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दे० चो० बा०
पकपणे रह्यो जे सम्यक् ज्ञान, सम्यक दर्शन, सम्यक् चारिवरूप भावधर्म तेना दातार छो. एटले हे प्रभु ! तुम दीठां भावधर्म सांभरे, तमे भावधर्मना उपदेशक छो, सर्व जीवने भावधर्मना दातार छो ॥१०॥ इति श्री अजितजिनस्तवनम् ॥
॥अथ तृतीय श्रीसंभवजिन स्तवन प्रारंभः॥
॥धणरा ढोला ॥ ए देशी ॥ श्रीसंभव जिनराजजी रे, ताहरूं अकल स्वरूप ॥ जिन स्वपरप्रकाशक दिनमणि रे, समतारसनो भूप ॥जि०॥१॥ पूजो पूजो रे भविकजिन पूजो, हारे प्रभु पूज्यां परमानंद ॥ जि०॥
अर्थः--हवे श्रीसंभवनाथ जिन कहेतां श्रुतकेवली, अवविज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी प्रमुखमांहे राजा समान, एवा हे संभव प्रभु ! ताहरूं कहेतां तमारुं अकल कहेतां कोइयी कलाय नहीं एहवं स्वरूप छे, एहवा जिनवरने पूजो. अहो भव्यो! तमे एहवा परम पूज्य परमेश्वरने पूजो; वली प्रभु केहवा छे ? . जे स्व केतां पोतानो धर्म अने पर केतां धर्मास्तिकायादिकनो धर्म, तेने प्रकाशवाने दिनमणि केहेतां सूर्य जेवा छे, तथा समता जे सर्वने विषे राग द्वेष रहीतपणं, तेहना भुप केतां
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