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८०२ श्रीदेवचंद्रजीकृत विंशति विरहमानजिन स्तवन
--------------- बुध ॥ वीरज वीरज अनंत स्वभावनो हो जी, चारित्र क्षाविक शुद्ध ॥५॥ न० ॥ विश्रामि विश्रामि निजभावना हो जी, स्याद्वादी अप्रमाद । परमातम परमातम प्रभु देखता हो. जी, भागि भ्रांति अनाद ॥६॥ न० ॥ जिनसम जिनसम सत्ता ओलखी हो जी, तर पागभावनी इह ॥ अंतर अंतर आतमता लही हो जी, परपरिणति निरीह ॥७॥ न० ।। प्रतिछंदें प्रतिछंदें जिनराजने हो जी, करतां साधक भाव ॥ देवचंद्र देवचंद्र पद अनुभवे हो जी, शुद्धातम प्रागभाव ॥ ८॥ न० ॥ इति षोडश नमिप्रभजिन स्तवनं ।। ॥ अथ सप्तदश श्री वीरसेनजिन स्तवनम् ॥
॥ लाछलदे मात मल्हार ॥ ए देशी । वीरसेन जगदीश ताहरी परम जगीश, आज हो दीसे रे वीरजता त्रिभुवनथी घणी जी ।। १ ॥ अणहारी अशरीर, अक्षय अजय अतिधीर, आज हो अविनाशी अलेशी ध्रुव प्रभुता बणी जी ।। २ ॥ अतींद्रिय गत कोह, विगतमाय मय लोह, आज हो सोहे रे मोहे जगजनता भणी जी ॥ ३ अमर ॥ अखंड अरूप, पूर्णानंद स्वरूप. आज हो चिद्रपें दीपे थिर समता धणी जी ॥ ४ ॥ वेदरहित अकषाय, शुद्ध सिम असहाय, आज हो ध्यायके नायकने ध्येयपदें ग्रह्यो जी ॥ ५॥ दानलाभ निज भोग, शुद्धस्वगुण उपभोग, आज हो अजोगी करता भोक्ता प्रभु लह्यो जी ॥ ६ ॥ दरिसण ज्ञान चारित्र, सकल प्रदेश पवित्र, आज हो निर्मल निस्संगी अरिहा बंदीये जी ॥७॥ देवचंद्र जिनचंद्र, पूर्णानंदनो बंद, आज हो जिनवरसेवायी, चिर आनंदी ये जी ॥ ८ ॥ इति ॥
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