ गुत्तिकरो ॥ तिण्हंवि समाओगो, मोरको जिणसासणे भणिओ ॥१॥ एटले शुद्धता, एकता, तीक्ष्णताथी मोहरिपुने जीतीने अर्थात् ज्ञान, चारित्र, तथा तपना बले मोहादिक कर्मने हणीने, जयनो पडहो बजाव्यो ॥१॥ इति प्रथम गाथार्थः ॥
वस्तु निजभाव अविभास निकलंकता, परिणति वृत्तिता करी अभेदें ॥ भाव तादात्म्यता शक्तिउल्लासथी, संतति योगने तुं उच्छेदे ॥ स० ॥२॥
अर्थः--हवे शुद्धतादिकनुं स्वरूप कहे छे. वस्तु जे जीवादिक छ द्रव्य, तेहना जे निज केतां पोताना भाव ते गुणपर्यायरूप उत्पाद, व्यय परिणतिनो अविभास केतां जा
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त्रयोविंश श्री पार्श्वनाथजिन स्तवन. ७६७
णवं, ते पण निकलंक एटले एकांतता अयथार्थता उन्नतता अधिकता रहित सम्यग्ज्ञान तेने शुद्धता कहीजें, तथा परिगति जे जीवनो शुद्ध मूल परिणाम ते स्वरूपने विषे एकवपणुं परभावमा पेसे नहीं, ए आत्मानी परिणति छे, अने संसारी जीवने विभाग रंगीने ते मूल परिणति तो चारित्र मोहनीयें आवृत्त छे, तेणें करीने वृत्ति जे प्रवृत्ति ते रागी द्वेषी पुद्गलभोगीपणे प्रवृत्ति रही छे, ते प्रवृत्ति तजीने शुद्ध स्वरूपपर भणी करि, ते प्रवृत्ति तथा परिणति बेहुनुं एकज प्रवर्त्तन थयुं जे परिणति तेहीज प्रवृत्ति रही, पण औपा धिक प्रवृत्तिनो अंश पण रह्यो नयी, ते माटे परिणति तथा प्रवृत्ति बेतु एकपणे अभेदें करी तेने एकता कहीयें. वली भावतादात्म्यता शक्ति केतां जे विभाव ते तज्जन्यता केतां तदुत्पतिसंबंधे छे, ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्म ते संयोग संबंध छे, अने शुद्धक्षायिक वीर्यादिक स्वगुण ते तादात्म्यसंबंधें छे, ते तादात्म्य संबंधती जे आत्मिक शक्ति क्षायिकवीर्यना उल्लासथी ते आत्माबल संततियोगमां संतति केतां परंपरानो जे संयोगकर्म संबंध, तेहने उच्छेदे, एटले ज्ञानावरणादि क र्मनी प्रकृति, स्थिति, रस, प्रदेशनो बंध, तेहनुं स्थिति प्रमाणे रहेवुं छे, एटले जे कर्मने आत्मप्रदेश साथ संबंध ते असंख्यातो काल उत्कृष्टो सित्तेर कोडाकोडी सागरोपमनो छे, परंतु एकबंध भोगवतां बीजा स्थितिबंध प्रतिसमयबंधाय छे, वली ते भोगवतां बीजा प्रतिसमय अनेक बंधाय छे, एटले.. कर्मपुद्गल ते एक समय बंध तेहनो संयोग तो सादि सांत छे, परंतु अभिनवबंधनी परंपरायें अनादि छे, जेम पिताथी पुत्र, पुत्रधी वली पुत्र, एटले तेनो ते मनुष्य तो पोताना.
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दे० चो० बा०
आयुष्य प्रमाणे वरते, परंतु संताननी परंपरा अनंती चाले, तेम तेनां तेहीज कर्म तो स्थिति प्रमाणे रहे, परंतु पूर्वकमैंने भोगववे, नवानो बंध थाय, तेहने भोगववे, वली बीजा नवानो बंध, एम संताननी परंपरायें ए अनादिनो छे. ते संततियोग आत्मवीर्यरूप तीक्ष्णता लें हे परमेश्वर । तु उच्छेदे केतां सर्वथा उच्छेद करे, एटले ज्ञान, दर्शन, चारित्र वीर्यना, बलें अनादि कर्मसंबंधने तु विनाश कर्यो ए शक्ति प्रभुजी तुमारामांज छे, बीजामां नहीं, ए कार्य तर्फे कर्यु, निरावरण थया ॥ १ ॥ इति द्वितीय गाथार्थः ॥
दोष गुण वस्तुनी लखीय यथार्थता, लही उदासीनता अपरभावें ॥ ध्वंसि तज्जन्यता भावकर्त्तापणुं, परम प्रभु तुं रम्यो निज स्वभावें ॥स०॥३॥
अर्थ:-- हवे वली एज शुद्धता, एकता, तीक्ष्णता ए नो अर्थातर कहे छे. वस्तु जे वस्त्र, धन, वनिता, शीत, आतप, विषादि, तेना दोष ते अशुभ वर्णादिक तथा गुण ते शुभवर्णादिक, तेहने लखे केतां जाणे, यथार्थपणे एटले अशुभदोष रहित वस्तुने अशुभदोषी सहित जाणे अने शुभगुणवंत वस्तुने शुभ जाणे, जड वस्तु जडपणे जाणे, चेतन वस्तुने चेतनपणे जाणे, ते यथार्थ स्याद्वादपणे जाणे, ए शुद्धता कहीयें. अने ते वस्तुने इष्टता, अनिष्टता रहितपणे जाणे, ते उदासीनता कहीयें. एहवुं उदासीनतापं तेने रही केतां पामीने एटले एवं उदासीनपणं जे पाम्यो, तेथी एक
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त्रयोविंश श्री पार्श्वनाथजिन स्तवनं.
७६९
पोतानो आत्मा असंख्यातप्रदेशी तेहने विषे व्याप्यव्यापकभावें रह्या जे गुणपर्याय, तेहयी अपर भाव केतां अन्यभान वने एटले बीजा अन्य केतां जुदा जे अनंता जीव तथा अनंता पुद्गगलादिक अजीव पदार्थ, ते सर्वयी उदासपणे सवना अग्राहक, अभोगी, असंगी थया, ए सर्व चारित्र परिणतिने एकता कहिये अने ध्वंसी केतां उच्छेदीने तज्जन्यताभावे जे विभावक पणुं तेहने छेदीने छेदकता शक्ति ते तीक्ष्णता जाणवी. ए कार्य करवे हे प्रभुजी ! तुं निज केतां पोताने स्वभावें रम्यो, आत्मस्वभावरमणी थयो ॥३॥ इति तृतीय गाथार्थः ॥
शुभ अशुभ भाव अविभास तहकीकता, शुभ अशुभ भाव तिहां प्रभु न कीधुं ॥ शुद्धपरिणामता वीर्यकर्ता थइ, परम अक्रियता अमृत पीधुं ॥स०॥ ४ ॥
अर्थः--वली एहीज त्रिभंगीनो अर्थातर कहे छे. शुभ केतां प्रशस्त अशुभ केतां अप्रशस्त जे भाव, तेहनी जे अविभास केतां ओलखाण, तहकिकता केतां तेहने निर्धारे ते शुद्धतापणे ए सर्व तमे जाण्यं परंतु हे परमेश्वर ! तुमें तिहां रागीद्वेषीपणे शुभअशुभ भाव पण कयों नहीं, एहीज एकता, चारित्र धर्मनी अरागी, अद्वेषी, परिणति ते एकतर शुद्ध निरावरण परिणामता ते पारिणामिकभावें जे वीर्यगुण, तेहना कर्ता थइने एटले रागद्वेषने अनुयायीपणे वीर्यनो विकार छे, ते रागद्वेष रहितपणे थये, वीर्य शुद्ध
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दे० चौ. बा. थाय. तेंवारे स्ववीर्यबलें पारिणामिक कर्ता थइने, एटले स्वपरि गॉमिकताना कर्ता थइने परम केतां उत्कृष्ट अक्रियपणारूप अमृततुं पान तमें कर्यु एटले विभाव कर्तृता तथा साधकरूप कर्तृता तजीने अकंप, अचल, वीर्यपणे हे परमेश्वर ! तमें अक्रिय धयां ॥ ४ ॥ इति चतुर्थ गाथार्थः ॥
शुद्धता प्रभु तणी आत्मभावें रमे, परम परमात्मता तास थाए । मिश्रभावें अछे त्रिगुणनी भिन्नता, त्रिगुण एकत्व तुज चरण आए ॥स० ५॥
गुण जे रखनकेतां तारे ठाणे एकत्वाचारित्र स्थिरता
अर्थः-एहवी शुद्धता, तत्त्वता, निरावरणता, तथा अनंतगुणभांगीपणानी जे प्रभुता, ते आत्मभावें केतां पोताने आत्मपणे रमे, एटले प्रभुनी प्रभुता तेनो रंगी जे जीव, तेहने परम उत्कृष्ट शुद्ध परमात्मापणुं थाय, मिश्रभाव जे क्षयोपशम भावें विगुण जे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तेहनी भिन्नता केतां मेदरत्नत्रयी छे, साधक छे, परंतु सविकल्प छे, ते त्रिगुण जे रत्नत्रयी, तेह- जे एकत्व केतां एकपणुं अभेदपर्ण ते थाय, तुज केतां ताहरे चरण यथाख्यात क्षायिक चारित्र आवे, प्रगटे, एटले क्षीणमोहगुणठाणे एकत्व वितर्क अप्रविचार शुक्लध्यान उपने, जे दर्शन निर्धाररूप, तथा चारित्र स्थिरतारूप, ए बे धारा, ज्ञानधारायी अभेद थई, एटले प्रथम मिध्यात्वकालें तो ज्ञान विपर्यास रूपे हतुं ते सम्यक्दर्शन प्रगटे यथार्थज्ञान थयु, तेवारे ज्ञानस्वरूप रमणी थयो, पछी ते ज्ञान स्वरूपरमणी स्थिरताभावने भजे, एम ध्यानारूढ थयो, विकल्प
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त्रयोविंश श्री पार्श्वनाथ जिन स्तवनं.
७७१.
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तजतो, पोताना आत्माने तत्वपरिणतिमध्ये त्मयता पमाड़तो पछी ज्ञानमुंज रमण, ज्ञाननोज निर्धार, एटले पर्यायभेदें ते मूलगुणे एकत्व पामे, ए अभेदरत्नत्रयीनु स्वरूप, ध्यानिगम्य छे, परंतु मूलनये आत्मा ज्ञान, दर्शन, ए बे गुणे सहित छ, एहवी आम्नाय छे, शेष निर्धारथिरताएं सर्व चेतना गुणनी प्रवृत्ति छ, तेमाटे ए ज्ञानमांहेज स्थिरत्वपरिणति ते अभेदता कहेवी, प्रथम क्षयोपशमी चलवीर्यताएं चेतनापर्यायनी प्रवृत्ति असंख्यसमयी हती, ते भासनप्रवृत्ति पछी को कारण कार्यमा थिरतापरिणतिएं हती, ते क्षीणमोहकाले रोधकने क्षये समकाल असंख्यसमयी प्रवृत्ति थइ, ते केवलज्ञान थये निरावरणतायें एकसमयी थइ, ए रीतें अमेद रत्नत्रयी थाय छे. ए श्री भाव्यथी समजवी ॥५॥
उपशम रस भरी सर्व जन शंकरी, मूर्ति जिनराजनी आज भेटो ॥ कारणे कार्यनिष्पत्ति श्रद्धान छे, तेणें भवभ्रमणनी भीड मेटी ॥स०६॥
अर्थः--उपशम रस जे कषायनो अभाव, तेहयी भरी. अने सर्वलोकने शंकरी केतां कल्याणनी करनारी एहवी मन भुनी धापना केतां मूर्ति तेहनी शांत अचल अस्पृहमुझ, ते आज़ भेटी केतां नमस्काररूपें सेवी. हवे कारण कार्य निपने, एहवी श्रद्धा प्रतीत छे, तेणें मोक्षनुं निमित्त कारणा, श्री जिनमुद्रानो योग ध्यो, अने उपादान कारम आत्मोपयोग प्रमुख अध्यवसाय जिनगुणभासन रागहः परिणम्या, एहबा
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दे० चो० बा०
कारणने मलवे, जाणुं छं, जे कारणता ते कार्यनो हेतु छे, माटे कारण मले कार्यनी निष्पत्ति यशे, एहवो आगमिक भव्यताद्योत उपयोग थयो, तेहथी जाण्युं जे ए परमपुरुषोत्तम देव श्री वीतरागनी इष्टता जो उपनी, तो कोइ दिवसें ए आत्मा गुणी थनार छे, ए अनुमाने जाण्यो जे कारण मल्यु तो कार्य निपजशे अने भवभ्रमण पण टलशे, ए हर्षनुं वचन छे, भवभ्रमणनी मीड मटी, ए कारणे कार्योपचारी वचन छ, एम भावना करवी. जो प्रभुनी प्रभुता इष्ट लागे छे, तो आत्मा सिद्धता वरशे ॥ ६ ।। इति षष्ठगाथार्थः ।।
नयर खंभायतें पार्श्वप्रभु दर्शनें, विकसते हर्ष उत्साह वाध्यो । हेतु एकत्वता रमण परिणामथी, सिद्धि साधकपणो आज साध्यो ॥स० ७॥
अर्थः-एहवा अध्यवसाय श्रीखंभायत तीर्थे श्रीसुखसागर पार्श्वजिननुं वंदन करतां, कोइक प्रभुनी प्रभुता ऊपर अपूर्व राग उपनो ते हर्षे ए वचन भांख्युं छे, तेमाटे खंभायतनुं नाम आण्युं छे, जे ए ए खंभायत नगरमां विकसित हर्षने विकस्वर थवे उत्साह, वाध्यो केतां वध्यो, हेतु जे कारण श्री अरिहंत देव, तेहथी एकत्वपणे अत्यंत रागें रम्यो जे परिणाम, एटले प्रभुथी अतिरागी परिणाम थवाथी, सिद्धि जे मोक्ष तेहर्नु साधकपणुं ए आत्मामांहे छे, एह अनुमान सध्यु एटले प्रभुरागें अनुष्ठान रहित आशंसारहित परिणम्युं, तो जाण्यु जे ए जीवमोक्ष निपजाववानी योग्यतावंत छे, माटे एहवं अनुमान कीg
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त्रयाविश श्री पाश्वनाथजिन स्तवनं. ७७३ जे आज केतां जे दिवसें प्रभुने भेट्यो, ते दिवसें माहरु सिद्धिसाधकपणुं सध्यु ॥ ७॥ इति सप्तम गाथार्थः ॥
आज कृतपुण्य धन्य दोह माहरो थयो, आज नर जन्म में सफल भाव्यो । देवचंद्र स्वामी ओवीशमो वंदीयो, भक्तिभर चित्त तुझ गुण रमाव्यो॥स०॥८॥
अर्थ:---आज जे वेलायें अनुष्ठानादिक दोष रहित आत्मा प्रभुभक्तं परिणम्यो, ते दिवस कृतपुण्य केतां पुण्योदय थयो, ए दिन धन्य थयो, ए दिनें जिनभक्ति रत्त अध्यवसाय थवे ए नर जन्म सफलपणे विचायो जे माहरो ए जन्म सफल छे, जे में नीरागी, निस्पृही, परमगुणी, सर्वज्ञ, सर्वदशी देव, श्रीपार्श्वनाथस्वामी वीशमा तीर्थकर तेने भेट्यो, वांद्यो, स्तव्यो, अने तेहनी भक्तिभरने विषे चित्त केतां मन रमाव्यु एटले पुद्गलरमणता तजी, श्रीअरिहंतगुणनी रमणताएं मन रमाव्युं तेहीज दिन कृतार्थ कृतपुण्य सफल मानवो, ए दिन लेखानो जाणवो, सर्व देवमांहे चंद्रमा समान अथवा स्तुतिकर्ता जे देवचंद्र ते एहवो लाभ पाम्यो ॥८॥ इति श्रीपार्श्वनाथजिन स्तवनं ॥
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दे.
चा.
बा.
॥अथ चतुर्विंश श्रीमहावीरजिन स्तवनं॥
॥ ढाल कडखानी देशीएं चाले छे । तार हो तार प्रभु मुझ सेवक भणी, जगतमा एटलुं सुजश लीजें ॥ दास अवगुण भस्यो जाणी पोतातणो, दयानिधि दीनपर दया कीजें ॥ता०॥१॥
अर्थः-कोइक अवसरे श्री जिनागमना अभ्यासें करीने संसार भ्रमण ज्ञानावरणादि आवरणे आवृत पोतानी अनंत आत्मशक्ति जाणीने अनादि परभावानुषंगता दोषने दुःखें उद्विग्न आत्मा ते पोतानी साधकता शक्ति अणदेखतो परमनिर्यामक समान चोवीशमा श्रीवीरनाथना चरण शरण निर्धारीने, श्री वीरप्रभुनी आगल प्रार्थना सहित, विनंति करे छे. जे हे नाथ! हे दीनदयाल ! हे प्रभुजी ! मुज सरिखो जे तत्वसाधन तथा आज्ञा निर्वाहमां असमर्थ, तेने मात्र नामयी सेवक जाणी तार तार !!! ए गुणरोधक रूप दुःखथी निस्तार !!! तुज सरीखा प्रभु विना बीजा कोने कहूं ? जगतमां एटलं सुजश लीजें, यद्यपि प्रभु तो जशना कामी नथीं, परंतु उपचारें भक्ति आतुरताएं कहे छे, जे मुज सरीखो दास ते यद्यपि राग, द्वेष, असंयम, अनुष्टानाशंसादि दोष, एकांतादिदोष, अनादरादिदोषरूप अवगुणें करी भरयो छे, तो पण ताहरो कहेवाय छे, तेमाटे हे दयानिधि ! केतां भावकरुणाना निदान ! दीन जे हुं रंक, अशरण, दुःखित, तत्त्वशून्य, ज्ञानादि संपदारहित, भाव
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चतुर्विंश श्री माहावीरजिन स्तवनं.
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दरिद्री, मार्गनो विराधक, असंयमसंचारी, महाविकारी, तमारी आज्ञाथी विमुख, अनादिनो उद्धत एहवा मुज ऊपर दया करीजें ताहरी कृपा तेहीज त्राण ( शरण ) थशे. यद्यपि अरिहंत तो कृपावंतज छे, तो कृपा शी करवी छे ? तो पण अर्थी विचारे नहीं माटे अर्थीनुं ए वचन छे, जे दयावंतनेज एम कहेवाय छे, जे हे देव ! तमें दयाना भंडार छो, तमनेंज अवलंबे तरीश, एज सत्य छे ।। १ ।। इति प्रथम० ॥
रागद्वेषें भस्यो मोह वैरी नड्यो, लोकनी रीतमां घणुंए रातो ॥ क्रोधवश धमधम्यो शुद्धगुण नवि रम्यो, भम्यो भवमांहे हुं विषय मातो ॥ ता० ॥ २ ॥
अर्थः- दास बहेद छे, रागद्वेषं भर्यो, जगत्मां पड्यो, गुणीथी ईर्ष्या करे के मोह जे मुंजितपणं ते तत्त्वनी अजाणता विपर्यासता, हेतुयें मोहवेरी नड्यो तेथी दबाणो छे, तथा लोकनी जे रीत केतां चाल तेमांहे घणोज मातो छे, लोकनी चाल मांहे मन छे, लोकरंजननो अर्थी छो, क्रोध जे ताता चंडपरिणाम तेहने विषे धमधमी रह्यो छे, जेम धमण धमतां अग्नि तपे, तेम तपी रह्यो छे, शुद्ध गुण जे सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान, शुद्धचारित्र, क्षमा, मार्दव, आर्जवादि आत्मगुण, तेने विषे रम्यो नहीं, तन्मयी न थयो. ते रूप न ग्रं. वली भम्यो चतुर्गतिरूप भवचक्रमांहे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप संसार तेने विषे हुं विषय जे पंचेंद्रियना स्वाद, तेमांहे मातो केतां मग्न थयो, विषयग्रस्त थयो यको एम संसारचक्र अनु
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दे०. चो० बा.
भव्यु ते. हवे मुजने तार तार हे नाथ ! दीनबंधु ! निःकारण दयाल ! मुजने तार भवदुःखयी उगार ॥ २ ॥
आदमु आचरण लोक उपचारथी, शास्त्रअभ्यास पण काइ कीयो । शुद्ध श्रद्धान वली आत्मअवलंबविनु, तेहवो कार्य तेणे को न सीधो ॥ ता०॥३॥
अर्थः-कदाचित् कोइ केहेशे जे आवश्यककरणादिक आचरण आदर्यु अंगीकार कर्यु, परंतु ते सर्व लोकोपचारथी एटले विष तथा गरल तथा अन्योन्यानुष्ठानथी भावना धर्म विना उपचारें अंगीकार कयु तथा कोइ कहेशे उच्चगोत्र यशादिक कर्मना विपाकें ज्ञानावरणीय क्षयोपशमयोगें शास्त्रनो अभ्यास पण कीधो, शास्त्र भण्या, शास्त्रना यथार्थ अर्थ पण जाण्या, तथा अध्यात्मभावनाएं स्पर्शज्ञानानुभव विना श्रुताभ्यास कीवो, परंतु शुद्ध यथार्थस्याद्वादोपेत भावधर्म ते विना शेष भावधर्मनी रुचिये जे प्रवर्तन दान दयादिक करीये ते सर्व कारण समजवां, परंतु मूल धर्म नहीं, धर्म ते वस्तुनी सत्ता, आत्माने विषे स्वरूपपणे परिणामिकताएं रह्यो छे, तेमांहे जे प्रगट्यो ते धर्म, एहवू शुद्ध श्रद्वान, शुद्धप्रतीति, तथा । वली आत्मानी स्वरूप प्रगट करवा रूप रुचि तथा आत्माना स्वगुणने आलंबन विना जे आचरण तेणे आचरणे तथा श्रुताभ्यासें तेहq कार्य जे कार्यथी आत्मानुं साधन थाय, ते कोइ नीपन्युं नहीं, जे थकी आत्मगुण कोइ प्रगटे, ते थयुं नहीं, तेमाटे अहो परमेश्वर ! ताहरीज कृपा पार ऊतारे, निस्तारे, तेमाटे तार तार ॥ ३ ॥ इति तृतीय गाथार्थः ।।
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चतुर्विंश श्री महावीरजिन स्तवनं.
स्वामिदर्शन समो निमित्त लही निर्मलो, जो उपादान ए शुचि न थाशे ॥ दोष को वस्तुनो अहवा उद्यम तणो, स्वामिसेवासही निकट लाशे ॥ ता० ॥४॥
अर्थः- स्वामी श्रीवीतराग जे परकार्यना अकर्त्ता, परभावादिना अभोक्ता इच्छा, लीला, चपलता रहित एटले जे इच्छा तेतो ऊणतावंतने छे, अने जे परमेश्वर तेतो पूर्णसुखी छे, तेमाटे इच्छारहित, वली लीला पण सुखनी लालचवालाने होय, अने लालवीपणं नयी, एहवा स्वामीना दर्शन समान निर्मल निमित्त लही केतां पामीने जो ए आत्मानुं उपादान मूलपरिणति ते शुचि केतां पवित्र नहीं थाशे तो जाणी यें
इयें जे वस्तु जे जीव, तेहनोज दोष केतां अवगुण छे, एटले रखे ए जीवनो दल अयोग्य होय ? ए जीवनी सत्ता केवी रीतनी ले ? अथवा पोताना उद्यमनी खामी छे ? केमके आकरे प्रयत्ने उद्यम करी आत्माने समाखो जोइयें, ते ए जीव. पोतानी ऊणारों आत्माने समारतो नथी, तेमाटे हवे शुं करवं ? जे बीजो उपाय कोइ नयी, तो श्रीअरिहंतनी सेवा तेहीज निशें निकट केनां नजीकता लासे केतां पमाइशे एटले ए आत्मा दृष्ट छे, परंतु श्रीजिनराजनी सेवनाथी दुष्टता तजशे ॥ ४ ॥
स्वामिगुण ओलखी स्वामीने जे भजे, दर्शन शुद्धता तेह पामे ॥
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७७८
दे० चो०
०
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ज्ञान चारित्र तप बौर्य उल्लासथी, कर्म झीपी वसे मुक्तिधामें ॥ ता० ॥ ५ ॥
अर्थः-स्वामी जे श्रीअरिहंत, तेहना गुणने ओलखीने जे प्राणी श्रीअरिहंतने भजे, केतां सेवे, ते दर्शन केतां समकितरूप गुण पामे, ज्ञान दर्शननी निर्मलता पामे, ज्ञान ते यथार्थभासन, चारित्र ते स्वरूप रमण, तप ते तत्त्वएकाग्रता, वीर्य ते आत्मसामर्थ्य, तेहना उल्लासथी केतां उल्लसवेथी ज्ञानावरणादिकर्मने झीपीने वसे केतां रहे, मुक्ति केतां मोक्ष निरावरण संपूर्ण सिद्धतारूप धामें केतां थानके वसे ॥५॥ इति पंचम गाथार्थः ।।
जगत वत्सल महावीर जिनवर सुणी, चित्त प्रभु चरणने शरण वास्यो । तारजो वापजी बिरूद निज राखवा, दासनी सेवना रखे जोशो ता०॥६॥
अर्थः-जगत्रयवत्सल केतां जगत्रयना धर्महितकारी, एहवा महावीर श्रीचोवीशमा जिनवर, तेहने राणी केतां सांभलिने चित्त केतां मन ते प्रभुने चरणने झरणे वास्यो केतां वसाव्यो, ते माटे हे प्रभु परमेश्रर ! आहो आत्मा तो पलटीने सर्वसाधन करे, एरवी शशि वाली नयी मारे भद्रक भक्तिएं कहुं छु जे हे तात ! हे दो ! मुज दासने तुमें तारजो, तमारं तारकता विरुद राखवा माटे दास जे सेवक तेहनी सेवना भक्ति सायवी दुर्लभ छे, पण तमारे संयोगें, तरीये, एहीज नियमा आधार ले ।। ६ ॥
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चतुर्विंश श्री महावीरजिन स्तवनं.
विनति मानजा शक्ति ए आपजों, भावस्याद्वादता शुद्ध भासे ॥ साधी साधक दशा सिद्धता अनुभवी, देवचंद्र विमल प्रभुता प्रकाशे ॥ ता० ॥ ७ ॥
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अर्थ:- माहरी एटली विनति मानजो, ए पण भद्रकपणाथी भक्तिनुं वचन छे, जे शक्ति सामर्थ्य एवी आपजो, ते कहे छे, जे भाव केतां वस्तुधर्म ते स्याद्वादरीतें नित्य, अनित्य, अनेक, अस्ति, नास्ति, भेद, अभेदपणे छ द्रव्यना अनंता धर्मं शुद्ध, शंकादिक दूषण रहित भासे, केतां जाणपणामध्ये आवे, साधि केतां नीपजावीने साधकदशा ते भेदरनत्रयी, सिद्धता, निष्पन्नता, अनुभवे, केतां भोगवे, सर्वदेवमांहे चंद्रमा समान सिद्ध भगवान् तेहनी विमल केता निर्मल जे प्रभुता, ते प्रकासे केतां प्रगट करे, एटले स्याद्वाद ज्ञाने साधकता प्रगटे, साधकताथी सिद्धता प्रगटे, एहीज सारपद्धति छे ॥ ७ ॥
૧૭
७७९
एटले ए चोवीश स्तवन थयां पोताना जाणपणाप्रमाणे परमेश्वरनी गुण ग्रामें स्तवना करी, तेमांहे जे यथार्थ ते प्रमाण, अने अयथार्थनं मिच्छामि दुक्कडं. गीतार्थे गुण लेवो, दोष तजवो, में भद्रकतायें ए रचना करी छे, महोटा पुरुष क्षमा राखी गुण लेवा ॥ ॥ इतेि महावीर जिन स्तवनम् ||२४||
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७८०
दे० चो० बा०
॥ अथ सामान्यकालरूप पंचविंशतितम स्तवनं ॥
॥ काल बोलयानी देशीमां ॥
चोवीशे जिनगुण गाईयें, धाईये तत्त्वस्वरूप जी ॥ परमानंद पद पाईयें, अक्षय ज्ञान अनूपो जी ॥ च० ॥ १ ॥
अर्थ:-श्री ऋषभदेवथी मांडीने महावीर पर्यंत अवस पिणी काले शासनना नायक गुणरत्नाकर, महामाहण, महागोप, महावैद्य, एहवा चोवीश तीर्थकर थया, तेहने गाइयें केतां गुणग्राम करायें, अने पोताना तत्त्वस्वरूपने व्यायीयें तेहने ध्यावे, तत्त्वनी एकाग्रता पाभीयें, तेहयी परमानंद अविनाशीपद पामीजें. वली अक्षय, अविनाशी, एहवं क्षायिक ज्ञान ते अनूप अद्भुत पामीजे ||१|| इति प्रथम गाथार्थः । ।
चौहदसँ बावन भला, गणधर गुणभंडारो जी ॥ समतामयी साधु साधुणी,
सावय श्राविका सारो जी ॥ चां० ॥ २ ॥
अर्थ:- चोवीशे जिनराजना गणधर ( १४५२ ) भला गण गणि पिढकना धणी, गुणना भंडार तथा समतामयी साधु
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सामान्येकलशरूप स्तवनं.
७८ १
साध्वी, अने श्रावक श्राविका सार केतां प्रधान धर्मना धोरी, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रनां पात्र, ए प्रकारनो संघ ते सहित गायव || २ || इति द्वितीय गाथाः ||
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बर्द्धमान जिनवरतणो, शासन अति सुखकारो जी ॥ चौविह संघ विराजतो. दुःषमकाल आधारो जी ॥ चो० ॥ ३ ॥
-
अर्थ:-- तथा हमणा श्रीमान महावीर स्वामीं शासन अत्यंत सुखनं कारक ले ए शासनमांहे जे पेटा, ते जीव संसारनो पार पामे, तया दुसम काल पांचमा आरामध्ये भव्यजीवने आधारभूत चतुर्विध संघ बिराजे छे, वर्त्तमानकालें नवतत्त्व पद्रव्यनी ओलखाण थाय, मिथ्यात्व असंयमनो जेथी त्रास आवे, ते उपगार श्री वीरमभुना शासननो छे, ते श्रीवीरनांज आगम है ॥ ३ ॥
जिनसेवनथी ज्ञानता, लहे हिताहित बोधो जी ॥
अहित त्याग हित आदरे.
संयम तपनी शोधो जी ॥ चो० ॥ ४ ॥
अर्थः-- ए जिनसेवनानुं फल श्रीविशेषावश्यकने अनुसार कहीयें छैये. जे श्रीवीतरागनां उपदेश्यां सूत्रने सांभलवाथी जाणपणुं वधे, ते ज्ञानयी हित अलिनो बोध थाय, पछी
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७८२
दे० चो० बा०
अहितनो त्याग करे, तथा हितने आदरे तेहथी संयम तपनी शोध केतां शुभता धाय ।।४।।
अभिनव कर्म अग्रहणता, जीर्णकर्म अभावो जी ॥ निःकर्मीने अवाधता,
अवेदन अनाकुल भावो जी ॥चो०॥ ५॥
अर्थ:--संयम तपनी शुद्धता थवाथी नवां कर्मनी अग्रहणता थाय. एरले नवां कर्म न बांधे, अने जीर्ण केतां जूनां कर्मनो अभाव थाय, एठले पूर्वबंध सत्तागत कर्म निर्जरे अने नवानो बंद नहीं थाय, तथा मूलगां सत्तागत क्षय जाय तेवारे आत्मा निःकमी केतां सर्वकर्मरहित थाय, अबाधता केतां बाधा रहिल थाय, जे बाधा ते आत्मप्रदेशे पुद्गलना संगनी छे, युगलसंग ले, बाधा मटी गइ, तेवारें आत्मा अवेदन अनाकुलपणुं पास्यो ने आकुलता परोपाधिनी हती ते गइ ते सर्वप्रभुभक्तिनो उपगार जाणवो ते माटे चोवीशे जिनने स्तवीएं एहीज सार छे ॥ ५॥ इति पंचम गाथार्थः ॥
भावरोगना विमगथी, अचल अक्षय निराबाधो जी ॥ पूर्णानंददशा लही, विलसे सिद्ध समाधा जी ॥ चा० ॥६॥ अर्थ:--पछी भाव ले पराशयापीपणु तेहनो विगम
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सामान्य कलशरूप स्तवन.
७८३
केतां सर्वथी दलवे करीने अचल केतां चपलता रहित अक्षय hai अविनाशीपणुं निराबाध केतां अव्यावाध पद प्रगटे, ते सर्वनुं मूल कारण जिनराज श्री वीतराग देवथी सेवना भाव रुचे, द्रव्य तथा भावथी प्रगटे, माटे सेवना करवी एहीज हित छे, पूर्णानंद परमानंद अनंत गुणना भोगरूप स्वसि - द्वता दशा लही केतां पामीने विलसे केनां अनुभवे, सिद्धनिष्पन्न परनिष्ठितार्थ आत्मिक समाधि, ज्ञानदर्शन समाधि, जव्याबाधानंद समाधि भोगवे, पाने, ए श्री जिनेश्वरना सेवननुं फल एहीज परम निर्वाणपदनी प्राप्ति छे, तेणें सर्व विकल्प कल्पना निवारीने, सर्वज्ञ सर्वदशी शुद्धतत्त्वी परमेश्वर निर्वि कारी देवनुं सेवन करो, एहीज परमसुखनु पुष्ट कारण छे ॥ ६ ॥
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श्रीजिनचंद्रनी सेना, प्रगढे पुण्य प्रधानो जी ॥ सुमति सागर अति उल्लसे,
साधु रंग प्रभु ध्यानो जी ॥ चो० ॥ ७ ॥
***
.
अर्थ :-- श्री जिनचंद्र अरिहंत देव तेहनी सेवना करतां पुण्य प्रधान प्रगटे अने श्रेष्ट सुमति जे परमानंद साधकमति ते उल्लसे केतां उल्लास पागे अने प्रभुने ध्याने साधु केतां भलो रंग थाय. बीजो अर्थ श्रीजिनचंद्रसूरि भट्टारक श्री खरतर गच्छावीश्वर तेहना शीव्य श्री पुण्यप्रधानोपाध्याय, तेहना शिष्य श्रीमति सागरोपाध्याय, तेहना शिष्य श्रीसा'रंगवाचक, ए स्तुति कर्त्तानी परंपरामां बहुश्रुत थया, तेहनां नाम कह्यां ॥ ७ ॥ इति सप्तम गाथार्थः ॥
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མཆཀགལ་ཆཀཀཀའག ཆག་
दे चौ. बाल सुविहित खरतर गच्छवरू, राजसार उवझायो जी ।। ज्ञानधर्म पाठक तणो,
शिष्य सुजस सुखदायो जी ॥ चो० ॥८॥ __ अर्थ--सुविहित कहेता पंचांगी प्रमाण रत्नत्रयीनी हेतु केतां कारण एहवी जेहनी समाचारी, एहवो जे खरतरगच्छ ते मध्ये वर केतां प्रधान सर्व शास्त्र निपुण मरुस्थल विषे अनेक जिनचैत्यप्रतिष्टा कारक आवश्यकोद्धार प्रमुख ग्रंथोना कर्ता एवा महोपाध्याय, श्रीराजसारजी थया, तेहना शिष्य श्रीज्ञानधर्म उपाध्याय, न्यायादिक ग्रंथाध्यापक, जेणे साठ वर्ष पर्यंत जिव्हाना रस तजी शाक जाति तजी, ने संवेगवृत्ति धरी, तेमना शिष्य रूडा यशना धणी, रावना देवावाला एहवा ॥८॥ इति अष्टम गाथार्थः ।।
दीपचंद्र पाठक तणा, शिष्य स्तवे जिनराजो जी ।। देवचंद्र पद सेवा , पूर्णानंद समाजो जी ।। चो० ॥ ९ ॥
अर्थः--तथा जेणे श्री शजय तीर्थ उपर शिवासोमजी कृत चोमुखनी अनेक विंब प्रतिष्टा करी तथा पांच पांडवना बिंबनी प्रतिष्टा करी, तथा समोसरण चैत्य तथा श्रीकुंथुनाथ चैत्य प्रतिष्ठा करी, श्रीराजनगरे सहस्रफणापार्थ प्रभुनी प्रतिष्ठा
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श्रीदेवचंद्रजीकृत विंशति विहरमानजिन स्तवनं. ७८५
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करी, एहवा उपाध्याय श्रीदीपचंद्रजी, तेहना शिष्य पंडित देवचंद्रगणि, तेणें ए चोवीश प्रभुनी स्तवना भक्तिवशें करी, पोतानी भक्ति परिणति महानंद हेतु छे, एहवा गुणना नाथ, देवचंद्र पद पूर्णानंद जे सिद्ध अव्याबाध आनंदनो समाज केतां समुदाय ते पामे, ए जिनभक्ति ते मोक्षनो परमोपाय छे ॥ ९॥ इतिश्री चोवीश जिनस्तुतिनो बालावबोध संपूर्ण ॥ ॥ इति श्री देवचंद्रजी माहाराज कृत बालावबोध सहित
चतुर्विंशति जिनस्तवनानि संपूर्णानि ॥
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अथ श्रीदेवचंद्रजीकृत विंशति विहर
मानजिन स्तवनानि॥ ॥ तत्र प्रथम श्रीसीमंधरजिन स्तवनं ॥
॥ सिद्धचक्रपद बंदी ॥ ए देशी ॥ ॥ श्री सीमंधर जिनवर स्वामी, विनतडी अवधारो ॥ शुद्धधर्म प्रगट्यो जे तुमचो, प्रगटो तेह अम्हारो रे स्वामी, विनवीयें मनरंगे ॥ १ ॥ जे परिणामिक धर्म तुमारो, तेहवो अमचो धर्म ॥ श्रद्धाभासन रमण वियोगें, बलग्यो विभाव अधर्म रे, स्वामी ॥ वि० ॥ २ ॥ वस्तु स्वभाव स्वजाति तेहनो, मूल अभाव न थाय ॥ परविभाव अनुगत परिणतियी, कर्मे ते अवराय रे, स्वामी ॥ वि० ॥३॥ जे विभाव ते पण नैमित्तिक, संतति भाव अनादि ॥ परनिमित्त ते विषय संगादिक, ते संयोगें सादि रे, स्वामी ॥ वि० ॥४॥ अबुद्ध निमित्तें ए संसरता, अत्ता कत्ता परनो ॥ शुफ निमित्त रमे जब चिद्घन, कर्ता भोक्ता घरनो रे, स्वामी ॥ वि० ॥५॥ जेहना धर्म अनंता प्रगट्या, जे निजपरिणति वरीयो । परमातम जिनदेव अमोही, ज्ञानादिक गुणदरीयो रे, स्वामी ॥ वि० ॥ ६ ॥ अवलंबन उपदेशक रीतें, श्री सीमंधर देव ।। भजी ये शुद्ध निमित्त अनोपम, तजी यें भवभय देव रे, स्वामी ॥ वि० ॥७॥ शुद्धदेव अवलंबन करतां, परहरीये परभाव ॥ आत्मधर्म रमण अनुभवता, प्रगटे आतम भाव रे, स्वामी ॥ वि० ॥८॥ आतमगुण निर्मल नीपजना, ध्यान समाधि
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७८८ श्रीदेतचंद्रजीकृत विंशति विहरमानजिन स्तवनं.
स्वभावें ॥ पूर्णानंद सिम्ता साधी. देवचंद्र पद पावे रे स्वामी ॥ वि० ॥ ९॥ इति सीमंधरजिन स्तवनं ॥ ।। अथ द्वितीय श्रीयुगमंधरजिन स्तवनं ॥
॥ देशी नारायणानी ॥ श्री युगमंचर वीनबुं रे, विनतडी अवधार रे ।। दयालराय ।। ए परपरिणति रंगथी रे, मुझने नाथ उगार रे ।। द० ॥१॥ श्री० ॥ कारक ग्राहक भोग्यता रे, में कीधी महाराय रे ॥ द० ॥ पण तुझ सरिखो प्रभु लहि रे, साची वात कहाय रे ॥ द० ॥२॥ श्री० ॥ यद्यपि मूल स्वभावमें रे, परकर्तृत्व विभाव रे ॥ द० ॥ अस्तिधरम जे माहरो रे, एहनो तथ्य अभाव रे ॥ द० ॥ ३ ॥श्री०॥ परपरिणामिकता दशा रे, लहि परकारण योग रे ॥ द० ॥ चेतनता परगत थइ रे, राची पुद्गल भोग रे ॥ द० ॥ ४ ॥ श्री० ॥ अशुद्ध निमित्त तो जड अछे रे, वीर्यशक्ति विहीन रे ।। द० ॥ तूंतो वीरज ज्ञानथी रे, सुख अनंते लीन रे ॥ द० ॥ ५ ॥ श्री० ।। तिण कारण निश्चें कर्यो रे, मुझ निज परिणति भोग रे ॥ द० ॥ तुझ सेवाथी नीपजे रे, भाजे भवभय सोग रे ॥ द० ।। ६ ॥ श्री० ॥ शुद्ध रमण आनंदता रे, ध्रुव निस्संग स्वभाव रे, ॥ द० ॥ सकल प्रदेश अमूर्त्तता रे, ध्यातां सिद्ध उपाय रे ॥ द० ॥७॥ श्री० ॥ सम्यग् तत्त्व जे उपदिश्यो रे, सुणतां तत्त्व जणाय रे ॥०॥ श्रद्धाज्ञाने जे ग्रह्यो रे, तेहिज कार्य कराय रे ॥ द० ॥८॥ श्री० ॥ कार्यरुचि कर्ता ये रे, कारक सवि पलटाय रे ।। द० ॥ आतमगते आतम रमे रे, निज घर मंगल थाय रे ॥ द० ॥ ९॥ श्री० ॥ त्राण शरण आधार छो रे, प्रभुजी
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श्रीदेवचंद्रजीकृत विंशति विहरमानजिन स्तवनं. ७८९
भव्य सहाय रे || द० ।। देवचंद्र पद नीपजे रे, जिनपदकज सुपसाय रे ॥ ६० ॥ १० ॥ श्री० ॥ इति श्री युगमंधरजिन स्तवनं ॥
॥ अथ तृतीय श्रीबाहुजिन स्तवनं ॥
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|| संभवजिन अवधारीयें || ए देशी || बाहुजिणेद दयामयी, वर्त्तमान भगवान || प्रभुजी || महाविदेहें विचरता, केवल ज्ञान निधान ॥ प्र० ॥ १ ॥ बा० ॥ द्रव्यथकी छकायने, न हणे जेह लगार || प्र० || भावदया परिणामनो, एहीज छे व्यवहार || प्र० ॥ २ ॥ बा० ॥ रूप अनुत्तर देवथी, अनंत गुणुअभिराम ॥ प्र० ॥ जोतां पण जगजंतुनें, न वधे विषय विराम ॥ प्र० ॥ ॥ ३ ॥ बा० कर्मउदय जिनराजनो, भविजन धर्मसहाय ॥ प्र० || नामादिक संभारतां, मिथ्यादोष विलाय ॥ प्र० || ४ || बा० ॥ आतमगुण अविराधना, भावदया भंडार || प्र० । क्षायिक गुण पर्याय में, नवि परधर्मप्रचार ॥ प्र० ॥ ५ ॥ बा० || गुणगुण परिणति परिणमे, बाधकभाव विहीन ॥ प्र० ॥ द्रव्य असंगी अन्यनो, शुद्ध अहिंसक पीन ॥ प्र० ।। ६ ।। बा० ॥ क्षेत्र सर्वप्रदेशमें, नहीं परभाव प्रसंग ॥ प्र० ॥ अतनु अयोगी भावथी, अवगाहना अभंग ॥ प्र० || ७ || बा० ॥ उत्पाद व्यय ध्रुवपणे, सहेजें परिणति थाय ॥ प्र० || छेदन योजनता नहीं, वस्तुस्वभाव समाय ॥ प्र० ॥ ८ || बा० ॥ गुण पर्याय अनंततः, कारक परिणति तेम ॥ प्र० ॥ निज निज परिणति परिणमे भाव अहिंसक एम || प्र० ।। ९ ।। बा० ॥ एम अहिंसकतामयी, दीठो तुं जिनराज ॥ प० ॥ रक्षक निज परजीवनो, तारण तरण जिहाज || प्र०
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७९० श्रीदेवचंद्रजीकृत विशति विहरमानजिन स्तवन.
॥ १० ॥ बा० ॥ परमातम परमसेरु, भावदया दातार || प्र०॥ सेवो ध्यावो एहने, देवचंद्र सुरखकार ।। प्र० ।। ११ वा० ।। इति ॥ ३ ॥
॥ अथ चतुर्थ श्रीसुवाहुजिन स्तवनं ॥ ढाल ॥ माहरो वालो ब्रजचारी ।। ए देशी ॥ श्रीसुबाहुजिन अंतरजामी, मुझ नननो विशरामी रे ।। प्रभु अंतरजामी। आतमधर्मतणो आरामी, परपरिगति निःकामी रे ॥ प्र. ॥ १ ॥ केवल ज्ञान अनंत प्रकाशी, भविजन कमल विकासी रे ।। प्र० ॥ चिदानंद धन तत्त्वविलासी, शुद्धस्वरूप निवासी रे ॥ प्र० ॥ २ ॥ यद्यपि हुं मोहादिके छलीयो, परपरिणतिथं भलीयो रे । प्र० ।। हवे तुज सम मुज साहिब मलीयो, तिणे सवि भवभय टली यो रे ॥ प्र० ॥३॥ ध्येय स्वभावें प्रभु अवधारी, दुर्ध्याता परिणति वारी रे ॥ प्र० ।। भासन वीर्य एकताकारी, ध्यान सहज संभारी रे ।। प्र० ॥ ४॥ ध्याता ध्येय समाधि अभेद, परपरिणति विच्छे २ रे ॥ प्र०॥ ध्याता साधक भाव उच्छे, 'ध्ये शिद्धता वेदे रे ।। प्र० ॥ ६ ॥ द्रव्यक्रिया साधन विधि याची, जे जिन आगम वाची रे ॥ प्र० । परिणति वृत्ति विभा राची, तिणे नवि थाये साची रे ॥ प्र० ॥ ६ ॥ ॥ नवि भय जिनराज पसाये, तत्त्वरसायण पाये रे ॥ प्र० ॥ प्रभुभगते निज चित्त वसाये, भावरोग मिट जाये रे ॥ प्र० ॥ ७॥ जिनवर वचन अमृत अनुसरीये. तच्च रमण आदरिये रे ।। प्र० ॥ द्रव्यभाव आस्रव परिहरीयें, देवचंद्र पद वरीय रे ॥ प्र. ॥ ८ ॥ इति चतुर्थ श्री सुबाइजिन स्तवनं ॥ ४ ॥
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श्रीदेवचंद्रजीकृत विंशति विहरमानजिन स्तवनं. ७९१
॥ अथ पंचम श्रीसुजातजिन स्तवनं ॥ ।। देहं देहुं नणद हठीली ।। ए देशी ।। स्वामी सुजात सुहाया, दीठा आणंद उपाया रे । मनमोहना जिनराया ॥ जिणे पूरण तत्त्व निपाया, द्रव्यास्तिक नय ठहराया रे ॥ म० ॥१॥ पर्यायास्तिक नयराया, ते मूलस्वभाव समाया रे ॥४०॥ ज्ञानादिक स्व परजाया, निजकार्य करण वरताया रे ॥ म० ॥ ॥२ ॥ अंशनय मार्ग कहाया. ते विकल्पभाव सुणाया रे ॥म० ॥ नय चार ते द्रव्य थपाया, शब्दादिक भाव कहाया रे ॥ म० ॥ ३ ॥ दुर्नय ते सुनय चलाया, एकत्व अभेदें घ्याया रे ॥म० ॥ ते सविपरमार्थ समाया, तमु वर्तन भेद गमाया रे ॥ म० ॥ ४॥ स्वादादीवरतु कहिजे, तसु धर्म अनंत लहीजे रे ॥ म० ।। सामान्य विशेषतुं धाम, ते द्रव्यास्तिक परिणाम रे ।। म० ॥ ५॥ जिनरूप अनंत गणीजे, ते दिव्यज्ञान जाणीजे २ ।। || शुतज्ञान नयपथ लीजें अनुभव आस्वादन कीज रे ।। म ॥ ६ ॥ प्रभुशक्ति व्यक्ति एकभावें, गुणु सर्व रह्या समभावें रे ॥म० ॥ माहरे सत्ता प्रभु सरखी, जिनवचन पसायें परवी रे ॥ म० ॥ ७ ॥ तुतो निज संपत्ति भोगी, तो परपरिणतिनो योगी रे ॥ म ॥ तिणे तुम्ह प्रभु माहरा स्वामी, हुं सेवक तुझ गुणग्रामी रे ॥ म० ॥८॥ए संबचे चित्त समवाय, मुझ सिदिनुं कारण थाय रे ॥म० ॥ जिनराजनी सेवना करवी, ध्येय ध्यान धारणा धरवी रे ॥ म० ॥ ९॥ तुं पूरण ब्रह्म अरूपी, तुं ज्ञानानंद स्वरूपी रे ॥ म० ॥ इम तत्त्वालंबन करीयें, तो देवचंद्र पदवरीये रे ।। म० ॥ १०॥ इति सुजातजिनस्तवन।।
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७९२ श्रीदेवचंद्रजीकृत विंशति विहरमानजिन स्तवनं.
॥अथ षष्ठ श्री स्वयंप्रभजिन स्तवनं ॥
॥ मोमनडोहेडाउहोमिसरिठाकुरो महदरो | ए देशी ॥ स्वामी स्वयंप्रभने हो जाउ भामणे, हरखें वार हजार ॥ वस्तुधर्म पूरण जसु नीपनो, भाव कृपा किरतार ।। १ ।। स्वा० ॥ द्रव्यधर्म ते हो जोग समारवा, विषयादिक परिहार ।। आतमशक्ति स्वभाव सुधर्मनो, साधनहेतु उदार ।। २ ।। स्वा० ॥ उपशम भावे हो मिश्र क्षायिकपणे, जे निज गुण प्राग्भाव ॥ पूर्णावस्थाने नीपजावतो, साधन धर्म स्वभाव ॥३॥ स्वा० ॥ समकित गुणथी हो शैलेशी लगें, आतम अनुगत भाव ।। संवर निर्जरा हो उपादान हेतुता, साध्यालंबन दाव ॥ ४ ॥ स्वा० ।। सकलप्रदेशे हो कर्म अभावता, पूर्णानंद स्वरूप ॥ आतम गुणनी हो जे संपूर्णता, सिद्ध स्वभाव अनुप ॥५॥ स्वा० ।। अचल अबाधित हो जे निस्संगता, परमातम चिद्रप ।। आतमभोगी हो रमता निज पदें, सिद्धरमण ए रूप ॥ ६ ।। स्वा० ॥ एहवो धर्म हो प्रभुने नीपन्यो, भाख्यो तेहबो धर्म ।। जे आदरतां हो भवियण शुचि हुवे, त्रिविध विदारी कर्म ।। ७ ।। स्वा० ॥ नामधर्म हो ठवण धर्म नथा, द्रव्यक्षेत्र तिम काल ॥ भावधर्मना हो हेतुपणे भला, भाव विना सहु आल ॥ ८ ॥ स्वा० ।। श्रद्धा भासन हो तत्त्व रमणपणे, करतां तन्मय भाव ॥ देवचंद्र जिनवर पद सेवतां, प्रगटे वस्तुस्वभाव ।। ९ ॥ स्वा० ॥ इति षष्ठ भी स्वयंप्रभजिन स्तवनं संपूर्ण ।।
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श्रीदेवीकृत विंशति विहरमानजिन स्तवनं ७९३
॥ अथ सप्तम श्री ऋषभाननजिन स्तवनं ॥
་
॥ वारी हुं गोडी पासने || ए देशी || श्री ऋषभानन बंदिये, अचल अनंत गुणवास || जिनवर || क्षायिक चारित्र भोगयी, ज्ञानानंद विलास ॥ ज० ॥ १ ॥ श्री० || जे प्रसन्न प्रभु मुख यहे, तेहीज नयन प्रधान || जि० ॥ जिनचरणे जे नामीयें, मस्तक तेढ़ प्रमाण || जि० ॥ २ ॥ श्री० ॥ अरिहापदकज अरचियें, स दहीजें ते हृत्य || जि० ॥ प्रभुगुण चिंतनमें रमे, तेहज मन सुकयत्थ || जि० ॥ ३ श्री० ॥ जाणो को सह जीवनी, साधक बालक भांत || जि० ॥ पण श्रीमुखी सांभली, मन पामे नीरांत || जि० ॥ ४ ॥ श्री० ॥ तीन काल जागंग मणी, कहिये वारंवार || जि० ॥ पूर्णानंदी प्रभु तं व्यान ते परम आधार || जि० ॥ ५ ॥ श्री० || कारणयी कारज हुवे, एश्री जिनमुख वाण ॥ जि० ॥ पुष्टहेतु मुज सिद्धिना, जाणी किव प्रमाण || जि० ॥ ६ ॥ श्री० ॥ शुद्ध तत्त्व निज संपदा, ज्यां लगे पूर्ण न थाय || जि० ॥ त्यां लगें जग गुरु देवना, सेवुं चरण सदाय ॥ जि० ॥ ७ ॥ श्री० ॥ कारज पूर्ण कर्या विना, कारण केम मुकाया || जि० ० || कारज रुचि कारणतणा, सेवे शुद्ध उपाय ॥ जिं० ॥ ९ ॥ श्री ॥ ज्ञान चरण संपूर्णता, अव्याबाध अमाय || जि० ॥ देवचंद्र पद पामीयें, श्री जिनराज पसाय ॥ जि० ॥ ९ ॥ श्री० ॥ इनि श्री ऋषभाननजिन स्तवनं ॥
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७९४ श्रीदेवचंद्रजीकृत विंशति विहरमानजिन स्तवन.
॥ अथ अष्टम श्री अनंतवीर्यजिन स्तवनं ॥
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|| चरणाली चामुंडा रंग चडे || ए देशी ॥ अनंतवीरज जिनराजनो, शुचि वीरज परम अनंत रे || निज आतम भावें परिणम्यो, गुणवृत्ति वर्तनात रे || १ | मन मोधु अम्हारुं प्रभु ॥ ए आंकणि । यद्यपि जीव सह सदा, वीर्यगुण सत्तावंत रे || पण कमें आवतचल तथा बाल बावक लहंत रे || २ || म० || अल्पवीर्य क्षयोपशम अल्छे, अविभाग वर्गणा रूप रे || गुण एम असंख्ययी, थाये योग स्थान स्वरूप रे ॥ ३ ॥ ० ॥ मुहम निगोदी जीवथी, जावसन्नीवर पज्जत रे || योगनां टाण असंख्य छे तरतम मोहें परायत्त रे ॥ ४ ॥ म० ॥ संयमने योगें वीर्य ते तुम्हें कीवो पंडित दक्ष रे ॥ साव्य रसी सावक पणे, अभिसंधि रम्यो निज लक्ष रे ॥ ५ ॥ ० ॥ अभिसंधि अवधक नीपने, अनभिसंधि अववय थाय रे || स्थिर एक तत्त्वता वरततो, ते क्षायिक शक्ति समाय रे || ६ || म० ॥ चक्रभ्रमणन्याय सयोगता, तजी की अयोगी धाम रे || अकरण वीर्य अनंतता, निजसहकार अकाम रे || ७ ॥ ० ॥ शुद्ध अचल निजवीर्यनी, निरुपाधिक शक्ति अनंत रे || ते प्रगटी में जाणी सही, तिणें तुमहीज देव महंत रे ॥ ८ ॥ म० तुझ ज्ञानें चेतना अनुगमी, मुझ वीर्य स्वरूप समाय रे || पंडित क्षायिकता पामशे, ए पूरणसिद्धि उपाय रे ॥ ९ ॥ ० ॥ नायक तारक तूं धणी, सेवनथी आतम सिद्धि रे || देवचंद्र पद संपजे, वर परमाणंद समुद्धरे ॥ १० ॥० ॥
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श्रीदेवचंद्रजीकृत विंशति विहरमानजिन स्तवनं. ७९५
॥ अथ नवम श्रीसूरप्रभजिन स्तवनम् ॥
|| देशी कडखानी ॥ सूर जगदीशनी तीक्ष्ण अति शूरता, तेणें चिरकालनो मोह जीत्यो || भाव स्याद्वादता शुद्ध परकाश करि, नीपनो परम पद जग वदीतो ॥ १ ॥ सू० ॥ प्रथममिथ्यास्त्र हृणि शुद्ध दंसण निपुण, प्रगढ़ करि जेणें अविरति पणासी ॥ शुद्ध चारित्र गत वीर्य एकत्वयी, परिणति कलुषता सवि विणाशी || २ || ० || वारि परभावनी कर्त्तृता मूलयी, आत्मपरिणाम कर्तृत्व धारी ॥ श्रेणि आरोहतां वेद हास्यादिनी, संगमी चेतना प्रभु निवारी || ३ || सू० ॥ भेदज्ञानें यथा वस्तुता ओलखी, द्रव्य पर्याय में थइ अभेदी ॥ भाव सविकल्पता छेदि केवल सकल, ज्ञान अनंतता स्वामि वेदी || ४ || सू० ॥ वीर्यक्षायिक बलें चपलता योगनी, रोधि चेतन कयों शुचि अलेशी ॥ भाव शैलेशी में परम अक्रिय थइ, क्षय करी चार तनु कर्मशेषी ॥ ५ ॥ सू० ॥ वर्ण रस गंध विनु फरस संस्थान वितु, योगतनुं संग विनु जिन अरूपी ॥ परम आनंद अत्यंत सुख अनुभवी, तत्त्वत
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न्मय सदा चित्स्वरूपी ॥ ६ ॥ ० ॥ ताहरी शूरता धीरता तीक्ष्णता देखि सेवकतणो चित्त राज्यो | राग सुप्रशस्तथी गुणी आश्चर्यता, गुणी अद्भुतपणे जीव माच्यो ॥ ७ ॥ ० ॥ आत्मगुण रुचि थये तच्च साधन रसी, तच्च निष्पत्ति निर्वाण थावे ॥ देवचंद शुद्ध परमात्म सेवनथकी, परम आत्मिक आनंद पावे ॥ ८ ॥ सूत्र ॥ इति नयम सुरप्रभजिन स्तवनम् ॥ ९ ॥
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७९६ श्रीदेवचंद्रजीकृत विंशति विहरमानजिन स्तवनं.
॥ अथ दशम श्रीविशालजिन स्तवनं ॥
|| प्राणी वाणी जिनऩणी || ए देशी || देव विशाल जिणंदनी, तमें व्यावोतन्त्र समाधि रे ॥ चिदानंद रस अनुभवी, सहज अकुल निरुपावि रे || १ || स० ॥ अरिहंत पद बंदीयें गुणवंत रे || गुणवंत अनंत महंत स्तवो, भवता रणो भगवंत रे ॥ ए आंकणी || भव उपाधि गद डालवा, प्रभुजी छो वैद्य अमोघ रे || रत्ननयि औपच करी, तमें तार्या भविजन ओ रे ॥ २ ॥ ० ॥ ० ॥ भव समुद्र जल तारवा निर्यामक सम जिनराज रे || चरण झहाजे पामी यें, अक्षय शिवनगरनुं राज रे || ३ || अ || अ || भव अटवी अति गहनथी, पारंग प्रभुजी सत्यवाह रे । शुद्धमार्ग दर्शकपणे, योग क्षेमंकर नाह रे ॥ ४ ॥ यो० ॥ अ० ॥ रक्षक जिन छकायना, वली मोहनिवारक स्वामी रे || श्रमण संग रक्षक सदा, तेणें गोप ईश अभिराम रे ॥ ५ ॥ ते || अ || भाव अहिंसक पूर्णता, महणता उपदेश रे || धर्म अहिंसक नीपनो, माहण जगदीश विशेष रे || ६ || || ॐ || पुष्ट कारण अरिहंतजी, तारक ज्ञायक मुनिचंद रे || मोचक सर्व विभावथी, झोपावे मोह अरिंद रे ॥ ७ ॥ झ ॥ ॐ ॥ कामकुंभ सुरमणि परें, सहेजें उपगारी थाय रे ॥ देवचंद्र सुखकर प्रभु, गुण गेह अमोह माय र ॥ ८ ॥ गु० ॥ ॥ इति श्री विशालजिन स्तवनम् ॥
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警到變
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'श्रीदेवचंद्रजीकृत विशति विहरमानजिन स्तवनं. ७९७
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॥ अथ एकादश श्री वज्रधरजिन स्तवनं ॥ .. ॥ नदी यमुनाके तीर ॥ ए देशी ॥ विहरमान भगवान, सुणो मुज विनति ॥ जगतारक जगनाथ, अछो त्रिभुवन पति॥ भासक लोकालोक, तिणे जाणो छती ॥ तो पण वितक वात, कहूं छं तुज प्रति ॥ १॥ हूं सरूप निज छोडि, रम्यो पर पुद्गलें ॥ झील्यो उलट आणी, विषय तृष्णाजलें ॥ आश्रव बंधविभाव, कळं रुचि आपणी ॥ मूल्यो मिथ्यावास, दोष द्यु परभणी ॥ २ ॥ अवगुण ढांकण काज, करुं जिनमत क्रिया। न तनुं अवगुण चाल, अनादिनी जे प्रिया ॥ दृष्टिरागनो पोष, तेह समकित गणुं । स्याद्रादनी रीत, न देखें निजपणुं ॥३॥ मन तनु चपल स्वभाव, वचन एकांतता ।। वस्तु अनंत स्वभाव, न भासे जे छता ॥ जे लोकोत्तर देव, नमु लौकिकथी । दुर्लभ सिद्ध स्वभाव, प्रभो तहकीकथी ॥ ४ ॥ महाविदेह मजार के, तारक जिनवरु ॥ श्रीवज्रधर अरिहंत, अनंत गुणाकर ॥ ते नियामक श्रेष्ठ, सही मुज तारशे ।। महावैद्य गुणयोग, रोग भव बारशे ॥ ५॥ प्रभुमुख भव्य स्वभाव, सुणुं जो माहरो ॥ तो पामे प्रमोद, एह चेतन खरो ॥ थाये शिवपद आश, राशि सुखवृंदनी ।। सहज स्वतंत्र स्वरूप, खाण आणंदनी ॥ ६ ॥ वलग्या जे प्रभुनाम, धाम वे गुण तणा ।। धारो चेतन राम, एह थिरवासना । देवचंद्र जिनचंद्र, हृदय स्थिर थापजो । जिन आणायुक्त भक्ति, शक्ति मुज आपजो॥७॥ इति एकादश श्रीवजंधरजिन स्तवनं॥११॥
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७९८ श्रीदेवचंद्रजिकृत विंशति विहरमानजिन स्तवने.
