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अध्यात्मगीता.
पंच लघु अक्षरे कार्य कारी । भवोपग्रहीकर्म संतति विडारी ॥३७॥
अर्थः--तेरमा गुणठाणाने विषे छेले समये योगविक मनवचन काया ए त्रण योग रंधीने सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती शुक्ल ध्याननो चीजो पायो ध्याता चउदमे गुणस्थानके चढे, तिहां प्रथम बादर मनोवाकाय रुंधे, पछे मुश्मयोग रुंधि अयोगी थयो. भाव के० स्वभावे शैलेसता के. मेरु पर्वतनी परे अकंप अडग अचळ थिरताभावे अडग थयो एवो स्वभाव अचळ थयो, पंचलघु के० चउदमे गुणस्थानके जीव, अ, इ, उ, ऋ, ल, ए पांच लघु अक्षररूप उच्चार करे एटलामा स्वसिद्ध कार्य निपजावे, भवोपग्रहिक-भवने आश्रयी जे अघातीकर्म पुद्गलनी श्रेणिअवशेष के० थाकतां रह्यां हतां ते विडारी, ध्यानाग्नि शुक्लध्यानना चोथा पायाने ध्याने करी कर्मक्षय करे तेवार पछी ॥ ३७॥
समश्रेणे एक समये पहोता जे लोकांत । अफुसमाण गति निर्मल चेतन भाव महांति॥ चरम विभाग विहीन प्रमाणे जसु अवगाह। आत्मप्रदेश अरूप अखंडानंद अवाह ॥३८॥
अर्थः--समश्रेणे करी एक समयने विषे चौदराज लोकने अंते लोकाग्रभागे अजरामर स्थानके जे क्षेत्रे अनंता सिक परमात्मा विराजमान वर्ते छे, ते सिद्धक्षेत्रे पोहता सिद्धपणे अफुसमाण के० आकाशझप क्षेत्रना प्रदेश प्रथम फरस्या छे
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