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दे० चो० बा०
सिद्धपणं संपूर्ण निष्पन्ननिरावरणतापं कहे. वली कुंथुनाथजीनी देशनामां वचन जे बोलाय ते, अनंता गौणधर्म राखीने जे वचनमां ग्राह्य ते धर्मने मुख्य करी कहे, एटले एक वस्तुमां अनंता धर्म एकसमयमां परिणमे छे, ते सर्व एकसमयमा जाणे, परंतु वचनेकरी जे धर्म मुख्य करी कहेवाय तेने मुख्य करी कहे, बीजा सर्व ज्ञानमां गौणपणे जाणे, एम वचनमां गौणपं तथा मुख्यपणं छे, पण श्रीकुंथुनाथ स्वामीनुं केवल ज्ञान ते सकल ज्ञेयने जाणवे करी समृद्धिमान् छे, एटले ज्ञानमां एक हमणा जाणे बीजा पछी जाणशे एम नयी, सर्व भावने ते समज जाणे छे, तेथी ज्ञानमां गौणता मुख्यता नयी, अने वचननुं धर्मक्रम प्रवर्त्तन छे, ते एक कह्या पछी बीजो कहेवाय, माटे वचनमां गौणता अने मुख्यता छे । इति चतुर्थ गाथार्थः ४ ॥
वस्तु अनंत स्वभाव छे रे,
अनंत कथक तसु नाम ॥ ग्राहक अवसर बोधथी रे, कहेवे अर्पित कामो रे ॥ कुं० ॥ ५ ॥
अर्थः-- वस्तु जे जीवादिद्रव्य ते अनंतस्वभावमयी छे, सर्व वस्तु अनंतता युक्त छे, तथा वस्तुनो जीव अथवा पुद्गल एहबुं जे नाम छे, ते पण अनंतताने कहेतो छे, एटले जीव एवो शब्द उच्चार करतां जीवना अनंता धर्म छे, ते सर्व बोलाणा एम सर्व स्थानके समजवो माटे जे वस्तुनुं नाम ते ते वस्तुना सर्व धर्मनो ग्राहक छे, तेथीज नामनिक्षेपामां संग्रह तथा व्यवहार एबेहु नय मुख्य छे, अने नैगम कारण छे, ए रीत छे, परंतु ग्राहक
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