॥ अथ द्वादश श्री चंद्राननजिन स्तवनम् ॥
॥ वीरा चंदला ॥ ए देशी ॥ चंद्राननजिन, सांभलीएं अरदास रे ॥ मुझ सेवक भणी, छे प्रभुनो विश्वासो रे ॥ ॥ १ ॥ चं० ।। भरतक्षेत्र मानवपणो रे, लावों दुःषम काल ॥. जिनपुर्वधर विरही रे, दुलहो साधन चालो रे ॥ २ ॥ चं० ॥ द्रव्य क्रिया रुचि जीवडा रे, भाव धर्मरुचिहीन ॥ उपदेशक पण तेहवा रे, शें करे जीव नवीन रे ॥३॥ चं० ।। तत्त्वागम जाणंग तजी रे, बहुजन संमत जेह ॥ मूढ़ हठी जन आदर्या रे, सुगुरु कहावे तेह रे ॥४॥ ० ॥ आणा. साध्य विना क्रिया रे, लोके मान्यो रे धर्म ॥ दंसण नाण चरित्तनो रे, मूल न जाण्यो मर्म रे ॥ ५ ॥ चं० ॥ गच्छ कदा ग्रह साचवे रे, माने धर्म प्रसिद्ध ॥ आतम गुण अकषायता रे, धर्म न जाणे शुद्ध रे ॥६॥ च० ॥ तत्त्वरसिक जन थोडला रे, बहुलो जन संवाद ॥ जाणो छो जिनराजजी रे, सघलो एह विवाद रे ॥७॥० ॥ नाथ चरण वंदन तणो रे, मनमा घणो उमंग ॥ पुण्य विना किम पामीयें रे, प्रभुसेवननो रंग रे ॥ ८ ॥ चं० ।। जगतारक प्रभु वांदीए रे, महाविदेह मझार ॥ वस्तुधर्म स्याद्वादता रे, सुणि करियें निर्धार रे ॥ ९॥ च ।। तुझ करुणा सहु उपरें. रे, सरखी छे महाराय ॥ पण अविराधक जीवने रे, कारण सफलं थाय. रे ॥ १० ॥ च० ॥ एहवा पण भवि जीवने रे, देव भक्ति आधार ।। प्रमुसमरणयी पामीय रे, देवचंद्र पद सार रे ॥११॥ च० ॥ इति ॥
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श्रीदेवचंद्रजीकृत विंशति विरहमानजिन स्तवनं ७९९
॥ अथ त्रयोदश श्री चंद्रवाहुजिन स्तवनम् ॥
॥ श्री अरनाथ उपासना || ए देशी || चंद्रबाहुजिन सेवना, भवनाशिनी तेह || परपरिणतिना पासने, निष्कासन रेह ।। १ ।। ० ।। पुद्गल भाव आशंसना, उद्घासन केतु ॥ सम्यग्दर्शन वासना, भासनचरण समेत ॥ २ ॥ च० ॥ त्रिकरण योग प्रशंसना, गुणस्तवना रंग || वंदन पूजन भावना, निजपावना अंग || ३ || चं ॥ परमातम पद कामना, कामनाशन एह || सत्ताधर्म प्रकाशना, करवा गुणगेह ॥ ४ ॥ चं० ॥ परमेश्वर आलंबना, राच्या जेह जीव ॥ निर्मल सायनी साधना, साधे तेह सदीव || ५ || चं० ॥ परमानंद उपायत्रा, प्रभु पुष्ट उपाय || तुझ सम तारक सेवतां, परसेव न थाय ॥ ६ ॥ चं० ॥ शुद्धतम संपत्ति तणा, तुम्हें कारण सार || देवचंद्र अरिहंतनी, सेवा सुखकार ॥ ७ ॥ चं० ॥ इति चंद्रवाहुजिन स्तवनं ॥
॥ अथ चतुर्दश श्रीभुजंगस्वामि स्तवनम् ॥
|| देशी लूअरनी || पुष्कलावइ विजयें हो, के विचरे तीर्थपति ॥ प्रभुचरणने सेवे हो, के सुर नर असुरपति || जसु गुण प्रगट्या हो, के सर्व प्रदेशमां ॥ आतम गुणनी हो, के विकसी अनंत रमा ॥ १ ॥ सामान्य स्वभावनी हो, के परिणति असहाइ ॥ धर्मविशेषनी हो, के गुणने अनुजाइ ॥ गुण सकल प्रदेशें हो, के निजनिज कार्य करे ॥ समुदाय प्रवर्त्ते हो, के कर्ता भाव घरे ॥ २ ॥ जड़ द्रव्य चतुष्कें
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श्रीदेवचंद्रजीकृत विशति विरहमानजिन स्तवन:
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हो, के करताभाव नहीं ।। सर्व प्रदेशे हो, के वृत्ति विभन्न कही ॥ चेतन द्रव्यने हो, के सकल प्रदेश मिले ॥ गुणवतना वर्ते हो, के वस्तुने सहज बलें ॥ ३ ॥ शंकर सहकारी हो, के सहजें गुण वरते ।। द्रव्यादिक परिणति हो, के भवें अनुसरते ॥ दानादिक लब्धि हो, के न हुवे सहाय विना । सहकार अकंपे हो, के गुणनी वृत्ति घना ॥४॥ पर्याय अनंता हो, के जे एक कार्यपणें ।। वरते तेहने हो, के जिनवर गुण पभणे॥ ज्ञानादिक गुणनी हो, के वर्तना जीव प्रते॥ धर्मादिक द्रव्यने हो, के सहकारें करते ॥५॥ ग्राहक व्यापकता हो, के प्रभुतुम धर्म रमी ।। आतम अनुभवथी हो, के परिणति अन्य वमी ॥ तुझ शक्ति अनंती हो, के गातांने ध्यातां ।। मुझ शक्ति विकासन हो, के थाये गुण रमतां ॥ ६॥ इम निज गुणभोगी हो, के स्वामि भुजंग मुदा ॥ जे नित्य वंदे हो, के ते नर धन्य सदा ।। देवचंद्र प्रभुनी हो, के पुण्ये भक्ति सधे ॥ आतम अनुभवनी हो, के नित्य नित्यशक्ति वधे ॥७॥ इति ।। १४ ।। ॥ अथ पंचदश श्री ईश्वरदेवजिन स्तवनम् ॥
॥काल अनंतानंत ॥ ए देशी ॥ सेतो ईश्वरदेव, जिणे ईश्वरता हो निज अद्भुत वरी ॥ तिरोभावनी शक्ति, आविर्भावें हो सङ प्रगट करी ॥ १ ॥ अस्तित्वादिक धर्म, निर्मल भावें हो सहुने सर्वदा ॥ नित्यत्वादि स्वभाव, ते परिणामी हो जडचेतन सदा ॥ २ ॥ कर्ता भोक्ता भाव, कारक ग्राहक हो ज्ञान चारित्रता ॥ गुणपर्याय अनंत, पाम्या
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श्रीदेवचंद्रजीकृत विंशति विरहमानजिन स्तवनं. ८०१
तुमचा हो पूर्ण पवित्रता ॥ ३ ॥ पूर्णानंद स्वरूप, भोगी अयोगी हो उपयोगी सदा || शक्ति सकल स्वाधीन, वरते प्रभुनी हो जे न चले कवा ॥ ४ ॥ दास विभाव अनंत नासे प्रभुजी हो तुझ अवलंबनें ॥ ज्ञानानंद महंत, तुझ सेवायी हो सेवकने बने ॥ ५ ॥ धन्य धन्य ते जीव. प्रभुपद बंदी हो जे देशन सुणे || ज्ञानक्रिया करे शुद्ध, अनुभव योगें हो निज साधकपणे || ६ || वारंवार जिनराज, तुझ पद सेवा हो होजो निर्मली ॥ तुझ शासन अनुजाइ, वासन भासन हो तत्त्वरमण बली ॥ ७ ॥ शुद्धतमनिज धर्म, रुचि अनुभवयी हो साधन सत्यता ॥ देवचंद्र जिनचंद्र भक्ति पायें हो होशे व्यक्तता ॥ ८ ॥ इति पंचदश श्री ईश्वरनामाजिन स्तवनं ।। १५ ।।
॥ अथ षोडश श्री नमिप्रभजिन स्तवनम् ॥
॥ अरज अरज सुणोने रूडा राजीया होजी ॥ ए देशी ॥ नसिप्रभ नमिप्रभप्रभुजी वीनवुं हो जी, पामीवर प्रस्ताव ॥ जाणो छो जाणो छो विण विनवे हो जी, तोपण दासवभाव ॥ १ ॥ न० ।। हुं करता हूं करता पर भावनो हो जी, भोक्ता पुलरूप || ग्राहक ग्राहक व्यापक एहनो हो जी, राच्यो जड भव भूप || २ || न० ॥ आतम आतम धर्मं विसारीयो हो जी, सेव्यो मिथ्यामाग || आश्रव आश्रव बंधपणं कर्यु हो जी, संवरनिज्र्जर त्याग ॥ ३ ॥ २० ॥ जडचल जडचल कर्म जे देहने हो जी, जाण्यं आतम बहिरात बहिरातमता में ग्रही हो जी, चतुरंगें एकत्व ||४|| न० || केवल केवल ज्ञानमहोदधि हो जी. केवल दंसण
तत्त्व ॥
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८०२ श्रीदेवचंद्रजीकृत विंशति विरहमानजिन स्तवन
--------------- बुध ॥ वीरज वीरज अनंत स्वभावनो हो जी, चारित्र क्षाविक शुद्ध ॥५॥ न० ॥ विश्रामि विश्रामि निजभावना हो जी, स्याद्वादी अप्रमाद । परमातम परमातम प्रभु देखता हो. जी, भागि भ्रांति अनाद ॥६॥ न० ॥ जिनसम जिनसम सत्ता ओलखी हो जी, तर पागभावनी इह ॥ अंतर अंतर आतमता लही हो जी, परपरिणति निरीह ॥७॥ न० ।। प्रतिछंदें प्रतिछंदें जिनराजने हो जी, करतां साधक भाव ॥ देवचंद्र देवचंद्र पद अनुभवे हो जी, शुद्धातम प्रागभाव ॥ ८॥ न० ॥ इति षोडश नमिप्रभजिन स्तवनं ।। ॥ अथ सप्तदश श्री वीरसेनजिन स्तवनम् ॥
॥ लाछलदे मात मल्हार ॥ ए देशी । वीरसेन जगदीश ताहरी परम जगीश, आज हो दीसे रे वीरजता त्रिभुवनथी घणी जी ।। १ ॥ अणहारी अशरीर, अक्षय अजय अतिधीर, आज हो अविनाशी अलेशी ध्रुव प्रभुता बणी जी ।। २ ॥ अतींद्रिय गत कोह, विगतमाय मय लोह, आज हो सोहे रे मोहे जगजनता भणी जी ॥ ३ अमर ॥ अखंड अरूप, पूर्णानंद स्वरूप. आज हो चिद्रपें दीपे थिर समता धणी जी ॥ ४ ॥ वेदरहित अकषाय, शुद्ध सिम असहाय, आज हो ध्यायके नायकने ध्येयपदें ग्रह्यो जी ॥ ५॥ दानलाभ निज भोग, शुद्धस्वगुण उपभोग, आज हो अजोगी करता भोक्ता प्रभु लह्यो जी ॥ ६ ॥ दरिसण ज्ञान चारित्र, सकल प्रदेश पवित्र, आज हो निर्मल निस्संगी अरिहा बंदीये जी ॥७॥ देवचंद्र जिनचंद्र, पूर्णानंदनो बंद, आज हो जिनवरसेवायी, चिर आनंदी ये जी ॥ ८ ॥ इति ॥
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श्रीदेवचंद्रजीकृत विंशति विरहमानजिन स्तवनं. ८०३
॥ अथ अष्टादश श्री सहाभद्रजिन स्तवनम् ॥
॥ तर यमुचानुं रे, अति रलीयामं रे || ए देशी ॥ महाभद्र जिनराज, राज राजविराजे हो आज तुमारडो जी ॥ क्षायिकवी अनंत, धर्म अभंगें हो तुं साहिब बडो जी ॥१॥ हूं बलिहारी रे श्री जिनवरती रे || कर्त्ता भोक्ता भाव, कारक कारणा हो तुं स्वामी छतो जी || ज्ञानानंद प्रधान सर्व वस्तुनो हो धर्म प्रकाशतो जी ॥ २ ॥ हुं० ॥ सम्यग्दर्शन मित्त, स्थिरनिर्धारे रे अविसंवादता जी || अव्यावाधि समाधि, कोश अनश्वरे रे. निज आनंदता जी ॥ ३॥ हुं || देश असंख्य प्रदेश, निजनिज रीतें रे गुण संपत्ति भर्या जी ॥ चारित्र दुर्ग अभंग, आतम शक्त हो परजय संचर्या जी ||४|| हुं० ॥ धर्ममादिक सैन्य, परिणति प्रभुता हो तुझ बल आकरो जी || तत्त्व सकल प्राग्भाव, सादि अनंती रे रीतें प्रभु धर्मे जी ॥ ५ ॥ ० ॥ द्रव्य भाव अरिलेश, सकल निवारी रे साहिब जी || सहज स्वभाव विलास, भोगी उपयोगी रे ज्ञान गुणें भय जी ॥ ६ ॥ हुं० ॥ आचारिज उवझाय, साधक मुनिवर हो देश विरत धरु जी || आतम सिद्ध अनंत कारणरूपें रे योगक्षेमंकरु जी ॥ ७ ॥ हुं० ॥ सम्यग्दृष्टि जीव आणारागी हो सह जिनराजना जी || आतम साधन काज, सेवे पदकज हो श्री महाराजना जी ॥ ८ ॥ हुं० ॥ देवचंद्र जिनचंद्र, भगतें राचो हो भवि आतम रुचि जी ॥ अव्यय अक्षय शुद्ध, संपत्ति प्रगटे हो सत्तागत शुचि जी ॥ ९ ॥ ० ॥
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८०४ श्रीदेवचंद्रजीकृत विंशति विहरमानजिन स्तवनं.
॥ अथ एकोनविंश श्री देवजसाजिन स्तवनम् ॥
॥ महाविदेह शव सोहामणु ॥ ए देशी ॥ देवसजा दरिसण करो, विक्टे मोह विभाव लाल रे ॥ प्रगटे शुद्ध स्वभावता, आनंद लहरी दाव लाल रे ॥ १ ॥ दे० ॥ स्वामी वसो पुष्कर बरे, जंबूभरत दास लाल रे ॥ क्षेत्र विभेद घणो पड्यो, किम पोहोंचे उल्लास लाल रे ।। २ ।। दे० ॥ होवत जो तनु पांखडी, आवत नाथ हजूर लाल रे ॥ जो होती चित्त आंखडी, देखण नित्य प्रभु नूर लाल रे ॥ ३ ॥ दे० ॥ शासनभक्त जे सुरवरा, विनवू शीष नमाय लाल रे ।। कृपा करो मुझ उपरें, तो जिनवंदन थाय लाल रे ॥ ४ ॥ दे० ॥ पूर्छ पूर्व विराधना, शी कीधी इण जीव लाल रे ।। अविरति मोह टले नहीं, दीठे आगमदीव लाल रे ॥ ५ ॥ दे० ॥ आतम शुद्ध खमावने, बोधन शोधनकाज लाल रे ॥ रत्नत्रयि प्राप्ति तणो, हेतु कहो महाराज लाल रे ।। ६ ॥ दे० ॥ तुझ सरिखो साहिब मिल्यो, भांजे भवभ्रम टेव लाल रे ।। पुष्टालंबन प्रभु लहि, कोण करे परसेव लाल रे ॥ ७ ॥ दे ॥ दीनदयाल कृपालुओ, नाथ भविक आधार लाल रे ॥ देवचंद्र जिन सेवना, परमामृत सुखकार लाल रे ॥८॥ दे० ॥ इति श्री देवजसाजिन स्तवनं ॥
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श्रीदेवचंद्रजीकृत विंशति विहरमानजिन स्तवनं. ८०५
॥ अथ विंशति श्री अजितवीर्यजिन स्तवनम् ॥
॥ अजितवीर्यजिन विचरता रे ॥ मनमोहना रे लाल । पुष्कर अद्धविदेह रे ॥ भविबोहना रे लाल ॥ जंगम सुरतरु सारिखो रे ॥ मन० ।। सेवे धन्य धन्य तेह रे ।। भवि० १ ॥ जिनगुण अमृत पानथी रे ॥ म ।। अमृतक्रिया सुपसाय रे ॥ भ० ॥ अमृतक्रिया अनुष्ठानथी रे ॥ म० ॥ आतम अमृत थाय रे ॥ भ० ॥ २॥ प्रीति भक्ति अनुष्ठानथी ।म० ।। वचनअसंगी सेव रे ॥ भ० ॥ कर्तातन्मयता लहे रे ॥म० ॥ प्रभुभक्ति नित्यमेव रे ।। भ० ॥३॥ परमेश्वर अवलंबने रे ॥ म० ।। ध्याता ध्येय अभेद रे ।। भ० ॥ ध्येय समाप्ति हुवे रे । म० ॥ साध्यसिद्धि अविच्छेद रे ॥ भ० ॥४॥ जिनगुण राग परागयी रे ॥म०॥ वासित मुझ परिणाम रे ॥भ०॥ तजशे दुष्टविभावता रे ॥म०।। सरशे आतम काम रे ॥भ०॥ ॥५॥ जिनभक्तिरत चित्तने रे ॥ म० ।। वेधकरस गुण प्रेम रे ॥ भ० ।। सेवक जिनपद पामशे रे ।। म० ॥ रसवेधित अय जेम रे ॥भ०॥६॥ नाथ भक्तिरस भावथी रे ॥म०।। तृण जाणुं परदेव रे ॥ भ० ॥ परमातम चिन्तामणि सुरतरु थकी रे ॥ म०॥ अधिकी अरिहंत सेव रे ॥भ०॥ ७॥ गुण स्मृतिथकी रे ॥ म० ॥ फरश्यो आतमराम रे ॥ भ० ।। नियमाकंचनता लहे रे ॥ म० ॥ लोह ज्युं पारस पाम रे ॥ भ० ॥८॥ निर्मल तत्त्वरुचि थइ रे । म० ॥ करजो जिनपति भक्ति ॥ भ०॥ देवचंद्र पद पामशो रे ॥म० ॥ परम महोदय युक्ति रे ॥ भ० ॥९॥ इति ॥ २० ॥
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८०६ श्रीदेवचंद्रजीकृत विंशति विहरमानजिन स्तवनं.
॥ कलश ॥ राग धन्याश्री ॥
॥ वंदो वंदो रे जिनवर विचरंता वंदो || कीर्त्तन स्तवन नमन अनुसरतां, पूर्वपाप निकंदो रे ॥ जिनवर विचरंता बंदो ॥ १ ॥ जंबू द्वीपें चार जिनेश्वर रे, धातकी आठ आणंदो || पुष्कर अर्धे आठ महामुनि, सेवे चोशठ इंदो रे ॥ जि० ॥ २ ॥ केवली गणधर साधु साधवी, श्रावक श्राविका वृंदो || जिनमुख धर्मअमृत अनुभवतां पामे मन आणंदो रे ॥ जि० ॥ ३ ॥ सिद्धाचल चौमास रहीने, गायो जिनगुण छंदो || जिनपति भक्ति मुगतिनो मारग, अनुपम शिवसुखकंदो रे ॥ जि० ॥ ४ ॥ खरतर गच्छ जिनचंद सूरिवर, पुण्यप्रधान मुणिंदो रे ॥ सुमति सागर साधु रंग सुवाचक, पीधो श्रुतमकरंदो रे || जि० ॥ ५ ॥ राजसार पाठक उपगारी, ज्ञानधर्म दिदो || दीपचंद सद्गुरु गुणवंता, पाठक धीर गयंदो रे ॥ जि० ॥ ६ ॥ देवचंद्र गणि आतम हेतें, गाया वीश जिणंदो || ऋद्धि वृद्धि सुखसंपत्ति प्रगटे, सुजस महोदय वृंदो रे || जि० ॥ ७ ॥ इति पंडितश्री देवचंद्रजीकृत विंशति विहरमान जिनस्तवनानि संपूर्णानि ॥
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॥ अथ श्री महोपाध्याय देवचंद्रजी कृत अतित जिन चोविशी ॥
॥अथ प्रथम तीर्थंकर श्रीकेवलज्ञानी जिनस्तवन ॥
नामे गाजे परम आल्हाद, प्रगटे अनुभव रस आस्वाद || तेथी थाये मति सुप्रसाद, सुणतां भाजेरे कांई विषय विषादरे, जिणंदा ताहरा नामथी मन भीमो ॥१॥
क्षेत्र असंख्य प्रदेश,
अनंत पर्याय निवेश ॥
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102
जाणग शक्ति अशेष,
तेहथी जाणेरे कांई सकल विशेषरे ॥ जि० २ || सर्व प्रमेय प्रमाण,
जस केवल नाण पहाण ॥
तिणे केवलनाणी अभिहाण,
जस ध्यावेरे कांई मुनिवर झाणरे ॥ जि० ३ ॥ ध्रुव परिणति छति जास, परिणति परिणमे त्रिक राश ॥
१
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८१० श्री महो० देव० कृत अतित जिन चोविशी.
करता पद प्रवृत्ति प्रकाश, अस्ति नास्तिरे कांई सर्वनो भासरे ॥जि०४॥ सामान्य खभावनो वोध, केवल दर्शन शोध ॥ सहकार अभाव रोध, समयंतररे कांई बोध प्रबोघरे ।जि० ५॥ कारक चक्र समग्ग, ते ज्ञायक भाव विलग्ग ॥ परमभाव संसग्ग, एक रीतेरे कांई थयो गुण वग्गरे ॥जि०६॥ इम सालंबन जिन ध्यान, भवि साधे तत्त्व विधान ॥ लहे पूर्णानंद अमान, तेहथी थायेरे कोई शीव इशानरे ।जि०७॥ दास विभाव अपाय, नासे प्रभु सुपसाय ॥ जे तन्मयताए ध्याय, सही तेहनेरे देवचंद्र पद थायरे ॥जि०८॥
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द्वितीय श्री निर्वाणी प्रभुनु स्तबन. ८११ ॥अथ द्वितीय श्रीनिर्वाणी प्रभुनु स्तवन ॥ ॥ वीरजी प्याराहो वीरजी प्यारा ॥ ए राग ॥ प्रणमुं चरण परमगुरु जिनना, हंस ते मुनि जन मनना ॥ वासी अनुभव नंदन वनना, भोगी आनंद घनना ॥ १ ॥ मोरा वामो हो तोरो ध्यान धरीज, ध्यान धरीजे हो सिद्धि वरोजे, अनुभव अमृत पीजे, मोरा स्वामी हो तोरो०॥ ए आंकणी ॥ सकल प्रदेश समा गुण धारी, निज निज कारज कारी ॥ निराकार अवगाह उदारी, शक्ति सर्व विस्तारी ॥ मोरा० २॥ गुण गुण प्रति पर्याय अनंता, ते अभिलाप्य स्वतंता ॥ अनंत गुणानभिलापी संता, कार्य व्यापार करंता ॥ मोरा० ३॥ छति अविभागी पर्यय व्यक्ते, कारज शक्ति प्रवर्ते ॥
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८१२ श्री महो० देव० कृत अतित जिन चोविशी.
ते विशेष सामर्थ्य प्रशक्ते,
गुण परिणाम अभिव्यक्ते ॥ मोरा० ४ ॥
निरवाणी प्रभु शुद्ध स्वभावी, अभय निरायु अपावी ॥ स्याद्वादी यम नोगत रावी, पूरण शक्ति प्रभावी || मोरा० ५ ॥
अचल अखंड स्वगुण आरामी, अनंतानंद विसरामी ॥
सकल जीव खेदज्ञ सुस्वामी, निरामगंधी अकामी ॥ मोरा० ६ ॥
निःसंगी सेवनथी प्रगटे,
पूर्णानंदी ईहा ॥
साधन शक्ते गुण एकत्वे,
सीधे साध्य समीहा || मोरा० ७||
पुष्ट निमित्तालंवन ध्याने,
सालंबन लय ठाने । देवचंद्र गुणने एक ताने, पहोचे पूरण थाने ॥ मोरा० ८ ॥
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श्री तृतीय सागर प्रभु जिन स्तवन.
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॥ अथ श्री तृतीय सागर प्रभु जिनस्तवन ॥
॥ चउमासी पारणं आवे ॥ ए राग ॥ गुण आगर सागर स्वामी, मुनि भाव जीवन निःकामी॥ गुण करणे कर्तृ प्रयोगी, प्राग्भावी सत्ता भोगी ॥ १॥ सुहंकर भव्य ए जिन गावो, जिम पूरण पदवी पावो॥सुहंकर०॥ए आंकणी। सामान्य खभाव स्वपरना, द्रव्यादि चतुष्टय घरना ॥ देखे दरशन रचनाये, निज वीर्य अनंत सहाये ॥सु० २॥ तेहने ते जाणे नाण, ए धर्म विशेष पहाण ॥ सावय वीकारज शक्ते, अविभागी पर्यय व्यक्ते ॥सु० ३॥ जे कारण कारज भावे, वरते पर्याय प्रभावे ॥
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८१४ श्री महो० देव० कृत अतित जिन चोविशी.
प्रति समये व्यय उत्पादि, ज्ञेयादिक अनुगत सादि ।सु० ४॥ अविभागो पर्यय जेह, समवायो कार्यना गेह ॥ ज नित्य त्रिकाली अनंत, तसु ज्ञायक ज्ञान महंत ॥सु० ५॥ जे नित्य अनित्य स्वभाव, ते देखे दर्शन भाव ॥ सामान्य विशेषनो पिंड, द्रव्यार्थिक वस्तु प्रचंड ॥सु०६॥ ईम केवल दरशन नाण, सामान्य विशेषनो भाण ॥ द्विगुण आतम श्रद्धाए, चरणादिक तसु व्यवसाए ॥सु० ७॥ द्रव्य जेह विशेष परिणामी, ते कहीए पजव नामी ॥ छती सामर्थ्य दुभेदे, पर्याय विशेष निवेदे ॥सु० ८॥ तसु रमणे भोगनो वृंद, अप्रयासी पूर्णानंद ॥
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चतुर्थ श्री महाजस जिन स्तवन.
प्रगटी जस शक्ति अनंती, निज कारज वृत्ति स्वतंती ॥ सु० ॥९॥
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गुण द्रव्य सामान्य स्वभावी, तोरथपती त्यक्त विभावी । प्रभु आणा भक्ते लीन, तिणे देवचंद्र पद कीन ॥ सु० ॥ १० ॥
॥ अथ चतुर्थ श्री महाजस जिन स्तवन ॥
आत्म प्रदेश रंगथल अनुपम, सम्यकदर्शन रंगरे, निज सुखके सधैया ॥ तुं तो निज गुण खेल वसंतरे ॥ निज० ॥ पर परिणति चिंता तजी निजमें, ज्ञान सखा के संगरे ॥ निः ॥ १ ॥
वास बरास सुरुचि केशर घन, छांटो परम प्रमोदरे ॥ नि० ॥ आतम रमण गुलालकी लाली, साधक शक्ति विनोदरे ॥ निज० ॥ २ ॥
ध्यान सुधारस पान मगनता, भोजन सहज स्वभोगरे || निज० ॥
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८१६ श्री महो० देव० कृत अतित जिन चोविशी.
रिझ एकत्त्वता तानमें वाजे, वाजिंत्र सनमुख योगरे ॥ निज० ॥३॥ शुक्लध्यान होरीको ज्वाला, जाले कर्म कठोररे ॥ निज०॥ शेष प्रकृति दल खिरण निर्झरा, भस्म खेल अति जोररे ।। निज. ॥४॥ देव महाजस गुण अवलंबन, निर्भय परिणति व्यक्तिरे ॥ निज० ॥ ज्ञाने ध्याने अति बहुमाने, साधे मुनि निज शक्तिरे ॥ निज० ॥५॥ सकल अजोग अलेश असंगत, नाहि होवे सिद्ध रे ॥ निज०॥ देवचंद्र आणामें खेले, उत्तम युहिं प्रसिद्ध रे ॥ निज० ॥६॥
॥ अथ पंचम श्री विमलजिन स्तवन ।
॥ राग-कडग्यो.॥ धन्य ! तुं धन्य तुं ! धन्य ! जिनराज तुं, धन्य ! तुज शक्ति व्यक्ति सनूरी ॥
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पंचम श्री विमल जिन स्तवन.
८१७
कार्य कारण दशा सहज उफ्गारता, शुद्ध कर्तृत्व परिणाम पूरी ॥ धन्य० ॥१॥ आत्म प्रभाव प्रतिभास कारज दशा, ज्ञान अविभागि परजय प्रवृत्ते ॥ एम गुण सर्व निज कार्य साधे प्रगट, ज्ञेय दृश्यादि कारण निमित्ते ॥ धन्य० ॥२॥ दास वहु मान भासन रमण एकता, प्रभु गुणालंबनी शुद्ध थाये ॥ बंधना हेतु रागादि तुज गुण रसी, तेह साधक अवस्था उपाये ॥धन्य तुं०॥३॥ कर्म जंजाल युंजनकरण योग जे, स्वामी भक्ति रम्या थिर समाधि ॥ दान तप शील व्रत नाथ आणा विना, थईय बाधक करे भव उपाधि ॥ धन्य०॥४॥ सकल परदेश समकाल सवि कार्यता, करण सहकार कर्तृत्व भावो ॥ द्रव्य परदेश पर्याय आगमपणे, अचल असहाय अक्रिय दावो ॥धन्य०॥५॥ उत्पति नाश ध्रुव सर्वदा सर्वनी, षट्गुणी हानिवृद्धि अन्यूनो ॥ 103
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८१८ श्री महो० देव० कृत अतित जिन चोविशी.
अस्ति नास्तित्व सत्ता अनादि थको, परिणमन भावथी नहीं अजूनो ॥ धन्य०॥६॥ ईणी परे विमल जिनराजनी विमलता, ध्यान मन मंदिरे जेह ध्यावे || ध्यान पृथक्त्व सविकल्पता रंगथी, ध्यान एकत्व अविकल्प आवे ॥ ७ ॥ वीतरागी असंगी अनंगी प्रभु, नाण अप्रयास अविनाश धारी ॥ देवचंद्र शुद्ध सत्ता रसी सेवता, संपदा आत्म शोभा वधारी ॥ धन्य०॥८॥
॥ अथ षष्ठम श्री सर्वानुभूति जिन स्तवन ॥ ॥ जगजीवन जगवालो || ए देशी ॥ जग तारक प्रभु वीनवं,
विनतडी अवधाररे ॥
तुज दरशन विण हुं भम्यो, काल अनंत अपाररे ॥ जग० ॥ १ ॥ सुहम निगोद भवे वस्यो, पुद्गल परिअड अनंत रे ॥ अव्यवहारपणे भम्यो,
क्षुल्लक भव अत्यंतरे || जग० ॥ २ ॥
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“षष्टम श्री सर्वानुभूति जिन स्तवन.
व्यवहारे पण तिरिव गते, ईग वण खंड असन्नी रे ॥ असंख्य परावर्त्तन थयां, भमियो जीव अधन्नरे ॥ जग०॥३॥ सूक्ष्म थावर चारमें, कालह चक्र असंख्यरे ॥ जन्म मरण बहुलां कस्या, पुद्गल भोगनी कंखरे ॥ जग० ॥४॥ ओघे बादर भावमें, बादर तरु पण ईमरे ॥ पुद्गल अढी लागट वस्या, नाम निगोदे प्रेमरे ॥ जग० ॥५॥ स्थावर थूल परितमें, सीत्तर कोडाकोडिरे ॥ आयर भम्यो प्रभु नवि मिल्या, मिथ्या अविरतो जाडिरे ॥ जग० ॥६॥ विगलपणे लागट वस्यो, संखिज वास हजाररे॥ वादर पज वणस्सई, भू जल वायु मझारे ॥ जग० ॥७॥
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८२० श्री महो देव का अतित जिन चाविशी.
अनल बिगल पज्जतमें, तस भव आयु प्रमाणरे ॥ शुद्ध तत्त्व प्राप्ति बिना, भटक्यो नय नव ठागर ॥ जग० ॥८॥ साधिक सागर सहस दा, भोगवोयो तस भावेरे ॥ एक सहस साधिक दधी, पंचेंद्रि पद दावेरे ॥ जग० ॥९॥ पर परिणति रागीपणे, पर रस रंगे रक्तरे ॥ पर ग्राहक रक्षकपण, पर भोगे आशक्तर ॥ जग० ॥१०॥ शुद्ध स्वजाति तत्त्वने, बहुमाने तल्लीनरे ॥ ते विजातो रसता तजी, स्वस्वरूप रस पीनरे ॥ जग० ॥११॥ श्री सर्वानुभूति जिनेश्वरू, तारक लायक देवरे ॥ तुज चरणे शरणे रह्यो, टले अनादि कुटेवर ॥ जग० ॥१२॥
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श्री सप्तम श्रीवर जिन स्तवन.
सवला साहिब ओलगे. आतम सबलो थायरे ॥ बाधक परिणति सवि टले, साधक सिद्धि कहायरे || जग० ॥ १३ ॥
कारणथी कारज हुवे.
ए परतित अनादिरे ॥
८२१
माहरा आतम सिद्धिना,
निमित हेतु प्रभु सादिरे ॥ जंग० ॥ १४ ॥ अविसंवादन हेतुनी,
द्रढ सेवा अभ्यासरे ॥
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देवचंद्र पद निपजे,
पूर्णानंद विलासरे || जग० ॥ १५ ॥
॥ अथ श्री सप्तम श्रीधरजिन स्तवन ॥
॥ रसीयानी देशी ॥
से
मुख मुख प्रभुन न मली शक्यो, तो सी वात कहाय, जिणंदजी ॥ निज पर वीतक वात लहो सहु, पण मने किम पतित आय ॥ जिणंदजी ॥
से
सुख० ॥१॥
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८२२ श्री महो० देव० कृत अतित जिन चोविशी.
भव्य अभव्य परित्त अनंत तो, कृष्ण शुकलपक्ष धार ॥ जि०॥ आराधक विराधक रोतनो, पूछि करत निरधार ॥ जि०॥ से मुख० ॥२॥ किण काले कारण केहवे मले, थाशे मुजने हा सिद्धि ॥ जि० ॥ आतम तत्त्व रुचि निज रिद्धिनी, लहिशुं सर्व समृद्धि ॥ जि० ॥ से मुख०॥३॥ एक वचन जिन आगमनी लहो, निपाव्यां निज काम ॥ जि०॥ एटले आगम कारण संपजे, ढील थई किम आम॥ जि०॥ से ॥४॥ श्रीधर जिन नामे बहु निस्तस्या, अल्प प्रयासे हो जेह॥जि०॥ मुज सरिखो एटले कारण लहे, न तरे कहा किम तह ॥ जि०॥५॥ कारण जांगे साधे तत्त्वने, नवि समस्या उपादान ॥जि० ॥ श्री जिनराज प्रकाशा मुज प्रते, तेहनी कोण निदान॥ जि०॥से०॥६॥
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अष्टम श्री दत्तप्रभु स्तवन.
भाव रोगना वैद्य जिनेश्वरु, भावौषध तुज भक्ति ॥ जि० ॥ देवचंद्रने श्री अरिहंतना,
छे आधार ए व्यक्ति ॥ जि० ॥ से० ॥७॥
८२३
॥ अथ अष्टम श्रीदत्तप्रभु स्तवन ॥
॥ राग धमाल ॥
जिन सेवन पाईये हो, शुद्धतम मकरंद ॥ ए आंकणी ॥ तत्त्व प्रतीत वसंत ऋतु प्रगटी, गई सिसिर कुप्रतीत ॥ ललना ॥ दुरमती रजनी लघु भई हो,
सदबोध दिवस वदीत ॥ ललना ॥ जिन० ॥ १ ॥
साध्य रुचि सुसखा मिलीहो, निज गुण चरचा खेल || ल०
बाधक भावकी नंदना हो,
बुध मुख गारिको मेल ॥ ० ॥ जि० ॥२॥ प्रभु गुण गान सुछंद हो,
वाजित्र अतिशय तान ॥ ल०
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शुद्ध तत्त्व बहुमानता,
खेलत प्रभु गुण ध्यान ॥ २० ॥ जि० ॥३॥
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८२४
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श्री महो० देव० कृत अतित जिन चोविशी.
गुण वहुमान गुलालसो हो, लाल भए भवि जीव ॥ ल०
राग प्रशस्तकी धूममें हो,
विभाव विडारे अतीव ॥ ल० ॥ जिन० ॥४॥ जिन गुण खेल में खेलते हो, प्रगट्यो जिन गुण खेल ॥ ल० ॥
आतम घर आतम रमे हो,
समता सुमति के मेल ॥ ८० ॥ जि० ॥५॥ तत्त्व प्रतित प्याले भरे हो,
जिन वाणी रसपान ॥ ८० ॥
निर्मल भक्ति लाली जगी हो, रिझे एकत्वता तान || ल० ॥ जिन० ॥६॥ भव वैराग अविरशुं हो,
चरण रमण सुमहंत ॥ ल० ॥ समिति गुपति वनिता रमे हो, खेले हो शुद्ध वसंत ॥ ल० ॥ जि० ॥७॥ चाचर गुण रसीया लिये हो, निज साधक परिणाम | ल० ॥
कर्म प्रकृति अरति गई हो, उलसीत अम्रित उद्दाम || ल० ॥ जि० ॥८॥
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अष्टम श्री दत्तप्रभु स्तवन.
..
२५
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थिर उपयोग साधन मुखे हो, पिचकारीकी धार ॥ ल०॥ उपशम रस भरी छांटतां हो, गई तताई अपार ॥ ल०॥जि०॥९॥ गुण पर्याय विचारता हो, शक्ति व्यक्ति अनुभूति ॥ल०॥ द्रव्यास्तिक अवलंवतां हो, ध्यान एकत्त्व प्रसूति॥ललना०॥जि०॥१०॥ राग प्रशस्त प्रभावनाहो, निमित्त करण उपभेद ॥ ल०॥ निरविकल्प सुसमाधिमें हो, भये हे त्रिगुण अभेद ॥ ल०॥ जि०॥११॥ ईम श्रीदत्त प्रभु गुणे हो, फाग रमे मतिमंत ॥ ल०॥ पर परिणति रज धोयके हो, निरमल सिद्धि वसंत ॥ ल०॥ जि० ॥१२॥ कारणथे कारज सधे हो, एह अनादिकी चाल ॥ ल०॥ देवचंद्र पद पाईथे हो, करत निज भाव संभाल ल०॥जि०॥१३॥ 104
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८२६ श्री महो. देव. कृत अतित जिन चोविशी.
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॥ अथ नवम श्री दामोदर जिन स्तवन ॥ ॥ मोरा साहेब हो श्री शीतल नाथके ॥ ए देशी ।।
सुप्रतीते हो करि थिर उपयोग के, दामोदर जिन बंदीये। अनादिनी हो जे मिथ्या भ्रांतिके, तेह सर्वथा छंडीये ॥ अविरति हो जे परिणति दुष्ट के, टालो थिरता साधोए। कषायनी हो कसमलता कापी के, वर समता आराधीए ॥१॥ जंबूने हो भरते जिनराज के, नवमा अतित चोवीशीये ॥ जस नामे हो प्रगटे गुण राशि के, ध्याने शिव सुख विलसीये ॥ अपराधी हो जे तुजथी दूर के, भूरि भ्रमण दुःखना धणी ॥ ते माटे हो तुज सेवा रंग के, होजो ए इच्छा घणी ॥२॥ मरुधरमें हो जिम पुरतरु लुंबके, सागरमें प्रवहण समो॥
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नवम श्री दामोदर जिन स्तवन.
भवभमता हो भविजन आधार के, प्रभु दरशन सुख अनुपमो ॥ आतमनी हो जे शक्ति अनंतके,
तेह स्वरुप पदे धा ॥ पारिणामिक हो ज्ञानादिक धर्म के, स्वार्यपणे वया ॥ ३ ॥ अविनाशी हो जे आत्मानंद के, पूर्ण अखंड स्वभावनो || निज गुणनो हो जे वर्त्तन धर्म के, सहज विलासी दावनो ॥ तस भोगी हो तुं जिनवर देव के, त्यागी सर्व विभावनो ॥ श्रुतज्ञानी हो न कही शके सर्व के, महिमा तूज प्रभावनो ॥ ४ ॥ निःकामी हो निकषाई नाथ के साथ होजो नित तुम तणो ॥ तुम आणा हो आराधना शुद्धके, साधुं हुँ साधकपणो ॥ वीतरागथी हो जे राग विशुद्ध के, तेहीज भवभय वारणो ॥
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८२८
श्री महो देव० कृत अतित जिन चोविशी.
जिनचंद्रनी हो जे भक्ति एकत्वके, देवचंद्र पद कारणो ॥ ५॥ ॥ अथ दशम श्री सुतेज जिन स्तवन । अति रुडीरे अति रुडी जिनराजीनी थिरता अति रुडी ॥ ए आंकणी ॥ सकल प्रदेश अनंती, गुण पर्याय शक्ति महंती लाल ॥ अ०॥ तसु रमणे अनुभववंती, पर रमणे जे न रमंती लाल ॥ अति० ॥१॥ उत्पाद व्यये पलटंती, ध्रव शक्ति त्रिपदी संतो लाल ॥१०॥ उतपादे उतपतमंती, पूरव परिणति व्ययपंती लाल ॥१०॥२॥ नव नव उपयोगे नवली, गुण छतिथी ते नित अचली लाल ॥०॥ परद्रव्ये जे नवि गमणी, क्षेत्रांतरमांहि न रमणी लाल ॥१०॥३॥ अतिशय योगे नदि दीपे, परभाव भणों नवि छी लाल ॥ अ०॥
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दशम श्री सुतेज जिन स्तवन.
निज तत्त्व रसे जे लोनी, बीजे किणही नवि कीनी लाल ॥ अ० ॥४॥
८२९
संग्रह नयथी जे अनादि,
पण एवंभूते सादि लाल ॥ अ० ॥
जेहने बहुमाने प्राणी,
पामे निज गुण सहनाणी लाल ॥ अ० ॥ ५ ॥
थिरताथी थीरता वाधे,
साधक निज प्रभुता साधे ॥ लाल ॥ अ० ॥
प्रभु गुणने रंगे रमता,
ते पामे अविचल समता ॥ लाल ॥ अ० ॥६॥ निज तेजे जेह सुतेजा,
जे सेवे धरि वहु हेजा लाल ॥ अ० ॥
शुद्वालंबन जे प्रभु ध्यावे,
ते देवचंद्र पद पावे लाल ॥ अ० ॥ ७ ॥
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॥ अथ एकादशम श्री स्वामीप्रभोजिन स्तवन ॥
रहो रही रहो रहो बालहा ॥ ए देशी ||
नमि नमि नमि नाम वीनवुं, सुगुणा स्वानी जिणंद नाथरे ॥
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८३० श्री महो० देव० कृत अतित जिन चोविशी.
ज्ञेय सकल जाणग तुमे,
प्रभुजी ज्ञान दिणंद नाथरे ॥ नमि० ॥ १ ॥ वर्त्तमान ए जीवनी, परिणति केम नाथरे ॥
जाणं हे विभावने,
पिण नवि छूटे प्रेम नाथरे ॥ नमि० ॥ २ ॥ पर परिणति रस रंगता,
पर ग्राहकता भाव नाथरे ॥
पर करता परभोगता,
यो थयो एह स्वभाव नाथरे ॥ नमि०॥३॥
विषय कषाय अशुद्धता,
न घटे ए निरधार नाथरे ॥
तो पण वर्छु तेहने,
किम, तरिये संसार नाथरे ॥ नमि०॥ ४ ॥ मिथ्या अविरति प्रमुखने,
नियमा जाणुं दोष नाथरे ॥
नंदू रहूं वली वली,
पण ते पामे संतोष नाथरे ॥ नमि०॥५॥
अंतरंग पर रमणता,
टूलये किये उपाय नाथरे ॥
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एकादशम श्री स्वामीग्रभो जिन स्तवन.
८३१
आणा आराधन विना, किम गुण सिद्धि थाय नाथरे ॥नमि०॥६॥ हवे जिन वचन प्रसंगथी, जाणो साधक नीति नाथरे ॥ शुद्ध साध्य रुचिपणे, करिए साधन रीति नाथरे । न०॥७॥ भावन रमण प्रभु गुणे, योग गुणी आधीन नाथरे ॥ राग ते जिम गुण रंगमें, प्रभु दीठां रति पोन नाथरे ॥नमि०॥८॥ हेतु पलटावी सवे, जोड्या गुणि गुण भक्ति नाथरे । तेह प्रशस्तपणे रम्या, साधे आतम शक्ति नाथरे ॥नमि०॥९॥ धन तनु मन वचना सवे, जोड्या स्वामी पाय नाथरे ॥ वाधक कारण वारता, साधन कारण थाय नाथरे ॥ न०॥ १०॥ आतमता पलटावतां, प्रगटे संवर रूप नाथरे ।
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८३२
श्री महो देव कृत अतित जिन चोविशी.
स्वस्वरूप रसी करे, पुरणानंद अनूप नाथरे ॥नमि०॥११॥ विषय कषाय जहर टले, अमृत थाये एम नाथरे ॥ जे परसिद्ध रूचि हुवे, तो प्रभु सेवा धरी प्रेम नाथरे ॥नमि०॥१२॥ कारण रंगी कार्यने, साधे अवसर पामि नाथरे । देवचंद्र जिनराजनी,
सेवा शिवसुख धाम नाथरे ॥नमि०॥१३॥ ॥ अथ द्वादशम श्री मुनिसुव्रत जिन स्तवन ॥
॥ नमणी खमणी ने मन गमणी ॥ ए देशी ॥ दिठो दरिशण श्री प्रभुजीनो, साचे रागे मनसुं भीनो ॥ जसु रागे निरागी थाये, तेहनी भक्ति कोने न सुहाये ॥१॥ पुद्गल आशा रागो अनेरा, तसु पासे कुण खाये फेरा ॥
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द्वादशम श्री मुनिसुव्रत जिन स्तवन.
जसु भगते निर्भय पद लहिए, तेहनी सेवामां थिर रहियो ॥ २ ॥ रागी सेवकथी जे राचे, बाह्य भक्ति देखीने माचे ॥
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जसु गुण दाझे तृष्णा आंचे, तेहनो सुजस चतुर किम वाचे ॥ ३ ॥ पूरण ब्रह्मने पूर्णानंदी,
दर्शन ज्ञान चरण रस कंदी ॥ सकल विभाव प्रसंग अफंदी, तेह देव समरस मकरंदी ॥ ४ ॥ तेहनी भक्ति भवभय भाजे, निगुण पिण गुण शक्ति गाजे दास भाव प्रभुताने आपे, अंतरंग कलिमल सवि कापे ॥ ५ ॥ अध्यातम सुख कारण पूरो, स्वस्वभाव अनुभूति सनूरो । तसु गुण बलगी चेतना कीजे, परम महोदय शुद्ध लहीजे ॥ ६ ॥ मुनिसुव्रत प्रभु प्रभुता लीना, आतम संपत्ति भासन पोना ||
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८३३
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८३४ श्री महो० देव० कृत अतित जिन चोविशी.
आणा रंगे चित्त धरीजे,
देवचंद्र पद शीघ्र वरीजे ॥७॥ ॥ अथ त्रयोदशम श्री सुमतिजिन स्तवन ॥
॥ कान्हैयालाल ए देशी ॥ प्रभुस्यूं इस्यूं विनवूरे लाल, मुज विभाव दुःख रीतरे साहविया लाल। तिन कालना ज्ञेयनीरे लाल, जाणो छो सहु नीतिरे साहबिया लाल॥प्रभु०॥१॥ ज्ञेय ज्ञानस्युं नवि मिलेरे लाल, ज्ञान न जाये तथ्थरे । सा०॥ प्राप्त अप्राप्तमेयनेरे लाल जाणो जे जिम जथ्थरे ॥ सा०॥प्रभु० ॥२॥ छति परजाय जे ज्ञाननारे लाल, ते तो नवि पलटायरे ॥ सा०॥ ज्ञेयनो नवनवि वर्तनारे लाल, सवि जाणे असहायरे ॥ सा०॥प्र०॥३॥ धर्मादिक सहु द्रव्यनारे लाल, प्राप्त भणी सहकाररे । साहि० ॥ रसनादिक गुण वर्त्ततारे लाल, निज क्षेत्रे ते धाररे॥सा०॥प्र०॥४॥
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त्रयोदशम श्री सुमति जिन स्तवन.
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जाणग अभिलाषी नहिरे लाल, नवि प्रतिबिंब शेयरे ॥ सा०॥ कारक शक्तं जाणवुर लाल, भाव अनंत अमेयरे ॥सा०॥ प्रभु०॥५ : तेह ज्ञान सत्ता थकेरे लाल, न जणाये निज तत्त्वर ॥ सा०॥ रुचि पण तेहवि नवि वधेर लाल, ए अम मोह महत्वरे ॥सा० प्रभु०॥६॥ मुज ज्ञायकता पर रसीरे लाल, पर तृष्णाए तप्तरे ॥ साहिवि०॥ ते समता रस अनुभवरे लाल, सुमति सेवन व्याप्तरे ॥ सा०॥प्र०॥७॥ बाधकता पलटाववारे लाल, नाथ भक्ति आधाररे ॥ सा०॥ प्रभु गुण रंगी चेतनारे लाल, एहीज जीवन साररे ॥ सा० ॥३०॥८॥ अमृतानुष्ठाने रह्योरे लाल, अमृत क्रियाने उपायरे ॥ सा०॥ देवचंद्र रंगे रमेरे लाल, ते सुमति देव पसायरे ॥ सा०॥प्र०॥९॥
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८३६ श्री महो० देव० कृत अतित जिन चोविशी.
॥ अथ चउदशम श्री शिवगति जिन स्तवनम् ॥ थारा मेहेला उपर मेह झबुके बीझली से लाल ||ए देशी ||
शिवगति जिनवर देव सेव आ
दोहिली हो लाल ॥ से० ॥ पर परिणति परित्याग करे तसु सोहिली हो लाल ॥ करे० ॥ आश्रव सर्व निवारि जेह
संवर धरे हो लाल || जेह० ॥
जे जिन आणा लीन पीन
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सेवन करे हो लाल ॥ पीन० ॥ १ ॥
वीतराग गुण राग भक्ति रुचि नैगमे हो लाल ॥ भ० ॥ यथाप्रवृत्ति भव्य जीव
नय संग्रह रमे हो लाल० ॥ नय० ॥ अमृत क्रिया विधि युक्त वचन
आचारथी हो लाल ॥ वचन० ॥ मोक्षार्थी जिन भक्ति करे
व्यवहारथी हो लाल० ॥ करे० ॥ २ ॥
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चउदशम श्री शिवगति जिन स्तवन.
गुण प्राग्भावी कार्यतणे
कारणपणे हो लाल ॥ तणे० ॥ रत्नत्रयो परिणाम ते ऋजुसूत्रे ___ भणे हो लाल ॥ ते रुजु०॥ जे गुण प्रगट थयो निज निज
कारज करे हो लाल के ॥ निज०॥ साधक भावे युक्त शब्दनये
ते धरे हो लाल ॥ शब्द० ॥६॥ पोते गुण पर्याय प्रगटपणे __ कार्यता हो लाल ॥ प्र०॥ उण थाए जाव ताव
संभिरूढता हो लाल ॥ ताव०॥ संपूरण निज भाव स्वकारय
कीजते हा लाल ॥ स्व०॥ शुद्धातम निजरूप तणे
रस लीजते हो लाल ॥ त०॥४॥ उत्सर्गे एवंभूत ते
फलने नीपने हो लाल ॥ ते॥ निसंगी परमातम रंगथी
ते बने हो लाल के ॥२०॥
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८३८
श्री महो० देव० कृत अतित जिन चोविशी.
सहज अनंत अत्यंत महंत
सुखे भस्या हो लाल ॥ म० ॥ अविनाशी अविकार अपार गुणे
वस्या हो लाल ॥ अ० ॥ ५॥ जे प्रवृत्ति मूल छेद
उपाय जे हो लाल ॥ छे०॥ प्रभु गुण रागे रक्त थाय
शिवदाय ते हो लाल ॥ था० ॥ अंश थकि सरवंश विशुद्धपणु
ठवे हो लाल ॥ वि०॥ शुकल वीज शशि रेह तेह
पूरण हुवे हो लाल ॥ तेह०॥ ६ ॥ तिम प्रभुथी शुचि राग करे
वीतरागता हो लाल ॥ करे० ।। गुण एकत्वे थाय स्वगुण
प्राग्भावता हो लाल ॥ स्वगुण० ॥ देवचंद्र जिनचंद्र सेवामांहि
रहो हो लाल ॥ सेवा०॥ अव्याबाध अगाध आतम सुख
संग्रहो हो लाल ॥ आ०॥ ७॥
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पंचदशम श्री आस्ताग जिन स्तवन.
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॥ अथ पंचदशम श्री आस्तागजिन स्तवन ॥
॥ मन मोह्युं अमारूं प्रभु गुणे ॥ ए देशी ॥
करो साचो रंग जिनेश्वरू, संसार विरंग सहू अन्यरे ॥ सुरपति नरपति संपदा,
ते तो दुरगंधी कदन्नरे ॥ करो० ॥ १ ॥
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जिन आस्ताग गुण रस रमी, चल विषय विकार विरूप रे ॥ विण समकित मते अभिलखे, जिणे चाख्यो शुद्ध स्वरूपरे ॥ क० ॥ २ ॥
निज गुण चिंतन जल रम्या, क्रोध अनलनो ताप रे ॥
तसु नवि व्यापे कापे भवस्थिति,
जिम शीतने अर्क प्रतापरे ॥ क० ॥ ३ ॥
जिन गुण रंगी चेतना,
नवि बांधे अभिनव कर्मरे ||
गुण रमणे निज गुण उल्लसे, ते आस्वादे निज धर्मरे ॥ क० ॥ ४ ॥
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४. श्री महोदेव कृत अतित जिन चोविशी.
-namramnanimammy
पर त्यागी गुण एकतत्त्वता, रमता ज्ञानादिक भावरे ॥ स्वस्वरूप ध्याता.थई, पामे शुचि क्षायिक भावरे ॥ करो० ॥५॥ गुण करणे नव गुण प्रगटता, सत्तागत रस थीती छेद रे॥ संक्रमण उदय प्रदेशथी, करे निर्झरा टाले खेद रे ॥ करो० ॥६॥ सहज स्वरूप प्रकाशथी, थाए पूर्णानंद विलासरे ॥ देवचंद्र जिनराजनी,
करज्यो सेवा सुख वासरे ॥ करो० ॥ ७ ॥ ॥अथ षोडषम श्री नमिश्वर स्वामी जिन स्तवन ॥
॥ हो पोउ पंखोडा ॥ ए देशी॥ जगत दिवाकर श्री नमिश्वर स्वामजो, तुज मुख दोठे नाठी भूल अनादिनोरेलो॥ जाग्यो सम्यग् ज्ञान सुधारस.धामजो, छांडी दुर्जय मिथ्यानींद प्रमादनीरे लो॥ज०॥१॥
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षोडशमा श्री नमिश्वर स्वामी जिन स्तवन. ८४१ सहज प्रगट्यो निज पर भाव विवेक जो, अंतर आतिम ठहरयो साधन साधवरे लोल॥ साध्यालंबी थई क्षाचकता छेक जो, निज परिणति धिरनिजधर्भ सेठवेरे लो॥ज०॥२॥ त्यागीने सवि पर परिणति रस रोझ जो, जागी छे निजआत्म अनुभव इष्टतारे लोल ॥ सहजे छुटी आश्रव भावनी चालजो, जालम ए प्रगटी संवर शिष्टतारे लोल॥ज०॥३॥ बंधुना हेतु जे छे पाप स्थानजो, ते तुज भगते पाम्या पुष्ट प्रशस्ततारे लोल ।। ध्येय गुणे वलग्यो पूरण उपयोग जो, तेहथी पामे ध्याता ध्येय समस्ततारे लोलाज०॥४॥ जे अति दुस्तर जलधि समो संसारजो, ते गोपद सम कीधो प्रभु अवलंबनेरे लोल॥ जाण्यो पूर्णानंद ते आतम पास जो, अवलंब्यो निर्विकल्प परमातमतत्वनेरेलोल॥ज०।५ स्याहादी निज प्रभुताने एकत्त्वजो, क्षायिक भावे थाए निज रत्नत्रयीरे लोल॥ प्रत्याहार करीने धारे धारण शुद्ध जो, तत्त्वानंदी पूर्ण समाधि लय मईरे लोल॥ज०॥६॥
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८४२ श्री महो० देव० कृत अतीत जिन चोविशी.
अव्यावाध स्वगुणनी पूरण रीत जो, कर्ता भोक्ता भावे रमणपणे धरेरे लोल॥ सहज अकृत्रिम निर्मल ज्ञानानंदजो, देवचंद्र एकत्त्वे सेवनथी वरेरे लोल ॥ ज०॥७॥
॥ अथ सप्तदशमा श्री अनीलजिन स्तवन ।।
॥ देखो गति देवनी रे ॥ ॥ देशी ॥ स्वारथ विणु उपगारता रे, अदभुत अतिशय रिद्धि ॥ आत्म स्वरूप प्रकाशना रे, पूरण सहज समृद्धि ॥ अनील जिन सेवीपरे ॥ नाथ तुमारी जोडि न को त्रिहुं लोकमेंरे, प्रभुजी परम आधार अछो भवि थोकनेरे॥१॥ परकारज करता नहिरे, सेव्या पार न हेत॥ जे सेवे तनमय थईरे, ते लहे शिव संकेत ॥ अ० ॥ २ ॥ करता निज गुण वृत्तितारे, गुण परिणति उपभोग ॥
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सप्तदशम श्री अनीलजिन स्तवन.
८४३
निप्रयास गुण वर्त्ततारे, नित्य सकल उपयोग ॥ अनोल ॥३॥ सेव भक्ति भोगी नहीं रे, न करे परनो सहाय ॥ तुज गुण रंगी भक्तनार, सहजे कारज थाय ॥ अनील०॥४॥ किरिया कारण कार्यतारे, एक सयय स्वाधीन ॥ वर्ने प्रति गुण सर्वदारे, तसु अनुभव लयलीन ॥ अनोल०॥५॥ ज्ञायक लोकालोकनारे, अनील प्रभु जिनराय॥ नित्यानंद मयी सदारे,
देवचंद्र सुखदाय ॥ अनील० ॥६॥ ॥अथ अष्टादशमा श्री यशोधर जिनराजनुं स्तवन।
॥ राग मारू ॥ए देशी॥ वदन पर वारिहो जशोधर वदन पर वारिहो ॥ मोह रहित मोहन जयाको उपशम रस क्यारिहो। अहो उपशम रस क्यारिहो ॥ १०॥१॥
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४४ श्री महो देव० कृत अतित जिन चोविशम.
मोही जीव लोहको कंचन, करवे पारस भारि हो । समकित सुरतरु उपवन सिंचन, वर पुष्कर जलधारि हो ॥ अहो०॥ व.॥२॥ सर्व प्रदेश प्रगट सम गुणथी, प्रवृत्ति अनंत अपहारी हो । परम गुणी सेवनथें सेवक, अप्रशस्तता वारी हो ॥ अहो०॥ व० ॥३॥ पर परिणति रुचि रमण ग्रहणता, दोष अनादि निवारी हो ॥ देवचंद्र प्रभु सेवन ध्याने, आतम शक्ति समारी हो ॥ अहो० ॥ व०॥४॥
॥ अथ एकोनविंशतितम कृतार्थ जिन स्तवन ॥
॥ अधिका ताहरो हुं अपराधि ॥ ए देशी ॥ सेवा सारज्यो जिनजी मन साचे, पण मत मागो भाई ॥ महेनतनो फल मागी लेतां, दास भाव सवि जाई ॥ से० ॥१॥
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एकोनविंशतितम श्री कृतार्थ जिन स्तबन. ८४५
भक्ति नहि ते तो भाडायत, जे सेवा फल जाचे ॥ दास तिके जे घन भरि निरखी, कैकीनी परे माचे ॥ सेवा० ॥२॥ सारी विधि सेवा सारंतां, आण न कांइ भाजे ॥ हूकम हाजर खिजमति करतां, सहजे नाथ निवाजे ॥ सेवा०॥३॥ साहिब जाणो छो सहु वाते, शुं कहीए तुम आगे ॥ साहिब सनमुख अमे मागणनि, वात कारमी लागे ॥ से०॥४॥ स्वामि कृतारथ तो पण तुमथी, आश सहुको राखे ॥ नाथ विना सेवकनी चिंता, कोण करे विणु दाखे ॥ सेवा० ॥५॥ तुज सेवा फल माग्यो देतां, देवपणो थाये काचो ॥ विण माग्यां वंछित फल आपे, तिणे देवचंद्र पद साचो ॥ से०॥६॥
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८४६ श्री महो० देव कृत अतीत जिन चोविशी.
॥ अथ विंशतितम श्री धर्मीश्वर जिन स्तवन ॥ अखीयां हरखन लागी हमारी अग्नीयां ॥ ए देशी ॥
॥राग प्रभाती॥ हुं तो प्रभु वारि छु तुम मुखनी, हुं तो जिन बलिहारी तुम मुखनी॥ समता अमृतमय सुप्रसननी, त्रेय नही राग रूखनी ॥ हुं० ॥१॥ भ्रमर अधर सिस धनु हर कमल दल, कीर हीर पुन्यम शशीनी ॥ शोभा तुछ प्रभु देखत याकी, कायर हाथे जिम असिनी ॥ हुं० ॥२॥ मन मोहन तुम सनमुख निरखत, आंख न तृपति अम्हची॥ मोह तिमिर रवि हरख चंद्र छवी, मुरत ए उपशमची ॥ हुं० ॥ ३ ॥ मनमी चिंता मटी प्रभु ध्यावत, मुख देखतां तुम जिनजी ॥ इंद्रि तृषा गई जिनेश्वर सेवतां, गुण गातां वचननी ॥ हुं० ॥४॥
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एकविंशतितम श्री शुद्धमति जिन स्तवन.
मीन चकोर मोर मतंगज, जल शशी घन नीचनथी ॥ तिम मो प्रति साहिब सुरतथी, और न चाहुं मनथी ॥ हुं० ॥ ५ ॥
८४७
ज्ञानानंदन जाया नंदन,
आस दास नीयतनी ॥ देवचंद्र सेवनमें अहनिश, रमज्यो परिणति चित्तनी ॥ हुं० ॥ ६ ॥
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॥ अथ एकविंशतितम श्री शुद्धमति जिन स्तवन ॥ श्री जिन प्रतिमा हो जिन सरखी कही ॥ ए देशी ॥
श्री शुद्धमति हो जिनवर पूवो, एह मनोरथ माल ॥ सेवक जाणी हो महेरबानी करी, भव संकटथी दाल ॥ श्री० ॥ १ ॥ पतित उद्धारण हो तारण वच्छलं, करे अपणायत एह ॥ नित्य निरागी हो निस्पृह ज्ञाननी, शुद्ध अवस्था देह ॥ श्री० ॥ २ ॥
३०.
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८४८ श्री महो देव० कृत अतीत जिन चोविशी.
परमानंदि हो तुं परमातमा, अनिनाशी तुज रीत ॥ ए गुण जाणी हो तुम वाणी थकी, ठहराणी मुज प्रीत ॥ श्री० ॥३॥ शुद्ध स्वरूपो हो ज्ञानानंदनो, अव्याबाध स्वरूप ॥ भवजल निधि हो तारक जिनेश्वर, परम महोदय भूप ॥श्री०॥४॥ निरमम निसंगी हो निरभय अविकारता, निरमल सहज समृद्धि ॥ अष्ट करम हो बन दाहथी, प्रगटी अन्वय रिद्धि ॥श्री०॥५॥ आज अनादिनी हो अनंत अक्षता, अक्षर अनक्षर रूप ॥ अचल अकल हो असल अगमन, चिदानंद चिद्रप ॥ श्री० ॥ ६॥ अनंत ज्ञानी हो अंनंत दर्शनी, अनाकारी अविरुद्ध ॥ लोकालोक हो ज्ञायक मुहकरू, अनाहारी स्वयं बुद्ध ॥ श्री० ॥७॥
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एकविंशतितम श्री शुद्धमति जिन स्तवन.
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जे निज पासे हो ते \ मागीए, देवचंद्र जिनराय ॥ तो पण मुजने हो शिवपुर साधतां, होजो सदा सुसहाय ॥ श्री०॥८॥
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॥ अथ श्रीदेवचंद्रजीकृत स्नात्रपूजाविधि
प्रारंभः ॥
॥ प्रथम निस्सहीपूर्वक श्रीदेरासरमध्ये आधी अंग शुद्ध करी, नवीन वस्त्र पहेरी, स्वभालतिलक करी, बाजोटनी स्थापना करी, ते उपर बाजोट मांडी, स्नात्र पीठ उपर थालनी स्थापना करवी, ते उपर तंदुलनी ढगली करवी ॥ तेनी उपर रूपानाणुं तथा नालीयेर धरी ने पछी स्नात्रीयायें पोताने हाथे मौली सूत्र बांधवू, तथा बीजा कलश प्रमुख स्थानकें मौली बंधन करी, कलशाने धूप दइ, दुध, दधि, घृत, जल तथा शर्करा, ए पंचामृतथी कलश भरी राखवा. पछी मुखकोश बांधी मूल नायकजी आगल आवी नमस्कार करी, अने धूपद्याएं हाथमां लइ धूप उखेववो ॥ ते सममे मुखथी धूपावलीनी गाथा कहेवी, ते आ प्रमाणेः
. ॥ असुरिंदसुरिंदाणं, किन्नर गंधव चंद सूराणं ॥ विज्जा. हरा सुराणं, सज्जोगा सिद्धाण सिद्धाणं ॥ १ ॥ मुणिय परमत्थ वित्थर, गियत्थ विविह तव सोसियंगाणं । सिभिवहू निम्भरहूं, ठियाणं जोगीसराणं च ॥ २ ॥ जं पूयाय भंगवओ, तित्थयरा राग रोस तम रहिया ॥ विणय पणएण तेसिं, समुद्रओ मे इमे वूओ ॥ ३ ॥ तित्थंकर पडिमाणं, कंचण मणिरयण विद्दममयाणं । तिहुयण विभूसगाणं, सासय सुरनर कयाणं च ॥ ४ ॥ सिद्धाण सूरि पाठग, साहूणं झाण जोग निरयाणं ॥ सुयदेवय माईणं, समुद्धुओ मे इमे धूओ ॥५॥
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स्नात्र पूजा विधि.
।। ए गाथाओ का पछी प्रथम अक्षतनें धोइ तेओ ने केशर तथा चंदन लगाडवं, तथा पुष्पोने पण जलथी शुद्ध करी राखवां, तदनंतर ते अक्षत तथा फुलनी कुसुमांजलि हाथमां लइ, उभा थइने " नमो अरिहंताणं, नमोऽहंसिद्धा० " ।। एम पाठ कहेवो. अने पछी बे लोक पटन करवा, ते आ प्रमाणे:
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॥ श्रीमत्पुण्यं पवित्रं कृतविपुलफलं मंगलं लक्ष्म लक्ष्म्याः, क्षुण्णारिष्टोपसर्गग्रहगतिविकृतिस्वनमुत्पातघाति ।। संकेतं कौतुकानां सकलमुखमुखं पर्व्व सर्वोत्सवानां, स्नात्रं पात्रं गुणानां गुरुगरिमगुरो चिता यै र्न दृष्टम् ।। १ ।। अशेषभवनांतराश्रितसमाजखेदक्षमो, नचापि रमणीयतामतिशयीत तस्यापरः || प्रदेश इह मानतो निखिललोकसाधारणः, सुमेरुरिति तापिनः स्त्रपनपीठभावं गतः ॥ २ ॥
॥ एम कह्या पछी स्नात्र पीठ सन्मुख कुसुमांजलि अर्पण करवी, तदनंतर स्नापनपीठ पखाली लुछीने कुंकुमनो स्वस्तिक करवो, धूप उखेववो, अने सर्व स्नात्रीयाओना हाथने धूपावली आपवी, पछी कर्पूर लगाडवो, अने एक नवकार कहीने स्नात्रपीठ उपर प्रतिमाजीनी स्थापना करवी, ते प्रतिमा प्रायः पंचतीर्थिक, अर्थपरकरसंयुक्त स्थापवी, तेना मुख आगल अक्षतोनी ढगली करवी, अने तेनी उपर पंचामृतनो एक कलश मुकवो, पछी हाथमां कुसुमांजलि लइने "मुक्तालंकार विकार०" ए आर्या भणी कुसुमांजलि अर्पण करीने, प्रतिमाजीनां निर्माल्य उतारी प्रक्षालन करवुं, अंगलहणायी प्रमाजिने धूप उखेववो, अने केशर, चंदन, कर्पूर तथा कस्तूरी
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स्नात्र पूजा विधि.
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घसी ते पवित्रभाजनमां भरीने ते भाजन प्रतिमाजी आगल धर वली कुसुमांजलि हाथमां लइ उभा थइ " इच्छं णमो अरिहंताणं • || नमोऽर्हत्सिद्ध० || " कहीने स्नात्र पूजांनी पहेली पांखडी कहेवी, एम अनुक्रमे पांच पांखडी कही कुसुमांजलि पूर्ण करीने हायमां चामर लड्ने तेने भगवंतनी उपर ढोलतो ॥ वस्तु ॥ सयल जिनवरथी मांडीने यावत् बधाई बधाई थइ अतीव " सुधीनो पाठ कहे, ते पूर्ण थया पछी चैत्यवंदन कर. पछी शक्रस्तव कही जयवीयराय सुधी भण. पछी हाथ धोई धूप कर्पूरादिक हाथने लगाडवां, त्यार केर्डे जे पूर्वे कलशोने धोइ धूप आपी कंठें मौलीसूत्र बांधी उपर स्वस्तिक करी तेओमां पंचामृत भरी, अक्षतोना ढगलाओ उपर धारण करी तेनी उपर अंगलहणां ढांकी धूप उखेवी, तेओमांना मात्र बेज कलशोने आसपास जलधारा देइने राख्या होय पछी स्नात्रीयाना हाथमां स्वस्तिको करी सर्वे जणोयें श्रेणीबद्ध उभा रहेवुं, अने प्रत्येक स्नात्रीआयें खमासमण देइ, पंचांग नमस्कार करवो, पछी प्रत्येक स्नात्रीया पोताना बे हाथमां कलशो लेवा, ते कलशधारक स्नात्रीया पोताना बन्ने हाथने विषे रहेला कलशने उत्तरासंग वस्त्र - वडे ढांकी राखवा, अमे पोतें उभा छतां मुखथी श्री तीर्थपतिनो कलश मज्जन " इहांथी मांडीने संपूर्ण पूजा भणवी, व्यार पछी प्रतिमाजी उपर कलशो ढोली, पखाल करी अंगलू हणाथी मज्जन करी, केशर चंदनथी अर्चन करीने फूल चढाववां. पछी थालमा स्वस्तिक करी बिंबनी स्थापना करवी || अने धूप करवो ते समये आ प्रमाणें पाट भणवो:
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स्नात्र पूजा विधि.
॥ अथ कलश ढालवा समयनुं स्तवन ॥
॥ इंद्र कलशभर ढाले श्रीजिन पर ॥ इंद्र कलश० ॥ हाथो हाथ अमरगण आनत, खीर विमल जलधारे ॥ श्री जिनपर० ॥१॥ सुरवनिता मलि मंगल गावे, भावत भाव महारे ॥ श्री जिनपर० ॥ २ ॥ किन्नर अरु गंधर्व महोरग निरत नीर नित्य सारे ॥ श्री जिनपर० ॥३॥ देव इंदुभिधुनि गर्जत अति, शिर पर सुजस विथारे ॥ श्रीजिनपर ॥४॥ परमानंद जिनराज जगतपद, जगजीवन हितकारे ।। श्रीजिनपर० ॥ ५ ॥ इति कलश ढालवा समयनुं स्तवन ।।
॥पछी रकेबीमां लणपाणी लइने आरतिनी परे करवू अने ते वखतें मुखयकी गाथाओ कहेवी, ते आवी रीते:
॥ अथ लूण उतारण गाथा ॥
॥ उवहि पडिभग्ग पसरं, पयाहिणं मुणिवइ करेऊणं ॥ पडइ सलूण तणलाज्जियं च लूणं हु अवहंमी ॥१॥ दोहा ॥ पिरके विणु मुह जिणवरह, दीहर नयण सलण ॥ न्हावइ गुरु मत्थर भरिय, जलणी पइस्सइ लुण ॥ २ ॥ लूणउतारिह जिणवरह, तिन्नि पयाहिण देउ ॥ त्तड्यड सह करति यह, विज्जा विज्जा जलेण ॥ ३ ॥ गाथा ॥ जं जेणविज्ज विज्जइ, जलेण तं तह निहत्थह सस्सदं ॥ जिणरूप मत्थरेणुव, फुट्टइ लुण तडयडस्स ॥ ४ ॥ ॥ ए गाथाओ कहीने लूणने अग्निशरण करQ. पछी वली प्रथमनी पेठे लूण पाणी लइने मुखथी आवी रीतें गाथाओ कहेवीः---
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स्नान पूजा.
