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दे० चो० बा.
अनंती शक्ति छे, ते सकर्मा जीवनी सर्व शक्ति दबाणी छे, अने तमें साध्य साधक भाव करीने सर्व कर्मपडलने दलवे करीने सर्व शक्ति प्रगट करी छे अने ते सर्व शक्तिनी भिन्न भिन्न प्रवृत्ति छे, ते सर्व शक्तिने प्रयुंजता छो एटले सर्व कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञायकत्व, पारिणामिकत्व, ग्राहकत्व, आधारत्वादि शक्ति प्रवर्ते छे, पण कोई शक्ति अण प्रवर्ती रहेती नथी, तथापि न प्रयोगी कहेतां शक्ति प्रवर्तावतां कोई जातिनो प्रयोग कहेतां प्रयास उद्यम विकल्प करखो पडतो नथी, एटले सर्व शक्ति सहेजें प्रवः छे ॥४॥ इति चतुर्थगाथार्थः ।।
वस्तु निज परिणतें सर्व परिणामिको, एटले कोई प्रभुता न पामे ॥ करे जाणे रमे अनुभवे ते प्रभु, तत्त्वसामित्व शुचि तत्व धामें ॥ अ० ॥५॥
अर्थः--हवे १ नित्य, २ अनित्य, ३ एक, ४ अनेक, ५ अस्ति, ६ नास्ति, ७ भेद, ८ अभेद. इत्यादिक, अनंतधर्म प्रभुमा छे ते माटे परमेश्वरपणुं छे तेनी ऊलखाण करवाने कहे छे. जे नित्यानित्यादिक धर्म तो सर्व द्रव्यमां छे. एटले वस्तु केतां जीवादि पदार्थ ते निज परिणति ये केतां पोतानी स्याद्वाद परिणति ये सर्व केतां समस्त द्रव्य परिणामिकी केतां परिणामी छे. एटले नित्यानित्यादिक धर्मपणे सर्व द्रव्य परिणामी छे, पण तेथी कोइ परमेश्वरपणुं न पामे, सर्व द्रव्य साधारणधर्मी माटे एमां शी अधिकाइ ? एटले केतां
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