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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीदेवचंद्रजीकृत विशति विरहमानजिन स्तवन: a n .. . Niruvaneer .. . . .. .... .... ...... . ~-uwwwwwwmnnina हो, के करताभाव नहीं ।। सर्व प्रदेशे हो, के वृत्ति विभन्न कही ॥ चेतन द्रव्यने हो, के सकल प्रदेश मिले ॥ गुणवतना वर्ते हो, के वस्तुने सहज बलें ॥ ३ ॥ शंकर सहकारी हो, के सहजें गुण वरते ।। द्रव्यादिक परिणति हो, के भवें अनुसरते ॥ दानादिक लब्धि हो, के न हुवे सहाय विना । सहकार अकंपे हो, के गुणनी वृत्ति घना ॥४॥ पर्याय अनंता हो, के जे एक कार्यपणें ।। वरते तेहने हो, के जिनवर गुण पभणे॥ ज्ञानादिक गुणनी हो, के वर्तना जीव प्रते॥ धर्मादिक द्रव्यने हो, के सहकारें करते ॥५॥ ग्राहक व्यापकता हो, के प्रभुतुम धर्म रमी ।। आतम अनुभवथी हो, के परिणति अन्य वमी ॥ तुझ शक्ति अनंती हो, के गातांने ध्यातां ।। मुझ शक्ति विकासन हो, के थाये गुण रमतां ॥ ६॥ इम निज गुणभोगी हो, के स्वामि भुजंग मुदा ॥ जे नित्य वंदे हो, के ते नर धन्य सदा ।। देवचंद्र प्रभुनी हो, के पुण्ये भक्ति सधे ॥ आतम अनुभवनी हो, के नित्य नित्यशक्ति वधे ॥७॥ इति ।। १४ ।। ॥ अथ पंचदश श्री ईश्वरदेवजिन स्तवनम् ॥ ॥काल अनंतानंत ॥ ए देशी ॥ सेतो ईश्वरदेव, जिणे ईश्वरता हो निज अद्भुत वरी ॥ तिरोभावनी शक्ति, आविर्भावें हो सङ प्रगट करी ॥ १ ॥ अस्तित्वादिक धर्म, निर्मल भावें हो सहुने सर्वदा ॥ नित्यत्वादि स्वभाव, ते परिणामी हो जडचेतन सदा ॥ २ ॥ कर्ता भोक्ता भाव, कारक ग्राहक हो ज्ञान चारित्रता ॥ गुणपर्याय अनंत, पाम्या For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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