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अध्यात्मगीता.
तेहज आकाश प्रदेशनी समश्रेणीए वर्त्तता सिद्धि पाम्या, सिद्धि वर्या, कर्मरूप मल थकी रहित निर्मळ थया, तेवारे शुक्र ज्ञानादिआत्मस्वभावे क्षायिकभावे सदाकाळ शाश्वता रहे. सिद्ध क्षेत्रमें चरम के० छेल्ला शरीरनो त्रीजो भाग घटाडीने अवशेषे के० थाकता बे भागना शरीर प्रमाणे आत्मप्रदेशनो घन करी ते प्रमाणे अवगाहना करी सिम क्षेत्रने विषे बिराजमान थयां.आत्मप्रदेश के० आत्मप्रदेश अरूपी छे. अखंड अनंदमयी अबाह के० अबाधा के० पीडा रहित स्वक्षेवे व्याप्या छे, आत्मस्वभावमें रह्या छे ।। ३८ ॥
जिहां एक सिद्धात्म तिहां छे अनंता। अवन्ना अगंधा नहि फासमंता॥
आत्मगुण पूर्णतावंत संता। निराबाध अत्यंतसुखास्वादवंता ॥३९॥
अर्थः--जिहां एक सिझात्म के० जिहां एक सिझ परमात्मा छे, ते क्षेत्रने विषे अनंता सिद्ध भेळा मळीने रह्या छे, ते सिम कहेवा छे ? अवन्ना के० पांच वर्ण रहित, अगंधा के. बेगंध रहित, नही फासमंता के० आठ फरसरूप थकी पण रहित छे, वळी सिद्ध कहेवा छे ? आत्मगुण के० पोताना आत्माना गुण ज्ञानादि अनंतगुणनी पूर्णता छता भाव प्रगट्या छे, वळी निराबाध के• सर्व प्रकारे अबाधा पीडा थकी रहित सिद्ध छे, अत्यंत सुखास्वादवंता के० च्यारनी कायना देवताना इंद्रिय जनित पौद्गलिक जे सुख ते वणे काळनो भेळो करी अनंतगुणो वर्ग वर्गित करीये पण सिद्ध
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