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द्रव्यप्रकाश
मौन रहे ग्रहे जोग जुगतिसहि बंधबंधनहे खरसे; आसन मंडि आशा सब छंडि पवनके साधकहै हरसे, इति करतुति करे विनु ज्ञान जे मूढमिथ्यातमति नरसे. ॥ ८९ ॥
॥ मिथ्यामति कथन ।।
॥ दोहा ॥ मिथ्या मति अपराधीनी, परगुन चाहे आप; ज्यु ज्युं परसंपति वढे, त्युं त्युं होय संताप. ।। ९० ॥ ॥ परवस्तु हेय आत्मा उपादेय ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ वचन जुगति चित्त तनदुति मनथिति हित अनहित रति अरतिकी रति है, अंतेउर पुरचर असन वसन वनवस्तु गन अनजहा नयनकी गतिहे; पुण्य पाप आदि देय गेय चेय हेय सब संयोग वियोग थिति जामे नित्य प्रतिहै, अक्षर त्रिगुन साथ देवचंद गुननाथ उपादेयरूप एक आतमा अमितहै।।९१
॥ पुण्य पाप हेय कथन ॥
॥ सबैया इकतीसा ॥ पुण्य पाप पुद्गल मलहे अखिल दल खलगुलढल मान व्यक्ति भेद धरेहे, याते पुन्य पाप रोध कीने निज बोध सोधि व्याधकी समाधि राग रोष (दो ) जरेहे; इंधन अभाव जेसे अगनि उद्योत नांहि बीजके अभाव जेसे वृक्षवृद्धि टरेहे, तेसे भाव कर्म नास ज्ञानचेतना प्रकाश परम अनंतपद देवचंद वरेहे. ॥ ९२ ।।
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