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द्रव्यप्रकाश.
चेतनाको ज्ञानादि अभंगरंग जाके संग याही हे; अंतरंग बहिरंग अंग परसंग भंगि इंद्रीकी उमंग तजी जामे परछाहि हे, होय जो चेतन एसो जैसो तो सभाव तेसो तोए कर्मबंध पुंज तोकुन कहाही हे. ॥ ७३ ॥
॥आतमासक्रिय कथन ॥
|| दोहा ॥ निक्रिय लोहक्रिया लहे, अयस्कांत मणि योग; त्यु निःक्रिय सक्रिय हुवे, जीव कर्मके रोग. ॥७४॥
॥ परमात्मासरूप कथन ॥
सवेया इकतीसा ।। शुद्धबुद्ध चिदानंद निरद्वंद भी मुकुंद अफंद अमोदकंद अनादि अनंत हे, निरमल परब्रह्म पूरन परम ज्योति परम अगम अकीरिय महासंत हे; अविनासी अज परमात्मा सुजान जिन निरंजन अमलान सिद्ध भगवंत है, एसो जीव कर्मसंग संग लग्यो ज्ञानमूलि कस्तुरमृग ज्युं भुवनमे रटत हे. ॥७५॥ ॥ आत्मज्ञान लाभहेतु कथन ॥
॥ चोपाई ॥ करमकरमकी रजसो न्यारा, जे ध्याहि चेतनकि धारा; लहे नित्यपद तेह अनंत, स्यादवादयुत संत महंत. ॥७६॥
॥दोहा॥ ज्ञानदृष्टि चारित्रमय, एक शुद्ध निरदोष; स्वसरूप एकत्र भजि, करहि करमको सोष. ।।७७॥
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