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पंचम श्रीसुमतिजिन स्तवनं.
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क्षयोपशम पामी ये ते वीर्य पण परानुयायी थयुं, तथा कर्ता, ग्राहकता, व्यापकता, भोक्तापणुं सदा निरावरण छे, अने कार्य, ग्राह्य, व्याप्य, भोग, आवरणां छे, तेथी पुद्गलग्राह्य, पुद्गलानुयायी प्रवृत्ति ते कार्य, पुद्गलभोगपणे तेहना वर्णादिकमां व्यापक थयो, पुद्गलने ग्रहे छ, पछी जेने भोगव्यो, तेनीज होश उपजे, एटले पुद्गलनो रुचि ते फरी पुद्गलने ग्रहे, तथा भोगवे,तेयी आत्मप्रदेशे पुद्गल रहा छ, आत्मप्रदेश ते स्वगुणपर्यायनुं क्षेत्र छे, पण परपुद्गलद्रव्यनुं क्षेत्र नथी, तथा मूलवस्तुधर्म पुद्गलनो रंगी नयी, स्वधर्मना आस्वादन विना ए पुद्गलनो रंगी थयो छे, पण वस्तुरीतें विचारतां एने पुद्गलथी इयो संबंध छे ? वली आत्मा परभावनो स्वामी नथी, परभावे एनी ऐश्वर्यता कहेतां ठकुराई नथी, एटले वस्तुध कदा कहेतां कोइ वेला परवस्तुनो संगी नथी, जीवद्रव्यनो सत्ताधर्म एहवो छे, माटे माहारो सुमतिनाथ परमेश्वर शुद्धदेव, ते पुद्गलनो आधार तथा रागी केम होय ? सर्व युद्गलातीत छे ॥ ६ ॥
संग्रहे नहीं आपे नहीं परभणी,
नवि करे आदरे न पर राखे ॥ . शुद्धस्याद्वाद निजभाव भोगी जिके,
तेह परभावने केम चाखे ॥ १० ॥७॥
अर्थः--चली सुमतिनाय परमात्मा केहेवा छे ? जे परभणी कहेतां परवस्तु भणी माहारापणे संग्रहे नहीं, ते परवस्तु कोइ बीजाने आपे नहीं, परखरतुने करे नहां, परवस्तुने आदरे नहीं, परवस्तुने परिग्रह धनपणे राखे नहीं, ए शुद्रव्य
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