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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदेवचंद्रजीकृत विंशति विरहमानजिन स्तवनं. ८०१ तुमचा हो पूर्ण पवित्रता ॥ ३ ॥ पूर्णानंद स्वरूप, भोगी अयोगी हो उपयोगी सदा || शक्ति सकल स्वाधीन, वरते प्रभुनी हो जे न चले कवा ॥ ४ ॥ दास विभाव अनंत नासे प्रभुजी हो तुझ अवलंबनें ॥ ज्ञानानंद महंत, तुझ सेवायी हो सेवकने बने ॥ ५ ॥ धन्य धन्य ते जीव. प्रभुपद बंदी हो जे देशन सुणे || ज्ञानक्रिया करे शुद्ध, अनुभव योगें हो निज साधकपणे || ६ || वारंवार जिनराज, तुझ पद सेवा हो होजो निर्मली ॥ तुझ शासन अनुजाइ, वासन भासन हो तत्त्वरमण बली ॥ ७ ॥ शुद्धतमनिज धर्म, रुचि अनुभवयी हो साधन सत्यता ॥ देवचंद्र जिनचंद्र भक्ति पायें हो होशे व्यक्तता ॥ ८ ॥ इति पंचदश श्री ईश्वरनामाजिन स्तवनं ।। १५ ।। ॥ अथ षोडश श्री नमिप्रभजिन स्तवनम् ॥ ॥ अरज अरज सुणोने रूडा राजीया होजी ॥ ए देशी ॥ नसिप्रभ नमिप्रभप्रभुजी वीनवुं हो जी, पामीवर प्रस्ताव ॥ जाणो छो जाणो छो विण विनवे हो जी, तोपण दासवभाव ॥ १ ॥ न० ।। हुं करता हूं करता पर भावनो हो जी, भोक्ता पुलरूप || ग्राहक ग्राहक व्यापक एहनो हो जी, राच्यो जड भव भूप || २ || न० ॥ आतम आतम धर्मं विसारीयो हो जी, सेव्यो मिथ्यामाग || आश्रव आश्रव बंधपणं कर्यु हो जी, संवरनिज्र्जर त्याग ॥ ३ ॥ २० ॥ जडचल जडचल कर्म जे देहने हो जी, जाण्यं आतम बहिरात बहिरातमता में ग्रही हो जी, चतुरंगें एकत्व ||४|| न० || केवल केवल ज्ञानमहोदधि हो जी. केवल दंसण तत्त्व ॥ 101 For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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