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॥ दोहा ॥ सवं मुणिवइ जलविजड, तं तह भमलइ पास ॥ अहव कयंतसुमिम्मलु, निग्गुण बुद्धि पयास ॥१॥ जल आणेविण जलणिह पासह, भर विकयंजलि भाविहिं पासह ॥ तिन्नि पयाहिण दितिय पासह, जिम जिउ छुट्टई भव दुह पासह ॥ २ ॥ जल निम्मल कर कमलहि लेविणु, सुरवइ भावहि मुणिवइ सेविण ॥ पभणइ जिणवर तुह पइ सरण, भय तुट्टइ लभइ सिद्धि गमणं ॥ ३ ॥ ए गाथाओ कही लूण पाणी उतारीने जल शरण करवू, त्यार पछी माला लइ उमा रहिने आ प्रमाणे गाथाओ कहेवीः
अथ पुष्पमाला पूजा गाथा ॥ ॥ उन्नय पुज्जय भत्तस्स, नियटाणे संठियं कुणंतस्स ॥ जिणपासे भमिय जिणस्स, निय ठाणे संठियं तस्स ( पाठांतरे ) पियतुह हुयवहे पडणं ॥ १ ॥ सबो जिणप्पभावो, सरिसा सरिसेरा जेगा चंति ॥ सवन्नूण मपासे, जडस्स भमणं ण संकमण ॥ २ ॥ अच्चंत दुक्करं विहु, हुअवह निवडेण जडेण कयं ।। आणा सबन्नूणं, न कया सुकयत्थ मूलमणिं ॥ ३ ॥ ए पाठ भणीने माला चढाववी, पछी हाथमा छुटां फूलो लेवां, ते वखत गाथाओ कहेवी, ते आ प्रमाणे:
॥ अथ छूटा फूलपूजा गाथा ॥ ॥ उसरणो जिणपुरओ, परिमल मिलिया उक्खिविह संगीया ॥ मुत्तामरेहिवो कुणओ, मरमल मिलिया उक्खिविहसं ॥ १ ॥ उवणेउ मंगलं वो, जिणाण मुहलालि जाव संचलिया ॥ तित्थ पचत्तण समए, तियसेवि मुक्का कुसुम
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स्नात्र पूजा.
वुट्ठी ॥ २ ॥ ए पाठ कहीने प्रभुनी आगल फूलो उछालवां, हवे आभरण तथा वस्त्रो लइने उभा छतां गाथाओ कहेवी, ते आ प्रमाणे:
॥ अथ वस्त्राभरण पूजा ॥ ॥ श्लोकः ॥ शक्रोयथा जिनपतेः सुरशैलचूला, सिंहासनोपरि मितस्नपनाऽवसाने । दध्यक्षतैः कुसुम चंदनगंवधूपैः, कृत्वार्चनं तु विदधाति सुवस्त्रपूजां, ॥ १ ॥ तद्वत् श्रावकवर्गएष विधिनालंकारवस्त्रादिकां, पूजां तीर्थकृतां करोति सततं शक्त्यातिभत्तयादृतः ॥ नीरागस्य निरंजनस्य विजितारातेस्त्रिलोकीपतेः, स्वस्यान्यस्य जनस्य निर्वतिकृते क्लेशक्षयाकांक्षया ॥२॥ एम कही आभरण तथा वस्त्र पूजा करवी ।।
॥ पछी ज्ञान पूजा करे, तेनी गाथाओ॥
॥ नमंति सामिति महीवनाहं, देवाय पृयं सुजहेब पुवं ॥ भत्तीय चित्तं मण दामएहिं, मंदार पुष्फेह सवेह नाहं ॥ १॥ तहेव सदा मण मुत्त एही, सुगंध पुप्फेह वरंसएहिं ।। पूयंत वंदंत नमंत नाणं, नाणस्स लाभाय भवरकयाय ॥ २ ॥ ए गाथाओ कहीने पुष्पोनी माला चढाववी, तथा रौप्यमुद्रा, सुवर्णमुद्रा, मणि रत्न, अने वस्त्र एओयें करी स्वशक्ति अनुसार ज्ञाननी पूजा करवी. ॥ पछी धूप करती वरखतें आ गाथा कहेवी॥
॥ मीनकुरंगमुदारमसारं, सारसुगंधनिशाकरतारं ॥ तारमिलन्मलयोत्थविकार, लोकगुरोर्दह धूपमदारं ॥ २ ॥ एम
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स्नात्र पूजा विधि.
कहीने धूप उखेववो. पछी मंगल दीपक करीने आ गाथाओ कहेवी
॥ अथ मंगलदीपक पूजा ॥ ॥ कोसंबी संठ्यस्सवि, पयाहिणं कुणइ मउलियपईवो ॥ जिणसोम दंसणोदिण, यररूव तुह नाह मंगल पईवो ॥१॥ भामीजंतो सुर सुंदरीहिं, तुहनाह मंगल पईवो ॥ कणयायलस्स निझिय, भाणुष्व पयाहिणं दितो ॥ २ ॥ मरगय सामल थालघरे विणु, कोमल सरलिहि करिहिं करेविणु, जे उतारइ मंगल पईवो, सो नर होइ तिलोय पईवो ॥३॥ ए गाथा कहीने मंगलप्रदीप करवो, पछी रकेबीमा कपूर धरी, आरतिमां बत्ती सलगावीने मुखथकी आ गाथाओ कहेवीः
॥ अथ आरति गाथा ॥ ॥ जं मरगय मणि गडिय, विसाल थाल माणिक्क मंडिय पईवो ।। ण्हवण यरकुरु खित्तं, भमउ जिण आरत्तियं तुम्हें ॥ १॥ आरत्तिअं नियत्थह, जिणस्स धूव किसणागरुच्छायं ॥ पासेसु भमउ निज्जिय, संगमय विभिन्नदिठिव ॥२॥ पसणेयवो भवंतर, समज्जियंकम्मरेणु संघायं ॥ आरत्तिय मंगलग्गा, उच्छलंति सलिलधारा ॥ ३॥ एवी रीते आरति करवी ॥ इति संक्षेप आरतिविधिः ॥
॥ पछी उत्तरासंग करी, चैत्यवंदन करखु, अने अष्ट प्रकारें पूजा करवी. कदाचित् अष्टप्रकारें पूजा न कराय तो शेष फल फूलने नैवेद्य जे होय, ते एमज चढावी देवू, पछी
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स्नात्र पूजा विधि.
..........................mmmmmmmmmmmmmmmmmmm गुणगीत करवां, जय जय शब्द उच्चारवा, साहामीवात्सल्य करवू तथा यथाशक्ति दान देवू ॥ इति श्री स्नात्रपूजाविधिः समाप्तः ॥
॥आरति ॥ दीपक ॥ लणजलविधिः प्रारभ्यते ॥
प्रभुथी अंतरपट करी, प्रभु सन्मुख बेशी आरति करनारने नव अंगें कुंकुमनां तिलक करवां. पछी एक थालमां स्वस्तिक करी, तेमां आरति, मंगल दीपक, जमणी बाजु राखी, त्यां आरतिमां वृत थोडं भरवू. अने मंगलदीपकमां घृत पूर्ण भरवू. पछी केशर, फूल, तंदुले करी, तेनी पूजा करवी. उपर कुंकुमना छांटा नांखी मंगल दीपक प्रगटाववो अने कपूर सलगाववो तेनो मंत्र कहे छे. ॐ अर्हते पंचज्ञानमहाज्योतिर्मयाय, वांतधतिने द्योतनाय, प्रतिमायै दीपो भूयात्सर्वदाहते ॥ १ ॥ एम भणी ॥ मंगलदीपक प्रगटावीने पछी ते मंगलदीपकथी आरति प्रगटावी, पछी दीवो नीचे मूकीने आरति उतारवी, तेवार पछी दीपक उतारे, पछी लूणनी काकरी लेइ " लूण उतारो जिनवर अंगे” इत्यादिक पाठ कही लूणनी गाथा भणवी, पछी बृहच्छांति कहेवी, ते न आवडे तो त्रण नवकार गणी, आ प्रमाणे श्लोक कहेवो ते ॥ श्लोक ॥ आज्ञाहीनं क्रियाहीनं मंत्रहीनं च यत्कृतं ॥ तत्सर्व क्षमया देव, क्षम त्वं परमेश्वर ! ॥१॥ एम कही चैत्यवंदन करवू ॥ इति आरति दीपक लूण जल विधिः॥
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स्नात्र पूजा.
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॥ स्नात्रपूजा प्रारंभः ॥ (पांखडी गाथा)॥ ढाल पहेली ॥ ॥ चउत्तिसे अतिसय जुओ, वचनातिसय जुत्त, सो परमेसर देखि भवि, सिंहासण संपत्त ॥ १ ॥
॥ ढाल ॥ ।। सिंहासन बेटा जग भाण, देखि भविक जन गुणमणि खाण ॥ जे दीठे तुज निर्मल नाण, लहिये परम महोदय ठाण ॥ कुसुमांजलि मेहेलो आदि जिणंदा, तोरां चरणकमल सेवे चोसठ इंदा ॥ कु० ॥ १ ॥ चोवीश वैरागी, चोवीश सोभागी, चोवीश जिणंदा ॥ कु० ॥ एम कही प्रभुना चरणे पूजा करी ये ॥
|| गाथा॥ ॥ जो नियगुण पज्जव रम्यो, तसु अनुभव एगंत ॥ सुह पुग्गल आरोपतां, जो तसु रंग निरत्त ॥ २ ॥
॥ढाल ॥ ॥ जो निज आतमगुण आणंदी, पुग्गल संगें जेह
गुण आणदी, पुरण अफंदी ॥ जे परमेसरनिज पदलीन, पूजो प्रणमो भव्य अदीन ।। कुसुमांजलि मेहेलो शांति जिणंदा । तो० ॥ कु० ॥३॥ एम कही प्रभुना जानुयें पूजा करीयें ॥
॥गाथा ॥ ॥ निम्मल नाण पयासकर, निम्मल गुण संपन्न ।। निम्मल धम्मोवएस कर, सो परमप्पा धन्न ॥ ३ ॥
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स्नात्र पूजा.
AAmway
॥ ढाल ॥ ॥ लोकालोक प्रकाशक नाणी, भविजन तारण जेहनी वाणी ॥ परमानंदतणी नीशानी, तसु भगते मुज मतिय ठहराणी ॥ कुसुमांजलि मेहेलो नेम जिगंदा, तो० ॥ कु० ॥ ३ ॥ एम कही प्रभुना बे हाथे पूजा करी ये ॥
॥गाथा ॥ ॥ जे सिज्झा सिन्झंति जे, सिझंसंति अणंत ॥ जसु आलंबन ठविय मण, सो सेवो अरिहंत ॥ ४ ॥
॥ ढाल ॥ ॥ शिव सुख कारण जेह त्रिकालें, समपरिणामें जगत निहाले ॥ उत्तम साधन मार्ग देखाडे, इंद्रादिक जसु चरण पखाले ॥ कुसुमांजलि मेहेलो पास जिणंदा ॥ तो० ।। कु० ॥४॥ एम कही प्रभुना खंभायें पूजा करी यें ॥
॥गाथा ॥ ॥ समदिठी देस जय, साहु साहुणी सार ॥ आचारिज उवझाय मुणि, जो निम्मल आधार ॥ ५ ॥
॥ढाल ॥ ॥ चउविह संघे जे मन धार्यु, मोक्षतj कारण निरधार्यु ॥ विविह कुसुम वर जाति गहेवी, तसु चरणे पणमंत ठवेवी । कुसुमांजलि मेहेलो वीर जिणंदा । तो० ॥ कु० ॥ ६ ॥ एम कही प्रभुने मस्तकें पूजा करीये ।। इति पांखडी गाथा ॥
॥ वस्तुच्छंद ।। ॥ सयल जिनवर सयल जिनवर, नमिय मनरंग कल्ला
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स्नात्र पूजा.
णकविहि संघविय, करिस धम्म सुपवित ॥ सुंदरसय इगसत्तरि तित्थंकर, एक समय विहरति महीयल, चवण समय इगवीस जिण, जम्म समय इगवीस ॥ भत्तिय भावें पूजीया, करो संघ सुजगीस ॥ १ ॥
॥ बाल बीजो॥ ॥ एक दिन अचिरा हुलरावती ।। ए देशी ॥ ॥ भव बीजे समकित गुण रम्या, जिन भक्ति प्रभु खगुण परिणम्या, तजि इंद्रिय सुख आशंसना, करी स्थानक वीशनी सेवना ।। १ ॥ अति राग प्रशस्त प्रभावता, मन भावना एहवी भावता, सवि जीव करुं शासन रसी, इसी भाव दया मन उल्लसी ॥ २ ॥ लही परिणाम एह भलं, निपजावी जिनपद निर्मलु ॥ आयुबंध वचे एक भव करी, श्रद्धा संवेग ते थिर धरी ।। ३ ॥ त्यांयी चविय लहे नरभव उदार, भरते तेम ऐवतेज सार, महाविदेहे विजयें वर प्रधान, मध्य खंडे अवतरे जिन निधान ।। ४ ॥
॥अथ सुपनानी ॥ ढाल ब्रीजी॥ ॥ पुण्ये सुपनह देखे, मनमांहे हर्ष विशेषे, गजवर उज्ज्वल सुंदर, निर्मल वृषभ मनोहर ॥ १ ॥ निर्भय केशरी सिंह, लक्ष्मी अतिही अबीह ॥ अनुपम फूलनी माल, निर्मल शशी सुकुमार ॥ २ ॥ तेजेंतरणी अति दीपे, इंद्रध्वजा जग जीपे, पूरण कलश पडूर, पद्म सरोवर पूर ॥२॥ अग्यारमे रयणायर, देखे माताजी गुण सायर ॥ बारमे भुवन विमान, तेरमे अनुपम रत्न निधान ॥ ४॥ अग्निशिखा निघूम, देखे माताजी अनुपम ॥ हर्षी रायने भासे, राजा अरथ प्रकाशे
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स्रात्र पूजा.
॥ ५ ॥ जगपति जिनवर सुखकर, होशे पुत्र मनोहर || इंद्रादिक जसु नमशे, सकल मनोरथ फलशे ॥ ६ ॥ ॥ वस्तुच्छंद ॥
॥ पुण्यउदय पुण्यउदय उपना जिननाह, माता तव रयणी समे, देखी सुपन हरखंती जागीय ॥ सुंपन कही निज कंतने, सुपन अरथ सांभलो सोभागीय | त्रिभुवन तिलक महागुणी, होशे पुत्र निधान ॥ इंद्रादिक जसु पाय नमी, करशे सिद्धि विधान ॥ १ ॥
॥ ढाल ॥ चोथी ॥ चंद्रावलानी देशीमां ॥
॥ सोहमपति आसन कंपियो ए, देइ अवधि मन आणंदियो ए ॥ निज आतम निर्मल करण काज; भव जलतारण प्रगट्यो झहाज ॥ १ ॥ भवअडवी पारंग सत्यवाह, केवल नाणाइय गुण अगाह || शिव साधन गुण अंकूरो जेह, कारण उलट्यो आसाढि मेह ॥ २ ॥ हरखें विकसी तव रोमराय, वलयादिकमां निज तनु न माय ॥ सिंहासनथी उठ्यो सुरिंद, प्रणमंतो जिन आनंदकंद || ३ || सग अडपय साहामो आवि तत्थ, करि अंजलीय प्रणमीय मच्छ । मुखें भांखे ए क्षण आज सार, तिय लोय पहु दीठो उदार ॥ ४ ॥ रेरे निसुणो सुर लोय देव, विषयानल तापित तुम सवेव ॥ तसु शांति करण जलधर समान, मिथ्या विष चूरण गरुडवान ॥ ५ ॥ ते देव सकल तारण समत्थ, प्रगट्यो तसु प्रणमी हवो सनाथ || एम जंपी शक स्तव करेवि, तब देख देवी हरखें सुवि ॥ ६ ॥ गावे तत्र रंभा गीत गान, सुरलोक हवो मंगल निधान ॥ नरक्षेत्रे आरिज वंश ठाम, जिनराज
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स्नात्र पूजा.
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वधे सुर हर्ष धाम ॥ ७ ॥ पिता माता धेरें उत्सव अशेष, जिन शासन मंगल अति विशेष ॥ सुरपति देवादिक हर्ष संग, संयम अर्थिजनने उमंग ॥ ८ ॥ शुभवेला लगने तीर्थ नाथ, जनम्या इंद्रादिक हर्षं साथ ॥ सुख पाम्या त्रिभुवन सर्व जीव, वधाई बधाई थइ अतीव ॥ ९ ॥
|| ढाल || पांचमी ॥
॥ श्रीशांति जिननो कलश कहिसुं प्रेम सागर पूर ॥ ए देशी ॥
॥ श्रीतीर्थपतिनुं कलशमज्जन, गाइयें सुखकार ॥ नरवित्त मंडण दुह विहंडण, भविक मन आधार || तिहां राव राणा हर्ष उत्सव, थयो जग जयकार ।। दिशकुमरी अवधि विशेष जाणी, लह्यो हर्ष अपार ॥ १ ॥ नियअमर अमरी संग कुमरी, गावती गुणछंद ॥ जिन जननी पासें आवि पोहोती, गह गहती आनंद || हे माय ! तें जिनराज जायो, शुचि वधायो रम्म || अम जम्म निम्मल करण कारण, करीश सूईकम्म ।। २ ।। तिहां भूमि शोधन दीप दर्पण, वाय वींजण धार ॥ तिहां करीय कदली गेह जिनवर, जननि मज्जनकार || वरराखडी जिनपाणी बांधि, दीये एम आशीष ॥ जुग कोडा कोडि चिरंजीवो, धर्मदायक ईश ॥ ३ ॥
॥ ढाल || छठी ॥ एकवीशानी ॥
॥ जग नायकजी, त्रिभुवन जन हितकार ए ॥ ॥ परमातमजी, चिदानंद घनसार ए ॥ ए देशी ॥ || जिन रयणीजी, दशदिशि उज्ज्वलता धरे ॥ शुभलगनेजी, ज्योतिष चक्रते संचरे || जिन जनम्याजी, जेणें अवसर माता रे || तेणे अवसरजी, इंद्रासन पण थरहरे ॥
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स्नात्र पूजा.
॥ त्रुटक ॥
॥ थरहरे आसन इंद्र चिंते, कोण अवसर ए बन्यो | जिन जन्म उत्सव काल जाणी, अतिही आनंद उपन्यो || निज सिद्धि संपत्ति हेतु जिनवर, जाणी भक्ते ऊमह्यो || विकसित वदन प्रमोद वधते, देव नायक गहगह्यो ।। १ ।।
॥ ढाल ॥
॥ तव सुरपतिजी, वंटानाद कराव ए ॥ सुरलोकेंजी, घोषणा एह देवराव ए ॥ नरक्षेत्रें जी, जिनवर जन्म हुओ अछे । तसु भगतें जी, सुरपति मंदर गिरि गछे ॥
॥ ऋटक ॥
॥ गच्छेति मंदर शिखर उपर, भवन जीवन जिन तणो ॥ जिन जन्म उत्सव करण कारण आवजो सवि सुरगणो ॥ तुम शुद्ध समकित थाशे निर्मल, देवाधिदेव निहालतां ॥ आपणां पातक सर्व जाशे, नाथ चरण पखालतां ॥ २ ॥
॥ ढाल ॥
॥ एम सांभली जी, सुरवर कोडी बहु मली ॥ जिनवंदनजी, मंदरगिरि सामा चली || सोहमपतिजी, जिन जननी घर आविया || जिन माताजी, वंदी स्वामी वधाविया ॥ ॥ क ॥
॥ वधाविया जिन हर्ष चहले, धन्य हुं कृतपुण्प ए ॥ त्रैलोक्य नायक देव दीठो, मुज समो कोण अन्य ए ॥ हे जगत जननी ! पुत्र तुमचो, मेरु मज्जन वर करी ॥ उत्संग तुमचे वलिय थापा, आनमा पुण्ये गरी ॥ ३ ॥
१४
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स्नात्र पूजा.
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॥ ढाल ॥ ॥ सुर नायकजी, जिन निज कर कमलें ठव्या ॥ पंच रूपेंजी, अतिशय महिमायें स्तव्या ॥ नाटक विधिजी, तव बत्रीश आगल वहे ॥ सुर कोडीजी, जिन दर्शनने उम्महे ॥
॥ टक ॥ ॥ सुरकोडा कोडी नाचती वली, नाथ शुचि गुण गावती ॥ अप्सरा कोडी हाथ जोडी, हावभाव देखावती ॥ जयो जयो तुं जिनराज जगगुरु, एम दे आशीष ए ॥ अम्ह त्राण शरण आधार जीवन, एक तुं जगदीश ए ॥४॥
॥ ढाल ॥ ॥ सुरगिरिवर जी, पांडंक वनमें चिहुं दिशे ॥ गिरिशिल परजी, सिंहासन सासय वसे ॥ तिहां आणीजी, शक्रे जिन खोले ग्रह्या ॥ चौसठेजी, तिहां सुरपति आवी रह्या ॥
॥टक ॥ ॥ आविया सुरपति सर्व भक्ते, कलश श्रेणी बनाव ए॥ सिद्धार्थ पमुहा तीर्थ औषधि, सर्व वस्तु अणाव ए ।। अच्चुअपति तिहां हुकम कीनो, देव कोडा कोडिने ॥ जिन मज्जनारथ नीर लावो, सवे सुर कर जोडीने ॥५॥
॥ ढाल ॥ सातमी॥ ॥ शांतिने कारणे इंद्र कलशा भरे ।। ए देशी ॥
॥ आत्मसाधन रसी देवकोडी हसी, उल्लसीने धसी क्षीरसागरदिशि ॥ पउमदह आदि दह गंगपमुहा नई, तीर्थजल अमल लेवा भणी ते गई ॥ १॥ जातिअड कलश .109
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८६६
स्नात्र पूजा.
करि सहस अट्ठोतरा, छत्र चामर सिंहासन शुभतरा ।। उपगरण पुण्फ चंगेरी पमुहा सवे, आगमें भासिया तेम आणी Ba || २ || तीर्थजल भरिय करकलश करि देवता, गावता भावता धर्म उन्नतिरता ॥ तिरिय नर अमरने हर्ष उपजावता, धन्य अम्ह शक्ति शुचि भक्ति एम भावता ॥ ३ ॥ समकित बीज निज आत्म आरोपता, कलश पाणीमरों भक्तिजल सींचता । मेरु सिहरोवरें सर्व आव्या वही, शक उत्संग जिन देखी मन गह गही ॥ ४ ॥
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॥ वस्तुंच्छंद ॥
|| हो देवा हो देवा अणाइ कालो, अदिट्ठ पुद्दो तिलोयतारणो तिलोय बंधु मिच्छत्त मोहविर्द्धसणी अणाइ तिण्हा विणासणो, देवाहिदेवो दिट्ट बोहिय कामेहिं ॥ ५ ॥ ॥ ढाल तेहीज ॥
॥ एम पभणंत वण भवणं जोईसरा, देव वेमाणिया भत्ति धम्मायरा ॥ केवि कप्पट्टिया केवि मित्ताणु गा, केवि वर रमणि वयणेण अइ उत्थुगा ॥ ६ ॥
॥ वस्तुच्छंद ॥
॥ तत्थ अच्चुय तत्थ, अच्चुय इंद आदेस ॥ कर जोडि सवि देवगण, लेय कलस आदेस पामिय ॥ अद्भुतरूप सरूप जुअ, कवण एह उत्संगें सामिय ॥ इंद्र कहे जग तारणो, पारग अम परमेस ॥ नायक दायक धम्म निहि, करियें तसु अभिसेस ॥ ७ ॥
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स्नात्र पूजा.
॥ ढाल ॥ आठमी॥ ॥ तीर्थकमलदल उदक भरीने पुष्कर ॥ सागर आवे ॥ ए देशी॥
॥ पूरणकलश शुचि उदकनी धारा, जिनवर अंगें नामे ॥ आतम निर्मल भाव करता, वधते शुभ परिणामें ॥ अच्युतादिक सुरपति मज्जन, लोकपाल लोकांत ॥ सामानिक इंद्राणी पमुहा, एम अभिषेक करंत ॥१॥
॥गाथा ॥ ॥ तव ईसाण सुरिंदो, सकं पभणेई, करइ सुपसाओ ।। तुम अंके महन्नाहो, पणमित्तं अम्ह अप्पेह ॥२॥ ता सक्दो पभणेई, साहमी वच्छलंमि बहु लाहो ॥ आणा एवं तेणं, गिहि हवो उक्कयत्याभो ॥३॥ एम कही सर्व स्नात्रिया कलश ढाले, अने मुखथी नीचे प्रमाणे पाठ कहे ॥
॥ ढाल ॥ तेहीज ॥ ॥ सोहम सुरपति वृषभ रूप करी, न्हवण करे प्रभु अंग ॥ करिय विलेपण पुप्फमाल ठवि, वर आभरण अभंग ॥ तव सुखर बहु जय जयख करि, नाचे धरी आणंद ॥ मोक्ष मार्ग सारथपति पाम्यो, भांजणुं हवे भव फंद ॥ ४ ॥ कोडि बत्रीश सोवन उवारी, वाजंते वर नादें ॥ सुरपति संघ अमरश्री प्रभुने, जननीने सुप्रसादें ॥ आणी थापी एम पयंपे, अमें निस्तरिया आज ॥ पुत्र तुमारो धणी रे हमारो, तारण तरण झहाज ॥५॥ मात जतन करि राखजो एहने, तुम सुत अम आधार ॥ सुरपति भक्ति सतत नंदीश्वर, करे जिनभक्ति उदार ॥ निय निय कप्प गया सवि निजर, कहेतां प्रभुगुणसार ।। दीक्षा केवल ज्ञान कल्याणक, इच्छा चित्त
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नवपद पूजा.
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मझार ।। ६ ॥ खरतरगच्छ जिन आणारंगी, राजसागर उवझाय ।। ज्ञान धर्म दीपचंद सुपाठक, सुगुरुतणे सुपसाय ॥ देवचंद्र जिनभक्तं गायो, जन्म महोत्सव छंद ॥ बोध बीज अंकूरो उल्लस्यो, संघ सकल आनंद ।। ७ ।।
॥कलश ॥ राग वेलावल ॥ ॥ एम पूजा भक्तं करो, आतमहितकाज ॥ तजीय विभाव निज भावमें, रमता शिवराज ॥ एम० ॥ १ ॥ काल अनंतें जे हुआ, होशे जेह जिणंद ॥ संपय सीमंवर प्रभु, केवलनाण दिणंद ॥ एम० ॥२॥ जन्ममहोत्सव एणी परे, श्रावक रुचिवंत ॥ विरचे जिन प्रतिमातणो, अनुमोदन खंत ॥ एम० ॥३॥ देवचंद्र जिन पूजना, करतां भवपार ॥ जिनपडिमा जिनसारखी, कही सूत्र मझार ॥ एम० ॥ ४ ॥
॥अथ श्रीनवपदपूजा॥
अरिहंतपदपूजा ॥
॥ ढाल ॥ उलालानी देशी ॥ ॥ तीर्थपति अरिहा नमुं, धर्म धुरंधर धीरो जी ॥ देशना अमृत वरसता, निजवीरज वड वीरो जी ॥१॥ उलाला॥ वरअखय निर्मल ज्ञानभासन, सर्व भाव प्रकाशता । निजशुद्ध श्रद्धा आत्मभावें, चरणथिरता वासता ॥ जिननाम कर्म
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नवपद पूजा.
प्रभाव अतिशय, प्रातिहारज शोभता ॥ जगजंतु करुणावंत भगवंत भविजननें क्षोभता ॥ २ ॥
सिद्धपदपूजा ॥
॥ सकलकरममल क्षय करी, पूरण शुद्धस्वरूपोजी ॥ अव्याबाध प्रभुतामयी, आतम संपतिभूपो जी ॥ ३ ॥ उलालो । जेह भूप आतम सहज संपत्ति, शक्तिव्यक्तिपणे करी ।। स्वव्यक्षेत्र स्वकालभावें, गुण अनंता आदरी ।। सुस्वभावगुणपर्याय परिणति, सिद्धसाधन परभणी ॥ मुनिराज मानसहंससमवड, नमो सिद्ध महागुणी ॥ ४ ॥
आचार्यपदपूजा ॥ ॥ आचारज मुनिपति गणि, गुणछत्रीशी धामोजी ।। चिदानंदरस स्वादता, परभावे निःकामो जी ॥ ५ ॥ उलालो ॥ निःकाम निर्मल शुद्धचिद्वन, सायनिज निरधारथी । निजज्ञान दर्शन चरण वीरज, साधनाव्यापारथी । भविजीव बोधक तत्त्वशोधक, सयलगुणसंपत्ति धरा ॥ संघरसमाधि गतउपाधि, दुविध तपगुण आगरा ॥६॥
उपाध्यायपदपूजा॥ ॥ खंतिजुआ मुत्तिजुआ, अज्जत मुद्दव जुत्ताजी ॥ सञ्च सोयं अकिंचणा, तब संजम गुणरत्ताजी ॥ ७॥ उलालो ।। जे रम्या ब्रह्ममुगुत्ति गुत्ता, समिति रमिता श्रुतधरा ॥ स्याद्वादवादे तत्त्ववादक, आत्मपरमंजनकरा ॥ भवभीरु साधन धीर
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नवपद पूजा.
शासन, वहन धोरी मुनिवरा । सिद्धांत वायण दान समरथ, नमो पाठक पदधरा ॥ ८ ॥
मुनिपदपूजा ॥
|| सकल विषय विष वारीनें, निःकामी निःसंगीजी || भवदवताप शमावता, आतमसाधन रंगीजी ॥ ९ ॥ उलालो || जे रम्या शुद्ध स्वरूप रमणें, देह निर्मम निर्मदा || काउसग्ग मुद्रा धीर आसन, ध्यान अभ्यासी सदा || तप तेज दीपे कर्म झीपे, नैव छीपे परभणी ॥ मुनिराज करुणासिंधु त्रिभुवन, बंधु प्रणमुं हित भणी ।। १० ।
दर्शनपदपूजा ॥
॥ सम्यक्दर्शन गुण नमो, तव प्रतीत स्वरूपोजी ॥ जसु निरधार स्वभाव छे, चेतनगुण जे अरूपोजी ॥ ११ ॥ उलालो || जे अनुप श्रद्धा धर्म प्रगटे, सयल परईहा टले | निजशुद्धसत्ता प्रगट अनुभव, करणरुचिता ऊच्छले । बहुमान परिणति वस्तुतवें, अत्र तसु कारणपणे || निज साध्यदृछें सर्वकरणी, तवता संपत्ति गणे ।। १२ ।।
ज्ञानपूजा ॥
॥ भव्य नमो गुणज्ञाननें, स्वपरप्रकाशक भावेंजी ।। परजय धर्म अनंतता, भेदाभेद स्वभावें जी ॥ १३ ॥ उलालो ॥ जे मुख्यपरिणति सकलज्ञायक, बोध भावविलच्छना ॥ मति आदि पंच प्रकार निर्मल, सिद्ध साधन लच्छना ॥ स्याद्वादसंगी
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नवपद पूजा.
तत्त्वरंगी, प्रथमभेदाभेदता ॥ सविकल्पने अविकल्प वस्तु, सकल शंसय छेदता ॥ १४ ॥
चारित्रपूजा ॥ ॥ चारित्रगुण वली वली नमो, तत्त्वरमण जसु मूलोजी॥ पररमणीयपणुं टले, सकलसिद्ध अनुकूलोजी ।। १५ ।। प्रतिकूल आश्रव त्याग संयम, तत्त्वथिरता दममयी ॥ शुचि परम खंति मुत्ति दश पद, पंच संवर उपचई ।। सामायिकादिक भेद धर्म, यथाख्यातें पूर्णता ॥ अकषाय अकलुष अमल उज्ज्वल, कामकश्मल चूर्णता ॥१६॥
तपपूजा ॥
॥ इच्छारोधन तप नमो, बाह्य अभ्यंतर भेदें जी । आतम सत्ता एकता, परपरिणति उच्छेदे जी ॥१७॥ उलालो। उच्छेद मर्म अनादेसंतति, जेह सिद्धपणुं वरे ॥ योगसंगें आहार टाली, भाव अक्रियता करे ॥ अंतर मुहूरत तत्त्व साधे, सर्व संवरता करी ॥ निज आत्मसत्ता प्रगटभावें, करो तप गुण आदरी ॥१८॥
॥ ढाल ॥ ॥ एम नवपद गुणमंडलं, चउ निक्खेप प्रमाणेजी ॥ सात नये जे आदरे, सम्यग्ज्ञानने जाणे जी ॥ १९ ॥ उलालो ॥ निर्धारसेंती गुणी गुणनो, करे जे बहुमान ए ॥ तसु करण ईहा तत्त्व रमणे, थाय निर्मल ध्यान ए ॥ एम शुद्धसत्ता भल्यो
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८७२
नवपद पूजा.
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चेतन, सकल सिफि अनुसरे ।। अक्षय अनंत महंत चिद्धन, परम आनंदता वरे ॥ २० ॥
॥ कलश ॥ ॥ इय सयल सुखकर गुणपुरंदर, सिद्धचक्र पदावली ॥ सवि लद्धिविझासिद्धिमंदर, भविक पूजो मन रुली ।। उवझायवर श्रीराजसागर, ज्ञानधर्म सुराजता ॥ गुरुदीपचंद सुचरण सेवक, देवचंद सुशोभता ।। २१ ॥
॥अथ काव्यम् ॥ द्रुतविलंबितवृत्तम् ॥ ॥ विमलकेवलभासनभास्कर, जगति जंतुमहोदय कारणम् ॥ जिनवरं बहुमानजलौवनम् , शुचिमनाः स्नपयामि विशुद्धये ॥१॥ इति काव्यम् ॥ आ काव्य प्रत्येक पूजादीठ कहेQ ॥
॥ स्नान करतां जगद्गुरु शरीरे, सकलदेवें विमल कलशनीरें ॥ आपणा कर्ममल दूर कीधा, तेणें ते विबुध ग्रंथे प्रसिद्धा ॥ २ ॥ हर्ष धरी अप्सरावृंद आवे, स्नात्र करी एम आशीष पावे ॥ जिहां लगे सुरगिरि जंबु दीवो, अम तणा नाथ देवाधिदेवो ॥ ३ ॥
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एकवीशप्रकारी पूजा.
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॥अथ श्रावकगुणोपरि एकवीशप्रकारी
प्रारंभः ॥
॥प्रथमस्नात्रपूजाप्रारंभः॥
॥दोहा॥ ॥ स्वस्तिश्री सुख पूरवा, कल्पवेली अनुहार ॥ पूजा भक्ति जिननी करो, एकवीश भेय विस्तार ॥१॥ ( पाठांतरें ) विधिपूर्वक विस्तार ॥१॥ स्नात्र विलेपन भूषणं, पुष्प वास धूव दीव ।। फल अक्षत तेम पत्रनी, पूग नैवेद्य अतीव ॥२॥ उदक वस्त्र चामर तथा, छत्र वाद्य गीत जाण ॥ नृत्य स्तुति जिनकोशनी, वृद्धि ए एकविश ठाण ॥ ३ ॥ शुचितनु तैलजलादिके, पहेरी चीवर सार ॥ पीठत्रिकोपरि जिनठवी, जिनआणा शिर धार ॥ ४॥ गंगा मागध क्षीरनिधि, औषधिमिश्रित सार ।। कुसुमें वासित शुचिजलें, करो जिनस्नात्र उदार ॥ ५॥
शुभ मणिकनकादि तरती महीनानी
१ स्नात्रपूजा ॥ ॥ ढाल ॥ सूरती महीनानी देशी॥ । मणिकनकादिक अड विध, करी भरी कलश सफार ।। शुभरुचि जे जिनवर न्हवे, तस नहिं दुरित प्रचार ॥ मेरुशिखर जेम सुखर, जिनवर न्हवण अमान ।। करता वरता निजगुण, समकित वृद्धि निदान ॥ ६ ॥ काव्यम् ॥ हर्ष भरी अप्सरावृंद आवे, स्नात्र करी एम आशीष भावे ।। जिहां लगे सुर
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एकवीशप्रकारी पूजा. गिरि जंबुदीवो, अम तणा नाथ जीको तुं जीवो ॥ ७ ॥ इति प्रथम स्नात्रपूजा ॥ १ ॥
२ विलेपनपूजा ॥
॥दोहा॥ । बावना चंदन कुंकुमें, मृगमदने घन सार ।। जिनतनु लेपे तस टले, मोह संताप विकार ॥८॥ ढाल । सकल संताप निवारण, ठारण सवि भवि चित्त ।। परम अनीहा अरिहा, तनु चरचो भवि नित्य ।। निज रूपें उपयोगी, धारी जिनगुण गेह ॥ भाव वंदन सुहभावथी, टाले दुरित अछेह ॥९॥ काव्यम् ॥ जिनतनु चरचतां सकल नाकी, कते कुग्रह उष्मता आज थाकी ।। सकल अनिमेषता आज माकी, भव्यता अम तणी आज पाकी ॥१०॥ अथ द्वितीयविलेपन पूजा ॥२॥
३ भूषणपूजा ॥
॥ दोहा ।। ॥ तिलक मुकुट कुंडल झुगल, अंगद कंठी हार ॥ भूषणभूषित जिनतनु, करी पामो भवपार ॥ ११ ॥ ढाल | मणि मुगताफल हीरला लालडी पाच पीरोज ।। नीलवी विद्रुम पुष्करें, लसणीया लहें बहु मोज ॥ कनकजडित वर भूषणे, भूषित जिन वर देह ॥ साधक धर्म जगायवा, अतिशय संपद एह ॥ १२ ॥ काव्यम् ॥ शोभता भूषण देखि बीजे, जडमयी आतमा स्वगुण छीजे ॥ अविकारी जिनतणे देखी एह, भवि लहे तत्त्व आणंद रेह ॥ १३ ॥ इति तृतीय भूषणपूजा.।। ३ ।।
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एकवीशप्रकारी पूजा.
४ कुसुमपूजा ॥
॥दोहा॥ ॥ शतपत्री वर मोवरा, चंपक जाय गुलाब ।। केतकी दम णय बोलसिरि, पूजो जिन भरी छाब ॥ १४ ॥ ढाल ॥ अमल अखंडित विकसित, शुभ सुमनी घणि जाति ॥ लाखीणो टोडर ठवो, आंगी रची बहु भाती ॥ गुणकुसुमें निज आतमा, मंडित करवा भव्य ।। गुणरागी जत्यागी, पुष्प चढावो नव्य ॥ १५ ॥ काव्यम् ॥ जगवणी पूजतां विविधफूलें, सुरवरा ते गणे क्षण अमूले ॥ खांति धरी मानवा जिनप पूजे, तस तणां पाप संताप चूजे ॥१६॥ इति चतुर्थ कुसुमपूजा ॥ ४ ॥
५ वासपूजा ॥
॥दोहा॥ । बावन चंदन कुंकुम, सुरभिजात मंदार ॥ घनसारेयुत वासशु, पूजो जिनप उदार ॥ १७ ।। ढाल ॥ सरस सुगंधित वासे, वासे जिनपति जेह ॥ तस मिथ्यात विनासे, वासे समकित देह ॥ निज गुण वासित आतमा, गततम होये निःशंक ॥ तत्त्वालंबी चेतना, टाले कर्म कलंक ।। १८ ॥ काव्यम् ॥ सुरभिवर वाससु भक्तिरागें, विबुधवर वासतां एम मागे ॥ तुज गुणज्ञानमां लीन अप्पा, थिर रहो दूर छंडी विगप्पा ॥ १९ ॥ इति पंजम वासपूजा ॥ ५ ॥
६ धूपपूजा ॥
॥दोहा॥ ॥ कृष्णागरु मृगमद तगर, अंबर तुरक लोबान । मेलि
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एकवीशप्रकारी पूजा.
सुगंध घनसार घण, करो जिनने धूप धाण ॥ २० ॥ ढाल ॥ धूप घटी जेम महमहे, तेम दहे पातकवृंद ॥ अरति अनादिनी जावे, पावे मन आणंद ॥ जे जिन पूजे धूपें, भवकूपें फरी तेह ॥ नावे पावे वृष घर, आपे सुख अच्छेह ॥ २१ ॥ काव्यम् ॥ जिन वर वासतां धूप पुरे, मित्थत दुर्गधता जाय दूरे ॥ धूप जिम सहज ऊर्ध्वग स्वभावे, कारका उच्चगति भाव पावे ॥ ३२ ॥ इति षष्ठधूपपूजा ॥ ६ ॥
७ दीपपूजा ॥
॥दोहा ॥ ॥ मणिमय रजत ताम्रप्रमुख, पात्र भरी वृत पूर ॥ वृत्ति सूत्र कौसुंभनी, करो प्रदीप सनूर ॥ २३ ॥ ढाल ।। मंगलदीप वधावो, गावो जिनगुण गीत ॥ दीप तणी जेम
आलिका, मालिका मंगल नीत ॥ दीपतणी शुभ ज्योति, द्योतित जिनमुख चंद ॥ निरखी हरखी भविजना, जेम लहो पूर्णानंद ॥ २४ ॥ काव्यं ॥ जिनगृहे दीपमाला प्रकाशे, तेहथी तिमिर अज्ञान नासे । निज घटे ज्ञान ज्योति विकासे, जेहथी जगतणा भाव भासे ॥२५॥ इति सप्तमदीपपूजा ॥७॥
८फलपूजा ॥
॥ दोहा॥ ॥ पक्क बीजोरुं जिनवरें, टवतां शिवफल देय ॥ सरस मधुर शुभ फल घणां, इह जिन भेट करेय ॥ २६ ॥ ढाल ॥ श्रीफल कदली सुरंगा, नारिंग आंबां सार ॥ जंबीर अंजिर
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एकवीशप्रकारी पूजा.
दाडिम, करणा षटबीज सफार ॥ मधुर सुस्वादिक उत्तम, लोके अनिंदित जेह ।। वर्ण गंधादिकें रमणिक, बहु फल ढोके तेह ॥ २७ ॥ काव्यम् ॥ फल भरें पूजतां जगत स्वामी, मनुज गति वेलि होय सफल पामी ॥ सकल मुनिध्येय गतभेद रंगें, व्यावतां फल समाति प्रसंगें ॥ २८ ॥ इत्यष्टमफलपूजा ॥८॥
९ अक्षतपूजा ॥
॥हाल॥ ॥ अक्षत अक्षत पूरशं, जे जिनआगे सार ॥ स्वस्तिक रचतां विस्तरे, निज गुण भर विस्तार ॥ २९ ॥ ढाल ॥ उज्ज्वल अमल अखंडित, मंडित अक्षत चंग ॥ पुंजत्रयी करो स्वस्तिक, आस्तिक भावे रंग ।। निज सत्ताने सन्मुख, उन्मुख भावे जेह ॥ ज्ञानादिकगुण ठावे, भावे स्वस्तिक एह ॥३०॥ काव्यम् ॥ स्वस्तिक पूरतां जिनप आगे, स्वस्ति श्री भद्रकल्याण जागे ॥ जन्मजरामरणादि अशुभ भांगे, नियति शिवशर्म रहे तास आगें ॥ ३१ ॥ इति नवमाक्षतपूजा ॥९॥
१० पत्रपूजा ॥
॥दोहा॥ ॥ अमल अखंडित अग्रयुत, शुभ संख्यायें पत्त ।। जिणकरपत्ते पत्त भवि, ठवतां बहुगुण पत्त ॥ ३२ ॥ ढाल ॥ वि श्वगुणाकार नागर, आदर धरी ग्रहे जास ॥ भोजन उत्तर देवे, लेवे तस मुख वास ॥ तेह सुपत्तें पूजतां, पूजक वाधे नूर ॥ अहमरुवादिकपत्ते, विभत्ति भत्तें पूर ॥३३॥ काव्यम् ॥
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एकवीशप्रकारी पूजा.
पूजना पत्र शुचिभाव जागे, अग्र उपयुक्तता सवि दोष तागे ॥ भावतंबोल श्रीजेह माचे, शिवववू तेहथी सद्य राचे ॥३४॥ इति दशमपत्रपूजा ॥ १० ॥
११ पूगीफलपूजा ॥
॥ दोहा ॥ ॥ उज्ज्वल शुद्ध सुस्वाद्यवर, नव्य भव्य जे जाति ॥ जनप्यारी सोपारी वर, पूजो जिन भलि भाति ॥ ३५ ॥ ढाल ॥ मंगल कारण लावियें, भावियें घर घर हर्ष ॥ स्वस्तिक मंडन खंडन, दुरित तणा उत्कर्ष ॥ क्रमुक फले जिन अरचो, विरचो धरी गुणराग ॥ मंगलमाला थावे, पावे भवजल. ताग ॥ ३६ ॥ काव्यं ॥ शुद्धस्याद्वाद मृदुभावसंगें, शुक्लता शुद्धवर भाव रंगें ॥ भावथी पूजतो एम पूगें, नियति आनंद घर तेह पूगे ॥ ३७ ।। इत्येकादशपूगीफलपूजा ।।११।।
१२ नैवेद्यपूजा ॥
॥दोहा॥ || सरस शुचि पकवान भर, शालि दाल वृतपूर ॥ करे नैवेद्य जिन आगले, क्षुधा दोष तस दूर ॥ ३८ ॥ ढाल ॥ लपनश्री वर घेबर, मृदुतर मोतीचूर ॥ सिंह केसर सेवइया, दलिया मोदक पूर ॥ साकर द्राख शीगोडां, भक्त व्यंजन वृत सद्य ॥ एम नैवेद्य जिनने करे, तस मले सुख अनवद्य ॥ ३९ ॥ काव्यम् ॥ ढोकता भोज्य परभाव त्यागे, भविजना निजगुण भोग मागे || अम भणी अम तणुं स्वरूप
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एकवीशप्रकारी पूजा. भोज्य, आपजो तातजी जगत पूज्य ॥ ४० ॥ इति द्वादशनैवेद्यपूजा ॥ १२ ॥
१३ जलपूजा ॥
॥ दोहा ॥ ॥ शुभरुचि शुचिनिर्वाण, पूर्ण कलश भरि तोय ॥ जिनपति आगल ढोकतां, गततृष्णा भवि होय ॥४१॥ ढाल ॥ जगजीवन गुणपावन, निर्मल शीतल जेह ॥ उदक रयणे जिन पूजतां, न रहे पातक रेह ॥ अतिभीष्में भवग्रीष्में, नवि पीडाये तेह ।। सुखभर शिवघर वासवा, आदिमंगल एह ॥ ४२ ॥ काव्यम् ॥ निम्मले समजले जेह प्राणी, भरी पात्र श्रद्धान ते सुगुणखाणी ।। एकता जिनगुणे देवदेवा, भजे भावथी जलतगी एह सेवा ॥ ४३ ॥ इति त्रयोदश जलपूजा ॥१३॥
१४ वस्त्रपूजा ॥
॥दोहा॥ ॥ चीनांशुक मुखमल अमल, जरबाफी शुद्ध पट्ट ॥ सरस सुकोमल मूल घणां, वस्त्रपूज गहगट्ट ॥ ४ ॥ ढाल ॥ वस्त्रजोडी मन कोडें, थापो जिनद्रगमाग ॥ गतशोचे उल्लोचे, अह जिनमंदिर राग ॥ शोभावो ध्वज ठावो, चावो करी बहु मान ॥ वस्त्रपूजा हरे भविकनां, दुःख शीतादि अमान ॥ ४५ ॥ काव्यम् ॥ भावथी वस्त्रयुग जे परिन्ना, ते धरे जिनतणी आण लीना ॥ शिशिर जड आवें मोहग्रीष्में,
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एकवीशप्रकारी पूजा.
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नवि लहे दुःख संसारभीष्में ॥ ४६॥ इति चतुर्दश वस्त्रपूजा ॥ १४॥
१५ चामरपूजा ॥
॥दोहा॥ ॥ अति उज्ज्वल अंगुल तणं, एकशत आठ प्रमाण ॥ चामररत्ने पूजतां, नासे दुरितविहाण ॥ ४७ ॥ ढाल | कनकरयणनें दंडे, मंडित चामरजोडि ।। हरखतां जिनमुख निरखतां, वींजे होडा होडि ॥ विकसित कज जेम जिनमुख, सन्मुख आवी हंस ॥ सेवे एम उपमति करे, भवि जन धरी आशंक ॥ ४८ ॥ काव्यम् ।। ज्ञान मय किरिय उज्ज्वल स्वभावें, नति उन्नति गौण मुख्यादि भावें । मानगुणसंख जिनराज आणे, भावथी युद्ध चामर वखाणे ।। ४९ ॥ इति पंचदशचामरपूजा ॥ १५ ॥
१६ छत्रत्रयपूजा ॥
॥दोहा॥ ॥ उज्ज्वल शारद चंद जिम, छत्रत्रय बहु मूल ॥ ठाविजें जिन उपरें, तस दुगसिरि अनुकूल ।। ५० ।। ढाल | छत्रत्रय जेम फरके, थरके पातकवृंद ॥ मोहादिक अरि बाठा, नाठा करे आनंद ॥ जे नित्य पूजे छत्रे, शुभगो लहे जम्म ॥ ततक्षणे छत्र धरे हरि, सुरगिर उत्सव कम्म ॥ ५१ ॥ काव्यम् ।। हृत्कजें जेह जिनराज घ्यावे, लीनता अवंचक योग छावे, भावछत्र त्रयी गुणसमाजे, सादि निरअंत शिवराजराजे ।। ५१ ।। इति षोडशपूजा ।। १६ ।।
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एकवीशप्रकारी पूजा.
१७ वाजित्रपूजा ॥
॥दोहा॥ ॥ भंभा भेरी मृदंगवर, तंत्री ताल कटताल ॥ जल्लरी दुंदुही शंख इति, वाजिन पूज विशाल ॥ ५३ ॥ ढाल ।। जेम जेम वाजिक वाजे, गाजे अतिघन घोर ॥ तेम तेम जिनगुणें राचे, माचे ज्युं घनमोर ॥ निसुणि भूपति डंका, वंका तस्कर दूर ॥ जाये तेम वाजिवथी, गारथी दोष ते भूर ॥ ५४ ॥ काव्यम् ॥ श्रीजिनआण वरमे गंधारी, नियत उपयोगी वचन ते वाद्य भारी ॥ वीर्योल्लास लखि मोह वासे, भावथी वाद्यपूजा प्रकाशे ॥ ५५ ॥ इति सप्तदशवाजिकपूजा ।
१८ गीतपूजा ॥
॥दोहा॥ ।। भैरव विभास आशावरी, टोडी नट्ट कल्याण ॥ धन्यासिरि पमुहें स्तवे, पूजा गीत प्रमाण ।। ५६ ।। ढाल ।।. गुणरागें शुद्ध रागें जे जिन गान ॥ जागे अनुभववासना, मागे केवलमान ॥ तान मान स्वर ग्रामनी, मूर्च्छनाभेदें भेद ॥ लय लागे रुचि जागे, त्यागे ममता खेद ॥ ५७ ।। काव्यम् ।। शुद्धनिद जिनरूप धारी, अहव वाच्छल्यता गुणसंभारी ॥ दवगुण पज्जवा शुद्ध भाखे, भावथी गीतरस तेह चाखे ॥ ॥ ५८ ॥ इति अष्टादशगीतपूजा ॥ १८ ॥
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८८२..
एकवीशप्रकारी पूजा.
१९ नृत्यपूजा ॥
॥दोहा॥ ॥ मूकी शंक संसारनी, जिनपति आगे जत्ति ॥ करी नृत्य सूर्याभ परें, तस नहीं भवभय नृत्य ॥ ५९ ॥ ढाल ।। भूचर खेचर अमरवर, किन्नरी नरी शुभचित्त ॥ नाचे माचे जिनगुणे, सांचे सुकृतवित्त ॥ योग अवचक एहथी, तेहथी जिनपद हेतु ॥ चउगइ गमणनिवारण, तारण भवजलसेतु ॥ ६०॥ काव्यम् ॥ जेह निजयोगगति सहजरंगें, फोरवे अमृतानुष्ठान संगें ।। अतुलगुणतान न चूके असंगें, भावनत्यपूजना एह ढंगें ॥ ६१ ॥ इति एकोनविंशतिनृत्यपूजा ॥
२० स्तुतिपूजा ॥
॥दोहा॥ ॥ व्याकरण काव्य अलंकृति, तर्क छंद अपभ्रंश ।। दोष न दो पं स्तुति करे, स्तुतिपूजा गुणसत्थ ॥ ६२ ॥ ॥ ढाल ॥ स्वरपदवर्णविराजति, भाजति उक्ति अनूप ॥ अतिशय धारी उपगारी, अह तस शुद्ध स्वरूप ॥ संपद निक एम स्तवतो, ठवतो जिनगुण चित्त ॥ सुरनर किन्नर थवे तस, एणीहश कवें नित्त ।। ६३ ॥ काव्यम् ॥ जेह षटद्रव्य जिन आण भाखे, शुद्धस्याद्वादनी टेक राखे ॥ अवर एकांतता दूर नाखे, भावस्तुति पूजना एह आखे ॥ ६४ ।। इति विंशतिस्तुति पूजा ॥ २० ॥
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एकवीशप्रकारी पूजा.
'८८३
२१ कोशपूजा ॥
॥दोहा॥ ॥ निज सुकृतउदय लघु, न्यायोपार्जितवित्त ।। वृद्धि जिनपतिकोशनी, करे पूजा जहत्ति ॥ ६५ ॥ ढाल ।। रूपैया सोनया, अभिरामी आतिचंग ॥ हूण पूतलिया गब्बर, छपन्न भेदप्रसंग ॥ पुण्य पामीलच्छी, खत्थीमतिजिनकोश ॥ वृद्धि करो अप्पा भरो, निजगुण भावसंतोष ॥ ६६ ॥ काव्यम् ॥ प्रतिक्षणे जेह जिनराज आणे, निजपरभाव विनाण नाणे ।। जेहयी आत्मगुणठाण वाधे, भावथी कोशनी वृद्धि साधे ॥ ६७ ॥ इति एकविंशतिकोशपूजा ॥ २१ ॥
॥दोहा॥ । एम एकवीश विधिपूजना, विरचे जे थिरचित्त ॥ मानव भव सफलो करे, वाधे समकितवित्त ॥ ६८ ॥ ढाल || अगणित गुणगण आगर, नागरवंदितपाय ॥ श्रुतधारी उपगारी ज्ञानसागर उवज्झाय ।। तासचरणकज सेवक, मधुकरपरें लयलीन ॥ श्रीजिनपूजा गाई, जिनवाणी रसपीन ॥ ६९ ॥ काव्यम् ।। संवत गुण युग अचल इंदु, हर्षभर गाइयो श्री जिनेंदु ॥ तास फल सुकृतथी सकल प्राणी, लहो ज्ञानउद्योत घन शिवनिशानी ॥ ७० ॥
॥दोहा॥ ॥ इगवीश श्रावकगुणवनें, पूजा पुष्कर मेह ॥ सुर नर सुख फूले फले, शिवसुख लहे अछेह ॥ ७१ ॥
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૧૯૪
अष्टप्रकारी पूजा..
॥ अथ पंडित श्रीदेवचंद्रजीकृत अष्टप्रकारी पूजा लिख्यते ॥
॥ प्रथम जलपूजा ॥ ॥ दोहा ॥
|| गंगामागध क्षीरनिधि, औषधमंथितसार ॥ कुसुम वासित शुचिजलें || करो जिन स्नात्र उदार ॥ १ ॥ ढाल ॥ 'मणिकनकादिक अडविध करी, भरी कलश सफार || शुभ रुचि जे जिनवर नमे, तसु नही दुरित प्रचार || मेरुशिखर जिम सुरवर जिनवर न्हवण अमान, करता वरता निज गुण, समकित वृद्धि निधान ॥ २ ॥ छंद ॥ हर्षभरी अप्सरावृंद आवे, स्नात्र करी एम आशीष भावे ॥ जिहांलगे सुरगिरि जंबुदीवो, अमतणा नाथ जिवो तुं जिवो ॥ ३ ॥
|| विमलकेवलभासनभास्करं, जगति जंतुमहोदयकारणम् || जिनवरं बहुमानजलौघतः, शुचिमनाः स्त्रपयामि विशुद्धये ॥ १ ॥ ॐ ही परम परमात्मने अनंतानंतज्ञानशक्तये जन्मजरामृत्युनिवारणाय श्रीमज्जिनेंद्राय जलं यजामहे स्वाहा ।। १ ।। इति जलपूजा ||
॥ अथ द्वितीय चंदन पूजा प्रारंभः ॥
॥ दोहा ॥ बावना चंदन कुंकुमा, मृगमद ने घनसार ॥ जिनतनु लेपे तसु टले, मोह संताप विकार ॥ १ ॥ ढाल ||
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अष्टप्रकारी पूजा.
सकलसंताप निवारण, ठारण सहु भविचित्त ॥ परम अनीहा अरिहा, तनु चरचो भविनित्त । निजरूपें उपयोगी, धारी जिनगुण गेह ॥ भावचंदन सुह भावथी, टाले दुरित अछेह ॥२॥ चाल ॥ जिन तनु चरचतां सकल नाकी, कहे कुग्रह उष्णता आज थाकी ॥ सकल अनिमेषता आज म्हांकी, भव्यता अह्म तणी आज पाकी ॥३॥
॥ सकलमोहतमिस्रविनाशनं, परमशीतलभावयुतंजिनम् ॥ विनयकुंकुमदर्शनचंदनैः, सहजतत्त्वविकाश कृतेऽचये ॥२॥ ॐ ह्री परमपरमात्मने अनंतानंतज्ञानशक्तये जन्मजरामृत्युनिवारणाय श्रीमजिनेंद्राय चंदनं यजामहे स्वाहा ॥२॥ इति चंदनपूजा ॥
॥ अथ तृतीय पुष्पपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ शतपत्री वरमोगरा, चंपक जाइ गुलाब ॥ केतकि दमणो वोलसिरी, पूजो जिन भरिछाब ॥ १ ॥ ढाल ॥ अमल अखंडित विकसित, शुभसुमनी घणी जाति ॥ लाखीणो टोडर टवो, अंगी रची बहु भांति ॥ गुणकुसुमें निज आतमा, मंडित करवा भव्य ॥ गुणरागी जडत्यागी, पुष्प चढावो नव्य ॥२॥ चाल ॥ जगधणी पूजा विविधफूलें, सुरवरा ते गणे क्षण अमूलें ॥ खांति धरि मानवा जिनप पूजे, तसु तणां पाप संताप ध्रुजे ॥३॥
॥विकचनिर्मलशुद्धमनोरमै, विशदचेतनभावसमुद्भवैः॥ सुपरिणामप्रसूनघनैनवैः परमतत्त्वमयं हियजाम्यहम् ॥३॥ ॐ ह्री परमपरमात्मने अनंतानंतज्ञानशक्तये जन्मजरामृत्युनि
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૮૬
अष्टमकारी पूजा.
वारणाय श्रीमज्जिनेंद्राय पुष्पं यजामहे स्वाहा || ३ || इति
पुष्पपूजा ||
॥ अथ चतुर्थ धूपपूजा प्रारंभः ॥
॥ दोहा ॥ कृष्णागरमृगमद तगर, अंबर तुरुक लोबान ॥ मेलि सुगंध घनसार घण, करो जिनने 'धुपधाण ॥ १ ॥ || ढाल || धूपवटी जिम महमहे, तिम दहे पातकवृन्द || अरति अनादिनी जावे, पावे मन आणंद || जे जिन पूजे चूपें भव कूपें फिरि तेह | नावे पावे ध्रुवघर आवे सुरक अछेह || २ || चाल || जिन घर वासतां धूपपरें, मिच्छत्तदुर्गंधता जाइ दूरे ॥ धूप जिम सहज ऊर्द्धग स्वभावे, कारका उच्चगति मात्र पावे || ३ ||
॥ सकलकर्ममहेंधनदाहनं, विमलसंवरभावसुधूपनम् ॥ • अशुभपुद्गल संगविवर्जितं, जिनपतेः पुरतोऽस्तु सुहर्षतः ॥ ४ ॥ ॐ ह्री परमपरमात्मने अनंतानंतज्ञानशक्तये जन्मजरामृत्युनिवारणाय श्रीमज्जिनेंद्राय धूपं यजामहे स्वाहा ॥ ५ ॥ इति धूपपूजा ॥
॥ अथ पंचम दोपपूजा प्रारभ्यते ॥
॥ दोहा ॥ मणिमय रजत ताम्रप्रमुख, पात्र करी वृतपूर ॥ वर्त्ती सूत्र कौसुंभनी, करो प्रदीप सनूर ॥ १ ॥ ॥ ढाल ॥ मंगलदीप वधावो गावो, जिन गुणगीत || दीपतणी जिम आलिका, मालिका मंगलनीत ॥ दीपतणी शुभ ज्योति द्योति, जिनमुखचंद || निरखीहरखो भविजना, जिम लहो पूर्णानंद ॥ २ ॥ चाल ॥ जिनगृहे दीपमाला प्रकासे, तेहथी तिमिर
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अष्टप्रकारी पूजा..
अज्ञान नासे ॥ निजघटे ज्ञानज्योति विकासे, तेहथी जगतना ; भाव भासे ॥३॥
॥ भविकनिर्मलबोधविकाशकं, जिनगृहे शुभदीपक दीपनम्॥ सुगुणरागविशुद्धिसमन्वितं, दक्तु भावविकाशकृते जनाः ॥५॥ ॐ ही परमपरमात्मने अनंतानंतज्ञानशक्तये जन्मजरामृत्युनिवारणाय श्रीमज्जिनेंद्राय दीपं यजामहे स्वाहा ॥५॥ इति दीपपूजा ॥
॥ अथ षष्ठाक्षत पूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ।। अक्षत अक्षत पूरशु, जे जिन आगे सार ॥ स्वस्तिक रचतां विस्तरे, निजगुण भर विस्तार ॥१॥ ढाल॥ उज्जल अमल अखंडित, मंडित अक्षतचंग ॥ पुंजत्रय करो स्वस्तिक, आस्तिक भावे रंग ॥ निज सत्ताने सन्मुखं, उन्मुख भावे जेह ।। ज्ञानादिक गुण ठावे, भावे स्वस्तिक एह ॥२॥ चाल ॥ स्वस्तिक पर जिनप आगे, स्वस्ति श्रीभद्र कल्याण जागे । जन्मजरामरणादि अशुभ भागे, नियत शिवशर्म रहे तासु आगें ।। ३ ।।
॥ सकलमंगलकेलिनिकेतनं, परममंगलभावमयं जिनम् ॥ श्रयत भव्यजना इति दर्शयत्, दधतु नाथ पुरोऽक्षतस्वस्तिकम् ।। ६॥ ॐ ही परमपरमात्मने अनंतानंतज्ञानशक्तये जन्मजरामृत्युनिवारणाय श्रीमजिनेंद्राय अक्षतान् यजामहे स्वाहा ॥६॥ इति अक्षतपूजा ॥
॥ अथ ससम नैवेद्यपूजा प्रारंभः॥ ।। दोहा ॥ सरस शुचि पकवान भर, शालदाल वृतपूर ॥ .
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अष्टप्रकारी पूजा.
धरे नैवेद्य जिन आगले, क्षुधादोष तसु दूर ॥ १ ॥ ढाल || लपनश्री वरचेवर, मृदुतर मोतीचूर ॥ सिंहकेसरिया से वैया, दलिया मोदकपूर ॥ साकर वाख सिंगोडा, भक्तव्यंजन वृत सद्य ॥ करो नैवेद्य जिन आगले, जिम मिले सुख अनवद्य ॥२॥ चाले ॥ ढोवतां भोज्यवर भाव त्यागे, भविजना निज गुण भोज्य मागे ॥ अम्ह भणी अम्हतणो सरूप भोज्य, आपजो तातजी जगतपूज्य ॥ ३ ॥
॥ सकलपुद्गलसंगविवर्जनं, सहजचेतनभावविलासकम् ॥ सरसभोजननव्यनिवेदनात्, परमनिवृत्तिभावमहं स्पृहे ॥ ७ ॥ ॐ ही परमपरमात्मने अनंतानंतञानशक्तये जन्मजरामृत्युनिवारणाय श्रीमज्जिनेंद्राय नैवेद्यं यजामहे ॥ ७ ॥ इति नैवेद्यपूजा ॥
॥ अथाष्टम फलपूजा प्रारंभः॥
॥ दोहा ॥ पक्व बिजोएं जिन करे, ठवतां शिवपद देइ ।। सरस मधुर शुभ फल घणां, इह जिन भेट करेइ ।। १ ।। ढाल ॥ श्रीफल कदली सुरंगा, नारंगी आंचा सार ॥ जंबीर अंजीर दाडिम, करणा षटबीज सफार ॥ मधुर सुस्वादिक उत्तम, लोके आनंदित जेह । वरण गंधादिके रमणीक, बहुफल ढोवे। तेह ॥ २ ॥ चाल । फलभरे पूजनां जगतस्वामी, मनुजगति वेलि होय सफल पामी ॥ सकल मुनि ध्येयगत भेद रंगे, ध्यावतां फलसमापति प्रसंगे ॥ ३ ।।
॥ कटककर्मविपाकविनाशनं, सरसपक्वफलव्रजढौकनम् ॥ विहितमोक्षफलस्य प्रभोः पुरः, कुरुत सिद्धिफलाय महाजनाः ॐ ह्री परमपरमात्मने अनंतानंतज्ञानशक्तये जन्मजरामृत्युनिवा
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अष्टप्रकारी पूजा.
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रणाय श्रीमज्जिनेंद्राय फलं यजामहे स्वाहा ॥ ८ ॥ इति
फलपूजा ॥
॥ दोहा ॥ इम अडविध जिनपूजना, विरचे जे थिरचित्त ॥ मानवभव सफल करे, वावे समकित वित्त ॥ १ ॥ ढाल || अगणित गुणमणि आगर, नागर वंदित पाय || श्रुतवारी उपगारी, ज्ञानसागर उवझाय ॥ तासु चरणकज सेवक मधुकर परें लयलीन || श्री जिनपूजा गाइ, जिनवाणी रसपीन ||२|| चाल ॥ संवत् गुण युग अचल इंदु, हर्षभरि गाइयो श्रीजिनेंदु || तासु फल सुकृतथी सकल प्राणी, लहे ज्ञान उद्योत वन शिवनिशानी || ३ ॥
॥ इति जिनवरं भक्तितः पूजयंति, परमसुखनिधानं देवचंद्रं स्तुवंति । प्रतिदिवसमनंतं तत्वमुद्भासयंति, परमसहजरूपं मोक्षसौख्यं श्रयंति ॥ ९ ॥ ॐ ही परमपरमात्मने अनंतानंतज्ञानशक्तये जन्मजरामृत्युनिवारणाय श्रीमज्जिनेंद्राय अर्ध्य यजामहे स्वाहा ॥ ८॥
॥ अथ वस्त्र पूजा ॥
॥ शक्रो यथा जिनपतेः सुरशैलचुला, सिंहासनोपरिगतः पावसाने || दव्यक्षतैः कुसुमचंदनगंधधूपैः कृत्वाचंनं तु विदधाति सुवस्त्रपूजाम् ॥ १ ॥ इति ॥
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॥ तद्वत् aष विधिनालंकारवस्त्रादिकां, पूजां तीर्थकृतां करोति सततं शतयातिभयादृतः ॥ नीरागस्य निरंजनस्य विजिताराते त्रिलोकीपतेः, स्वस्यान्यस्य जनस्य निर्वृ
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८९०
अष्टप्रकारी पूजा.
त्तिकृते शक्षयाकांक्षया ॥ १ ॥ ॐ ह्री परमपरमात्मने अनंतानंतज्ञानशक्तये जन्मजरामृत्युनिवारणाय श्रीमज्जिनेंद्राय वस्त्रं यजामहे स्वाहा ॥ इति वस्त्रपूजा ॥
॥ अथ लूण उतारण ॥
|| लूण उतारो जिनवर अंगें, निर्मल जलधारा मनरंगें || लू० ।। १ ।। जिम जिन तडतड लूणज फूटे, तिम तिम अशुभ करम बंध त्रुटे || ३० ।। २ ।। नयन सलूणां श्री जिनजीनां, अनुपम रूप दयारसभीनां ॥ लू० ॥ ३ ॥ रूप सलूं जिनजिनुं दीसे, लाज्युं लूण ते जलमां पेसे || लू० ॥ ४ ॥ त्रण प्रदक्षिण देइ जलधारा, जलण खेपविये लूण उदारा ॥ ० ॥ ५ ॥ जे जिन ऊपर दुमणो प्राणी, ते एम थाजो लूण ज्युं पाणी || लू० || ६ || अगर कृष्णागुरु कुंदरु सुगंधे, धूप करीजें विविध प्रबंधे ॥ ० ॥ ७ ॥ इति
उतारणं ॥
॥ अथ आरति ॥
॥ विविध रत्न मणि जडित रचावो, थाल विशाल अनोपम लावो || आरति उतारो प्रभुजीने आगे, भावना भावि शिव सुख मागे || आ० ॥ १ ॥ सात चौंद ने एकविश मेवा, ण ण वार प्रदक्षिण देवा || आ || २ || जिम जिम जलधारा देइ जंपे, तिम तिम दोहग थरहर कंपे || आ० || ॥ ३ ॥ बहुभव संचित पाव पणासे, द्रव्य पूजाथी भाव उल्लासे || आ० || ४ || चोद भुवनमां जिनजीने तोले, कोई नहीं आरति इम बोले || आ || ५ || इति आरति ॥
४०
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अष्टप्रकारी पूजा.
