SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५९० दे० चो० बा० ए कार्यभेदें ऋण धर्म पामीयें छैयें, परंतु केवारें भिन्न थाता नथी, तिम जीवना अनंतगुण भिन्न भिन्न कार्य करे छे, परंतु वस्तुधर्मे भिन्न नथी. कार्य तो सर्व भेदें कहेतां भिन्नपणे करे छे, पण अभेदी कहेतां भेदरहित छे. वली प्रतिसमय कर्तृतापणे छे, एटले पंचास्तिकायमध्ये चार अस्तिकाय ते अकर्त्ता छे, अने एक जीवास्तिकाय स्वतंत्रकर्त्ता छे, ते स्वाधीनपणे कारणावलंबी थइ कार्यने निपजावे, ते कर्त्ता, तथा जेम परकार्य घट, तेनो कर्त्ता कुंभकार तेम ज्ञानादि कार्यनो कर्त्ता जीव छे, माटे कर्तृतापणे परिणमे छे. पण कांइ नव्यपणे नथी रमतो, एटले जे प्रतिसमये पर्यायने करे, पण कांइ नवो नथी करतो, अस्तिधर्म छे, तेमज रहे छे, वली सकल कहेतां सर्व द्रव्य छ तेहना गुणपर्याय स्वभाव, तेना उत्पादरूप, व्ययरूप, ध्रुवरूप, अतीत अनागत वर्त्तमानकाल सर्व त्रणे कालना वेत्ता कतेतां जाण छो, ए सर्वने जाणो छो, पण अवेदी कहेतां पुरुष, स्त्री, नपुंसक रूप वेद रहित छो, माटे वेत्ता थका पण वचनवर्मे अवेदी छो, ए अचरिज जाणं || ३ || इति तृतीय गाथार्थः ॥ शुद्धता बुद्धता देवपरमात्मता, सहज निज भावभोगी अयोगी ॥ स्वपर उपयोगी तादात्म्यसत्ता रसी, शक्ति प्रयुंजतो न प्रयोगी ॥ अ० ॥ ४ ॥ अर्थः-- वली शुद्धता ते सकलपुद्गलरूप संकरता रहित, बुद्धता कहेतां केवल ज्ञानदर्शनरूप संपूर्णबोवरूप छो, देव ४४ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy