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दे० चो० बा०
एम जाणवू अने उभय केतां ए अर्पित अनर्पित बेहुयी रहित जे भासन होवे ते बोध केतां केवलीनुं ज्ञान ते सर्वनो ज्ञायक समकाले छे, तेथी तेहमां आर्पित अनर्पितपणुं नथी, वचनमां अर्पितानर्पित छे, परंतु जाणवामां नयी ॥इति॥६॥
छति परिणति गुणवतना रे, भासन भोग आणंद ॥ समकाले प्रभु ताहरे रे, रम्यरमण गुणवृंदो रे ॥ कुं० ॥ ७ ॥
अर्थः--वली हे प्रभुजी तमारामां ज्ञाननी, दर्शननी, चारित्रनी, वीर्यनी, सुखनी अरूपतानी, इत्यादिक अनंता तमारा गुणरूप धर्म, तेहनी छती छे, तेमज अनंत पर्यायनी पण छती छे, ते स्वद्रव्यादिकपणे सदा सर्वदा छती छे, तेम स्वभाव गुणपर्यायनी परिणति परिणामिकता द्रव्यने विषे परिणमवं, ते उत्पाद, व्यय, ध्रुवपणे तथा षट्गुण हानि वृद्धिपणे परिणमे छे, तथा तेहिज ज्ञानादि गुणपर्यायनी वर्तना, ते जे स्वस्वकार्यनो करवापणुं ते ज्ञाने जाणे, दर्शने देखे, चारित्रे रमे, कापणाथी करे, भोक्तापणाथी भोगवे, एम सर्वगुण पोतपोतानी वर्तनाए वर्त्तता पोतपोताना कार्यने करे छे ते वतना जाणवी, ए सर्व हे प्रभुजी तमारामां छे अने ते सर्वगुणपर्यायनुं भासन केतां जाणवू ते तमारामां छे. ते सर्वगुणने भोगवो छो ते अनन्तागुणना भोगनो आनंद हे प्रभुजी तमारामां छे, एटले अनंतगुणपर्यायनी छति परिणति अने वर्त्तना तथा भासन भोग अने आनंद ते समकालें केतां एक समयमा ए सर्व परिणमन छे, माटे एहवा अनंता परमानंदना भोगी छो, महा
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