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दे० चो० बा०
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पछी जेहनी जेहने कर्त्ताधर्म स्वकार्यने
सीम परपौगलिक सुखनी रुचि छे, तिहां सीम परनो कर्त्ता छे, तेहथी सर्वकारकनुं चक्र ते रूपेंज परिणमे छे, अने जे अवसरे भेदज्ञान धाराथी, आत्मा परविभंजन करीने पोतानुं आत्मस्वरूप एक उच्छरंग धर्मे जाण्युं, तेहनेज हित मान्युं, dart a आत्मिक धर्मनीज रुचि उपजे रुचि उपजे, ते तेहीज कार्य करे, तेवारें करे, सर्व कारकचक्र स्वकार्याश्रित थाय तेवारें तेहीज पोतानो अचल, अखंड, अविनाशी, निःप्रयासी स्वरूपपरिणमन रूप जे मूलस्वभाव स्वधर्म तेहने ग्रहण करे, केम जे ए कारक मूलधर्मने ग्रहे छे, तेहथी निज केतां पोताना परमात्म, पूर्णब्रह्म, पूर्णानंद पदनेवरे, पामे, कृतकृत्य, अक्रिय, अकंप, अनंत, चिच्छक्ति, अरूपी, अव्याबाधसुखी, एहीज आत्मा थाय ॥ इति ॥ ५ ॥
कारण कारजरूप, अछे कारक दशा रे ॥ अ० ॥ वस्तु प्रगट पर्याय, एह मनमें वस्या रे ॥ ए० ॥ पण शुद्धस्वरूप ध्यान, चेतनता ग्रहे रे ॥ ते० ॥ तव निजसाधक भाव, संकल कारक लहे रे ॥ स०॥६॥
अर्थः- एछ कारक ते कारण तथा कार्यरूप छे, कार्यने निपजावत्रा रूप छे, माटे कारणनाज भेद छे, सर्वकार्य कर्त्ताने आधीन छे, कर्त्ता जे कार्य करे, ते कारणादि विना थाय नहीं, माटे वस्तु केतां आत्म पदार्थ, तेहनां ए छ कारक ते प्रगट निरावरण पर्याय छे, एम मनमां वस्युं जे कर्त्तापणुं तेने आवरण नथी, कर्त्तापणुं विशेष स्वभाव छे, अने विशेष
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