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श्री प्रभंजनानी सइझाय.
१०२३
ए इयो हित जाणो तुमे, एथी नवि सिद्धि लो ॥अहो एथी०॥ विषय हलाहल विष जिहां, शी अमृत बुधि लो ॥ :
अहो शी० ॥७॥ भोग संग कारमा कह्या, जिनराज सदई लो।। अहो जिन०॥ राग द्वेष रंगे वधे, भव भ्रमण सदाई टो ॥
अहो भव० ॥८॥ राज सुता कहे साच ए, जे भाखो वाणी लो ॥अहो जे०॥ पण ए मूल अनादिनी, किम जाए छंडाणी लो ॥
अहो ॥ किम० ॥ ९ ॥ जेह तजे ते धन्य छे, सेवक जिनजीना लो ॥अहो सेवक०॥ हमे जड पुद्गल रस रम्या, मोहे लयलीना लो ॥
अहो मोहे० ॥ १० ॥ अध्यातम रस पानथी, मीना मुनि राया लो।। अहो पीना०॥ वे परपरि गतिरति तजी, निज तत्त्वे समाया लो॥
अहो निज० ॥ ११ ॥ अमने पिण करवो घटे, कारण संयोगे लो ॥ अहो कारण० ॥ पण चेतनता परिणमे, जड पुद्गलना भोगे लो ॥
अहो जड़० ॥ १२ ॥ अवर कन्या पण उच्चरे, चिंतित हवे कीजे लो ॥ अहो चिं०॥ पछी परम पद साधवा, उद्यम साधिजे लो ॥
अहो उद्यम० ॥१३॥ प्रभंजना कहे हे सखी, ए कायर प्राणी लो ॥ अहो ए कायर०॥ धर्म प्रथम करवो सदा, देवचंद्रनी वाणी लो॥
- अहो देवचंद्रनी० ॥१४॥
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