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“षष्टम श्री सर्वानुभूति जिन स्तवन.
व्यवहारे पण तिरिव गते, ईग वण खंड असन्नी रे ॥ असंख्य परावर्त्तन थयां, भमियो जीव अधन्नरे ॥ जग०॥३॥ सूक्ष्म थावर चारमें, कालह चक्र असंख्यरे ॥ जन्म मरण बहुलां कस्या, पुद्गल भोगनी कंखरे ॥ जग० ॥४॥ ओघे बादर भावमें, बादर तरु पण ईमरे ॥ पुद्गल अढी लागट वस्या, नाम निगोदे प्रेमरे ॥ जग० ॥५॥ स्थावर थूल परितमें, सीत्तर कोडाकोडिरे ॥ आयर भम्यो प्रभु नवि मिल्या, मिथ्या अविरतो जाडिरे ॥ जग० ॥६॥ विगलपणे लागट वस्यो, संखिज वास हजाररे॥ वादर पज वणस्सई, भू जल वायु मझारे ॥ जग० ॥७॥
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