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अष्टम श्री दत्तप्रभु स्तवन.
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थिर उपयोग साधन मुखे हो, पिचकारीकी धार ॥ ल०॥ उपशम रस भरी छांटतां हो, गई तताई अपार ॥ ल०॥जि०॥९॥ गुण पर्याय विचारता हो, शक्ति व्यक्ति अनुभूति ॥ल०॥ द्रव्यास्तिक अवलंवतां हो, ध्यान एकत्त्व प्रसूति॥ललना०॥जि०॥१०॥ राग प्रशस्त प्रभावनाहो, निमित्त करण उपभेद ॥ ल०॥ निरविकल्प सुसमाधिमें हो, भये हे त्रिगुण अभेद ॥ ल०॥ जि०॥११॥ ईम श्रीदत्त प्रभु गुणे हो, फाग रमे मतिमंत ॥ ल०॥ पर परिणति रज धोयके हो, निरमल सिद्धि वसंत ॥ ल०॥ जि० ॥१२॥ कारणथे कारज सधे हो, एह अनादिकी चाल ॥ ल०॥ देवचंद्र पद पाईथे हो, करत निज भाव संभाल ल०॥जि०॥१३॥ 104
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