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द्रव्यप्रकाश
४९१
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॥ द्रव्यचतुष्टयसरूप ॥
॥ सवैया इकतीसा ।। धरम अधरम द्रव्य नभ काल च्यारो द्रव्य अरूपी अखंड जड भाव लीये वरते, तामे तिन अस्तिकाय काल विनु जिन कहे गहे गनधार तीन पद अनुसरतैः च्यारो निज गुणवान लछन निधान नित निज निज काज साजे मिले कौन परते, च्यारो सौ वियुक्त नित अधिपितन भवत जीव तत्त सिद्ध होय समुद्र तरते ।। ४० ॥
॥ कालद्रव्य विनुं तीन द्रव्यभाव ॥
॥सवैया इकतीसा ।। धरम अधरम नभ तीनोको इकेक खंध अकिरीय निरंतर जैनमें वखाने है, धरम अधर्म दोनुं असंख्य प्रदेशवंत लोक असमान मान अचल कहाने हे, नभ अंस है अनंत लोकालोक मानवंत गुण परजायमंत अकृत पिछाने है, एते उनसम तोमी ज्ञान वितुं ध्येय नाहि ध्येय एक जीव जो तो लोकालोक जानेहे ॥ ४१ ॥
॥अथ द्रव्यलक्षण ।
॥ दोहा॥ जोतो पुद्गल जीवको, चलन सहाई होय; आप अचल अक्रियनित्त, धर्म द्रव्य है सोय. ॥४२॥
॥ अथ शिष्य प्रश्न ॥
॥ दोहा।। शिष्य कहे सद्गुरु सुनो, यह हम मनमें भर्म जगमै पुद्गल जीवको, कैसे प्रेरे धर्मः ॥ ४३ ॥
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