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८१८ श्री महो० देव० कृत अतित जिन चोविशी.
अस्ति नास्तित्व सत्ता अनादि थको, परिणमन भावथी नहीं अजूनो ॥ धन्य०॥६॥ ईणी परे विमल जिनराजनी विमलता, ध्यान मन मंदिरे जेह ध्यावे || ध्यान पृथक्त्व सविकल्पता रंगथी, ध्यान एकत्व अविकल्प आवे ॥ ७ ॥ वीतरागी असंगी अनंगी प्रभु, नाण अप्रयास अविनाश धारी ॥ देवचंद्र शुद्ध सत्ता रसी सेवता, संपदा आत्म शोभा वधारी ॥ धन्य०॥८॥
॥ अथ षष्ठम श्री सर्वानुभूति जिन स्तवन ॥ ॥ जगजीवन जगवालो || ए देशी ॥ जग तारक प्रभु वीनवं,
विनतडी अवधाररे ॥
तुज दरशन विण हुं भम्यो, काल अनंत अपाररे ॥ जग० ॥ १ ॥ सुहम निगोद भवे वस्यो, पुद्गल परिअड अनंत रे ॥ अव्यवहारपणे भम्यो,
क्षुल्लक भव अत्यंतरे || जग० ॥ २ ॥
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