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एकोनविंशति श्री मल्लिनाथजिन स्तवनं. ७३९
वेतमें केतां समवाय संबंधमां छे, एटले आत्मा आत्मभावनो कर्ता छे, ए समवायसंबं मूलपणे सादि अनंता कालपर्यंत निजखेतमें केतां पोताना असंख्याता प्रदेशरूप क्षेत्रमध्ये आत्मधर्ममां निष्पन्न सिद्धतापणे रहे, सिद्धिनी आदि छे, परंतु अंत नथी, माटे सादि अनंतो काल स्वक्षेत्र स्वस्वरूपमा आत्मा रहे ॥ ४ ॥ इति चतुर्थ गाथार्थः परकर्तृव स्वभाव, करे तां लगे करे रे ॥ क० ॥ शुद्ध कार्थ रुचि भास, थये नवि आदरे रे ॥थ०॥ शुद्धात्म निज कार्य, रुचे कारक फिरे रे ॥रु०॥ तेहिज मूल स्वभाव, ग्रहे निज पढ़ वर २ ॥१०॥५॥
अर्थः-पर केतां जे भावकर्म, द्रव्यकर्म अने नोकर्म, तेहने कापणाने स्वभावें करे, तिहां सीम तेहनेज करे, एटले ए परकर्त्तापणं अनादिकालथी करे छे, जिहां सुधी परनो रागी, परनो भोगी, तिहां सुधि परकर्त्तापणुं ए आत्मा करे, पण जेवारे शुद्ध, निर्मल, निरावरण, स्वगुण प्रगट करवा रूप, कार्यनी रुचि थाय, तेवार परकर्त्तापणुं आदरे नहीं, शुफ आत्मस्वरूप, स्याद्वाद रीतें परमानंदपणे भासन तथा रुचि तेहीज कारक पलटाववानां बीज छे, ते माटे जे सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, ते मोक्षनुं मूल छे, शुद्धात्मअनंतज्ञान, दर्शन, अव्याबाध सुखमयी, अरूपी, सहजानंदरूप आत्मधर्म सत्ताप्राग्भाव, सकल परभावव्यतिरेकी, अरागी, अद्वेषी, असंगी, अयोगी, अलेशी, अकषायी, असहायी, एहयुं शुद्धानंदरूप स्वकार्य, तेहनी रुचि थये थके कारक चक्र फिरे, जिहां
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