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श्री महो० देव० कृत अतित जिन चोविशी.
गुण वहुमान गुलालसो हो, लाल भए भवि जीव ॥ ल०
राग प्रशस्तकी धूममें हो,
विभाव विडारे अतीव ॥ ल० ॥ जिन० ॥४॥ जिन गुण खेल में खेलते हो, प्रगट्यो जिन गुण खेल ॥ ल० ॥
आतम घर आतम रमे हो,
समता सुमति के मेल ॥ ८० ॥ जि० ॥५॥ तत्त्व प्रतित प्याले भरे हो,
जिन वाणी रसपान ॥ ८० ॥
निर्मल भक्ति लाली जगी हो, रिझे एकत्वता तान || ल० ॥ जिन० ॥६॥ भव वैराग अविरशुं हो,
चरण रमण सुमहंत ॥ ल० ॥ समिति गुपति वनिता रमे हो, खेले हो शुद्ध वसंत ॥ ल० ॥ जि० ॥७॥ चाचर गुण रसीया लिये हो, निज साधक परिणाम | ल० ॥
कर्म प्रकृति अरति गई हो, उलसीत अम्रित उद्दाम || ल० ॥ जि० ॥८॥
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