॥ अथ मंगल दीपक ॥ ॥ दीवो रे दीवो मंगलिक दीवो, भुवनप्रकाशक जिन चिरंजीवो ॥ दी० ॥ १ ॥ चंद सूरज प्रभु तुम मुख केरां, लुछण करतां दे नित फेरा ।। दी० ॥ २ ।। जिन तुज आगल सुरनी अमरी, मंगलदीप करी दिये भमरी ॥ दी० ॥३॥ जिम जिम धूपघटी प्रगटावे, तिम तिम भवना दुरित दझावे ॥ दी० ॥ ४॥ नीर अक्षत कुसुमांजलि चंदन, धूप दीप फल नैवेद्य वंदन ॥ दी० ॥५॥ इणि परें अष्ट प्रकारी कीजे, पूजा स्नात्र महोत्सव भणीजे ॥ दी० ॥६॥ इ० मं० दी० ॥
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६० ॥ ॐ नमो सिद्धं ॥ ॥ वीरजिनवरनिर्वाण ॥
॥ राग आसाउरी ॥ सच्छांतिकांतिसमतानिशानं वृशष्टकर्मक्षपकंनितांत, निर्मोहमानं परमंप्रशांत बंदेजिनेशंचरमेमहांतं ॥१॥ यस्यांबिकाश्रीत्रिशलाभिधामा सिद्धार्थराजाजनकः प्रसिद्धः, विश्वोपकृतदुस्सहदूसमेपि तंवीरनाथप्रणतोऽस्मिभक्त्या ॥२॥
हाल ॥ बार वरस तप साधन कानो, तीस वरस श्रुत वरस्यो, अनुपम ज्ञान प्रकाशी जिनवर, मुनिवर तुंज रस फरस्यो
हो प्रमुजी ॥१॥ तुं साहिब सुखदाई तुं जगनाथ कहाई,
हो साहिब जिनवर तुं सुखदाई तुं तो अलख अनंत अमोहि निज पर आतम सोही, विगतबिछोही अकोही अलोही, हुं गूंज दर्शन मोही
हो जिनजी तुं ॥ २ ॥ भाव अहिंसा ते वस्ताई निज गुण संपत्ति पाई, त्रिण लोक बई गतमाई भविक शिवपददाई
हो प्रभुजी ॥३॥ तुं ॥ धन महसेनमें तिरथवाई चौविहि संघ सचाई, गणधरकुं समता सिखलाई, चंदना समता पाई
हो प्रभुजी ॥ ४ ॥ तुं ।।
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वीरजिनवरनिर्वाण.
तुज पद सेवतं श्रेणिकभाई, सुलसा रेवइबाई, प्रभुसम पदवी तुरत निपाई साचि भगति सहाई
हो प्रभुजी ॥ ५ ॥ तुं ।। ॥ ढाल ॥ श्री सुपास जिनराज ॥ ए देशी ॥ वरगणधर इग्यार, चउदसहस अणगारः । अणगारि हो सहस्स छतिस सुहामणीजी, श्रमणोपाशकसार इगलख अधिक हजार, गुणसही हो सोभंता देसवीरत धणीजी ॥१॥ तिडलख श्राविका चारु उपरि सहस अढार, सम्यग् दृष्टि हो दर्शनयुत शीवमारगसिजी; चौदसपुचि धन्य सबखर संपन्न, अजिणा जिण संकासा हो तिगसय उल्लसीजी ॥२॥ वादीचउसय धीर परमत भंजक वीर, पंचसयावाचंयम मणनाणिखराजी; निज दिक्षीत मुनिराज समता ध्यान समाज, सातसया केवलनाणि सिद्धिवराजी ॥ ३ ॥ वैक्रियधर सयसात पट्जीवन पितमात, राजे हो आज तेरस ओही जिणशयाजी; अत्तरखाइ मुनिशगइठिई श्रेयइस, अनुभव अभ्यासि यतिवर अडसयाजी ॥ ४ ॥ इत्यादिक परिवार जिनवर आणा धार, वृंदेहो परिवरिया विचरे भूतलेजी; दृरितडमरभयशोक इति भीतिना थोक, नासे हो जिनपद फरसनने बलेजी ॥ ५ ॥
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वीरजिनवरनिर्वाण.
ढाल राग गाडि॥धन घन सुरनर पतितली॥ए देशी ॥
वीर विहारे विहारे विचरता करता जगकुं शाताजी,
चरण सोवन पंकज थापता जगवन्सल जगत्राताजी. ॥त्रुटक ॥
वाता अनादि विभाव दुखके आविया पावापुरी, जिनराज आगम हरख पाम्या भव्यकेकि हितधरी; धन्य पुहवि धन्य वनसो धन्य जनपदपुरसहि, श्रीवीरनायक चरण फरसक भइ पावन या महि ॥१॥ इंद्रादिक आगल चले भगते जयजय कहेतेजी,
छत्र सिंहासन चमर स्यं इंद्रवज लई वहतेजी ॥ त्रुटक॥
वहतिज आगले देवकोडी धर्मचक्रदेखावती, नरतिरिपव्यंतर असुर किन्नर अपछरा गुन गावति; निन कार्य करणः अमणश्रमणी आत्मतत्त्व नीपावती, दुमणि उगी उगय पासे नाथपद शीर नामती ॥२॥ गगन पंखीगण उडता करता प्रदक्षिणा रंगेजी,
पूठि पवन अनुकूलता हरती ईति प्रसंगेजी; ॥ त्रुटक ॥
सहजे सुगंधित निर वरसे पुष्प वृष्टि चिहु दिशे, कंटक अधोमुख कहे जिनते भाव कंटक सविनसे; जयजय कहंति सुरि नचंति देव कुंदमि रणझणे, देवाधिदेवा करे सेवा तत्त्वरुचिजनने भणे ।। ३ ।। पावन करता भूतले मिथ्या तिमिर होताजी, विषयविषे मूरछीत भणी देशना अमृत झरताजी;
३
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वीर जिनवरनिर्वाण.
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८९६
॥ त्रुटक ॥
तारता जनकं भवोदधिथी परम पुरण गुणनिहि, गजराज गति जिनराज पाया परिसरे आव्या वही; थई बधाई नगर सबले सज्जन वह साहमे वहे, वर पुष्प मुक्ताफल बचावी सकल मंगल सुख लहे ॥४॥
॥ हाल ॥
आयाजी मुनिपति नरपति हस्तिपाल घर आया, पायाजी सुमणि सुरतरु अधिक महोदय पाया; वंझाजी अति प्रमुदित भूपती त्रिभुवन तारकज राया, ठायाजि तसु दर्शित वंछित दाण सभा सुखदाया || ॥ त्रुटक ॥
धन धन जे थानक जसु भितर वीर परम गुरु ठाया, छत्रत्रय चामर जिनजि सोभित सिंहासन शुभ पाया ॥ मंदार कुसुमे प्रभु वधाया मनरमाया सचिगणे, चिरकाल जीवो जगत दीवो तरणतारण इंम धूणे ॥ १ ॥ चौमासीजी वर्द्धमान जिन तिहां रह्या
विधिसेतिजी नव नव अभिगृह मुनिगृहा, परदेसीजी श्रोताजन आया बहि; प्रभुवचनेजी तत्त्वगृहे ते गह गहि ||
॥ त्रुटक ॥
गह गहि श्रुतरस अमृत पिना आत्म समता भावता, परभाव परणति दूर वमता सुमति रमणी रमावता; वीयराय वंदन भत्र निकंदन गुण आनंदने पावता, परमात्म सेवन अहवासिद्धि एह इहा लावता ॥ २ ॥
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वीरजिनवरनिर्वाण.
श्रीवीरेजी गौतम गणधर मोकल्या, आणाकरजि देवशरमा बोधन चल्या; जिन आणाजि हित सुख मंगलकारए,
इंम जाणीजी गणधर करे विहार ए॥ ॥ श्रुटक ॥
नवरायलछिन। मल्लि वीर वचन रसेरस्या, निज देश चिंता तजी जिनपद सेवना करवा वश्या; सुरराय चौसठ्ठ तिहां आव्या सिद्धि अवसर जाणता, श्रीवीर दर्शन मत कीरतन परम सुख मन आणता ॥३॥
॥दोहा॥ कार्तिक वदी चौदश दिने प्रात समय जिनराय, सिंहासने बेठा जिस्य वरंभा गुण गाय ॥ १॥
॥ ढाल ॥ जीरीयानि ॥ अथवा सोहलानी ॥ वाल्हेसर त्रिसलादेवीनंद दीठो हे दीठो अमृत धनसमो सोभागीस्वामी सोभागी सिद्धि वधू भरतार, मोहन हे मोहन मूर्ति नीत नमो उपगारी स्वामी ॥ १ ॥ तुम्हे गाओ हे तुम्हे गावो नित गुण धरि मनप्रेम, जेम न हे जेम न जाबो र गति ॥ ३० ॥ चिरजीवो हे चिरजीबो गौतम गुरुराय, नित प्रति हे नित प्रति पूजे सुरतिते ॥ ३० ॥ २॥ अतूलि बल हे अतृलि पल याचो जगनाथ, जिण जित्यो हे जिण जित्यो मोह सुभटजरू ॥ ३० ॥ बूटो हे वूठो आज अमीयमय मेह, सफलो हे सफल फल्यो घरिसुरतरू । उ० ॥३॥
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८९८.
वीरजिनवरनिर्वाण.
जय जय हे जय जय जगजीवन जगबंधू, सिद्धारथ हे सिद्धारथ नृप कूलतिलो, ॥ उ० ॥ तूठा हे तूटा आज सर्वे कन्यां पुन्य, भेट्यो हे भेट्यो जिनवर गुणनीलो || उ० ॥ ४ ॥ बलिहारि हे बलिहारि वार हजार,
तुं ज्ञानि हे तुं ज्ञानि गुण सेहरो; || उ० ॥ जंगम हे जंगम तीरथ शिवसुखकंद,
. निश्चय हे निश्चय शिवसुख देहरो || उ० ॥ ५ ॥ इंद्रादिक हे इंद्रादिकना प्राण आधार, जीवो हे जीवो कोडि जुगो लगे || उ० ।। जसु दिठे हे जसु दिठे नासे दुःख अंवार, भामंडल हे भामंडल दिनकर झगमगे ॥ उ० ॥ ६ ॥ त्रिभुवन पति हे त्रिभुवन पति तुज वचन सवाद, मोह्या हे मोह्या सुरपति नरपतिजी ॥ ३० ॥
तुहि हे तुंहि भवभवनाथ दयाल,
करि ये हे करिये इंगविधि विनतीजी ॥ उ० ॥ ७ ॥
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तरीये हे तरीये भवसायर दुःखभूरि,
हरिये हे हरिये कर्म महा अरि ॥ ३० ॥
वरियें हे वरियें देवचंद्र पसर,
करियें हे करियें भक्ति सदा खरी || उ० ॥ ८ ॥
॥ ढाल यतिनी ॥
इंम गाती रंभा गीत प्रभु आव्या सुविदित, ज्ञानदर्शन चरणानंदि हरख्या सवि प्रभुपद वंदी ॥ १ ॥
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वीरजिनवरनिर्वाण.
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प्रभु देशना अतिसुखकार भाख्या निश्चय विवहार, कारण कारज विधि भाखी शिव साधन शिक्षा दाखी ॥२॥ सर्व जीव अछे सम एव, संग्रह सत्ताने लेश; जे पर परमाते त्यागी, तसु कर्मनी भावठ भागी ॥३॥ जसु तत्वज्ञचि थयो जान ते साध्ये साध्य अमान, निज व्यक्ति शक्ति निज रंगी साधे गुण शक्ति अनंगी ॥४॥ शुचि श्रद्धाभासन रमणे कारक निज कार्यने गमणे, भागे परपरणति रित एकत्वे तत्त्व प्रतित ॥५॥ परभाव अरोचक दृष्टि निज ज्ञानसुधानि वृष्टि, परभोगी भाव अभावे करतादि थया निज भावे ॥६॥ जाणि निज परणति स्वामी, कुंण थाई परपरणामी ए भावे निज गुण पोषे, ते शुद्ध समाधि संतोषे ॥७॥ दुःख पोषक पर परसंग, न भजेहेत धरि रंग; निज तत्त्व रमो भविप्राणी, देवचंद वदे इंम वाणि ॥८॥ ॥ ढाल ॥ बहिनी रही न सकि तिसेंजी ॥ ए देशी ॥
सुरनरतिरिय समूहमेंजी बेठा श्रीवर्द्धमान; जगत दया उपदिसेजी, शुद्ध धर्म सुख ध्यान ॥१॥ जिणेशर तुम मुज प्राणाधार ॥ टेक ।। भवभय पीडित जीवनेंजी, त्राणशरण सुखकार; सोल पहोरनी देशनाजी, वीर कही तिणवार क्षीराश्रववचने कह्याजी, प्रश्न छत्रीस उदार जिने ॥२॥ पंचावन अध्ययनमांजी, सुखविपाक स्वरूप वली तेता अध्ययनमांजी, दुःखविपाक विरूप जिने ॥३॥
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वीरजिनवरनिर्वाण.
छठतपे निशी पाछलीजी करिया जुजी वीर्य, योगरोध बादर करिजी; रोध्यो सूक्ष्म वीर्य. जिने ॥४॥ सकल प्रदेश घन करिजी चरमविभागावगाह, प्रकृति बहोत्तर खेखेजी, कृत तेर प्रकृतिनो दाह जिने० ५॥ पर्यकासन शिव लघुजी स्वाति नक्षत्रे स्वाम, नागकरण दशैं करूजी पूर्णानंदि धाम. जिने ॥६॥ अफुसमाणगतिथी लडोजी एकसमे लोगंत, पूर्व प्रयोग अबंधनेजी उर्ध्वगतिने तंत. जिने ॥ ७ ॥ अवगाहना कर च्यारनीजी सोलह अंगुलमाय सर्व प्रदेश गुणपज्जवाजी तुल्य प्रमाण समाय. जिने ॥८॥ सर्व शक्ति निज कार्य जी करता वर निःप्रयास, सादि अनंतपणे कयुजी, आतमशक्ति विलास. जिने०॥९॥ विस वरस गृहवासमांजी, बार वरस मुनिभाव, तेर पक्ष अधिकुं तप्याजी, तप शिवसाधन दाव. जिने० १०॥ विचर्या परमेश्वर पदेजी, तिस वरस किंचूण, भाव यथारथ उपदिश्याजी, नयनिक्षेपे पूर्ण. जिने ॥११॥ पर परसंग सह तजीजी, अनाहारि अशरीर, अचल अक्षय अमूर्तताजी व्यक्ति शक्ति धर धीर. जिने०१२॥ वीरप्रभु निजपद लघुजी परमानंद अबाध,
अविनाशी संपूर्णताजी परिणति भाव अगाध. जिने० १३॥ ॥ ढाल ॥ प्रभु तुं स्वयंवुद्ध सिद्धो अलुडो । ए देशी ॥ प्रभु तुं अनंतो महंतो प्रसंतो, तुं प्रभु कर्मनाशन कृतंतो; पूर्ण आनंद आस्वादवंतो, प्रभु तुं थयो सिद्धि लच्छि सुकंतो.
॥ १ ॥ प्रभु०॥
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वीरजिनवरनिर्वाणः
अवन्ने अगंधे अफासे अरूपी, प्रभु तुं थयो अरस संठाण हीनो, अमोहि अकर्ता अभोगी अयोगी, अवेदी अखेदी गुणानंद पीनो.
॥२॥ प्रभु०॥ प्रभुजाणतोज्ञानयी तुं सर्व छति, वस्तुने देखतो सर्व सामान्य भावो आतमा गुणरमण, अनुभव रसे घूमतो ते लह्यो पूर्ण शुद्धात्म भावो.
॥३ ।। प्रमु० ॥ आत्मगुण दान लाभे अनंते वस्यो, भोग उपभोग निज धर्म लीनो; सकल गुणकार्य सहकार विरय वस्या, चपल वीरय गये थिर अदीनो.
॥४॥ प्रभु०॥ तुं क्षमी तुं दमी तुंहि मार्दवमयी, आर्य विमुत्ति समता अनंति; तुं असंगी अभंगी अनंगी प्रभु, सर्व प्रदेश गुणशक्तिवंति ॥५॥
प्रमु० ॥ प्रमाणी प्रमेइ अमेइ अगेहि, अकंपात्म देशी अलेशी अवेशो; स्वयं ध्यानमुक्तो सदा ध्येयरूपो मुनिमानसे जेहनो वास देशो.
॥६॥ प्रभु०॥ ॥ दोहा॥ सिद्ध थया जिन जाणिने, इंद्रादिक सुख्यू हा शोकातुर आतूर रखें चौविह संघ समूह. ॥१॥ है है नाथ वियोगथी, ए जिवन निष्काम; मोक्षमार्ग साधन भणी, कीम पहोंचसे हाम. ॥ २ ॥ वीर वियोगे जीववो, ते निठुर परिणाम; धन तनु वनिता संपदा, स्युं कीजे सूरधाम. ॥ ३ ॥ जग उपगारि विछड़ये, स्ये लेखे सूर शक्ति; प्रबल मने करस्युं किहां, बद् विस्तारि भक्ति. ॥४॥
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वाजमवरनिर्वाण
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॥ ढाल ॥ मेरे नंदना ॥ए देशी॥ एतला दिन लगे जांणतारेहां, प्रभु सनमुख बहुवार मेरे साहिबा।। वंदन विधि नाटक करिरेहां, लहेस्युं लाभ अपार. मेरा०॥१॥ बोलो नाथ दयाल क्रिपानिधि करुणाल तुज वयणां गुणमाल; थई सर्व निहाल तत्त्वरमण समाल थाय ज्ञान विशाल. मे० ॥२॥ एक वचन श्रीवीरनोरे कापे भवनी कोडी; अविनाशी सुख आफ्वारे कोण करे तुंज होडि. मे० ॥३॥ तुज सरीखे साहेब छतेरे करता मोटी इंस; मोह महारिपु जीपिनेरेहां करस्यां कर्मनो ध्वंश. मे० ॥४॥ मोहाधीन जे जीवडारेहां तृष्णा ता तप्तः पुद्गल आशाबंधि विषयारस संलिप्त. मे० ॥५॥ तनु विभावरंगी दुखीरेहां आवृत आतमशक्ति; तेहवाने कुंण तारसेरेहां देखाडि गुणव्यक्ति. मे० ।। ६ ।। बहु परिचित परभावनारेहां चपल एकत्व अपाय; मे० करतां कहे कुंण वारसेरेहां ते देखाडो ताय. मे० ॥७॥ विषयादिक आसेवतांरेहां थातो अम संकोच; मे० तुज उपगारे तेहवेरेहां थास्ये किमते सोच. मे० ॥८॥ वीर चरण जायोअछेरेहां सुणवा अमृत. वाणि; मे० ते माटे सुर भोगनारेहां करता नवि मंडाण. मे० ॥९॥ कृपा करो एक वचननीरेहां अद्य पिछो वीतराग; भे० महा मोहना कष्टथीरेहां छोडावो महाभाग. मेरा० ॥१०॥ भरतक्षेत्रना जीवनेरेहां तुजविण कुण रखवाल; दुसम काल कृतांतमारहां एहवो कवण हवाल. मेरा० ॥११॥ मेघमुनिने राखीयोरेहां राख्यो सोमलबंदा मेरा० खंधक शिवपमूहा तारेहाँ तार्यों चमर सुरिंद. मेस० ॥१२॥
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वीरजिनवरनिवौण.
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हुँ सोहम पति विनवुरेहां दया करो मुज देव; मेरा० सदा हरि दासनीरेहां मानो विनति सेव. मेरा० ॥१३॥ नित्य मनोरथ नव नवारेहां करता भु अवलंब मेरा० ते दिशी दारव्यो सर्वने रेहां प्रभुजी ज्ञान कदंब मेरा० ॥१४॥ एह श्रमण श्रमणी भणीरेहां निज आराधक भाव मेरा० केहने पूछी आलोयर येरेहां अंतर गत परभाव मेरा० ॥१५॥ भव्य अभव्य निरधारतारेहां पूछीशु कुग पास मेरा० आश्रव पीडित जीवनीरेहां कुण सुणसें अरदास मेरा० ॥१६॥ ते सवि मनमा रहिरेहां चाल्यो तारक सिद्धि मेरा० .. आणा आलंबन करिरेहां करवी कार्य समृद्धि मेरा० ॥१०॥ सोपण एहना नामथीरेहां राखो मोटी आश मेरा० देवचंदनी सेवनारेहां शिव सुख कारण खास मेरा० ॥१८॥
॥दोहा॥ इंम दुःख भरि इंद्रादिके विमन चित्त मुखदिन कलश विधे नवरःविया चित्त भक्ति लयलीन ॥१॥ कार विलेपन अति सुरमि बहुविध फूलनी माल आभरणादिक अलंकन्या श्री जिन जगत दयाल ॥२॥ संहस्त्र थंभ शिबिका रचि छत्रत्रय अभिराम सिंहासनपाद पीठ विधि चामर भज अभिराम ॥३॥ प्रभु बेसान्या पालखी उपाडे सुरवृंद वैमानिक भुवनाधिपति व्यंतर सूरजचंद ॥ ४ ॥ चामर विजे भक्तिस्युं शक्र बलिईशान हीवे आपणने धर्मनो कुण दें शिक्षा दान ॥५॥
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वीरजिनवरनिर्वाण.
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॥ गाथा ॥
दुल्लदो जिणंदजोगो दुलहंत धम्म सवण निधारं; दुलहा मुख पवित्ति, सामग्गी संगमो दुलहो ॥ १ ॥ हाहाइय किं जायं, अरहो सिद्धो महोदयं पत्तो; अम्हाण पुट्ठ साहण, हेउ विजोग भवं दुरकं ॥ २ ॥ वीर विहम्मि धम्मा, धारेण असरण यादुहिया; तेसिंदुमकाले, कोदायी एरिसंवम्मं ॥ ३ ॥ ॥ ढाल ॥ मेघमुनिसर काई डमडोलई रे ॥ ए देशी ॥ गीत गान नाटिक करीजी, करुणा रसमय सर्व; हा नायक हा तारकुंजी कहता वदन सुपर्व
नाथजी मोटो तुंज आधार १ ।। .
तुं त्रिभुवन निसतार; तुं प्रभु ज्ञान आधार, तुंज सरिखो दातार दुलहो एणिवार नाथ० २ ॥ चंदनका जिनतनुंजी दाहे अग्निकुमार,
दुखभरि सजल नयणे करीजी वायु ते पवन कुमार नाथ० ३ ॥ उदधि कुमार जले करीजी शीतल कीधि ठाम, जिनदाढा ले भक्तिथीजी सुरपति दक्षिण वाम नाथ० ४ ॥ अस्छि भस्म माटि ग्रहेजी सुरनर अवर अनेक, वंदे पूजे भक्तिथीजी धरता चित्त विवेक नाथ० ५ ॥ देवसरमा प्रतिबोधिओजी वलिया गौतम स्वामि, सांजे वनमां मुनि वश्याजी पाम्या श्रुति विशराम नाथ० ६ | पावा परिसर गणधरुजी राति वस्या जिहि ठाय, वीर विरह गौतम सुण्योजी ही पडे दुःख न माय नाथ० ७|| हे प्रभु मुज बालक भणिजी स्यें न जणायुं आम, मूंकी स्यें मुने वेगलोजी ए निपाव्यो काम नाथ० ८ ॥
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वीरजिनवरनिर्वाण.
हवे कुंण संशय भेटसेजी केरये सूक्ष्म भाव, कोंने वांदिश भगतिस्युंजी करस्युं विनय स्वभाव नाथ० ९॥ वीर विना केम थायस्येजी मुने आतमसिद्धि, वीर आधारे एतल जी पाम्या पूरण समृद्धि, नाथ० १० ।। इंम चिंतवतां उपन्योजी वस्तु धर्म उपयोग, करता सङ निज कार्यनाजी प्रभु नैमित्तिक योग, नाथ०११॥ ध्यानालंबन नाथनोजी, ते तो सदा अभंग, तिण प्रमु गुणने जोइवेजी, जोइतुं आतम अंग, नाथ०१२॥
आतम भासन रमणयीजी भेदे ज्ञान पृथक्त्व, तेह अभेदे प्रणम्योजी पाम्यो तत्त्व एकत्व नाथ० १३ ॥ ध्यान लीन गौतम प्रभुजी, क्षपक श्रेणि आरोहि, घन घाति सविचूरियांजी, कीधो आत्म अमोह नाथ०१४॥ लोकालोकनी अस्तिताजि, सर्वस्व पर परजाय, तिन कालना जांणियाजी, केवल ज्ञान पसाय नाथ० १५ ॥ प्रभु प्रभु करतां प्रभु थयाजी श्री गौतम गणराय ततक्षिणइंद्रादिक भणीजी, एह वधाई थाय नाथ० १६॥ संघ सकल हरखित थयोजी, जाणि गौतम ज्ञान, कारण तूट पडि नहीजी, एह पुण्य अमान नाथ० १७ ॥ सुरपति नरपति जन सहूजी चाविह संघ महंत, आव्या गौतम पदकजेजी जय जय शब्द कहंत नाथ० १८॥ करि उछव पद थापियाजी जगगुरु पाटेत्यार, इंद्रादिक वंदन करीजी, बेठा सभा मझार नाथ १९ ॥ तिन भुवन हरखीत थयाजी, वीर पटोधर देखी, हरखें गुण गावे घणाजी, चौविह संघ विशेष नाथ० २०॥
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वीरजिनवरनिर्वाण. वीर प्रभु पाटे थयाजी, गौतम ज्ञान निधान, देवचंद्र वंदे सदाजी, समता अमृत खान नाथ० २१ ॥
॥दोहा॥ श्री गौतम गुरु देशना, सांभली उठ्या सर्व, सुरवर सह नंदीश्वरे पोहत्या भगति अखर्व ॥ १ ॥ बार वरस केवलिपणे, विचर्या गौतम स्वामी, आठ वरस केवलिनिधि, श्री सुधर्म अमिरामी ।। २ ।। वरस चौमालीस केवली, श्री जंबुसुखकार, त्यार पछी श्रुत ज्ञान बल, चाले सासन सार ।। ३ ॥ एकवीस सहस वरस लगे, रहस्ये वीरवचन; तमु आलंबन जे रमे, तेहीज जीव सुधन्न ॥ ४ ॥
॥ढाल ।। धन्य धन्य सासन श्री जिनवरनो, जिहां वर वाचक वंस रे, दूसम काले जास प्रसादे लहिइं धर्म परसंस रे धन्य० ॥ १ ॥ आर्य प्रभ सीजंभवमूरि, सूरि यशोभद्र स्वामी रे, श्री संभूति विजय सुतसागर, भद्रबाहु वर नाम रे धन्य० ॥२॥ दश नियुक्ति छेद वर आगम, उवर्या वस्तु रवरूप रे, संपूरण द्वादस आगम धर, ज्ञानक्रिया विधि रूप रे २० ॥३॥ थूलभद्र कोश्या प्रतिबोधी, महागीरि मूरिहन्ति रे, वयरस्वामी जे पूरव दशधर युग प्रधान सु प्रशस्त रे धन्य० ॥४॥ भाष्योद्धार कारक उपगारी श्री जिनभद्र मुनिंद रे, चूरणी करता श्रुत उद्धरता श्री देवदि मुणिंद रे धन० ॥५॥ पुस्तकारूढ कयौं जिन आगम, राख्यो सासन शुद्ध रे, टीकाकार श्री सिलांग सूरिवर, श्री अभयदेव प्रबुद्ध रे धन०॥६॥
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वीरजिनवरनिर्वाण.
श्री हरिभद्र मलयगिरि पंडित हेमसूरी मल्हार रे, चंदमहत्तरसूरि जिनेश्वर जिन वल्लभ सुखकार रे धन० ।। ७ ।। श्री देविंद्र हेम आचारिज कुमारपालज सुभक्ति रे, श्री खेमेंद्र प्रमुख श्रुतरसिया दूसम काले व्यक्त रे धन ॥८॥ दूपसहमूरि छल्ला गणधर आराधक जिन आण रे, चोविस संघ शुधश्रद्धाधर, पंचांगी परमाण रे धन० ॥९॥ द्रव्यछक नव तचनी श्रद्धा, ज्ञानक्रिया शिवसार रे, उत्सर्गने अपवाद साधना, निश्चयनयव्यवहार रे. धन० ॥१०॥ निमित्त वली उपादान ने कारण, योग साधन तीन प्रकार रे, प्रवृत्ति विकल्प तथा परणति, शुचिकरता भव निस्तार रे.धन०११॥ पुष्ट निमित्त सेवनथी आतम, परणति थाई शुधरे, तत्त्वालंबि तत्त्व प्रगटता, साधे पूर्ण समृद्ध रे. धन० ॥१२॥ देवचंद्र श्रीवीर चरणयुग, सेवो भक्ति अखंड रे, सासन संगी आणा रंगी, ते थाइ गतदंड रे. धन० ॥१३॥
॥ ढाल ॥ कुमत इंम सकल दूरे करि ॥ ए देशी ।। भगति इंम चित्त साची धरी धरइ सासन रीत रे, वारीई दुष्ट दुरवासना वंसीई भवतणी मिती रे. भग० १॥ वीर जिनराज सम प्रभु लहि गहगहि बुद्धि गुणग्राम रे, कोण पर देवने आदरे, कल्पतरू सम प्रमु पामि रे. भग० २॥ एक आधार छे ताहरो माहरे दिनदयालरे, सार कीजे हवे दासनि नाथ जगजीव प्रतिपालरे. भग० ॥३॥ विनती दासनी धारीई तारिई कर उपगार रे, दोष अनादि निवारिई आपि इम अनुभव सार रे. भग०॥४॥
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वीरजिनवरनिर्वाण.
मोह जंजाल वशे जीवडा रडबडे पुद्गल राग रे, तेहने शुद्ध रतनत्रयि दाखवि ते महाभाग रे. भग० ॥५॥ एक आलंबन स्वामीनो दासना चित्तने नाह रे, असरण सरण भवअविनो तूंहि परम सत्थवाह रे. भग॥६॥ तुज गुण रागभर हृदयमें किम वसे दुष्ट कषाय रे, निरमल तत्त्वना ध्यानथी ध्याय निरमल थाय रे. भग०॥७॥ ध्ये यनी शुद्धता रसथकि विद्वअय कंचन थाय रे, तिम अमोहिरसि चेतना पूर्ण आनंद उपाय रे. भग० ॥९॥ माहरी परणति दोषनी तीव्रता वारणहार रे, ताहरा सासन श्रुततणो राग छे एक आधार रे. भग० ॥९॥ खिण खिण नाम तुमचौ, जपुं तुज गुण स्तवन उल्लास रे, चीतविरूप प्रभूजी तणो, किजीये आत्म प्रकाश रे. भग०॥१०॥ वलि वलि विनवू सामीजि नित्यप्रत्ये तुहिज देव रे, शुद्ध आशयपणे मुज होज्यो भवभव ताहारी सेव रे. भग०११॥ वीर आणा अविहडपणे आदरु साधन एह रे, ताहारि साखथी सत्य छे, सीझस्ये माहरे तेह रे. भग०१२॥ भद्रकभावरागीपणे, विनती एम कराय रे, देवचंद्र पद निपजे नाथजी भगति सुपसाय रे. भग० १३॥
॥ ढाल ॥ राग धन्यानी ॥ गावो गावो रे जिनराजतणा गुण गावो, सम्यग्दर्शन ज्ञान चरणनी निर्मल थिरता पावो रे; जि. टेक ।। पंचकल्याणक स्तवना स्तवतां आतम तत्त्व नीपावो, मोह महारिपु दोष अनादि खीणमें तेह गमावो रे जि०॥१॥
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वीरजिनवरनिर्वाण.
AAASDeAAL
आतम तत्त्व ध्यान एकता, साचो शिवसुख दावो, ईश्वर भक्ति तेहनो कारण, आगममांहि कहावो रे; जि० ॥२॥ प्रमु गुण ध्यान स्वजाति रमणे, निर्मल परणति थावो रे, तेहथी सिद्धतणे प्रभु सेवन, आतमशक्ति वधावो रे; जि०॥३॥ सुविहित खरतरगछ परंपर गजसार उवझायो, तास शिष्य पाठक सम दमधर ज्ञानधरम सुखदायो रे; जि०॥४॥ दीपचंद पाठक उपगारी सासन राग सवायो, तास शिष्य सुचि भक्ति, प्रसंगे देवचंद्र जिन गायो रे; जि०॥५॥ भावनगर श्रीऋषभप्रसादे दीवालि दिन ध्यायो, संघ सकल श्रुत शासन रागी परम प्रमोद उपायो रे जि०॥६॥ साशन नायक वीर जिनेसर गुण गातां जयमालो, देवचंद्र प्रभु सेवन करतां मंगलमाल विसालो रे. जिन ॥७॥
इतिश्री वीरजिनवर निर्वाण समाप्तम् ॥ श्रीशुभंभवतुं ॥ श्रीकल्याणमस्तु ॥
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पद्मनाभ स्वामीनु स्तवन.
आवती चोवीशीना प्रथम जिनेश्वर पद्मनाभ
स्वामीनु स्तवन ॥
॥ पंथड़ा लोहालं रे ॥ए देशी ॥ वाटडी वीलोकुरे भावी जिन तणी रे, पद्मनाभ जसु नाम; दूसम दोषीरे भरत कृपाकरे, उपशम अमृत धाम ॥ वाटडी० १॥ वीर निमित्ते श्रेणीकने भवेरे, तुमे बांध्युं जिन नाम; कल्याणक अतिशय उपगारतारे, वीर समान सभाव ॥ वाटडी० २॥ सुदि असाढे छठीने दिनेरे, उपजशो जगनाथ; चैत्र धवल तेरस प्रभु जनमशोरे, थाशे मेरु सनाथ ॥वाटडी० ३॥ मागसीर वदी दसमी दीक्षा ग्रहीरे, वरशो चरण उदार, सुदी वैशाखे दसमे केवली रे, चौविह संघ आधार ॥वाटडी० ४॥ समवसरण सीहासन बेसिनेरे, प्रभु करशो व्याख्यान; आतम धर्म सुणी ते अवसरेरे, धरतो प्रभु गुण ध्यान
वाटडी० ॥५॥ संमुख त्रिपदी पामी गणधरारे रचशे द्वादश अंग; वे वेला हुँ प्रभु चरणे रहुंरे, जिनधरमे दृढरंग ॥ वाटडी० ६ ॥ दीवाळी दिन शिवपद पामशोरे, सुद्धातम मकरंद देवचंद्र साहेबनी सेवनारे, करतां परमानंद ॥ वाटडी० ७॥
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सीमंधरस्वामी विनतीरुप स्तवन.
॥ श्री सीमंधरस्वामी विनतिरूप स्तवन ॥
SEE
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प्रभुनाथ तुं तियलोकनो, प्रत्यक्ष त्रिभुवन भागः सर्वज्ञ सर्वदशीं तुंमे शुद्ध सुखनी खाण ।। १ ॥
९११
जिणजी वीनती छे एह ( ए टेक )
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प्रभु जीव जीवन भव्यना, प्रभु मुज जीवन प्राण; ताहरे दर्शनं सुख लहूं, तुंहीज गति स्थिति जांग जि० ॥ २ ॥ तुज विना हुं चिहुं गति भम्यो, धर्या भेख अनेक; निजभावने परभावनो, जाण्यो नहीं सुविवेक जि० ॥ ३ ॥ धन्य तेह जे नितु प्रहसमें, देखे श्रीजिनमुख चंद; तुज वाणी अमृतरस लही, पामे ते परमानंद जि० ॥ ४ ॥ एक वचन श्री जिनराजनो, नय गम भंग प्रमाण;
जे सुंणे रुचिथी ते लहे, निज तत्त्व सिद्धि अमान. जि० ॥५॥ जे क्षेत्र विचगे नायजी, ते क्षेत्र अति सुपसथ्य;
तुज विरह जे क्षण जाव छे, ते मांनीये अकथ्थ. जि० ॥ ६ ॥ श्री वीतराग दर्शन विना, वीत्यो जे काल अतीतः
ते अफल मिच्छादुक्कडं, तिविहं तिविहनी रीत. जि० ॥ ७ ॥ प्रभु वात मुज मननी सह, जागोज हो जगनाथ; थिरभाव जो तुमचो हुं तो मिले शिवपुर साथ. जि० ॥ ८ ॥ प्रभु मिले हुं थिरता हुं, प्रभु विरहें चंचल भाव; एकवार जो तन्मय रमुं तो, करुं अचल स्वभाव. जि० ॥ ९ ॥ प्रभु अछो क्षेत्र विदेहमां, हुं रहुं भरत मझार;
तो पण प्रभुना गुण विषे, राखुं स्वचेतन सार. जि० ॥ १० ॥
१९.
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सीमंधरस्वामी विनतीरूप स्तवन.
जो क्षेत्र भेद टळे प्रभु तो सरे सघळां काज; सन्मुखें भावि अभेदता करी बरं आतमराज. जि० ॥ ११ ॥ परपूंठे इहा जेहनी, एवडी जो छे स्वाम; हाजर हजूरी जो मिळे, तो मिळे आतम राम. जि० ॥ १२ ॥ हुं इन्द्र चन्द्र नरेन्द्रनो, पद न मामु तिलमात; माणु प्रभु मुज मन थकी, न वीसरो क्षणमात्र. जि० ॥ १३ ॥ जहां पूर्ण शुद्ध स्वभावनी, नवि करी शकुं निज ऋद्धि तहां चरण शरण तुमारडां, एहिज मुज नव निधि. जि० ॥१४॥ माहरी पूर्व विराधना, जोगे पड्यो ए भेद पण वस्तुधर्म विचारतां, तुज मुज नही छे भेद. जि० ॥१५॥ प्रमु ध्यानरंग अभेदथी, करी आत्मभाव अभेद; छेदी विभाव अनादिनो, अनुभवू स्वसंवेद्य. जि० ॥ १६ ॥ वीनवु अनुभव मित्रने, तुं न करीश पररस चाहः शुद्धात्मरस रंगी थइ, कर पूर्ण शक्ति अबाह. जि० ॥ १७ ॥ जिनराज सीमंधर प्रभु ते, मिल्यो कारण शुद्ध; हवें आत्म सिद्धि निपायवी, शी ढील करीये बुद्ध. जि० ॥१८॥ कारणें कारय सिद्धिनो, करवो घटे न विलंब साधवी पूरणानंदता, निज कर्तृता अवलंब. जि. ॥ १९ ॥ निज शक्ति प्रभु गुणमें रमे, ते करे धूर्णानन्दः गुण गुणी भेद अभेदथी, पीजीये शम मकरन्द. जि० ॥ २० ॥ प्रभु सिद्धबुद्ध महोदयी, ध्याने थई लयलीन; निज देवचंद्र पद ते लहे, नित्यात्म रस सुख पीन. जि० ॥२१॥
॥ इति वीनती समाप्त ।
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श्री सिद्धाचल चैत्य परिवाडी स्तवन.
॥ श्रीसिद्धाचल चैत्य परिवाडी स्तवन ||
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भरत नृप भावशु ॥ प देशी ॥
शेत्रुज गिरि भेटीये ए मेटीये कर्म कलेश || सेश्रुंज० ॥ मिथ्या दोष निवाखा ए धाखो समकित देश || से० ॥ १ ॥ कालअनादि भवोदधिए भमतां भव समुदाय || से० ॥ यान पात्र सम जाणजो ए एहिज तीरथराय || से० || २ || मानव भव पामी करीए ए तीरथ गुणगेह || से० ॥ जेणे नवि भेट्यो जुगतसुं ए ते दुःखीयामें रेह || से० || ३ || इहां सिद्धा पण कोडीसुं ए गणधर श्री पुंडरीक || से० || चैत्र शुकल पुनिम दिनेए निज सत्ता गुण ठीक || से० ||४|| फागुण सुदि सातम लहयें नेमि विनमी शिवनाथ || से० ॥ चोसठि नमी पुत्री वसुए आठमें केवलज्ञान || से० ॥ ५ ॥ सागरमुनि तिग कोडीथीए कोडीथी मुनि श्रीसार ॥ से० ॥ तेर कोडियी सिववसुए सोमश्री अणगार || से० ॥ ऋषभ वंश आदितजसा ए, तसु सुत आदित्य कांति ॥ से० ॥ एकलाख परिवारस्युं ए, पाम्या परम प्रसंति ॥ से० ॥ ऋषभ वंश मुनिवर बैहुए, गणधर कोडि असंख ॥ से० ॥ सिव पूढता सिद्धाचलेए निरमते निरकख ॥ से० ॥ ८ ॥ दस कोडयी सिव लघुए, द्रावड ने वारीखिल्ल ॥ से० ॥ चउदसहस निग्रंथथीए दमितारी निसल ॥ से० ॥ ९ ॥ आदिनाथ उपगारथीए कोडि सत्तर अणगार || से० || श्री जितसेन मुनीश्वरु ए, पाम्या सुख अपार ॥ से० ॥ १० ॥
६ ॥
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श्री सिद्धाचल चैत्य परिवाडी स्तवन.
आणंद रक्षित भावनाए भावतां सिवपुर पत्त || से० ॥ कालासी इगसहसथीए, मुनी सुभद्र सय सत्त ॥ से० ॥ ११ ॥ रामचंद्र पण कोडथीए, नारदमुनि पिसताल ॥ से० ॥ पांडव कोडि वीसथीए, सिव पोत्या सगकाल || से० ||१२|| is प्रद्युम्न मुनिश्वरुए, मुनि साढीत्रिण कोड ॥ से० ॥ विमलाचलें निर्मल थया ए, ते प्रणमुं बे करजोड | से० ॥ १३ ॥ थावच्चा सुत सूकमुनिए, सेलंग पंथक सिद्ध || से० ॥ वसुदेव धरणी सिव लघु रे, सहस पैत्रीस प्रबुद्ध ॥ से० ॥१४॥ वेदरति निकरमताएं सामी सल चोफाल ॥ से० ॥ श्री वससार आनंतताए, पामी गुण संभाल || से० ||१५|| सिध्या बहु मुनि इण गिरिवरेंए, यादव वंश अनेक ॥ से० ॥ श्रेणिक कुलं साधु साधवीए, सिद्ध लह्या थिर टेक ॥ से० ॥ १६ ॥ विद्याधर भूचर घणाए, इहां पाम्या गुण कोडि ॥ से० ॥ आतम हेते एहनीए को न करी शकें होडि ॥ से० ॥ १७ ॥ तिवारें तीस्थपतीए, ए तीरथ बहुवार || से० || आव्या भविजन तारखाए, निरमम निरहंकार ॥ से० ॥ १८ ॥ पुंडरगिरिनी सेवनाए, जेह करे भवी जीव ॥ से० ॥ ते आतम निरमल करीए, पामे सुख सदीव || से० ॥ १९ ॥ ए गिरिराजने सेवतांए, पामे देवचंद्र पदसार ॥ से० ॥ भव भव ए तीर्थ सेवनाए, होज्यो परम आधार. ॥ से० ||२०||
•
॥ कलस ॥
ईम सकल तीरथ नाथ सेतुंज शिखर मंडण जिनवरो श्री नाभिनंदन जग आनंदन विमल शिव सुख आगरो
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श्री सिद्धाचल स्तवन.
सुचिपूर्ण चिदघन ज्ञानदर्शन, सिद्ध उद्योत सुभ मनें निज आत्मसत्ता शुद्ध करवा वीरजिन केवल - दिने. श्री सुविहित खरतर गच्छ जिनचंद्र सुरि साखा गुणनीलो उवझायवर श्री राजसारु, सीस पाटक सिर तीलो श्री ज्ञानधर्मसूस पाठक देवचंद्र वीनव्यो जगहितको
इति चैत्रपरवाडी सिद्धखेत्रनी संपूर्ण ॥
॥ श्री सिद्धाचल स्तवन ॥
धन धन मुनिवर जे संजमवर्याजी परिहर्या पाप अढाररे समता आदरी मुनि ममता तजीजी सम्यक् क्षमा दया भंडाररे.
धन धन० ॥ १ ॥ रुषभ वंश द्रवड नृप पुत्र बेजी द्रविड अने बीजो वारिखिल्लरे भूमि निमित्ते रणरसीया थकाजी तापस संयोगे काट्यो सल्ल रे.
॥धन० ।। २ ।। संजम लीधो भट दशकोडिथीजी पुडुता सिद्धाचल गिरिशृंगरे अणसण करि निज तत्त्वे परिणम्याजी त्रिविध त्रिविध
वोसिरावी संगरे ॥ धन० ॥३॥ रत्नत्रयी रमी आत्म संवरीजी ओलखी छंड्यो सर्व विभावरे प्रत्याहार करि धरी धारणाजी वलगा निर्मल ध्यान स्वभावरे
॥ धन ॥४॥ मैत्रिभाव भजी सवि जीवथीजी, करुणाभाव दुःखथी तेमरे पंच गुणीनी नित्य प्रमोदताजी, शुभ अशुभ विपाके मध्या प्रेमरे
॥धन० ॥५॥
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श्री सिद्धाचल स्तवन.
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पिंडस्थे अरिहंतादिक तणीजी, मुद्रा आसन शुभगाकार रे ध्याता अतिशय उपगारीपणुंजी ध्यानपदस्थ थयो सुविचार रे
॥ धन० ॥६॥ निर्मल सिद्ध स्वभावे तन्मयीजी, ज्ञानादिक गुणथी थिर भावरे, सिद्ध शुद्ध गुणीगुण गावताजी, अविलंब्यो रुपस्थ स्वभावरे
॥धन० ॥ ७॥ सत्तागत आतमगुण ऐकताजी, ध्याता निज गुण पर्यायरे भेद स्वभावे थइ अभेदताजी, तन्मय तत्त्वे मोहविलायरे ॥
धन० ॥८॥ मोह क्षय थये घातिदलक्षय गयाजी, पाम्या निर्मल केवल ज्ञानरे; सिद्ध थया दसकोडि मुनिसरुजी, कार्तिक शुदि पुनम दिन
मानरे ॥ धन० ॥९॥ कार्तिक शुदि पुनिम जे सिद्धाचलेजी, वंदे पुजे धन नर तेहरे; उत्तम गति पामी शिव सुख लहेजी, थाये ते अनुपम सुख
गेहरे ॥ धन० ॥ १० ॥ सिद्धाचल सिध्या मुनिरायनेजी, गावो ध्य.वो धरि आणंदरे सद्गुरु पाठक श्री दीपचंदनोजी, शिष्य गणि भांखे देवचंदरे ॥
धन० ॥११॥ श्री सिद्धाचल स्तवन. चालो सखि जिन वंदन जइए, श्री विमलाचल अंगेरे, अनंत सिद्धि ध्यान सिद्धाचल, फरसी जे मन रंगेरे ॥चालो॥१॥ गुरुआचारी संघे सुविहित, पोते पायविहारीरे एकल आहारी भूमि संथारी, सकल सचित्त परिहारीरे ॥चालो॥२॥ श्रावक श्राविका प्रभु गुण गाति, प्रभु भक्ति अतिरातीरे; तीर्थकरने नमने उजाती, गजगति चतुर सुहातीरे ॥चालो॥३॥
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श्री सिद्धाचल स्तवन..
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जिहां मुनि कोडि शिवगेह पहोता, निज अनुभव लसलसतीरे; विषय दोष उपसम तरसि, रत्नत्रयीमें रमतीरे ॥ चालो ॥४॥ रुषभादिक जिन फरसित अंगे, फरस्या पाप पुलाइरे;
सुद्ध गुण स्मरण गुण प्रगटे, ध्यान लहर लीलाइरे ॥ चालो ॥५॥ अतीत अनागतने वर्तमाने, ए तीर्थ शिर टिकोरे; श्री शत्रुंजा भक्ते पामे, देवचंद्र पदनिकोरे || चालो || ६ ||
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श्री सिद्धाचल स्तवन.
चालो चालोने राज श्री सिद्धाचल जइए;
श्री विमलाचल तीरथ फरसि, आतम पात्रन करिए ॥ चाल ॥ १ ॥ इण गिरिवर मुनिवर कोडि, आतम तत्व निपायो; पूर्णानंद सहज अनुभव रस, महानंद पद पायो ॥ चालो ॥२॥ पुंडरिकपमुहा मुनिवर कोडि, सकल विभाव गमायो; भेदाभेद तत्त्व परिणतियी, ध्यान अभेद उपायो || चालो ॥ ३ ॥ जिनवर गणधर मुनिवर कोडि, ए तीरथ रंगराता; शुद्ध शक्ति व्यक्ते गुणसिद्धि, त्रिभुवन जिनना त्राता ॥ चालो ॥४॥ ए तीरथ फरसे भव्य परीक्षा, दुरगति उछेदः सम्यग् दरिसण निर्मल कारण, निज आनंद अभेद || चालो ॥ ५ ॥ संवत अढार चीडोन्तर वरसे, सित मृगसर तेरसीये; श्री सुरतयी भक्ति हरखयी, संघ सहित उल्लसीये ॥ चाल ॥ ६ ॥ कचरा कीका जिनवर भक्ति, रुपचंद (गुणवंत ) जीइए; श्री संघने प्रभुजी मेटाव्या, जगपति प्रथम जिणंद || चालो ॥ ७ ॥ ज्ञानानंदीत त्रिभुवन वंदीत, परमेश्वर गुण भीना; देवचंद्र पद पामे अदभुत, परम मंगल लयलीना ॥ चाल ॥ ८ ॥
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श्री वीरप्रमुर्नु दीवाली- स्तवन.
॥ श्री वीरप्रभुनुं दीवालीन स्तवन ॥
मारग देशक मोक्षनोरे, केवलज्ञान निधान ॥ भावदया सागर प्रभुरे, पर उपगारी प्रधानोरे ॥ १ ॥ वीर प्रभु सिद्ध थया, संव सकल आधारो रे ॥ हवे इण भरतमां, कोण करशे उपगारो रे ॥ वीर० ॥२॥ नाथ विहूणुं सैन्यज्यूं रे, वीर विहूणोरे संव ॥ साधे कोण आधारथीरे, परमानंद अभंगो रे ॥वी० ॥३॥ मात विहूणो बाल ज्युरे, अरहो परहो अथडाय ॥ वीर विहूणा जीवडारे, आकुल व्याकुल थाय रे ॥ वी० ॥४॥ संशय छेदक वीरनोरे, विरह ते केम खमाय ॥ जे दीठे सुख उपजेरे, ते विण केम रहेवाय रे ॥ वी० ॥५॥ निर्यामक भव समुद्रनोरे, भव अडवी सत्थवाह ॥ ते परमेश्वर विण मलेरे, केम वाधे उत्साह रे ॥ वी० ॥६॥ वीर थकां पण श्रुततणोरे, हतो परम आधार ॥ हवे इहां श्रुत आधार छेरे,अहो जिन मुद्रा साररे ॥ वी० ॥७॥ जण काले सवि जीवनेरे, आगमथी आणंद ॥ सेवो ध्यावो भवि जनारे, जिन पडिमा सुख कंदरे ॥ वी० ॥८॥ गणधर आचारज मुनिरे, सहुने एनि परे सिद्धि ॥ भव भव आगम संगीरे, देवचंद्र पद लीधरे ॥ वी० ॥९॥
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श्री नवानगर आदिजीन स्तवन.
॥ श्री नवानगर आदिजीन स्तवन ॥
नवानगरमे भेटीए जिनवर जयकारी, परमानंद महारसी मूर्ति मनोहारी. नवा० ।।१।। घणा दीवसनी हंसडी हुती मनमांहे, ते सवि आज सफल थइ प्रणमे जगनाहे. नवा० ॥२॥ दरिसण दीठे देवनां दुःख जाए दूरे, चिदानंद रस उपजे समता रस पूरे, नवा० ॥३॥ जिन मुद्रा जिनवर समी शिव साधन भांखी,
श्री अरिहंत अवलंबने पूर्णता दाखी. नवा० ॥ ४ ॥ पण संवर जिन भक्तिनो फल सरखो तोल्यो, हितसुख निश्रयपणो आगममें बोल्यो. नवा० ॥५॥ तुंगीया नगरीना श्रावके जिन पूजा कीधी, भगवइमें शंख पुरवली पूजन विध लीधी. ॥ ६ ॥ रीखभदत्त अधिकारमें उवाइ उवंगे, विहरती जिन पुरफ पूजना अधिकार प्रसंगे. नवा०॥७॥ भगवइ अंगे साधुजी जिन प्रतिमा वंदे, आवश्यकमां पूजना अनुमोदे आणंदे. नवा० ॥८॥ भत्त पयन्ना सूत्रमें नव खेत्र वरवाण्यां, महा नीशिथे पूजनां फल अद्भूत जाण्यां. नवा० ॥९॥ भगवइ अनुजोगद्वारमें निर्जुक्ति प्रमाणी, ते में पूजा चैतन्यनी वीतरागे वखाणी. नवा० ॥१०॥ संपाविओ कामेककुं जिन आगळ नमतां, संपत्ताणं उच्चर्य प्रतिमा संरतवतां. नवा० ।। ११ ।।
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श्री नवानगर आदिनीन स्तवन.
आवश्यक पंचांगनुं पुस्तक थयुं पहेलं, जे अधिकार तिहां लख्युं विधिपूर्वक वहेलं. नवा०॥१२॥ अन्य सूत्र लखतां थकां न लखुं ते विगते; ते माटे शंका कशी जिन पूजा भगते. नवा० ॥१३॥ पुस्तकारुढ जीणे कयें तसु वचन कल्लोल; चूर्णिमे पूजा कही शी शंका भाली. नवा० ॥१४॥ आगम अरथ लह्या विना आगम उत्थापे; ते तप खप करता थको नवी भव भय कापे. नवा०॥१५॥ विनय वेयावच्च दानमें हिंसा नवि लेखे, अछति हिंसा दाखवी का पूजा उवेखे. नवा० ॥१६॥ नाम निक्षेपो उच्चरी नमतां आणंदे, नाम थापना दुग भणी शे माटे न वंदे. नवा० ॥१०॥ एम आलोची चित्तमां जिन प्रतिमा वंदो, जिन शासन उद्दिपणां करतां आणंदो. नवा० ॥१८॥ शेठ विहार मुहामणो आदिसर स्वामी, वंदो पूजा भविजनां पूरण सुख कामी. नवा० ॥११॥
कलस.
एम मोक्ष कारण विषन वारण तरण तारण गुणकरी जिनराज पडिमा नमण पूजा सूत्र साखे आदरी सुचि ध्यान वाधे सिद्ध साधे कर्म कलेस सहु हरी श्री दीपचंद्र पसाय भांखी देवचंद्र दिले धरी
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समवसरणं स्तवन.
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आतमभावे रमो हो चेतन आतमभावे रमो ए आंकणी. परभावे रमतां ते चेतन, काल अनंत गमो. हो चे० ॥ १ ॥ रागादिक मलीने चेतन, पुल संग भम्यो, चोति मां गमन करता, निज आतम न दमो. हो ० ॥२॥ ज्ञानादिक गुण रंग धरीने, कर्मको संग वमो,
आतम अनुभव ध्यान धरंतां, शीव रमणीशुं रमो. हो ० ॥३॥ परमातमनुं ध्यान करतां भवथितीमां न भमो, देवचंद्र परमातम साहिब, स्वामी करीने नमो. हो० ॥४॥ इति द्रुपद संपूर्ण.
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॥ समवसरणनुं स्तवन ॥
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आज गइती हुं समवसरणमां जिन वचनामृत पीवारे,
श्री परमेश्वर वदनकमल छबी निरख निरख हरखेवारे. आ० १ ॥ तिनभुवन नायक शुद्धतम तवामृरस बुठुरे,
सकल भविक वसुधानी लाणी, मारुं मन पिण तुठुरे आ० २ ॥ मनमोहन जिनवरजी मुजने, अनुभव पियालो दीधोरे, पूरणानंद अक्षय अविचलरस, भक्ति पवित्र थइ पीधोरे. आ० ३ ॥ ज्ञानसुधा लालीनी लहेरे, अनादि विभाव विसायरे, सम्यग्ज्ञान सहज अनुभवरस, शुचि निज बोध समायेंरे आ० ४ ॥ भोली सखीयो एम शुं जोवो, मोह मगन मत राचोरे, देवचंद्र प्रभुशुं एकताने, मिलवो ते सुख साचोरे, आ० ५ ॥
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कुंभ स्थापना स्तवन.
॥ कुंभ स्थापना स्तवन ।
धरम उत्समसमै जैनपद कारण उत्तम मंगल आचरे ए, भावमंगल तिहां देव अरिहंत प्रभु एहयी परम मंगल मंगल वरे ए; तेहना नामने जाउं हुँ भामणे, खिणखिण हरख समरण करे ए, पांच कल्याणके जीम सुरपति करे, तिम जिन भक्ति भवि आदरे ए.१॥ भावमंगलतणि पुष्टता कारणें, द्रव्यमंगल भला कीजीए ए, तिहां गुणे पूर्णता इच्छता भविकजन, कुंभ थिरपूरण लीजीए ए; पदमआसन ठव्यो परम छचे ठव्यो, मंत्र पवित्रथी जपीए ए, जिनवर जिनमणि दीशि हरखभरी,हियडे पूरण कलशजथी पीये ए.२॥ माहरा नाथने परम मंगल होजो, मंगल संब चउविह भणे ए, मंगल तीर्थने मंगल चैत्यने, मंगलनेह करता भणीए; जैनशासनतणो हरख मंगल करें, तेन आनंद अति उपजै ए, चवन अवसर समे माताना गर्भमें, पूरै हरखजै संपजे ए. ३॥ तिम प्रासादनी थापना अवसरे कुंभ थापन समें हरखी ये ए, जेम संसारना मंगल करे ए तिम जिन धर्मनी वृद्धिने कारणे, श्रावक सुविधि मंगल धरे ए, परम आनंदवर धन्यता मानता गीत मंगल धरी उच्चरे ए; . देवना देवने मंगल कीजता देवचंद्र पद अनुसरे ए.
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श्री सहस्रकूट जिनप्रतिमा स्तवन.
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अथ श्री सहस्रकूट (१०२४) जिनप्रतिमा स्तवन.
देशी रसीयानी. सहस्रकूट जिन प्रतिमा वंदीये, मनपरी अधिक जगीस विवेकी सुंदर मूरति अति सोहामगी, एकसहसने चोवीस. वि० सह.
(ए टेक) १॥ अतीत अनाग ने वर्तमाननी, वय चोवीसी हो सार विवेकी; बोतेर जिनवर एकएक खेत्रमें, प्रणमीजे वारंवार. वि० सह० २॥ पांच भरत वळी एरवत पांचभे, सरखी रीत समाज विवेकी; दश क्षेत्रे थइ थाए सातसें, वीस अधिक जिनराज. वि० सह० ३॥ पंचविदेहे जिनवर शाट सो (१६०) उत्कृष्ट एहीज टेव विवेकी; जिन समान जिन प्रतिमा ओळखी, भक्ती कीजे हो सेव. वि०४॥ पंचकल्याणक जिन चोवीसना, वीसासो (१२०) तेहीजथाय विवेकी ते कल्याणक विधि| साचत्री, लाभ अनंत कहाय. वि० सह०५॥ पंच विदेहे हो हमणां विहरता, वीसअछे अरिहंत विवेकी; शाश्वताजिन रूपभानन आदिदे, चार(४) अनादि अनंत. वि० ६॥ एकसहस चोवीस जिनवर तणी, प्रतिमा एकण ठाम विवेकी; पूजा करतां जनम सफल होवे, सीझे वंछीत काम. वि० ७॥ तीनकाल अढाइ द्वीपमां, केवलनाण पहाण विवेकी; कल्याणक करी प्रभु इहां सामठां, लाभे गुणमणी खांण. वि० ८॥
सहसकूट सिद्वाचल उपरें, तीमहिज धरणी विहार विवेकी; । तेथी अद्भुत ए छे स्थापना, पाटण नगर मझार. वि० ९॥ १-७२०
६ पाटणमां तांगडीयावाडामां सहस्रफणा पार्श्वनाथजी २-१६० ३-१२० प्रमुख सात देहेरासरजी छ तेमां १ एक सहस्रकूट छे.
४- २०
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श्री सहस्रकूट जिनप्रतिमा स्तवन.
तीर्थ सकल वळी तीर्थंकर सहु, एणे पूजा ते पूजाय विवेकी; एक जीह (जीव्हा) यी महिमा एहनो, किणभातें कहेवाय. वि० १० ॥ श्रीमाळी कुळदीपक जेतसी, शेठ सुगुणभंडार विवेकी; तस सुत शेठ शिरोमणि तेजसी, पाटण नगर में दातार. वि० ११॥ तेणें ए वित्र भराव्या भावशुं सहस अधिका चोवीस विवेकी; कीधी प्रतीष्ठा पुनमगच्छचक, भावप्रभसरीस. वि० १२ ॥ सहस जिनेसर विधीशुं पूजसे, द्रव्यभाव शुचि होय विवेकी; ए भव परभव परम सुखी होवे, लहस्यें नवनिधि सोय. वि० १३ ॥ जिनवर भक्ति करें मनरंगरी, भविजननी ए छे रीत विवेकी; दीपचंद्र सम श्री जिनराजजी, देवचंद्रनी ए प्रीत वि० ॥ १४॥
इति सहस्रकूट स्तवन समाप्त ॥
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॥ पद ॥ राग होरी ॥ अजितनाथ चरण तोरे || आयो अ० ॥
तुं मनमोहन नाथ हमारो, त्रिभुवनजनकुं सुख प्यारो ॥ अरी अरी लाला त्रि० ॥ तृष्णा ताप निवारण वारो, बावना चंदनसें अति प्यारो ॥ अ० ॥ १ ॥ माहा माहांग रक्तंग करीरो, तस भेदनकुं वज्र अटारो || अ० ॥ प्रांगधरा पुरमां मनोहारो, प्रासाद बन्यो अतिसारो || अ० ||२|| समता रस वरषित घन धारो, समकित बीज ऊपावत क्यारो ॥ अ० देवचंद्र गुणि गुण संभारो, एही अशरण शरणता ऊदारो ॥ अ० ॥ ३ ॥
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श्री ज्ञान बहुमान नमस्कार.
॥ श्री ज्ञान बहुमान नमस्कार ॥
सकल वस्तु प्रतिभाशभानु निरमल सुख कारण, सम्यग दर्शन पुष्ट हेतु भवजल निधि तारण; संयम तप आनंद कंद अन्नाण निवारण, मार विकार प्रचार ताप तापीत जिन ठारण ।। १ ।। स्याद्वाद परिणाम धर्म परणति पडि बोहण, साहु साहुणी संघ सर्व आराधन सोहणः मोहतिमर विध्वंस सूर मिथ्यात्व पणासण, आतम शक्ति अनंद शुद्ध प्रभुता परगासण ॥ २ ॥
मति श्रुति अवधि विशुद्ध नाण मणपज्जव केवल, भेद पचास क्षायोपशमिक अक क्षायिक निरमल; दोय परोक्ष प्रथम तिहां दुग परतक्ष देशतः, सकल प्रतक्ष प्रकाशभास ध्रुव केवल अपर मित ॥ ३ ॥ धर्म सकलनो मूल शुद्ध त्रिपदी जिन भाशै,
बाहिर अंग प्रधान बंध गणधर सुप्रकाशैः श्री निर्युक्तिभाग्य पडिशाखा दीपैं,
चरण टीका पत्र पुष्य संशय सत्र जीपें ॥ ४ ॥
पंचांगीसार बोध को जित पंचम अंगे, नंदी अनुयोग द्वार साख मानो मनरंगे; वीर परंपर जीत अनुभव उपगारी, अभ्यासो आगम अगम निरुपम सुखकारी ॥ ५ ॥
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श्री सिद्धाचल स्तुति.
मोह पंकहर नीर सिद्धांत अबांध, देवचंद्र आणा सहित नय भंग अगाधै; ए श्रुतज्ञान सोहामणो सकल मोक्ष सुखकंद, भगतै सेवो भविकजन पामो परमानंद ॥ ६ ॥
॥ श्री सिद्धाचल स्तुति ॥
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विमलाचलमंडण जीनवर आदि जीणंद, निर्मय नीरमोही केवळ ज्ञान दिगद जे पुरख नवाणुं वार घरी आणंद, शेत्रुज गिरिशीखरे समवसर्या सुखकंद ॥ १ ॥ इण चउवीसमां रुखभादिक जिनराय,
वली काल अतीते अनंत चउवीसी थाय; ते सविइणगिरिवर आवी फरसी जाय, इम भावी काले आवसे सवि मुनिराय ॥ २ ॥ श्री रुषभ नागणधर पुंडरिक गुणवंत, द्वादश अंगरचना कीधी जेण महंत सवि आगम मांहे शेकुंज महिम महंत, भाविजिन गणधर सेवो करी थिर चित्त. ॥ ३ ॥ चक्केसरि गोमुह कपर्दि पमुह सुरसार,
जसु सेवा कारण थापि इंद्र उदार; देवचंद्र गणिभावे भविजनने आधार, सवी तिरथ मांहे सिद्धाचल शीरदार ॥ ४ ॥
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वीस स्थानक स्तुति.
॥ वीस स्थानक स्तुति ॥
अरिहंत सिद्ध पवयण आचारज थविराण, उपझाय साहु नाणसण विनयपहाण; चारित्र ब्रह्म किरिया तप गोयम जिनभाण, संजमनाणी श्रुत संव सेवो वीसे ठाण ॥ १ ॥ उत्कृष्टे जिनवर एकसो सित्तेर धीर, वली काळज धन्ये जिनवर वीस गंभीर; जिन थाय अनंत अतीत अनागत काल, ए वीसे थानिक आराधी गुण माल. ॥ २ ॥ आवश्यक बेवेला जिन वंदन त्रिणि काल, थानक पद गीणवो सहस दोय सुकमाल; काउस ग गुण स्तवना पूजा प्रभावनासार, इम शासन वच्छ : करतां भवनो पार. ॥ ३ ॥ समरीजे अहोनिशि गुणरागी सुरसाथ, जख जखणी सुरपति वैयावच्च कर नाथ; थानक तप विधिसु जे सेवे मन रंग, देवचंद्र आणाए शानिधिकरे तसु चंग. ।। ४ ॥
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गिरनार स्तुति.
|| गिरनार स्तुति ॥
यादव कुलमंडण नेमिनाथ जगनाथ, त्रिभुवण जनमोहन शोभव शिवपुरसाथ; गिरनार शिखर शिर दीक्षानाण निव्वाण, सोरिपुर नयरे चवण जनम सुखकार ॥ १ ॥ इम भरते पंचे इखते वलीसार. चोवीसी जिननी थाये जन आधार; तसु पंच कल्याणक वंदे पूजे जेह, निरुपम सुख संपत्ति निश्चे पामे तेह ॥ २ ॥ जीन मुख लही त्रीपदी गुंध्या जेह, वर अंग अग्यारह दृष्टिवाद गुण गेह; त्रिणि काले जिनवर कल्याणक विधितेह, समकित थिरकारण सेवो धरीये सनेह ॥ ३ ॥ श्री नेमिजीणेसर शासन विनयरत्त, जिनवर कल्याणक आराधक भविचित्तः देवचंद्रने शासन सानिधि कर नित मेव, समरीजे अहनिशि सा अंबाई देव ॥। ४ ॥
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॥ वडी साधु वंदना ॥
अनमःअथ तेर ढालकी बडी साधु वंदना लिख्यते॥
॥दोहा॥ अरिहंत सिद्ध साधु नमो, नमतां कोड कल्पाण; साधुतणा गुण गाईशुं मनमे आणंद आण. ॥१॥ गुण गावं गीरूवातणा मन मोटे मंडाण, गीरुआ सहेजे गुण करे सिझे वंछित काम. ॥ २ ॥ इणहीज अढी दीपमे जयवंता जगदीस; भाव करी वंदन करूं उछक मन अति लीन. ॥३॥ भावप्रधान कह्यो तिसे सबमे भावज जाण; ते भावे सबकुं नमुं अनंतो चोवीसी नाम. ॥४॥ उठ प्रभाते समरो सदा साधु वंदना सार; गुण गावो मोटातणा पाप रोग सब जात. ॥५॥
॥ ढाल १ ली ॥ चोपाईनी चालमे ॥ पांच भरत पांच इवत जाणा, पांच महा विदेह वखाण; जेह अनंत हुवा अरिहंत, कर जोडी प्रणमुं ते संत. ॥१॥ जेहि वडा विचरे जिणचंद, खेत्र विदेह सदा सुखकंद; कर जोडी प्रणमुं तस पाय, आरत विधन सहु टली जाय. ॥२॥ सिद्ध अनंता पनरे भेद, ते प्रणमुं मन धरी उमेद; आचारज प्रणमुं गणधार, श्री उवझाय सदा सुखकार, ॥३॥
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वडी साधु वंदना.
