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षोडश श्री शांतिजिन स्तवनं. ६९९
.------- परमात्मपदरूप निज केतां पोतानुं सिद्धि केतां निष्पन्नसुख, अव्याबाधादिक तेने पाइये केतां पामियें, एहीज मोक्षनो उपाय छे, तेमाटे श्रीअरिहंतनु सेवन निरनुष्ठानपणे करवू ॥१०॥ ॥ इति श्री धर्मजिन स्तवनं संपूर्णम् ॥
॥अथ पोडश श्री शांतिजिन स्तवनं ॥ ॥ आंखडीये में आज सेजो दीठो रे ॥ए देशी॥
जगतदिवाकर जगतकृपानिधि, वाहाला मारा समवसरणमां बेठारे ॥ चउमुख चउविह धर्म प्रकाशे, ते में नयणे दीठा रे ॥ भविक जन हरखो रे ॥ निरखी शांति जिणंद ॥ भ०॥ उपशम रसनो कंद ॥ नहीं इण सरखो रे ॥ ए आंकणी ॥१॥
अर्थः--हवे सोलमा जिन श्रीशांतिनाथ प्रभुनी स्तवना कहे छे. ते प्रभु केहवा छे ? जगत्ने विषे दिवाकर केतां सूर्यनी परें ज्ञानेकरी उद्योतना करनार तथा कृपाना निधि एहवा प्रभुते मुझने परमवल्लभ छे. समवसरणमां बिराजमान थका चार मुखे करी चार प्रकारना धर्मने प्रकाशे केतां उपदेश करता थका, एवा तीर्थकर देव श्रीशांतिनाथ प्रभु ते में
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