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तृतीय श्रीसंभवजिन स्तवनं.
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राजा छे, एहवा तत्त्वप्रकाशक अरिहंतने पूजो, वारंवार पूजो, भविक केतां मोक्ष योग्य मोक्षरुचि जीव, तमे पूजो, ए स्वरूप-. भोगी, निर्मलानंदमयी, अज, अविनाशी, अक्षय, अणाहारी, अशरीरी, अनंतज्ञानमयी, अनंतदर्शनमयी, शुद्धस्वरूपी, देवतवने पूज्यां परमानंद थाय. जे पुद्गलयोगथी सुख उपजे, ते उपचारसुख माटे ते परमानंद नहीं, अने जे आत्मानुं सहज अविनाशी, अप्रयासी, स्वरूपनुं सुख अव्याबाधरूप तेने परमानंद कही यें, ते सुख, अरिहंत देवने पूज्यां पामी जें. यद्यपि अरिहंत देव, कोइ अन्य जीवना अव्याबाधादि गुणना कर्ता नथी, पण जे भव्यजीव, पोतानुं शुद्धपारिणामिक परमसिद्धता स्वरूप साध्य करीने वीतराग परमात्माने सेवे, अवलंबे, ते नियमा पोतानुं तत्त्व प्रगट करे, नियामिक कारण माटे, एहथी स्वरूप प्रगट थाय एमज धारवू ॥ १ ॥इति प्रथम गाथार्थः॥
अविसंवाद निमित्त छो रे, जगत जंतु सुखकाज ॥ जि०॥ हेतु सत्य बहुमानथी रे, जिन सेव्यां शिवराज ॥ जि०॥२॥
अर्थः-वली हे प्रभुजी ! तमें अविसंवादि केतां विसंवाद जे निर्धार नहीं ते, अने तमें निश्चय निर्धार कार्यने करो, माटे अविसंवादनिमित्त कारण छो ॥ निमित्त लक्षणं ॥ कार्यमिन्नत्वे सति कर्तृत्वव्यापारवत्त्वे सति हेतुर्निमित्तमिति ॥ माटे हे प्रभु ! तुमें जगत्ना जीव तेना आत्मिक सुखरूप कार्य निपजाववाने प्रधान निमित्त छोजी, माटे हेतु केहेतां कारण ते.
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