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पंचदश श्री धर्मनाथजिन स्तवनं. नित्य निरवयव वली एक अक्रियपणे, सर्वगत तेह सामान्यभावे भणे ॥ तेहथी इतर सावयवविशेषता, व्यक्तिभेदे पडे जेहनी भेदता ॥२॥
अर्थः-हवे सामान्य विना वस्तुनी छती आधारसा नहीं, अने विशेषविना कार्य नहीं, पर्यायप्रवृत्ति नहीं, ते माटे पंचास्तिकाय ते सामान्यस्वभाव अने विशेषस्वभावमयी छे, तिहां सामान्य स्वभावनुं लक्षण कहे छे. जे नित्य अविनाशी तथा नित्य होय, पण आकाशनी परें निरवयव होय, ते माटे कयो जे निरवयव जेहने विभाग अंश नथी, ते पण एकज पण जेमां बेपणो नहीं स्वजातिमां द्विधाभाव नहीं ते एक, पण जाणवारूप अथवा परस्पररूप क्रिया करे नहीं, तेथी अक्रिय, ते पण कोइपर्यायमां व्यापे, कोई पर्यायमां न व्यापे, तेहवा नहीं पण सर्व पर्यायमां व्यापेज ए लक्षण जेहमां छे, तेहने सर्वज्ञ देवें सामान्यस्वभाव कह्यो छे. ए सामान्यलक्षण श्रीविशेषावश्यकें कडं छे. एगं निच्चं निरवयव, मक्कियं सबग्गं च सामन्नं ॥ ए गाथाना व्याख्यानयी जाणवो. तिहां भावना जे नित्यपणुं सामान्य धर्म छे ते पदार्थमां नित्यपणुं सदा छे, ते नित्यपणाने पर्यायप्रदेशरूप अवयव नयी, ते नित्यपणुं सर्व एकज छे, अने जाणवादिक कोई क्रिया करतो नथी, तेथी अक्रिय छे, ते नित्यपणुं प्रदेशमां, गुणमां, पर्यायमां, सर्वमां व्यापक छे, तेथी सर्वगत छे, एटला लक्षणने पहोंचे, ते माटे नित्यपणुं ते सामान्य छे, एम अनित्यत्वादिक पण सर्व सा
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