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साधुपद सझ्झाय.
साधक साधज्यो रे निज सत्ता इक चित्त ॥ निज गुण प्रगटपणें जे परिणमें रे एहीज आतम वित्त ॥ सा० ॥ १ ॥
* बाधः - अहो आत्म स्वरूपानुभव साधक भव्यो ! साधज्यो - नाम साधन करज्यो, साधने साध्यनी सिद्धता एषामदुक्ति: ईहां साव्यस्वस्वरूपानुभवकारिका निज सत्ता ईक चित्त - एक चित्ते नाम तदाकार वृत्तियें - तल्लयी तन्मयी तन्नयी छते आत्म सत्ता चितववी, किम ते लीखे. आत्मद्रव्यमें आत्मत्वधर्म र छे, तेमां आत्मता आत्मत्वपणें रही छे, आत्मता निज सत्ता अभेदोपचारीपणो छे, एटले आत्मता निज सत्तामें भेद नहीं एक छे एटले अनादिए सिद्धनी सत्ता असंख्यात प्रदेशात्मक तिमज संसारमें रह्यो केवली असंख्यात प्रदेशाकीन सत्ता एक सूक्ष्म निगोदीयानी आठ रुचकवर प्रदेशात्मक सत्ता एक ॥ यदुक्तं नंदि सूत्रे || सह जीवाणं पिणं अख्वरस्स अणतमो भागोनिच्चुग्घाडियो चिट्ठह्न इति सिद्धांत वचन प्रामाण्यात् ॥ सत्ता एक अखंड अबाधित ईह सिद्धांत प्रीछ जोइ एषामपिमदुक्तिपुनः स्वसत्ता इदृग्रूपा ऐवामदुक्तिः सत्तैवतत्त्वमिति सिद्धांत वचन प्रामाण्यात् ॥ * आ टबो श्रीमद् ज्ञानसारजी महाराजे लखेलो छे.
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