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दे० चो० बा० जना व्यापक पोताना ज्ञायकादिक गुण, तेनी प्रवृति सहित जे ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्यादिक गुण, अन्वयी गुण कहिये, तेहीज ऋद्धि कहेतां संपदा तेहना समह छो, अने कषायादि दोषने टलवे करी जे अकषायादिक गुण उपना, ते व्यतिरेक गुण कहिये, तथा सति सद्भावो एटले जे छते पामिये, ते अन्वयी गुण कहिये, तेहना समह छो. वली वर्ण, गंध, रस, फरस, ते पुद्गलधर्म छे, तेथी तमें रहित छो, अने निज कहेतां पोतानो जे स्वरूपधर्म, तेहना भोक्ता छो, गुणना व्यूह कहेतां समूह छो ॥ ३ ॥ इति ॥
अक्षय दान आचिंतना, लाभ अयत्ने भोग हो ॥ जिन०॥ वीर्य शक्ति अप्रयासता, शुद्ध स्वगुण उपभोग हो॥जि०॥श्री०॥४॥
अर्थः--वली हे प्रभुजी ! तमारा अनंता गुणनी प्रवृत्ति केवी रीतें छे ? ते कहे छे. वीर्यगुण ते सर्वगुणने सहकार दिये छे, तेम ज्ञान गुणना उपयोग विना वीर्य फूरी शके नहीं, तेथी वीर्यने सहाय ज्ञानगुणनुं छे, तथा ज्ञानमां रमण ते चारित्रनुं सहाय छे, अने पररमण न करे, ते चारित्रने ज्ञान, सहाय छे. गुम एक गुणने अनंत गुणनुं सहाय छे. हवे जे गुण सहाय दिये छे, ते तो आत्माना गुणमां दानधर्म छे, एम हे ममुजी : तम प्रतिसमय अनंल स्वगुणसहायरूप दान ते अनंत यो छो, पणा केवारे क्षय पामो नहीं. वीजा जगत्मां दानना आपनार केटले काले श्रद जाय अने
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