साधु सदा प्रणमुं केवली, काल अनादि अनंते वली;
जेहि वडा विचरे गुणवंत साधु साधवी सहु भगवंत. ॥४॥ ते सहु प्रणमुं मन उल्लास, अरिहंत सिद्ध ने साधु प्रकास; साधु वंदना करुं हितकार, ते सांभलजो सह नरनार ||५|| ॥ दोहा ॥
इणही जंबू द्वीपमे भरतज नामे क्षेत्र,
जिनवर वचन लही करी निर्मल कीधा नेत्र ॥ १ ॥ तिहां चोवीसे जिण दुवां रीषभादीक महावीर, पूर्व भाव करी प्रणमीये पांमीजे भवतीर ॥ २ ॥ पूर्वभव चक्रवर्त्ति थया, रिषभदेव नरइंद, अजितादिक तेवीस जिण, राजा सह मंडलीक ॥ ३ ॥ वृत लेई पूर्व चवदे are avat मनरंग, पूर्वभव तेवीस जिण भण्या अग्यारे अंग. ।। ४ ।। वीस स्थानक तिहां सेवीया, बीजे भव सुरराय, तिहांथी चवी चोवीस जिण, ते हुवा प्रणमुं पाय. ॥ ५ ॥
॥ ढाल २ जी ॥ नमणी रमणी ॥ एहनी देशी ॥ श्री चक्रवर्त्ति पूर्वभव जाण, वैर नाम तिहां नाम वखाण; ऋषभदेव प्रणमुं जग भाग, गुण गावतां हुवे जन्म प्रमाण. ॥ १ वीमराई पूर्वभव नाम, अजित जिणेसर करूं प्रणाम; विमलवाहन पूर्वभव राय, श्री संभव प्रणमं चीन लाय. ॥२॥ पूर्वभव धर्मसी राजान, अभिनंदन प्रणमुं शुभ ध्यान; पूर्वभव थया सुमति प्रसिद्ध, सुमति जिणेसर प्रणमुं सिद्ध. ॥३॥ पूर्वभव राजा धर्ममित, पद्मप्रभुजीने वांदु नित्यः पूर्वभव जे सुंदरबाहुं, तेह सुपास प्रणमुं जगनाहं ॥४॥
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वडी साधु वंदना.
पूर्वभव इगबाहु मुनिस, चंदाप्रभु प्रणमुं निसदीस; जगबाहु पूर्वभव जीव, प्रणमं सुबद जिगंद सदीव ॥५॥ लटबाहु पूर्वभव जास, श्री शीतल प्रणमुं ऊहास; दीनराई कुलतिलक समान गुण श्री श्रेयांस प्रवान ॥६॥ इंद्रदत्त मुनिवर गुणवंत, वासुपूज्य वांडू भगवंत पूर्वभव सुंदर बडभाग, बांबू विमल घरी मन राग ॥७॥ पूर्वभव जे राय महिंदर, तेह अनंतजिन मग सुखकर; साबु शीरोमण सिंहस्थराय, धर्मनाथ वांदू चितलाय. ॥८॥ पूर्वभव मेचरथ गुणगाउं, शांतिनाथ जिनवर चित लाउं; पूर्वभव ऋषीमुनि कहीये, कुंथुनाथ प्रणम्यां सुख लहीये. ॥ ९ ॥ रायसुदर्शन मुनि विख्यात, वांदु अर्जुन त्रिभुवन तात; पूर्वभव नंदनमुनिचंद, ते प्रणमं श्री मल्लिजिणंद ॥१०॥ सिंहगिरी पूर्वभव सार, मुनि सुवृतजिण जगदाधार; अदीन सत्रु मुनिवर शिव साथ, करजोडी प्रणमुं नमिनाथ ॥ ११ संखनरेसर साधु सुजाण, रहनेमि प्रणं गुणखाण; राय सुदर्शन जेह मुनिस, पार्श्वनाथ प्रणमुं निसदीस. ॥१२॥ छठे भव पोटिल मुनि जाण, कोडी वरस चारित्र प्रमाण; चोथे भव नंदन राजान, कर जोडी प्रणमुं वर्द्धमान. ||१३|| चोविसे जिनवर भगवंत, ज्ञानदर्शन चारित्र अनंत ; वारंवार करूं परणाम, अष्टकर्म क्षय करवा काम. ॥१४ ॥ ॥ दोहा ॥
मेरु थकी उत्तर दिसे, एहिज जंबु द्वीप, इखषेत्र सोहामणो, जिणविध मोती सीप. ॥ १ ॥ जिहां चोवीसे जिण हवा, चंद्रानंन वारिषेण, एही चोवीसी में सही ते
प्रणमुं समसेण ॥ २ ॥
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वडी साधु वंदना.
॥ ढाल ३ जी ॥ राग बेलावली ॥ ए देशी ॥
चंद्रानंन जिण प्रथम जिणेसलं, दुजा श्री सुचंद भगवंतके अगीयसेण तीजा तीर्थंकर, चोथा श्री अश्रीनंदिषेण अरिहंतके; त्रिकरण सुद्ध सदा जिण प्रणमुं. ॥ १ ॥ ईखखेत्र तणारे चोवीस के, ऋषभादिक स्वामी अनुक्रम हूवा; एकसमे जिनं हूवा जगदीसके. त्रि० ॥२॥ पांचमा निसीदिन थुणीजे, बलिहारी छटा जिणरायके सोमचंद सातमा जिन समरु, थुतिसेण आठमा सुखसायके. ॥३॥ नवमे अजीयसेण जिन प्रणमुं, दसमा श्री सीवसेण उदारके; देवसभा इग्यारमा ध्याउं, बारमा निषत सहित सुखकारके. त्रि०॥४ तेरमा असंजल जिणतारके, चौदमा श्री जिणनाथ अनंतके; पंनरमा उपसांत नमिजे, सोलमा श्री गुप्तसेण महंतके. वि० ॥५ सत्तरमा अतिपास सुणीजे, प्रणमुं अटारमा श्री सुपासके; उगणीसमा मरुदेव मनोहर, वीसमा श्रीधर प्रणमुं हुंल्लासके.त्रि०॥६॥ इकवीसमा समकोठ सुहंकर, बावीसमा प्रणमुं अगीसेणके; तेवीसमा अगीपुत्र अनोपम, चोवीसमा प्रणमुं वारीखेणके. त्रि०॥७ चोथे अंग थकी ए भाख्या, अडतालीस जिणेसर नामके छठे अंग कह्या मुनि सुत्रत सुखविपाक जगबाहु स्वामके. त्रि०॥ जिण पचास ए प्रवचन वचने, एम हुवा अनंत अरिहंतके; विहरमान वलि जिनवर विचरे, केवली साधु सहु भगवंतके.त्रि०॥९ सिद्ध थया वली संप्रति तिचरे, करजोडी प्रणमु तसुपायके हवे जेआगम नाम सुणीजे, ते मुनिवर कहिस्युं चितलायके.त्रि०॥१० प्रथमज जिनवर गणधर समणि, चक्रवर्ति हलधर बली तेहके; पूर्वभव तसु नाम जगगुरु गायस्यु, चोथा अंग थकी तेहके. त्रि०॥११
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वडी साधु वंदना.
९३.३
चोवीस जिन तीर्थ अंतर, क्रोड अनंत हुवा मुनि सिद्धके; कर जोडी प्रणमुं प्रातसम, नाम कहुं हवे जे परसिद्ध के. त्रि०॥१२
।। ढाल ४ थी । राग धन्याश्रीनी देशी ॥
प्रहसम प्रणमुं ऋषभ जिनेस, श्रीमरुदेवा सिद्धसोहंकरूं, चौरासी गणधार शीरोमणी, ऋषभसेन मुनिवर प्रणमु सुखमणी ॥ १ ऊलाली ॥
सुखमणी प्रणम् बाहुबलमुणी सहस चौरासि मुनि, वीस सहस प्रणमु केवली वली सिद्ध थया त्रिभुवन धणी; तीन लाख समणीवर नमु नित नाम ब्राह्मीसुंदरी, सहस चालीस केवली वली नमु श्रमण चित्त धरी ॥१॥
ढाल ||
आरिसेघर भरतनरेसरु, ध्यान बलेकर केवल लहिवरु; सहसदसे संघाते नरपती, विचरे जगमे प्रणमं शुभमति. ऊलाली ॥
सुभमति जंबुद्वीपे पन्नती वखाणीये,
भरतनी पेरे बल केवल खेत्र इव जाणीये;
वंदीये चक्री इखौ मुनि भावसु नित मनरली, हवे भरत पाटे आट अनुक्रम वंदीए नृप केवली. ॥२॥ ढाल ||
श्रीआई जसमहाजस केवली, अइवल महीवल तेजवीरिये वली; कीरत विरीये दंड वीरिये घ्याईये, जलदिरीय मुनिनाव गुण गाईये. ऊलाली ॥
गाईये ताणां (घणा) अंग मुनिवर एह भाषए संजति, श्री ऋषभ ते बले अजित अंतर हवे सुणो कहु सुभमति;
ર
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वडी साघु वंदना.
पचास लाख कोड सार तिहां असंख्य केवली, जेह यया मुनिवर तेह प्रणमुं असुभ दुरमति निरदली. ॥३॥
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ढाल ||
अजित जिणेसर ने गणधरूं, घुर प्रणमुं सहसेण सुहंकरूं, प्रणमु प्रहसम फगुसाहुणी, हरखस्युं बांदु सगर महामुनि. ऊलाली ॥
महामुनि सगर तीस लाखे कोड अंतरे जे थया, केवली मुनिवर तेह प्रणमुं दोय कर जोडी सया; श्री संभव चारु मुनिवर चित समायिकगुण रमु, लाख दसेही कोडसागर अंतरे सिद्ध सहुं नमुं ॥ ४ ॥ ढाल ॥
श्री अभिनंदन प्रणम् गुणपति, वैरनाग मुनि अजयासती; सागर लाखे नव कोड अंतरे, केवली थया वंदीये शुभपरे. ऊलाली ||
सुभपरे सुमत जिणेसर गणधर चमरकास विअजया, नेऊ सहस कोड सागर विच नमुं जे सिद्ध थया; श्री पद्मप्रभु सीस नांमी सुझीये ऋषी वंदीये, साहुणी तेरई नामे प्रणम्यां दुःख दूर निकंदीये. ॥ ५ ॥
ढाल ||
कोड सहस नयसागर विच वली, मणमुं मुनिवर जे थया केवली; श्री सुवास जिणविध गुणदधि प्रणमुं, सीमा समणी गुणनिधि. ऊलाठी ॥
गुणनिधि नवसे कोडसागर अंतरे जे केवली, तेह प्रणमुं भावस्युं ए दुःख जावे सहू टली;
ફર્
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वडी साधु वंदना.
श्री चंद्रप्रभुदीन गणधर सती समणा ध्याईये, नेउं सागर कोड अंतरे केवली गुण गाईये.
॥ढाल ५ मी॥ सफल संसार अवतार ए हु गिणुं ॥ए देशी॥ सुविधि जिणेसर मुनीवरा ए,
साहुणी वंदिये चित्त उछाह ए; अंतरे कोड नव सागर सह जिहां,
कालिकसूत्र नी वीह भाष्यो तिहां. ॥१॥ स्वामी शीतल जिण साधु आणंद ए,
सती सुलसा नमु चित्त आणंद ए; एककोड सागर तणो अंतरो कह्यो,
एकसो सागर ऊणो कर संगृह्यो. ॥२॥ सहस छावीस साठ लाख उपरे,
का लेकसवनी छेद ईण अंतरे; श्री श्रेयांस मुनि गोथ वधाईये,
धारणी साहुणी कले वर्णवी चित्त लाईये. ॥३॥ पूर्व भव गुरु सावु कहु संभूतए,
वीस नंदी वली सुगुण संयुत ए; अचल मुनिधर नमुं पढम हलधरा ए,
बंधव नृप केसव सीरधरा ए. ॥४॥ चोपन सागर वीच थया केवली,
वंदीये सूत्रनी व्रीहभाष्यो वली; इंम विछेद विच सात जिण अंतरे,
जाणीये शांति जिणवर लखे इणपरे. ॥५॥
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वही साधु वंदना.
NmAhavan
स्वामी वासुपूज्य जिण साधुश्री धर्मधर,
साढणी वली जिहां धर्णी उपद्वहर सुगुरु सुभद्र सुबंधव वखाणिये,
बीजे मुनि बंधव त्रिपृष्ट हरि जाणीये. ॥६॥ तीस सागर वीच अंतरे जे घया,
केवली वंदीये भाव भगतेसया; विमलजिन बंदीये साधु सीमंधर वली,
समणी धरणी धरा आगम सांभली. ॥७॥ गुरु सुदरसण मुनि सागरदत्त ए,
भवहर बंधव भद्र सिवपत्त ए; नव सागर बीच अंतरे केवली, .. जे थया ते सह बंदीए वलीवली. ॥ ८ ॥ स्वामी अनंतजिण प्रणमीये जसुगणी,
समणी (प्रेमे) नमु सुगुरु श्रेयसमुनि सीस अशोकसु प्रणमुं प्रभयती,
भ्रात पुरुषोतम केसव नृपति. ॥ ९ ॥ सागर चारनो अंतरो भाखीये, __ केवली वंदीने सीव सुख चाखीये; जिणवर धर्म और गणधर कहु,
सती समणां सेवा वांदी सिव सुख लहु, ॥१०॥ पूर्वभव कृष्णगुरु ललतमु सीस ए,
राम प्रणमुं सुद्रसण नीसदीस ए; बंधव पुरुषसींह केसव भयो,
आश्रव पांच सुमर पुढवी गयो. ॥ ११ ।।
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वडी साधु वंदना.
-noranar.nnnnnnnnnnnyr:rvm
सागर तीन बीच आंतरे भांखीये,
पुण्य पल्योपम ऊंणो करि दाखीये; तिहांकणे रायरिखीमघव मुनिवर भयो,
जै धन छोडीने सुद्ध संयमी थयो. ॥ १२ ॥. चोथो चक्रिसर सनत कुमार ए,
वंदिये अंतकिरिया अधिकार ए; इण अंतर मुनि मुक्ति गयाजिके,
केवली वंदिये भाव भगततिके. ॥ १३ ॥ ॥ दाल ६ट्ठी ॥ वीर जिणेसर चरणकमल ||
कमलाकरवासी ।। ए देशी ॥ सोलमा श्री शांति नमु चक्री जिनराया, चक्रायुधगणि समणिसु प्रणम्यां सुखपाया; पूर्वभव गंगदत्त गुरु तसु सिष्य वाराह, बंधव पुरुष पुंडरिक राम आणंद उछाह. ॥ १ ।। अर्ध पल्योपम अंतरे ए सिद्धा बढु भेद, तेह मुनिसर वंदतां नहि तिरथे छेदः चक्री श्रीकुंथु नमुं संभव गणधार, अझुक अज्जा वंदतां हुवे जेजेकार. ॥ २ ॥ सागर गुरु धर्मसेन सिस नंदन हलधार, बंधव केसवदत्त नाम सातमो विचार, कोड सहस वरसे करि ऊणोपलिये चौभाग, इण अवसर सौ सिद्ध बहु वांदु धरि राग. ॥ ३ ॥ अर्जुन चक्री सातमो ए कुंभ गणधर गाउं, रुषिया समणि बंदता ए सीवसंपत पाउ; 118
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वडी साधु वंदना.
कोड सहस वर्ष अंतरे ए सिद्धा मुनिवृंद, सातमी नरक मूभूम चक्री पहुत्यो मतिमंद. ॥ ४॥ मल्लिजिनेसर वंदिए अभिनय मुणिंद, गणति वंदु चरण कमल प्रणमु सुखकंद, सहस पंचावन साधवी साधुसहसचालीस, बत्तिससोमुनि केवली प्रणमुं निसदीस. ॥५॥ मल्लि जिनेसर पूर्वभव सही वली अनगार, तात वलि तमु वंदीये बली मुनिवारमवार, अचल जीव थयो पडिबुध धर्ण चंद्र छाया, पूर्ण जीवते संखवसुं रूपी कहाया. ॥ ६ ॥ बेस मनते अदिन सत्रु अभिचंद्र जित सत्रु, लहि केवल मुक्ते गया पूर्व भव मित्रु; मुनिवर नंदन नंद मित्र सुमित्र वखाणु, बाल मित्र वली नाण मित्र अमरापत आणूं. ॥७॥ अमरसेण महासेण आठे नाय कुमार, मिलिसंगाते साध थया अंग छठू विचार; अंतरे इहां वली जाणीये लाख चोपन्नवास, केवलि तिहां बहुवेदीये धरी हर्ष उल्लास. ॥ ८ ॥ बंदु जिणेसर वीसभा मुनिसुवृतस्वामी, गणघर इंद्र कुंभ पुस्फवंतो प्रणमु शीरनामी; सुरवर सातमे कप्प थयो मुनिवर गंगदत्तो, कीर्तिसिंह महेन्द्रपणे सुरश्रीय संपत्तो. ॥ ९ ॥ रायश्री महापउमचक्री वांदु कर जोडी, समुद्र गुरु अपराजीयो ए गाउं मनमोडी;
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वडी साधु वंदना.
राम रुषीश्वर वंदीयेए नाम पौम जेह, केसव नारायण तणोए बंधव कहुं तेह. ॥ १० ॥ लही केवल मुक्ते गया आठ बलदेव, नवमो सुरसुख अनुभव लहेसे शिवसुख हेव, मुनि सुत्रत नमी अंतरो ए वर्ष लाख छ होइ,
केवली सिद्धा तेह प्रणमुं सूत्र जोइ. ॥ ११ ॥ ॥ ढाल ७ मी ॥ श्री नवकार जपी मनरंगे ॥ ए देशी ॥ एकवीसमा श्रीनमिजिन वांदु, गणधर सुभपरधानरी माई। समणी अमीला गुणगावंता, सफल हुवे निज ज्ञानरे माई.॥१॥ श्री जिन सासन मुनिवर वंदु ॥ ए आंकणी ॥ भक्ति निज शीर नामरी माई, कर्म हणीने केवल पाम्या; पहुत्या शीवपुर ठामरी माई, श्री नवनिध चौदे रैणजिण त्यागी; चक्री श्री हरिसेगरी माई, आश्रव छंडी संवर मंडी; वेगेवरी सिवजैनरी माई. श्री० ॥२॥ वरस वलि इहां पंचलख, अंतर तिहां चक्री जयरायरी माई; वली अनेरा मुक्ति पहोत्या, ते वंदु मन लायरी माई. श्री०॥३॥ गौतम समुद्र सागर गाउं, गंभीर थंभीर उदाररी माई .. अचल कंपील अक्षोभ प्रसेण, दशमो विष्णुकुमाररी माई.श्री॥४॥ पोसम प्रणमुं श्री नेमीश्वर, समण ते सहस अठाररी माई; वरदत्त आदि मुनि पनरे, वांदु केवल धाररी माई. श्री० ॥५॥ अक्षोभ सागर समुद्र वंदु, हेमंवत अचल सुचंगरी माई धरणि पुरिण अभिचंद आठमो, भण्या इग्यारे अंगरे माई.श्री०॥६
अंधक विष्णुसुत धारणी अंगज, मुनिवर एह अठाररी माई.श्री०॥७
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वडी साधु वंदना. वसुदेव देवकी अंगज छऊ, आणीसेण अणंतसेणरो माई; अजिसेण ने अगिहयरिपु, देवसेण सत्रुसेणरो माई. श्री० ॥८॥ सुलसाना घरे सुरजोगे, वधीरमन वृत्तीसरी माई; छंडी छठ तप चउदश पूर्वी, संयम बरसे वीसरी माई. श्री० ॥९ वसुदेव देवकी अंगज आठमो, मुनिवर गजसु कुमालरी माई; सहि परिसहोमुक्ति पहोत्यो, ते वंदु त्रिकालरी माई. श्री० ॥१० सारुण दारुण कुमर अणाढी, चउदे पूर्व धाररी माई; वीस वर्ष संयम आराधी, कीधो कर्म संहाररी माई. श्री० ॥११ जाली मयाली ने उवयाली, पुरिससेण वारीसेणरी माई; बारे अंगे सोला वरसे, पाल्यो संयम तेणरी माई. श्री० ॥१२ वसुदेव धरणी अंगज आठे, रमणी तजी पचासरी माई; सुमता भावे शिवपुर पहोत्या, प्रणमुं तेह उल्लासरी माई. श्री०॥१३ सुमुख दुमुख ने कुवर ए वंदु, बलदेव धारणी पुतरी माई; वीस वरस संयम धर सीध्या, चउदे पूरव सुतरी माई. श्री०॥१४ रुषमणी कृष्ण कहु कुमर प्रद्युम्न, जंबूवती सुत सांबरी माई; प्रद्युम्न सुत अनिरुद्ध अनोपम, जासवेदरवी अंबरी माई. श्री०॥१५ समुद्रविजय शिवादेवीरानंदन, सचनेमी दृढनेमरी माई; बारे अंगे सोला वरसे, रमणी पचासे तेमरी माई. श्री० ॥ १६ समुद्र विजय सुत मुनिरह नेमि, ए सहु राजकुमाररी माई कर्म हणीने मुक्ते पहोत्या, ते प्रणमु वारंवाररी माई. श्री०॥१७
आरज्यां जक्षणी आददेसि क्षणी, समणी सहस चालीसरी माई; साधव्यां सिद्धी तीन सहस ते, वंदु कुमति टालरी माई श्री०॥१८ पौमा गीरीने गंधारी, लखमणा सुमांनांमरी माई; जंबूवती सतभामा रुखमणी, हररमणी अभिरामरी माई. श्री०॥१९
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बडी साधु वंदना.
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मूलसरी मूल दत्ताविउ, संब कुमररी नाररी माई अंतगढ अंगे ए सहु भाखो, पामी भवनो पाररी माई. श्री०॥२० उत्तराध्येन राजेमती सती, संयम सीलरी खाणरी माई; प्रतिबोधी रहनेमि पाम्यो, सासता सुख निखाणरी माई.श्री०॥२१
॥ ढाल ८ मी । गौतम समुद्र कुमार सागर गंभीरा
॥ए देशी ॥ थावच्चा सुत सुखसे लग आद दे, पंथक प्रमुख मुनि पांचसोए, मास संलेषणां करी तप अति वणां, पुंडरीक गिरी सिवपुरवों ए; युधिष्ठिर भीम अति बली, अर्जुन नीकुल सहदेवजी ए, राय श्रीपरिहरी, सुध संयम धरी, साधुजी शीवपदवी भजीए॥१॥ चौद पूर्व धरी थीवर धर्मवोष, धर्मरुचि सीस गुण भर्यों ए, नाग श्रीब्राह्मणी वीष दीयो पापणी, तुंबांनो मास पारणो कीयोए; सर्वार्थ सिद्ध अवतरी तद नर भव करी, क्षेत्र विदेहमे सिव गयोए, ते मुनि वंदतां कर्मवली नंदतां, जन्म जीवीत सफलो थयोए॥२ समणी गुवालीया तीण सुख मालीयां दीपोयाता सहुगुण भणुए, तीम वली सुव्रता द्रौपदी संयता, नेम सासण गुण धुंणुए। विमल जिन अनंत अंतरे राय महि, बलदेव पदमावतीए, तासते अंगए कुमर विरङ्ग ए, तरुणी बत्तीस तरुणी पत्तीए ॥३॥ ताम सिद्धत्थ गुरु पास संयम बरु, ब्रह्मलोके सुर उपन्यो ए, चवी बलदेव धरे रेवती उपद्रव रे, निषढ नाम सुत संपनी ए; नेम पाई अनसरी अथिरधन परहरी, रमणी पंचासतजी व्रत ग्रह्योए करी बहु समदम वरस नव संयमे, पालीने सर्वार्थ सिद्ध लह्योए॥४
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वडी साधु वंदना.
क्षेत्र विदेहमे केवल संयम, सिद्धही सोले ते मुनी ए, इण परि अनीवह दोए गतीस सहु यति कहु गुण थूणीए; दसरह द्रढ रहे महा धनुतेह, सतधनु गुण भुज मन वस्याए, नवधनु दसधनु सहि धनुमुनि एह भारवीयो, सूत्र वनही दशाए॥५ पूरव भव हरगुरु नाम दुसगलेण, ललत नाम ते पूरवभवे ए, राम बलदेव वली नवमो हलधार, ब्रह्म लोके सुर अनुभवे ए; चविजिण तेरमो नाम निकसाय, थाय सीसही सुरतरु समोए, बंधव केशव एक अवतार, अमम होसी जिण बारमोए ॥६॥ सहसबले त्यांसियां सातसे भाषीयां, वरस पंचास इहां अंतरोए; तिहां वले चित्तमुनि सिद्ध संपत्तसु, नाम लेईने कीरत करूं ए, पूर्वभव बंधव चक्री ब्रह्मदत्त, सातमी नरक गयो मरी ए; ईण अंतरे वली नमुं, बहु केवली वेगेसिव सुंदरी ज्यां वरीए ॥७ ॥ ढाल ९ मी ॥ रामचंद्र के बागमें चम्पो मोरी रहोरी
॥ए देशी॥ तेवीसमा जिन तारक, पुरसा दाणीय पास, मुनिवर सोले सहस, गणधर आठहुलास; आज दिने सुभ मुभ धीक, वांदु बासठ नाम, वली ब्रह्मचारी सोमल, श्रीधर करूं प्रणाम ॥१॥ वीरमइ जस आदि, सिद्धा सहस प्रमाण, तेह मुनिवर वंदतां, होवे परम कल्याण; साधवी संख्या सह अडतीस, सहस वखाणूं, पुष्प चूलादि सहस दो, सिद्धी ते मन आणु ॥ २ ॥ समणी सुपासी यासी भुसी, भासी धर्म चौजाम, ए अधिकार कह्यो, श्री ठाणांग सुठाम;
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चउदस पूर्वी वली, चौनाणी केसी कुमार, परदेशी प्रतिबोधियो, कीधो बहु उपगार. ॥३॥ वरस अढाई सो अंतरो, सिद्धा साधु अनेक, ते सौ वंदु सुविनयसु, आणी नित्त विवेका मुनिवर चौदे सहस, गुरु प्रामुं श्री नहावीर, सातसो केवली वंदीये, गणधर एकादस धीर. ॥४॥ इंद्रिभूति अग्निभूति, तीजा बांडु वायुभूति, विगत सुधर्मा वंदतां, मममति निर्मल होई मंडीपूत मोरी पूत, प्रकंपित नित सीवदास, अचल प्रातमेतार्य, प्रणमुं श्री प्रभास. ॥५॥ वीर गए वीर जसा नृप, संजइणी जनेय, सेतन संब उदायण, नरपत संख कहाय; वीर जिणेसर आठेइ, दिक्षा राई जाण, मुनिवर पोटिल वांदतां, गोत्र तीर्थंकर ठाण. ॥ ६॥ . पालक श्रावक पुत्र ते, वांदु समुद्र पाल, पुन्य ने पारे दो क्षय करी, सिध्या साधु दयाल नयरी सावत्यी दोउ मिल्या, केसी गौतम स्वामी, शिक्षारि संका काढने,पंच महाव्रत लहवरिया शीर नामी.॥७ ॥ ढाल १० मी ।। अरणक मुनिवर चाल्या गोचरी
॥ए देशी ॥ महा कुंड नयरिनो अधिपति, नाहण कुल नाम चंदोजी; वीर जिणेसर तात जगगुण नीलो, ऋषभदत्त मुणिंदोजी. ॥१॥ नितनित वांदु मुनिवर ए सहु, त्रिकरण सुध त्रिकालोजी; विधसु देई तिन प्रदक्षिणा, करु अंजलीनिज भालोजी.नि०॥२
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वडी साधु वंदना.
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राई उदाई सिंह दस विरनो, निर्मल संजम धारोजी; सेठ सुदर्शन मुनि मुगते गयो,सुणी महाबल अधिकारोजी.नि०॥३ काल संवेगी गंगायो गणी, पिंगल ने शिवराजोजी; काम उदये अवंतो मुनि, वंदता सीजे काजोजी. नि० ॥४॥ मकाई मुनिक्किम वंदीये, अरजुन माली हुल्लासोजी; काशव मघ धर जाणीये, केवलरूप कैलासोजी. नि० ॥५॥ मुनि हरीचंद बारतिये वली, सुदर्शन पूरण भेदोजी; साध समण भद्र समता आदरे, सुपईठ समय मंदोजी.नि०॥६॥ मेष मुनीश्वर जैवंतो मुनि, राय ऋषी अलक्षोजी; श्री जिण सीस ए सहु मुगते गया, सेवे सुरनर सक्कोजी.नि०॥७॥ सहस छत्तीसे समणी चंदणा, आदे चउदसे सिधीजी; देवानंदा जननी वीरनी, केवल ज्ञाने समिंदीजी. नि० ॥८॥ नितनित वंदु समणी ए सहु, समणी जैवंती पढम सिझ्या तरी; सिद्धां केवल पामीजी, नंदानंदवती नंदीतरा वलीनंदसेणीया
नामोजी. नि० ॥९॥ मरुतसमरुता महामरुता नमु, मरुदेवा वली जाणीजी; भद्रासुभद्रा सुजया जिनतणी, पाली निर्मल आणीजी. नि०॥१० समणोसमणी भुइ दोनानमुं, राणी श्रेणकराईजी मास संलेषण तेरे सिद्ध थई, प्रणम्या पातीक जायजी. नि०॥११ काली सुकाली महाकाली नमुं, कन्या सुकन्या तीमोजी; महा कन्या वीर कन्या साहुणी, राम कन्या सुद्ध नेमोजी.नि०॥१२ प्रियसेण कन्या महासेण कन्या, ए दश श्रेणिक नारीजी; निजनिजनंदन काल सुणे करी, लोधो संयम भारीजी.नि०॥१३ ए दश समणी ते पेरणावली, आदे दश प्रकारोजी; लहि केवल ए सऊ मुक्ते गई, ते बंदु बहवारोजी. नि० ॥१४॥
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बडी साधु वंदना.
॥ ढाल ११ मी ॥ सुखकारण भवियण समरी नीत
नवकार ॥ एहनो देशी ॥ श्री धर्मथोक मुनीश्वर, महियल गुरु सुतधारः जिण पूछयो रे हो, लोकालोक विचार. ॥ १ ॥ वेसाले सावए, पिंगल नाम निहंतः । पर वायक पूछया, खंधक समय पहंत. ॥ २ ॥ काली पुत्र मेहल, आणंद ऋषयो ज्ञान वले कासव चोथी, थिवरां पास संतान. ॥ ३ ॥ मुनि तीस कुरुदत्त, वली नियंतो पुतः । धन नारद पुत्र मुनि, साम हती संयुत्त. ॥ ४ ॥ मुनि क्षत्र सर्वण मुइ, क्षीपर कही आणंद, जिन सीसो ल्याधो, धन धन सिही मुणिंद. ॥५॥ वली पुछया जिनने, लेश्यादिक बहु भेद; गुण गाउं महा मुनि, माकैडो पुत्र उमेद. ॥ ६ ॥ हवे श्रेणिक सुत कटु, जाली कुवर मयाली;
अयालि पुरससेण, वारिसेण आपदा टाली. ॥ ७॥ देह दंतने लठ दंत, धारणी नंदण होयः वेहलने बेघास, चेलणा अंगज होय. ॥८॥ ईक नंदा नंदण, मुनिवर अभय महंत; देहसेणने महासेण, लठदंतने गुढदंत. ॥ ९॥ सुध दंत कुमर हल, द्रुमने द्रुमसेण; गुण गाऊं महा द्रमसेण, सिंहने सिंहसेन. ॥ १० ॥ मुनिवर महासेन; पुन्यसेन परधान; ए धारणी अंगज, तेजे तरुण समान. ॥ ११ ॥ 119
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वडी साधु वंदना.
नृप श्रेणिक नंदन, इय दस तेरे कुमार; आठ आठ रमणी तजी, अनुत्तर सुर अवतार ॥१२॥ तिण अवसर नयरी, काकंदी अभिराम; तिण पूरव देशे भद्रा, सारथवाही नाम. ॥ १३ ॥ तसु नंदन धन्नो, सुंदर रूप निधान; तिन परणी तरुणी, बत्तीस रंभ समान. ॥ १४ ॥ जिन वयण सुणीने, लोधो संयम जोग; मुनि तरुणपणेमे, छंड्या रसना भोग. ॥ १५ ॥ नित छठ तप पारणो, आंबीले भुत्त भात; जस समणवणी मग, कांई न वंछे तिलमात. ॥ १६ ॥ अति दुक्कर तपस्या, आराधी नव मास; एक मास संथारे, सर्वार्थ सिद्ध वास. ॥ १७ ॥ काकंदी मुणि क्षत्त, राजगृही सरीदास; पेलक ए बेउं, एकण नगर हुल्लास. ॥ १८ ॥ राम पुत्रने चंद्रमा, साकेतपूर वर ग्राम; पुटीमां पेढा ले, पुत्र वाणीयां ग्राम. ॥ १९ ॥ हथणापुर पोटिल, सह ए धना समान; तरुणी तप जिणनी, संयम वर सीमान. ॥ २० ॥ हवे वहल कुमर कहु, राजगृही आवास; सर्वार्थ सिद्ध पहतो, धर संयम छई म्मास. ॥ २१ ॥ एक भव शिवगामी, ए श्री जिनवर सीस, सहु नवमे अंगे, भाख्या मुनि तेतीस. ॥ २२ ॥ हवे पौम महा पौम, भई सुभद्र वखाण; पौमभद्र ने पौमसेन, पौम गुप्त मन आण. ॥ २३ ॥
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वडी साधु वंदना.
vara
नलिणी गुल्म आणंद, नंदन एह मुनिजान; कालादिकना सुत, कप्पवडंसीया ठाण. ॥ २४ ॥ मुनि उद्ग पूछया, गौतमने पचखाण; ची जामथकी कीयो, पंचतणी परिमाण. ॥ २५ ॥ जिणे जिन मत मांडी, छंडो कुमत अनेक; ते आद्र कुमर मुनि, धन धन बुद्ध विवेक. ।। २६ ॥ गर्व भाली बोध्यो, संजयी नृप अणगार; मुनि क्षत्री भाख्था, बहुविध अर्थ प्रकार. ॥ २७ ॥ मही मंडल विचरे, विगत मोह अमाथ; गुण गावंता अहोनिस, संपजे शिवपुर साथ. ॥ २८ ॥ नृप श्रेणिक नंदन, मुनिवर मेव सुजाण, तज आठ अंतेउर, उपन्यो विजय विमाण. ।। २९ ॥ अपमाणी रैणा, आदर्यो संयम जेहा जिन पालक मुनिवर, सोहम सुर थयो तेह. ॥ ३० ॥ हरि चोर चीलायतो, सुसमा तात ते धन्नो; आराधी संयम सोहम, सुर उपन्नो. ॥ ३१ ॥ श्री वीर जिणेसर, सासण मुनिवर नाम: निज भक्ते गाउं, तेहतणा गुण ग्राम. ॥ ३२ ॥
॥ ढाल १२ मी ॥ विशालीया पिंगल ॥ ए देशी ॥
धर्मघोष गुरु सीसदत्त, मासने पारणे तेह सुपुत्त, प्रतिलाम्यो सुभ चित्त, सुमुख थयो भव बिय सुबाहु; सुर थयो संजम ग्रही साहु, गुण तसु गाउं नित्त. ॥१॥
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वडी साधु वंदना.
श्री जुगबाहु जिणवर आवे, विजय कुमर प्रति लाभ्यो भावे, बीजे भव भद्र नंदी, भोगतजी थयो साधु मुणांद; करी संलेषणा लह्यो सुख वृंद, गुण तमु गात आणंद. ॥२॥ ऋषभदत्त पहिले भव संत, तिन प्रति लाग्यो मुनि पुष्पदंत, तिहांयी थयो सुजात, तृण सम जाणी सह रिद्ध वात; आदरी आठे प्रवचन मात, भवियण तसु गुण गात. ॥३॥ पूर्वभव नृपति धनपाल, वीसमण भद्र ने दान रसाल, देई शिवा सीव थाय, संयम लेई ते मुनिराय; लहि केवल ने शिवपुर जाय, ते वंदु मन लाय. ॥ ४ ॥ पूर्वभव मेवरथ राजन, सुधर्म मुनिने देई दान, बीजे भव जिनदास, संवर पाली जे थया सिद्धा केवल दर्शन ज्ञान समिद्ध, वांदु तेह उल्लास. ॥५॥ मित्राई पूर्वभव जाण, संभूत विजयने दोनु वखाण, कुमर ते धनपत होई, वीर समीपे संयम लीधो; ततक्षण कर्म हणीने सिधो, दिन प्रति वंदु सोई. ॥६॥ पूर्वभव नागदत्त धनेसर, प्रतिलाभ्यो इंद्रपुर मुनिसर, महीबल नाम कुमार, संयम लेई कारज सार्या; भवसायरथी चेतन तार्या, ते वंदु बहु वार. ॥ ७ ॥ गृहपति हुतो धर्मघोष, तिन प्रतिलाम्यो अति संतोष, नाम मुनि धर्मसिंह, बीजे भव थयो भद्रनंदी; मुक्ति गयो भव बंधन छंदी, ते वंदु मुनि इह. ॥ ८ ॥ पूर्वभव जितशत्रु नरेसर, प्रतिलाभ्यो धर्मव्रत सुलेसर, महिचंद नाम कुमार, तिण छंडी बहुराई कुमार पांचसे अपछरा नेउणीहार वंदु केवलधार. ॥ ९॥
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विमलवाहण नामे राजान धर्मरुचिने देई दान, वरदत्त दुवो भव बीजे संयम लेई सुरश्री पामी; कप्प अंतर जे शिवपुरगामी कीरति तेहनी कीजे ॥ १० ॥ पूर्वभव दान देई उदार बीजे भव थया रायकुमार, त्यां तजी पांचसे नार सह थया वीरजिणेसर शिष्यः सुखविपाके एह मुनेस पंचमहाव्रतधारी ॥ ११ ॥ नामे मातंग ने सीमल गाउं रामगुति सुदर्शण घ्याउं, नमु जमाली भोगाधि किंकम पेलक कालो ये तीजी : अंतगढ़ अंगे वाहिण बीजी घणां अंग संभाली. ॥ १२ ॥ पूर्वभव महा पौम ते वीजे तेतली पुत्र मुनि प्रणमीजे, महापौम पुंडरीक तात वली बंदु जितशत्रु सुबुद्ध; कर्म हणी तिा करी विशुद्धी ते बंदु विख्यात ॥ १३ ॥ मुनि जयघोष विजयघोष वांदु वली श्री नाम मृगा पुत्र वांदु, कमलावती इक्षुकार पुत्र पुरोहित वली तसु नार; नामजसा संवेगे सारी वंदनां नित्य जयकारी. ॥१४॥
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॥ ढाल १३ मी ॥ चतुर विचारीयेरे ॥ ए देशी ॥ मुनिदास ने धन्नो वली वखाणीएरे सुणीखत्त कित्तीयसंयुक्त, संगण सालभद्र आणंद तेतलीरे दशार्णभद्र ऐवंत ।। १ ।। मुनि गुण गाईयेरे गावंतां परमानंद सिवसुख साधणे करी, अहोनिस संपजेरे भाजेभव भवदंद. मु० ॥ २॥ अणुत्तर अंगनी एहीज बीजी वाचनारे ऐदस मुनिवर नाम, नंदिसूत्रमे साधुसुभद्दपणे कह्यारे नंदीसेण अभिराम. मु० ॥३॥ विषम नंदीकल अधिकार धन्नो मुनिरे धन्नो देव दिनतात, सुत्रता समणी गुरुणी सिध्यणी पोटलारे पुंडरिक कुंडरिकन प्रात. मु०॥४
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९.५०
वडी साधु वंदना.
गुरुणी सुभद्रा केरी समणी सुवृतारे पूर्णभद्र सुचंग, मांणभद्रने दत्तशीवबल मुनिरे, तिण तज्या लोभ संतापः इंद्र परीक्षा अवसर उपशम आदरोरे, नमो नमावे आप. मु० ६ सुरवर सेवत श्रीहरि केसो बलमुनिरे, संवर धार सुलेस; सक्ने प्रे ( हो ?) डी प्रतिसंयम आदयौरे, दशार्णभद्र नरेस. मु०॥७ मुनि करकंडराजा देश कलिंगणोरे, दुमुही पंचभूपाल; वली विदेही नृपति नाम नामे व्रतिरे, निग्वाई गंधार रसाल. मु० ॥८ सेतवीजे ने महिलए सहु राजवीरे, व्रत लेई थया अणगार; कामकषाय निवारी सीतल आतमारे, थिवरते ग्रक गणधार. मु० ॥९ ga श्रीवीर जिणेश्वर सीस सुहमगणीरे तास परंपर एह जंबू प्रभव वलि सय्यंभव जाणीयेरे, मनगपीया मुनि तेह. मु० ॥ १० श्रीजसोभद्र ने मुनि संभूतवीजे बलीरे, भद्रबाहू थूलभद्र एम; अणेरा जिणवर आणमांही हुवारे, ते मुनि गाउं समुद्र. मु० ॥ ११ काल अनंते मुनिवर मुक्ते गयारे, संप्रति विचरे तेह; नाणदर्शन ने चर्णकर्ण घुरंधरारे, श्रीदेववंदे तेह. मु० ॥ १२ ॥
॥ कलश ॥
इम चोवीस जिणवर प्रथम गणधरचकी हलधर जे हुवा, संसारतारक केवली वली समणसमणी संथुवा; संवेग तर साधु सुखकर आगम वचने जे सुण्या, दीपचंद गुरु सुपसाये श्री देवचंदे संथूण्या ॥ १३ ॥ इतिश्री वडी सावु वंदना तेर ढालकी चोपाई संपूर्णम् ॥
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॥ अथ श्री पंडित देवचंद्रजी कृत साधुनी पंच भावना ॥
DEEDS
॥ दोहरा ॥ स्वस्ति सीमंधर परम, धर्म ध्यान सुख ठाम । स्याद्वाद परिणाम धर, प्रणमुं चेतनराम ॥१॥
अर्थः-शुद्ध स्वभावमां वसवारूप परम कल्याणवाली स्वसत्ताभू मिरूप परम मंदिरमा वसवू ते रूपपरमकल्याण वली स्वसत्ताभूमि ते अक्षय शुद्ध धर्मर्नु अने परमसुखनुं स्थानक छे. वली सीमंधरस्वामी वर्तमान तीर्थकर ते परमधर्मर्नु अने परम सुखनु कल्याणकारी स्थानक छ, वली ते सीमंधर स्वामी स्यावाद परिणामवर अखंड शुद्ध चेतना परिणाममां विसरामी परम आरामी प्रभुने प्रणाम करूंछं ॥ १ ॥ महावीर जिनवर नमी, भद्रबाहु सूरीश । वंदी श्री जिनभद्र गणि, श्री क्षेमेंद्र मुनीश ॥२॥
अर्थः-कर्मशत्रु विदारखा महावीर्यवंत एहवा श्री महावीर स्वामी चोवीसमा तीर्थकरने नमस्कार करीने वली आचाोमां ईश्वर सरखा पांचमा श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामीने तथा श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणने वली क्षेमेंद्र मुनीश्वरने वंदी ॥२॥
जी कमेश तीर्थकरन की श्री मद मुनीश
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सावनी पंच भावना.
འགས་གནག
सद्गुरू शासन देव नमी, बृहत्कल्प अनुसार। शुद्ध भावना साधुनी, भाविश पंच प्रकार ॥३॥
अर्थः-वली शुऊ नये स्यादाद उपदेश देवावाला सद्गुम अने तीर्थकरोनी वाणी शासनदेवीने नमी बृहत्कल्प भाष्यने अनुसारे शिव मार्ग साधता साधुओने भाववानी शुफ पंच भावना भावीशुं ॥३॥ इंद्री योग कषायने, जीपे मुनि निशंक । इण जीते कुध्यान जय, जाए चित्त तरंग ॥४॥
अर्थः-मुनि पंच इंद्रियो, अण योग अने चार कषायने निर्भय निशंकपणे जीते तोज आर्त रौद्र कुध्यान माटा अध्यवसायने जीते अने तेथी चित्तना शुभाशुभ संकल्पो रूप तरंगो जाय एटले निर्विकल्पपणे शुद्धात्मगणमां परम समाधि पामे ॥ ४ ॥ प्रथम भावना श्रुततणो, बोजी तप तिय सत्त्व । तुरिय एकता भावना, पंचम भाव सुतत्त्व ॥ ५ ॥
अर्थः-तेमाहे श्रुत अभ्यासनी पहेली भावना (१) विषय भोग इच्छा रहित शुशात्म गुणमां तृप्त रहे, ते तपरूप बीजी भावना (२) द्रढताए धैर्य राखी परिसह अने विषयादिकथी चलायमान थर्बु नहि एम साहस राखवारूप त्रीजी सत्यभावना (३) शुझात्व तत्त्वमां एकत्त्व अडोलपणे परिणाम थिर करवा रूप चौथीए कत्वभावना (४) अने आत्म तत्त्व विचार रूपपांचमी सुतत्त्वभावना जाणवी (५)॥५॥
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साधुनी पंच भावना.
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श्रुतभावना मन थिर करे, टाले भवनो खेद । तपभावना काया दमे, वामे वेद उमेद ॥ ६ ॥
अर्थः - श्रुतभावना मन थिर करे अने भवभ्रमण भीतिनो खेद टाले. तपभावना कार्मण अने औदारिकादि कायाने दमे अने वेद भोगववाना उमेदने फेंके एटले तेनी ईच्छा आशा कामना मटी थिरता थाय ।। ६ ।। सत्त्वभाव निर्भय दशा, निज लघुता इक भाव । तत्त्वभावना आत्म गुण, सिद्ध साधना दाव ॥७॥
अर्थः- सत्त्वभावनाथी निर्भयदशा पामीए. पोतानी लघुता भावीए तो स्वस्वरूपमां एकता थाय. तत्त्वभावना भाववाथी आत्म शुद्धता सिद्ध करवानो दाव आवे ॥ ७ ॥
॥ ढाल १ ली ॥
लोक स्वरूप विचारो आतम हित भणीरे ॥ ए देशी ॥ श्रुत अभ्यास करो मुनिवर सदारे, अतिचार सहु टालि ।
हीण अधिक अक्षर मत उच्चरोरे,
शब्द अरथ संभालि ॥ श्रुत० ॥ १ ॥
अर्थः- हे मुनि ! अकाल अविनयादिक आठ अतिचार तजी सदा श्रुत अभ्यास करो, अक्षरनो हीण अधिक उच्चार न करो अर्थ संभाली शब्द उच्चार करो ॥ १ ॥
120
३
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साधुनी पंच भावना. सूक्ष्म अर्थ अगोचर द्रष्टिथोरे, रूपी रूप विहीण। जेह अतीत अनागत वर्त्ततारे, जाणे ज्ञानी लोन ॥ श्रुत० ॥ २ ॥
अर्थः--जे सहजे दृष्टिगोचर न आवे एवा अर्थरूपी के अरूपी अतीत अनागत के वर्तमान विषय जेम होय तेम ज्ञाने लीन होय ते ज्ञानी जाणे छे तेम रूपी अरूपी कालादिक तथा आत्मगुणने प्रशस्त अप्रशस्त विचारी मूक्ष्म अर्थ दृष्टिगोचर करो ॥२॥
नित्य अनित्य एक अनेकतारे, सदसद भाव स्वरूप । छ ए भाव एक द्रव्य परिणम्यारे, एक समयमां अनूप ॥ श्रुत० ॥३॥
अर्थः--सकल द्रव्यमां समकाले नित्य, अनित्य, एक अनेक, सत्य असत्य, एवा छए भाव परिणमे छे ए अनुपम रूपे द्रव्य विचारो ॥३॥
उत्सर्ग अपवादपदे करीरे, जाणे सहु श्रुत चाल। वचन विरोध निवारे युक्तिथोरे, थापे दूषण टाल ॥ श्रुत० ॥ ४ ॥
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साधुनी पंच भावना.
९५५
अर्थः- वस्तु उत्सर्गे अने अपवादे जेम कही छे तेम
सर्वे श्रुतचाल जाणे अने नययुक्तिथी वचन विरुद्धता निवारे अने बत्री दूषण टाळी अव्याप्ति, अतिव्याप्ति अने असंभबादि दोष वाली सूनो अर्थ यथार्थ ग्रहे, थापे निश्चय करे ||४||
द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक धरेरे, नयगम भंग अनेक ।
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नय सामान्य विशेष बेहु ग्रहेरे, लोकालोक विवेक ॥ श्रुत० ॥ ५ ॥
अर्थः- ज्यां मुख्यपणे द्रव्यार्थकने आगल करी बोल्या होय त्यां पर्याय अर्थनी गौणतानी सापेक्षता राखवी, ज्यां मुख्यपणे पर्याय अर्थ बतावी बोल्या होय त्यां द्रव्य अर्थनी गौणता सापेक्षता राखी तच्चार्थ विचारखो, नयना गमा अने अनेक भांगा ते पूर्वापर अने गौण मूख्य सापेक्षताए विचारी लेवा, एम सामान्यनय विशेषनय आदि अनेक प्रकारना नयवाद विचारी लेवा, वली लोकालोक के० लौकिक अलौकिक विवेक राखवो ते लौकिक लोकोत्तर विवेक जाणवो ||५||
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•
नंदिसूत्रे उपगारी कह्योरे,
बलि अशुच्चा ठाम | द्रव्यश्रुतने वांद्यो गणधरेरे, भगवई अंगे नाम ॥ श्रु० ॥ ६ ॥ अर्थः- नंदीसूत्रमां तथा भगवती अंगमां अशुच्चाकेवलीना अधिकारे सूत्रने उपकारी कह्यो छे, वली भगवतीसूत्रमां द्रव्य
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साधुनी पंच भावना.
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श्रुतने गणधरोए वांद्यो एम कयुं छे एटले द्रव्यश्रुत ते पण भावश्रुतनुं कारण छे माठे श्रुत ते उपकारीज छे ॥६॥
श्रुत अभ्यासे जिनपद पामिएरे, छठे अंगे साख। श्रुतनाणी केवलनाणी समोरे, पन्नवणिज्जे भाख ॥ श्रुत०॥७॥
अर्थः-ज्ञाता अंगमां श्रुतअभ्यासे जिनपद पामीए एम का छ वली श्रुतज्ञानी केवलज्ञानी समो एवी पण प्ररूपणा सिद्धांतोमा घणे ठेकाणे छे ॥७॥
श्रुतधारो आराधक सर्व ते रे, जाणे अर्थ स्वभाव । निज आतम परमातम सम ग्रहेरे,
ध्यावे ते नयदाव ॥ श्रुतः॥८॥ ऊर्थः-श्रुतज्ञानी पंचास्ति द्रव्यना पूर्ण भावपूर्ण अर्थने जाण माटे सर्व आराधक कह्यो छे श्रुतज्ञानीज पोताना आत्माने परमात्म समान जाणे यावे ग्रहे, नवदाव श्रुतज्ञानीने हाथ छे एटले नय युक्तिवडे आत्माना परमभावने जाणी ग्रही परमात्मपदने पामे ॥८॥
संयम दरशन ते ज्ञाने वधेरे, ध्याने शिव साधंत ।
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साधुनी पंच भावना.
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भव स्वरूप चउ गतिनो लखेरे, तेणे संसार तजंत ॥ श्रु० ॥९॥
अर्थः--शुद्ध संयम अने शुद्ध सम्यक्दर्शन ते श्रुतज्ञानेज वधे अने धर्मध्यान शुक्लध्यान ते श्रुत अजाण साधी शके नहीं पण द्रव्य गुण पर्यायनो पूर्ण जाण श्रुतज्ञानी होय तेज धर्म शुक्लध्यान साधी शके वली श्रुतज्ञानीज शुद्ध ध्येय अने शुद्ध साधना प्रवृत्ति जाणी साधी आत्म सिद्धि करे; वली श्रुतज्ञानी चारे गतिनुं भवस्वरूप जाणे तेथी ते भवभोगथी विरक्त थई उदासीनता रूप नावे चढी क्षेम कुशलताए निर्भयपणे भव समुद्र तरे ॥ ९ ॥
इंद्रिय सुख चंचल जाणी तजेरे, नव नव अर्थ तरंग। जिम जिम पामे तिम मन उल्लसेरे, वसे न चित्त अनंग ॥ श्रु०॥१०॥
अर्थः--श्रुतज्ञानी ईद्रियसुख चंचल अने उपचरित जाणी तजे अने श्रुतज्ञानीने वस्तुना नवा नवा अर्थ तरंगो प्रगटे तेयी सकल शंका कंखाआदिथी निवर्ते जेम जेम अधिक श्रुत पामे तेम तेम आत्मवीर्य करी मन उल्लास पामे अने तेना चित्तमां अनंग के० काम विकार वसे नहि-रहे नहि अने कोई ठेकाणे लख्युं छे के “ नव नव अरपत रंग" एटले श्रुत ते चित्तने शुद्धात्म भावमां नवो नवो रंग रीझ आपे ॥१०॥
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साधुनी पंच भावना.
काल असंख्याताना भव लखेरे, उपदेशक पण तेह |
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परभव साथी आलंबन खरोरे, चरण विना शिव गेह ॥ श्रु० ॥
अर्थः-- पूर्ण श्रुतज्ञानी असंख्याता काल सुधी पूर्वापर भव जाणे अने श्रुतज्ञान विना जे उपदेश करे छे ते पोताने अने पर जीवने बूडाववावाला छे पण शुद्ध श्रुतज्ञानी तेज समभाषी अने सत्य उपदेश करवावालो छे. परभवे जता जीवने श्रुतज्ञान तेज संगे रहेवावालुं साधुं आलंबन छे अने बाह्य चारित्र विना पण श्रुत एज मोक्षनुं घर छे ॥ ११ ॥
११ ॥
पंचम काले श्रुत बल पण घट्यो रे,
तो पण ए आधार । देवचंद्र जिन मतनो तत्त्व ए रे, श्रुतश्यं धरज्यो प्यार ॥ श्रु० ॥ १२ ॥
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अर्थः-- आ पांचमा दुषमकालमा श्रुतबल घटयुं छे तो पण श्रुतनोज आधार छे. देवचंद्र मुनि कहे छे के जिन मतनो सार ते श्रुतज्ञानज छे ए माटे श्रुत अभ्यासमां पूर्ण प्रीति राखजो ॥। १२ ॥
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साधुनी पंच भावना.
॥ ढाल २ जी ॥ ॥ अनुमति दीधी माए रोवती ॥ ए देशी ॥ रयणावली कनकावली, मुत्तावली गुण रयण । वजमध्यने जवमध्य ए, तप करीने हो जीपो रिपु मयण ॥१॥ भवियण तप गुण आदरो, तप तेजेरे छीजे सह कर्म । विषय विकार सहु टले, मन गंजे रे भंजे भव भर्म ॥ भवि० ॥२॥
अर्थः--रत्नावली, कनकावली, मुत्तावली, गुणरत्न, वज्रमध्य अने जवमध्य ए आदि तप करी काम शत्रुने जीतो. ए माटे हे भवि जीवो ! तमे शुद्धात्म भावमां तृप्ति रूप तप गुण आदरो. तप तेजे सर्वे कर्म छीजे-भस्म थाय अने विषय विकार सर्वे टले एटले विषयोनी इच्छा रहे नहि तेनुंज नाम तप कहीए. मन विषयईच्छाने जीते तेथी भवमोगमां सुखपणानो भर्म हतो ते भागे एटले आम उपयोग शुद्धात्म भावमां थिर थाय ॥ १ ॥ २ ॥
जोगे जय ईद्रिय जय तदा, तप जाणो हो कर्म सूंडण सार ।
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साधुनी पंच भावना.
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उवहाणे योग दुहा करी, शिव साधेरे सूधा अणगार ॥ भ० ॥३॥
अर्थः-शुद्धात्म भावमां तृप्तिवंत जीव मन वचन काययोगने तथा ईद्रिय विषयने पण जीते तेथी तप ते कर्मने छेदवावालो कापवावालो सार जाणवो. ध्यान- कारण तेने उपध्यान कहीए एटले खावा पीवामां विषयादिक व्यापारमां चित्त जतुं रोकीए ते ध्यान के० शुझात्म भावमां थीरतार्नु कारण छे तेने उपधान कहीए. ते उपधाने करी मन वचन काय योग असंयम पुद्गल व्यापारथी वारी संयमयागमां थिर करी सुधा अणगार मोक्ष साने ॥३॥
जिम जिम प्रतिज्ञा द्रढ थको, वैरागीओ तपसी मुनिराय । तिम तिम अशुभ दल छीजवे, रवि तेजेरे जेम शीत विलाय ॥ भ०॥४॥
अर्थः--वैरागी तपस्वी मुनिराज जेम जेम पोतानी प्रतिज्ञा दृढ करे तेम तेम अशुभकर्मदल छीजवे जेम सूर्यना तेजथी शीत नाश पामे तेम अशुभकर्मदल नाश पामे ॥ ४॥
जे भिक्षु पडिमा आदरे, आसन अकंप सुधीर । अति लीन समता भावमां, तृण पेरे हो जाणंत शरीर ॥ भ०॥५॥
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साधुनी पंच भावना.
९६१
अर्थः--जे मुनि साधुनी बार प्रतिमा मांहेथी कोइ पण प्रतिमा आदरे अने धैर्यपणे अडोल अकंप आसने रहे, समताभावमां अतिशय लीन थइ उपयोगनी थिरता वधारे अने शरीरने तृण परे जाणे ते मुनि सहज शिव संपदा वरे ॥५॥
जिण साधु तप तलबाथी,
{डयो छे हो अरि मोह गयंद । तिण साधुनो हुँ दास छु, नित्य वंदुरे तस पय अरविंद ॥ भ०६॥
अर्थः--जे साधुए तपरुपी तलवार वडे मोह शत्रुरूप गजेंद्रने काप्यो ते साबुनो हुँ दास छं अने तेना पदकमलने नित्य वंदु छु ।। ६ ॥
आचार सूयगडांगमां, तिम कह्यो हो भगवई अंग। उत्तराध्ययन गुणतीशमें, तप संगे हो सहु कर्मनो भंग ॥ अ०॥७॥
अर्थः-आचारांग, मूत्रकृतांग, भगवती अंगमां अने उत्तराध्ययनना ओगणत्रीसमामां कयु छ के तपस्याथी सकल कर्मनो नाश थाय एम अनेक स्थानके कां छे ॥७॥
ते दुविध दुकर तप तपे, भव पास आश विरक्त । धन्य ! साधु मुनि इंडण समा,
ऋषि खंधक हो तोलग कुकदत्त ॥ १०॥८॥ 121
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सावुनी पंच भावना.
. अर्थः-जे मुनि भवपास आश विरक्त थया ते द्रव्यभाव दुविध दुक्कर तप आदरे. धन्य ! ते ढंढण मुनि, खंधक रुषि, तिसगमुनि अने कुरुदत्त ए आदि साधुओने के जे दुष्कर तप आदरी उत्तम गति वर्या छे ॥ ८ ॥
निज आतम कंचन भणी, तप अग्नि करी शोधत । नव नवि लब्धि बल छते, उपसर्ग हो ते सहंत ॥ भ० ॥ ९॥
अर्थ:-निज आतम कंचन करवा एटले रागद्वेषादि मलीनता टाली शुद्ध सिद्धरुप करवा तप रूप अग्निए करी कर्म मेल प्रजाली आत्मअंग शुद्ध कंचन करे. नव नवि लब्धिना बल छते पण सनत्कुमार चक्री पेठे महंत पुरुषो निराकुलपणे उपसर्ग परिसह सहे ॥ ९ ॥
धन्य ! तेह जे धन गृह तजी, तन स्नेहनो करी छेह । निःसंग वनवासे वसे,
तपधारी हो ते अभिग्रह गेह ॥ भ० ॥१०॥
अर्थः--धन्य ! तेने के जे धन अने घर तजी तन स्नेहनो छेह करी निःसंग निर्भयपणे परसंग तजी वनवासे रहे. तपधारी मुनि ते अभिग्रहना घर छे. जगत्वासी जीव स्नेहपासे बंधायला छे. स्नेह समान अन्य पासज नथी, तेमां मुख्य स्नेह देहनो छे. देह स्नेहवडेज घर धन स्त्री मित्र
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साधुनी पंच भावना.
९६३
कुटुंबादिनो स्नेह थाय छे. जेणे देहयी भिन्न शुद्ध निजात्म स्वरुप जाण्युं तेने देहनो स्नेह पण रहेतो नथी तो अन्य वस्तुनो स्नेह शानो रहे ? माटे देह स्नेह छोडे तेज तपस्या आदरे ॥ १० ॥
धन्य ! तेह गच्छ गुफा तजी,
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जिनकल्प भाव अफंद | परिहारविशुद्धि तप तपे, ते वंदे हो देवचंद्र मुनींद ॥ भ० ॥ ११ ॥
अर्थः-- धन्य ! तेने के जे गच्छ गुफा आदि आश्रय तजी जिनकल्प आदरी अफंदी थई परिहार विशुद्धि तप तपे. एहवा महंत मुनींद्रोने देवचंद्रमुनि वंदना करे छे ॥ ११ ॥
॥ ढाल ३ जी ॥
हवे राणी पदमावती ॥ ए ॥ देशी ॥
रे जीव ! साहस आदरो,
मत थाओ दीन ।
सुख दुःख संपद आपदा,
पूरव कर्म आधीन ॥ रे जीव० ॥ १ ॥
अर्थः- हे जीव ! साहसके० धैर्य आदरो अधीरपणुं छोडो, अधीरपणाथी दीनपणुं थाय छे माटे अदीनपणुं आदरो. सुखदुःख संपदा अने आपदा ते तो पूर्व कर्म आधीन छे,
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साधुनी पंच भावना.
वली निश्चय जोतां आत्मा एक नित्य अजर अमर स्वतंत्र अरोगी, अनाकुल अक्षय अजन्म अयोनी अजय अभेद अछेद छे. तो दुःख सुख आपदा संपदा ते कोने छे ? माटे धैर्य राखो ॥ १ ॥
क्रोधादिक से ण समे, सद्या दुःख अनेक। ते जो समतामा सहे,
तो खरो विवेक ॥रे जीव० ॥ २ ॥ . अर्थः-क्रोधादिक वशे रणसंग्राममा मनुष्यो अनेक दुःख सहे छे अने विषय वशे पण अनेक दुःखो सहे छे. तेमज जीवो मान अने लोभवशे जागी यूझीने अनेक दुःखो सहे छे पण जो समतावशे दुःखो सहे तोज साचो विवेक के ॥२॥
सर्व अनित्य अश्वासता, जे दोसे एह । धन तन सयण सगा सहु, तिणश्युं श्यो नह ।। रे जीव०॥३॥
अर्थः-जे जे नजरे देखीए छीए, नाकवडे सुंघवामां आवे छे, जिभ्यावती चाखवामां आवे छे, त्वचावडे स्पर्शाय छे ते. ते धन तन सज्जन संगां संबंधी लोही हाडमांस वीर्य रत्न मणि माणेक सुवर्ण आदारिक शक्ति वैक्रिय शक्ति, मनबल वचनबल ए आदि सर्वे पुद्गल पर्यायो अनित्य अशा
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साधुनी पंच भावना.
www.mmmmmmm श्वता परतंत्र चल मल जड छे, तेथी शुं स्नेह करवो ? के जेना वडे शुद्ध आत्मिक स्वतंत्र आनंदनी हाणी अने अज्ञान मिथ्यात्व कषाय जन्म जरा मरणादिनी वृद्धि थाय छे तो एवा दुःखदाई पुद्गल पर्यायो उपर कोण मूर्ख स्नेह करे ॥३॥
जिम बालक वेलू तां, घर करीय रमंत। तेह छते अथवा ढहे, निज निज गृह जंत ॥ रे जीव० ॥४॥
अर्थः-जेम बालक वेलु अने धूलनां घर करी रमे छे अने ते भागेथी अथवा तो तेने पड्यां मुकीने पोत पोताने घेर जाय छे. तेम पौद्गलिक वैभव पड्यो मुकीने अथवा नाश थयेथी संसारी जीव अन्य गत्यंतरे जाय छे. तो एहवा परतंत्र पदार्थो उपर स्नेह करवो अगर तेना स्नेहवशे बंधाई रहेवू ते मोक्षामिलाषी जीवोने युक्त नयी ॥४॥
पंथी जेम सराहमां, नदो नावनी रीति । तिम ए परियण तो मिल्यो, तिणथी शी प्रीति ॥रे जीव०॥५॥
अर्थः----पंथी लोको जेम धर्मशाला अथवा सराहमां भेगा मले छे वली नदीओ वीगेरेना नावमां पण अनेक तरेहना लोको भेगा मले छे तेम ए कारमो परिवार मल्यो छे तेथी प्रीति करी आत्म शुद्धताने चुकवू ए शुं हितकारी छे ? ना ए तो हितकारी नथी पण अहितकारी छे ॥५॥
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साधुनी पंच भावना.
ज्यां स्वारथ त्यां ए सहु सगां, विण स्वारथ दूर। पर काजे पापे भले, तुं किम होये सूर ॥ रे जीव० ॥६॥
अर्थः--ज्यां सुधी जेने स्वारथ छे त्या सुधी ते सर्वे सगपण राखे छे पण स्वारथ थया पछी वेगला रहे छे तो ताहरे पोताना आत्म गुण शिवाय अन्य परिजनथी कांइ स्वारथ नथी तो परकाजे तुं शा वास्ते पापमां भलं छं अने पाप कार्यमां केम शूरो थाउ छु ? ताहरूं शूरपणुं ताहरा रागादि शत्रुओने विदारवामां जो वापरूं तोज ताहरूं पुरुषपणानुं साचुं पराक्रम कहेवाय पण कर्म शत्रुओने पोषवामां अने आत्म गुणोनी हानि करवामां शूरपणुं करे तेना जेवो मूर्ख कोण ? ॥६॥
तज बाहिर मेलावडो, मिलियो बहु वार। जे पूरव मिलियो नहीं, तिणस्युं धर प्यार ॥ रे जीव०॥७॥
अर्थ:--आत्म अंगी बाहिरनो मेलापरूप मेलावडो छोड के जे अनंतिवार मल्यो तो पण निवृत्तिरूप सुख लेश मात्र ताहरा हाथमां आव्युं नहीं माटे जे अनादियी नयी मल्यो एहवो शुद्धात्म धर्म अने शुद्धात्म धर्मना दातारथी प्यार कर के जेवडे परम निवृत्ति शाश्वत सुख पामे. ॥७॥
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सावुनी पंच भावना.
चक्री हरी बल प्रतिहरी, तस विभव अमान ।
ते पण काले संहया,
तुज धन श्ये मान | रे जीव० ॥ ८ ॥
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हा हा हुंतो तुं फिरे, परियण चिंत ।
अर्थः-- चक्रवर्ती वासुदेव बलदेव अने प्रतिवासुदेव तेमने अथाह वैभव होय छे तेहवाने पण काले नाश कर्या तो ताहरूं धन अने वैभव शुं गणतीमां छे ? माटे ते पुद्गलीक धन अने बलनी ममता छोडी आत्मिक धन अने बलपूर्ण प्रेम प्रतिते आदरो ॥ ८ ॥
नरक पड्या कहे तूने,
कोण करे निचित ॥ रे जीव० ॥ ९ ॥
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अर्थ:--तुं परिवारनी चिंता माटे हा माहरू अमुक सगुं मांदु थयुं मरण पाम्युं, अथवा तो आ स्त्रीने आ दरद छे अमुक रीसायुं, एम परिवारनी चिंतामां हां हां करतो फरूं छं, पण तु जे कर्म बांधुं छं तेनी चिंता करतो नथी तो नरक पड्यां तने कोण निचिंत राखशे ? माटे लांबी नजरे विचार कर के जे शुद्धात्म तत्त्व चूकी प्रसाद आदरे छे तेनुं फल तेज भोगवे पण बीजो कोइ भोगवावा लागे तेम नथी. कोइ पुरुष हाथ आवेलो चोर छोडी दे अने जवानो छे ? पण ते चोर पाछो हाथ आवे
विचारे के क्यां नहीं तेम धर्म
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९६८
साधनी पंच भावना.
