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सप्तम श्री सुपार्श्वजिन स्तवनं. ६११ धर्म नथी, माटे कोईना तमें रक्षक नथी, पण शरण त्राण आधाररूप छो, मोक्षना हेतु छो, तेथी नाथ छो. वली द्रव्य जे धन, कंचन, परिजन, गण, मंदिरादि, सर्व परिग्रह रहित छो, तो पण ज्ञानादि स्वगुण पर्यायरूप अनंतुं धन, श्रीप्रभुनी पासे छे, माटे धनवंत छो, बली हे प्रभु ! तमारे विषे कर्ता पद, कहेतां कर्त्तापणुं छे, पण गमन परिसर्पणादिक क्रिया विना कर्त्ता छो, एटले बीजाने कर्त्तापणुं ते क्रियाथकी होय छे, अने तमे तो अक्रिय छतां गमन परिसर्पणादिक क्रिया विना' पण कर्त्ता छो. मुक्तआत्मानिःक्रिय. एम तत्त्वार्थटीकामां कडं छे. वली हे प्रभुजी ! तमें संत छो, उत्तम छो, तप्तपरिणाम रहित छो, अजेय कहेतां रागद्वेष परीसह वैरीएं करी अजेय छो, वली कोई काले विणसो नहीं, माटे अनंत छो, अथवा अनंतपर्याय माटे अनंत छो ॥२॥ इति द्वितीय गाथार्थः॥
अगम अगोचर अमर तुं, अन्वय ऋद्धि समूह हो ॥ जि०॥ वर्ण गंध रस फरस विणु, निजभोक्ता गुणव्यूह हो ॥ जि० ॥३॥
अर्थः-वली हे प्रभु ! तमारुं स्वरूप तुच्छ ज्ञानी जाणी शके नहीं, माटे अगम छो. वली हे प्रभु ! तमें इंद्रियगोचर छो. वली आयुःकर्मना क्षयथकी प्राणवियोग थाय, तेने मरण कहिये, ते तमें प्राण तथा मरण रहित छो, माटे हे प्रभु ! तमें अमर छो, वली हे प्रभु ! तमें अन्वय कहेतां जे सह
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