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पंचम श्री विमल जिन स्तवन.
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कार्य कारण दशा सहज उफ्गारता, शुद्ध कर्तृत्व परिणाम पूरी ॥ धन्य० ॥१॥ आत्म प्रभाव प्रतिभास कारज दशा, ज्ञान अविभागि परजय प्रवृत्ते ॥ एम गुण सर्व निज कार्य साधे प्रगट, ज्ञेय दृश्यादि कारण निमित्ते ॥ धन्य० ॥२॥ दास वहु मान भासन रमण एकता, प्रभु गुणालंबनी शुद्ध थाये ॥ बंधना हेतु रागादि तुज गुण रसी, तेह साधक अवस्था उपाये ॥धन्य तुं०॥३॥ कर्म जंजाल युंजनकरण योग जे, स्वामी भक्ति रम्या थिर समाधि ॥ दान तप शील व्रत नाथ आणा विना, थईय बाधक करे भव उपाधि ॥ धन्य०॥४॥ सकल परदेश समकाल सवि कार्यता, करण सहकार कर्तृत्व भावो ॥ द्रव्य परदेश पर्याय आगमपणे, अचल असहाय अक्रिय दावो ॥धन्य०॥५॥ उत्पति नाश ध्रुव सर्वदा सर्वनी, षट्गुणी हानिवृद्धि अन्यूनो ॥ 103
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