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दे. चो० वा.
कहे छे. तत्त्व केतां वस्तुनो मूलधर्म, स्वामित्व केहेतां तेनुं स्वामिपणुं ते परमेश्वर पणुं शुचि कहेतां पवित्र कर्म रहित निर्मल तत्त्व सिद्धतानुं धाम कहेतां घर ते निष्पन्न सिद्धावस्था तेज परमेश्वर पणुं छे, बाकी सर्वसंसारी जीव, सत्तायें परमगुणी छे, पण जेना गुण प्रगट श्रया, ते पूज्य जाणवा. माटे श्रीयशोविजयजी उपाध्याय का छे ॥ गाथा ॥ जे जे अंश रे निरुपाधिकपणुं, ते ते कहीये रे धर्म ॥ सम्यगदृष्टि रे गुगाठाणा थकी, जाव लहे शिवशर्म ॥१॥ माटे जे परम पूज्य ते सिद्ध छे ॥ ५ ॥ इति पंचम गाथार्थः ।।
जीव नवि पुग्गली नैवपुग्गल कदा, पुग्गलाधार नाहीं तास रंगी ॥ परतणो ईश नहिं अपर ऐश्वर्यता, वस्तुधर्मे कदा न परसंगी ॥ अ०॥६॥
अर्थः---हवे जीवनो जे मूल धर्म छे, ते श्रीसुमतिनाथ अरिहंतने निपज्यो छे, ते कहे छे. जे जीव नवि पुग्गली कहेतां जीव ते कोइ वारें पुद्गली नथी अनंतो काल संसारावस्थायें पुद्गलथी एकठो रह्यो, पण केवारें पुद्गलरूप थयो नहीं, तथा जीव ते पुद्गलनो आधार नथी, कारण जे क्षेत्रीद्रव्य तो आकाश छे, धर्म, अधर्म, जीव, पुद्गल, ए सर्व आकाशद्रव्य मध्ये रह्यां छे, पण जीवना प्रदेशे पुद्गलनु रहेg, ते जीवनी भावअशुफताथी थयुं छे, केम जे सर्व संसारी जीवोने भोग तथा उपभोग गुणनो सदाकाल क्षयोपशम पामी ये पण स्वभोगनी प्रगटता नथी, तेथी परभोगी थयो छे, वीर्यातरायनो
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