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अध्यात्मगीता.
परमात्मा आत्मिक सुख अनुभवे छे, ते सुखने तुल्य एक समय मात्र पण न आवे, एहवा स्वभाविक सुखनो आस्वादन करे छे. ॥ ३९ ॥
कर्ता कारण निज परिणामिक भाव । ज्ञाता ज्ञायक भोग्यभोग्यता शुद्ध स्वभाव। ग्राहक रक्षक व्यापक तन्मयताए लोन। पूरण आत्मधर्म प्रकासरसे लयलोन ॥४०॥
अर्थः-कर्ता कहेतां सिझनो जीव १ कार्य के० पोताना ज्ञानादि अनंतगुण संपूर्ण २ अने कारण ते स्वगुण रमणता रूप ३ सिम स्वभावे परिणम्या छे, ज्ञाता के० ज्ञाने करी ज्ञेय पदार्थ जाणे छे, भोग जे भोगववा योग्य शुद्ध स्वज्ञानादि तेहनो भोक्ता छे. ग्राहक के० परस्वरूप विभावदशानो अनादिकालनो ग्रहणपणो कर्यो छे अने स्वस्वरूपथी भिन्न पुद्गलादि वस्तु अनादिकालनी तेहना रक्षकपणानी मति निवारीने स्वस्वभाव रक्षकपणे परिणम्या अने परपरिणतिने विषे अनादिकालनो व्यापकपणो हतो ते निवारीने स्वभाव व्यापकपणे परिणम्यो तेहने विषे लीनथका वर्ते छे, तन्मयपणे पूरण के० संपूर्ण आत्मधर्मनो प्रकाश थयो ते रसेकरी लयलीन छे, साक्षात्कारे मनपणे ॥ ४० ॥
द्रव्यथी एक चेतन अलेशी । क्षेत्रथी जे असंख्य प्रदेशी॥
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