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८२२ श्री महो० देव० कृत अतित जिन चोविशी.
भव्य अभव्य परित्त अनंत तो, कृष्ण शुकलपक्ष धार ॥ जि०॥ आराधक विराधक रोतनो, पूछि करत निरधार ॥ जि०॥ से मुख० ॥२॥ किण काले कारण केहवे मले, थाशे मुजने हा सिद्धि ॥ जि० ॥ आतम तत्त्व रुचि निज रिद्धिनी, लहिशुं सर्व समृद्धि ॥ जि० ॥ से मुख०॥३॥ एक वचन जिन आगमनी लहो, निपाव्यां निज काम ॥ जि०॥ एटले आगम कारण संपजे, ढील थई किम आम॥ जि०॥ से ॥४॥ श्रीधर जिन नामे बहु निस्तस्या, अल्प प्रयासे हो जेह॥जि०॥ मुज सरिखो एटले कारण लहे, न तरे कहा किम तह ॥ जि०॥५॥ कारण जांगे साधे तत्त्वने, नवि समस्या उपादान ॥जि० ॥ श्री जिनराज प्रकाशा मुज प्रते, तेहनी कोण निदान॥ जि०॥से०॥६॥
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