साधवा रूप उत्तम नरभव हाथ आव्यो छे अने तुं गफलत राखुं के शी फीकर छे तो नरभवादि सर्वे धर्म सामग्रीनो जोग मलबो दुर्लभ छे एम जाणवुं ॥ ९ ॥
रोगादिक दुःख ऊपने, मन अरति मधेव । पूरव निज कृत कर्मनो,
ए अनुभव देव ॥ रे जीव० ॥ १० ॥
अर्थः- रोगादिक दुःख उपने तुं मनमां अरति न ग्रहीश केभके पूर्व निज कृत कर्मनो एहवो अनुभव छे. वली तुं निज रूपे आरोग्य ज्ञायक अखंड शुद्ध तत्त्व छं तो ए अथीर देह संभालता छतां पण न रहे एवीने संभालवानी वेठ के प्रयास क्यां सुधी करीश ? माटे ताहरी आरोग्य ज्ञायकताने संभाल के जेथी निःप्रयासी शाश्वत स्वतंत्रसुख प्रगटे ॥ १० ॥
एह शरीर अशाश्वतो, खीण में सीत ।
प्रीत किसि ते ऊपरे,
जे स्वास्थवंत || रे जीव० ॥ ११ ॥
अर्थः-- अनंत पुद्गल वर्गणाथी उपजेलुं एवं आ शरीर अशाश्वतुं क्षणमां क्षय पामे एवं छे ते उपर तथा स्वास्थवंत उपर शुं प्रीति करवी ? ज्यां सुधी तें आत्म शुद्धतामां प्रीत करी नयी त्यां सुधी ताहरो प्रीति गुण चौदराज लोकमां
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सावनी पंच भावना.
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रहेला पदार्थोंमां विखरी रह्यो छे पण तने नयी. माटे शुद्धात्मगुणमां अने शुद्धात्म प्रीति कर के जेथी अनंति प्रीत ताहरी ताहरामां थशे ॥ ११ ॥
हितकारी थतो तत्त्व दातारमा
ज्यां लगे तुज ईण देहथी,
छे पूरव संग |
त्यां लगे कोटि उपायथी,
नवि थाये भंग ॥ रे जीव० ॥ १२ ॥
अर्थः-- ज्यांसुधी आ देहथी ताहरो पूर्ण कर्म वशे संग छे त्यांसुधी क्रोडो उपाययी पण ए देहनो भंग थवानो नथी अने तुं तो क्षायिक अभंग अंगवालो छं ॥ १२ ॥
आगल पाछल चहुं दिने,
जे विणसी जाय । रोगादिकथी नवि रहे,
कोध कोटि उपाय || रे जीव० ॥ १३ ॥
अर्थः-- देह तो आगर पाछल चार दिने निश्चय विनाश पासवावाली छे अने रोगादि वालवा कोडो उपाय करवायी पण रहे एवी नयी ॥ १३ ॥
अंते पण एने तयां, थाये शिव सुख । ते जो छूटे आपथी,
तो तुज इयो दुःख ॥ रे जीव० ॥ १४ ॥
122
१२.
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साधुनी पंच भावना.
Mirrowa
__ अर्थ:--आखर पण देहर्नु ममत्व छोडवाथीज नियमा शिवसुख थाय छे तो ते देह आपथी छुटे तेमां तुजने शुं दुःख छे ? देहना ममत्ववडेज अनेक जातना कर्म रोग अने दुःख खडा थयां छे तो ते ममत्व तजवाथीज सुख थाय एमां शुं शंका छ ? ॥ १४ ॥
ए तन विणसे ताहरे, नवि कोई हाण। जो ज्ञानादिक गुणतणो, तुज आवे झाण ॥ रे जीव० ॥ १५ ॥
अर्थः--जो तने निज ज्ञानादिक गुणनं ध्यान आवे अने थीर रहे तो ए देह विणसतां ताहरी कोइ प्रकारनी हानि नथी ॥ १५ ॥
तुं अजरामर आतमा, अविचल गुण राण। क्षण भंगुर जड देहथी, तुज किहां पिछाण ॥ रे जीव०॥ १६ ॥
अर्थः--तुं जरा रहित अमर आत्म तत्त्व छं तुं ताहरा ज्ञान चारित्र कर्ता भोक्ता ग्राहकता व्यापकता आदि अनंत अविचल गुणोने राजा छु अने तुं पोतानो भूलथी ए गुणो मलीन करूंछं तो कोण शत्रु जबराईथी ताहरा गुणो मलीन को करावे छे ? माटे गुणी शुद्ध अने यीर राखी अचल
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सावुनी पंच भावना.
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गुणोमां राज्य कर परमानंद भोगी था. एहवा क्षण भंगुर अने जड देहथी तें श्यो गुण पीछाणी दोस्ती राखी छे?॥१६॥
छेदन भेदन ताडना, बध बंधन दाह। पुद्गलने पुद्गल करें, तुं अमर अगाह ॥ रे जीव० ॥१७॥
अर्थः---देह उपर छेदन भेदन ताडन तर्जन वध बंधन दाह आदि जे जे वेदना थाय छे ते पुद्गलने पुद्गल करे पण तुं तो अमर अने कोइने ग्रहवा पकडवामां न आq एहवो छं तो पर पुद्गल अथिर वस्तुनो ममत्व शा वास्ते करूं
पूर्व कर्म उदये सही, जे वेदना थाय । ध्यावे आतम तिण समे, ते ध्यानी राय ॥रे जीव० ॥१८॥
अर्थः--पूर्व कर्म उदय वशे शरीर उपर जे जे वेदना थाय ते समय जे जीव आत्मानो अक्षय अवेदक गुण ध्याय तेज ध्यानी राजा समजवो ॥ १८ ॥
ज्ञान ध्याननी वातडी, करणी आसान। अंत समे आपद पड्यां, विरला करे ध्यान ॥ रे जीव०॥ १९ ॥
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साधुनी पंच भावना.
अर्थः-ज्ञान ध्याननी वात करवी सुगम छे पण कोइ शुभाशुभ उदय आव्ये, अंत समय आफत पड्ये विरलाज ध्यान राखे छे माटे कोइ समय पण खसयम चूकवो नही ॥१९॥
अरति करो दुःख भोगवे, परवश जिम कीर। तो तुज जाणपणातणो,
गुण केवो धीर ॥रे जीव० ॥ २० ॥ - अर्थ:--अशुभ कर्म उदय आव्ये पर वशता मानी आदरी कीरनी पेठे अरति करी तुं दुःख भोगवु तो ताहरा जाणपणानुं धैर्य शुं रथु ? माटे आत्म अंग अखंड अभंग जाणी धैर्य आदरी दीन थर्बु नही ॥ २० ॥
शुद्ध निरंजन निरमलो, निज आतम भाव । ते विणसे कहे दुःख किशो, जे मिलियो आव ॥रे जीव०॥ २१ ॥
अर्थ:--ताहरो शुद्ध निर्मल के० कर्मरज मले नही एहवो शुद्धात्म भाव छे ते जाण निश्चय कर ते माहे रमण कर, पण कर्म वशे आवी मलेला पुद्गल पर्याय विणसवामां तने हां दुःख छ ? कोइनी वस्तु विगसे अने कोइ दुःख माने ते तो प्रत्यक्ष भर्म छे. माटे भर्म भाव छोडी दे अने
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साधुनी पंच भावना.
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जो कदापि जन्म मरण अने परिसहादिथी डरतो होउं तो अढार पापस्थानने जडमूल सहित पहेलेयी उखेडी फेंक एटले ते परिसहो आववाना नथी. पर द्रव्यमां अहंपणानो भर्म भेदज्ञाननी शक्ति बडे प्रथमयीज दूर करवो ए परमोत्तम इलाज छे ॥ २१ ॥
देह गेह भाडातणी, ए आपणो नाहि ।
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तुज गृह आतम ज्ञान ए, तिणमांहे समाहि ॥ रे जीव० ॥ २२ ॥
अर्थ:-- देह ए भाडानुं घर छे पण आपणुं नयी ताहरू वर तो आत्मज्ञान सहित स्वप्रदेश रूप सत्ता भूमि छे. ते मांहे तुं समाइजा ! पण पुद्गल पर्याय रूप परघरमा ताहरो समावेश नयी ॥ २२ ॥
मेतारज सूकोसलो,
वली गजसुकुमाल । सनतकुमार चक्री पेरे.
तन ममता टाल ॥ रे जीव० ॥ २३ ॥
अर्थ :-- मेतारज मुनि, सुकोसल मुनि, गजसुकुमाल मुनि बली सनतकुमार चक्री के जेणे प्रथमथीज देहनी ममता त्यागी हती तो उपसर्ग आध्ये पण रूडी रीते अचल अडोल आत्म शुद्धतामां ममपणे रह्या. तेम तुं पण आत्म शुद्धतामां धिर मग्नता आदर अने देहनी ममता टाल ॥ २३ ॥
२३
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९७४
साधुनी पंच मावना.
कष्ट पड्यां समता रमे, निज आतम ध्याय । देवचंद्र तिथ मुनि तणा, नित बंदु पाय ॥ रे जोव० ॥ २४ ॥
अर्थ:-- देवचंद्र मुनि कहे छे के कष्ट आग्या छतां पण पोताना द्रव्य क्षेत्र काल भावमा संतोष राखे समता धरे एटले आत्म शुद्धता ध्याय तेवा मुनिना चरणकमल वंदु छं ॥ २४ ॥
|| हाल ४ थी |
॥ प्राणी धरीए संवेग विचार || ए देशी ॥ ज्ञान ध्यान चारित्रने रे,
जो द्रढ करवा चाह । तो एकाकी विहरता रे, जिनकल्पादि साथ रे
प्राणी एकल भावना भाव, शिव मारग साधन दाब दे ॥
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॥ प्राणी० ए आंकणी ॥ १ ॥
अर्थ:-- जे मुनि ज्ञान ध्यान अने चारित्रने द्रढ करवा चहाय तो ते मुनि एकाकी विचरतो जिनकल्प आदि साय के० पकडे - आदरे. ए भाटे हे प्राणी तुं एकलपणानी भावना भाव. एज मोक्षमार्ग साववानो दाव छे ॥ १ ॥
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साधुनी पंग भावना.
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साधु भणी गृहवासनी रे, छुटी ममता तेह । तो पण गच्छमारतीपणो रे, गण गुरू पर छ नहः ॥ प्राणी० ॥ २ ॥
अर्थः--साधुने घरवासनी मला तो छूटी पण गच्छवासीओना समुदाय उपर स्नेह होय छे, ते पण शुभ कर्मबंधन कारण थइ जीवने संसारमा रोके छे ॥२॥
वन मृगनी पेरे तेहथोरे, छांडि सकल प्रतिबंध ॥ तुं एकाकी अनादिनो रे, किणथी तुज प्रतिबंधरे ॥प्राणी०॥३॥
अर्थः--पाटे बगनी पेरे गच्छ आदिः सर्वे प्रतिबंध छोडी एकाही विचर एज श्रेय छे. तु अनादिनो एकाकी छु. ताहरे कीया परद्रव्यथी प्रतिबंध छे ? ॥ ३ ॥
शत्रु मित्रता सर्वथो रे, पामी वार अनंत । कोण सयण दुश्मन किस्यो रे, काले सहुनो अंतरे ॥ ४ ॥ प्राणी० ॥४॥
अर्थः-संसारमा अनंत जीवथी प्राये शत्रुता अने मित्रता अनंत वार थई संभवे छे तो हवे कोण सज्जन अने कोण दुश्मन ? काले सकल पुद्गल पर्यायनो अंत छे ॥ ४ ॥
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साधुनी पंच भावना.
बांधे करम जीव एकलोरे, भोगवे पण ते एक। किण ऊपर किण वातनी रे,
राग द्वेषनी टेक रे ॥प्राणी० ॥ ५॥
अर्थः-जीव एकलो पोते पोताना अशुद्ध परिणामे कर्म बांधे छे अने ते उदय आव्ये पोते एकलोज भोगवे छे. तो अन्य कोना उपर अने कई वातनी राग द्वेषनी देव राखवी ॥५॥
जो निज एकपणुं ग्रहेरे, छोडी सकल परभाव। शुद्धातम ज्ञानादिशुं रे एक स्वरूपे भाव रे ॥ प्राणी ॥६॥
अर्थः-जो आत्मा अनंत लक्षणवालो एक ज्ञायक पिंड पोते छं, ए शिवाय अन्य ते हुं नथी, ज्ञायकता शिवाय अन्य मने नथी, पुद्गलादि अन्य पदार्थो माहरा वडे के में कर्या नथी, अन्य पदार्थ कोइ पण माहरा माटे नथी, माहराथी के मुज आश्रित नयी, तेम माहरा के माहरामां नथी एम जाणी सर्व विभाव छोडी हुँ एकज नित्य अबाधित शुद्ध गुण पर्यायनो एक पिंड छ एम एकप ग्रहे तो अन्य द्रव्य गुण पर्यायना शुभाशुभ संकल्पो विकल्पो विलय जाय अने निर्विकल्प समाधि पामे, ए माटे आत्माना शुद्ध ज्ञानादि स्वरूप, एक अभेदपणुं भाव ॥६॥
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साधुनी पंच भावना. आव्यो पण तुं एकलो रे, जाईश पण तुं एक। तो ए सर्व कुटुंबथी रे, प्रीत किसि अविवेक रे॥ प्राणी० ॥७॥ अर्थः--तुं अहिंआं एकलोज आव्यो छु अने एकलोज जईश तो आ अथिर कुटुंब अने अन्य अनेक पदार्थोथी हे अविवेकी ! तु शा माटे प्रीति राखं छु ? ॥ ७ ॥
वन मांहे गज सिंहादिथी रे विहरतां न टले जेह । जिण आसन रवि आथमे रे, तिण आसन निशि छेहरे ॥ प्राणी० ॥८॥
अर्थः-मुनि वनमा गज सिंहादि देखी भय पामी पाछो हठे नहीं पण विहार करतां जे आसने रवि अस्त थाय तेज आसने निर्भयपणे रहि रात्री पूरी करे ॥८॥
आहार ग्रहे तप पारणेजी, करमा लेप विहीण। एक वार पाणी पीवतां रे, वनचारी चित्त अदीनरे ॥ पाणी० ॥ ९॥
अर्थः--मुनि तपने पारणे स्वाद आदिकनी लोलुपता मूर्छादिक कर्म लेप रहित संयम अर्थे दिनमां एक वार अ
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“साधुनी पेंच भावना.
हारले अने एकज वार पाणी पीए अने वनचारी पेठे अदीनमुनि एकलो विचरे ॥ ९॥
एह दोष पर ग्रहणथीरे पर संगे गुण हाण । पर धन ग्राही चोर ते रे, एकपणो सुखछाण रे ॥ प्राणी० ॥१०॥
अर्थः--जे जे दोषो छे ते पुद्गल पर्याय ग्रहणता, व्यापकता, रक्षकता, कर्ता, भोक्ता आदिपणाथी उपज्या छे पणपर पर्यायनी ग्राहकता व्यापकता रक्षकता आदि छोडी शुद्धात्म तत्वतुं एकपणुं ग्रहे तो ते अनंत सुखनी खाण छे पण पर संगे तो गुणोनी हानि थाय छे माटे परसंग तजी एक शुद्धात्म भावमा मग्नपणे रहेg तेज एकलपणुं स्वतंत्र सुख खाण छे. जे पर वस्तु पर धन ग्रहे ते चोर जाणवो, पण पोतानी वस्तु भोगवे ते निर्भयपणे सहजे सुखमां वर्ते तेम आत्मा पर परिणति ग्रहणता तजी ज्ञानादिक निज परिणतिमां ग्राहकता व्यापकता रक्षकता कर्ता भोक्ता आदिपणुं आदरे तोज शाश्वत समाधिमां मग्न रहे ॥ १० ॥
पर संजोगथी बंध छरे, पर वियोगथी मोक्ष। तेणे तजी पर मेलावडोरे, एकपणो निज पोषरे ॥ प्राणी० ॥ ११ ॥ अर्थः-पर संजोगे बंध छे अने पर छोड्यां मुक्ति
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सावनी पंच भावना.
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छे. ते माटे पर मेलावडो तजी पोताना एकपणाने जाणी ज्ञानादिक गुणोने पुष्ट कर ॥ ११ ॥
जन्म न पाम्यो साथ कोरे, साथ न मकोय ।
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दुःख बचत्रा को नहींरे,
क्षणभंगुर सह लोयरे ॥ प्राणी० ॥ १२ ॥
अर्थः- कोइ साथै सलाह करी जन्म पाम्यो नयी तेम मन्यो पण नथी तेम दुःख वचवा पण कोइ समर्थ नयी पण जेने जेवां जन्म मरण दुःख आदिनो उदय होय तेवोज ते भोगवे सर्वे जीवनां शरीर क्षणभंगुर छे माटे अक्षय आत्म अंगमां पोतावणं जाणी एकत्त्वपणे थिर रहो ॥ १२ ॥ परिजन मरतो देखोनेरे,
शोक करे जन मूढ | अवसरे वारो आपणोरे,
सहु जननी रूढरे || प्राणी० ॥ १३ ॥
अर्थः- परिवारमाथी कोइने मरतो देखी मूढ पुरुष शोक करे छे वली अवसरे सर्वनो तेम आपणो एज वारी छे एम जाणीने परिजन अने शरीर रुपपर द्रव्यमां ममता करता नथी ते अखंड शुद्ध निज आत्म स्वभाव जोणी निर्भय निराकुल रहे छे ॥ १३ ॥
सुरपति चक्री हरी बलीरे,
एकला परभव जाय ।
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९८०
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साधुनी पंच भावना.
तन धन परिजन सहु मिलीरे, कोइ सखाय न थायरे ॥ प्राण० ॥ १४ ॥
अर्थः- इंद्र चक्रवतीं वासुदेव बलदेव आदि महा बलवंत पुरुषो ते पण सर्वे पुद्गलीक शक्ति अने वैभव छोडी एकलाज परभवे जाय छे पण तन धन परिवार समां मित्रादि कोइ पण सखाई थई शकतां नथी. एहवा अशरण जीवने परमेश्वरना वचनमां प्ररुपेलुं शुरू स्वभावाचरण तेज शरणे राखनारा सखाई छे माटे कोइ प्रकारे पण चारित्रयी चलायमान थवुं नहीं ॥ १४ ॥
ज्ञायक रूप हुं एक छुरे, ज्ञानादिक गुणवंत | बाह्य जोग सहु अवर छेरे,
पाम्यो वार अनंतरे ॥ प्राणी० ॥ १५ ॥
अर्थः- हुं ज्ञायक रूपे अनंत चेतना लक्षणवालो एक छं अने ज्ञानादि अनंत गुणे गुणवंत छं तेथी बाहेरला पुद् - गल योग ते सर्वे बाहरथी भिन्न छे अने ते अनंतिवार पाम्यो पण हुं अने तेथी सुखी पण थयो नयी माटे ए बाहेर योगने माहरे शा वास्ते आदरवा जोईए ? || १५ ॥ करकंडु नमिने गाईयेरे,
दुम्मुह प्रमुख ऋषिराय । मृगापुत्र हरिकेशीनारे,
बंदुं हुं नित पायरे ॥ प्राणी ॥ १६ ॥
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साधुनी पंच भावना.
अर्थः-करकंडु मुनि, नमिराज रुषी, दुम्मुह आदि ऋषीश्वरोने गाईए, वली मृगापुत्र हरिकेशी मुनि के जेणे सत्यार्थ मुनिपणुं आदरयुं तेना चरणकमल हुं नित्ये प्रत्ये वंदु छु ॥ १६ ॥
साधु चिलाती सुत भलोरे, वली अनाथी तेम। एम मुनि गुण अनुमोदतारे, देवचंद्र सुख खेमरे ॥ प्राणो०॥ १७ ॥ अर्थः--वली रूडो चिलातीपुत्र नामा साधु वली अनाथी आदि निग्रंथना गुणोनी अनुमोदना करतां देवचंद्र मुनि कहे छे के क्षेम कुशलता शिवपद पामीए ॥ १७॥
॥ ढाल ५ मी॥ इणिपरे चंचल आउखुं जीव जागोरे ॥ ए देशी ॥ चेतम ए तन कारिमो तुमे ध्यावोरे, शुद्ध निरंजन देव। भविक तुमे ध्यावोरे, शुद्ध स्वरूप अनूप ॥ भविक० ॥१॥
अर्थ:--हे चेतन ! आ शरीर कारमुं छे एटले क्षणमां छे अने क्षिणमां नहीं, क्षिणमा निरोगी अने क्षिणमा रोगाक्रांत, क्षिण सबळ निर्बल एम अथिर परीणतिवालं ए शरीर
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साधुनी पंच भावना.
more.. .... तेथी कारमुं छे परवस्तु छे. माटे हे भवि ! तमे एनी ममता अने स्नेह संभाल छोडी शुद्ध निरंजन आत्मदेवने ध्यावो पोताना शुरू स्वरूपनो अनुपम अनुभव अभ्यास करो ॥१॥
नरभव श्रावक कुल लह्यो ॥ तु० ॥ लाधी समकित सार ॥ भविक०॥ जिन आगम रुचिशं सुणो ॥ तु.॥
आलस निंद निवार ॥ भविक०॥२॥ अर्थः--उत्तम आर्य क्षेत्रमा नरभव श्रावककुल सद्गुरु अने सत्शास्त्र योग पाम्या के जे दशे द्रष्टांत पामवो दुर्लभ छे. एवी सामग्री पामी विषय प्रमाद वशे फोगट न गमावो अने सार समकित पण पाम्या छो माटे आलस अणे निद्रा छोडी जीनेश्वरे प्ररुपेलं आगम के जेमा सम्यक्प्राक्रम फोरी सकल कर्मनो नाश करी परमनिवृत्ति रूप मोक्षपदनी प्राप्ति थाय ए आदि भाव बताब्या छे ते आगम परम प्रेम रूचि आदर सहित सांभलो. वली आगममां पंचास्तिकायना अने नवे तत्त्वना भाव प्रत्यक्षपणे सिद्ध करी देखाड्या छे ते सांभलो शंकादि दोष टाली निःशंक निर्भयपणे मोक्षमार्ग साधो ॥ २ ॥
समयांतर सहभावनो ॥ तु०॥ दर्शन ज्ञान अनंत ॥ भ० ॥ आतम भावे थिर सदा ॥ तुं०॥ अक्षय चरण महंत ॥ भ० ॥३॥.
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साधुनी पंच भावना.
अर्थः-- जेने समयांतर वस्तुना छता आत्मशाश्वता भावनुं अनंत दर्शन ज्ञान छे ते आत्मभावे सत्तापणे सदा थिर छे. अने शुरूनयद्रष्टे स्वस्वभावमां रमण करीये तो दर्शन ज्ञान चारित्र सदा आत्मभावयी अभेद अने प्रगटपणे थिर छे. ते अक्षय महा स्वभावाचरण सकल समय परमानंद आपवावालं छे || ३ ॥
तिन लोक त्रिहुं कालनी ॥ तु० ॥ परिणति तीन प्रकार ॥ भ० ॥ एक समे जाणे तिणे ॥ तु० ॥
नाण अनंत अपार ॥ भ० ॥ ४ ॥
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अर्थः-- आत्मा ऋण लोकमां रहेला द्रव्योनी उत्पाद व्यय ध्रुवरूप व प्रकारनी परिणति सकल समय समकाले जाणे छे तेथी तेनुं अंत रहीत ऊपार ज्ञान छे ॥ ४ ॥ सकल दोपहर शाश्वतो ॥ तु० ॥ वीरज परम अदोन ॥ भ० ॥
सूक्षम तनु बंधन विना ॥ तु० ॥ अवगाहना स्वाधीन ॥ भ० ॥ ५ ॥
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अर्थः-- आत्मा रागद्वेष अने जन्म मरणादि सकल दोषोने हरवावालो पोते स्वयंसिद्ध शाश्वतो छे, वली परम अचल अनंत वीर्यवंत अने - ममत्व तज्येयी दीनता रहित छे, कार्मण आदि सूक्ष्म तनु बंधन विना जेनो अवगाहना अलपणे पोताने स्वाधीन छे ॥ ५ ॥
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साधुनी पंच भावना. पुद्गल सकल विवेकथी॥तु०॥ शुद्ध अमूर्ति रूप ॥ भ०॥ इंद्रिय सुख निस्पृह थई ॥ तु०॥ अकषाय अबाह खरूप ॥ भ०॥ ६ ॥ अर्थः--पुद्गल ते पोताना वर्ण गंध रस स्पर्श सडण पडण विध्वंसन ग्रहण त्याग ए आदि अनेक रूपी लक्षण सहित छे. एयी मिन्न आत्म ज्ञान दर्शन रमण सुख वीर्य दान लाभ भोग उपभोग उपभोगादि अनेक अरूपी अमूर्ति लक्षण युक्त सदा छे. कोइ काले पण ते पुद्गलादि अन्य द्रव्यना विशेष लक्षणवालो हतो नहीं, छे नहीं, थशे नहीं माटे परलक्षणे पोतानो न जूओ. आत्मा स्वलक्षणे अस्ति परलक्षणे नास्ति रूप छे. एम परम विवेके स्वपर मित्रता जाणी पर ममता आदि त्यागी आपणा द्रव्य क्षेत्र काल भावमां आपापणानी रूडी मति करी थिर उपयोगे अखंड समय आत्मशुद्धता ध्यावो, आत्म शुद्धतामां उपयोग रमावो, इंद्रिय सुखथी निस्पृह थई कषायो अने कषायोनां कारण तजी अबाधित शुद्धात्म स्वरूपमां लक्ष थिर करो ॥ ६॥
द्रव्यतणा परिणामथी॥तु०॥ अगुरु लघुत्व अनित्य ॥ भ०॥ सत्य स्वभावमयी सदा ॥ तु०॥ असत्य तजो तुमे मित्त ॥ भ०॥७॥ अर्थः-द्रव्यना परिणामिकपणाथी अगुरूलघु स्वभाव सदाये
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साधुनी पंच भावना.
नवे नवे समये नवा नवा पर्याये खट्गुण हानिवृद्धिपणे ध्रुव छतां उत्पाद् व्ययपणे परिणमे छे. एवो अनित्य स्वभाव छतां पण नित्य स्वभाववालो अने स्याद्वाद परिणामी आत्म स्वभाव ध्यावो, पोताना द्रव्य क्षेत्र काल अने भावे सदा सत्य स्वभाववंत आत्मा छे अने पर द्रव्य क्षेत्र काल अने भावे असत्य छे. माटे हे मित्र ! असत्य तजि सत्य स्वभावमयी आत्म स्वरूप ध्यावो ॥७॥
निज गुण रमतो राम ए॥ तु०॥ सकल अकल गुण खाण ॥ भ०॥ परमातम पर ज्योति ए ॥ तु०॥ अलख अलेप वखाण ॥ भ०॥८॥
अर्थः--आत्मा पोताना शुद्ध गुणमां रमतो पोतेज राम छे, एटले परम आरामी छे. वली बुद्धिथी कली शकाय नहीं एहवो अकल अने सकल गुणनी खाण छे. वली ए परमात्मा छे, परमभावनो भोगी छे, सूर्य चंद्र तारा नक्षत्र रत्न अग्नि आदिनी व्यावहारिक ज्योतिथी पर एटले ज्ञान दर्शन रूप अलौकिक परम ज्योतिवंत छे, वली छद्मस्थने पूर्ण लक्षमां आवे नहीं एहवो छे. वली जेम आकाशने कर्दमादि लेप लागे नहीं तेम आत्म अंगे पुद्गल लेप लागे नहीं एहवो छे, पण जे मूढो पुद्गलमा पोतापणुं जाणे माने छे तेने मिथ्यात्व रागादि लेप लाग्यो कहिये. पण शुद्धनये जेने स्वस्वरूपमां लक्ष छे तेने कर्म लेप लागतो नथी एहवो आत्मा सिद्धांतोमा वखाण्यो छे ॥८॥
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साधुनी पंच भावना.
पंच पूज्यथी पूज्य ए ॥तु०॥ सर्व ध्येयथी ध्येय ॥ भ०॥ ध्याता ध्यान रू ध्येय ए ॥ तु०॥ निश्चे अभेद ए श्रेय ॥ भ०॥९॥
अर्थः--अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने साधु ए पंच परमेष्टीं पूज्य छे तेमने पूजवाथी जीव देवादिक शुभ गति पामे केमके प्रशस्त राग ते पण पुण्याश्रव रूप छे अने पोताना परमदेवने पूज, ते तो राग रहित शुद्धात्म भाव छे. तो शुद्धात्म भाव सेवतो पुरुष निर्वाण पद पामे. अरिहंत अने आचार्यादि तत्त्व उपदेशना दातार छे पण ते उपदेशने ग्रहण करवावालो अने सेववावालो आत्मा पोतेज पूज्य छे, वलि आत्मशुद्धता शिवाय जे अन्य ध्येयनुं ध्यावं ते शुभाशुभ बंध प्रकृतिने वधारवावालुं छे अने सहज शुद्धात्म स्वरूपनुं ध्या, ते शुभाशुभ बंध विना निर्वाण पद आपनारूं छे. माटे सकल ध्येयमां शुद्धात्म भाव ते परम ध्येय छे. शुद्ध च्यानने ध्यावावालो पोते आत्माज छे अने उपयोग शुद्ध ध्येयमां थिर करवो ते उपयोग पोतानोज छे अने शुद्ध ध्येय ते पोतानुज शुद्ध स्वरूप छे, एम ध्याता ध्यान अने ध्येय व्यवहारे भेद कहीये अने निश्चयनये ए वणे भाव आत्माथी अभेद पणे छे एटले आत्मानाज छे तेज श्रेय के० कल्याणकारी छे ॥९॥
अनुभव करतां एहनो ॥ तु०॥ थाए परम प्रमोद ॥ भ० ॥
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साधुनी पंच भावना.
एक रूप अभ्यास\ ॥ तु० ॥ शिव सुख छे तसु गोद ॥ भ० ॥ १०॥
अर्थः-आत्म शुद्धतानो अनुभव करतां परम प्रमोद उपजे अने पुद्गल विषय अनुभव रूप अशुद्धता टले. जे मुनि अनंत लक्षणमयी पोताना ज्ञायक एक रूपनो अभ्यास करेध्याय तेने मोक्ष सुख पोतानी गोदमां एटले पोताना खोलामांज छे ॥ १० ॥
बंध अबंध ए आतमा ॥ तु०॥ करता अकरता एह ॥ भ०॥ एह भोगता अभोगता ॥ तु०॥. स्याद्वाद गुण गेह ॥ भ० ॥ ११ ॥
अर्थः-परद्रव्यना ममत्वथी बंधायलो आत्मा द्रव्यकर्म तथा भावकर्म बांधे छे पण शुद्ध आत्मस्वरूप जाणी पर पारिणामिकता त्याग्या पछी स्वस्वरूपमां रमे त्यारथी ते अबंध छे. वली व्यवहारनयथी द्रव्यकर्म अगर पुद्गल वर्गणा, जीव वर्गणी जीव बांधे छे अने निश्चय नयथी पोताना स्निग्ध रूक्षगणे करी पुद्गल परमाणुआ अगर पुद्गल वर्गणा आपसमां पुद्गलो साथे बंधाय छे पण जीव, पुद्गलो साथे बंधातो नथी. व्यवहार नयथी जीव, द्रव्य कर्मनो अने गाम नगर घट पटादिनो कर्ता कहेवाय पण निश्चयनययी गाम नगर के घट पट तथा द्रव्यकर्म पुद्गल वर्गणा आदिनो का जीव नथी. पण स्वस्वभावनो कर्ता छे. रागादि वशे पर गुण पर्यायनो भोगी जीप कहेवाय पण निश्चय नययी
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साधुनी पंच भावना.
पर गुण पर्यायनो भोगी जीव नथी. अशुद्ध निश्चये रागादि अशुद्धतानो भोगी छे पण शुद्ध निश्चयनये पोतानुं शुद्ध स्वरूप जाण्या पछी पोताना ज्ञानानंद आदि अनंत शुद्ध स्वभावनो भोगी छे एम स्याद्वाद एज गुणनुं घर छ । ॥११॥
एक अनेक स्वरूप ए तु०॥ नित्य अनित्य अनादि ॥ भ० ॥ सदसद्भावे परिणम्या ॥ तु०॥ मुक्त सकल उन्माद ॥ भ० ॥ १२ ॥
अर्थः--आत्मा पोताना परम चेतनत्व स्वभावे निश्चय अनंत पर्यायनो एक पिंड एक रूप छे अने ज्ञान दर्शन चरण सुख वीर्यादि के व्यवहारे अनेक रूप छे. द्रव्यार्थिकनये नित्य छे. नवा नवा पर्याय परिणमवे पर्यायार्थिकनये अनित्य छे. स्वद्रव्यादिके सत्य अने परद्रव्यादिके असत्य छे. एम सर्वे द्रव्यो सकल समय सदसद्भावे परिणम्या अनादि सिद्ध छे. माटे मोह मदिरानो उन्माद छोडी यथावत् वस्तु स्वरूप जाणी परद्रव्यनी ममता छोडी शुद्धात्म तत्त्वमां लीन थर्बु जोइए ॥ १२ ॥
जप तप करिया खपथकी ॥ तु०॥ अष्ट करम न विलाय ॥ भ० ॥ ते सहु आतम ध्यानथी ॥ तु०॥ क्षणमें खेरू थाय ॥ भ० ॥ १३ ॥
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साधुनी पंच भावना.
अर्थः--तप जप किरियानो खप करवाथी जे. आठ कर्मनो नाश थाय नहीं ते आठे कर्मनो शुद्धात्म ध्यानवडे क्षणमां क्षय थाय छे ॥ १३ ॥
शुद्धातम अनुभव विना ॥ तु०॥ बंध हेतु शुभ चाल ॥ भ०॥ आतम परिणामे रम्या ॥ तु०॥ एहज आस्त्रव पाल ॥ भ० ॥१४॥
अर्थः-शुद्धात्म अनुभव विना शुभाशुभ सर्व आचरण ते कर्मबंधनां हेतु छे. जे जीव शुद्धात्म परिणामे रम्या तेने आस्रवरूप पाणी आवतुं अटकाववाने पाल बांधी एटले शुभाशुभ पुद्गल दल अने शुभाशुभ पुद्गल परिणाम रस आवता रोकवाने संवर रूप आडी पाल बांधी एम जाणवू ॥ १४ ॥
ईम जाणी निज आतमा ॥ तु० ॥ वरजी सकल उपाध ॥ भ०॥ उपादेय अवलंबने ॥ तु० ॥ परम सहोदर साध ॥ भ० ॥१५॥
अर्थः--एम जाणी सकल शुभाशुभ विभाव उपाधि दाली एकलो सहज निज शुद्धात्म भाव रूप शुद्ध तत्त्व ध्याओ. शुद्ध आत्मभाव रूप उपादेय अवलंबने वर्ती परम महोदय सिद्धि पद साध्य साधो-सिद्ध करो ॥ १५ ॥
भरत ईलासुत तेतली ॥ तु०॥ ईत्यादिक मुनि बंद ॥ भ० ॥
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साधुनी पंच भावना.
आतम ध्यानथी ए तर्या ॥ तु.॥ प्रणमे ते देवचंद्र ॥ भ०॥ १६ ॥
अर्थः-भरत चक्री, इलायचि कुंवर, तेतली मुनि, ए आदि मुनिओना वृंद शुद्धात्म ध्यानथी तस्या छे तेने देवचंद्र मुनि वंदे छे. परमार्थ ए के घणो काल अगर थोडो काल वाह्य चारित्र प्रवृत्ति करो पण ज्यारे पूर्ण समभाव आदरी समयानंतर शुद्धात्म उपयोगमा मग्न लीन थशो तोज केवलज्ञानादि शुद्ध गुणो पामी सिद्धि वरशो ॥ १६ ॥
॥ ढाल ६ छठी॥ शैलग शेजेजे सिद्ध्या ॥ ए देशी ॥ भावना मुक्ति निशाणी जाणी, भावो आसक्ति आणीजी। योग कषाय कपटनी हाणी, थाये निर्मल जाणीजी ॥ भावना ॥१॥
अर्थः-ए पंच भावना मुक्तिनी निशानी अर्थात निसरणी छे. एम जाणी ए भावनाओमां विशेष रक्त थई तन्मयताए भावो. तेथी अप्रशस्त योग कषायो अने कपट आदि दुर्गणोनी हाणी थाय. अने ए भावना निर्मल जाणी जे सेवे ते उतावलो आत्म शुद्धता पामे ॥ १ ॥
पंच भानना ए मुनि मनने, संवर खाणी वखाणीजी।
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साधुनी पंच भावना.
बृहत्कल्प सूत्रनी वाणी, दीठी तेम कहाणीजी ॥ भा०॥ २ ॥
अर्थः-ए पंच भावना मुनिओना मनने संवर निपजावनारी संवर भावनी खाण वखाणी छे अने एर्नु वखाण बृहत्कल्प भाष्यमां जेम देख्युं तेम अहिंआं कर्तुं छे ॥२॥
कर्म कतरणी शिव निसरणी, ध्यान ठाण अनुसरणीजी। चेतन रामतणी ए घरणी, भव समुद्र दुःख हरणोजी ॥ भा० ॥३॥
अर्थः-ए भावनाओ दुष्ट कर्मने कापवाने कतरणी समान, शिव महेलमां चढवाने निसरणी समान, शुद्ध ध्यान वधारवावाली अने थिरता आपवावाली वली गुणठाणानी श्रेणिए चढवामां आधारभूत छे, आत्मानुं घर संभालवा सुधारवावाली माटे चेतन घरनी अने भव समुद्रना दुःखथी तारखा नाव अने झहाज समान छे ॥३॥
जयवंता पाठक गुण धारी, राजसागर सुविचारीजी । निर्मल ज्ञान धरम संभाली, पाठक सहु हितकारीजी ॥ भा०॥४॥ अर्थः-कर्म शत्रुने जीतवावाला जयवंता उत्तम गुण१ श्रीमद् देवचंद्रनी पंचभावनापर लखायलो टबो स्वोपज्ञ नथी.
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साधुनी पंच भावना. ~~~~~~~.......-------------... धारी शुद्ध तत्त्व विचारवावाला राजसागर नामा पाठक तेमना शिष्य निर्मल ज्ञान अने निर्मल धर्मना भंडार सहु संघने हितकारी ज्ञानधरम नामना पाठक वली ॥४॥
राजहंस सहगुरु सुपसाये, देवचंद्र गुण गायजी। भविक जीव जे भावना भावे, तेह अमित सुख पायजी ॥ भ० ॥५॥ जेसलमेरी शाह सुत्यागी, वईमान वड भागीजी। पुत्र कलत्र सकल सोभागी, साधु गुणना रागीजी ॥ भ० ॥६॥ तस आग्रहथी भावना भाई, ढालबंधमां गाईजी। भणशे गुणशे जे ए ज्ञाता, लहेशे ते सुख शाताजी ॥ भा०॥७॥ मन शुद्ध पंचे भावना भावो, पावन जिन गुण पावोजी । मन मुनिवर गुण संग वसावो, सुख संपति गृह थावोजी ॥ भा०॥८॥
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अष्ट प्रवचन मातानी सझ्झायो.
॥ दोहरा ॥ सुकृत कल्पतरु श्रेणिनी, वर उत्तरकुरु भोमि । अध्यात्म रस शशि कला, श्री जिन वाणी भौमि (नौमि?)॥१॥ दीपचंद पाठक सुगुरु, पय वंदी अवदात। सार श्रमण गुण भावना, गाइशुं प्रवचन मात ॥२॥ जननी पुत्र हित शुभकरो, तिम ए पवयण माय । चारित्र गुण गणवर्द्धनी, निरमल शिव सुखदाय ॥३॥ भाव अयोगी करण रुचि, मुनिवर गुप्ति धरंत । जो गुप्ति ना रहि शके, तो सुमते विचरंत ॥ ४॥
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अब प्रवचन मातानी सझायो.
गुप्ति एक संवरमयी, उछरंगीक परिणाम | संवर निर्झर समितिथी, अपवादे गुणधाम ॥ ५ ॥ द्रव्ये द्रव्यत चरणता,
भावे भाव चरित ।
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भाव द्रष्टि द्रव्यत क्रिया, सेवि लहो शिव मित्त ॥ ६ ॥ आतम गुण प्रागभावथी, जे साधक परिणाम ।
समिति गुप्ति ते जिन कहे, साध्य सिद्धि शिव ठाम ॥ ७ ॥
निश्चय करण रुचि थई समिति गुतिधर साधि । परम अहिंसक भावथी, आराधे निरुपाधि ॥ ८ ॥ परम महोदय साधवा, जेह थया उजमाल । श्रमण भिक्षु माहण यति, गावं तस गुणमाल ॥ ९ ॥
ए
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अष्ट प्रवचन मातानी सझ्झायो.
mannmannmarrierrorismr.unarwar..... -
॥ ढाल पहेली॥ प्रथम गोवालणतणे भवेजी ॥ ए देशी ॥ प्रथम अहिंसक प्रततणीजी, उत्तम भावना एह ॥ संवर कारण उपदिशीजी, समता रस गुण गेह ॥ मुनीसर इरिया समिति संभार, आश्रव कर तनु योगथीजी, दुष्ट चपलता वार ॥ मुनीसर० ॥१॥ काय गुप्ति उत्सर्गनोजी, प्रथम समिति अपवाद ॥ इरिया ते जे चालवोजी, धरि आगम विधिवाद. मुनी०॥२॥ ज्ञान ध्यान सिझ्झायमांजी, थिर बेठा मुनिराज ॥ श्याने चपलपणो करेजी, अनुभव रस सुखराज ॥ मुनी० ॥३॥ मुनि ऊठे वसही थकीजी, पामी कारण च्यार ।
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'अष्ट प्रवचन मातानी सझाया.
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जिन वंदन ग्रामांतरेजी,
के आहार निहार ॥ मुनी० ॥ ४ ॥
परम चरण संवर धरुजी, सर्व जाण जिन दीठ ॥ शुचि समता रुचि ऊपजेजी, तिणे मुनिने ए ई ॥ मुनी० ॥ ५ ॥ राग वधे थिर भावथीजी,
ज्ञानविना परमाद | वीतरागता ईहताजी,
विचरे मुनि साल्हाद ॥ मुनी० ॥ ६ ॥ ए शरीर भव मूल छे जी,
तसु पोषक आहार ।
जाव अयोगी नवि हुवेजी,
त्यां अनादि आचार ॥ मुनी० ॥ ७ ॥ कवलाहारे निहार छे जी,
एह अंग व्यवहार ।
धन्य अतनु परमातमाजी,
जिहां निश्चलता सार. मुनी० ॥ ८ ॥ पर परिणति कृत चपलताजी,
कीम मूकस्येरे एह ।
४
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अष्ट प्रवचन मातानी सझायो.
एम विचारी कारणेजी, करे गोचरी तेह ॥ मुनी० ॥ ९ ॥
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९९०
क्षमावंत दयालुआजी, निस्पृही तनु नीराग । निर्विषयी गजगतिपरेजी,
बिचरे मुनि महा भाग ॥ मुनी० ॥ १० ॥
परमानंद रस अनुभव्याजी,
निज गुण रमता धीर । देवचंद मुनि वंदतांजी, लहिये भवजल तीर ॥ मुनी० ॥ ११ ॥
|| ढाल बीजी ॥
|| भावना मालती चूसीए ॥ ए देशी ॥
साधुजी समिति वीजी आदरो, वचन निर्दोष परकासरे । गुप्ति उत्सर्गनो समिति ते,
मार्ग अपवाद सुविलासरे ॥ साधु० ॥ १ ॥ भावना वीजा महाव्रततणी, जिन भणी सत्यता मूलरे ।
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अष्ट प्रवचन मातानी सइझायो. भाव अहिंसकता वधे, सर्व संवर अनुकुल रे ॥ साधु० ॥२ मौनधारी मुनि नवि बहे, वचन जे आश्रव गेहरे। आचरण ज्ञानने ध्याननो, साधक उपदिसे तेहरे ॥ साधु० ॥३॥ उदित पर्याप्ति जे वचननी, ते करी श्रुत अनुसाररे। बोध प्रागभावी सजायथी, वलि करे जगत उपगाररे ॥ साधु०॥४॥ साधु निज वीर्यथी परतणो, नवि करे ग्रहणने त्यागरे। ते भणी वचन गुप्ति रहे, एह उत्सर्ग मुनि मार्गरे ॥ साधु० ॥५॥ योग जे आश्रवपद हतो, ते को निर्झरा रूपरे। लोहथी कंचन मुनि करे, साधता साध्य चिद्रपरे ॥ साधु० ॥६॥ आत्म हित पर हित कारणे, आदरे पांच सिझायरे ।.
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अष्ट प्रवचन मातानी सझ्झायो. ९९९ ते भणी असन वसनादिका, आश्रय सर्व अववायरे ॥ साधु० ॥७॥ जिन गुण स्तवन निज तत्त्वने, जोइवा करे अविरोधरे। देशना भव्य प्रतिबोधवा, वायणा करण निज बोधरे ॥ साधु० ॥८॥ नय गम भंग निक्षेपथी, स्वहित स्याहादयुत वाणरे। सोल दश चार गुणसु मिलि, कहे अनुयोग सुपहाणरे ॥साधु०॥९॥ सूत्रने अर्थ अनुयोग ए, बीय नियुक्ति संजुत्तरे, तीय भाष्ये नये भावियो, मुनि वदे वचन एम तंतरे॥ साधु० ॥१०॥ ज्ञान समुद्र समता भर्या, संवरी दया भंडाररे। तत्व आनंद आखादता, वंदिए चरण गुणधाररे ॥ साधु० ॥ ११ ॥ मोह उदये अमोही जिसा, शुद्ध निज साध्य लयलीनरे ।
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१०००
अह प्रवचन मातानी सइझाया.
देवचंद्र तेह मुनि वंदिये, ज्ञान अमृत रस पीनरे साधुक ॥ १२ ॥
॥ ढाल ब्रीजी।। ॥ झांझरिया मुनिवर ॥ ए देशी ॥ समिति तीसरी एषणाजी, पांच महाव्रत मूल । अणहारी उत्सर्गनोजी, ए अपवाद अमूल; मनमोहन मुनिवर समिति सदाचित्तधार॥१॥ चेतनता चेतनतणीजी, नवि परसंगी तेह। तिण पर सन्मुख नवि करेजी, आतमरती व्रती जेह ॥ मन० ॥२॥ काय योग पुद्गल ग्रहेजी, एह न आतम धर्म। जाणग करता भोगताजी, हुं माहरो ए मर्म ॥ मन० ॥३॥ अणभिसंधि चल वीर्यनीजी, रोधक शक्ति अभाव ।
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अष्ट प्रवचन माताना सझ्झाया.
१००१
womrammarrrrror
पण अभिसंधिज वीर्ययोजी, कोम ग्रहे परभाव ॥ मन० ॥४॥ इम पर त्यागी संवरीजी, न ग्रहे पुद्गल खंध। साधक कारण राखवाजी, अशनादिक संबंध ॥ मन० ॥ ५ ॥ आतम तत्त्व अनंतताजी, ज्ञान विना न जणाय । तेह प्रगट करवा भणीजी, श्रुत सझ्झाय उपाय ॥ मन०॥ ६ ॥ तेह जेहथी देह रहेजी, आहारे बलवान् । साध्य अधूरे हेतुनेजी, केम तजे गुणवान् ॥ ७ ॥ तनु अनुयायी वीर्यनोजी, वर्तन अशन संजोग। वृद्ध यष्टि सम जाणीनेजी, अशनादिक उपभोग ॥ मन० ॥८॥ जो साधकता नवी अडेजी,
तो न ग्रहे आहार । 128
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१००२
अष्ट प्रवचन मातानी सझायो.
बाधक परिणति वारवाजी, अशनादिक उपचार ॥ मन० ॥ ९ ॥
सुडतालीसे द्रव्यनाजी,
दोष तजी नीराग । असंभ्रांति मूर्च्छा विनाजी, भ्रमर पेरे वडभाग ॥ मन० ॥ १० ॥ तत्त्व रुचि तत्त्वाश्रयोजी,
तत्त्व रसीक निग्रंथ ।
कर्म उदये आहारताजी,
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मुनि माने पलीपंथ ॥ मन० ॥ ११ ॥ लाभथकी पण घन लहेजी,
अति निर्झरा करंत ।
पाम्ये अण व्यापकपणेजी,
निरमल संत महंत ॥ मन० ॥ १२ ॥ अणाहारता साधताजी,
समता अमृत कंद | भिक्षु श्रमण वाचंयमीजी, ते वंदे देवचंद ॥ मन० ॥ १३ ॥
१०
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and
अष्ट प्रवचन मातानी सझ्झायो. १००३
॥ ढाल चोथी॥ ॥ भोलीडा हंसारे विषय न राचीए ॥ ए देशी ॥
समिति चोथोरे चउ गति वारणी, भाखी श्री जिनराज। राखी परम अहिंसक मुनिवरे, चाखी ज्ञान समाज ॥ १॥ सहज संवेगोरे समिति परिणमे, साधन आतम काज । आराधन ए संवर भावनो, भव जल तारण जहाज ॥ सहज० ॥२॥ अभिलाषो निज आतम तत्त्वना, साखी करि सिद्धांत ॥ नाखो सर्व परिग्रह संगने ध्यानाकाशीरे संत ॥ सहज० ॥३॥ संवर पंचतणी ए भावना, निरुपाधिक अप्रमाद । सर्व परिग्रह त्याग असंगता, तेहनो ए अपवाद ॥ सहज० ॥४॥ श्याने मुनिवर उपकरण संग्रहे, जे परभाव विरत्त ।
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१००४
अष्ट प्रवचन मातानी सझाया.
देह अमोही रे नवि लोही कदा, रत्नत्रयी संपत्त ॥ सहज० ॥ ५ ॥ भाव अहिंसकता कारण भणी, द्रव्य अहिंसक साधि । रजोहरण मुख वस्त्रादिक धरे,
ते
वरवा - योग समाधि ॥ सहज० ॥ ६ ॥ शिव साधननो मूल तेहनो हेतु सझाय । ते आहारे ते वलि पात्रथी,
ज्ञान छे,
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जयणाए ग्रहवाय || सहज० ॥ ७ ॥
बाल तरुण नर नारी जंतुने, नग्न दुगंच्छानो हेतु । तिणे चोलपट ग्रही मुनि उपदिशे, शुद्ध धरम संकेत ॥ सहज० ॥ ८ ॥ दंस मसक शीतादि परिसहे,
न रहे ध्यान समाधि ।
कल्पक आदिक निरमोहीपणे, धारे मुनि निरबाध ॥ सहज० ॥ ९ ॥ लेप अलेप नदीना ज्ञाननो,
कारण दंड ग्रहंत ।
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अष्ट प्रवचन मातानी सझाया.
दश वैकालीक भगवई साखथी, तन थिरताने रे तंत ॥ सहज० ॥ १० लघु सजीव सचित्त रजादिनो,
१००५
वारण दुःख संघट्ट । देखी पूंजेरे मुनिवर तेहथी,
ए पूरव मुनिवह ॥ सहज० ॥ ११ ॥ पुद्गल खंध ग्रहण निखेवना, द्रव्ये जयणारे तास ।
भावे आतम परिणति नवनवी, ग्रहतां समिति प्रकाश ॥ सहज० ॥ १२ ॥ बाधक भाव अद्वेषपणे तजे,
साधक ले गत राग ।
पूरव गुण रक्षक पोषकपणे,
नीपजते शिव माग || सहज० ॥ १३ ॥ संजम श्रेणेरे संचरता मुनि,
हरे कर्म कलंक |
१३
धरता समता रस एकत्त्वता,
तत्त्व रमणी निशंक | सहज० ॥ १४ ॥ जग उपगारीरे तारक भव्यना,
लायक पूर्णानंद ।
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अष्ट प्रवचन मातानी सझाया.
देवचंद एहवा मुनिराजना, वंद्रे पय अरविंद || सहज० ॥ १५ ॥
॥ ढाल पांचमी ॥ चेतन चेतजोरे ॥ ए देशी ॥
पंचमी समिति कहि अति सुंदरूरे, पारिठावणिया नाम ।
परम अहिंसक धर्म वधारणी रे,
मृदु करुणा परिणाम ॥ १ ॥ मुनिवर सेवज्यो रे,
समिति सदा सुखदाय । थिरता भावे संयम सोहायछेरे,
निरमल संवर थाय ॥ मुनिवर० ॥ २ ॥ देह नेहथो चंचलता वधेरे,
विकसे दुष्ट कषाय । तिण तनु राग ध्याने रमेजी,
ज्ञान चरण सुपसाय ॥ मुनि० ॥ ३ ॥ जिहां शरीर तिहां मल उपजेरे, तेह तणो परिहार |
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अष्ट प्रवचन मातानी सझ्झायो. १००७ करे जंतु चर थिर अणदूहव्यारे, सकल दुगंछा वार ॥ मुनि० ॥ ४ ॥ संयम बाधक आत्म विराधनारे, आणा घातक जाणि । उपधि अशन शिष्यादिक परठवे रे, आयति लाभ पिछाणि ॥ मु०॥५॥ वध्या आहारे तपीया परठवेरे, निज कोठे अप्रमाद । देह अरागी भात अव्यापतारे, धौरनो ए अपवाद मु० ॥६॥ संलोकादिक दृषण परिहरीरे, वरजी रागने द्वेष । आगम रीते परठवणी करेरे, लाघव हेतु विशेष ॥ मु० ॥ ७॥ कल्पांतीत आहालंदी क्षमीरे, जिन कल्पादि मुनीश ॥ तेने परठवणा एक मलतणी रे, तेह अल्प वली दीस ॥ मु०॥८॥ रात्रे प्रश्रवणादिक परठवेरे, विधिकृत मंडल ठाम ।
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१००८ अष्ट प्रवचन मातानी सइझाया.
थिविर कल्पनो प्रति अपवाद छेरे, ग्लानादिक नहि काम ॥ मु० ॥ ९ ॥ एह द्रव्यथी भावमारे, बाधक जे परिणाम। द्वेष निवारी मादकता विनारे, सर्व विभाव विराम ॥ मु० ॥१०॥ आतम परिणति तत्त्वमयी करेरे, परिहरता परभाव ॥ द्रव्य समिति पिण भावभणी धरेरे, मुनिनो एह स्वभाव ॥ मु० ॥ ११ ॥ पंच समिति समता परिणामथीरे, क्षमा कोष गत रोष। भावन पावन संयम साधतारे, करता गुण गण पोष ॥ मु० ॥ १२ साध्यरसी निज तत्त्वे तन्मयीरे, उछरंगी निरमाय । योग क्रिया फल भाव अवंचतारे, . शुचि अनुभव सुख दाय ॥ मु० ॥ १३॥ आणायुत नाणी दर्शनीरे, निश्चय निग्रह वंत ।
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१००९
अष्ट प्रवचन मातानी सझ्झायो. देवचंद्र एहवा निग्रंथ तेरे, मुज गुरु तत्व महंत ॥ मु०॥
॥ ढाल छट्ठी ॥ ॥ वैरागी थयोरे ॥ ए देशी ॥ मुनि मन वसि करो, मन ए आस्रव गेहोरे। मन ममता रसी, मनथोरे टालो यति वर तेहोरे ॥मुनि०॥१॥ पुष्ट तुरंग चित्त ते कचुरे, सो मोह नृपत्ति प्रधान । आर्त रौद्रनो खेत्र एरे, रोक !!! तुं ज्ञान निधानरे ॥ मुनि ॥२॥ गुप्ति प्रथम ए साधुनेरे, धर्म शुकलनार कंद ॥ वस्तु धर्म चिंतन भ्यारे, साधे पूर्णानंदरे ॥ मुनि० ॥ ३ ॥ योग ते पुद्गल जोग छरे,
वांधे अभिनव कर्म। 17
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१०१०
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अष्ट प्रवचन मातानी सझायो.
योग वर्त्तना कंपनारे,
नवि ए आम धर्मरे ॥ मुनि० ॥ ४ ॥ वीर्य चपल परसंगसीरे,
एह न साधक पक्ष । ज्ञान चरण सहकारनारे,
वरतावे मुनि दक्षरे ॥ मुनि० ॥ ५ ॥ सविकल्पक गुण साधनारे,
ध्यानीने न सुहाय । निर्विकल्प अनुभव रसीरे ॥ आत्मानंदी थायरे ॥ मुनि० ॥ ६ ॥ रत्नत्रयीनी भेदतारे,
एह समल व्यवहार । त्रिगुण वीर्य एकत्त्वतारे,
निर्मल आत्माचाररे ॥ मुनि० ॥ ७ ॥ शुक्लध्यान श्रुतलंबनी रे,
ए पण साधन दाव |
वस्तु धर्म उछरंगमांरे,
गुण गुणी एक स्वभावरे ॥ मुनि० ॥ ८ ॥ परसहाय गुण वर्त्तना रे,
वस्तु धरम न कहाय ।
૨૮
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अष्ट प्रवचन मातानी सझ्झायो.
१०११
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साध्यरसी तो कीम ग्रहेरे, साधु चित्त सहायरे ॥ मुनि० ॥९॥ आत्म रुचि आत्मालयी रे, ध्याता तत्व अनंत । स्यादवाद ज्ञानी मुनिरे, तत्त्व रमण उपसंतरे ॥ मुनि० ॥ १० ॥ नवि अपवाद रुचि कदारे, शिव रसीया अनगार । शक्ति यथागम सेवतारे, निंदे कर्म प्रचाररे ॥ मुनिः ॥ ११ ॥ शुद्ध सिद्ध निज तत्त्वतारे, पूर्णानंद समाज। देवचंद्र पद साधतारे, नमीए ते मुनिराजरे ॥ मुनि ॥ १२ ॥
॥ ढाल सातमी ॥ सुमति सदाए दीलमे धरो ॥ ए देशी ॥ हमि० ॥ वचन गुप्ति सुधी धरो, वचन ते कर्म सहाय, सलुणा ।
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१०१२
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अष्ट प्रवचन मातानी सझाया.
उदयाश्रित जे चेतना,
निश्चय तेह अपाय, सलुणा ॥ वचन० ॥१॥
वचन अगोचर आतमा,
सिद्ध ते वचनातीत, सलुणा ।
सत्ता अस्ति स्वभावमां,
भाषक भाव अनीत, सलुणा ॥ वचन०॥२॥
अनुभव रस आस्वादता,
करता आतम ध्यान, सलुणा ।
वचन ते वाधक भाव छे,
न वदे मुनि अदीन, सलुणा ॥ वचन०॥३॥
वचनास्रव पलटाववा,
मुनि साधे स्वाध्याय, सलुणा ।
तेह सर्वथा गोपवो,
परम महारस थाय, सगुणा ॥ वचन ० ॥४॥ भाषा पुगल वर्गणा,
ग्रहण निसर्ग उपाधि, सलुणा ।
करवा आतम वीर्यने,
श्याने प्रेरे श्याथी, सलुगा ॥ वचन० ॥५॥ यावत वीरज चेतना,
आतम गुण संपत्त, सलुणा ।
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अप प्रवचन मातानी सडझायो.
सावत सर्वे निर्झरा, आस्त्रवपर आयत्त, सलुणा ॥वचन०॥६॥ ईम जाणी थिर संजमो, न करे चपलीमंथ, सलुणा। आरमानंद आराधतां, आज्ञेच्छो निग्रंथ, सलुणा ॥ वचन०॥७॥ साध्य शुद्ध परमातमा, तसु साधन उत्सर्ग, सलुणा। बारे भेदे तप द्विविधे, सकल श्रेष्ठ व्युत्सर्ग, सलुणा ॥वचन०॥८॥ समकित गुण गुणठाणे कों, साध्य अयोगी भाव, सलुणा । उपादानता तेहनी, गुप्तिरूप थिरभाष, ससुगा ॥वचन०॥९॥ गुप्ति रुचि गुप्ते रूमा, कारण समिति प्रच, सगा। करता थिरता ईहता, ग्रहे तत्त्व गुग संब, सांगावचन०॥१०॥ अपवादे उस्लगनो, दृष्टि न चुके जेह, सलुणा।
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andey
१५ आप्रवचन मातानी सरझाया.
प्रणमे नित्यप्रत्ये भावशू, देवचंद्र मुनि तेह, सलुणा ॥ वचन ॥११॥
॥ ढाल आठमी ॥ ॥ फूलना चोरस प्रभुजीने शिर चढे । ए देशी ॥ गुप्ति संभारोरे त्रीजी मुनिवरु, जेहथी परम आनंदोजी। मोह टले घनघाती परिगले, प्रगटे ज्ञान अमंदोजो ॥ गुप्ति० ॥१॥ करि शुभ अशुभे भव भ्रम जे छ, तिण तजि तनु व्यापारोजी। चंचल भाव ते आस्रव मूल छे, जीव अचल अविकारोजो ॥ गुति ॥२॥ इंदि विषय सकलनो द्वार ए, बंध हेतु द्रढ एहोजो। अभिनव कर्म ग्रहे तनु योगथी, तिग थिर करिए देहोजो ॥ युतिः ॥३॥ आतम वीर्य फुरे पासंग जे, ते कहिए तनु योगजो।
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अष्ट प्रवचन मातानी सझायो.
छे,
चेतन सत्ता रे परम अयोगी निर्मल थिर उपयोगजी ॥ गुप्ति० ॥ ४ ॥
जावत कंपन तावत बंध छे. अंगेजी ।
भाख्युं भगवइ ते माटे ध्रुव तत्त्व रसे रमे,
माहण ध्यान प्रसंगेजी ॥ गुप्ति० ॥ ५ ॥ वीर्य सहायीरे आतम धर्मनो,
अचल सहज अप्रयासोजी । ते परभाव सहायी किम करे, मुनिवर गुण आवासांजी ॥ गुति० ॥ ६ ॥
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खंत्ती मुक्ती अकिंचनी,
शौच ब्रह्मधर धीरोजी ।
विषय परिषह सैन्य विदारवा,
वीर परम सौंडीरोजी ॥ गुप्ति० ॥ ७ ॥
२३
१०१५ .
कर्म पडल दल क्षय करवा रसी, आतम ऋद्धि समृद्धोजी ।
देवचंद्र जिन आणा पालता, वंदो गुरु गुण वृद्धोजी ॥ गुति० ॥ ८ ॥
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१०१६
अष्ट प्रवचन मातानी सइझायो.
॥ ढाल नवमी ॥
॥ रसीयानी देशी ॥ धर्म धुरंधर मुनिवर सल्लही, नाण चरण संपन्न, सुगुण नर । इंद्रि भोग तजी निज सुख भजी, भवचारक ऊद्विझ, सुगुणनर ॥ धर्मः ॥१॥ द्रव्य भाव साची सरधा धरी, परिहरी शंकादि दोष । सुगुणनर । कारण कारज साधन आदरी, धरी सुध्यान संतोष ।। सुगु० ॥२॥ गुण पर्याये वस्तु परखता, शीख उभय भंडार । सु० परिणति शक्ति स्वरूपमा परिणमि, करता तसु व्यवहार ॥ सुगु० ॥ ३॥ लोकसन्न वीतिगिच्छा वारता, करता संयम वृद्धि। मुल उत्तर गुण सर्व संभारता, धरता आतम शुद्धि । सुगु० ॥४॥ श्रुतधारी श्रुतधरनिश्रारसी, बसि कर्या त्रिक जोग ।
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अष्ट प्रवचन मातानी सइझायो.
१.०१७
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अभ्यासी अभिनय श्रुतसारना, अविनासी उपयोग ॥ सुगु०॥५॥ द्रव्य भाव आस्त्रव मल टालता, पालता संयम सार । सुगु० ॥ साची जैन क्रिया संभालता, गालता कर्म विकार ॥ सुगु० ॥ ६ ॥ सामायिक आदिक गुण श्रेणिमा, रमता चढतेरे भाव । सुगु० ॥ तीन लोकथी भिन्न त्रिलोकमां, पूजनिक छे जसु पाय ॥ सुगु० ॥७॥ अधिक गुणी निज तुल्य गुणीथको, मिलता ते मुनिराज । सगु०॥ परम समाधि निधि भवजलधिना, सारण तरण जहाज ॥ सुगु०॥८॥ समकितवंत संयम गुण ईहता, ते धरवा असमर्थ । सुगु०॥ संवेग पक्षी भावे शोभता, कहेता साचोरे अर्थ ॥ सुगु०॥९॥ आप प्रशंसाए नवि माचता, राचता मुनि गुणरंग । सुगु० ॥
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२५
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१०१८
अष्ट प्रवचन मातानी सझायो.
अप्रमत्त मुनि श्रुत तत्त्व पूछवा, सेवे जासु अभंग | सुगु० ॥ १० ॥ सहहणण आगम अनुमोदता, गुणकर संयम चालि | सुगु० ॥ व्यवहारे साची ते साचवे, आयति लाभ संभालि | सुगु० ॥ ११ ॥ दुक्करकारीथी अधिका कहे,
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बृहत्कल्प व्यवहार । सुगु० ॥ उपदेश माला भगवई अंगने, गीतारथ अधिकार || सुगु० ॥ १२ ॥ भाव चरण स्थानक फरस्या विना, न हुवे संयम धर्म । सुगु० ॥ ते श्याने जूठ ते ऊचरे,
जे जाणे प्रवचन मर्म | सुगु० ॥ १३ ॥ यश लाभे निज सम्मत थापवा,
परजनरंजन काज | सुगु० ॥ ज्ञान क्रिया द्रव्यत विधि साचवे, तेह नहि मुनिराज ॥ सुगु० ॥ १४ ॥ बाह्य दया एकांते उपदिशे, श्रुत आम्नाय विहीण । सुयु० ॥
રક
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अष्ट प्रवचन, मातानी सइझाया. १०१९ बग पेरे ठगता मूरख लोकने, बहु भमसे तेह दीन ॥ सुगु०॥१५॥ अध्यातम परिणति साधन ग्रही, उचित वहे आचार । सुगु०॥ जिन आणा अविराधक पुरुष जे, धन्य तेहनो अवतार ॥ सुगु०॥ १६ ॥ द्रव्य क्रिया नैमित्तिक हेतु छे, भावधर्म लयलीन । सुगु० ॥ निरुपाधिकता जे निज अंशनी, माने लाभ नवीन ॥ सुगु० ॥ १७ ॥ परिणति दोष भणी जे निंदता, कहेता परिणति धर्म । सुगु०॥ योग ग्रंथना भाव प्रकाशता, तेह विदारे हो कर्म ॥ सुगु० ॥१८॥ अल्प क्रिया पण उपकारोपणे, ज्ञानि साधे हो सिद्ध । सुगु० ॥ देवचंद्र सुविहित मुनिवृंदने, प्रणम्यां सयल समृद्धि ॥ सुगु० ॥ १९ ॥
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SHRS
जमवचनं मातानी समझाया.
॥कलश ॥
॥ राग धन्याश्री ॥ ते तरियारे भाई ते तरिया, जे जिनशाशन अनुसरियाजी। जेह करे सुविहित मुनि किरिया, ज्ञानामृत रस दरियाजो ॥ ते तरिया०॥१॥ विषय कषाय सहु परिहरिया, उत्तम समता वरियाजी। शील संनाहथकी पाखरिया, भवसमुद्र जल तरियाजी ॥ ते तरिया०॥२॥ समिति गुपतिशुं जे परिवरिया, आत्मानंदे भरियाजी। आस्रव द्वार सकल आवरिया, वर संवर संवरियाजी ॥ ते तरिया० ॥३॥ खरतर मुनि आचरणा चरिया, राजसार गुण गिरियाजो। ज्ञान धरम तप ध्याने वसिया, श्रुत रहस्यना रसियाजी । ते तरिया० ॥४॥ दोपचंद पाठक पद धरिया, विनय रयण सागरियाजी।
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अष्ट प्रवचन मातानी सबझायो.
