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दे० चो० बा०
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तथा तेहनी स्थापना ए बे साधक जीवने निमित्त कारण छे, पण उपादान नथी सर्वमा निमित्तता ले, ए आगम केतां सिद्धांतनी बाणी छे, जे अरिहंतने नांद्यान नथा अरिहंतनी प्रतिमाने बांदवानं फल सिद्धांतकां सर का छे, माटे समान छे ॥ इति पंचम गाथार्थः ।।५।।
साधक नोन निक्षेपा मुख्य ।। बा० ॥ जेविण भाव न लहिये रे ॥ उपगारी दुग भाग्ये भांख्या, भाववंदकनो अहिये रे ॥ भ०॥६॥
अर्थः--अने, १ नाम, २ स्थापना, ३ द्रव्य ए त्रण निक्षेपा ते भावना कारण छे. उक्तं च भाष्ये ॥ अहवा नामठवणा, दवाई भावमंगलं आए ॥ पाएण भावमंगल, परिणामनिमित्त भावाओ ॥ १ ॥ माट ए ऋण निक्षेपा साधक केतां कारण छे, ए त्रण निक्षेपा विना भावनिक्षेपो थायज नहीं, अने नाम तथा स्थापना ए बे निक्षेपा भाष्यने विषे उपगारी कया छे, ते कहे छे, जे व्यनिक्षेपो छे, ते पिंडरूप छे, माटे ग्रहवाय नहीं, अने भावनिक्षेपो तो अरूपी छे, ते आद्यना नाम तथा स्थापना के निक्षेपा विना ग्रहवाये सेवाये, नहीं. तेमाटे आदिना निक्षता ते उपकारी छे, उक्तं च ॥ वासनामं, य समा || वत्थु नाणा विहाना, होजा भाबोधिवासो । १ ॥ अन्शुरना लरकणस, ववहा गड बाजो ॥ मिहा माहिमानो, बुद्धिस्दो अकिरियाय ॥ २ ॥ इति वाचात् नाम्नःप्रधानत्वं
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