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सप्तम श्री सुपार्श्वजिन स्तवनं. तमें सादि अनंत काल स्वाधीन पणे . स्वगुणरूप पात्रने अनंतुं दान अक्षयपणे द्यो छो, पण केवारें क्षीण न थाओ माटे अक्षय थका दान आपो छो. एहवो दानगुण तमारे विषे छे, अने जे गुणनी सहायरूप शक्तिनी प्राप्ति, ते लाभ छे, बीजाने जे चिंतवे, ते लाभ थाय ते पण निधीर नहीं, अने हे प्रभुजी ! तमारे विष चित्तना विकल्परूप जे लाभार्थीपणुं ते नथी, तोपण लाभ अनंतो छे, माटे अणचिंत्या लाभना धणी छो, एहवो लाभगुण छे. वली हे प्रभुजी! तमें पोताना पर्यायने प्रतिसमयें भोगवो छो, पण प्रयास विना भोगवो छो, माटे तमें यत्नविना प्रयत्नविना भोगमयी छो, जीवना सर्व गुणनी जे प्रवृत्ति तेनुं सहाय जे वीर्य, ते अनंतुं अन्यसहाय विना फुरी रह्यं छे, पण ते वीर्यनी फुरणा, विना प्रयासें एटले उद्यम विना वीर्य फुरे छ, वली शुद्ध स्वगुण केतां स्वाभाविक जे स्वगुण तेहनो उपभोग छे, ए पांच अंतरायनी प्रकृतिना क्षय थयाथी पांच गुण प्रगट्या छ, एटले हे प्रमुजी ! तमने स्वरूपनुं दान, स्वरूपनो लाभ, स्वपर्यायनो भोग, स्वगुणनो उपभोग, स्वसर्वपरिणति सहकार शक्ति, ते वीर्य, ए रीतें धर्म प्रगट थया छे ॥४॥इति॥
एकांतिक आत्यंतिको, सहज अकृत स्वाधीन हो ॥ जि०॥ निरुपचरित निद्व सुख,
अन्य अहेतुक पीन हो ॥ जि० ॥श्री०॥५॥
अर्थः-वली हे प्रभुजी ! तमने जे सुख प्रगट्यां छे, ते सुख केहवां छे ? जे एकांतिक केतां एकलं सुख, जे
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