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८२० श्री महो देव का अतित जिन चाविशी.
अनल बिगल पज्जतमें, तस भव आयु प्रमाणरे ॥ शुद्ध तत्त्व प्राप्ति बिना, भटक्यो नय नव ठागर ॥ जग० ॥८॥ साधिक सागर सहस दा, भोगवोयो तस भावेरे ॥ एक सहस साधिक दधी, पंचेंद्रि पद दावेरे ॥ जग० ॥९॥ पर परिणति रागीपणे, पर रस रंगे रक्तरे ॥ पर ग्राहक रक्षकपण, पर भोगे आशक्तर ॥ जग० ॥१०॥ शुद्ध स्वजाति तत्त्वने, बहुमाने तल्लीनरे ॥ ते विजातो रसता तजी, स्वस्वरूप रस पीनरे ॥ जग० ॥११॥ श्री सर्वानुभूति जिनेश्वरू, तारक लायक देवरे ॥ तुज चरणे शरणे रह्यो, टले अनादि कुटेवर ॥ जग० ॥१२॥
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