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द्रव्यप्रकाश
तांपे प्रीति टारीकें, अखंड अनंत ज्ञानवंत निज आतमामें चित्त थीर आंनी जीव औरकुं विसारिके; ज्ञान जोर कर्मकोरी, भोरी माया डोरी तोरी मोरीकें मनोरी निज ज्ञानकु पसारिके, भानिको विकार आनी पायो निरखान थान जाको महिमान असमान सम धारिके ।। १११ ।।
॥ आतमासिद्धसम कथन ॥ ॥ दोहा ॥
अष्ट कर्म वन दाहिके, भये सिद्ध जिनचंद; ता सम जो आपा लखे, ताको वंदे चंद ।। ११२ ।।
|| मोक्षपरंपरा कथन ॥ ॥ सवैया इकतीसा ॥
प्रथम ग्रंथि भेदीकरी उपसम भाव धरि क्षायक अंकुर भयो मिथ्या डर गयो हैं, उनेकी ने है कषाय ज्ञान गुन दोनु पाय बढ्यो गुनथान ध्यान श्रेणिथान आयो है; सूक्ष्मसंपरायचीन छीन मोह लयलीन छीन कीन कर्मतीन केवलको पायो हैं, ज्ञानादि त्रिगुन राय देवचंद पद पाय ध्यान ध्याता ध्येयभेद मूरते गवायो हैं. ॥ ११३ ॥
|| पुनः मोक्षपरंपरा कथन ॥ ॥ सवैया इकतीसा ||
सूक्ष्मक्रिय छिन्नक्रिय ध्यानक्रिय ज्ञान पीय लिय निखान पद आपनीजो आधि है, अष्ट कष्ट नष्टभये इष्ट अष्ट गुन गहे वहे महानंदको अनादिको जे साथ है; जामे लोकरीति नाहि हार जीति भीति नाहि मीत प्रीत नीत नांहि ज्ञानको समाध
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