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श्री सप्तम श्रीवर जिन स्तवन.
सवला साहिब ओलगे. आतम सबलो थायरे ॥ बाधक परिणति सवि टले, साधक सिद्धि कहायरे || जग० ॥ १३ ॥
कारणथी कारज हुवे.
ए परतित अनादिरे ॥
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माहरा आतम सिद्धिना,
निमित हेतु प्रभु सादिरे ॥ जंग० ॥ १४ ॥ अविसंवादन हेतुनी,
द्रढ सेवा अभ्यासरे ॥
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देवचंद्र पद निपजे,
पूर्णानंद विलासरे || जग० ॥ १५ ॥
॥ अथ श्री सप्तम श्रीधरजिन स्तवन ॥
॥ रसीयानी देशी ॥
से
मुख मुख प्रभुन न मली शक्यो, तो सी वात कहाय, जिणंदजी ॥ निज पर वीतक वात लहो सहु, पण मने किम पतित आय ॥ जिणंदजी ॥
से
सुख० ॥१॥