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श्रीदेवचंद्रजीकृत विंशति विरहमानजिन स्तवनं. ८०३
॥ अथ अष्टादश श्री सहाभद्रजिन स्तवनम् ॥
॥ तर यमुचानुं रे, अति रलीयामं रे || ए देशी ॥ महाभद्र जिनराज, राज राजविराजे हो आज तुमारडो जी ॥ क्षायिकवी अनंत, धर्म अभंगें हो तुं साहिब बडो जी ॥१॥ हूं बलिहारी रे श्री जिनवरती रे || कर्त्ता भोक्ता भाव, कारक कारणा हो तुं स्वामी छतो जी || ज्ञानानंद प्रधान सर्व वस्तुनो हो धर्म प्रकाशतो जी ॥ २ ॥ हुं० ॥ सम्यग्दर्शन मित्त, स्थिरनिर्धारे रे अविसंवादता जी || अव्यावाधि समाधि, कोश अनश्वरे रे. निज आनंदता जी ॥ ३॥ हुं || देश असंख्य प्रदेश, निजनिज रीतें रे गुण संपत्ति भर्या जी ॥ चारित्र दुर्ग अभंग, आतम शक्त हो परजय संचर्या जी ||४|| हुं० ॥ धर्ममादिक सैन्य, परिणति प्रभुता हो तुझ बल आकरो जी || तत्त्व सकल प्राग्भाव, सादि अनंती रे रीतें प्रभु धर्मे जी ॥ ५ ॥ ० ॥ द्रव्य भाव अरिलेश, सकल निवारी रे साहिब जी || सहज स्वभाव विलास, भोगी उपयोगी रे ज्ञान गुणें भय जी ॥ ६ ॥ हुं० ॥ आचारिज उवझाय, साधक मुनिवर हो देश विरत धरु जी || आतम सिद्ध अनंत कारणरूपें रे योगक्षेमंकरु जी ॥ ७ ॥ हुं० ॥ सम्यग्दृष्टि जीव आणारागी हो सह जिनराजना जी || आतम साधन काज, सेवे पदकज हो श्री महाराजना जी ॥ ८ ॥ हुं० ॥ देवचंद्र जिनचंद्र, भगतें राचो हो भवि आतम रुचि जी ॥ अव्यय अक्षय शुद्ध, संपत्ति प्रगटे हो सत्तागत शुचि जी ॥ ९ ॥ ० ॥
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