१०२१
देवचंद मुनि गुण उचरिया, कर्म अरि निझरियाजी ॥ ते तरिया० ॥५॥ सुरगिरि सुंदर जिनवर मंदिर, शोभित नगर सवाईजी। नवानगर चोमासु करिने, मुनिवर गुण थुति गाईजी ॥ते तरिया॥६॥ अरिहा अणविचार्यों विस्तरि जस संपदा। निग्रंथ वंदन स्तवन करतां परम मंगल सुख सदा ॥१॥
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॥ अथ श्री प्रभंजनानी सझ्झाय लिख्यते ॥
॥ ढाल १ ली ॥ नाटकीयानी नंदनी ॥ ए देशी ॥ गिरि वैतान्यने ऊपरे, चक्रांका नयरी लो ॥ अहो चक्रांका ० ॥ चक्रायुध राजा तिहां, जीत्या सवि वयरी लो ॥
अहो जीत्या ० ॥ १ ॥ मदन लता तसु सुंदरी, गुण शील अचंभा लो || अहो गुण० ॥ पुत्री तास प्रभंजना, रूपे रति रंभा लो ॥
अहो रूपे० ॥ २ ॥
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लो || अहो बहु० ॥ अहो वर० ।। ३ ।।
विद्याधर मूचर सुता, बहु मिलि इक पंते राधावेध मंडावियो, वर वरवा खंते लो || कन्या एक हजारथी, प्रभंजना चाली लो || अहो प्रभंजना० ॥ आर्य खंडमां आवतां, वन खंड विचाली लो ॥
अहो वन० ॥ ४ ॥
|| अहो बहु० ।।
निग्रंथी सुप्रतिष्टता, बहु मुगणी संगे लो साधु विहारे विचरतां वंदे मन रंगे लो ॥
१ साध्वीजी.
आर्या पूछे ए वडो, उमाहो स्यो छे लो || अहो० ॥ विनये कन्या विनवे, वर वरवा इच्छे हो ॥
अहो वर० ॥ ६ ॥
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अहो वंदे ० ॥ ५ ॥
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श्री प्रभंजनानी सइझाय.
१०२३
ए इयो हित जाणो तुमे, एथी नवि सिद्धि लो ॥अहो एथी०॥ विषय हलाहल विष जिहां, शी अमृत बुधि लो ॥ :
अहो शी० ॥७॥ भोग संग कारमा कह्या, जिनराज सदई लो।। अहो जिन०॥ राग द्वेष रंगे वधे, भव भ्रमण सदाई टो ॥
अहो भव० ॥८॥ राज सुता कहे साच ए, जे भाखो वाणी लो ॥अहो जे०॥ पण ए मूल अनादिनी, किम जाए छंडाणी लो ॥
अहो ॥ किम० ॥ ९ ॥ जेह तजे ते धन्य छे, सेवक जिनजीना लो ॥अहो सेवक०॥ हमे जड पुद्गल रस रम्या, मोहे लयलीना लो ॥
अहो मोहे० ॥ १० ॥ अध्यातम रस पानथी, मीना मुनि राया लो।। अहो पीना०॥ वे परपरि गतिरति तजी, निज तत्त्वे समाया लो॥
अहो निज० ॥ ११ ॥ अमने पिण करवो घटे, कारण संयोगे लो ॥ अहो कारण० ॥ पण चेतनता परिणमे, जड पुद्गलना भोगे लो ॥
अहो जड़० ॥ १२ ॥ अवर कन्या पण उच्चरे, चिंतित हवे कीजे लो ॥ अहो चिं०॥ पछी परम पद साधवा, उद्यम साधिजे लो ॥
अहो उद्यम० ॥१३॥ प्रभंजना कहे हे सखी, ए कायर प्राणी लो ॥ अहो ए कायर०॥ धर्म प्रथम करवो सदा, देवचंद्रनी वाणी लो॥
- अहो देवचंद्रनी० ॥१४॥
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॥ढाल २ जी॥हुं वारो धना तुझ जाण न देस ॥ए देशी। कहे साहुणी सुण कन्यकारे । धन्या । ए संसार कलेश ॥ एहने जे हित करि गणे रे । धन्या। ते मिथ्या आवेशरे ॥ मुज्ञानी कन्या सांभल हित उपदेश । जग हितकारी जिनेशरे॥ सुज्ञानी । कीजे तसु आदेशरे । सुज्ञानी० ॥१॥ ए आंकणी ।। खरडीने जे धोयधुंरे । कन्या । तेह न श्रेष्ठाचार ॥ रत्नत्रयी साधन करो रे । कन्या । मोहाधीनता वारे ॥सु० २॥ जे पुरुष वरवा तणी रे । कन्या । इच्छा छे ते जीव ॥ श्ये संबंधपणे भणो रे । कन्या । द्वारी काल सदीव ॥सु० ३॥ तव प्रभंजना चिंतवेरे । अप्पा । तुं छे अनादि अनंत ॥ ते पण मुज सत्ता समोरे । अप्पा । सहज अकृत सुमहंतरे।।
सु० ॥४॥ भव भमतां सवि जीवथी रे । अप्पा । पाम्या सवि संबंध ॥ मात पिता प्राता सुतारे, अप्पा । पुत्र वधु प्रतिबंधरे ॥सु० ॥ श्यो संबंध कई इहारे । अप्पा। शत्रु मित्र पण थाय ॥ मित्र शत्रुता वली लहे रे । अप्पा । इम संसार स्वभावरे ॥
सु० ॥६॥ सत्ता सम सवि जीव छ रे । अप्पा । जोतां वस्तु स्वभाव ॥ ए माहरो ए पारको रे । अप्पा । सवि आरोपित भावरे ॥
सु० ॥ ७॥ गुरुणी आगल एहवं रे । अप्पा । जूटुं केम कहेवाय ॥ स्वपर विवेचन कीजतां रे । अप्पा । माहरो कोइ न थाय रे ।।
सु० ॥८॥
भोगपणो पण मूलथी रे । अप्पा । माने पुद्गल खंध ।। हुँ भोगी निज भावनोरे । अप्पा । परथी नहि प्रतिबंध रे॥
सू० ॥९॥
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श्री प्रभंजनानी सइझाय.
१०२५
सम्यध्याने वहेंचतारे । अप्पा । हुं अमूर्त चिद्रप रे ॥ कर्ता भोक्ता तत्वनो रे। अप्पा । अक्षय अक्रिय अनुप रे ।।
सु० ॥१०॥ सर्व विभाव थकी जुदो रे । अग्पा । निश्चय निज अनुमूति ॥ पूर्णानंदी परणम रे । अ० । नहि पर परिणति रीति ॥
सु० ॥ ११ ॥ सिद्ध समो ए संग्रहे रे । अप्पा० । पर रंगे पलटाय ॥ संगांगी भावे करी रे । अप्पा० । अशुद्ध विभाव अपाय रे ॥
सु० ॥ १२ ॥ शुद्ध निश्चय नये करी रे । अप्पा । आतम भाव अनंत । तेह अशुद्धनये करी रे । अ० । दुष्ट विभाव महंत रे ।।
सु० ॥१३॥ द्रव्य करम कर्ता थयो रे । अप्पा० । नय अशुद्ध व्यवहार ।। तेह निवारो स्वपदेरे । अप्पा । रमतां शुद्ध व्यवहार रे ॥
सु० ॥ १४ ॥ व्यवहारे समरे थके रे । अप्पा० । समरे निश्चय तिवार । प्रवृत्ति समारे विकल्पने रे । अप्पा० । तेथी परिणति सार रे ॥
सु० ॥१५॥ पुद्गलने पर जीवथी रे । अप्पा० । कीधो भेद विज्ञान ॥ बाधकता दूरे टलि रे । अप्पा० । हवे कुण रोके ध्यान रे ॥
सु० ॥ १६ ॥ आलंबन भावन वसे रे । अप्पा० । धरम ध्यान प्रगटाय ॥ देवचंद्र पद साधवा रे । अ० । एहिज शुद्ध उपाय रे ॥
सुज्ञानी० ॥ १७ ॥ 129
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श्री प्रभंजनानी सइझाय.
॥ ढाल ३ जी॥तुठो तुठोरे मुज साहेब जगनो तूठोए देशी॥ आयो आयोरे अनुभव आतमचो आयो । शुद्ध निमित्त आलंबन भजतां, आत्मालंबन पायो रे ॥
अनुभव० ॥ १ ॥ आतमक्षेत्री गुण परजाय विधि, तिहां उपयोग रमायो । पर परिणति परीते जाणी, तास विकल्प गमायो रे ॥
अनुभव० ॥२॥ पृथक्त्व वितर्क शुकल आरोही, गुण गुणी एक समायो । परजय द्रव्य वितर्क एकता, दुद्धर मोह खपायो रे ॥
अनु० ॥३॥ अनंतानुबंधी सुभटने काढी, दर्शन मोह गमायो । तिरि गति हेतु प्रकृति क्षय करी, थयो आतमरस रायो रे ॥
अनु० ॥ ४ ॥ द्वितीय तृतीय चोकडी खपावी, वेद युगल क्षय थायो । हास्यादिक सत्ताथी ध्वंसी, उदय वेद मिटायो रे ॥अनु० ॥५॥ थइ अवेदी ने अविकारी, हण्यो संजलनो कषायो । मार्यो मोहचरण खायक करी, पूरण समता समायोरे ॥अनु०॥६ घनघाती त्रिक योद्धा लडिआ, ध्यान एकत्त्वने घ्यायो । ज्ञानावरणादिक भट पडिया, जीत निशान घुरायो रे ॥
अनु० ॥७॥ केवलज्ञान दरशनगुण प्रगट्या, महाराजपद पायो । शेष अघाती कर्म क्षिण दल, उदय अबंध दिखायो रे ।।
अनु० ॥८॥
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श्री प्रभंजनानी सझ्झाय.
सयोगी केवली थया प्रभंजना, लोकालोक जणायो । तीन कालनी त्रिविव वर्त्तना, एक समे ओलखायो रे ॥
अनु० ॥९॥ सर्व साधवीये वंदना कीधी, गुणी विनय उपजायो । देव देवी तव स्तवे गुणस्तुति, जगजय पडह वजायो रे ॥
अनु० ॥ १० ॥ सहस्र कन्यका दीक्षा लीधी, आश्रव सर्व तजायो । जग उपगारी देश विहारे, शुद्ध धरम दीपायो रे ॥
अनु० ॥११॥ कारण जोगे कारज साधे, तेह चतुर गाइजे। आतम साधन निर्मल साधे, परमानंद पाइजे रे ॥
अनुभव० ॥ १२ ॥ ए अधिकार कह्यो गुणरागे, वैरागे मन भावी । वसुदेव हाडतणे अनुसारे, मुनि गुण भावना भावी रे ॥
अनु० ॥ १३ ॥ मुनि गुण थुणतां भावविशुद्धे, भव विछेदन थावे । पूर्णानंद पद एहथी उलसे, साधन शक्ति जमावे रे ॥
अनु० ॥ १४॥ मुनि गुण गावो भावो भावना, घ्यावो सहज समाधि । रत्नत्रयी एकत्त्वे खेलो, मिटे अनादि उपाधि रे ॥
अनु० ॥१५॥ राजसागर पाठक उपगारी, ज्ञानधरम दातारी । दीपचंद पाठक खरतर वर, देवचंद्र सुखकारी रे॥
अनु०॥१६॥
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૨
ढंढणमुनिजीनी सझाय.
नयर लींबडी मांहे रहीने, वाचंयम स्तुति गाइ । आत्म रसिक श्रोता जन मनने, साधन रुचि उपजाई रे ॥
अनु० ॥ १७ ॥
इम उत्तम गुण माला गावो, पावो हरष वधाइ । जैन धरम मारग रुचि करतां, मंगल लील सदाई रे || अनु० ॥ १८ ॥ संपूर्ण ॥ श्रीरस्तु ॥
॥ अथ ढंढणमुनिजीनी सझाय ॥
॥ वनिता विहसीने विनवें ॥ ए देशी ॥
धन धन ढंढण मुनिवरु, कृष्णनरेसर पुत्रों रे; गुणमणि लवणिम शोभतो, लखमी ठीला जुत्तो रे. धन० १ कोमल कमला कामिनी, मूकी एक हजारो रे; नैमित्रचनें वैरागीयो, लीवो संजम भारो रे. ग्रहणा ने आसेवना, शीखी शिक्षा सारो रे; विचरता आव्याजी द्वारिका, नेमि साथै सुखकारो रे. धन० ३ एकदिन गोचरी संचर्या, करता गवेखणा शुद्धि रे; आहार कांइ मिळयो नही, मुनि मन समता बुद्धि रे. धन० ४ मुनि चिंते पुद्गल बलें, श्यो निजगुण अभ्यासो रे; उत्सर्गे ( उछरंगें) आतमचलें, कीजे शिवपद वासो रे. धन० ५ शक्ति यथामें आदरे, अपवादें अनेको रे; सहजें जो संवर वधे, तो न ग्रहे पर टेको रे.
धन० ६
७
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धन० २
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ढंदणमुनिज़ीनी साय.
नितप्रति गोचरी संचरे, न मिळे अन्नने पांनो रे प्रभुचरणे आवी नमी, पूछे तजी अमिमांनो रे. धन०७ श्युं कारण कहो नाथजी, एवडो ए अंतरायो रे, जिन भाखे कृत कर्मनो, एहवो छ व्यवसायो रे. धन० . पूरवभव धन लोभथी, कीर्षु क्रूर अपायो रे, तीबरसे जे बांधीयां, तेहनो फल दुःखदायो रे. धन० ९ नृप आदेशे पांचसे, हल खेडवा अधिकारो रे । चास एक निज क्षेत्रनी, खेडावी धरी प्यारो रे. धन० १० भात चारीनो सर्वने, तुम्हे कीधो अंतरायो रे, तीवरसें जे बांधीयो, तसु विपाक ए आयो रे. धन० ११ मुनिवर अमिग्रह आदर्यो, एह करम क्षय कीधे रे, लेझ्युं हवे आहारने, धीरज कारज सीधे रे. धन० १२ मास गया षट इणीपेरे, पण मुनि समतालीनो रे अणपामें अति निर्जरा, जांणे तिणे नवि दीनो रे.धन० १३ वासुदेव जिन बंदीने, पूछे धरी आनंदो रे, साधक साधुमें निरमलो, कवण कहो जिनचंदो रे. धन. १४ नेमि कहे ढंढण मुनि, संवर निर्जरा धारी रे, सहु सावुथकी अधिक छे, समता शुद्ध विहारी रे, धन० १५ निजघर आवतां नरपति, वंद्यो मुनि शमकंदो रे, दीठो तब इक गृहपति, पाम्यो हरख आनंदो रे. धन० १६ मुनि आव्या तसु आंगणे, पडिलाभ्या मनरागें रे, मोदक सूजता मुनि ग्रही, चहते मन वैरागें रे. धन० १७ जिन वंदीने पूछीयो, भ्रूट्यो ते अंतरायो रे, नाथ कहे जदुनाथने, कारणयी तुम्हे पायो रे. धन० १८
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१०३०
ढंढणमुनिजीनी सझाय.
धन० २१
सांभळी मुनि अति हरखीया, धन धन ए गुरुराजो रे; वीतराग उपगारीया, कृपा करी मुज आजो रे. धन० १९ साध्य अधुरे कुंण करे, ए आहार असारो रे; पुद्गल जगनी एंठ ए, किम ल्ये मुनि सुविचारो रे. धन० साधन वधते आदरे, ए साधक व्यवहारो रे; निःकारण परवस्तुने, छीपे नहीं अणगारो रे. इम चितवी शुद्ध थंडिलें, परठवतो ते पिंडो रे; पुद्गल संगनी निंदना, निजगुण रमण प्रचंडो रे. धन० २२ पर परिणति विच्छेदतां, निज परिणति प्राग्भावो रे; क्षपकश्रेणि ध्याने रम्या पाम्यो आत्म स्वभावो रे. धन० २३ आतंमतच एकाग्रता, तन्मय वीरज धारे रे; घन घाती सवि खेख्या, रत्नत्रयी विस्तारे रे. क्षीणमोह करी चरणनी, क्षायिकता करी पूरी रे; केवलज्ञानदर्शन वर्या, अंतराय सवि चूरी रे. परम दान लाभ नीपनो, कीधो कारज सुधो रे, समवसरण में आवीया, साध्य संपूरण सीधो रे. धन० २६ एहवा मुनिनें गाइये, ध्याइयें घरी आणंदो रे; देवचंद्र पद पाइये, लहीये परमानंदो रे.
धन० २४
धन० २५
धन० २७
इति श्री ढंढणमुनिवर स्वाध्याय समाप्त.
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२०
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श्री समकितनी सइझाय.
१०३१
namara
॥श्री समकितनी सझ्झाय ॥
समकित नवि लघुरे, ए तो रुल्यो चतुर्गति मांहे; बस थावस्की करुणा कीनी, जीव न एक विराध्यो। तीन काळ सामायिक करतां, शुद्ध उपयोग न. साध्यो. स. १ जूठ बोलवाको व्रत लीनो, चोरीको पण त्यागी; व्यवहारादिक महा निपुण भयो, पण अंतरदृष्टि न जागी. स. २ ऊर्व बादु करी उँधो लटके, भस्म लगा धूम घटके, जटा जूट शिर मुंडे जूठो, विण श्रद्धा भव भटके. स० ३ निज परनारी त्याग ज करके, ब्रह्मचारी व्रत लीनो; स्वर्गादिक याको फळ पामी, निज कारज नवि सिव्यो. स. ४ बाह्य क्रिया सब त्याग परिग्रह, द्रव्य लिंग धर लीनो; देवचंद्र कहे या विध तो हम, बहुत वार कर लीनो. स. ५
॥ गजसुकुमाल मुनीश्वर सझ्झाय ॥
॥ढाल १ ली॥ आस फळी मेरी आस फळी॥ए देशी। द्वारिकानगरी ऋद्धि समृद्धि, कृष्णनरेश्वर भुवन प्रसिद्ध
चेतन सांभळो. ( ए टेक) वसुदेव देवकी अंग सुजात, गजसुकुमाल कुमर विख्यात. चे० १ नयरी परिसरे श्रीजिनराय, समवसर्या निरमम निर्माया । यादवकुल अवतंस मुणिंद, नेमिनाथ केवल गुण वृंद. चे० २
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१०३२
गजसूकुमाल मुनिश्वर सइझाय.
त्रिभुवनपति श्रीनेमजिणंद, आव्या सुणी हरख्या गोविंदा सजी सांमईयो वंदन काज, हरखें वांद्या श्रीजिनराज. चे० ३ लघु वये पण श्री गजसुकुमाल, रूप मनोहर लील विशाळ; वीतराग वंदण अतिरंग, सुविवेकी आवे उछरंग. चेतन० ४ समवसरण देखी विकसंत, त्रिकरणजोगें अति हरखंत; धन घन माने निज मनमांहिं, गयो पाप हुं थयो सनाह. चे०५ कुमरे वंदी जिनवर पाय, आनंद लहरी अंग न माय; निःकामी प्रभु दीठा जांम, विसरी वामा ने धन धाम. चे० ६ जिनमुख अमृत वयण सुणंत, भाग्यो मिथ्या मोह अनंत; दरशन नाण चरण सुखखांण, शुद्धातम निज तत्त्व पिछांण. चे०७ परपरिणति संयोगी भाव, सर्व विभाव न शुद्ध स्वभाव; द्रव्यकर्म नोकर्म उपाधि, बंध हेतु पमुहा सविव्याधि. चे० ८ तेहथी मिन्न अमूरति रूप, चिन्मय चेतन निज गुण रूप; श्रद्धा भासन थिरता भाव, करतां प्रगटे शुद्ध स्वभाव. चे० ९ नेमि वचन जाग्यो वडवीर, धीर वचन भाषे गंभीर देहादिक ए मुज गुण नाहि, तो किम रहेQ मुज ए मांहि. चे० १० जेहथी बंधाये निजतत्त्व, तेहथी संग करे कुण सत्त्वा प्रभुजी रहे, करि सुपसाय, हूं आवु माता समजाय. घे० ११
॥ ढाल २ जी ॥ वहिलडा आवज्यो ॥ ए देशी ।। माताजी नेमि देशन सुंणी, मुज थयो आज आणंद रे; मनुजभव आज सफळो थयो, आज शुभ उदय आणंद रे.
माताजी नेम देशन सुणी. १२ (ए आंकणी) देवकी चित्त अति गहगही, इम कहे मधुर मुख वाणि रे; धन्य तु धन्य मति ताहरी, जेणे सुणी नेमि मुख वाणि रे.मा० १३
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गजसुकुमाल मुनीश्वर सइझाय.
माताजी एह संसारमां, सुखतणो नहीं लवलेश रे वस्तुगत भाव अवलोकतां, सर्व संसार कलेश रे. मा० १४ कर्मथी जन्म, तनु करमथी, कर्म ए सुखदुःख मूळ रे, आतमधर्म नवि ए कदा, आज मुज टळी सवि भूल रे मा० १५ नेमिचरणे रहि आदरूं, चरण गुण शिवसुखकंद रे, विषय विष हिवें मुज नवि रुचे, सांभळे अमृतानंद रे. मा० १६ माताजी अनुमति आपीये, हवें मुज एम न रहाय रे; एक खिण अविरतदोषनी, वातडी वचन न कहाय रे. मा० १७ मोहवशे मुंझी देवकी, विलवती इम कहे वात रे पुत्र तें ए किश्यु भाखियुं, तुज विरह मुज न सुहात रे. मा० १८ वत्स ! संयम अति दोहिलं, तोळवो मेरु एक हाथ रे; प्राणजीवन मुज वालहो, माहरे तुहिज आथ रे. मा० १९ मात तुमे श्राविका नेमिनी, तुमें एम न कहाय रे, मोक्ष सुख हेतु संयमतणो, किम करो मात अंतराय रे. मा० २० वत्स ! मन भाव दुक्कर घणो, जीपवो मोह भूपाल रे, विषय सेना सहु वारवी, तमे छो बाल सुकुमाल रे. मा० २१ मातजी निजघर आंगणे, बालक रमे निरबीह रे तेम मुज आतम धर्ममें, रमण करतां किसी बीह रे. मा० २२ मोह विष सहित जे वचनडां, ते हिवें मुज न छिबंत रे, परम गुरु अमृत वचनथकी, हुं थयो उपशमवंत रे. मा० २३ भवतणो कंद हवें भांजवो, साधवो मोह अरिवृंद रे आतमानंद आराधवो, साधवो मोक्ष सुखकंद रे. मा० २४ नेमथी कोई अधिको होवे, (तो) मानीये तास वचन्न रे माताजी कांई नवि भाखीये, माहरे संयमें मन्न रे. मा० २५
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गजसुकुमाल मुनीश्वर सइझाय.
॥ ढाल ३ जी॥ धनधन साधु शिरोमणि ढंढणो ॥ए देशी।
धन धन जे मुनिवर ध्याने रम्या रे. समतासागर उपशमवंत रे विषय कषायें जे नडिया नहीं रे, साधक परमारथ सुमहंत रे. धन धन जे मुनिवर ध्याने रम्या रे.(ए आंकणी)२६ जादवपति परिवार परिवर्यो रे, नेमि चरणे पुहुंता गजसुकुमाल रे; मात पिता भ्रातें वहिरावीया रे, नंदन बाल मनोहर चाल रे. धन धन जे० २७ प्रभुमुख सर्व विरति अंगीकरी रे, मुकी सरख अनादि उपाधि रे । पूछे स्वामी कहो केम नीपजे रे, मुजने वहेली सिद्धि समाधि रे. धन धन जे० २८ प्रभु भाखे निज तत्त्व एकाग्रता रे, उदय अव्यापकता परिणाम रे; संवरवाधे साधे निर्जरा रे, लघुकालें लहिये शिवधाम रे. धन धन जे० २९ एगराई पडिमा तुमे आदरो रे, धरजो आतमभाव सुधीर रे; समतासिन्धु मुनिवरें तिम कर्यों रे, शिवपद साधन वडवीर रे. धन धन जे० ३० शिर उपर सिगडी सोमिलें करी रे, समता शीतल गजसुकुमाल रे;
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गजसुकुमाल मुनीश्वर :सइझाय.
क्षमा नीरें न्हवराव्यो आतमा रे, इयुं दाझे तेहनो ए झाले-१ रे. धन धन जे० ३१ दहनधर्म ते दाह जे अगनिथी रे, हुं तो परम अदाज अगाह रे, जे दाझे ते तो माहरो धन नथी रे, अक्षय चिन्मय तत्त्व प्रवाह रे. धन धन जे० ३२ क्षपकश्रेणि ध्यान आरोहणे रे, पुद्गल आतम भिन्न स्वभाव रे, निजगुण अनुभव वळी एकाग्रता रे, भजतां कीधो कर्म अभाव रे. धन धन जे० ३३ निरमल ध्याने तत्त्व अभेदता रे, निर्विकल्प ध्याने तद्रूप रे, पातकायें निजगुण उल्लस्यां रे, निर्मल केवलज्ञान अनूप रे. धन धन जे०.३४ थई अजोगी शैलेसी करी रे, टाळ्यो सर्व संजोगीभाव रे; आतम आतमरूपें परिणम्या रे, प्रगट्यो पूरण वस्तुस्वभाव रे. धन धन जे०.३५ सहज अकृत्रिम बळी असंगता रे, निरुपचरित वळी निर्द्वन्द्व रे, निरुपम अव्याबाध सुखी थया रे, श्रीगजसुकुमाल मुनोंद रे. धन धन जे० ३६ नित्य प्रति एहवा मुनि संभारीये रे, धरीये एहनुं मनमाहाज ध्यान रे,
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पंचेंद्रि विषय त्याग.
इच्छा कीजे ए मुनिभावनी रे, ज्युं लहीये अनुभव परमनिधान रे. धन धन जे० ३७ खरतर गच्छ पाठक दीपचंदनो रे, देवचंद्र वंदे ए मुनिराय रे सकल सिद्ध सुख कारण साधुजी रे, भव भव होज्यो सुगुरु सहाय रे, धन धन जे० ३८
इति श्री गजसुकुमाल सइझाय समाप्त.
पंचेद्रिय विषयत्याग.
पद. विषयनको परसंग चेतन छोड दे, गिरोई फीरत विलालत फरस वश बंधोई फीरत मातंग. चे० १ कंठ छिदायो मिन आपणो रसनाके परसंग; नेत्र विषय कर दीप शिखा, जल जल मरत पतंग. चे० २ खटपद जलजमांहि फस मूरख, खोयो अपनो अंग, विण शब्द सुण श्रवण ततखिन, मोही भयो रे कुरंग. चे० ३ एकएक इंद्री चलत बहु दुःख, पायो हे सरभंग, पांचो इंद्री चलत महा दुःख, ईभ भाषत देवचंद. चे. ४
आत्म पद. अहो जिनवरजी निके नयण निहारे, यामे केवल दर्शन झलकत. अतितिखे अनिहां रे
अहो० १ सुमता सोहन कुमता खोयन, भविकु लागत प्यारे. अ० २ देवचंद्र जैसे प्रभु निरखत, जिन निज जनम सुधारे. अ० ३
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मुनिगुणस्वाध्याय.
१०३७.
Albhavanathshnavanaramananminine
मुनिगुणस्वाध्याय.
राग प्रभाति. जगतमें सदा सुखी मुनिराज पर विभाव परिणतके त्यागी, जागे आत्म समाज निजगुण अनुभवके उपयोगी
जोगी ध्यान जिहाज ॥ ज० ॥ १ ॥ हिंसा मोस अदत्त निवारी, नहि मैथुनको पास, द्रव्यभाव परिग्रह त्यागी, लीने तत्त्व विलास ॥ ज० ॥२॥ निर्भय निर्मल चित्त निराकुल, विलगे ध्यान अभ्यास देहादिक ममता सवि वारी, विचरे सदा उदास ॥ ज० ॥३॥ ग्रहे आहारवृत्ति पात्रादिक, संयम साधनकाज देवचंद्र आणानुजाई, निज संपति महाराज ॥ ज० ॥४॥ इति॥
साधुपदस्वाध्याय. साधक साधज्यो रे निज सत्ता ईक चित्त, निजगुण प्रगटपणे जे परिणमें रे, एहिज आतम वित्त ॥
सा० ॥१॥ पर्याय अनंता निज कारजपणे रे, वरते ते गुण शुद्ध, पर्यायगुण परिणामें कर्तृता रे, ते निज धर्म प्रसिद्ध ॥ सा० २॥ परभावानुगत वीरज चेतना रे, तेह वक्रताचाल, करता भोक्तादिक सवि शक्तिमा रे, व्याप्यो उलटो ख्याल ॥
सा० ॥३॥ क्षयोपशमिक ऋजुताने उपनें रे, तेहिज शक्ति अनेक, निज स्वभाव अनुगतता अनुसरेरे, आर्यव भाव विवेक ॥ सा०॥४॥
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१०३८
साधुपदस्वाध्याय.
अपवादें पर वंचकतादिकारे, ए माया परिणाम
उत्सर्गे निजगुणनी वंचना रे, परभावे विश्राम ॥ सा० ॥ ५ ॥ सावे वरजी अपवादें आर्जवी रे, न करे कपट कषाय आतमगुण निज निजगति फोरवे रे, ए उत्सर्ग अमाय ॥ सा० ॥ ६ ॥
सत्तारोध भ्रमणगति चारमें रे, पर आधीनें वृत्ति वक्रचालयी आतम दुःख लहे रे, जिम नृपनीति विरत ॥
सा० ॥ ७ ॥
ते मा मुनि ऋजुतायें रमे रे, वमे अनादि उपाधि समता रंगीसंगी तत्त्वना रे, साधे आत्म समाधि ॥ सा० ॥ ८॥ मायक्षयें आर्जवनी पूर्णता रे, सवि गुण ऋजुतावंत पूर्व प्रयोगें परसंगीपणो रे, नही तसु कर्त्तावंत ॥ सा० ॥ ९ ॥ साधनभाव प्रथमयी नांपजे रे, तेहिज थाये सिद्ध द्रव्यत साधन विघन निवारणारे, नैमित्तक सुप्रसिद्ध ॥ सा० ॥ १० ॥ भावें साधन जे इक चित्तथी रे, भाव साधन निजभाव भावसिद्ध सामग्री हेतु ते रे, निस्संगी मुनि भाव ॥
सा० ॥ ११ ॥ हेय त्यागयी ग्रहण स्वधर्मनो रे, करे भोगवे साध्य स्वस्वभाव रसिया ते अनुभवे रे, निज सुख अव्याबाध || सा० ॥ १२ ॥
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.
१७
निःस्पृह निर्भय निर्मम निर्मला रे, करता निज साम्राज देवचंद्र आणायें विचरता रे, नमिये ते मुनिराज ॥
॥ इति श्री देवचंद्रजीकृत स्वाध्याय
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सा० ॥ १३ ॥ संपूर्णमगात् ॥
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साधुपद सझ्झाय.
साधक साधज्यो रे निज सत्ता इक चित्त ॥ निज गुण प्रगटपणें जे परिणमें रे एहीज आतम वित्त ॥ सा० ॥ १ ॥
* बाधः - अहो आत्म स्वरूपानुभव साधक भव्यो ! साधज्यो - नाम साधन करज्यो, साधने साध्यनी सिद्धता एषामदुक्ति: ईहां साव्यस्वस्वरूपानुभवकारिका निज सत्ता ईक चित्त - एक चित्ते नाम तदाकार वृत्तियें - तल्लयी तन्मयी तन्नयी छते आत्म सत्ता चितववी, किम ते लीखे. आत्मद्रव्यमें आत्मत्वधर्म र छे, तेमां आत्मता आत्मत्वपणें रही छे, आत्मता निज सत्ता अभेदोपचारीपणो छे, एटले आत्मता निज सत्तामें भेद नहीं एक छे एटले अनादिए सिद्धनी सत्ता असंख्यात प्रदेशात्मक तिमज संसारमें रह्यो केवली असंख्यात प्रदेशाकीन सत्ता एक सूक्ष्म निगोदीयानी आठ रुचकवर प्रदेशात्मक सत्ता एक ॥ यदुक्तं नंदि सूत्रे || सह जीवाणं पिणं अख्वरस्स अणतमो भागोनिच्चुग्घाडियो चिट्ठह्न इति सिद्धांत वचन प्रामाण्यात् ॥ सत्ता एक अखंड अबाधित ईह सिद्धांत प्रीछ जोइ एषामपिमदुक्तिपुनः स्वसत्ता इदृग्रूपा ऐवामदुक्तिः सत्तैवतत्त्वमिति सिद्धांत वचन प्रामाण्यात् ॥ * आ टबो श्रीमद् ज्ञानसारजी महाराजे लखेलो छे.
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१०४०
साधुपद सझ्झाय.
इणहीज एकांत पक्षनें ग्रहण करी तिमहीज सप्तभंगी थकी स्यादस्ति भंगो ग्रहण करीने अद्वैतपक्ष स्थापन को छे ते एक नयात्म एक भंगात्मक छे. आत्मा तुपुष्करपत्रवन्निर्लेपः प्रकृतिः की इति सिद्धांतः ए पक्षे हीज सिद्ध समान सत्पद 'मेरो दुसरो नथी, ओर एक आत्माही राम हे, ए कथन छे परं सत्पदनो जैनमतने आश्रये एक नय एक भंगीन कथन छे. सर्व नयाश्रयी नथी, सकथं भव्य १ अभव्य २ जातिभव्य ३ ए तीन जीवनी जाति छे. तेमां एक भव्य जीव जाति आश्रयी ए कथन छे. इहां जैन न्यायसम्मतित्ती ७५००० प्रकरण, तेमां हजार च्यारेक म्हारो वांचेल छे तेनुं आइ लिखत लिखवे अर्थ वधी जाय इत्यलम् . साधक साधज्योरे निज सत्ता इकचित्त ए बे पदोमें विरोधाभास छे ते किंचित् लि, परं हुं महा निर्बुद्धि वज्रठार छु जैनरोजिंदो छं. म्हारो माजनो अतिमंद छे, सिझाय कर्तानो मोटो माजनो छे, परं सिद्धांत वाक्यार्थ विरोधाभास कथन लक्ष लक्षण जैन विरुद्ध . जाण्या पछी न लिखवू ते अनंत जिननुं चोर थावु छे, तेथी लि. चेतन निर्मल मेलो थाय, मेलो उजलो थाय, ते बे हेतुए थाय. तत्र हेतु लक्षणमाह ॥ हिनोति प्रापयति साध्यमर्थमितिहेतुः साधवायोग्य कार्य तिणप्रतें प्रसिद्ध करे ते हेतु कहीजे. तद्हेतुस्त्रिधा सद्हेतु; अद्हेतुः । सद्सद्हेतुश्च॥ यत्सत्वे यत्सत्वमित्यन्वयः जे छते जे छतूं ते अन्वय अन्वयहेतुसत्वेचेतनासत्व-चेतनासत्वे परमात्मतासत्वं परमात्मापणुं छतुं छे तद्भवेतदभावोव्यतिरेकः चेतना. १ एहन २ तेमज ३ भारो ४ बीजो ५ त्रण ६ अहीं.
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साधुपद सझाय.
१०४१
看
अभावे परमात्मनो अभावः ए व्यतिरेक हे || अन्वय अरु व्यतिरेक हेतु लखी मेटरूप अंधेरो; परमातम अंतर बहिरातम सहिज हुवे सुरझेरो. मदुक्ति. हिवे सझायना बे पदोमां विरोधाभास जगावं. साध्यव्यापकत्वे साधनाव्यापकत्वमुपाधिः तिहां साववा योग्य वस्तुने विषे व्यापीने रही छे, हेतु तेहने विषे अव्यापक रही छे ते उपाधि साध्यसमानाधिकरणात्यंताभाव प्रतियोगित्वं साधनाव्यापकत्वं साध्य वस्तुने अधिकरण मिलाप हुवे अत्यंतपणे अभाव हुवे अत्यंतपणे विरोधी साधना व्यापकत्वं नाम तेनुं साध्य कहीजे. साधवा योग्य पदार्थने व्यापक कहीजे, साधवा योग्य पदार्थ में व्यापीने रह्यो छे इहां साधवा योग्य पदार्थ स्वरूपानुभव छे. ए गाथामां ए कथनपूर्वक दलनो कथन उत्तरदल थकी विरोध पामे छे ते आगल लिखुं छं, तिहांयी वांची जाण लेज्यो. साधक साधज्योरे इत्यादिक पद द्वयार्थं गतम् ॥ निजगुण आत्मगुण अनंतज्ञानादिक क्षायिकभावें स्वस्वरूपम साक्षात्कार अनंतकाले अविनश्वर सूत्रभावी ज्ञाननुं आइ कथन नयी इऐं इहां केहनुं कथन छे ते लिखे. क्षयोपशमभावें व्यानारूढ थवानी इच्छा थयें छते रेचक कुंभक पूरक मन पवननां दलियां रेचावी नाम पगना अंगूठायी खिसांवी नें मूलद्वारे अपान पवनथी ते दलियानो कुंभक घडानो आकार करी पछे पूरक करे ते पोला घडामें तेज दलियां पूरे-भरे, भरीने दडो करे पछी एज पूर्वोक्त रीतें बीजा धोरीचक्र नाभिचक्रे तिमज तीजे थण माथे हाथ दीधे
१ थये २ नाणी ३ अहीं ४ त्यारे ५ खशेडी.
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१०४२
सावुपद सझ्झाय.
घडघडाट करे ए चक्रे ल्यावीने चोथा हृदयकमलचकें तेजचक्रे ध्यान निजगुण चिंतका करतो अंतर आत्मावंत कहिवाय, यथा
घनगुनिलोक्तिः पाप पाचारवान् बहिरामा बहिरातन तजी का मन वचन हा निश्चल कार्या छे ते कोइके का ए तो मरी गयो तेनी परीक्षा करवा कारण दशमें द्वार टोया दीधे लोही दीढं तिबोरे जीवतो जाण्यो ते अंतर आत्मावान्. गाथा तवननी बहिरातम तज अंतरआतमा रूप थइ थिरभाव, परमातमनुं आतमभावयु आतम अरपण दाव ॥१॥ ___ एहवो छतो थिरभावे थइने परमातमनुं परमातमा अनंतज्ञानादिगुणमयी छतो अछेद्य, अभेद्य, अवेद्य, अक्लेद्यादि एहयु पोताना आत्मामां भावबुं चिंतव, विचारवू ते क्षयोपशमभावमें रह्यं छे, ने सिझाय कर्ता “निजगुम प्रगटपणे जे परिणमें" ते तो ज्ञानादि गुण आत्मामां प्रगटपणे ते तो आत्माथी साक्षात्कार थए प्रगटें कहिवाय ने प्रगट कह्यां विना जे परिणमें तदाकार था, संभवे नही, वली ते विना पहीज आतमवित्त । धन छे ए तो कथन क्षायकभावे छे. परं क्षायिकभावें आत्मवित्तने सिद्धमां तो अभेदोपचारीपणं छे ए विरोधाभास छे. तिहां पूर्वकदलें तो क्षयोपशमभावे कथन साधकसाधज्योरे निजसत्ता इकमित्त ते उत्तरदलमां सिझाय कर्तार्ये निजगुण प्रगटपणे जे परिणामेरे पहिज आतमवित्त । एह, जे कयु ए क्षायिकभावे कथन ते विरोध. इति संटंकः हिवे आगळ सिझायनी गाथाओमां स्यो वर्णन करस्यों, परं
१ कहेवाय २ त्यारे ३ हवे १ करीशं
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साधुपद सझाय.
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एकविराजनी योजनानो एज सुभाव छे तेज वातने गटरपटर आगेंनी पाछे, पाळेंनी आगे हांकतो चाल्यो जाय ते तमे पोते विचार लेज्यो. संबंध विरुद्ध अंगोपंगभंग कविता वारवार एकपद गुथाणो ते पुनरुक्ति पण कविता ते एहीज सिझायमें तमेही जोइ लेज्यो, एक निजपद दश जागा गुंथ्यो छे ते गिलेज्यो, इकलो मूजने दूषण मत देज्यो, बीजु ऐहुनो छटक लिखत सप्तन्याश्रयी सप्तभंग्याश्रयी चुस्त छे, स्वरूपना कथननी योजना तेमां तो गटरपटरछे, ए विना बीजी सहिज छूटक योजना सटक छे, योजना करवी ए पिणें विद्या न्यारी छे, कौमुदी कर्तायें शिष्ययी आद्य लोक करायो आपथी न थयो. वली ए बात खुली न लिखुं तो ए लिखत वांचणवालो मूर्खशेखर जाणे ए कारणे लिखुं गुजरातमां ए कहिवत छे आनंदघन टंकशालि, जिनराजसरिबाबा तो अबव्यवचनी उ० यशोविजय दानरटुनरिया पोते थाप्यो तेज उथाप्यो उ० देवचंद्रxxजीने एकपूर्वनुं ज्ञान हतुं तेथी गटरपटरीया. मोहनविजयपन्यास ते लटकाला, मुजने आगळ अर्थ लिखबुं छे ते अक्षर प्रमाणे अर्थ लिखिश, किहां सरीखो अर्थ दीसे ते म्हारो दूषण न काढइयो, अक्षर विरुद्ध अर्थे मारो दूषण सही इहां सर्व गाथा लिखुं. हिवे दूंजी गाथारो अर्थ लिखुं. पर्याय अनंता निज कारणपर्णे रे, वरते ते गुणशुद्ध; पर्यायगुण परिणामें कर्तृतारे,
ते निज धर्म प्रसिद्ध ॥ सा० २ ॥
१ जग्याए २ गणी ३ एमनो ४ पण १ बीजी ६ गाथानो
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१०४४
साधुपद सझ्झाय.
प्रथम गाथारे अंते कह्यो छे, एहिज आतमवित्त वित्त शब्दं आत्मद्रव्य नाम आत्मारो धन दूंजी गाथारे आदें पर्याय इसो पद धर्यों छे तेथी प्रथम द्रव्यरो लक्षण लिखे पछे पर्यायलक्षण लिखसुं. किम द्रव्य विना पर्यायरो असंभव, ते माटे द्रव्यलक्षणमाह गुणपर्यायवत्वं अन्यत्वाम् । इण कहिणे शुं ज्ञानपदार्थ द्रव्य छे. गुण कांइ ? तत्र गुणलक्षणमाह । सहजातित्वं गुणत्वम् इतिगुणलक्षणम्॥ जिम स्वर्ण द्रव्यमें पीतता गुण सहजातिपणो छ तिमहीज ज्ञानद्रव्य प्रगट हुवा छतां घटपटादि पदार्थनो जाणपणो हुओ ते गुण कहीजे, तेपिण ज्ञानथकी मिल्यो हुवो छ तिमहीज द्रव्यने विषे पर्याय रह्या छे. पर्याय लक्षणमाह । पूर्वपूर्वाकार परित्यागोत्तरोत्तरांकार परिस्फूर्ति मंतोहि विशेषाः अपरमान पर्यायाः ए पर्याय रा दोय नाम छे, जिम स्वर्ण द्रव्य तिणमें पीतता लक्षण, सर्व धातुथी भारी ए पिण स्वर्ण द्रव्यनोहीज गुण लक्षण ति स्वर्णना अनेक आभूषण करणा ते पर्याय तिमहीज जगतने विषे यावंतः परिच्छेद्याः पर्यायास्तावंतः परिच्छिदिकास्तस्य केवलज्ञानस्य स्वभावा वेदितव्याः स्वभावाश्च पर्याया इति । यावंतो नाम जितरा, परिच्छेद्याः नाम परिछेदन नाम एकेक लक्षणे करीने भिन्न करिवा योग्य नाम परिमाण करवा योग्य जे अनंता घटपटादि पदार्थ एतले ज्ञानथकी जगत्में घटपटादि अनंता पदार्थ तेऊ एक एकने भिन्न भिन्न लक्षणे केवलज्ञानथी ओलखवा जे ते पदार्थ परिछेद्य कहीजे, नाम पदार्थ भिन्न लक्षणे ओलखवा योग्य छे. हिवे परिछेद्यनो
१ आत्मानो २ बीजी गाथाने ३ एहवो ४ लखीने.
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साघुपद सझाय.
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अर्थ लिखु तावंतः परिच्छेदकाः नाम तितराहीज परिछेद्य पदार्थ भिन्न भिन्न करी ओलखवा जाणवा ते परिछेदक कही जे, तस्य केवलज्ञानस्य स्वभावावेदितव्याः नाम तिके परिछेद्य पर्याय वली परिछेवक पर्याय ते सर्व केवलज्ञान केवल दर्शन स्वभाव छे, स्वभावाच पर्यायाः पर्याय अनंता ज्ञान द्रव्यरा पर्याय अनंता ते निज कारजपणेरे निज स्वरूपानुभव तद्रूप जे कार्य तिणे स्वरूप रूप कार्य प्राप्तिपणे वरते ते गुण शुद्ध वरते नाम भवते स्वरूप कार्य चितवनमें ते गुण शुद्ध तिकोशुद्ध निर्मळ आत्मारो गुण छे. पर्याय गुण परिणायें पर्याय परिणाम तिमज गुण परिणामे ज्ञानादि गुण परिणामे कर्तृतारे आत्मारे स्वरूप कार्यनी प्राप्तिमां वीर्य फोरवणो ते वीर्यने विषे आत्मानो कर्त्तापणो छे, ते निज धर्म प्रसिद्ध तेहिज निज धर्म आत्मारो आत्मत्व धर्म ते धर्मने विषे स्वरूप कार्यनी सिद्धतारो वीर्य पराक्रमीपणो आत्माने विषे रह्यो ए कथन शास्त्रांरे विषे रह्यो प्रसिद्धहीज छे. एहमेंहीज विशेषपणे खुलीनें लिखूं. हिवे गाथाना अक्षर उपर एहिज बात उतारिये छे, तिहां ज्ञानावरणादि आठ कर्म ते तो आठेही द्रव्य छे ते द्रव्य द्रव्य दीठ अनंती कर्म वर्गणा तेंहीज द्रव्य द्रव्य अनंता अनंता पर्याय छे. यदुक्तं प्रज्ञापनाया: पंचम पद टीकायाम् ॥ एकमपि द्रव्य मनंत पर्याय । निज कारजपणेरे जो टाणे आत्मा आत्मिक स्वरूपानुभव प्रत्यक्ष रूप कार्य में प्रवर्त्ते ते टाणे पोतानो कोइ ज्ञानादि गुण तेहना जे अनंता पर्याय ते कर्म
१ जे समये २ ते समये.
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साधुपद सझ्झाय. mma वर्गणाना एक एक पर्याय दीठ ज्ञान पर्याय पहिलावीने पर्याय सहित कर्म द्रव्यनो नाश करे, पणेरे ते पणे आत्मा वत्त प्रवत्र्ते ते गुण शुद्ध नाम ते आत्मा शुद्ध आत्मिक स्वरूपतावच्छेिदिकावच्छिन्न शुद्ध निर्मळ आत्मिक स्वरूपता आत्मारे विषे रह्यो जे आत्मत्वधर्म तेहने विषे रही आत्मता आत्मत्वपणोंतिणे करने अवछेदिक रहित नही एतले आत्मिक स्वरूतायें करने सहित तिणे करीने अवछिन्न व्याप्ततदाकारपणे छे तेमां प्रवर्तीज रह्यो छे. आत्मिकशुद्धगुण छे. पछे पर्यायगुणतामें कर्ततारे ते पर्यायना जे गुणज्ञान पर्यायना जे गुण ते एकेक गुण दीठ आत्मारे कतृतापणो छे कर्त्तापणो छे. ते निजधर्म प्रसिद्ध नाम आत्मत्वधर्म ते आत्मारे विषे तेहने थये आत्माने विष पसिद्ध छे. जिम केवली केवल समुद्वात करते चोथे समये अंतरालपूरते १४ राजलोकमें सातकर्म नी तिम एकेका कर्मनी अनंती अनंतीकर्मवर्गणा, वर्गणा लक्षणमाह ।। पंचमकर्म ग्रंथनी गाथा ।। इगदुगुणू गाइजा अभवणंत गुणअणूरखंधाउरलोचियवग्गणाउ ॥ इत्यादि व्याख्या अणू शब्दः प्रत्येक संबध्यते अणू शब्द छ ति को इग करे एकेक शब्द देइ मिलावणो ततः केवलोअणुरेवाणुकः परमाणु रित्यर्थः तिणहुंति इकेलोजे केवलदृष्टिए एकनो दूजो न हुवे ते अणु कहिये आशु तेहिज अणुक कहि जे तिण अणु कने परमाणु कहि जे, इह जगतने विषे समस्त जे लोकाकाश प्रदेश तिणांमांहि जे एकाकी परमाणु विद्यमान छे छतां छे तिणः परमाणु बारो समुदाय समान जाति एकवर्गणा कही जे, इण हीज प्रकारे अनंता जे हि प्रदेशी स्कंध 'तिणारे समान जातिपणा हूंती
१ परमाणुओ. २ तेमना.
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साघुपद सझाय.
१०४७
दूजी वर्गणा कही जे इणेहि प्रकारे अनन्ता जे त्रिप्रदेशी स्कंधतिपरि समान जातीय पणाहुति विजी वर्गणा. इणे हीज प्रकारे एकेक परमाणु वृद्धि करनें वधावणें करनें अनंता जे संख्यातप्रदेशी स्कंध तिणारे समान जातीयपणा संख्यात वर्गगा कहिजे, इण ही प्रकारें असंख्यातवर्गणा जाणवी, अनंतपरमाणु वेकर निष्पन्न इस्या जे स्कंध तिके समान जातीयपणामूं अनंतवर्गणा कही जे, इणही प्रकारे अनंतानंतवर्गणा कहीजे, इणां सर्व वर्गणां प्रतें उल्लंघने अभव्य हुंती अनंतगुणा सिद्धरे अनंतमें भाग जे परमाणु तिणें करी नीपज्या जे स्कंध ते उदारिक शरीर लेवा जोग्यवर्गणा दुवे ॥ १ ॥ उदारिक वैक्रिय सूक्ष्म २ वैक्रियसों आहारिक सूक्ष्म ३ अहारक तेजस सूक्ष्म ४ तेजससूं भाषा सूक्ष्म ५ भाषासों श्वासोश्वास ६ श्वासोश्वास मन ७ मनसूं कर्म ८ ओ संबंध टीकामें वणोहे पण गौरव भयात्त्याज्यम् पिग पूरी १४ राजमें सूइनीं अणी टिके एतो मोडं क्षेत्र पर ही असंख्यातगुण क्षेत्रही नही बाकी खाली न रह्यो पछी जे जे कर्म दलीयां जीणक्षेत्र प्रत्यइ भोगव खपावणा तिण तिण क्षेत्र प्रत्यइ भोगवने कर्मदलीयां अवशेष आयु स्थिति अवशेष रही ते प्रमाणे ७ तेही कर्म प्रकृतिनां अवशेष दलियां राखे, तिम कोइ मिथ्यात्वी जीव अंतगड केवली थइ मुक्त जाववावालो छे ते निचे शुद्ध क्षायकीज हुवे तेने अवशेष एक अंतर्मुहूर्त आयुस्थिति रही छे ने एटला कालमा सात कर्म प्रकृति तेमां एकेकी कर्म दीठ अनंती अनंती कर्म वर्गणा खपाववी छे ते टाणे आत्मा आत्मत्व धर्मों सहित छतो आत्मा अनंत बली छतो पोताना अनंत वीर्यनी शक्ति पोताना अनंत ज्ञानादि गुण तिभज
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१०.४८
साधुपद सझ्झाय.
पर्याय अनंतोमां आत्मधर्म संबंधित आत्मत्व शक्तिने फोरaa अनंती कर्म वर्गणाओमां एकेकी वर्गणा दीठ ज्ञानादि गुणना अनंत पर्याय वर्गणा दीठ फेलावीने खपावे, निस्सेस सर्वथा कर्म नाश करीने अंतर्मुहूर्तमां सिद्धे जाय विराजे ते आशये सिझाय कर्ताये पर्याय गुण परिणामें कर्तृतारे ते निज धर्म प्रसिद्ध-सिद्ध सूधी पोहचावी चुका. ए बे गाथा-यांमे स्वरूप ग्राहक आत्मारी शुद्धता लिखी. हिवे परपरिणमन आत्मारी बात लिखे.
परभावानुगत वीरज चेतनारे, तेह वक्रता चाल;
करता भोक्तादिक सवि शक्तिमारे, व्याप्यो उलटो ख्याल ॥ सा० ॥ ३ ॥
परभावानुगत वीरज चेतनारे, परभाव नाम क्रोध मान माया लोभ राग द्वेष मोह मिथ्यात्व इत्यादि स्वरूप प्रापक आत्मारे विषे नथी, परभावमे प्रवर्तते आत्मारे विषे तिगरे विषे अनुगत नाम प्राप्ति हुइ वीर्य चेतना एतले परभावरे विषे आत्माये वीर्य पराक्रम फोरव्यो. चेतनारे विषे वीरज फोरव्यो तिवारे आत्मा गहिलो दुवो भांग पीधी ठहिरि तिवारे जे आत्मा करे ते लिखे यथाममुक्तिः ॥ परपरणमन विभावे आतम अजा कृपाणी न्याये मिथ्य त्वादि हेतु आतम आपही बंब उदीरे आपही उदये सुख दुःख वेदे गत्यागति थिति भीरे ए जे चालां छे ते स्वरूप प्रापक आत्मारी नथी तेह वक्रता चाल आत्मारी वक्रता चाल ठहिरी, वांकी चाल ठहिरी. कर्त्ता भोक्ता तिवारे आत्माने विचारी जोतां थकां
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वीर्य आत्माए फोरवीने मिथ्यात्वादिक आत्मानुगत कीना आत्मारे विषे कीना आत्मारे विषे तो ए नहता अने आत्मा कीना सवि शक्तिमां रेते आत्मशक्तिए करने कीना भोगव्या पिण आत्माहीज तिवारे कर्ताही आत्मा भोक्ताही आत्मा ठहिर्यो यदुक्तमागमे यः कर्त्ता कर्म भेदानां, भोक्ता कर्म फलस्यच, संसर्त्ता परिनिर्वाता, सह्यात्मा नान्य लक्षणः १ व्याप्यो उलटो ख्याल के तो स्वरूप कर्त्ता आत्माहीज छे के विरूप कर्त्ता पिण आत्माहीज ठहियों आत्मा सागीरो सागीहीज तिणे आत्माहीज उलटो ख्याल खेल्यो, आत्मारे करवा योग्य नथी ते आत्माए कीनो तेथी उल्टो ख्याल ठहियों ॥
क्षयोपशमिकऋजुताने उपनें रे, तेहिज शक्ति अनेक
निज स्वभाव अनुगतता अनुसरेरे, आर्यव भाव विवेक ॥ सा० ॥ ४ ॥
हिवे तेहीज जीवने विषे अनंता भव भ्रमण करतां थकां अनंतो काल व्यतीत हवो छते ते जीव जाते भव्य हुतो तेथी क्षयोपशमक क्षयोपशम भावे “ खओवसमियं असंखवारहोइ इति सिद्धांत वचन प्रमाणात् " ते असंख्यातीवारमां प्रथम विरियां क्षयोपशम सम्यक्त्व पाम्यां थकां वक्रता चालतो मिटि ऋजुता ने उपनेरे सरळता उपनी तेहिज शक्ति अनेक ते जीवनी हीज अनेक शक्ति छे, तेहिज आत्मा शक्ति ए करने निज स्वभाव आत्मानो स्वस्वभाव ज्ञान
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१०५०
साघुपद सझ्झाय.
दर्शन चारित्रादि तेहनो अनुगतता निजस्वभावमें आत्मा प्राप्ति हुवो निज स्वभावमें रमण हुवो एटले आत्मा पोताना स्वभाव पाम्याथी अनुसरे, ग्रहण करे. आर्जवभाव सरलतारो स्वभावीपणो ग्रहण करे, तिमहीज वली आत्म स्वभाव प्राप्ति रूप विवेक ग्रहण करे आयवपणेरो भाव प्रगटे ए तो आत्मानो क्षयोपशम सम्यकत्वथी उत्सर्ग कथन छे.
अपवादें परवंचकतादिकारे, ए माया परिणाम; उत्सर्गे निज गुणनी वंचनारे,
परभावे विश्राम ॥ सा० ॥५॥ हिवे आत्मानो विशेष कथन लिखें अपवादे विशेष कथन करने ए आत्मा क्षयोपशम भावि छे. क्षायिकभावे नथी तेथी परवंचना अन्यने टगणो ए कपटनो परिणाम परिणमन छे, क्षयोपशमी छे तेथी जीवमें माया परिणमी छे, परं उत्सर्गे सामान्ये आत्मगुणनी ठगाइ थाय, सामान्ये आत्मगुण ठगी जे विशेषपणे न ठगी जे कीण विरियां तेहिज जीव स्व स्वभावमें प्रवर्ततो तिण विरियां तो नही ने स्वभावमें प्रवततो छतो एहिज जीव परभाव नाम आर्त रौद्रध्यान रूप विभावमें विश्राम ले विभावे जाय ठहिरे तिवारे उ• निजगुणनी सामान्ये वंचना टगाइ करे क्षयोपशमात् क्षयोपशम छे तेथी--
साते वरजो अपवादें आर्जवीरे, न करे कपट कपाय;
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साधुपद सझाय.
आतमगुण निज निज गति फोरवेरे,
ए उत्सर्ग अमाय ॥ सां० ॥ ६ ॥
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१०५१
पांचमी गायाम क्षयोपशम भावथी विशेष कह्यो, हिवे छठी गायामें क्षायिकभावें विशेषपणो कहे छे. अपवादे नाम तेहिज जीव विशेषपणे साते वरजी सात कर्मप्रकृति अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व मोहनी, मिश्रमोहनी, सम्यकत्व मोहनी, ए साते वरजी तिवारे अपवादे नाम विशेष आर्जवी थाय. विशेषपणे सरळ स्वभावीपणो ग्रहण करे. कपट तो अनंतानुबंधी चोकडी क्षपायां थकां शेष रह्या जे अप्रत्याख्यानादिक तिग संबंधी माया परिणामीपणे में म प्रव तिवारे आत्मा आत्मगुण अनंतज्ञान दर्शनादि ति - णांनै निज निज गति फोखे शक्ति में प्रवर्तावे तेपिण एटला, सुधी ही आत्मा उत्सर्गे सामान्ये अमायी अपवादे विशेषपणे हजी सुधी आत्मा अमायी नथी, मापानी दोड दशमें गुणठाणे रे अचरम समय सुधी छे. किम क्षपकश्रेणि हजी सुधी नथी कीनी तेथी मायानें उपशमावी छे पिण संपूर्ण क्षपावी नथी. कथं केवलज्ञान केवलदर्शन नयी पाम्यो ते पामश्ये तिवारें शुद्ध क्षायिकी यास्ये केवलज्ञान केवलदर्शन उपज्यां सूं पहिलां जे क्षायिकपणो छे तेहनें सिद्धांतमें अशुद्ध क्षायिकीपणो को छे. यदुक्तमागमे, ननुसप्तक्षये क्षायिक इत्युक्तत्वात् सतिक्षायिके सम्यक्त्वे श्रीकृष्णवासुदेवः कथं नरकावनीं जगाम श्रेणिकञ्च प्रथमामिति इस प्रश्नकीयो तत्रोत्तरमाह क्षाविकंद्विया शुद्धमशुद्धंनेति ॥ तत्र श्री कृष्ण श्रेणिकयोरशुद्धं क्षायिकं । कस्माद्धेतोः तद्धेतुआह । तस्यसपर्यवसि
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१०५२
साधुपद सइझाय.
..........................ram तत्वादिति न विरोधः यदुक्तं श्री नवपद् प्रकरण वृत्तौ॥ तथाहि । क्षायिकस्यशुद्धाशुद्धभेदेन द्विभेदत्वात् ॥ तत्रापायसद्व्यविकला भवस्थ केवलिना मुक्तानांचया सभ्यष्टिस्तच्छुद्धं क्षायिकम् । तस्यच साद्य पर्यवसानत्वान्नास्त्येवभंगः तस्यनाम तिण क्षायकरे सादि अपर्यवसितपणाहुंती भंग नही यदाहुः गंधहरित ॥ भवस्थ केवलिनो दिविधस्यसयोगायोगभेदस्य सिहस्य दर्शन मोहनीय सप्तक्षयाविभूता सम्यगदृष्टि सादिर पर्यवसितेति ॥ यात्व पायसहचारिणी श्री श्रेणिकादेवि सम्यग्दृष्टिस्तदशुद्धं क्षायिकं तिण शुद्ध क्षायकरे सादि सांत भांगो हुवे अस्ति प्रतिपातः तिण जीवरे क्षायकसुं पडणो छ किण हेते तिको हेतु श्री गंधहस्तीजी लिखे तत्रोवाच अपायसद्व्यवर्तिनी श्री श्रेणिकादीनांच सद्व्यापगमे भवत्यपायसहचारिणीसा सादिः मति ज्ञानांशकर सहित सम्यग् दृष्टि हुवे तिवारे मति ज्ञानांशकर सहित क्षायिक सम्यक्त्व प्रगट होवणेसु सादि कहीजे, केवल ज्ञानरी उत्पत्ति हुवे छते मतिज्ञानांश क्षय हुवे तिवारे सांत कहीजे. अपाय सहचारिणी सम्यग् द्रष्टिरो अंत हुवो तिवारे सादि सांत भांगो टहिर्यो, केवल ज्ञान उपज्यां पछे मतिज्ञानांश क्षय हुवे छते शुद्ध क्षायिकरी आदि हुई तीन कालमें जीण क्षायकरो नाश नही तिणसुं अनंत अतएव सादि अनंत भांगो शुद्ध क्षायिकमें पामें इति ॥ ६ ॥
सत्तारोध भ्रमण गति चारमें रे, पर आधीनें वृत्ति;
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साधुपद सझाय.
वक्र चालथी आतम दुःख लहे रे, नृप नीति विरत ॥ सा० ॥ ७ ॥
जिम
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ओ जीव अशुद्ध क्षायिकीपणामाटे सत्ता आत्म सत्ता ते आत्म सत्ताने रोध-रोकने भ्रमण गति चारमेंरे चार गति चोरासी लाख जीवयोनीरो प्रवर्तणो - भमणो पर नाम जडादिकनी आधीनवृत्ति छे एटले जीव जडाधीन वृत्तिए करने चार गतिमा परि समस्तपणे भ्रमण करे. तब दांतमाह जिम कृष्ण वासुदेव अशुद्ध क्षायिक सम्यक्त्व पामके कालां तरे मरण पाय तीजी नरकमें सात सागरोपमरी स्थिति में उपज्यो उपज्यां पछे तीजी नरकरो आउखो संपूर्ण भोगवनें मनुष्यभव करनें पांच में देवलोकमें दस सागरोपमरी स्थिति में उपज्यां, तिहांथी चविकर बारमें अममजी ईसेनामे आवती चोवीसी तीर्थकर हुसी. पदुक्तं श्री संघदासगणि कृति वसुदेव हिंडौ तथाहि । कहा तइ आए पुढवीए उवहित्तार हवे भारहेवासे सय दुवारे नयरे जियसुत्तस्मरणो पुत्तत्ताण्डवजिऊणपत्त मंडलिय भावो पवज्जं पडिवझिय तित्थयरणाम कम्मं समुज्जणिता बंभलोए कप्पे दस सागरोव माउण तउचुओ बारसमो अममो नामा अरहा भविस्सई || ते आत्मारो विचारी जोता तो मूळस्थानक सिद्धहीज छे, परंते आत्मा जडादिकने आधीन वृत्तियें करने परिभ्रमण करे ते आत्मानी वक्रचाल ते दुःख पामे किम स्वचालछोड पर चालसे चालवा लागो तारे पराई चालसुं आत्मा दुख पामे पोतानी चालें प्रवर्त्ततो थको सिद्धमुखनोहीज भोक्ता छे, एतो आत्मा परचाले दुःख पाम्यो तिहां द्रष्टांत
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१०५४
. साधुपद सझायं.
जिम नृप नीति विरक्त जिम राजा राजनीतिमां प्रवर्ततो थको सर्व वातें साता पायें तेहिज राजा नीतिने विस्व छोड्यां थकां दुःख पामे इत्यर्थः ॥ ७ ॥ ते माटें मुनिऋजुतायें रमे रे, मे अनादि उपाधि,
समता रंगी संगी तत्त्वना रे, साधे आत्म समाधि ॥ सा० ॥
माटे ति कारणे मुनिराज परभाव छोड़ने रुजुता सरलता आत्मिक स्वभाव संबंधित जीणें करनें आत्म स्वभावमें रमे रमण करे दिनरात फिरी तेहिज मुनिराज अनादि कालनो मिथ्यात्वादि उपाधिलक्षणमाह || साध्य व्यापकत्वे सति साधना व्यापकत्वमुपाधिः ॥ साधवा योग्य वस्तु तिरे विषे तो सर्वथा प्रकाररूप स्वरूपता व्यापी रही छे. व्याप रह्यां थकां तें साधन जे कारण तेने विषे अव्यापकत्वं व्यापन रही छे एटले स्वरूप कार्य साववावालो ते साधन ठहिर्यो तेहने विषे रुजुतापणो व्यापीने रह्यो तेहिज उपाधि, ईहां साधवा योग्य आत्मिक स्वरूप सरलता तेहने विषे व्याप रही छे साधन मुनिराज तिणरे विषे अनादि कालीन मिथ्यात्वादिक उपाधि तिणसु रुजुता नावे तिण कारणें मुनिराज रुजुताने ग्रहण कीयां स्वरूप प्राप्ति हुवे ते कारणे उपाधि वमें दूर करे तिवारे साधुरे विषे स्वरूप ग्राहक शक्ति उपजे सुमता रंगी शुभमति स्वरूप संबंधनी भली जे मति तिणसुं मुनिराज रक्त दुवे. अहोनिशी सुमतिमयी प्रवर्ते. संगी तत्त्वनारे शुद्धात्मतत्व तेहनो अहोनिशि चिंतवन
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८ ॥
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साधुपद सझाय.
१०५५
तद्रूपे संगी हुवे तिवारे साधे आत्म समाधि ॥ समाधिश्चित्त वृत्तिरोध: मुनिराजनी चित्तनी चित्त-मन तेहनी जो वृत्ति प्रवर्तन तिण प्रवर्तनें आत्मिक स्वरूपमयी चिंतवन मनमें साधन करे ॥ ८ ॥
मायक्ष आर्जवनी पूर्णता रे, सवि गुण ऋजुतावंत; पूर्व प्रयोगें परसंगीपणो रे, नही तसू कर्त्ताविंत ॥ सा० ॥ ९ ॥
हिवे आठमी गाथारे अंत पदमां साधे आत्म समाधि ए पद धर्यो, आत्म समाधि साधे ईश्यो कहां छतां क्षपकी तो निश्चय ठहियों क्षपकी ईग्यारमें गुण ठाणानें फरसें नही आगे नवमी गाथारे पहिला पदमें मायक्षये आर्जवनी पूर्णतारे इसोपद ग्रंथ्यो जो पदनो संबंध बारमें गुणठाणे विना मिले नही पण कर्ता थ्यो तेथी मने पदरो अर्थ करणो वे लिखुं मायानो क्षय थया छतां आर्जवनी पूर्णतारे प्रथम आर्जव - भावरी संपूर्णता नहंती हिवे बारमें गुणठाणे प्रवर्त्त्या छतां सरलतानी पूर्णता हुइ एतले आत्माविषे संपूर्ण आर्यवता आवी रुजुतारो रमण आत्मसमाधिपूर्वे होयचूको पिण सिझायकर्ताए आर्यवपद गुथ्यो तेथी पुनरुक्ति अर्थ लिख्यो. सब गुण जो गुण साधुपणेरा खंतीमदव अज्जवादि ए दशविध यतिधर्म ते सर्व गुण दशेही रुजुतावंत थया पूर्व प्रयोगें ए मुनिराजनें जीवें पूर्व भवें बांध्यां जिके शुभाशुभ मिथ्यात्वादि हेतु करने उपाय जीके कर्म तेथी परसंगीपणोरे पर जे जडादि तेहना
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साधुपद सझाय.
