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अध्यात्मगीता.
धर्म |
काळ
उत्पाद वळी नाश शुद्ध उपयोग गुणभाव शर्म ॥४१॥
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अर्थः- द्रव्यथी के० द्रव्यथी ज्ञानादि चेतनारूप गुण सहित छे, तेमाटे सिद्ध ते द्रव्यथी के० चेतन कहीए अने कृष्णादि षट लेश्या रहित सिद्ध अलेशी छे, क्षेत्र थकी सिद्ध ते स्वक्षेत्ररूप असंख्यातप्रदेशी छे. उत्पाद के० कालयी सि
ने जाणवा देखवारूप पर्यायनो समये समये उपजवो थाय छे. जाणवा देखवारूप पूर्वपयायनो नाश थाय छे २ अने सिने ज्ञानादि अनंतगुण प्रगट्या छे ते सदाकाल ध्रुवपणे शाश्वता छे ३ अने सिने ज्ञानादि अनंतगुणरूप धर्म छे, ध्रुवपणे प्रगट्यो छे तेहने विषे उत्पाद १ व्यय २ थइ रह्यो छे. शुद्ध उपयोग के० भावथकी सिकने पोताना ज्ञानादि अनंत गुणरूप भाव प्रगट्यो छे, तद्रूप घरने विषे सदाकाल शुरू उपयोगवंत थका वर्त्ते छे, भाव सुख प्रगट्यो छे. ॥ ४१ ॥
सादि अनंत अविनाशी अप्रयासी परिणाम । उपादान गुण तेहज कारण कारज धाम ॥ शुद्ध निक्षेप चतुष्टय जुत्तो रत्तो पूर्णानंद । केवल नाणी जाणे तेहना गुणनो छंद ॥४२॥
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अर्थः-- सादि अनंत के० वळी सिद्ध कहेवा छे ? एक सिद्ध आश्री ते सादि अनंत स्थिति छे अने अनेक सिद्ध आश्री अनादि अनंत स्थिति छे अने जे सिद्धपणो निपन्यो छे तेहनो फरी विनाशपणो नयी प्रयासविना अनंतो आ
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