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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अध्यात्मगीता. आत्मगुण रक्षणा तेह धर्म । स्वगुण विध्वंसणा ते अधर्म ॥ भाव अध्यात्म अनुगत प्रवृत्ति । तेहथी होय संसार छित्ति ॥ १७ ॥ For Private And Personal Use Only ४५१ अर्थः-- आत्मगुण के० पोताना आत्माना गुण जे ज्ञानादिक तेहने शुद्ध उपयोगने विषे प्रवर्त्तिने राखवा तेहिज आत्मिक धर्म छे, स्वगुण विध्वंस के० पोताना आत्माना गुण जे ज्ञानादिक हणाय अवराय अशुद्ध उपयोगे परभाव अनुयायी प्रवर्त्ततां तेहिज अधर्म कहीए. हवे अध्यात्मना च्यार प्रकार कहे छे, नाम अध्यात्म १ स्थापना अध्यात्म २ द्रव्य अध्यात्म तेने कहिये जेहयी भाव अध्यात्म उपजे, सद्गुरु जे अध्यात्मना जाण तेहनी सेवा भक्ति विनयादिक करीने अध्यात्मना स्वरूपनी गुरुगमथी ओलखाण करे, अथवा अध्यात्म शास्त्रानो अभ्यास करे, तथा ध्याननुं स्वरूप गुरुगमयी धारीने प्रथम अभ्यास व्यवहारथी करवा मांडे इत्यादिक द्रव्य अध्यात्म ते भाव अध्यात्म प्रगट करवानुं कारण छे. ए द्रव्य अध्यात्म जाणवुं ३ हवे भाव अध्यात्म कहे छे एहवो आत्मा कुण ओलखे छे आध्यात्म ज्ञान थयुं होय ते ओलखे जे भाव अध्यात्म ते मोक्षनुं कारण छे, भाव अध्यात्म तेहने कहीये ज्ञानादिक शुद्ध उपयोगने अनुयायी सन्मुख प्रवर्त्तिं ते भाव अध्यात्म कहिये एहवो आत्मानो गुण थयो तिवारे जीवने श्यो गुण निपजे ? जे संसार समुद्रनो उछेद करे एटले संसार घटाडे तेथी थोडा काळमांहे सिद्धिवरे ॥ १७ ॥
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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