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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सप्तदश श्रीकुंथुजिन स्तवनं. जे श्रोता तेहनो जेहवो अवसर होये, तथा श्रोतानो जेहवो बोध केतां जाणपणं होये, तेहवो वचनमां अर्पित करीने उपदेशे, एटले ज्ञान तो सर्वने एक समयमां जाणे छे, परंतु उपदेशकाले केवली भगवान् जेहवा श्रोता होय, तेटलो कहे, तेथी केहेवामां अर्पित नय आगल करवानो काम पडे छे, ते अर्पित तथा अनर्पितनुं स्वरूप तत्त्वार्थमां का छे, “अनेक धर्माच धर्मीतवप्रयोजनवशात्कदाचित् कश्चिद्धर्मोवचनेनार्पिते विवक्षिते तत्अर्पिते संन्नपि वचनविवक्षिते प्रयोजनाभावात् तत् अनर्पितं इति " जे धर्मीपदार्थ, तेहना अनेक धर्म छे, तेहने विषे अवसरे जे धर्म, कहेवानुं प्रयोजन उपजे, ते अवसरे ते धर्मने वचनने विषे अर्पित करीएं, विवक्षा करीने ग्रहियें, ते अर्पित जाणवो, अने जे धर्म सत् केतां छतो छे तो पण प्रयोजन विना तेने गवेषे नहीं, श्रद्धामां अपेक्षामा छे ते अनर्पित कहिये, छद्मस्थy ज्ञान, तथा बोलबो. ते अर्पित अनपित बे मल्याज शुद्ध थाये, अने केवलीनुं ज्ञान तो सर्व एक समय छे, परंतु वचन ते अर्पित अनर्पित मल्या शुद्ध छे ॥ इति पंचम गाथार्थः ॥ ५॥ शेष अनर्पित धर्मने रे, सापेक्ष श्रद्धा बोध ॥ उभय रहित भासन होवे रे, .. प्रगटे केवल बोधो रे ॥ कुं० ॥६॥ अर्थः-जे वचन बोलवाथी शेष रह्या, ते अनर्पित धर्म रह्या, तेहने सापेक्ष श्रझा, समयक्सहहणा, राखवी, बोधज्ञान पण राखवं ए छद्मस्थ समकिती, देशविरति, क्षीणमोहिपर्यंत 90 For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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