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दे० चो० बा०
नयणे केतां आगम श्रवण रूप चक्षुए दीठा, माटे हे भविक जीवो ! तुमें जिणंद केतां सामान्यकेवलीमां इंद्रसमान एहवा श्रीशांतिप्रभुने निरखीने हरखवंत थाओ. उपशम जे परमक्षमा तद्रूप जे रस तेनु ए कंद छे, एना तुल्य बीजो कोइ नयी, ए प्रभु परम शांतरसमयी छे. ॥ इति प्रथम गाथार्थः ॥१॥
प्रातिहार्य अतिशय शोभा ॥ वा० ॥ ते तो कहिय न जावे रे ॥ घूकबालकथी रविकरभरखें, वर्णन केणी परे थावे रे ॥ भ० ॥२॥
अर्थः--वली प्रभुनी जे आठ प्रातिहार्यनी तथा चोत्रीश अतिशयनी शोभा ते मुज सरिखा व्यामोहि जीवथी कहीं जाय नहीं. दृष्टांत-जेम चूकबालकथी केतां वडना बालकथी रविकर केतां सूर्यना किरणोनो भर केतां समूह तेहनुं वर्णन केवी रीतें थाय ? अर्थात् नहींज थाय, तेम मुज सरखाथी पण प्रातिहार्यादिकनी शोभा कही जाये नहीं. इति ॥२॥
वाणी गुण पांत्रीश अनोपम ॥ वा०॥ अविसंवाद सरूपे रे ॥ भवदुःखवारण शिवसुखकारण, सुधो धर्म प्ररूपे रे ॥ भ० ॥ ३ ॥
अर्थः-वली प्रभुनी जे वाणी तेहने विषे उपमा रहित पांत्रीश गुण रह्या छे, ते वाणी विसंवादपणाथी रहित अविसंवाद
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