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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दे० चो० बा० पकपणे रह्यो जे सम्यक् ज्ञान, सम्यक दर्शन, सम्यक् चारिवरूप भावधर्म तेना दातार छो. एटले हे प्रभु ! तुम दीठां भावधर्म सांभरे, तमे भावधर्मना उपदेशक छो, सर्व जीवने भावधर्मना दातार छो ॥१०॥ इति श्री अजितजिनस्तवनम् ॥ ॥अथ तृतीय श्रीसंभवजिन स्तवन प्रारंभः॥ ॥धणरा ढोला ॥ ए देशी ॥ श्रीसंभव जिनराजजी रे, ताहरूं अकल स्वरूप ॥ जिन स्वपरप्रकाशक दिनमणि रे, समतारसनो भूप ॥जि०॥१॥ पूजो पूजो रे भविकजिन पूजो, हारे प्रभु पूज्यां परमानंद ॥ जि०॥ अर्थः--हवे श्रीसंभवनाथ जिन कहेतां श्रुतकेवली, अवविज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी प्रमुखमांहे राजा समान, एवा हे संभव प्रभु ! ताहरूं कहेतां तमारुं अकल कहेतां कोइयी कलाय नहीं एहवं स्वरूप छे, एहवा जिनवरने पूजो. अहो भव्यो! तमे एहवा परम पूज्य परमेश्वरने पूजो; वली प्रभु केहवा छे ? . जे स्व केतां पोतानो धर्म अने पर केतां धर्मास्तिकायादिकनो धर्म, तेने प्रकाशवाने दिनमणि केहेतां सूर्य जेवा छे, तथा समता जे सर्वने विषे राग द्वेष रहीतपणं, तेहना भुप केतां For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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