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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पंचम श्रीसुमतिजिन स्तवनं. ५९१ कहेतां पोतानुं स्वरूप तेणें दिव्यति कहेतां रमणशील ते देव कहियें, परमात्मता कहेतां पोतानो आत्मा ज्ञानावर्णादिकर्मथी रहित छे, माटे परमात्मापणं संपूर्ण भोगवो छो, परमात्मनिष्पन्न जे आत्मा, ते भाव पाम्या छो, वली सहज कहेतां स्वभावना अकृत्रिम एवा निज कहेतां पोताना भाव ते ज्ञानादिक अनंतधर्म तेहना भोगी केहेतां भोग आस्वादनवंत छो, वली कहेवा छो ? के अयोगी कहेतां मन वचन कायारूप योग तेथी रहित छो, अने क्षयोपशमी वीर्य, तेहने चलनपणे वर्त्ते, ते योग कहियें, तिहां भाषवर्गणा, शरीरवर्गणा, तथा मनोवर्गणा, ते जिहां अवष्टंभहेतु छे, ते द्रव्ययोग कहियें, अने जे अवष्टंभ ग्राहक वीर्यपरिणाम ते पहेलो परिणमन, बीजो अवलंबन, बीजो ग्रहणरूप, ए ऋण शक्तिने भावयोग कहि यें, एहवुं जे योगपरिणमन, तेथी रहित हो, कारण के योग जे छे ते आश्रव छे, अने सिद्ध आत्मा तो संपूर्ण संवरमयी छे, वली प्रभुजी तमें केहेवा हो ? जे ख कहेतां पोतानं आत्मतत्त्व तेहना उपयोगी कहेनां जाण तथा पर आत्मा ते बीजा अनंता जीव तथा सर्व पुद्गल, तथा धर्म, अधर्म, आकाश अने काल, ते सर्वना जाण छो एटले स्व तथा पर ए बेना जाण पण तादात्म्य कहेतां तन्मयपणे रह्यो जे पोतानो सत्ताधर्म, तेहना रसी कहेतां रसीया हो, आस्वादी हो, एटले जाणंग स्व पर बेना छो, पण भोगी एक आत्मधर्मनाज छो, इहां कोइ कहेशे जे जागंग के तो भोगी बेना केम नथी ? तेने ह धर्म नयी, माटे आत्मा परभावनो भोगा नयी स्वभोगीज छे, परक्षेत्र रह्यो जे धर्म, ते भोगवाय नहीं, स्वक्षेत्री धर्म भोगवाय. वली प्रभु तमारी બ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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