संगथी बंधाणो जे शरीर तेहनो खानपानादि बाह्य शुश्रूषा रही छे एतळें शरीर संबंधी परसंगीपणो रह्यो छे. नही तत्र कर्त्तावंत तसु ते जे कर्मबंधणा शरीरनी शुश्रूषादिके करनें तिणरो कर्त्तापणो तिणारे नहीं रह्यो छे, कर्मरो कर्त्तापणो बाकी न रह्यो ॥ ९ ॥
साधनभाव प्रथमथी नीपजे रे, तेहीज थाये सिद्ध;
द्रव्यत साधन विघन निवारणा रे, नैमित्तिक सुप्रसिद्ध ॥ सा० ॥ १० ॥
कर्मरो कर्त्ताविंतपणो नही तेथीज साधकभाव आत्मिक गुण साधक स्वभाव आत्मारा आत्मिक गुणज्ञान दर्शनादि साधक साधन करणो सिद्ध करणो तिणरोभाव प्रथमथीपहिला हुंती एटले ए हवे आत्मा थयें छते नींपजे थाय तेहिज आत्मा थाय सिद्ध सिद्धपणे थाय पामे तो ते हवे ये आत्मारे द्रव्यत साधन द्रव्यत्व साधनपणो बाह्य साधनपणो चारित्रादि तेहना द्रव्यत्व साधनना जे कोई विधन ते विधनोनो निवारणारे निवारण करणो दूर करणो नैमित्तिक ए तो निमित्तकारण छे; साधारण असाधारणमाथी एकही नथी जीम कुंभकाररे दंड चक्रचीवरादि निमित्त कारण घटरूप कार्य सिद्धि करतां थकां छे तिम द्रव्यत साधन द्रव्य साधूपणारी एहवो ययो आत्मा तेहनें पांचेई जे प्राणाति पाताश्रवरो निवारण द्रव्य साधुपणारे विषे प्राणातिपातादिक नो विधन न पडे प्राणातिपात मृषावादादिक लागे तद्रप
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साधुपद सइयाय.
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द्रव्य साधनपणारी विघन ते विवननो निवारणो एहवे थये आत्मारे सहिज निवारणो छे, तेथी नैमित्तिक कारण कयो तिको नैमित्तक कारण सुप्रसिद्ध - प्रसिद्ध हिज छे, ए सर्व द्रव्य साधन छे, द्रव्य साधनथी तथा विध साधनता नथी ॥ १० ॥
भावें साधन जे इक चित्तथी रे,
भाव साधन निज भाव ।
भाव सिद्ध सामग्री हेतु तेरे, निस्संगी मुनिभाव ॥ सा० ॥ ११ ॥
द्रव्य साधन को, हवे निज स्वभाव साधनथी स्वस्वरूप सिद्ध थाय ते लिखे ते भावसाधन छे, तेथी भावें साधन स्वरूपानुयायी जो भावसाधन आत्मिक स्वरूपने सिद्ध करे एहवो जे भावसाधन. जे इक चित्तधीरे जीको एक चित्तवृतियें करनें तदाकारभावपर्णे प्रवर्त्तनुं ते भावसाधन कहिवाय, ए लिखत शुक्लध्यानना चोथा पायानो छे. हिवे रूपातीतध्यान कहे छे, निरंजन निर्मल संकल्प विकल्प रहित अभेद एक शुद्धसत्तारूप निर्मल चिदानंद तत्त्वामृत असंग, अखंड, अनंत गुणपर्यायरूप आत्मस्वरूपनो ध्यान ते रूपातीत ध्यान जाणवो. तेथीज सिझायकर्त्ता आगळ पदमां इम गुथ्यो छे, भावसाधन भावे साधन छे ते निज भाव निज स्वभावपणो छे आत्मारो. हिवे ते जे निज भाव ते निज भावयी भावसिद्ध सामग्री भाव निज स्वभावनी सिद्धता निज स्वभावनो सिद्ध थाउं तद्रूप सामग्री ते सामग्री संबंधीहेतु सामग्री संबन्धि कारण छे. तेरे नाम ते कारण स्योकिसो निस्संगी सुनिभाव निस्संगी
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साधुपद सडझाय.
मुनिपणो निस्संगी मुनिभावपणो ते स्युं संग नामसंबंध नामशरीर पुद्गलादिक पण रया छे, परणम्या ते पुद्गल ते पुद्गलोयी निस्संगपणो छे. पोताना पुद्गल नयी जाणता, पुद्गलोनी परचर्या मात्र मूकी दीधी छे, मुनिभाव ामस्वभावे मुनिराजपणो ते छे, एटले तदाकारवृत्तिपणो तेहने कहिये तेरमें गुगाठाणानो अंत्य अरु चौदमो गुणठाणो हिवे थारये ते पोतेज कर्ता आगळ गुंथ्युं छे. तेहिज लिखे ॥ ११ ॥
हेयत्यागथी ग्रहण स्वधर्मनोरे, करे भोगवे साध्य । स्वस्वभाव रसिया ते अनुभवरे, निजसुख अव्यावाध ॥ सा०॥ १२ ॥
हेय त्यागथी भावसाधन जिवारे सिद्ध थयो तिवारे हेयत्याग-छोडवा योग्य जीको वस्तु स्वस्वरूपरो विवनकारी जे पंच्यासी प्रकृति जुना कपडा प्राय तेहनो जे अंत करवो खपाववो तद्प हेय-त्यागथी, ग्रहण विधभनोरे लेबो स्वधर्मनो आत्मत्वधर्म अनंतज्ञानदर्शन चारित्रादि कनो ग्रहण करे तद्रप स्वरूयनो ग्रहण करे भोगवे साध्य साधवा योग्य वस्तु स्वधर्म तेहनी सिद्धता ते जे भोगरे, लघु पांच अक्षर नो उच्चारणरो काल तिा प्रमाणे चोदमा गुगाठाणामें भोगवे पछे स्वस्वभाव रलियाने आयरो स्वभात्र पूर्वे कयो ते अनंतज्ञानादि तेहनो रलियो थयो छतो निज सुख अव्याचाध पीडायें कर रहित तेहने अनंतकाल तांइ भोगवे, चौदमें गुणठाणेरे अंति में एक समयावछिन्ने चरम समयमें सिद्ध पुहुच्यो. पुहच्यां
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साधुपद सझाय.
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पछे प्रथम समय सो तो आदि छे, सिद्धां पुहचणारी आदि छे. अनंतेकाले उठेहीज रहणो तिगसुं अनंत छे, तेथी सादि अनंत भांगो सिद्धमां के इतिश्रेयः ॥ १२ ॥ निःस्पृह निर्भय निर्मज निर्मलारे,
करता निज साम्राज |
देवचंद आणायें विचरतारे,
नमिये ते मुनिराज ॥ सा० ॥ १३ ॥ इति
आगली गाथारो संबंध जोरावरी मिलावणो पडे छे, सिझाय कर्त्ता महा मोटा तेथी विरुद्ध कहिवाय नही. प्रथम गाथानो ते संबंध अंतिम ए संबंध ते पोतेही विचारी लेज्यो, निस्पृहवांछा रहित इसा ते मुनिराज छे, निर्भय इहलोक परलोकादि भय तेणें कर रहित इसा ते मुनिराज छे, निर्मल गयोछे कर्ममल जे हुंती इसा थका करता निज साम्राज स्वरूप संबंधी निज राज्य - आपणो राज्य कर रह्या छे देवचंद्र आणाये विचतारे || देवेषुचद्रइव चंद्रोदेवचद्र संसार संबंधी देवता विषे चंद्रमारी परे कर्मरहितपणामाटे उज्वल महाइस्या ते वीतराग देव तीगांरी आणा आज्ञा ते विषे विचरता - प्रवर्तता नमिये ते मुनिराज इसा ते मुनिराजने नमि यें, ए दोय अंतिम पदारों प्रथम पक्ष संबंधित अर्थ छे. हिवे द्वितीय पक्ष संबंधित होय अंतिम पदारों अर्थ लिखीये छे, देवचंद्र कविराज एहवं कहे- जिनेश्वरनी आज्ञा समय प्रमाणे प्रवर्त्तता एहवा जे मुनिराज तेनें नमस्कार करीये वारंवार इति संटकः ॥ इति ज्ञानसारजी कृत स्वाध्याय बालावबोध संपूर्णम् ॥
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श्री बाहुजिन स्तवन स्वोपज्ञटवासह . *
बाहुजिणंद दयामयी, वर्तमान भगवान, प्रभुजी;
महाविदे विचरता,
केवल ज्ञान निधान, प्रभुजी बाहु० ॥ १ ॥
ॐ हवे वीजा विहरमान पश्चिम जंबुद्वीपनेविषे वच्छविजय सूसिमा नगरी, सुग्रीव राजा, विजयामाता पुत्र, मोहनी राणीना भरतार, हिरण लांच्छन, श्री बाहु स्वामीने जे दया नीपनी छे ते दिखाडे छे, अने प्रभुने स्तवे छे. श्री बाहु स्वामी दयामयी छे. इहां यथार्थ ज्ञान करवाने दयानुं तथा अहिंसा स्वरूप कहीए छीए. जे कोइने हणवो नहिं ते अहिंसा कहीए. ते विभावपरिणतिए परिणमीने जे आत्मगुणनो हणवो ते भावहिंसा. अने गुणी तथा ज्ञानादिक गुणने अनुयायी वीर्य उपयोग करतां आत्मगुण हणायज नहिं. ते भाव अहिंसा तथा जे आत्माना ज्ञानादिक गुण आस्रवथी हणता जाणीने ते आस्रवथी टालीने आत्माने संवरने विषे परिणमनुं ते भावदया जाणवी तथा कोइ परजीवना दश प्राण न हणवा ते द्रव्य अहिंसा. अने कोइना द्रव्य प्राण हणाता उगारखा ते द्रव्यदया, एनुं स्वरूप विशेषा
* आ स्तवन श्रीमद् देवचंद्रजीए रचेलं होई तेओना समयनी गुर्जर भाषा प्रमाणेन अमे प्रसिद्ध करीए छीए. अने ते उपरनो अर्थ पण ओज भलो छे.
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श्री बाहुजिन स्तवन.
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वश्यके चतुर्थ गणधरवादथी जोज्यो. तथा श्री हरिभद्रसूरिकृत अहिंसाष्टकथी तथा ओवनिर्युक्तिथी जोज्यो. इहां दया अहिंसानो एकपणो ते कारणे कार्योपचार माटे छे, दया ते अहिंसानो कारण के. अहिंसा ते कार्य छे. स्वपरना ज्ञानादिक गुण न हावा ए भाव अहिंसा. ए धर्म यतः "" एस धम्मे धुवे नीति" इत्यादिक आगम वचन छे. ते श्री बाहु जिन कहेतां वीतरागना इंद्र पुष्टशेपगारी माटे तीर्थंकर ते परमदयामयी छे. आत्मानी दया संपूर्ण करी छे, परनी संपूर्ण दया उपदिशे छे. वर्तमानकाळे विचरता भव्य जीवोने देशनामृते सिंचता महाविदेहक्षेत्रे तेहि केवळ जे सकल लोकालोकना भाव जेही प्रत्यक्ष परसहाय विना एक समये जाणे ते केवल ज्ञानना निधान छे. एवा श्री बाहुजिन छे ते परमदयाल छे द्रव्यथको छकायने,
न हणे जेह लगार प्रभुजी, भावदया परिणामनो,
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एहिज छे व्यवहार. प्रभुजी बाहु० ॥ २ ॥ द्रव्यथी छ काय. १. पृथ्वीकाय. २. अप्पूकाय. ३ तेउ
काय. ४. वाउकाय. ५. वनस्पतिकाय. ६. सकाय. ने नहणे जेश्री अरिहंत लिगार अंसमात्रपिण. इहां कोइ पूच्छये जे केवलीना पगथी पारेवाना बच्चां प्रमुख हणाये छे. तो न हणे किम कहो हो ? तेनो उत्तर जे श्री भगवती सूत्रे केवलीना पगयी पारेवा प्रमुखनां बच्चां हणाय पिण तेहने इरी - यावही कही पण हिंसा न कही ते माटे न हणे इम को जे छठ्ठे गुण ठाणे मुनिने प्राणातिपातिकी क्रिया उतरी छे
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श्री बाहुजिन स्तवन.
तो केवलीने किम ढोवे ? इया माटे जे भावदया आत्मगुणनो रखवालवो तेना धणी जे उत्तम गुणी निग्रंथादिक तेहनो ए व्यवहार कहेतां प्रवर्तन छे, जे जेमां जेहवा गुण हुवे तेहनो आचरण प्रवर्तन पिण तेहबोज हवे, जे पोते साहुकार हवे तेहनो देश चाली पिण समी हवे. जेहनो लांठीयो हवे तेहनो देश चाली पिण वांकी दुवे, ए दृष्टांते जे परमेश्वर भावदया परिणामे परणम्या छे तेहनो विहार पण छकायने राखवानोज हवे इम जाणवो. ए द्रव्य दयारूप प्रथम भेद को.
रूपअनुत्तर देवथी,
अनंत गुणो अभिराम प्रभुजी; जोतां पिण जग जीवने,
न वधे विषय विराम, प्रभुजी. बाहु० ॥ ३ ॥ बीजा सरागी जीवनो रूप हुवे ते घणा जीवने विकारनो तथा संसारी रागादिकनो हेतु थाय तिवारे ते जीवना आत्म गुण हणाये, तिवारे ते रूप हिंसानो हेतु थयो, अने श्री प्रभुजीनो रूप ते अनुत्तर विमानना देवताथी अनंतगुणो अभिराम कहेतां मनोहर छे. एहवो रूप छे. पिण जगत्रयना जीवने जोतां धर्म राग उपजे पिण विषयनो विकार न उपजे इतले जे रूपनी मनोहरता ते पिण दयानो कारण जाणवो. ए बीजो दयापणो छे. ३. कर्म उदय जिनराजनो,
भविजन धर्म सहाय, प्रभुजी;
नामादिक संभारतां,
मिथ्या दोष विलाय, प्रभुजी बाहु० ॥ ४ ॥
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श्री बाहुजिन स्तवन.
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वली त्रीजी दया कहे छे. हे देवाधिदेव जिनराज तुम्हारो कर्मनो उदय, जे तीर्थकर नाम कर्मनो उदय तथा भाषा वर्गणानो उदय प्रमुख ते जगत्रयना भव्य जीवने धर्मनो सहायनो कारण थाय छे. उक्तं चावश्यकनियुक्तौ तंच कहं वेइज्जइ अगिला धम्मदेसणयाए इत्यादि भाषाने सांभळवे घणा जीव धर्म पामे. अतिशय महिमा देखीने घणा जीवने विस्मय सर्वोत्तमपणो भासे. ते अतिशयनो स्वरूप प्रथमच्यार अतिशय सहजना जन्मना छे. इग्यार घनघाती कर्मक्षय थया पछी उदय थाय छे; ओगणीस अतिशय देवता गुणरागी थकी जग-जीवनी भाव करुणा माटे करे छे. ए चोत्रीस अतिशय, पांत्रीस वचनातिशय एवं तीर्थंकर नामकर्मनो औदयिक विपाक छे. पिण भव्य जीवने धर्म पमाडवानो कारण थाय छे. जेहथी घणा जीव संसार समुद्र मध्ये पडतां उगरे छे. तिणे ए त्रीजो दयावंतपणो, तथा तुम्हारा नामादिक इतले नाम निक्षेप संभारतां मिथ्यात्व दोष विलय जाये तथा चागतः महाफलं खलुहारूवाणं अरिहंताणं भगवंताण नामगोअस्स विसवणया किमंतपुण अभिगमण वंदन नसणाए इहांनाम सांभळवानो महा फल छे. इम को. थापनानी भक्तिनो आलावो, श्रीरायपसेणीए हिआए सुहाए खेमाए निस्सेससाए आणुगात्रियताए भविस्सs. तथा प्रश्न व्याकरणे प्रथम संवरद्वारे दयाना नाम काया छे ते मध्ये "पूजीएजी " ( ? ) ए नाम दयानो को छे. तथा त्रीजे संवरद्वारे चैत्यनो वेयावञ्च निर्जराना अर्थी होय ते करे. इहां चैत्यनो अर्थ ज्ञान करे ते खोटो बोले छे. ज्ञाननो विनय थाय पिण वेयावच्च न थाय ते माटे
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श्री बाहुजिन स्तवन.
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चैत्यशब्दे जिन प्रतिमा छे. वली भगवती सूत्रे चमर अधिकारे सौधर्म इंद्रे अरिहंत तथा अरिहंत प्रतिमानी आशातना एक कही छे तथा करेमिभंते सामाइयं ए शब्द उच्चरतां " भंते " थापनानो संबोधन छे. तथा अंगचूलीया सूत्रे कह्यो छे जे गुणीनी थापना गुणी समान त्रेवडवी तथा द्रव्यनिक्षेपो जंबूद्वीपपन्नत्ती मध्ये निर्वाण कल्याणके श्री रुषभदेवना शरीरने नवरावी चंदन विलेपन करी फूल चढावी ग्रहणा पहिरावी ने शक्रस्तव कर्यो छे तथा उववाईसूत्रे अप्पे गइया वंदणवत्तियाए अप्पेगइया पूअण वन्तियाए ए पाठे फूलनी पूजा ते गवेषी छे. तथा नंदीसूत्रं तिल्लोक्क महिय पूइएहिं अरिहंते पनवीए इत्यादी पाठ जोवो. तथा भाव निक्षपोपरम केवलादि गुणमयी श्री अरिहंतनी सेवना वंदण नमन ध्यान ते च्यार निक्षेपा जे नाम अरिहंत, थापना अरिहंत, द्रव्य अरिहंत, भाव अरिहंतने संभारतां मिथ्यात्व कुश्रद्धादिक दोष विलाय कहेतां जाय. हे प्रभुजी तारा नामादिकपिण परजीवने आत्मगुणना कारण छे. इतले तेपिण दयानाज हेतु छे ए चोथो दयापणो छे.
आतम गुण अविराधना, भाव दया भंडार प्रभुजी । क्षायिक गुण पर्याय,
नवि पर धर्म प्रचार, प्रभुजी ॥ बाहु० ॥५॥ ए सर्व उपगारीपणे परजीवना हितरूप, द्रव्यभावपर दया. वंतपणो दाख्यो. पिण जे पोताना आत्ममध्ये अहिंसकपणो निपनो छे. ते दयावंतपणो ओळखावे छे. तिहांजे अनादि
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संसारी जीव परानुयायी क्षयोपशमी उपयोग वीर्यने प्रवर्तने स्वगुण अनंतताने आवरण करतो हतो. ते आत्मगुण हिंसा हती. तथा पोताना गुण, पुद्गल लेवे भोगवे प्रवर्तावतां आत्मगुण विराधना थती हती, ते हे श्री बाहु स्वामी हिवे तुमे तुम्हारा कारण गुण, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, दान, लाभ, भोग, उपभोग, कर्तापणो, भोक्तापणो, ज्ञायकपणो, ग्राहकपणो, व्यापकपणो, रक्षकपणो प्रमुख सर्वे स्वरूपानुयायी साधकत्व स्वरूप, कर्त्ता स्वरूपः ज्ञाता स्वरूप, ग्राहक स्वरूप, भोक्ता स्वरूप, रक्षक स्वरूपाश्रयी स्वरूप तन्मयतादिपणो थयें, सर्वआत्मगुणना अविराधक थया ते माटे स्वरूपना सर्वथा निरावरणपणे रहिवो, जे आत्माना गुणने विराधवा नहिं. ए भाव दया छे. तेना तुम्हे हे प्रमुजी ! हे परमेश्वर ! परमात्मा तुम्हे भंडार छो. इतले स्वस्वरूपने निर्मळपणे राखी रह्या छो. एहज भाव दया छे. तेना भंडार छोजी. तेनो कारण कहे छे. जे क्षायिक निरावरण जे गुण केवळ ज्ञानादिक पर्याय सकल वेत्तृत्वादिक तेहमें हिवें, परधर्म जे पुद्गल रागादि जे परधर्म रागादिक तेहनो प्रचार कहतां प्रवेश नहि कहतो नयी, जे क्षयोपशमी गुण ते कदाचित् शक्तिन्यूनता माटे परानुयायी थाये. ते साधनचक्रे साचव्याज रहे, परं क्षायिक भावी जे गुण ते जे स्वशक्तिनी संपूर्णताये, स्वकार्य करे, परंपरानुयायी थायेज नहि. एहज परम स्वरूप अविराधकता सादि अनंत भागे निपती, ते परम अहिंसा निपनी छे, ए चारित्र गुणनी परणति छे. ते कर्तृत्वपणाने बळे प्रवते छे. ते माटेकरी नीपनी. हिवेपिण समये समये करेज छे. ते माटे एक
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श्री बाहुजिन स्तवन.
रीते थाय. ते दया कही छे. ते ए पांचमें बोले स्वरूप अविराघकरूप भावदयाना पात्र छोजी.
सर्व जीवे, सर्व आगम मध्ये एहवा भाव दया अरूपी आत्मपरिणति ते धर्म सरदहीवो. अरूपी धर्मेज अरूपी परमानंद नीपजे. ए धावो. तथा श्री भगवती सूत्रे अया सामाईयं ए पाठ तथा श्री विशेषावश्यक मध्ये जीवो गुण पडिवन्नो नयस्स दव्ययस्स सामाईयं, आत्मगुणस्वधर्म प्रवृत्तिः तयायाधको अहिंसा, इति व्याख्यानात् तथा धर्म संग्रहण्यां नाम ठपणा दःवर खित्ते काले तहेव भावेअ एसोखलु धम्मनिखखेवो छविहो होई. ए गाथानी प्रथम संक्षेप व्याख्या पहिलां करीने पछी विस्तर वाचनाए स्वगुणपर्यायाधारत्वं द्रव्यत्वं तस्य परसंगित्वमेवाधर्मः पंक्ति ? रथ न्यायात् अधर्म एव हिंसा ए आसमये तेहनो न करवो ते अहिंसा ए आशये गाथा सूत्रे कहे छे. गुण गुण परिणति परिणमे,
बाधक भाव विहीन, प्रभुजी । द्रव्य असंगी अन्यनो,
शुद्ध अहिंसक पोन. प्रभुजी ॥ वाहु० ॥६॥ तथा गुण जे ज्ञानादिक ते गुगनी परिगति जाणवादिक स्वस्वकार्ये परिगमे गुण परिगतिनो बाधक भाव जे आवरण तेही विहीन कहेतां राहत एले निवारण गुण परिणाम तेहज स्वस्वकार्य करे, ते निरावरण गुण थयो ते शाथी थयो ? जे कारणे द्रव्य आत्मा अन्यनो असंगी थयो तिवारे गुण निरावरण भयो पहनो अहिंसकपण नीaat तथा
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श्री बाहुजिन स्तवन.
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श्री पंचवस्तु टीकायाम, हेतुभ्योऽभिनवकर्मग्रहणं हिंसा तन्निवृत्ति: अहिंसा तथा श्री विशेषावश्यके भगवती सूत्रे एहवा अधिकार अनेक छे. जे मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग एहवा चार भाव संसार कह्या छे, ते माटे सकल प्रदेश सकल भाव धर्म, अन्य जे परभाव तेहनो असंगी सर्व संग रहितपणो ते द्रव्य अहिंसकपणो निपजे छे, ते माडे तेही रहित ते द्रव्य असिंसक कहीयेजी, परसंगी आत्माने हिंसक दाखे छे. ए शुद्ध उत्सर्गनये अहिंसकपणो पीन कहेतां पुष्ट जे योग को छे, ते असत्यपणो कांइ बाह्यपणे साधन रीते नथी. परं उत्सर्गे जे न घटे शब्द द्रव्य श्रुतावलंबी उपयोग ते इहां उभो छे. ते माटे असत्य वचनयोग कह्यो छे. तथा श्री भगवती सूत्रे सूक्ष्मसंपराय गुणठाणे संपरायकी क्रिया छे, ते माटे उस्सत्तरीयति ए पाठ छे ए पिग वस्तु धर्म आश्रयी छे. ते माटे अक्षयावगाहना थइ एक मोटो आत्मधर्म प्रगट्यो. ते माटे क्षेत्र जे अवगाहना चलपणे आत्मा हणतो हतो ते अचलपणे थयो ए क्षेत्र अहिंसकपणो, आत्माने विषे नीपनो, इम भाववो. इहां कोइ पुछश्ये जे क्षेत्रने संकोच दुःख आत्माने किम मनाये ? तिहां उत्तर जे सिद्धपणे अवगाहना रहि ते पिण नानी मोटी छे, पिण हवे सिद्धने नानी मोटी अवगाहना करवी नयी ते माटे इम को छे. उत्पाद व्यय ध्रुवपणे,
सहजे परणति थाय, प्रभुजी ।
छेदन योजनता नहीं,
वस्तु स्वभाव समाय, प्रभुजी ॥ बाहु० ॥८॥
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श्री बाहुजिन स्तवन.
हिवे-भावनाये कालधर्मनी शुद्धता कहे छे. कालधर्म लक्षण, धर्मसंग्रहणीये कहीये छे. पवत्तण रूवो कालो दवस्सचेव पज्जाओ सोचेव तउधम्मो कालस्स वजस्सजोए तथा तत्त्वार्थे विशेषावश्यके पंचास्तिकायनी वर्तना तेहनेज कालपणो को छे, तथा अनुयोगदार सूत्रे पिण कह्यो छे जे किं भंते अद्धा समएतिवुच्चति गोयमा जीवाचेव अजीवाचेव तिहां पिण जीव अजीवनी वर्तना ते काल तथा स्वद्रव्य स्वक्षेत्र स्वकाल स्वभावत्वेन स्यात् अस्ति ए पद संमति तथा रत्नाकरावतारिका मध्ये छे, ए अस्तिपणो ते स्वधर्मेज हवे. परधर्मनो अस्तिपणो ते द्रव्यनुं धर्म नहि. ते माटे काल उत्पाद व्ययरूप वर्तना ते स्वधर्म छे. आत्माना विशेष पर्यायास्तिमयी परिणमन छे. ते उत्पाद तथा व्यय तथा ध्रुवपणे जे आत्मा परिणमे तेहने सहेजे परिणने छे. इतले उत्पाद व्यय ते कोइने पर निमित्ते यतो नथी. ते माटे सहेजे ए परिणति थाय छे. संयोगीभावनो व्यय ते छेदन कर्यों थाय छे अने उत्पाद ते कोइ योजन कहेता कोइकने जोरे थाय छे, अने आत्मगुणनो उत्पाद ते परभावनी योजना विना थाय छे. ए. उत्पाद वस्तु स्वभावे समाय छे. वस्तु धर्म समाय छे. ए काल परिणति सर्व द्रव्यनी किवारे हगाती नथी. ते वस्तुपणे तिमहिज परिणमे छे. ते वस्तुवमें दिखाड्या मादे कह्यो छे. तथा गुणनी वर्तना ते गुणावरक कर्म रोवे छे. ते तो रोधकपणो हिंसा छे, ते निरावरण अवस्था प्राग्भावी वर्तना ते हिवें हणाती नथी. ते माटे एहने अहिंसक वर्तना कहीए. ते नीपनी छे. हे परमेश्वर परमदयाल तुम्हें स्वदया संपूर्ण नीपजावी छे श्री यशोविजयोपाध्याये निजदया परदयानो स्व
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श्री बाहुजिन स्तवन.
रूप उपदेश रहस्यमें वर्णव्यो छे ते जोज्यो. निज या विषुः कहो पर दया हवें कवण प्रकारे ए वचनने अधिकारनो आर शय पिण एहज छे.
गुणपर्याय अनंतता, कारक परिणति तेम, प्रभुजी। निज निज परिणति परिणमें, भाव अहिंसक एम, प्रभुजी. ॥ वा० ॥९॥ हवे भावधर्मनी अहिंसकता कहे छे. तथा श्री भगवती सूत्रे भावओणं जीवे अणंता नाण पजवा । अणंता दंसण पज्जवा, अगंता चारित्त पन्जवा, अणंता अगुरुलघु पन्जवा. इत्यादि बंधाधिकारे तथा भावजीवः उत्तराध्ययन निर्युक्तो, जीवाजीव विभत्तिने विषे जोइ लेज्यो. नवरं तद्व्यतिरिक्तश्च जीवद्रव्यं द्रव्यजीवः उच्यते इति प्रक्रमस्तु विशेषद्योतकः रुचिरियं न कदाचित्तत्पर्याय वियुक्तं द्रव्यं तथापि च यदातद्वियुक्ततया विवक्ष्यते तदातद्रव्य प्राधान्यतो द्रव्य जीवो भावेतु दशविध एव परिणामः कर्मक्षय क्षयोपशमोदयापेक्षा परिणतिरूपो भावजीव: इति ३ ए शांतिवादि वैतालटीका पाठ छे. तथा धर्मसंय-. हणीने विषे तस्लेव धम्मरुवे नियपरत्वे हिं अत्थिनत्थित्ते भिन्न पवत्तिनिमित्तं तम्हातत्तंअणेगतो १ ए भावधर्म तथा श्री दशवकालिक नियुक्तिं अहिंसाना छ निक्षेपा कर्या छे. तेहनी टीका मध्ये पाठ छे,जे स्वगुणाबाधःअहिंसा 'वस्तु वृत्त्या अन्यातत् कारण वाद हिंसा' इत्यादि ते माटे जे गुण ज्ञानादिक पर्याय अवन्ने 'अगंधे' इत्यादि तथा कारक
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१०७०
श्री बाहुजिन स्तवन.
कर्ता १ कर्म २ करण ३ संप्रदान ४ अपादान ५ आधार ए छे ६ ते गुणपर्याय तो अनादिकालना अवराणा पड्या छे तथा जे वीर्य चेतनना क्षयोपशमी थइ तें परानुयायीपणे प्रवर्तता स्वगुणावरण रूप कार्य करवे स्वगुण प्रवृत्ति वातरूप स्वर्दिसा करे छे, ते नाय तुम्हे स्वकीय सर्व गुण प्रगट करने वली स्वरूप प्रवर्तन करवे ते हिंसकपण निवारीने स्वभाव धर्मना अहिंसक थया छो. तथा कारकखवनी परगति अवराती नयी, पिण अनादिकालनी संगांगीपणे परकपणे थयाथी आत्माविभावकर्त्ता, कार्य, कारण संप्रदान, अपादान, विभाव परिणमनरूप परानुयायी क्षयोपशम ते अभिनव परिगति वृद्धि ते लाभरूप स्वशक्ति रोकवा - रूप ते हानि ते आत्मक्षेत्रे परभाव ग्राहकता परभाव भोग्यता रक्षणतादिकपणे आधारकारक, इंम छ कारक हिंसक थया छे. संसारी जीव ते तुम्हारा खटकारक साधनपणे करी पछी केवल ज्ञानादिक गुण प्रवृत्तिपणे प्रवर्त्ताव्यो ते कर्त्तापणो, कार्य, करण, संप्रदान, अपादान, आधार, सर्वज्ञतादिक गुण प्रवृत्ति ते उपगरण ते भासनतादि लाभ ते परभाव सन्मुख न स ते स्वरूप रक्षता, ते ए छ कारक स्वगुण कार्य करवारूप परिणते परणम्या एहज भाव अहिंसकता नीपनी. ते भाव अहिंसा अध्यवसायपोनीपतो. एहज स्वधर्म नीपनो. इतले आत्मगुण आत्मपर्याय तथा आत्मानाकारक ते सर्व अनंता परिणामत्त्वादि शेष धर्म ते सर्व निज निज कहेतां पोतापोतानी जागग छे. तथा देवो तथा रमण आनंदादिक परिणत परणमें छे. ते हिज भाव अहिंसकपणो छे. इतले जे द्रव्यनों भाव अहिंसक थयो तेहना द्रव्यक्षेत्रकाल नियमा अहिंसक थाय. ते, हे श्री बाहुस्वामी तुम्हारी भावधर्म तुम्हे
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श्री बाहुजिन स्तवन.
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हणता नयी अने पर कोइ हणी शके नही ए अहिंसकता जे साध्यमां हती ते तुम्हारे नीपनी छे. इतले तुम्हें परम अहिंसक छो अने अहिंसकताना कारण छोजी, ए रीते भाव अहिंसकता नीपनी छे. ते अहिंसकपणो सर्वनें ध्येय छे. श्री जिनराज तुम्हारो अहिंसकपणो जे जीव अवलंबीने तन्मयी थाये - तेहनो पोतानो परम अहिंसकपणो नीपते, ते माटे तुम्हे परम आधार छो. भव्यजीवना परम उपगारी छो, दयाल छो, शरणभूत छोजी. ९ म अहिंसकतामयी,
दीठो तुं जिनराज, प्रभुजी; रक्षक निज पर जीवनो,
तारण तरण जिहाज, प्रभुजी ॥ बा० ॥ १० ॥ एम कहतां ए रीते सर्व गुणे सर्व पर्याये उपादानपणे, निमित्त णे, उपगारीपणे, आधारपणे, उपदेशपणे, अतिशयादिक उदीकपणे हे वीतराग तुम्हे परम दयाल छो. ते हे प्रभुजी में मिथ्यात्व असंयमनी गढ़ताये अनादिकल स्वरूपावृत्तपर्णे भव भटकतां आत्मधर्म उछेदी में प्रवर्ततां तुम्ह समान तत्वी देव पर भावनो अकर्त्ता अभोक्ता ते किवारे दीटो नहते. इतले उपयोग गोचर कर्यो नहतो. ति हवमां कोइक गिर सरिदुनल घोलना न्यायें श्री वीतराग आगम श्रवण यथार्थ भासक गुरु उपगारे हे जिनराज नाहरी स्वरूपानंदीपणो तवोपकारीपणो ए अवसरे भासनगोचर थयो ते माहरे आज परम कल्याण थयो. ते माटे श्री जिनराज तुम्हे रक्षक छो. निज कहतां स्वधर्मनो तथा कारणपणे परजीवना पिण रक्षक छो.
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श्री बाहुजिन स्तवन.
ते माटे निमिस कारणने कर्त्तापणाने आरोपे तारण कहतां परजीवना तारखाना कारण छो. अने पोते तर्या छो. ते माटे जिहाजनी उपमा छे तुम्हने हे देव. १०.
परमातम परमेसरु, भाव दया दातार, प्रभुजी; सेवो ध्यावो एहने, देवचंद्र सुखकार. प्रभुजी. ॥ बा० ॥ ११ ॥ पूर्णानंदीपणा माटे स्वसत्ता प्रागभाव माटें . सकल गुण अनवछिन्न स्वभाव भोगीपणे हे प्रभुजी, तुम्हें परमात्मा छो. उत्कृष्ट आत्मा छो. वळी समस्त स्वशक्ति गुणपर्याय रूप स्वाधीनपणामाटे परमेश्वर छो. वळी शुद्धोपदेशक, तत्त्वधर्म देशकपणाथी, स्वधर्म राखवारूप भावदयाना दातार छो. एहवा परमात्मा परम पुरुष निरामप, निद्व, निस्संग, निस्सहाय, निर्मल, निःप्रयास, आत्मानंदभोगी श्रीबाहु विहरमान तीर्थंकर प्रते सेवो. तेहनी आज्ञा प्रमाणे प्रवत्र्तों, ध्यावो. ते बाह स्वामी स्वरूप संपदा उपकार संपदा अतिशय संपदा मध्ये तन्मय उपयोगी थावो. ए बाहु स्वामी केवा छे. देव जे च्यार निकायना देवता तेहना चंद्र जे इंद्रादिक तेहने आत्मिक मुखना करणहार छ, अथवा रतुति कर्ता ये देवचंद्र नामे प्रभु गुण रसिक तेहने सुखना करणहार छे, इतले जे निरनुष्ठानपणे श्री वीतराग सेवना करे ते परम अव्याबाध सुख वरे, महानंद पामे. निस्संगानंदी थाये. ए श्री निस्संग श्री 'बाहुस्वामीनी स्तवना भावदयारूप परम करुणारूप कही छे. ११
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श्रीमद देवचंद्रजीना लखेला पत्र.
( १ )
अत्र विवहारथी सुख छे, तुम्हारा भाव सुखसाता समाचार लिखाय तो लिखजो, जीम संतोष उपजे. तथा कोइ कहेस्ये जे व्यवहारथी तो सुख छे, तिवारे निश्वयथी दुःख ठर्यो एहवो शब्द लिख्यो तेहनो स्यो कारण ? तिहां उत्तर कहे छे के सातावेदनी कर्मना उदययी उपन्यो जे सुख ते पर धर्म माटे जाते ए सुख ते दुःखरूप छे. उक्तंच साया साया दुःखवं, तविरहं म्मिय सुहंजओ तेणं, देहिंदिमसुदुःखं सुखं देहिंदियाभावो ॥ इति वचनात् ते कारणे सातावेदनीना उदययी उपन्यो जे सुख ते दुःखरूप छे. शांता ते आत्मानो जे अव्याचाध गुण तेहनो रोधक छे, तथा कोडक आचार्य अव्याचाधने पर्याय पण कहे छे, ते माटे गुणपर्यायनो रोधक ते शातावेदनी कर्म तेहना उदययी उदयावलिकाए आव्या जे पुद्गल ते आत्माने भोग्यपणे थाय छे, पिण निश्चयनये पुद्गलनो भोगववो ते भव्यात्माने युक्त नथी. ते स्यामाटे जे निश्चयनये पुनो आत्मा अभोगी छे. तिवारे कोइ कहेस्ये जे आत्मा तो पुद्गलनो अभोगी छे, तो ए आत्मा पुगलभोगी किम थाय छे, अने पुद्गलनो भोगववो कम करे छे, तिहां कहिये जे आत्माने विषे एक भोग गुण छे, ते इहां भोग स्वगुणपर्याय कहेवो, ते भोग गुण अंतराय कर्मों आवर्यो छे, तेनो नाम भोगांतराय कर्म कहियें, ते भोगांतराय कर्म सर्वथी क्षीणमोहने चरम समये क्षय थाय छे, तिवारे स्वगुण
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म
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१०७४
श्रीमद् देवचंद्रजीना लखेला पत्र.
• ~
पर्यायनो अनंतभोग प्रगटे, तिवार इहां कोइ कहेस्ये जे तेरमा गुणस्थानकवर्ती जीवने भोगांतरायने क्षय थावे करी अनंतो स्वगुणपर्यायनो भोग प्रगट्यो छे, अने आहारादि पुद्गलनो भोग ते जीव किम करे छे, ते युक्ति खरी कही पिण इम छे जे तेरमा गुणस्थानकवर्ती जीव पूर्वे आहार पर्याप्ति बांधतां जेतलां पुद्गलनो ग्रहणपणो बांब्यो छे, तेतला पुद्गल ग्रहे, तिवारे ते आहार पर्याप्ति पुद्गलरूप जे आत्मप्रदेशे संबद्ध छे, ते निजरे तेतलो निरावरण थाय, ते माटे केवली जे आहारादिक पुगलनो ग्रहण भोग करे छे तेम ते निर्जरा; पिण वांछा भोगपणे नथी. तथा सम्यग्दृष्टिनो भोग ते प्रशस्त परिणामनी प्रवर्तनाए करी निर्जरानो हेतु थाय छे, तो केवळीनं शुं कहिवो. ते माटें स्वगुणपर्यायने भोगववारूप जे भोग गुण ते तो भोगांतरायना क्षयथी प्रगटे, अने भोगांतरायनो क्षयापशम तो सर्व जीवने सदा पामीये, तिहां भोग गुणनो स्वभाव ए के जे भोगववो अने स्वगुण पर्यायनो भोग अनंतकाल थयां भूली गयो छ, तिवारे पुद्गलानंदी थये छते आत्मा पुद्गलनो भोग भोगवे छे, ते इहां भव्य जीवे स्वआत्मिक अनंतोभोग गुरु मुखे सांभली, जाणी, श्रद्धा करी ते भोग अनादिनो अवराणो जाणी, ते जीव निरावरण करवाने उद्यमी थाय ते इहां शुद्ध निमित्तनी अवलंबनाए शुद्ध उद्यमे आत्मा प्रवर्ती शके अने शुद्ध उद्यमे तथा शुद्ध निमित्तनी अवलंबनाने विषे थिर परिणाम तो रहें, जो आत्मा पुद्गलभावथी विरमणपणे करे ते जे पुद्गलथी विरमद् ते संवर कहीये, एहवा भाव संवरने विषे रह्यो छतो स्वगुणपर्यायनो अनुभव प्रवर्तना करे ते शुद्ध ज्ञान कही ये. अने ते ज्ञान तो प्रवर्ते जो वीर्यनो सहकार होय ते
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श्रीमद् देवचंद्रजीना लखेला पत्र.
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ज्ञान प्रवर्तनावसरे जे वीर्यनो सहकार ते सकाम पंडित वीर्य कही यें अने ज्ञान स्वपर ज्ञायक होय पिण सदा आत्म प्रदेशावगाही रहे. इणी रीते स्वगुणने विषे थिरता स्वगुणभोग आस्वादननी रमणता ते भावचारित्र कहीये. ए रत्नत्रयी जाणी स्वगुण उपादेय करे, परगुण हेयपणे प्रवर्ते, संसारीभाव ज्ञेयपणे प्रवर्ते. सर्व एकेंद्रियादि जीव प्रथम गुणस्थानकवर्ती होय ते उपरे मध्यस्थ अने कारुण्य भावनाए वर्ते. स्वगुण निरावरण थाते छते प्रमोदभावनायें वर्ते, साधर्मी उपरे सदा मैत्रीभावना राखे स्वपर औदयिक सन्मुख द्रष्टि न दियें, तत्र श्रद्धा शुद्ध जीवने धर्म ध्यान कहवाय तो कहेजोजी, जे जीव शुद्ध प्रवर्त्तनाए प्रवर्त्त्या प्रवर्त्ते छे, प्रवर्त्तशे ते जीव धन्य छे, इम विचारबु पण मादकभाव करवो नही. इणीरीते व्यावहारिक सुख छे. भाव सुख तो परिणामनी धारायें होय इति तत्त्वम् ॥
( २ )
श्री.
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॥ स्वस्ति श्री आदिजिनं प्रणम्य | अहम्मदाबादयी पं० देवचंद्र लिखितं श्रीसूरितबंदरे जिनागमतत्त्वरसिक सुश्राविका जानकीबाई हरषबाई प्रमुख धर्मस्वरूपरुचि आत्मा योग्य धर्मलाभ वांचजो जी । अत्र साता छे । अहिंसाना स्वरूप तो पूर्वे तुम्हने जणाव्या छई अने वली समजवां । मूल अहिंसा अनुबंध होई, ते मध्ये उपयोगीनई भावयी अनें अनउपयोगीनें द्रव्ययी, ते तो जिहां जे गुण स्थानक ते माफक जाणवी. ते मध्ये मुखताई विरतिथी लेवी अनें तेहनां कारण आश्री लिख्युं, वे तो उपादान कारण सर्व ठामे आत्म परिणाम
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marnamaAAAAAAh
१०७६ श्रीमद् देवचंद्रजीना लखेला पत्र. m mmmm. होइं, असाधाण कारण तो अविरति कषाय रागादिक हुई अने निमित्त कारण तो काल स्वभाव निमित्तादिक योग वंचकादि बहुधा हुई, तथा द्रव्यथी तथा भावयी ए कारणनी भिन्नता थाय तेंवारें अनवस्था दोष उपजे, ते मार्टि जीहां अनुपचरितसद्भूत व्यवहारलोप जिहां थाइं ते सर्वभावथी उपादान जाणवू. ए लक्षणमावई साध्यु अने जिहांथी उपचरितसद्भूत व्यवहार ते निमित्त लक्षणसांधीइं। अने जिहां उपचरित असद्भूतव्यवहार ते निमित्त लक्षण साधीइं, तिहां शुद्धअशुद्ध तो जोवा पडई, इम सघले विचारी लिजीई, ए प्रश्ननो उत्तर समुदायमात्र लिख्यो छे, ए गहनार्थ छे, बहुश्रुतपूछवा अने तुम्हें वली लिख्युं जे ३ अहिंसा जे जे गुणस्थानक माफक जिहां होई तिहां हिंसा हुई किंवा न हुइ, ते तो हिंसा हुई पणि ते निरवद्यरूप छे. आयतिकाले निर्जरा निमित्तं ज थाई अने दोषी(ने?) तुं शुभाश्रव रूप होई। ते सावध निवद्य कहीइं छिं ते माटिं हिंसा न कहई सावद्यभाषाई कहीइं अ..पितुं जे दीसई ते प्रसंगमात्र छे, ते माटिं व्यवहारे इंम कहीइं निश्चयथी अहिंसा छे, ते जाणवू, तथा पंडितवीर्य उपादान कारण तेहनो क्षयोपशम ते असाधारणकारण अने शुद्ध व्यवहारनई गुणोपेत योग ते निमित्तकारण ए पणि लक्षण सामान्यमात्रई सघले लेवां, तथा अनुबंध अहिंसा आश्री लिख्यु ते जाणवू, तेहगें तो द्रव्यथी अनुबंध अहिंसा, ग्रंथी भेदई उपशम समकितदृष्टिने भावथी क्षायिक समकितीने ते संवर रूप शुद्ध आत्मिक भावमां-द्रव्यथी हेतु अहिंसा श्री प्रशस्त ठामें निराशंसपणइं हेतु जोडे तिहां भावथी हेतु, अहिंसा अप्रमत्तगुणठाणादिके द्रव्यभाव शब्द ते देश सर्व जाणवा.
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श्रीमद् देवचंद्रजीना लखेला पत्र.
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तथा अनुबंध अहिंसा आश्री तो सामान्यें तो इंमज जे गुणठाणई जिहां जिहां कल्प लगई रहे ते त्रिण्ये अहिंसा तिहां तिहां साधीइं अतिक्रमादिक ३ लगई भजना एकेकनी कहि अनाचारनुं तो कहबुं नहीं इत्यादि घणो विचार छे, तेतो श्रीयशोविजयगणी कृत नयरहस्य ग्रंथमध्यें छे, स्पष्टपणें, सुबुद्विनेनं ते तो वली कोइक समये जगाई ते प्रीछबुं तथा अनंतचतुष्टय आश्री लिख्युं ते तो केवली भगवाननें निरुपाधिक च्यार कर्म घातीइंक्षयें ज्ञान १ दर्शन २ समकित ३ वीर्य ४ ए स्वाभाविक चतुष्टय थयां अनंतपणे शेष च्यार कर्मना क्षययी अक्षयस्थिति - १ अक्षयअनिर्वाच्य अपौगलिक सुख -२ एकत्वावगाहना अरूपी-३ अगुरुलघुपणं द्रव्यसाधें पर्यायनुं अविनाशपणुं - ४ ए चतुष्टय सिद्धने थयां, ते माटिं सिद्ध तथा केवलीने आपापणे गुणें फेर नहीं न्यूनाधिक नहीं इत्यादि, तथा बिंबनें ऊगटणा आश्री लिख्युं ते जाण्युं बिंबनें भक्तिनें आशयें ऊगटणुं करतां दोष नयी, पणि आंष कान नासिकादि अवयवें उपयोगराषी ऊगटणुं करई अने बीजे ठेकाणे जेतली मलीनता जाणई तेतलं ज वेयावच्च करें, इम करतां जो अंशे कांइ घसाई तो पणि शुभाशय मानें दूषण नथी जाण्युं, श्राद्धविधि प्रमुष ग्रंथे पणि प्रतिमानें ऊगटणां नां वेयावच करवां कहां छें, ते माटिं वेयावच करतां दोष नहीं ते जाणवुं. दूहा । संज्ञारक्त वस्त्र बालपूरी धरज्यो आतमधर्मं ।
और धर्म सब भर्म्म हें जासौ बांधइ कर्म ॥ १ ॥ क्षेत्र स्पर्शनाकें उदे तुम्ह अम दर्शन होय । मनोवर्गणा को मिलन, चाहत हैं नित सोय ॥ २ ॥
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श्रीमद् देवचंद्रजीना लखेला पत्र.
तुम्ह जेसे ज्ञायक गुणी समझो श्रुतसंतोष । मिल्यां ज्ञान बिमणौ वधें, लहें ज्ञान भरपोष ॥ ३ ॥ या चित्तसे नित वांचज्यो, श्रीजिनायनमः शुद्ध । स्वामि तुम्ह बलपुरी अह निशि जान विशुद्ध ॥ ४ ॥ इति लिः पादलीप्ततीर्थे रत्नचंद्रेण ।
( ३ )
॥ स्वस्ति श्री आदिजिनं प्रणम्य अहम्मदावादयी पं० देवचंद लिखितं श्री सूरतविंदरे सुश्राविका जिनागमरुचि बाई जानकीबाई हरषबाई प्रमुख स्वरूप धर्मरुचि जीव योग्य धर्मलाभ वांचज्योजी. अत्र साता छें अपरंच तुम्हे यथार्थ ज्ञानी वीतराग सर्वज्ञ सर्वदशीं अरिहंत परमात्मा यै प्रगट कर्यो सिद्वात्माने जे संपूर्ण नीपनो छे, ते सर्व जीवनें असंख्यात प्रदेशें व्याप्य व्यापकपणें अनादि अनंत संबंध रह्यो छे, ते स्वभावधर्मनी रुचिपणें रह्यो जे धर्म ते आत्मानो अन्वय स्वभाव छें, सहज अकृत स्वरूप छे, ते उच्छरंग धर्म छे, जाणवो देषवो ते स्वकार्य छे. तेहनी प्रदत्ति ते रमगादिक छे, ते शुद्ध धर्म जेहनें समरणे प्रगट्यो ते देवतत्त्व ते संपूर्ण धर्मनी इहा ये संपूर्ण धर्मी सिद्ध परमात्मानो बहुमान करखो ते साधन परि
तिनें संपूर्ण थवाना कारणपणा माटे तेहनें धर्म कही यें. मूल वस्तु धर्मे स्वस्वभाव तेहज धर्म ए श्रद्धा करवी. जे बाह्य प्रवृत्ति योगनी आचरणी तेहनें धर्म माने तेहना कह्यामें सिद्ध ते धर्म रहित थायें, ते माटें कारण ते मूल धर्मयी मिन्न छें, यद्यपि उपादान कारण आत्मपरिणति छें पिण साधननी रीत
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श्रीमद् देवचंद्रजीना लखेला पत्र. १०७९ mmmmm
~~~ ~urrr rrror ते सिझमानथी तेतलो मे [द] छै. दशमा गुणठाणाना मुनिने श्री भगवतीसूत्र उस्सत्तं रियति इम कह्यो छे, तो जे स्वरूपरुचि विना सातादि गारव माटें संयम श्रुताभ्यासने संसार हेतु छे, ए आचारांगे धूताध्ययने चोथे उद्देशे कह्यो छे, ते माटें पूरण सिद्धावस्थायें जे छतो पामीये ते धर्म जाणवो. तेहनी रुचि जे आगम प्रमाणे पोताना प्राग्भावी गुण तथा उदीक गुणी अनुयायी करवो ए साधकता छे, ते करतां संपूर्ण धर्म प्रगटें तेहनो उद्यम करखो ए सर्व जीवने हित छे, ए आत्मसत्ता प्रगट करवा माटें परमेश्वर परमपुरुष परमानंदमयी संपूर्ण आत्मसत्ताऽभोगी सहज आत्यंतिक एकांतिक ज्ञानानंदभोगी परस्मानो बहुमान ध्यान करवो. आत्मिक शक्ति कर्ता भोक्तादिक कारक चक्र ते विभावरूप कार्य कर्त्तापणे अशुद्ध संसार क"पणे करतां अनंत पुद्गल-परावर्त वही गयां, ते क्षयोपशमी चेतनादिक इद्ध निरंजन निरामय निद्व निष्पन्न परमात्मगुणानुयायीक, ते स्वरूप प्रगट करवाना कारण थया, ते पछी स्वरूपावलंबी शया एतलें परम सिद्धताना कारण थायें, ते माटे प्रथम प्रशस्तालंबी थई स्वरूपालंबीपणे परणमी स्वरूप निष्पत्ति करवी ए हित जाणवोजी। तथा द्रव्य साधन ते भावसाधन नो कारण, भावसाधन ते संपूर्ण सिद्धनो हेतु छे, ते रीतें श्रद्धा राखवीजी. पौद्गलिक भावनो त्याग ते आत्माने स्वस्वरूप प्रगद करवाने कखो ए निमित्तकारण साधन छे, अने आत्मचेतना आत्मस्वरूपालंबीपणे वरते ते उपादान साधन छे, ते उपादान शक्ति प्रगट थवा माटे सिद्ध बुद्ध अविरुफ निष्पन्न निर्मल अज सहज अविनाशी अप्रयासी ज्ञानानंद पूर्ण क्षायिक सहज पारिणामिक रत्नत्रयीनो पात्र जे
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१०८०
श्रीमद् देवचंद्रजीना लखेला पत्र.
परमात्मा परमैश्वर्य्यमय तेहनी सेवना जे प्रभु बहुमान भासन रमणपर्णे करवा वर्तमानकालें स्वरूप निर्द्धार भासनपिण दुर्लभ छें, तो स्वरूपनो रमण ते तो श्रेणिप्रतिपन्न जीवनें हुवें संपूर्ण स्वरूपानंदी वीतरागनी भक्तिनें अवलंबनें रहवोजी. श्रीआचारांगें लोकसाराध्ययनें आत्मस्वरूपावलंबी जीव ते साधक छें, बीजा साधक नथी, इम कह्यो छे. ते माटे शुद्ध साध्यरुचि अने यथापणे वस्तु परमार्थज्ञानी कर्मक्षय करवानो अर्थों निस्संग आत्मानो परिणमन ते धर्म तेहना प्राग्भावना अर्थी ते साधक जीव परमसिद्धतानें वरें, ए रीते प्रतीत राखवीजी. आज्ञा श्री तीर्थंकर देवनी ते प्रमाण, साधन रसी गुणी बहुमान स्वतत्त्व पूर्णताना रसिकपणे वरतज्यो ए तत्त्व छें जी ।
32*202*€£
समाप्त.
99*99*92
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श्री महावीर जन्म जयंती गीत पारण. १८१
श्री महावीर जन्म जयंती गीत पार[.
माता त्रिशला झुलावे पुत्र पारणे. ए राग. आजे महावीर जन्म्या जगमां आनंद आपवा, कोटि चंद्र सूरजनी झळकी जगमां ज्योत; प्रगट्यो त्रण भुवनमां आनंदमय उद्योत, विरम्या जडवादी पापी पंडित खद्योत. आ० १ जगमां सात्विक आनंदना वाया शुभ वायरा, पाम्या नारकीओ पण मनमांहि आनंद रुडा आनंदना वरस्या बहुला शुभ मेहुला, भारत उल्लस्युं हरखे पाप पलायां मंद.. आ० २ रुडी सर्व दिशाओ आनंद ओघे नीतरे, ठसोठस देव देवीथी भरियुं बहु आकाश; इंद्रो गावे हरखे ने नाचे इंद्राणिओ, चांदा तेजे भासे रुपासम आवास. आ० ३ ग्रहो ने लोकपाल सहु गावे वीरनां गीतडां, विश्वोझारक प्रभुनो जाणीने अहेवाल; प्रभुने मेरुपर न्हवरावे सुरपति भावयी, रुडी भारत घरघर प्रगटी मंगलमाल. ब्राह्मण जाति हरखी ब्राह्मण बीज द्विजत्वथी, हरख्या क्षत्रियो सहु क्षत्री घर अवतार क्षत्रीकुंडनगरमा मंगळ वाजां वागीयां, न्हानां मोटां सहुने आनंदनो नहि पार. आ. ५ 136
आ० ४
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२००२ श्री महावीर जन्म जयंती गीत पारं
प्रेमे आनंदना श्वासो ले भारत गाजीने, शांति आनंदना उश्वासो ले नरनार; हरख्यां त्रिशलामाताने सिद्धारथ राजवी, हरख्या जोषीओ जाणी भारत उद्धार. राजा वैशाली चेटक मनमां आनंदिया, घरघर आनंद उत्सव वर्ते जयजयकार; आखा भारत देशे घरघर पुत्र वधामणां, प्रगट्यो जगद्गुरु प्रभु महावीरनो अवतार आ०
वीश तीर्थकर भावित चोविशमा जिनपति, आजे प्रकट्या जाणी सौने थयो निर्धार; माळे बेसी करतां कल्लोलो सहु पंखीओ, करतां आनंदना नादो तेम पशुओ सार. सवळे प्रसिद्ध यह तेरस महावीरना जन्मयी, जगमां महावीर तेरस घेरेघेर गवाय; सोनुं रत्न अने रुपा हीराना पारणे, कीरने झुलावे त्रिशला माता सुखदाय. त्रिशला बोले. मारी कुखे प्रगट्या वीरजिन, तेथी सतीओमांही थइ प्रथम शिरताज; म्हारी कूखे आव्या धर्मोद्धारक राजवी, राखी भारतजननी धर्मतणी शुभ लाज. प्रभुनी जमणी जांघे लंछन सिंहनुं शोभतं, प्रभुजी सिंहनी पेठे करो पराक्रम बेश; दयाना उपदेशे निर्दयता टाळी विश्वयी, टाळो नरनारी पशु पंखीना सड क्लेश.
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आ० ८
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आ० १०
आ० ११
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श्री महावीर जन्म जयंती गीत परिणं.
१०८३
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वीरान एक हजार ने लक्षण आठे शोमता, तेथी जाण्या चोवीशमा मोटा जिनराज; केशीकुमर मुखथी त्रिशला जाणी गावती, रुडां हालरडानां गीतो गुण शिरताज. आ० १२ जगमां जोर प्रगतुं ज्यारे हिंसा पापर्नु, करतां नरनारीओ त्राहि त्राहि पोकार जगमां जुल्म घणा ने अंधकार अज्ञाननो, त्यारे सार्थभरनो जन्म दाय मिर्धार. आ० १३ भारत आर्य देशमां सोनाथरज उगीयो, आजे जाग्युं भारत सर्व देश गुरुराज साथे जन्म्या राइक गणधर आदि ऋषियो, जन्म्या दैवी पीयो पारवा संघे साज. आ० १४ रुडं भारतनुं टाप फळ्युं जिनेश्वर जन्मथी, करवा सर्व वेदनो साचो अर्थ प्रकाश; जन्म्या जाण्या इंद्रादिना वचने भारते, पाम्या ऋषि तपस्वी योगीयो उल्लास. आ० १५ बंदीखानेथी छोड्या सवळा बंदिजनो, भारत देश नगरमां उत्सव बहुला थाय; नगरमा नाटारंभो ठेर ठेर थाता घणा, अमरापुर समं क्षत्रीकुंड सुख उभराय. आ० १६ प्रभुने जोवा आवे देवदेवी नरनारीओ, जोषी जोगीओ सह जोवा आवे दोडि; वरसे सिद्धारथ घर कंचननी खुब कोडीओ, प्रभुनी जगमा जोतां मळे न बीजी जोड, वीरना वेजथकी कोई करे न जगमां होड़- आ० १७
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१०८४
श्री महावीर जन्म जयंती गीत पारणं.
प्रभुजी तीर्थ स्थापशे समवसरणमां बेशीने, करशे केवलज्ञाने सत्य धर्म उपदेश; गणधर द्वादशांगी गुंथीने धर्म वधारशे, जेथी व्ळशे आणि व्याविना सह क्लेश. महावीर भारत घर घर ज्ञानामि प्रगटावशे, करशे दुर्गुणोनो बोधथकी संहारः सर्वे आर्यो एक स्वरूपी थइने चालशे, राजा रंक सकलने सरखा हरु निर्धार. सर्वे आर्यो दुःख बंधनने छेदी नाखशे, ऊंचा नीचानो रहेशे नहीं मन अहंकार; सहुनो न्याय यशे समभावपणे जग सारीखो, टळशे हिंसायज्ञो तथा मनुज संहार. थाशे प्रजासंवनां राज्य अने सुनीतिओ, रक्तयी खरडाशे नहीं सर्व प्रजानो संघ, राजा रैयत सर्वे आत्मरूपथी एक थइ, करशे अरसपरस साहाय्य धरी मनरंग. प्रभुजी आत्मज्ञानयी ब्राह्मण मुख्य कहावशे, क्षत्री बनीने करशे सर्व कर्म संहारः जगत्मां धर्मशूरानो क्षत्रपणाथी जगावशे, अंतर वैश्य बनीने करशे गुण व्यापार. केवलज्ञानी बनीने सेवा सहनी सारशे, गामोगाम करीने पादथकी विहार; सेवाधर्मतणो फेलावो करशे विश्वमां, चतुर्विध संघ बनावी करशे जग उद्धार.
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आ० १८
आ० १९
आ० २०
आ० २१
आ० २२
आ० २३
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श्री महावीर जन्म जयंती गीत पारj. १०८५ साची भक्ति साचां को ज्ञाने जणावशे, विचारो आचारोमा थाशे बहु उदार; दयानो फेलावो करशे भारतमां भावथी, घरोघर पंखीओ माळा करशे निर्धार. आ० २४ जीती रागद्वेषने दुनिया करशे निर्मली, आर्यों जैनो जिनने अनुसरशे दिनरात; ब्राह्मण आत्मज्ञानीओ बनीने विश्व जगावशे, नवलं रुडं प्रगट्युं भारतनुं परभात. आ० २५ चारे वर्णो रुढिबंधन खोटां त्यागशे, घरोघर आत्मज्ञाननां प्रगटाशे बहुसूत्र; साचा व्यवहारो वर्त्ताशे साची नीतियी, ज्ञानीपो योगी थाशे भारत माता पुत्र. आ० २६ घरोघर ब्रह्मभावना यज्ञो शुभ प्रगटावशे, जिनजी चोवीशमो महावीरतणो अवतार भाखे भविष्य केशी इंद्रो ने बहु ऋषियो, एवं मुणीने हरख्यां भारतनां नरनार. आ० २७ जयंती वीर प्रभुनी उझवे सुर नर नारीयो, वों त्रण भुवनमां जन मनमां आनंदा प्रगट्यो सात्विक आनंद माय न लोकालोकमां, नाठा मोहरायना सबळा सपळा फंद. आ० २८ चैतर तेरस महावीर जन्म जयंती उझवी, सुरपति इंद्राणीओ नंदीश्वरमां जाय; मांडे अठाई महोत्सव त्यां भावे भावना, त्यांयी देवलोकमां पहोंचीने हरखाय. आ० २९
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१०८६
श्री महावीर जन्म जयंती गीत पारj.
आ० ३०
क्षत्रीकुंड नगरमां दश दिन उत्सव मांडियो, प्रभुनां मंदिरोमां पूजाओ बहु थाय; जमणो जमतां सर्वे जाति नर ने नारीओ, देवां देशतणां नहिं रहेतां मांहोमांह्य. आजे वीर प्रभुनी जन्म जयंती उझवी, सफळो जन्म थयो ने फळी हृदयनी आश; भारत ब्रह्मज्ञानथी गुरु बनी सहु देशनो, देशे स्वतंत्रता ने आत्मिक ज्ञान प्रकाश. गायकवाडी राज्ये नगर पादरा शोभतुं, जयंती वीर प्रभुनी कीधी हर्षोल्लास; संवत् ओगणिश पंचोत्तरनी रुडी सालमां, गावे बुद्धिसागरसूरि ज्ञान प्रकाश.
आ० ३१
आ० ३२
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श्री महावीर प्रभुनुं पारणं.
१०८७
श्री महावीर प्रभुनु पारj.
श्रीशला मातानुं गान. श्री महावीर प्रभुनु हालरडं.
व्हालो व्हालो हृदयनो प्राण. महावीर बालुडो; मारं सर्व मनोरथ स्थान्द, महावीर बालुडो, आंखडी अणीयाळी अमूली, जोतां तृप्ति न थाती रे नाच नचावे आंख इसारे, निर्मल नेहे सोहाती. म० ब्रह्मतेज आंखे ऊभरातुं, प्रियजनो झट परखेरे,
आंख उलाळे विश्व उलाळे, सहु हरखावी हरखे. म० १ कारमा नयणां लोकोत्तर इयां, कालजडांने कोरे रे नाजुक नानुं नाक मजार्नु, उभरे आनन्द छोळे. म० २ दाडमकळी सम दांतनी पंक्ति, हंस पंक्ति झट जीते रे उपमालायक कोइ न जगमां, अनुभव रीत प्रतीते. म० ३ हसतां पुष्प खरे ज्यम मोति, हास्य मधुरुं सुहातुं रे सर्व ब्रह्मांडोनी सहु लीला, करतुं दील जणातुं. म० ४ कालजडं हरे कालं बोली, करे तन्मय मन ठारी रे, अद्वैत ब्रह्मना मेळे झबोळे, प्रेमोदधि अवतारी. म. ५ रक्त कमल अळताना जेवां, पुनित पगलां भरतोरे, डगुमगु चाली विश्व डोलावे, छासीए बाझी पडतो. म० ६ उछळी आनंदओघ उछाळे, खोळे पठी शुभ खेले रे अंगुठो मुखमांही चावी, रमतो नव नव गेले. म० ७
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१.८८
श्री महावीर प्रभुनुं पारj.
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बाळप्रभु पारणीए पोढे, हालरडे हुलरा, रे, प्रभुनां लक्षण पारणीयामां, दीठां ते शुं ? जणावू. म०८ हालो हालो करतां हलावे, ऋण भुबनने प्रेमे रे; अकल अलख लीलामां लचपञ्च, रहेतो जीवन क्षेमे. म० ९ अनुभव रम्मत गम्मत करतो, विश्व जीवाडी एजीवे रे, त्रण भुवन अंधारूं नाडं, पुत्र पनोता दीवे. म० १० व्हाल करीने छाती सरसो, चांपी आनंद पा, रे बाहिर अंतर बाल प्रभुना, रूपे जग सहु नामुं म० ११ पग झांझरीए जग चमकादे, आंखथकी आकर्षे रे आनंद तेजे देह भरेली, प्रेम तेजे बहु वर्षे. म० १२ मूमि पडीने सासु जोतो, आंख मीची कंइ हसतो रे पासे आवी खोळामांयी, कळा करीने खसतो. म० १३ खीले खीलावे झूले झूलावे, हसे हसावे रमावे रे; ब्रह्मरूप तन्मयता माटे, लाड करे ने लडावे. म० १४ सखीओ आवो बाल प्रभुने, हेत करीने रमाडो रे जगजीवन जगनाथ जीवन मुज, देखोने दिल व्हालो.० १५ नव नव चेतन गुणे खीले, अनुभव रसने झीले रे जीवनशक्ति अमीरस दीले, तेज समप्र्यं रसीले. म० १६ अंगोअंगे रोमोरोमे, आनन्द हेली विलसे रे, कामणगारी काया उज्वल, देखतां दिल उलसे. म. १७ प्रभु बाल मुज खोळे हुलावू, तन्मय थइ झट जावुरे, अस्ख पर शरमन जोति शाळनो व्हाल बरीने बनाई, म.१८
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श्री महावीर प्रमुनु पारणं. १०८९ नाचे राचे चावे प्रेमे, भींची आंख उवाडे रे; जोइ रहे मुज सामं धातां, अद्वैत ब्रह्म जगाडे. म. १९ व्हाल करीने अंगे वळगे, जंपे नहीं क्षणवारे रे; विश्वासीमां सहथी साचो; शुद्ध सरलता धारे. म० २० कुद्रती शोभा सौथी सारी, रवि शशी वारी जाउं रे; चालक राजा आनंद ताजा, गुण केटला हुँ गाउं. म० २१ आत्मप्रतिबिंध निर्मल न्हानं, मलके मुखथी मझानु रे; दिलथी दिल परखावे नयने, मौन रही कहे छान. म० २२ तृप्ति न पाम लाड लडावे, प्रभ खेले मुज खोळे रे; जन्म सफल थयो पुण्योदयथी, आवे न को मुज तोले. म० २३ अलंकारथी अंग ओपावू, अमलां सरस पेहेराव रे; दिल आंगणीए चालुडाने, लय लावी पधरावं. म० २४ चालुहाना लाडना ल्हावे, हरखी धातो पाते रे; पूर्या पृण मनोरथ प्रभुए, जाय जीवन हरखाते. म० २५ कल्पवृक्ष वीज चंद्रनी पेठे, वधतो हर्ष वधारे रे, वरीने पण व्हालो लागे, घेली बनी अवतारे. म० २६ बालडा प्रभ आगळ गाती, गरबो नव नव गाने रे प्रभमय गानो तानो जणानां, मने समजावे साने. म० २७ चालुद्दामा सर्व भयु छे, बाकी रह्यं नहीं कांइ रे सर्व मनोरथ फळीया मारा, रही कल्पवृक्षनी छांही. म० २८ जीवनमा अमीरस रेडायो, पत्नी जीवन शुभ सिध्युरे; कोटि वर्षतक नंदन जीवो, प्रभु चंबी अमृत पी. म० २९
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१०९०
श्री महावीर प्रभुतुं पारणं.
रत्न कुक्षीने जननी शिरोमणि, त्रिशला मात गणाणी रे; त्रण भुवनमां थइ हुं चावी, विश्ववत्सल ब्रह्माणी. म० ३० अंबादेवी शक्ति पुराणी, नाम अनेके गवाइ रे; दुनिया शांति श्वास ग्रहंतो, घरघर करती वधाइः म० ३१ बाल प्रभुमा देव देवीओ, प्रियपणु सहु जोती रे बुद्धिसागर वारि जाउं, प्रभुने वधावू मोती. म० ३२
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