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एकोनविंशति श्री मल्लिनाथजिन स्तवनं.
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अर्थः-१ पहेलु कर्ता नामा कारक कहे छे. तिहां का आत्मा द्रव्य ते आत्मशुद्धता निपजाववा रूप कार्ये प्रवर्तन पाम्यु, पोतानुं कर्ता छे.
३ जे आत्मा पोतानी सिद्धता सर्वगुण पूर्णता सर्वस्वभाव स्वरूपास्थानता ते कार्यनामा बीजुं कारक जाणवू, ते कार्य परिणतिचक्रने प्रवर्त्तवा रूप क्रियायें नीपजे, ते क्रियानुं प्रवविवू ते कार्य ते कार्यने कारकता, नीपजाववा कालेज छे, नीपना पछी कार्यमां कारकता नथी, उक्तं च भाष्ये ॥ तस्मात् बुद्धयद्धयावसितं कार्य अप्यात्मकारणमेष्टव्यं इति॥
३ उपादानपरिणाम आत्मा स्वगुणनी परिणति, सम्यम्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप रत्नत्रयीनी जे परिणति, तत्त्वनिर्धार, तत्त्वरुचि, तत्त्वज्ञान, तत्त्वरमणादिक रूप स्वगुण अहिंसकता बंधहेतु अपरिणमन · रूप, स्वरूप यथार्थभासनरूप, परभाव अग्रहणरूप, परमार तारूप, स्वरूपग्रहण, स्वरूप भोगी, परभाव अरक्षणरूप, जाप एकत्वरूप तत्त्वाराधन, चेतनास्वरूप प्रगटतानुयायी बीर्य, ते उपादान कारण अने द्रव्ययोग समारखा रूप अरिहंतालंबनादि, यथार्थ आगमश्रवणादि ते निमित्त कारण तेहनुं प्रयुजq आत्मकार्य करवा पणे आत्मानो प्रयोग करवो, ए उत्कृष्ट कारण माटे करणनामा त्रीजु कारक जाणवू, " साधकतमं कारणं करणं " इति वाक्यात् आत्मसिद्धिरूप कार्यर्नु उत्कृष्ट कारण अने आत्मशक्तिस्वरूपानुयायी तथा शुद्धदेव प्रमुख ते करण नामा कारक कहिये.
४ आत्मानी संपदा जे ज्ञानपर्याय, दर्शनपर्याय, चारिअपर्याय, तेहनुं दान आत्माने आत्मगुण प्रगट करवारूप देवू,
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